Monday, May 16, 2011

कहीं खण्डित न हो जाये सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना

ओसामा के मारे जाने के समाचार से खुश होती दुनिया की खबरें अखबारों और दूसरे माध्यमों पर पिछले दिनों खूब छायी रही। तालिबानी विध्वंश की आक्रामकता की पराजय को देखने की ख्वाइश शायद हर सचेत नागरिक के भीतर थी। आतंक की परिभाषा को गढ़्ते बाजार की चकाचौंध दुनिया के प्रभाव में डूबे  लोगों की खुशी के बाबत तो क्या ही कहना। बल्कि कहा जाये कि जीवन में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करते बाजार के प्रभाव के प्रतिरोध की धाराओं में बंटे लोगों के सामने एक संकट स्पष्ट रहा कि आक्रामकता के विरोध में सिर्फ़ व्यापारिक हितों की चिन्ता से भरे अमेरिका का क्या करें ? अपनी बात को बहुत साफ साफ दोनों ही तरह की  आक्रामकता को लक्षित करने की कोशिश में कई बार किसी एक के साथ दिख जाना हो जाता रहा। हाना मखमलबाफ़ की फ़िल्म   इस द्रष्टि से देखी जाने योग्य फ़िल्म है।  इरादों में  तालिबानी आक्रमता और मानवीय चिंताओं पर झूठी अमेरिकी संवेदनशीलता- जो बम वर्षकों का  बेहद दिल्चस्प खेल है, दोनों को ही लक्षित करती एक युवा फ़िल्मकार की फ़िल्म Budha collapsed out of shame एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। बुध की करूणा में उसका संयोजन एक अनूठा प्रयोग  है। 

बाखती ! यदि घर जाना चाहती हो तो अभी मर जाओ।
यह किसी अमेरीकी सिपाही की सीख नहीं एक दोस्त की सीख है, अपनी हम उम्र दोस्त को जो तालिबानी आक्रामकता के खेल में निरीह अफगानी नजर आ रही है। वही दोस्त जिसकी हर कोशिश उस युद्ध से और युद्ध की आक्रामकता से बाहर निकलने की है। 
जीने के लिए मरना जरूरी है।  तालिबानी आक्रमकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बिताते बच्चों के जीवन में तालिबानी होना भी एक खेल हो जाता है। कथा पात्र बाखती युद्ध के ऐसे खेल की बजाय जीवन को जगमगाने का खेल खेलना चाहती है। स्कूल जाना चाहती है। उस कहानी को फिर-फिर पढ़ना चाहती जिसको सुनना ही उसे लुत्फ देता रहा है। वही कहानी जिसमें एक आदमी पेड़ के नीचे लेटा है। हम उम्र और पड़ोसी अब्बास जिसको जोर-जोर से पढ़ता है। वही अब्बास जिसे तालीबानी होते बच्चे अमेरिका का प्रतीक बना देना चाहते है, बावजूद इसके कि बुद्ध की सी तटस्थता में वह शान्त बना रहता है। अमेरीकी होता हुआ कहीं दिखता ही नहीं।
युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame एक रूपक है। एक खेल है जिसे देखने से ज्यादा खेलने का मन करता है। तकनीक की दृष्टि से कहें चाहे कथ्य की दृष्टि से, बहुत ही लाजवाब फिल्म है। एक उम्दा वृत्तचित्र का सा सच उदघाटित करती।  तालिबानी दौर की आक्रामकता जिसमें खूबसूरत आंखों को आजादी नहीं कि दुनिया के खूबसूरत को मंजर को खुली आँखों से देख सके। बबलगम खाती बेफिक्र किस्म की स्त्री को कैद करना तो और भी जरूरी है। लिपिस्टिक अपने पास रखने वाली स्त्री को छूट नहीं दी जा सकती कि वह स्कूल भी जाए। ईश्वर के बताये रास्ते पर दुनिया को चलाने के लिए उन्हें कैद किया जाना जरूरी है। कोई अमेरीकी बम वर्षक नहीं आता मुक्त कराने पर एक खेल चलता रहता है। बाखती स्कूल के लिए निकली है। अण्डे बेचने की थकाऊ कार्रवाई के बाद भी पैसे हासिल नहीं हुए। अण्डों के बदले में जुटाई गई रोटी को बेचने के बाद ही नोट-बुक खरीदी जा सकी है। पेंसिल फिर भी नहीं। स्कूल का कायदा नोट-बुक के साथ पेंसिल भी ले जाने का है। माँ की लिपिस्टिक पेंसिल हो सकती है, यह कल्पना ही इस फिल्म को वह उछाल दे देती है कि फिर तो खेल खेल रह ही नहीं जाता।
हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणीति तक पहुँचता है। बाखती मृत्यु के आगोश में दुबक जाने को मजबूर है। हथियारबंद  तालिबानी गिरोह से मुक्ति आत्म समर्पण की युक्ति से ही संभव है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी हो। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा हो। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई पश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद न हो। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये हो। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल भाग स्कूल पहुँची लड़की को कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करने के लिए की जाने वाली मश्त अपने प्रतीकार्थ में व्यापक है। झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती अपने दृढ़ इरादों और खिलंदड़पन के साथ है। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठी है बाखती। छीन-झपट कर हथिया ली गई लिपिस्टिक को बेशऊर ढंग से पहले वह अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर है। उसके इस तरह झपटने से सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना खण्डित हो सकती है, मानवीय सरोकारों से भरी बाखती की अदायें इस बात का अहसास करा देती हैं। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। बाखती लिपिस्टिक के उपयोग को भी जानती है और सौन्दर्य को कैसे सहेजता से उकेरा जा सकता है, वाकिफ है। तालीबानी अमेरीकी युद्ध खेलते बच्चों की कैद में फँसी सुंदर आँखों वाली लड़की के कागजी नकाब को उतार कर जिस अंदाज में उसने लिपिस्टिक के प्रयोग से उसकी सुदरता को और बढ़ा दिया था बिल्कुल उसी अंदाज में, चुलबुली लड़की के हाथ से लिपिस्टिक लेकर हौले-हौले वह उसके होठों पर, गालों पर सौन्दर्य की लाली के चकते छोड़ते हुए उसे सजाने लगती है। एक-एक कर कक्षा की हर लड़की को सजाकर सुंदरता का संसार रच देना चाहती है। बोर्ड पर अक्षर उकेरती अध्यापिका बेखबर है कि फैल जा रही लिपिस्टिक को थूक की लार से पोंछ-पोंछ कर तराश देने की कार्रवाई में जुटी बच्चियां अपने उस बचपन को छलांगती जा रही हैं जो दक्षिणपंथी उभारों से भरी तालीबानी दिनों के रूप में उनके जीवन का शुरूआती दौर है। तालीबानी विध्वंस के प्रतिरोध में यह दृश्य एक स्वाभाविक लय के साथ फिल्मांकित है।
तालिबानी बने बच्चों द्वारा अमेरिका के प्रतीक बना दिए अब्बास के प्रति बाखती की आत्मीयता बेहद मानवीय है। हाथ पकड़कर स्कूल पहुँचा देने का साथ भर। मुसीबत के वक्त मद्द की गुहार भर का। युवा फिल्मकार सचेत है और आत्मीय प्रेम के चालू मुहावरे में संबंधों को फिल्माने से बच निकलती है। जबकि उस तरह के संबंध पनपने की स्वभाविक गुंजाइश साफ-साफ हैं। यहां इस बात का उल्लेख इधर हाल के दिनों में आई उन हिन्दी की कहानियों के संबंध में करना मौजू है जिनमें कथा विन्यास को गूंथते हुए ऐसी स्थितियों तक पहुँचने की पकड़ में आ जाने वाली युक्तियां साफ दिखाई देती हैं। एक गम्भीर विषय को दैहिक विन्यास तक सीमित कर देने वाले विवरणों से भरे और लहराते पेटीकोटों की छायाओं से भरी ऐसी रचनाओं का संसार क्यों अराजक हो जाता है, युवा फिल्मकार मखमलबाफ की इस फिल्म से सीखा जा सकता है।           



विजय गौड़
  (jansandesh times में पूर्व प्रकाशित)

Sunday, May 15, 2011

विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो


पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने  लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ  यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ जुलाई ,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए.  भारतीय रंगमंच के  क्रांतिकारी, जनपक्षधर  और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश  करता है.  उनके उस लम्बे, जद्दोजहद  भरे सफर को  सलाम पेश  करता है, जो १३ मई  को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा.  लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति  और सबसे बढ़कर  हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास  रखो, रास्ते में विश्वास  रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"  
     जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी  को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को  कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-
'अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम  दर्रों के इलाकों में 
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा  लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा. 
  नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं.  सिविल इंजीनियर और  टाउन प्लैनर  के पेशे  से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत  करने वाले बादल दा जनता की चेतना के  क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के  किए तैय्यार करने के  अनिवार्य उपक्रम के  रूप में नाटक और रंगमंच को  विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के  लिए समर्पित हो गए.  ”थर्ड थियेटर” की  ईजाद के साथ उन्होने  जनता और  रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को  एक झटके  से तोड  दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और  रंगमंच के  लिए हर तरीके  की विशेष ज़रूरत को उन्होंने  गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो  यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के  ज़रिए उन्होंने  बंगाल के  गावों में  घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को  उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी  नाटक किए. उनके  नाटको  में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था. 
     हमारे आन्दोलन  के नाट्यकर्मियों ने   खासतौर पर  १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा  और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे  इनके बुलावे पर इलाहाबाद और  हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं   कीं, नवयुवक  रंगकर्मियों  के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे  और उन्हें  सिखाया.  जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से  जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में  यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.
    एबम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप,त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष  नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और  स्पार्टाकस(अनूदित)जैसे उनके  नाटक भारतीय थियेटर को  विशिष्ट  पहचान तो  देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के  नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के  साथी हैं, उनके  सृजन और संघर्ष में  आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे ,उनके  सपनॉ के  भारत के  हमसफर होंगे.
( प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी) 

Friday, May 13, 2011

अक्लांत कौरव



अरविंद शेखर
      ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी साहित्य-प्रेमियों के लिए कोई अनजाना नाम नहीं है। उत्पीडित, वंचित और शोषित लोगों के लिए सहानुभूति से भरा उनका लेखन स्वयं में एक मिसाल है। अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता के संघर्ष को प्रमाणिकता के साथ, सटीक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रही है।
        अक्लात कौरव लघु उपन्यास उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियों जंगल के दावेदार, टैरोडिक्टल, 1084वें की मां, शालगिरह की पुकार पर, मास्टर साहब, श्रीश्री गणेश महिमा के क्रम में ही आता है। महाश्वेता देवी लगातार आदिवासी समाजों से जुडी रही है और उनके बीच कार्य करती रही हैं। उनके अन्य उपन्यासों की तरह अक्लात-कौरव के केंद्र मे पश्चिमी बंगाल का अत्यंत पिछडा इलाका चौबीस परगना और उसके आस-पास के क्षेत्र का आदिवासी समाज है।
        इस उपन्यास की कथा जायज संघर्षो में हारे लोगों की कहानी है जो स्वयं को संघर्ष के लिए पुन: तैयार कर रहे हैं। कहानी का समय सत्तर के दशक के नक्सलवादी आंदोलन के बाद का है। जबकि आंदोलन के असफल होने का बाद पश्चिम बंगाल में सी।पी।एम। के नेतृत्व वाला वाममोर्चा सत्तारूढ हो चुका है। यह उपन्यास बताता है कि किस तरह सत्तारूढ होने के बाद वाममोर्चा अपने प्रमुख चुनावी वादे भूमि-सुधर को पूरा करने में असफल ही नहीं हो जाता बल्कि यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश भी करता है। यही नहीं जनदबाब बढ़ने पर वहां की भूमि सुधर के नाम पर सिपर्फ छोटी जमीन के मालिकों को ही छेड़ा जाता है। जबकि बड़े जमींदार क्योंकि पाला बदलकर अब सी।पी।एम। को चंदा देने लगे है अत: पार्टी नेतृत्व उन्हें पूरा-पूरा संरक्षण देता है। परिवर्तन के नाम पर चुनाव जीत कर सत्ता में आई सरकार के यहां ग्राम जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि पुराने संपत्ति-शाली वर्ग की सत्ता ही कायम रहती है। बदलता है तो सिर्फ झंडा- तिरंगे के स्थान पर लाल। लेखिका के शब्दों में- ''चूड़ामणि जैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित अंग है। सरकारें आती है, सरकारें जाती है, चूड़ामणियों का कुछ नही बिगड़ता ।" निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत पर टिप्पणी करते हुए वह कहती हैं-''शासकदल के निर्वाचित नेता के तौर पर सामंत जागुला में सभी को दबा कर रख सकते है, कलकत्ता में वह संभव नहीं है। जागुला के विरोधियों से सामंत नहीं डरता। गुप्त समझोते में उन्होंने जागुला का बंटवारा उसके नाम पर कर दिया है। वास्तव में शहर, अभी उनके गुण्डे-मस्तान-ठेकेदार-व्यापारियों के कब्जे में है। इस शासन से सभी खुश है। मनमाना मुनाफा लूटा जा रहा है, मनमानी गुंडागर्दी चल रही है। मनमानी कीमतें बढाई जा रही है, कालाबाजारी जोरों पर है। इसके बाद भी इस शासन का पतन कौन चाहेगा, क्यों चाहेगा सामंत सोच भी नहीं पाता।"
        अक्लांत कौरव की कथा छोटी सी, परन्तु बहुत सी कड़वी सच्चाईयां उजागर करती है। इस कथा का नायक इंद्र सी।पी।एम। का एक ईमानदार कैडर है। वह पहले मजदूर संगठन में कार्य कर चुका है तथा अब ग्रामीण क्षेत्रा में कार्य करना चाहता है। लेकिन जब वह आदिवासी संथालों के बीच पहुंचता है तो पाता है कि भूमि सुधर का आपरेशन बर्गा लुंज-पुंज ढंग से चल रहा है। यहां तक कि उनकी पार्टी का निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत भी आपरेशन बर्गा को सफल नहीं होने देना चाहता। और उसने भ्रष्ट पुलिस और प्रशासन से भी एक नापाक गठजोड़ कायम कर लिया है। इस सबके चलते अपने अधिकारों और मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित ग्रामीणों की हालात बद से बदतर हो गयी है। ये वे ही आदिवासी है जिनकी संघर्ष की एक लम्बी परंपरा रही है। विरसा मुंडा, सिंधु कानू के ये वंशज अपना संघर्षशील चरित्र छोड़ दें इसलिए उनके बीच एक अध्येता बुद्धिजीवी द्वैपायन सरकार को प्रवेश कराया जाता है। द्वैपायन सरकार दिल्ली में स्थित विदेशी देशों से धन लेकर चलने वाले एक फाउंडेशन से संबंद्ध है। द्वैपायन सरकार आदिवासियों को कायरता तथा संघर्ष से विरत रहने का पाठ ही नहीं पढ़ाना चाहता बल्कि वह सिद्ध कर देना चाहता है कि संथाल एक डरपोक व लालची कौम है। परन्तु अपने इस षडयंत्र में वह सफल नहीं हो पाता, भले ही उसे सत्ताधरियों का पूरा सहयोग प्राप्त होता है।
        इंद्र को अपने प्रवास के दौरान नक्सलवाडी के दिनों के ईमानदार नेता कालीबाबू  के विषय में पता चलता है कि जिनकी सामंत की शह पर पुलिस ने निगर्म हत्या ही नहीं कर दी थी बल्कि इस तथ्य को छुपाने की पूरी कोशिश आज भी जारी है। इंद्र को इस पर सहसा विश्वास नहीं होता और व काफी समय तक वह सही गलत के अंर्तद्वन्द का शिकार रहता है। एक तरफ पार्टी के सिद्धांत और दूसरी तरफ नेतृत्व की काली करतूतें। पर अंत में उसका विश्वास गहरा होता जाता है। जब सामंत और पार्टी नेतृत्व उसे व उसके साथियों को संघर्ष से दूर रहने के लिए शांति का पाठ पढ़ाता है। यहां तक कि जब वह भूमिहीन मजदूरों के लिए मजदूरी की सरकारी दरें लागू करवाने हेतु आंदोलन करता है तो इस भटकाव कहा जाता है। और उसे उत्पीड़क पुलिस प्रशासन से सहयोग करने को कहा जाता है। इतना ही नहीं वरन जायज हकों की बात करने पर उस पर नक्सली होने जाने का आरोप लगाया जाता है। इस तरह वह अपने अंर्तद्वन्द से मुक्त होता जाता है और सच्चाई की राह पर अग्रसर होता जाता है। आदिवासी भी उस पर आसानी से विश्वास नहीं करते पर उसकी ईमानदारी तथा उत्पीडितों के प्रति पक्षधरता के कारण वे उसे पहचान लेते है, और जान लेते हैं कि वह उनका सच्चा हितैषी है।
        यही अक्लांत कौरव की कथा है जो धीरे-धीरे पश्चिमी बंगाल के बहुप्रचारित भूमि-सुधरों के ढोल की पोल खोलते हुए, सत्ताधरियों के चरित्र की बखिया उधेडते हुए आगे बढती है। बांग्ला से अनुदित होने के कारण संभवत: यह मूल उपन्यास का सा आनन्द न दे परन्तु अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तेवरों के कारण यह पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय है।

Monday, May 9, 2011

सार्वभौमिक-आंचलिकता का परिवेश से क्या संबंध है


दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। न सिर्फ उत्तराखण्ड की भौगोलिक पृष्ठभूमि में रचा गया उसका विन्यास अपनी विशिष्टता के साथ है बल्कि गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी भाषा में रचे गये संवाद उसे दूसरी हिन्दी फिल्मों से अलग किए दे रहे हैं। यहां यह सवाल बेशक हो सकता है कि हिन्दी की प्रकाशित रचनाओं में आंचलिकता के पैमाने तो पात्रों के संवाद को कथा पृष्ठभूमि की भाषा में होने पर भी उसे हिन्दी की रचना ही मानने वाले हैं तो माध्यम का फर्क भर होने से दांये बांऎ को सिर्फ हिन्दी फिल्म क्यों नहीं माना जा सकता ? वैसे यहां रेणु के उपन्यास मैला आंचल को आंचलिक उपन्यास कहने वाले तथ्य भी हैं। अपने कथ्य और भाषा से ही नहीं बल्कि एक विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता की स्पष्टता रेणु के मेला आंचल को आंचलिकता का एक तर्क देती है। यहां आंचलिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों का निषेध करते हुए ज्यादा व्यापक और सार्वभौमिक हो उठती है। वैसे दांये या बांए फिल्म को प्रथम दृष्टया एक निश्चित भू-भाग से भरे दृश्य में देखना तो फिल्म के प्रभाव को सीमित कर देने वाला भी लग सकता है या फिर फिल्मकार का अपने भूगोल के प्रति अतिश्य मोह भी उसे कहा जा सकता है। उपभोक्तावाद से ग्रसित सम्पूर्ण समाज को उत्तराखण्ड की खिलंदड़ी भाषा और बेढब भूगोल तक सीमित मानते हुए पारम्परिक अर्थतंत्र की वकालत तो वैसे भी संभव नहीं है, इसमें दो राय नहीं। पर सवाल फिर भी है कि उसी विशिष्ट भूगोल पर केन्द्रित हिन्दी फिल्म राम तेरी गंगा मैली और बेला नेगी की दांये या बांए में वह मूलभूत अंतर क्या है जो दोनों ही फिल्मों में पहाड़ी उबड़ खाबड़ रास्तों पर समान रूप से दौड़ते कैमरे को भिन्न बना देता है ? स्पष्ट है कि राम तेरी गंगा मेली में झरनों और पहाड़ों की उपस्थित एक ऐसा सौन्दर्य रचती है जो जीवन के उबड़-खाबड़पन को ढक देता है। लेकिन दांये या बांए में उसका सौन्दर्य चक्करदार रास्तों पर दौड़ती मोटर में बैठी सवारी को हो जाने वाली "कै" को न सिर्फ यथावत रखता है बल्कि शहरी बुनावट में विकसित हुई मानसिकता पर व्यंग्य भी करता है। दृश्यों की जीवन्तता और संवादो की मारक भाषा में वह विशिष्ट भूगोल पूरी फिल्म का कथ्य ही हो जाता है।
मुम्बई के लिए आज भी बम्बई उच्चारित होते उस भूगोल में लौट कर स्कूल की अध्यापकी कर रहे रमेश मांजिला पर व्यंग्य करती छात्रों की पहाड़ी लटकन वाली भाषा में कहा गया संवाद- पेट अन्दर सीना बाहर, तन कर बैठो, एक मात्र उदाहरण नहीं है बल्कि बहुत सी ढेरों स्थितियां हैं, जहां उस कथ्य को पकड़ा जा सकता है जो फिल्म को आंचलिक बना दे रहे हैं। अंचल विशेष के समाज के भीतर व्याप्त वर्तमान चुंधियाती दुनिया की तस्वीर पूरी फिल्म में बहुत स्पष्ट है। प्रतिरोध की भाषा का व्यंग्यात्मक रूप दृश्यों को जीवन्त बनाने वाला है। संवादों की भाषा का वह लालित्य जो गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी के साथ शायद किसी अन्य भूगोल में मिस्फिट हो जाता, उत्तराखण्डी भाषा के उस रूप को रख देता है जो जन के बीच ज्यादा स्वीकार्य और एकेडमिक बहसों से बाहर है। हाल ही में उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा आयोजित तीन दिवसीय लोकभाषा कार्यक्रम में हुई चर्चाओं के दौरान उभरी राय के आधार पर कहना पड़ रहा है कि उत्तराखण्ड की लोक भाषाओं को गढ़वाली कुमांउनी तक सीमित कर देने की मानसिकता एक अतार्किक जिद्द है। दांये या बांये की भाषा का लोक तत्व ज्यादा प्रभावी और प्रचलित रूपों के साथ है। अभिव्यक्ति में ज्यादा ग्राहय उस भाषा को हाल में हुए लोकभाषा के आयोजन के बीच शुद्धिकरण की मानसिकता ने बेशक हिकारत के साथ रखने की चेष्टा की है पर अपने वक्तव्यों के प्रस्तुतिकरण में वक्ता स्वंय उसके उपयोग से खुद को भी बचा न पाये। उत्तराखण्ड में निर्मित हुई अभी तक की आंचलिक फिल्मों में भाषा के स्तर पर यह अनूठा प्रयोग उल्लेखनीय है। आंचलिकता के नाम पर शुद्ध रूप से गढ़वाली भाषा में निर्मित फिल्मों में, सिर्फ पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल को यदि हटा कर देखें, तो पात्रों की वेष भूषा और चाल ढाल ही नहीं उनके बनावटी ठसाव में एक असंगत किस्म का बेमेल रहा है। हाल-हाल में प्रदर्शित याद आली टिहरी भी, जिसे यूं तो काफी लोकप्रियता मिली, इस तंग दायरे से बाहर न रह पायी जबकि उसमें भी मुख्य पात्र वैसी ही शहरी मानसिकता के साथ है जैसा कि दांये या बांये का पात्र रमेश मांजिला। भाषायी आग्रहों की जिद्द में एक पिलपिले किस्म की भावुकता अभी तक की उत्तराखण्डी आंचलिक फिल्मों की एक कमजोरी रही है जिसे दांये या बांये पाटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। सामाजिक स्तर को परिभाषित करने में उसके संवाद ज्यादा स्वभाविक हैं जो लिखे जाते हुए तो खड़ी बोली हिन्दी के करीब दिखायी देते हैं पर पात्रों के मुंह से सुनते हुए जिनका लोकरंग स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है। ठेठ पहाड़ी स्त्रियों की आपसी बातचीत के संवादों की एक बानगी कुछ इस तरह है-
शहर की जिन्दगीी भागा दौड़ी की ठहरीीी।
यहां "ठहरी" का किया गया उच्चारण उस स्वाभाविक लय में है कि उसे कहीं से भी खड़ी बोली हिन्दी का संवाद नहीं कहा जा सकता।
यहां तो खाना बनायाऽऽ, घास काटाऽऽऽ फिर खाना बनायाऽऽऽऽ।
कहानी के स्तर पर फिल्म में उन सभी स्थितियों पर व्यंग्य बहुत गाढ़ा है जो सैलानी मानसिकता से पहाड़ की समस्या को देखने जानने और उसके निदान के लिए किये जाते प्रयासों के रूप् में दिखायी देते हैं। एन0जी0ओ0 किस्म की आर्थिक गतिविधियों से संचालित उद्यमिता भी निशाने पर है। फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि सब कुछ बहुत ही स्वाभाविक और बिना वाचाल हुए प्रकट होता है। बाज दफा तो इतना सहज कि दर्शक सिर्फ दृश्य की स्वाभाविकता में ही टिका रह जाता है और अन्य अर्थों तक जाने की जरूरत ही नहीं समझता। पहाड़ का भूगोल सिर्फ काव्य रचना के ही अनुकूल है यह मिथ रमेश मांजिला की मानसिकता में भी है। सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना के लिए उसकी हवाई बातों के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी आकार लेती है। चलताऊ मुहावरे में- पहाड़ो में यदि यहां का पानी और जवानी ठहर जाए तो पहड़ो का नक्शा बदल जाएगा, रमेश मंाजिला भी अपने तर्कों के साथ है और पहाड़ो के पीछे से एक नया सूरज उग रहा है जैसी आशावादी बातों से भरा उसका व्यक्तित्व जमीनी हकीकतों से दूर रह कर सोचने वाले बुद्धिजीवियों की छवी जैसा ही है। कक्षा में पूछे गये सवाल पर कि उसकी बातों का छात्र-छात्राओं पर क्या प्रभाव है ? एक छात्रा का बहुत ही स्वभाविक जवाब- स्ार आप बम्बई से आए हो, दर्शकों को गुदगुदाने लगता है। पेट अन्दर, सीना बाहर, तन के बैठो दोहरा-दोहरा कर छात्रों द्वारा बोला जाने वाला रमेश मांजिला का संवाद क्या सिर्फ बच्चों की स्वाभाविक चंचलता का नमूना है ? इससे व्यंजित होता वह अर्थबोध जो व्यापक शहरी मध्यवर्गीय मानसिकता में इस दौर में ज्यादा घ्ार करता गया, क्या इसके निशाने में नहीं? योग और ध्यान से गम्भीर किस्म के रोगों की चिकित्सा की सीमाएं दरवाजे की चौखट से टकरा जाते रमेश मांजिला को सिर पकड़ लेने को मजबूर करते दृश्य में दिखायी दे जाती है।     

भौर का सांझ का आग उमंग
आस का प्यार का लाल है रंग

ईंट का पान का भी लाल है रंग।

गाड़ी आ गयी तो जंगल जाने वाली स्त्रियों के दिन फिर गये।
बकरियां ले जानी है तो गाड़ी पर लादा जा सकता है उन्हें।


there are miles to go before we sleep

एक लड़का है जो घर के आगे से आती जाती गाड़ी पर पत्थर फेंकता है।

बछड़ा तो पत्थरों में अटका है और लाल गाड़ी का एक सही उपयोग होता है उस चोटी तक पहुंचने के लिए होता है। फिल्म यदि यहीं पर खत्म हो जाती तो ज्यादा व्यापक अर्थ देती। तमाम उपभौकतावद के विरूद्ध पारम्परिक उद्योग पर यकीन के साथ। क्यों यहीं पर वह दीपा दिखायी देती है जिसे अपने जीता यानी रमेश माजिला की उस जिन्स पर शर्म आती है जिस पर उसकी सहेलियां हंसती है और उसके जीजा का मजाक बनाती है। उससे आगे कांडा कला केन्द्र को दिखाने का कोई अर्थ फिल्म में दिखता नहीं। और न ही कोई ऐसा संकेत ही उभरता है जिससे वह खिलंदड़ पन जो पूरी फिल्म में बिखरा हुआ था कोई व्यंग्य पैदा करे।
विजय गौड़  
जनसंदेश टाइम्स( लखनऊ) में ८ मई २०११ को प्रकाशित

Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..