नैनीताल के चाफी नामक स्थान में उगाई जा रही है खतरनाक खरपबार यूरोपियन ब्लैक बेरी लैंटाना जैसी हमलावर प्रजाति है ब्लैक बेरी, आस्ट्रेलिया को भी इस झाड़ी ने कर रखा है परेशान
अरविंद शेखर
पूरा देश लैंटाना, गाजर घास जैसी जंगल की दुश्मन झाडि़यों से पहले से परेशान है, पर इन सभी चिंताओं को दरकिनार कर निर्यात और किसानों की आय बढ़ाने के ख्वाब के साथ उत्तराखंड में जंगल के एक नए परदेसी दुश्मन को न्योता दे दिया गया है। स्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इंडस्टि्रयल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड (सिडकुल) के पीपीपी मोड में चलने वाले एक फ्लोरिकल्चर पार्क में यूरोपियन ब्लैक बेरी को उगाया जा रहा है। लैंटाना की तरह की इस हमलावर प्रजाति की व्यावसायिक खेती की तैयारी चल रही है। योजना 200 से 400 स्थानीय किसानों को ब्लैक बेरी की पौध वितरित करने की है, ताकि वे यूरोपियन ब्लैक बेरी के पौधे अपने खेतों की मेढ़ों में उगा सकें। यूरोपियन ब्लैक बेरी ऐसी हमलावर विदेशी प्रजाति है जिसके प्रकोप से आस्ट्रेलिया जैसा देश परेशान है और इससे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चला रहा है। 1835 के आस-पास आस्ट्रेलिया पहुंची ब्लैक बेरी वहां के 88 लाख हेक्टेयर क्षेत्र यानी तस्मानिया से भी बड़े क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित कर चुकी है। यह वहां की स्थानीय प्रजातियों का सफाया कर चुकी है। इसकी वजह से जंगलों के पेड़ कमजोर हो गए और उनसे मिलने वाली लकड़ी कम हो गई। 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक आस्ट्रेलिया को जहां ब्लैकबेरी से छह लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर का लाभ होता था, वहीं इसके मैनेजमैंट पर 421 लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च हो जाते थे। 70 के दशक में ही आस्ट्रेलिया जैविक तरीकों से इसकी रोकथाम के उपाय खोज सका, मगर वे भी आज तक बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं। दून स्थित वन अनुसंधान संस्थान एफआरआई के वनस्पति प्रभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नौटियाल का कहना है कि यूरोपियन ब्लैक बेरी दो डिग्री से 30 डिग्री तापमान पर ही होती है। ठंडे पहाड़ी इलाके इसके लिए बहुत मुफीद हैं। ऐसे में यह पर्वतीय वनस्पति तंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। मजेदार बात यह है कि नैनीताल जिले में मुक्तेश्वर के पास चाफी नामक स्थान पर इंडो-डच संयुक्त प्रोजेक्ट के फ्लोरिकल्चर पार्क के निदेशक एवं कृषि विशेषज्ञ सुधीर चड्ढा बताते हैं कि प्रदेश में यूरोपियन ब्लैक बेरी उत्पादन की व्यापक संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में ब्लैकबेरी यूरोप से दो माह पहले उगाई जा सकती है। ब्लैकबेरी को उत्तराखंड में उन दिनों उगाया जा सकता है, जब यूरोप में भारी बर्फबारी होती है। उस अवधि में ब्लैकबेरी फ्रीज करके यूरोपवासियों को निर्यात की जा सकती है। किसान भी इसे उगाकर अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं।
“यह लैंटाना, गाजर घास की तरह विदेशी हमलावर प्रजाति है। इसलिए इसे कड़े नियंत्रण में ही उगाया जाना चाहिए। अगर इसे अनियंत्रित तरीके से उगाया गया तो यह भविष्य में बड़ी समस्या बन सकती है।’’ - डॉ. प्रफुल्ल सोनी (प्रमुख, पर्यावरण एवं पारिस्थिकीय तंत्र प्रभाग, एफआरआई
दूनघाटी पर परदेसी वनस्पतियों का कब्जा
37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की ,जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 फीसदी वेस्टइंडीज से आई किस्में
इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर , लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया, गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है
प्रदेश की राजधानी देहरादून के जंगलों पर परदेसी हमलावरों ने कब्जा जमा लिया है। जी हां, दून घाटी के जंगलों पर अब विदेशी वनस्पति प्रजातियों का कब्जा है। यह परिणाम है दून स्थित देश के जाने माने संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के।
वाडिया इंस्टीटूयूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी के इस अध्ययन के मुताबिक दून घाटी में 308 विदेशी पेड़ प्रजातियों और 128 परदेसी झाड़ियों और खरपतवारों का कब्जा है। रोचक तथ्य यह है कि इसमें से 37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की है जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 वेस्टइंडीज से आई किस्में हैं। इटली के टोरिनो विश्वविद्यालय से पर्वतीय पर्यावरण और जलवायु जैव विविधता में स्नातकोत्तर कोर्स करने वाले देश के पहले वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी का कहना है कि परदेसी प्रजातियों ने भले ही खुद को दून घाटी के वातावरण के अनुरूप ढाल लिया हो मगर ये स्थानीय प्रजातियों के लिए कतई ठीक नहींक्योंकि लैंटाना, गाजर घास, पॉपुलर, यूकिलिप्टस जैसी हमलावर ये प्रजातियां दून घाटी के जंगलों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ रही है। इतना ही नहीं, इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया है। गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर ग्रीन इंडिया में जंगलों की हमलावर परदेसी प्रजातियों के नियंत्रण और उन्मूलन पर खास ध्यान दिया गया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भी पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में इसके लिए 30 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन अब जब राज्य मिशन फॉर ग्रीन इंडिया के तहत अपने राज्य का एक्शन प्लान बनाएगा तब उसे इन हमलावर विदेशी प्रजातियों के विस्तार को रोकने और उनका उन्मूलन करने पर विशेष ध्यान देना होगा, नहीं तो जैव विविधता के सभी प्रयास बेकार हो जाएंगे। डॉ. नेगी का कहना है कि वन व उद्यान विभाग को दून घाटी में फैल रही इन विदेशी हमलावर प्रजातियों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा और उनके उन्मूलन के लिए एक्शन प्लान बनाना होगा। अन्यथा एक दिन दून घाटी की स्थानीय जैव विविधता खत्म हो जाएगी।