Monday, February 14, 2011

I am a painter, I want to become an artist

 

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Saturday, February 12, 2011

मगर आवाज बुलन्द



समाचार हैं कि कर्ज के बोझ से दबे और खराब फसल की मार को झेल रहे एक गांव के 25 किसानों ने सामूहिक आत्महत्या की। नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद सुदूर अपने पहाड़ी गांव की ओर लौटते पांच नव युवक दुघर््ाटना के शिकार हुए- तीन ने घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया बाकी दो की हालत भी गम्भीर है। ये समाचार हैं जो अखबार और इलेक्टानिक्स माध्यम में कितने ही दोहरावों के साथ बार-बार सुनने पड़ रहे हैं। इनकी अनुगूंज बेहद निर्मम तरह से समाज को असंवेदनशील बनाती जा रही है। ऐसी ही न जाने कितनी ही खबरें हैं जिनको सुनते हुए सिर्फ उनके घटित होने की सूचनाएं सूचनाक्रांति के नाम पर तुरत-फुरत में पूरी दुनिया तक फैल जा रही हैं। उनके विस्तार करते जाने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि किसी एक घटना को पूरी तरह से जानने से पहले ही किसी प्रतियोगी परीक्षा का पर्चा हाथ में आ चुका होता है और सवालों के जवाब दे रहा विद्यार्थी चकर खा जाता है कि पूछे गए प्रश्न में वह किस घटना पर टिक लगाए जबकि सारे के सारे उत्तर उसे एक से ही दिख रहे हैं। किसी भी घटना को घटना भर रहने देने की चालाकियों वाला तंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हल्ला भी जो सबसे ज्यादा पीट रहा है, घटना के अगल-बगल की जगहों तक भी झांकने की छूट नहीं देना चाहता है। अगल-बगल की जिस जगह को छुपाने की कोशिशें जारी हैं, कविता उन जगहों का उदघाटित करने का एक कलात्मक औजार हैं- पाठक के सामने स्पेश क्रियेट करता कोई भी वाक्य इसीलिए एक सुन्दर कविता हो जाता है। यानी यथार्थ के विभ्रम को तोड़ने वाला औजार। लेकिन सिर्फ कला ही कला हो तो विभ्रम के और गहरे होने की आशंका अपने आप पैदा हो जाती है। नागार्जुन की कविताओं का कलात्मक सौन्दर्य उस परिभाषा के भीतर है जो पर्याप्त रूप से पाठक को किसी भी घटना के आर-पार देखने का मौका देता है। रोजमर्रा की घटती घटनाओं को काव्यात्मक रूप से दर्ज करते हुए वे ऐतिहासिक साक्ष्यों के रूप में भी एक धरोहर हैं। यह इतिफाक नहीं कि किसी एक कविता को उर्द्वत कर इस बात को पुष्ट किया जाये। नागार्जुन के यहां तो कविता का मतलब ही किसी समय विशेष के बीच उनकी उपस्थिति है। उनकी कविताओं में वे खबरें ही उस काव्य संवेदना का विस्तार करती हैं जिसे हल्ला मचाऊ तरह से लगातार दोहराते हुए यह सूचना तंत्र सामाजिक असंवेदनशीलता का ताना बाना बुन रहा है। नागार्जुन की कविताएं न सिर्फ हालात से परिचित कराती हैं बल्कि उनके पीछे के सत्य को भी उदघाटित करती हैं। उनका मनोविज्ञान कोई पीपली लाइव नहीं बल्कि बदलती सामाजिक संरचना के पर्तों को भी उतार रहा होता है। उनकी आवाज में आजादी के लगभग 60 साला गान को सुनना एक जरूरी चेतावनी भी है। वे उस तराने के उस छदृम का खिचड़ी विपल्व हैं जो एमरजेंसी के रू में प्रकट हुआ है। प्रतिरोध की बहुत बहुत कोशिशों के साथ-साथ वे वास्तविक जनतंत्र के लिए लगातार जारी एक सचेत प्रयास हैं। वे स्वंय कहते हैं-
अपने खेत में हल चला रहा हूं
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएं ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
नागार्जुन की रचनाओं पर बात करते हुए क्या समकालीन कविताओं का विश्लेषण किया जा सकता है ? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के वे सभी चित्र जिनकी उपस्थिति से नागार्जुन की कविता कुछ विशिष्ट हो जाती है, समकालीन कविता में भी मौजूद हैं पर उनका चौकाऊपन अखरने वाला है। भय, आशंका, खुशी और जीवन के दूसरे राग-रंग जिन्हें बहुत ही सतही तरह से बयान होते हुए अखबारी खबरों में भी देखा जा सकता है, समकालीन कविता के भी केन्द्र में हैं। बेशक समकालीन कविताओं ने अपने को अखबारूपन वाली असंवेदनशीलता से बचाय रखा है लेकिन एक शालीन किस्म की संवेदनशीलता उसे नीरस बना रही है। नागार्जुन की कविताओं ने उस शालीन किस्म की संवेदनशीलता से भरी चुप्पी से अपने को अलग रखा है। अमानवीयपन की मुखालफत में गुस्से का इजहार करते हुए भी समकालीन कविता का परिदुश्य कुछ गुडी-गुडी सा ही है। उनमें शिल्प की तराश एक दिखायी देती हुई कोशिश है। हाल ही में प्रकाशित परिकथा का युवा कविता विशेषांक हो चाहे जलसा नाम की पत्रिका का अंक। दोनों से ही गुजरने के बाद भी समकालीन यथार्थ का वैसा सम्पूर्ण चित्र जैसा नागार्जुन की कविताओं को पढ़ने के बाद दिखायी देने लगता है, दिखता नहीं। यथार्थ के प्रस्तुतिकरण में समकालीन कविताएं  दावा करती हुई है लेकिन उनकी विसंगति यही है कि बहुत ही सीमित और एकांगी हैं और एक रचनाकार की वैचारिक सीमाओं की चौहदी उनमें कुछ सीमित शब्दों की पुनरावृत्ति से दिखायी देने लगती है। झारखण्ड के जंगल, रेड कॉरिडोर, दास कैपिटल, नक्सल, जैसी शब्दावलियों से भरा उनका वैचारिक मुहावरा कुछ फेशनफरस्त सा नजर आता है। शिल्प के सौष्ठव में अतिश्य रूप्ा से सचेत स्थितियां उनमें देखी जा सकती हैं। नागार्जुन की कविताएं शिल्प और किसी मुहावरें की मोहताज दिखयी नहीं देती बल्कि चौंकाऊ किस्म की कलाबाजी के खिलाफ वे मोर्चा बांधते हुए-

मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

अपने ही तरह का खिलंदडपन नागार्जुन की कविताओं में व्यंग्योक्ति पैदा करता है, उत्साह और उल्लास बिखेरता है। उनमें दर्ज होते सामान्य से सामान्य विवरण भी काव्ययुक्ति बन जाते हैं-
2,50 (दो पचास) पे मुर्गे ने दी बांग
दड़बे में हैं बंद
मगर आवाज बुलन्द।
जेल की सीखचों के पीछे से लिखी गई एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कविता में नेवले के बच्चे के कार्यकलाप और उससे इर्द-गिर्द जुटती गतिविधियों का आख्यान अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध का अनूठा ढंग है।  
उनकी कविता को उस माहभ्रम के दौर की कविता भी कहा जा सकता है जिसने आजादी के सपनों को बिखरते देखा है। आजादी के बिल्कुल शुरूआती दिनों की स्थितियों के प्रभाव, उनके भीतर जिस आशंका को व्यक्त करते रहे, वे अनायास नहीं थे। 'गीले पांक की दुनिया गयी है छोड़" 1948 में लिखी कविता है। बाढ़ का दृश्य और रात दिन के जल-प्रलय के बीच पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाले घ्ार में भी आशंकाओं के घटाटोप घिरते जाते हैं। पाल खोलकर दुनिया की खोज में निकलने वाले नाविकों की एतिहासिक गाथा में आकार लेता घाट का विस्तार पहले पहल बहुत सामान्य-सा विवरण नजर आता है लेकिन अगली ही पंक्तियों में वह उतने ही सीमित अर्थों में नहीं रहने पाता -
पांच दिन बीते हटने लग गयी बस बाढ़
लौटकर आ जाएगा फिर क्या वही आषाढ़ ?
मलाहों के प्रतीक बदलते अर्थों के साथ हैं और गीले पांक की दुनिया को छोड़ती नदी के घाट पर फिर से संभावनाओं की दुनिया आकार लेने लगती है।
इसी दौर के आस-पास की एक और कविता है, 'बरफ पड़ी है’, प्राकृतिक दृश्यों की प्रतीकात्मकता से भरी नागार्जुन की ये ऐसी कविताएं हैं जिनमें उस  नागार्जुन को बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है जो भविष्य में घटनाओं को बहुत सीधे-सीधे बयान करने की अपनी उस त्वरा के साथ है जिनमें गैर जरूरी से लगते वे विषय जो सुरूचिपूर्ण और सांस्कृतिक होना भी नहीं चाहते, कविता का हिस्सा होने लगते हैं। आम मध्यर्गीय मानसिकता की यदि पड़ताल करें तो पाएंगे कि समाजिक बुनावट कितनी जड़ताओं के साथ है। न सिर्फ दूसरे का बोलना हमें अखरता है बल्कि खुद के मनोभावों को भी पूरी तरह से व्यक्त करने की छूट हम देना चाहते हैं। मध्यवर्गीय मानसिकता में असहमति के मायने सार्वजनिक(कॉमन) किस्म की टिप्पणी में ही मौजूद रहते हैं। हमारा रचनाजगत ढेरों फड़फड़ाते पन्नों से भरी रचनाओं के साथ है। मूर्त रूप में व्यवाहर की बानगी इतनी उलझाऊ है कि कई बार किसी असहमत स्थिति पर बात करते हुए वैसे ही स्थितियों के रचियता की हामी पर हम मंद-मंद मुस्कराते हुए होते हैं। नागार्जुन इस तरह की चिरौरी से न सिर्फ बचना चाहते हैं बल्कि वास्तविक जनतंत्र की उन स्थितियों को देखना चाहते हैं जहां असहमति का उबाल भी उतनी तीव्रता के साथ प्रकट किया जा सके जितना प्रकटीकरण प्रेम की सघनता का किया जा सकता है। नागार्जुन की यह काव्यशैली ही उनकी जीवनशैली बनने लगती है-
खोलकर बन्धन, मिटाकर नियति के आलेख
लिया मैंने मुक्तिपथ को देख
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूं क्यों पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा है शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मै न इसको समझता निस्सार।
आजादी की छदृमताल का प्रस्फुटित यथार्थ एमरजेन्सी के रूप में प्रकट होते ही नागार्जुन को बहुत दबे-छुपे तरह से अपनी बात कहने की बजाय मुखर प्रतिरोध की भाषा की ओर बढ़ने के लिए मजबूर करने लगता है। परीस्थितियों को पूरी तरह से जान समझकर वे व्यंग्य करने लगते हैं- गूंगा रहोगे/गुड़ मिलेगा। कोई ऐसी घटना जिसे कविता के रूप में दर्ज किए जाने की कोशिश साहित्य के तय मानदण्डों की परीधि से बाहर दिखाई दे रही हो, नागार्जुन के यहां एक मुमल कविता के रूप में दिखाई देने लगती है। समाज के ढेरों विषयों से भरा उनका रचना संसार इसीलिए एक ऐसे पाठक को भी जिसका साहित्य से कोई गहरा वास्ता नहीं होता, अपने प्रभाव से घोर लेता है और साहित्यिक मानदण्डों की तय दुनिया में आई हलचल उसे ताजगी से भर देती है। अपने आस-पास के बहुत करीबी विषय को कविता में देख उसका मन साहित्य के प्रति एक अनुराग से भर उठता है। नागार्जुन के यहां विषय की विविधता न सिर्फ स्थितियों को व्याख्यायित करने में सहायक है बल्कि व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रख कर लिखी बहुत सी कविताएं राजनैतिक बयान के रूप में भी मौजूद हैं। नागार्जुन की कविताओं की चिह्नित की जाने वाली इस विशिष्टता को व्याख्यायित करने के लिए सामाजिक ढांचे की उस जटिलता को खंगालने की जरूरत है जो अपने सामंतीपन के बावजूद पूंजीवाद के लाभ हानी वाले सिद्वांतों के साथ है-जनतंत्र का भोंडापन इसी मानसिकता का मूर्त रूप है। असहमति के बावजूद गूंगा बना रहना इसकी प्रवृत्ति है। रचनाकारों के बीच इस प्रवृत्ति को सिर्फ और सिर्फ कला का पक्षधर होते हुए देखा जा सकता है। सामाजिक विश्लेषण में इसे उस मध्यवर्गीय मानसिकता के रूप में चिहि्नत किया जा सकता है जो विशिष्टताबोध की मानसिकता से घिरा रहता है। रचनाजगत में यह विशिष्टताबोध आलोचना के औजारों को शैलीगत रूप में ही पकड़ने की कोशिश करता है। साहित्य की वर्तमान दुनिया में, खास तौर पर हिन्दी साहित्य में, यह प्रवृत्ति बहुत तेजी के साथ फैलती जा रही है। बहुत मेधावी और हर क्षण सोचते विचारते रहने वाले रचनाकारों के शिल्पगत प्रयोगों के नाम पर रची जा रही ऐसी रचनाएं, बेशक उनका मंतव्य मनुष्यता के बचाव में ही हो, जनतंत्र की आधी-अधूरी स्थितियों को भी खत्म कर देने वाली ताकतों का समर्थन कर रही हैं। ऐसी रचनाओं के ढेरों पाठ उस मध्यवर्गीय व्यवाहार का ही रचनात्मक रूप्ा हैं जिसमें असहमति को दर्ज करने की बजाय भले-भले बने रहने की मानसिकता विस्तार पाती है। नागार्जुन के यहां स्थितियां बिल्कुल उलट हैं- मुंहफट होने की हद तक प्रतिरोध का उनका स्वर बहुत तीखा है। नागार्जुन का प्रतिरोध भी मूर्त है और उनका प्रेम भी मूर्त। वे जिस क्षण किसी कार्रवाई के समर्थन में उस वक्त उस कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाते व्यक्ति का यशगान करते हुए हैं लेकिन दूसरे ही क्षण यदि किसी विपरीत परिस्थिति में उसी व्यक्ति को पाते हैं तो तुरन्त लताड़ लगाते हुए हैं। समर्थन और विरोध की ऐसी किसी भी स्थिति में आमजन के जीवन के कष्ट उनकी प्राथमिताओं को तय करते हैं। समर्थन और विरोध करने का यह साहस बिना वास्तविक जनतंत्र का हिमायती हुए हासिल नहीं किया जा सकता है। नागार्जुन की कविताएं हर क्षण एक जनतांत्रिक दुनिया को रचने के कोशिश है। उनका मूल स्वर नागार्जुन की कविता पंक्तियों से ही व्यक्त किया जा सकता है-
बड़ा ही मादक होता है 'यथास्थिति" का शहद
बड़ी ही मीठी होती है 'गतानुगतिकता" की संजीवनी।
शताब्दी समारोह की उत्सवधर्मिता नागार्जुन की कविताओं में अटती नहीं है। वे ऐसे किसी भी जलसे के विरूद्ध स्थितियों के सहज-सामान्य अवस्था की पक्षधर है। किसी भी तरह की विशिष्टता पर वे व्यंग्य करती हुई है। यह अपने में अजीब बात है कि दूसरे अन्य रचनाकारों के शताब्दी समारोह के साथ नागार्जुन जन्मशती के बहाने हम उन पर भी बात कर रहे हैं। दरअसल नागार्जुन की कविताओं पर बात करते हुए जरूरी हो जाता है कि आस-पास की सामाजिक आर्थिक स्थिति और उन स्थितियों के बीच रचे जा रहे रचनात्मक साहित्य पर भी बात हो। तय है कि आस-पास की स्थिति इस कदर गैर जनतांत्रिक है कि न्याय के नाम पर भी आस्थाओं का पलड़ा भारी होता जा रहा है और फैसलों की कसौटी माहौल की नब्ज मात्र हो जा रही है। इस तरह के सवाल उठाना कि तथ्यों के आधार पर निर्णय हों और तब भी माहौल समान्य बना रहे, बेईमानी हो जा रहे हैं। ऐसी गैर जनतांत्रिक स्थितियों के बीच रचे जा रहे साहित्य पर यह जिम्मेदारी स्वत: हो जाती है कि उसका स्वर पहले से कुछ अधिक तीखा हो- सवाल है कि वह पहला स्वर क्या है ? यकीनन यदि वह नागार्जुन की स्वरलहरियों से उठती आंतरा है तो भाषा-शिल्प और बिम्बों, प्रतीकों के नये से नये प्रयोग प्रतिरोध को तीखा बनाने के औजार ही हो सकते हैं, रचनाकार की विशिष्टता को प्रदर्शित करने के यंत्र नहीं।        
 

   विजय गौड़

यह आलेख प्रिय मित्र अशोक कुमार पाण्डेय के आदेश पर लिखा गया था। युवा संवाद नाम की पत्रिका का वह अंक जिसका सम्पादन अशोक भाई ने किया, उसमें इस आलेख को भी शामिल किया गया ।


Saturday, February 5, 2011

जनता की मर्ज़ी

अबुल कासिम अल शब्बी १९१९ में जन्मे ट्यूनीशिया के मशहूर आधुनिक  कवि थे जिनको दुनिया की अन्य भाषाओँ में व्याप्त आधुनिक प्रवृत्तियों को अपने साहित्य में लेने  का श्रेय  दिया जाता है.अल्पायु में महज २५ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया ...जिस  जन आन्दोलन की आँधी में  वहां की सत्ता तिनके की तरह उड़ गयी उसमें वहां के युवा वर्ग ने शब्बी की कविताओं को खूब याद किया.यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कविताओं के कुछ नमूने: 
 
जनता की मर्ज़ी
 
यदि जनता समर्पित है जीवन के प्रति
तो भाग्य उनका बाल बाँका भी नहीं कर सकता
रात उसे ले  नहीं सकती अपने आगोश में
और जंजीरें एक झटके में
टूटनी ही टूटनी हैं.
 
 
जीवन के लिए प्यार
नहीं है जिसके दिल में
उड़ जाएगा हवा में कुहासे की मानिंद  
जीवन के उजाले से बेपरवाह रहने वालों के
ढूंढे कहीं मिलेंगे नहीं नामो निशान.
 
ऊपर वाले ने चुपके से
बतलाया मुझे ये सत्य
पहाड़ों पर बेताब होती रहीं आंधियाँ
घाटियों में और दरख्तों के नीचे भी:
"एक बार निर्बंध होकर  बह निकलने पर
रूकती नहीं मैं किसी के रोके
मंजिल तक पहुंचे बगैर...
जो कोई ठिठकता  है लाँघने से पहाड़
छोटे छोटे गड्ढों में
सड़ता रह जाता है जीवन भर."
 
 
 
 
 
 
 
 
दुनिया भर के दरिंदों से
 
अबे ओ अन्यायी दरिन्दे
अँधेरे को प्यार करने वाले
जीवन के दुश्मन...
मासूम लोगों के जख्मों का मज़ाक  मत उड़ा
तुम्हारी हथेलियाँ सनी हुई हैं
उनके खून से
तुम खंड खंड करते रहे हो
उनके जीवन का सौंदर्य
और बोते रहे हो दुखों के बीज
उनकी धरती पर...
ठहरो, बसंत के विस्तृत  आकाश में
चमकती रौशनी से मुगालते में मत आओ... 
देखो बढ़ा आ रहा है
काले गड़गड़ाते  बादलों के झुण्ड के साथ ही
अंधड़ों का सैलाब तुम्हारी ओर...
क्षितिज पर देखो
संभलना.. इस भभूके के अंदर
ढँकी होगी दहकती हुई आग.
अब तक हमारे लिए बोते रहे हो कांटे
लो अब काटो  तुम भी जख्मों की फसल 
तुमने कलम  किये जाने कितनों के सिर
और साथ में कुचले उम्मीदों के फूल
तुमने सींचे उनके खेत
लहू और आंसुओं से...
अब  यही रक्तिम नदी अपने साथ
बहा ले जाएगी तुम्हें
और ख़ाक हो जाओगे तुम जल कर
इसी धधकते तूफान में.
 
                                                                प्रस्तुति:  यादवेन्द्र ,           मो. 9411100294

Sunday, January 30, 2011

मेले ठेले से अलग


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जतिन दास को सुनने का सुख
                                
यदि किसी से पूछा जाये कि बाईस जनवरी सन दो हजार ग्यारह को जयपुर में कला एवम संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण घटना क्या थी तो वह तपाक से बोलेगा - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल! 23 जनवरी को प्रकाशित जयपुर के सारे अखबार भी यही कह रहे थे। शायद जयपुर के चित्रकारों को भी यह बात मालूम न हो ( यदि मालूम रहती तो वे वहॉ उपस्थित रहते ही?) कि लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जयपुर के सांस्कृतिक स्थल जवाहर कला केन्द्र ( जेकेके) के रंगायन सभागार में विश्वविख्यात कलाकार जतिन दास का ' ट्रेडिशन एण्ड कंटम्परेरी इंडियन आर्टस" पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है, वह भी हिन्दी में। खुद मुझे भी कहॉ मालूम थी यह बात। हॉ कुछ दिन पहले ( जब लिटरेचर फेस्टिवल का तामझाम शुरू न हुआ था) अखबारों में पढ़ा था कि जेकेके में  21 जनवरी से जतिनदास के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है और मैंने तय किया हुआ था कि रविवार दिनॉक 23 जनवरी को लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल को सुनकर वहीं से जेकेके निकल जाऊंगा परन्तु अपर्णा को नीयत ताड़ते देर न लगी और कहा कि मैं निकल जाऊंगा तो वह अकेली रह जायेगी। लिहाजा आज ही (22 जनवरी ) जवाहर कला केन्द्र चलो। तब हम लोग उस दिन शाम को जवाहर कला केन्द्र पहुंचे। लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से हमेशा खचाखच भरा रहने वाला जेकेके का कॉफी हाऊस उस दिन खाली खाली-सा था। हॉ जेकेके के रॅगायन सभागार के सामने कुछ लोग अवश्य खड़े थे। ऐसा तभी होता है जब वहॉ या तो नाटक होने वाला हो या कोई पुरानी क्लासिक फिल्म प्रदर्शित की जाने वाली हो। जिस बात की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पॉ कर दी जाती है। मैंने उत्सुकतापूर्ण नोटिसबोर्ड को देखा तो उससे भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण सूचना चस्पॉ थी " जतिन दास का व्याख्यान , शाम 5:30 पर रंगायन सभागार में'। जतिन दास की कलाकृतियों को देखना तथा दोनों अलग अलग अनुभव है। जतिन दास ही क्या, किसी भी कलाकार को सुनना दुर्लभ ही होता है। हम जगह पर कब्जा करने के उद्देश्य से सभागर में भागे तो यह देख कर दंग रह गये कि सभागार मुश्किल से बीस लोग थे और जतिनदास जी उपस्थित लोगों से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। हमें देखते बोले- आईये आईये बैठ जाईये। पता नहीं जतिन दास को क्या महसूस हो रहा हो पर इतने कम लोगों को देख कर मुझे बहुत कोफ़्त हो रही थी। जयपुर में आये दिन चित्रों की प्रदर्शनियॉ लगती है जिससे पता चलता है कि यह शहर छोटे बड़े चित्रकारों से अटा पड़ा होगा। तो क्या उन्हे इतने बड़े चित्रकार को सुनने का समय नहीं है? या जरूरत नहीं है? आयोजको ने सफाई भी दी कि उन्होने सारे अखबारों को सूचना दी थी पर किसी ने छापी नहीं थी ( क्योकि उस दिन सभी स्थानीय दैनिक, लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत कर रहे जावेद अख्तर और गुलजार आदि के खबरो से भरे पड़े थे) आयोजकों ने यह भी बताया कि उन्होने सारे स्कूल कालेजों कों सूचित कर दिया था क्योंकि यह व्याख्यान कला के विद्यार्थियों के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। पर जो कुछ भी हो, यह हमारा सौभाग्य था कि इतने कम लोगों के बावजूद जतिन दास ने अपना व्याख्यान गर्मजोशी से दिया।
जतिन दास के व्याख्यान में उनकी मुख्य चिन्ता कला के एकेडिमिक प्रशिक्षण को लेकर थी। उन्होने कहा कि कला सर्वव्यापी है जबकि विद्यालयों में इसे दायरे में बॉधना सिखाया जाता है और कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिये गैलरियों में जगह निर्धारित कर दिया गया है। प्रशिक्षुओं को लोक कलाओं की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है। शुरूआत में ही एक्र्रेलिक थमा दिया जाता है जबकि प्रारॅभ में उसे पारंपरिक कलाओं को पारंपरिक तरीके से करने का अभ्यास करना चाहिये। कला के विकास के लिये साधना आवश्यक है जबकि लोग विद्यालय से निकलने के बाद बाजार में घूमने लगतें हैं और अपने काम का मूल्यॉकन उसके दाम से करने लगतें हैं।उन्होने दुख व्यक्त किया कि कला की अन्य विधाओं जैसे साहित्य संगीत का मूल्यॉकन उसके सौन्दर्य शास्त्र के हिसाब से होता है जबकि चित्रकला में उसी चित्र को श्रेष्ठ मानने का रिवाज़ हो गया है जिसकी बोली ज्यादा लगती है। यह स्थिति कला के लिये अत्यन्त घातक है। उन्होने कहा कि आजकल कला के क्षेत्र विलगाव की भी घातक प्रवृत्ति देखी जा रही है । साहित्य के लोग चित्रकला की बात नहीं करतें हैं चित्रकार साहित्य नहीं पढ़ता। संगीत वालो की अपनी अलग दुनिया होती है। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। कई चित्रकार अच्छे कवि भी थे और कई कवि अच्छे चित्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रभ्पति भवन की जिसने आर्किटेक्टिंग की थी वह आर्किटेक्ट नहीं, बल्कि एक चित्रकार था। जतिन दास ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कटाक्ष करते हुये कहा कि मेले के हो हल्ले के बीच कवि अपना कविता पाठ करता है वह किसी काम का? जबकि कविता पाठ के लिये एक अलग माहौल चाहिये होता है। जतिन दास ने कला सीखने वालों को एक मूलमन्त्र बताया ' लर्न- अनलर्न-क्रियेट"। अर्थात पहले सीखो, फिर जितना सीखा है वह भूल जाओ और अपना सृजन करो।जतिन दास का व्याख्यान लगभग आधा घन्टा चला। उसके बाद उन्होने अपने चित्रों का स्लाईड शो किया तथा सभागार में उपस्थित लोगो से विनोदपूर्ण शैली में अनौपचारिक बातचीत भी करते रहे। स्लाईड शो के बीच उनके मुंह से वाह वाह निकल जा रहा था तो एक ने विनोदपूर्ण तरीके से उन्हे टोका तो उन्होने जवाब दिया कि जब बनाई थी तब उतनी अच्छी नहीं लग रही थी, अब लग रही है तो तारीफ कर रहा हूं। उन्होने एक और मजेदार बताई कि वे एक बढ़िया कुक भी हैं। एक कलाकर कोई भी काम करेगा तो पूरे मनोयोग से करेगा। इसलिये ज्यादातर कलाकार खाना भी बढ़िया बनातें हैं।
दुर्भाग्य से इतनी महत्वपूर्ण कलात्मक गतिविधि की रिपोर्टिगं के लिये आयोजको द्वारा निमिंत्रत किये जाने के बावजूद एक भी पत्रकार सभागार में उपस्थित न था। मुझे सन्तोष इस बात का है कि हाल ही में खरीदे गये अपने सस्ते साधरण हैडींकैम से मैंने व्याख्यान की शतप्रतिशत रिकार्डिगं कर ली है। यह ऐसी अमूल्य निधि है जिसे सबको बॉट कर खुशी होगी। इस हैडींकैम का भविष्य में इससे बेहतर इस्तेमाल शायद ही हो। पर धन्यवाद की पात्र तो पत्नी अपर्णा ही रहेगी जिसने उस दिन जवाहर कला केन्द्र जाने का हठ किया था।

-------- अरूण कुमार 'असफल, जयपुर,
09461202365] arunasafal@rediffmail.com

Wednesday, January 26, 2011

शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा

1982 में तेहरान में कला प्रेमी माता पिता के परिवार में जन्मे सालेह आरा वैसे  तो कृषि विज्ञान  पढ़े हुए हैं पर अंग्रेजी और फारसी में अपना ब्लॉग चलते हैं और फोटोग्राफी का शौक रखते हैं. अपने ब्लॉग पर उन्होंने 2005 में एक अफ़्रीकी बच्चे की ( नाम  नहीं ) लिखी और प्रशंसित कविता उद्धृत की है. इस मासूम कविता में ऊपर से देखने पर निर्दोष  सा कौतुक लग सकता है पर बहुतायद श्वेत समुदाय के बीच अपने शरीर के गहरे रंग के कारण अनेक स्तरों पर वंचना और प्रताड़ना  झेलने की पीड़ा की भरपूर उपस्थिति महसूस की जा सकती है.साथी पाठकों को इस दुर्लभ एहसास के साथ जोड़ने का लोभ मुझसे संवरण नहीं हुआ इसलिए कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :
 
शरीर का गाढ़ा रंग
 
जब मेरा जन्म हुआ तो काला था मैं
बड़ा होने पर भी काला ही रहा
धूप में घूमते हुए मैं काला बना रहा
डर से कांपते हुए भी काले रंग ने पीछा नहीं छोड़ा
बीमार हुआ तो भी काला
मरूँगा भी तो मैं काला ही मरूँगा.
और तुम गोरे लोग
जन्म के समय गुलाबी होते हो
बड़े होकर सफेदी लिए हुए
धूप में निकलते हो तो सुर्ख लाल
सर्दी में ठिठुर के पड़ जाते हो नीले
डर की थरथर पीला रंग डालती है तुम्हें
बीमार हुए तो रंग होने लगता है हरा
और जब मरने का समय आता है
तो तुम्हारे शरीर का रंग गहरा भूरा दिखने लगता है...
इस सब के बाद भी
तुम लोग
मुझे कहते हो
कि शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा. 
 
                                   प्रस्तुति : यादवेन्द्र