Sunday, September 11, 2011

योजनाओं के आंकड़े झूठ के पुलिंदे होते हैं


                                                                                       
   यदि गौर से देखें तो पाएंगे कि दुनिया छोटी-बड़ी सत्ताओं का एक संजाल है। परिवार से लेकर दे्श और दुनिया के स्तर तक अनेक सत्ताएं ही सत्ताएं हैं। परिवार से ही शुरू कीजिए- मुखिया की परिवार के सदस्यों पर , पति की पत्नी पर ,सास की बहू पर  ,माता-पिता की बच्चों पर  , जेठानी की देवरानी पर ,हर बड़े की अपने से छोटे पर सत्ता । परिवार से बाहर आ जाइए- गुरु की शिष्य पर ,पुरोहित की जजमान पर ,ताकतवर की कमजोर पर, अधिक जानकार की कम जानकार पर , पढ़े-लिखे की अनपढ़ पर , खूबसूरत की बदसूरत पर , बड़ी जाति वाले की छोटी जाति वाले पर , अधिक पैसे वाले की कम पैसे वाले पर  ,बहुसंख्यक की अल्पसंख्यक पर  ,शहर की गांव पर  ,बड़े देश की छोटे दे्श पर सत्ता। कहां तक जिक्र किया जाय इन सत्ता-तंतुओं का ? अंत हो तब ना ?  हर एक की कोशिश रहती है कि पदसोपान क्रम में उससे नीचे का व्यक्ति या संस्था उसकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करे। थोड़ी भी ढील ऊपर वाले को बरदा्श्त  नहीं होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी सत्ता को बनाए-बचाए रखने की कोशिश में लगा है। होड़ सी दिखाई देती है सत्ता हासिल करने की---बड़ी से बड़ी फिर उससे बड़ी ---कोई अंत नहीं इस होड़ का भी। सारे संघर्ष सत्ता के लिए ही हैं। राजनीतिक सत्ता इसके केंद्र में है। इन छोटी-छोटी सत्ताओं का चरित्र राजनीतिक सत्ता के चरित्र पर निर्भर करता है। राजनीतिक सत्ता अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इन छोटी-छोटी सत्ताओं और उसके लिए होने वाले संघर्षों को बनाए रखना चाहती है। हर-एक व्यक्ति अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए झूठ ,छल-प्रपंच ,दिखावे का सहारा  लेता है।

युवा कवि बुद्धिलाल पाल ने अपने  सद्य प्रकाच्चित कविता संग्रह  राजा की दुनिया में सत्ता के इस संजाल के बारीक तंतुओं और गठजोड़ों को पकड़ने की बहुत अच्छी कोशिश की है। राजा को उन्होंने प्रतीक बनाया है। उसके बहाने सत्ता के पूरे चरित्र को उघाड़ा है। इस संग्रह की कविताओं में राजा की क्रूरता ,छल-छद्म और पाखंड तथा प्रजा के सीधेपन और विवशता की अभिव्यक्ति है। यहां राजा के मंतव्य को बताने के बहाने सत्ता के मंतव्य को बताया गया है। इन कविताओं में राजा केवल एक व्यक्ति या संस्था के रूप में नहीं बल्कि एक मानसिकता के रूप में आया है-वह हर जगह होता है /परंतु दिखाई नहीं देता---राजा /अदृश्य है ,निराकार है /घट-घट में बसा है। वास्तव में राजा हम सबके भीतर होता है। हम सब छोटी-छोटी " रियासतों" के राजा हैं। वह "रियासत" सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक ,धार्मिक ,बौद्धिक ,शारीरिक आदि किसी भी तरह की हो सकती है। यह हमारी प्रवृत्तियों  और व्यवहार में दिखाई देती है जो जाने अनजाने अभिव्यक्त होती रहती हैं। यह बात कवि पाल इस रूप में व्यक्त करते हैं- कबिलाई युद्धों में/कबीले के सरदार /राजा होते हैं /जातियों में उनके सामंत/राजा होते हैं /धर्मों में उनके महानायक /राजा होते हैं।   
 
हर कोई अपनी सत्ता चाहता है। प्रत्येक दूसरे की सत्ता का तो विरोध करता है पर अपनी सत्ता को येनकेन प्रकारेण बनाए रखना चाहता है। क्षाम-दाम-दंड-भेद की नीति का सहारा लेता है। अपनी सत्ता को जायज ठहराने के लिए गलत-सही तर्क गढ़ा करता है। गलत-सही तर्कों से अपना मायाजाल बुनता है। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य बना डालता है। बुद्धिलाल पाल सत्ता के इस "मायाजाल" को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं-सत्ता का यह जादू सीधे-सीधे समझ में नहीं आता है। निखालिस आंखों से नहीं दिखाई देता है। उसका प्रभाव ही दिखाई देता है उसकी चाल नहीं। जनता के हित के नाम पर की जाने वाली मगरमच्छी नौटंकी ही हमें दिखाई देती है। उसके छल-प्रपंच इस नौटंकी के पीछे-छुप जाते हैं। इसमें राजा अकेला नहीं उसके साथ उसका पूरा वर्ग मौजूद रहता है। कबीले के सरदार ,जातियों के सामंत ,धर्मों के महानायक ,दरबारी , खैरख्वाह , नुमाइंदे ,व्यापारी ,पूंजीपति , रसूख वाले ,मौलवी ,पंडित आदि इसमें सभी शामिल हैं। सत्ता के मद से कोई अछूता नहीं है, इसके चलते ही जनता का सेवक कहलाने वाला -प्रशासन का /एक अदना सा प्यादा /मदमस्त होकर /हाथी जैसा चलता है/अपने को भारी-भरकम/पहाड़ जैसा/बाकी को तुच्छ समझता है। यह सत्ता का ही खेल तो है जिसके चलते -मर्द औरत को दोयम दर्जे की नागरिकता देता है। सवर्ण ,दलित को घ्रणा की नजरों से देखता है अमीर ,गरीब का शोषण करता है। कवि पाल का यह कहना बहुत युक्तिसंगत है कि दुनिया को सुंदर बनाना है तो इन सारी सत्ताओं के नाक में "नकेल" जरूरी है।

 कवि बिल्कुल सही कहता है कि शासक जो भी करता है केवल अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए। उसके पीछे उसकी जनकल्याण की भावना नहीं होती है। भले वह लोककल्याणकारी होने का ढोंग करते रहे। वह जानता है जनता का "असंतो्ष" कैसे दबाया जाता है , कैसे उसकी कंडिशनिंग की जाती है-दारू वालों को दारू/ भीख वालों को भीख/निकम्मे ज्ञानवादियों को दान/अपने सूबेदारों को /सूबे दान में देता है / कभी-कभी जरूरतमंदों को/सहयोग करता चतुर ठग-सा/ इस तरह/जनता की अकूत प्रतिरोध क्षमता को /अपने बस्तों में लपेटकर रखता है---राजा के पास /दिव्य दृष्टि होती है ----इस दिव्य दृष्टि से उसे पता चल जाता है कि कहां-कौन से जनांदोलन होने वाले हैं -उनको कुचलने के लिए /उसके पास पहले से ही /रूपरेखा तैयार रहती है। राजा अपने निहित स्वार्थों के लिए हमेशा चौकन्ना रहता है पर जनता के कल्याण की बात जहां आती हैं वहां आंखों में पट्टी बांध लेता है।उसके दरबारी इसमें उसके हमराही होते हैं। वह कानून-न्याय-समानता की बातें तो खूब करता है पर वह केवल दिखावा मात्र होती हैं। "राजा का न्याय' केवल ढोंग है - मुकुट यानि / अत्याचार का लाइसेंस / लाइसेंस यानि / भोग-विलास और सुविधा/ सुविधा यानि राजा/ ---व्यभिचार यानि / राजा का न्याय। 

जनता राजा की कृपा को सबसे बड़ा ईनाम और उसकी रक्षा को अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझती है। कवि का प्रश्न जायज है कि जनता राजा के हर दुख में शामिल रहती है -राजा के प्रति निष्ठा /जनता के खून में बहती है /पर क्या राजा भी कभी / जनता के लिए ऐसा ही होता है? राजा जनता को अपनी "जागीर" समझता है। उसको कोई मतलब नहीं जनता किस स्थिति में हैं । उसको तो अपनी और अपने ऐशो-आराम की पड़ी रहती है-राजा का भला /दरिद्रता से क्या वास्ता ।
 
कवि के लिए जनता का मतलब उस वर्ग से है -जिसने कभी /कोई सुख नहीं भोगा /नून ,तेल ,लकड़ी के लिए/भागती रही ,भागती रही /खटती रही उम्र भर /कोल्हू के बैल की तरह ---उनकी आंखें /मृत्यु देवता के दर्शन तक /रोटी में ,लंगोटी में /छप्पर में टंगी रही। जो सत्ता की संस्कृति से  संचालित हो यह कहती है ---मैं हारकर गया हर बार/ ईश्वर की चौखट पर /आखिरकार मुझे तो / यही बताया गया था / ईश्वर ही सब कुछ है। वह ---ईश्वर की मीमांसा में /बसी हुई जनता /ईश्वर की मीमांसा में /गढ़ी हुई जनता यानी /राजा के बाड़े में / राजा की जनता ---हैं । राजा की दृ्ष्टिमें जनता की क्या हैसियत होती है इस कविता में आई एक पंक्ति " राजा के बाड़े में"  बता देती है। ईश्वर की मीमांसा से यह जनता पशु (निरीहता के अर्थ में ) बना दी जाती है जिसका अपना कोई विवेक नहीं रह जाता है। दरअसल राजा जनता को अपने अधीन रखने के लिए केवल हिंसा या बल प्रयोग ही नहीं बल्कि यह तो अंतिम उपाय होता है ,वह वैचारिक प्रभुत्व के द्वारा ऐसा करता है। द्राासक वर्ग के अपने विचार होते हैं जो उसके अपने वर्ग हितों के अनुरूप होते हैं और उनकी सेवा करते हैं। एक लंबी प्रक्रिया में यही विचार शासित वर्ग के विचार बन जाते हैं। वह शासक वर्ग की मूल्य-मान्यताओं को स्वीकार करने लग जाते हैं और उन्हीं के अनुसार ढल जाते हैं। इस कविता में गहरा इतिहासबोध  दिखाई देता है। कवि इतिहास को पूरी द्वंद्वात्मकता एवं वैज्ञानिकता से देखता है। सत्ता ही हमेच्चा जनता की किस्मत लिखती है कवि इस ऐतिहासिक सत्य को अच्छी तरह जानता-समझता है। जो हमेशा उसका तरह-तरह से शोषण करता रहा वही "विधाता" बना उसके भाग्य का। उसके ऐशो-आराम , शानो-शौकत ,भोग-विलास का स्रोत बनी जनता ---पूरा इतिहास इसकी गवाही देता है । आज भी यह सिलसिला जारी है। "आदमी -आदमी में फर्क होता है।' यह किसी ईश्वर ने नहीं बल्कि राजा ने ही कहा।
 
कैसी विडंबना है कि  राज्य की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता है वह तो उसका कर्त्तव्य माना जाता है इस बात को बुद्धिलाल पाल ने बहुत सुंदर तरीके से प्रतीकात्मक रूप में कहा है - वे हथियार /हथियार नहीं माने जाते / राजा का सौंदर्य बढ़ाने वाले /आभूषण माने जाते हैं। ऐसा साबित किया जाता है जैसे राजा इसी के लिए बना है- और जनता /राजा के इसी रूप पर मुग्ध होती है। यहां जनता की मानसिकता पर भी अच्छा व्यंग्य है।
 
ये कविताएं राजा (सत्ता) की विशिषताओं को दो टूक द्राब्दों में बताती हैं- राजा वर्चस्ववादी संस्कृति का पोषक होता है---राजा अदृश्य होकर /वार करने की कला में /माहिर होता है---राजा की कूटनीति /जनता को छलना /राजा का यश फैलाना होती है---राजा का मंतव्य /जनता के उबलते खून को ठंडा करना होता है/ और उसी खून से अपने महल/ रंगमहल बनाना होता है। ---राजा /अपनी प्रतिस्थापना के बाद हर बरस / डेढ़ बित्ता /और बढ़ जाता है। ----राजा की /योजनाओं के आंकड़े /झूठ के पुलिंदे होते हैं/उनकी योजनाओं के लाभ/जरूरत मंदों में कम /अपनों में ही रेवड़ी की तरह बांटते हैं---आखिर राजा /राजा होता है !उसे सब छूट है ---राजा के राज्य में /गुंडों की भी /खास जगह होती है/ वह भी सम्मानित होता है/बेहद सम्मानित ---जरूरत पड़ने पर /मित्र ,सगे संबंधियों की / बलि भी स्वीकार कर लेते हैं---राजा धनबल ,बाहुबल से /सराबोर होता है/ कूटनीति उसके चरित्र में होती है---उसकी मर्जी ही /उसकी जाति ,उसका धर्म --- उसका हर आदेश/ईश्वर का आदेश होता है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राजनैतिक सत्ता को बैधता प्रदान करने के लिए ही राजा के आदे्श को ईश्वर के आदेश के रूप में स्थापित किया जाता है। ताकि जनता उसका विरोध ना करे। उसे सहर्ष स्वीकार कर ले। राजा का दैवीय स्वरूप होना ही उसे सारी मनमानी करने की छूट प्रदान करता है। दु:ख ने ईश्वर को जन्म दिया और राजनैतिक सत्ता ने उसका इस्तेमाल अपनी ताकत को बढ़ाने और बचाने के लिए किया। इस बात को बुद्धिलाल पाल बहुत सहज रूप से बता देते हैं। धार्मिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता एक दूसरे को कैसे मदद पहुंचाती हैं इस बात को ये कविताएं बखूबी व्यक्त करती हैं। सत्ता किस तरह की चालाकी करती है उसकी ओर कवि पाठकों का ध्यान खींचता है-जाति और धर्म की /ये सब बंदिशें /ये सब जरूरतें /जनता के लिए हैं/जनता ही भोगे--- हम तो उलझे हैं /मल्लाशाह जाति ,धर्म /वर्ण में ही/हिंदी-उर्दू ,तमिल में ही। और सत्ता अपना विस्तार करती चली जाती है। सत्ता द्वारा -डर दिखाकर /दिग्भ्रमित किया जाता है/डर की राजनीति /खूब फलती-फूलती है। जनता को धार्मिकता के नाम पर अंधा कर दिया जाता है  उसके विवेक का हरण कर दिया जाता है। उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह भी शासक वर्ग की भाषा और शिल्प में बातें करने लगती है- अंधे ,अंधों की बात मानते हैं /चमत्कार पर विश्वास करते हैं--- और अन्तत: /शैतान के भक्त हो जाते हैं।  इसके बावजूद भी राजा चाहे कितना ही -ओढ़ता है लिबास /सादगी का  ---पर उसका दर्प छुप नहीं पाता है। राजा भी अच्छा कहलाना चाहता है इसलिए सादगी का लिबास ओढ़ता है -फिर भी / उसकी सादगी में /उसका अक्खड़पन/उसका दर्प ही  झलकता है । राजा के द्राौक भी अलग होते हैं। भाषा भी अलग ताकि वह यह दिखा सके कि वह जनता से विशिष्ट है।
 
राजा की दुनिया को रचने-बनाने वाला केवल एक राजा नहीं है बल्कि वे सारे "देवता" हैं जिन्हें " इंद्रलोक के / वैभवशाली सुख के लिए" एक इंद्र को बनाया रखना जरूरी लगता रहा है। यहां सत्ता का वर्गीय स्वरूप सामने आता है। वर्ग हितों की रक्षा के लिए "राजा" को बनाए रखा गया है।  यदि उसके खिलाफ लड़ना है तो वर्गीय एक जुटता से ही संभव होगा। अन्यथा उसका "अभेद्य" किला नहीं भेदा जा सकता है। कवि शासक वर्ग की आकांक्षाओं को भी पहचानता है और उनकी षड्यंत्रों को भी ,सत्ता के बिचौलियों को भी। उसके "तब और अब" को भी। पहले भी राज्य का खजाना राजा के ऐशो-आराम में उड़ता था आज भी।

कवि राजा और राक्षस में समानता देखता है और अंतर सिर्फ इतना कि - राक्षस के सींग/दिखाई देते हैं /राजा के नहीं । कवि का दिल अवसाद से भर जाता है जब राजा के दरबारियों में एक और दरबारी बढ़ जाता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक का ध्यान बरबस मौजूदा लोकतंत्र की ओर खिंच जाता है। इनसे एक स्वर बिना कहे ही निकलता है कि आज के तथाकथित लोककल्याणकारी राज्य भी इसके अपवाद नहीं हैं। कविताओं में से यदि राजा शब्द को हटा दें तो सारी की सारी कविताएं आज की राजनीतिक व्यवस्था और उसके कर्त्ताधर्ताओं पर सटीक बैठती हैं। ये कविताएं उस आधुनिक राजतंत्र का कि्स्सा कहती हैं जो लोकतंत्र नामधारी है। इन कविताओं के माध्यम से कवि हमें इस बात का अहसास दिलाता है कि नाम बदलने से चरित्र नहीं बदल जाता है। कवि राजतंत्र के बहाने आज के पूंजीवादी लोकतंत्र पर चोट करता है और राजतंत्र से उसकी समानता स्थापित करता है। आज भले कहने के लिए लोकतंत्र हो गया हो पर चरित्र में राजतंत्र ही है। इस तरह ये कविताएं लोकतंत्र की सीमाओं की ओर भी ध्यान खींचती हैं। युवा कवि-आलोचक बसंत त्रिपाठी ने ब्लर्व में सही लिखा है - "" बुद्धिलाल पाल ने आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा की उपस्थिति और उसकी निर्मिति को व्यापक संदर्भ में देखा है। कबीलाई युद्धों से लेकर सामंती समाज ,पूंजीवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजतंत्र की मनोरचना के तमाम रूप इन कविताओं में उपस्थित हैं ।''
 
ये कविताएं समाज में मौजूद शासक और शासित वर्ग की जीवन-परिस्थितियों का कम शब्दों में सटीक चित्रण करती हैं। यह यथार्थ है कि शासित वर्ग जीवन पर्यंत रोटी-कपड़ा-मकान के लिए खटता रहता है और शासक वर्ग सोने-चाघ्दी से लदता है। इन कविताओं के संदर्भ में  कवि-कथाकार अनवर सुहेल अपनी पत्रिका "संकेत" में लिखते हैं कि बुद्धिलाल पाल की कविताएं राजाओं की मानसिकता और प्रजा की बेचारगी बयान करती है---उनकी कविताएं आकार में छोटी हैं लेकिन घाव बड़े गम्भीर करती हैं। ---वे छोटी कविताओं के सिद्धहस्त कवि हैं। --- व्यंग्योक्तियां ही उनकी कविताओं की ताकत है।
 
वास्तव में इस संग्रह की कविताएं छोटी-छोटी अवश्य हैं पर अपने में गहरे निहितार्थों को अपने छुपाए हुए जीवन का सार प्रस्तुत करती हैं। अपने आप में अलग तरह की कविताएं हैं। वे छोटे-छोटे उदाहरणों से जीवन की बड़ी-बड़ी बातों को बहुत सहजता से व्यक्त कर देते हैं। उनकी दृ्ष्टि में कहीं भ्रम नहीं दिखाई देता है। वे सब कुछ  बिल्कुल साफ-साफ देखते हैं। पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ देखते हैं। समय की नब्ज को बहुत अच्छी तरह पकड़ते हैं। उसकी धड़कनों को गिनने में किसी तरह की गलती नहीं करते । जो कवि जीवन को जितनी गहराई से समझता है वह अपनी बात को उतने ही कम द्राब्दों में कह पाता है। यह खासियत हमें बुद्धिलाल पाल में दिखाई देती है।
 
समीक्ष्य संग्रह में साम्राज्यवाद और बाजारवाद के प्रभाव को व्यक्त करती कविताएं भी हैं। " नया राजा" कविता अमेरिका पर अच्छा व्यंग्य है। उनका राजा केवल देश तक सीमित नहीं है- देखो ,वो देखो /आंधी की तरह धूल उड़ाता /चला आ रहा है वह / बम धमाकों के साथ /मानवाधिकारों की दुहाई देता /हम सबका हमारी पूरी दुनिया का/नया राजा। आज की बाजारवादी व्यवस्था में आदमी की हैसियत कितनी रह गई है उस पर भी वे अपनी बात कहते हैं- उनकी नजरों में / हम सिर्फ बाजार /जैसे वस्तु से /वस्तु की तुलना । बाजार हमारे जीवन में कैसे घुस आया इस उनका कहना बहुत सटीक है- वे हमारे घर /हमारे जीवन में / सगे संबंधी /शुभचिंतक बनकर आए। इस तरह आकर कैसे वे हमारे मालिक बन जाते हैं। आज बाजार पूरी तरह आदमी को अपने अनुसार चला रहा है। व्यक्ति की पसंद-नापसंद को तय कर रहा है। हमें किस वस्तु की आवच्च्यकता है इस बात को बाजार निर्धारित कर रहा है। हमारा हृदय परिवर्तन कर  रहा है। हम अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने में असमर्थ होते जा रहे हैं। बाजार की चका-चौंध हमें विवेकशून्य किए जा रही है। इस बात को हम रोज-रोज के अनुभवों से समझ सकते हैं। हमारी इस मनोदशा को ये कविताएं बहुत अच्छी तरह व्यंजित करती हैं। बाजार की भी एक सत्ता है।
 
शिल्प की दृष्टि से इन कविताओं को देखा जाय तो कहना होगा कि  ये सहज-संप्रेषणीय कविताएं हैं । कवि की बात भाषा के चक्कर में कहीं भी नहीं फंसती है। बुद्धिलाल भाषा को सहूलियत से बरतने वाले कवि हैं । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए भाषा को उलटने-पलटने या घुमाने-फिराने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वे भा्षा के पेंच को बेतरह कसते नहीं है । वे जानते हैं ऐसा करने का मतलब है बात की चूड़ी मर जाना। इन कविताओं को अलग तरह से पढ़ने की जरूरत है उस मनोदशा तक पहुंचने की जरूरत है जहां से ये कविताएं पैदा हुई हैं। एक लंबी कविता की तरह है यह संग्रह एकदम नया प्रयोग है। इस संदर्भ में वरिष्ठ कवि और 'समावर्तन' पत्रिका के संपादक निरंजन श्रोत्रिय उनकी कविता पर सटीक टिप्पणी करते हैं-वे कविता में शब्दों की स्फीति ,बयानबाजी और विश्लेषण को तरजीह न देकर चीजों को दो-टूक डिफाइन करते हैं। '' यह सही भी है क्योंकि कविता का उद्देश्य वाक चातुर्य दिखाना नहीं बल्कि संवेदना का विस्तार करना तथा अपने समय और समाज के प्रति दायित्वपूर्ण दृ्ष्टि विकसित करना होता है। यह काम कवि बुद्धिलाल पाल की कविताएं बखूबी करती हैं क्योंकि वे हमेशा जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले कवि हैं। वे लोक के नाम पर होने वाले षड्यंत्रों को खूब समझते हैं और अपने तरीके से  उसका प्रतिरोध करते हैं। इन्हें सच्चे लोकतंत्र की चाह की कविताओं के रूप में देखा जाना चाहिए।
   - महेश चंद्र पुनेठा   

राजा की दुनिया (कविता संग्रह) बुद्धिलाल पाल 
प्रकाशक : यश पब्लिकेशन 1/10753 सुभाष पार्क ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली -32
मूल्य - 160 रु0

  

Wednesday, September 7, 2011

उदार-अंधराष्ट्रवाद

मैं भी अन्ना 

गलियां बोलीं मैं भी अन्ना, कूचा बोला मैं भी अन्ना!
सचमुच देश समूचा बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
भ्रष्ट तंत्र का मारा बोला, महंगाई से हारा बोला!
बेबस और बेचार बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
साधु बोला मैं भी अन्ना, योगी बोला मैं भी अन्ना!
रोगी बोला, भोगी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
गायक बोला मैं भी अन्ना, नायक बोला मैं भी अन्ना
दंगों का खलनायक बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
कर्मनिश्ठ कर्मचारी बोला, लेखपाल पटवारी बोला!
घूसखोर अधिकारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
मुंबई बोली मैं भी अन्ना, दिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
डमरु बजा मदारी बोला, नेता खद्दरधारी बोला!
जमाखोर व्यापारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
दायां बोला मैं भी अन्ना, बायां बोला मैं भी अन्ना!
खाया-पीया अघाया बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
निर्धन जन की तंगी बोली, जनता भूखी-नंगी बोली!
हीरोइन अधनंगी बोली, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
नफरत बोली मैं भी अन्ना, प्यार बोला मैं भी अन्ना!
हंसकर भ्रष्टाचार बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

-अरुण आदित्य

 

संघर्ष के स्वरूप की उदारता के बावजूद बहस से परे राष्ट्रवादी दिखने की जिद उदार-अंधराष्ट्रवाद  ही कही जा सकती है। आप मैसेज कर सकते हैं, मिस्ड कॉल कर सकते हैं, जूलूस निकाल सकते हैं, कैण्डल मार्च कर सकते हैं, बत्ती बुझा सकते हैं, गीत गा सकते हैं, सोसल साइटों पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रियायें दर्ज कर सकते हैं, न हो तो मौन रह सकते हैं लेकिन मुद्दे पर सहमत होते हुए भी कुछ इतर करने की छूट नहीं ले सकते कि कुछ सुलगते हुए सवाल उठ खड़े हों। न सिर्फ समाज विरोधी बल्कि राष्ट्रविरोधी का तमगा पहनना चाहते हों तो आपका कुछ नहीं किया जा सकता। बदलाव के संघर्ष के उदार-अंधराष्ट्रवादी ऐजण्डे का अनुपालन उसके तय कायदों में ही संभव है। उदार-अंधराष्ट्रवाद  की विशेषता है कि कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  के निहित कायदों से सहमति के बावजूद यह उससे अपने संबंधों को बचाकर चलता है। न सिर्फ वे जिनसे कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  को खुली असहमति होती है बल्कि किसी भी तरह की दूसरी गतिविधियां यहां छूट के दायरे में रहती हैं। आप व्यापार कर सकते हैं, बिकनी पहनकर फैशन शो में उतर सकते हैं, मैदान में खेलने की बजाय विज्ञापनों में छे जड़ते हुए दर्शकों को कूल कूल कर सकते हैं, खुद को प्रोजेक्ट करने वाली सामाजिक गतिविधियों के नाम पर विदेशी या देशी धन पर गैर-सरकारी बने रह सकते हैं, ओहदेदार पद पर होने के कारण जो कुछ सीमित दायरे में भी जनहित संभव हो उससे बचते हुए जी हुजूरी की व्यवस्था को बनाये रखने में सहयोगी हो सकते हैं, अन्य भी-चाहे वह बदलाव के ऐजण्डे से मेल न खाती कोई भी गतिविधी हो, स्वतंत्र रूप से जारी रख सकते हैं। यूं क्षेत्र, जाति, धर्म, रूप, रंग और लिंगभेद जैसे गैर प्रगतिशील विचार इसके दायरे से बाहर हैं लेकिन इन पर यकीन करना आपकी निजि स्वतंत्रता बना रह सकता है। आधुनिकतम तकनीक के प्रति उदार-अंधराष्ट्रवाद  का कोई निषेध नहीं जो कि उसका उजला पक्ष भी कहा जा सकता है। लेकिन तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ उसके तय ऐजण्डे के प्रचार प्रसार में हो, इस बात पर उसका विशेष जोर होता है। बल्कि ज्यादा मारक तरीके से उसके प्रयोग की संभावनाओं की तलाश इसके उद्देश्यों में शामिल माना जा सकता है। उदार-अंधराष्ट्रवाद की एक और विशेषता है कि गैर-जनतांत्रिक होते हुए भी जनतंत्र में पारदर्शिता की बात बहुत जोर-शोर से करता है। प्रगतिशील मूल्यों के प्रति सहमति के भाव के बावजूद गैर प्रगतिशील विचारों की व्याप्ति के लिए उदार-अंधराष्ट्रवाद को हमेशा जनता के किसी बेहद धड़कते हुए मुद्दे की दरकार रहती है। अपनी चोरजेब के अर्थतंत्र के लेखे-जोखे को ज्यादा पारदर्शी बनाने की उसकी कोशिशें, तरह-तरह के छल-छद्म से छली जाती जनता के पढ़े लिखे तबके को प्रभावित करने के लिए, लोकप्रिय छवी की तलाश में होती हैं और लोकप्रिय छवी के इर्द-गिर्द लामबंदी की कार्रवाइयों में उसके नेतृत्व का अहम हिस्सा खुद की छवियों को ज्यादा से ज्यादा संवारने की कोशिश में जुटा होता है। 
भारतीय मध्यवर्ग की त्रासद कथा का जनलोकपाल उदार-अंधराष्ट्रवाद की ज्वलंत मिसाल है। 
ऐसे ही एक बड़ी बहस को बहुत खूबसूरत ढंग से कवि अरूण कुमार आदित्य न कविता के अंदाज में बयां किया है। 
-विजय गौड़



Friday, September 2, 2011

रैणीदास का जनेऊ

गाथाओं, किंवदतियों, लोककथाओं और मिथों में छुपे उत्तराखण्ड के इतिहास को जिस तरह से उदघाटित किया जाना चाहिए, अभी वह पूरी तरह से संभव नहीं हो पाया है। इधर हुई कुछ कोशिशों के बावजूद उसके किये जाने की ढेरों संभावनाओं मौजूद हैं। उत्तराखण्ड के इतिहास को केन्द्र में रखकर रचनात्मक साहित्य सृजन में जुटे डॉक्टर शोभाराम शर्मा की कोशिशें इस मायने में उल्लेखनीय है। प्रस्तुत है ऎसे ही विषय पर लिखी उनकी ताजा कहानी।
वि.गौ

डा शोभाराम शर्मा

उस साल मौसम के बिगड़े मिजाज ने कुछ ऐसा रंग दिखाया कि भुखमरी की नौबत आ गई। चौमास के आखिरी दिनों पानी इतना बरसा कि तैयार फसल चौपट हो गई। और इधर मौसम ने फिर ऐसी करवट बदली कि पूरा जाड़ा बिना बरसे ही बीत गया, रबी की फसल भी सूखे की भेंट चढ़ गई। जाड़ों भर कड़ाके की कोरी ठण्ड ने जीना मुहाल कर दिया था। अलाव के सहारे दिन भी कटने मुश्किल हो गए थे। और एक दिन जब आंख खुली तो खुली की खुली रह गयी। खेत, खलिहान, बाटे । घाटे, पेड़-पौधे और छत आंगन सब के सब जैसे किसी सफेद चादर से ढ़क गए थे। अजीब नजारा था। आंखे हरियाली देखने को तरस गयी। पहले बर्फवारी का भ्रम हुआ लेकिन जल्दी ही टूट भी गया। आसमान तो साफ था तो फिर बर्फ कैसे? सचमुच वह पाला ही था और कुदरत का वह करिश्मा बड़े बूढों ने भी पहली बार देखा था। पिघल तो गया एक ही दिन में लेकिन अपने पीछे पत्ते पेड़ों की टहनियां तक झुलसा गया। अनाज के अभाव में उन दिनों लोग जाड़ों की जिन सब्जियों से जैसे-तैसे काम चला रहे थे, पाले ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और तो और सकिन और बिच्छूघास जैसी जंगली वनस्पतियां भी झुलसकर रह गयी।
कुदरत की मार तो इलाके भर के लोग झेल ही रहे थे, लेकिन गांव के एक छोर पर बसे औजी (वादक और दर्जी) परिवारों की हालत सबसे पतली थी। आरम्भ में कोई एक औजी परिवार ही वहां आकर बसा होगा। सवर्ण परिवारों से मिलने वाले डडवार (हर फसल पर मिलने वाला अनाज) से उसकी गुजर-बसर हो जाती होगी। उसी एक परिवार के अब पांच-छह परिवार हो गये थे। हालांकि सवर्ण परिवार भी कुछ बढ़ गये थे लेकिन इतने नहीं कि सारे औजी परिवारों का गुजारा हो सके। ऐसे में तीन-चार बच्चों के बाद एक और बच्चे का आगमन परिवार को खुशी देने की जगह दुखी ही तो करता । कड़ाके की ठण्ड और ओढ़ने-बिछाने को एकाध चीथड़ा भी नहीं। ऊपर से अशौच की चिंता। प्रसूता को उस सीलनभरी कोठरी में जहां एक कोने में बकरी और बांझ गाय बंधी थी दूसरे कोने में गोबर और मेंगनी के बीच बच्चे को जन्म देना पड़ा। और वही दिन था, जिस दिन धरती पाले का सफेद कफन ओढ़े मुर्दे की तरह अकड़ी पड़ी थी। पराल के बिस्तर पर तड़पते पूरा एक दिन और एक रात बीत गए लेकिन प्रसव नहीं हो पाया, मरणान्तक प्रसव-पीड़ा सुयरि (दाई) जिसके प्रयास से प्रसूता और नवजात दोनों की जान बच गयी। लेकिन खून जमा देने वाली ठण्ड के कारण जिस टैणी(मांस पेशियों में होने वाली जकड़न) का अनुभव प्रसूता को हो रहा था, उससे बचने का प्रयास करना जारी था। पराल के बिस्तर के पास ही चार पत्थर रखकर अंगीठी बना दी गयी। प्रसूता के लिए जिस गिजा की जरूरत थी, उसे जुटा नहीं पाए तो चुनमण्डी (मंडुवे के आटे का फीका तरल पेय) से ही काम चलाना पड़ा। पेट चल गया तो प्रसूता की जान पर बन आई। कहीं से मांग मूंग कर सेर-आध सेर-चावलों का जुगाड़ बिठाया और तब कहीं माण्ड पी-पीकर उसकी जान बच पाई।

Tuesday, August 23, 2011

मेहरबानी करके हमारा कोयला न खरीदिये




           जान गोर्डन आस्ट्रेलिया के एक युवा पर्यावरण रक्षक कार्यकर्ता हैं जो इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग पढ़ कर कुछ वर्षों तक खनन कंपनियों में काम करने के बाद इस बात से बेहद आहत हुए की खनिज सम्पदा के दोहन के नाम पर देख के पर्यावरण की अपूरणीय क्षति की जा रही है.इसके बाद उन्होंने आस्ट्रेलिया के पर्यावरण रक्षण के लोक चेतना जागृत करने वाले समूहों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया.पिछले वर्ष उनका लिखा और संगीत बद्ध किया हुआ आस्ट्रेलिया- दुनिया की वेश्या प्रतिरोध गीत बेहद चर्चित और विवादास्पद हुआ...यहाँ तक की आस्ट्रेलिया के अनेक रेडियो स्टेशनों ने इसके प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बात कोर्ट तक जा पहुंची.इस साल के शुरू में इसी अभियान के प्रचार के लिए गोर्डन भारत भी आए थे.
सुदूर आस्ट्रेलिया के इस अभियान के पीछे के तमाम कारण अपनी पूरी कुरूपता और बेशर्मी के साथ आज के इस भारत में भी यहाँ वहाँ मौजूद हैं.इसी लिए मुझे यह अपने पाठकों के साथ साझा करने का मन हुआ.
यहाँ प्रस्तुत है उनके उसी गीत का अनुवाद: प्रस्तुति: यादवेन्द्र
आस्ट्रेलिया-- दुनिया की वेश्या 
                                        ---- जान गोर्डन 

आस्ट्रेलिया जैसे हो कोई ख़ासमख़ास वेश्या 
दरवाजे खोले प्रशस्त... बुलाती है खनिकों को 
धड़धड़ा कर चले आओ अंदर 
खोद डालो जितना चाहे बड़ा गड्ढा 
फिर आयेंगे आत्मा को भी ढ़ो कर ले जाने वाले लोग
और समंदर के रास्ते रवाना कर देंगे यहाँ वहाँ... 
ऐसे जहाजों को लाइन लगाये हुए  दूर दूर तक
मैं देख रहा हूँ, ऐ लड़की....

आस्ट्रेलिया...दुनिया की वेश्या
किसी सड़क छाप उदास लड़की की मानिंद
आती हुई दौलत को मना कर नहीं सकती
तुम उन्हें करने देती हो हजार मनमानी
और छिन्न भिन्न करने देती हो अपनी आत्मा को भी
समंदर के रास्ते वे भेजते रहते हैं जो चाहें
तुम तो ये भी नहीं जानती
कि किस किस जगह पहुँचाई  गई  तुम्हारी दौलत .

(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील  लगता है 
बहुत कोशिश के बाद भी बे मजा...
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
आओ चलो मेरे साथ
हम चलेंगे सागर पार
तब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कैसे धधक धधक कर 
जल रहा है तुम्हारा यह काला सोना...

आस्ट्रेलिया किसी चीनी छिनाल  की तरह बन गया है... 
वे तुम्हारा मखौल उड़ा रहे हैं, ऐ लड़की 
पहले वे चुरा ले गए तुम्हारी  आत्मा
फिर उड़ाते हैं अब तुम्हारा ही माखौल 
तुम्हारे  नेता..उनकी तो  रीढ़ ही नहीं है
वे बनाये रखते हैं लोगों को मूढ़
और आदम जमाने की पार्टी लाइन पर चलते जाते हैं
बिलकुल लकीर के फकीर बने हुए..

 
(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील लगता है 
कि मैं इसको राष्ट्रीय अभिशाप कहता हूँ 
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
मुझे दिखाई देता  है मौसम का तेजी से बदलना
मुझे दिखाई देते हैं धरती पर छाये विनाश के काले बादल 
इतने सब कुछ के बावजूद
कैसे तुम करती रहती हो यह सब सहज
मैं समझ नहीं पाता ...
कैसे और क्यों कर करती रहती  हो यह सब?
 
(मुख्य गायक)
आस्ट्रेलिया..आओ हम मिलकर नाचें गएँ आनंद मनाएं
क्योंकि हम आजाद और जवान मुल्क हैं
और प्रकृति ने हमारी धरती  को बला की
खूबसूरती, दौलत और नायाबी बख्शी है. 



Sunday, August 21, 2011

आजादी के मायने

साहित्य और यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृषिट रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।"
हावर्ड फास्ट का उपरोक्त कथन लेखकीय दृषिटकोण की पड़ताल करते हुए कुछ जरूरी सवाल उठाता है लेकिन आजादी की कल्पनाओं में डूबी देश की उस महान जनता के सपनों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, जो 1947 के आरमिभक दौर में आजादी के तात्कालिक स्वरूप को स्पष्ट तरह से पूरा देख पाने में बेशक असमर्थ रही। बलिक एक लम्बे समय तक इस छदम में जीने को मजबूर रही कि सत्ता से बि्रटिश  हटा दिये गए हैं और देश आजाद हो चुका है। आजादी उसके लिए एक खबर की तरह आर्इ थी। व्यवहार में उसे परखे बगैर कोर्इ सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे भी खबर के बारे में कहा जा सकता है कि वह घटना का एकांगी पाठ होती है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी जिसकी तटस्थता, तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी, समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है। देख सकते हैं कि बहुधा व्यवस्था की पेाषकता ही उसका उददेश्य होती है।

तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है
अपने इरादों में नेक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से बंधी जनता की समझदारी में आजादी, अवधारणा नहीं बलिक व्यवहार का प्रसंग रहा है और होना भी चाहिए ही। तकनीक के विकास और उसके सांझा उपयोग की कामना हमेशा ही उसके लिए आजादी का अर्थ गढ़ते रहे है। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुकित, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है। रोजी-रोजगार और दुनिया के नक्शे में अपनी राष्ट्रीयता को चमकते देखना उसकी चेतना का पोषक तत्व रहा है। संसाधनों का समूचित उपयोग और प्राकृतिक सहजता में सांस लेना, काल्पनिक नहीं बलिक वह आधारभूत सिथति हैं, जनतांत्रिकता के मायने जिसके बिना अधूरे हो जाते हैं। जीवन की प्राण वायु का एक मात्र तत्व भी कहा जाये तो अतिश्योकित नहीं। देख सकते हैं कि नियम कायदे कानून के औपनिवेशिक माडल पर देशी सामंतो और मध्यवर्ग के स्थानापन मात्र की प्रक्रिया ही आजादी कहलायी जाती रही। परिणमत: एक खास वर्ग के लिए, जिसमें नौकरी पेशा सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका भी समा जाता है, और रोजी रोजगार से वंचित एक बड़े वर्ग के लिए, आजादी के मायने एक ही नहीं रहे हैं। नियम कायदों के अनुपालन के लिए जुटी खाकी वर्दियों का डंडा भी वर्गीय आधारों से संचालित है। जनतंत्र के झूठे ढोल के बेसुरेपन में कितने ही राडिया प्रकरण, बोफोर्स घोटाले, हर्षद मेहता कांड और हाल-हाल में बहुत शौर करते 2-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी घोटाले, कौन बनेगा करोड़पति नामक धुन के साथ मद मस्त रहे हैं। खेती बाड़ी और दूसरे लघु उधोगों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाले राक म्यूजिकों ने जो समा बांधा है, देश का युवा वर्ग उसकी उत्तेजक धुनों में ज्यादा चालू होने के नुस्खे सीखने के साथ है। प्रतिगामी विचारों को यूरोपिय और पाश्चात्य संस्कृति के साथ फ्यूजन करने वाले, धार्मिक उन्मांद को भड़का कर, सत्ता की अदल बदल में ही अपनी चाल का इंतजार करते रहे हैं। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ मंदिरों के गर्भ ग्रहों में वर्षों से छुपा कर रखे गये धन पर इठला रहा है। आर्थिक जटिलताओं के ताने बाने में औपनिवेशिक और आन्तरिक औपनिवेशिक अवस्थाओं ने मुनाफे की दृषिट से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था के पेचोखम को अनेकों घुमावदार मोड़ दिये हैं। यह आजादी के अभी तक के दौर की ऐसी कथा-व्यथा है जिसमें व्यवस्था का मौजूदा ढांचा आजादी के वर्गीय आधार वाला साबित हो रहा है।   

अवधारणा के स्तर पर नियम कायदों की लम्बी फेहरिस्त में समानता बंधुत्व और छोटे-बड़े के भेद-भाव के बावजूद व्यवहार में उनके अनुपालन न करने वाली सरकारी मशीनरी के कारणों की पड़ताल बिना सामाजिकी को पूरी तरह से जाने और जनतंत्र को सिर्फ ढोल की तरह पीटते रहने से संभव नहीं है। सिद्धान्तत: ताकत का राज खत्म हो चुका है लेकिन व्यवहार में उसकी उपसिथति से इंकार नहीं किया जा सकता है। जनतंत्र का ढोल पीटते स्वरों की कर्कशता को देखना हो तो सुरक्षा की दृषिट से जुटी वर्दियों के बेसुरे और कर्कश स्वरों में कहीं भी सुनी और देखी जा सकती है। भ्रष्टाचार की बहती सरिता में डूबे बगैर हक हकूकों की बात कितनी बेमानी है, योजनाओं के कार्यानवयन में जुटे अंदाजों को परख कर इसे जाना जा सकता है। जनता की धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका सामान्य वर्ग का नौकरी पेशा कर्मचारी भी कैसे आम जन पर कहर बनता है, इसे सिविल सोसाइटीनुमा आंदालनों के जरिये न तो पूरी तरह से जाना जा सकता है और न ही उससे निपटने का कोर्इ मुक्कमल रास्ता ढूंढा जा सकता है। आजादी की वर्षगांठ का पर्व ऐसे सवालों से टकराये बिना नहीं मनाया जा सकता। रस्म अदायगियों की कार्यवाहियों में आजादी का कर्मकांड तो संभव है लेकिन आजादी के वास्तविक मायनों तक पहुंचना संभव नहीं। मुनाफे की दृषिट से संचालित व्यवस्था के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को आजादी मानने की समझ को अब मासूमियत कहना भी ठीक नहीं।

1947 के बाद विकसित हुए औधोगिक ढांचे ने उत्पादन के केन्द्रों को शहरी क्षेत्रों में स्थापित कर विकास के चंद टापुओं का निर्माण किया है। कृषि आधारित उधोगों की अनदेखी के चलते विकास का जो माडल खड़ा हुआ है वह शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग के लिए ही अनुकूल साबित हुआ। यधपि उसकी भी अपनी एक सीमा रही है। दलाली और ठेकेदारी उसके प्रतिउत्पाद के रूप में सामने हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का बढ़ता घनत्व उसका दीर्घ कालीन परिणाम है, जो न सिर्फ पारिसिथतिकी असंतुलन को जन्म दे रहा है बलिक अविकसित रह गये एक बड़े भारत में निवास कर रही जनता को जो निराश और पस्त करता है। प्रतिरोध की आवाजों को जातीय और क्षेत्रीय पहचान के आंदोलनों की ओर धकेलने की राजनीति का सहयोगी हो जाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूचना प्रौधोगिकी का बढ़ता तंत्र ऐसी ही राजनीति का प्रस्तोता हुआ है। मुनाफे की संस्कृति उसकी प्राथमिकता में रही है और इस अंधी दौड़ में अव्वल आ जाने की चाह में घटनायें सिर्फ खबरों का हिस्सा हो रही हैं। खबरों का कोलाहल मचाते हुए मूल मुददे को एक ओर कर देने की चालाकियां स्पष्ट दिखायी देने के बावजूद भी उस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना जनता के हाथ में नहीं है। बलिक एक बड़े हिस्से के बीच यह सवाल बार-बार बेचैन करने वाला है कि क्या नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते हुए व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव लाया जा सकता है ? उत्तराखण्ड राज्य की मांग के सवाल पर सामाजिक चिंतक पूरन चंद जोशी के विश्लेषण को दोहराना यहां ज्यादा न्यायोचित लग रहा है जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं, ''....हमें यह  स्पष्ट रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भारत का पिछले पाच दशकों का विकास स्थानीयता के विघटनकारी विकास क्रम ने क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर भयंकर असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। जिसका विस्फोट हम आज देश के कर्इ भागों में देख रहे हैं। इस असंतोष और आक्रोश का मूल हमारे विकास क्रम की विकृतियों और हमारे विकास दर्शन और कार्यक्रम की अपूर्णता में है, इस कटु सत्य को न कभी हमारा शासक वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करता है, न मुख्यधारा के आर्थिक और सामाजिक चिन्तक और विचारक।

देश के तमाम क्षेत्रों में किसान और ज़मीन के सवाल खड़े हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर वैशिवक पूंजी की पैरोकारी ने जो अफरा तफरी मचायी है, उसने जनतंत्र को लूट तंत्र में बदल दिया है। नंदीग्राम का मामला अभी कोर्इ बहुत पुरानी बात नहीं। उड़ीसा में पास्को परियोजना के दुष्प्रभावों के विरुद्ध आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर गोली-बारी की घटना एकदम ताजा ही है। गुजरात में कच्छ का समुद्र तट, मैसूर की परियोजना, हरियाणा में रिलायंस परियोजना और गाजियाबाद का मामला तो बहुत ही ताजा है। ढेरों उदाहरण हैं जो कहीं से भी देश के तमाम नागरिकों को आजाद देश का नागरिक होने के सबूत नहीं छोड़ रहे हैं। हां एक खास वर्ग की आजादी को यहां भले तरह से देखा जा सकता है। बलिक प्रतिरोध की बहुत धीमी सी पदचाप पर भी हिंसक आक्रमणों की छूट वाली उस वर्ग की आजादी का नजारा तो कुछ और ही है। उसके पक्ष में ही तमाम प्रचार तंत्र माहौल बनाना चाहता है। सरकारी अमला उसके हितों के लिए ही कानूनों की किताब हुआ जाता है। जनतांत्रिकता का तकाजा है कि कानून के अनुपालन में सीट पर बैठे व्यकित की कलम से निकला कोर्इ भी वाक्य कानून है। किसी एक ही मसले पर लागू होते कानूनों की भिन्नता सीट पर बैठे व्यकित की समझदारी ही नहीं बलिक आग्रहों का भी नतीजा है। भिन्नताओं का आलम यह है कि हर बेसहारा व्यकित के लिए अपने पक्ष को सही साबित करने की लम्बी कानूनी प्रक्रिया का थकाऊपन झुनझुना हुआ जा रहा है। सूचना के अधिकार अधिनियमों या कितने ही लोकपाल अधिनियमों के आजाने पर भी जो वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित करने में अधूरा ही रह जाने वाला है। जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह उसी वैशिवक पूंजी के इशारों पर होता हुआ है जो मुनाफे की अंधी दौड़ में इस कदर फंसती नजर आ रही है कि आज अपने संकटों से उबरने के लिए सैन्य बलों के प्रयोग के अलावा कोर्इ दूसरा विकल्प जिसके पास शेष न बचा है। उसका अमेरिकीपन अहंकार की काली करतूत के रूप में तीसरी दुनिया के नागरिकों पर कहर बन रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद ऐसे ही अमेरिका को रोल माडल की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। सारा परिदृष्य इस कदर धुंधला गया है कि विरोध और समर्थन की अवसरवादी कार्रवार्इयां, किसी भी जन पक्षधर मुददे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है और आजादी के एक वर्गीय, धार्मिक एवं जातीय रूप को सामने रखा है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशसित में, बड़े-बड़े विस्थापनों को जन्म देने वाली नीतियों के पैरोकार डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं। आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर, उसी अमेरीकी आदर्शों स्वीकार्यता को भी ऐसी ही अवधारणाओं से बल मिल रहा है और आतंक की परिभाषा अपना आकार गढ़ रही है। संपूर्ण गरीब पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निशिचत ही चालक कोशिश है कि विदेशी धन संपदा से लदे फदे अप्रवासियों का झुंड आयेगा और देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगा।

झूठे जनतंत्र की दुहार्इ देते विश्व बाजार का सच आज की वास्तविकता है जो घरेलू उधोगों और उनके विकास में संलग्न बाजार को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है। उसके इशारों पर दौड़ती किसी भी व्यवस्था को आज आजाद व्यवस्था मानना, मुगालते में रहना ही है। आजादी का जश्न मनाते हुए सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से उसके क्रूर चेहरे को नहीं देखा जा सकता। तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने के लिए लगातार आक्रामक होती विश्व पूंजी की गति इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी एक सिथति से उसके सच तक पहुंच सके। उसके विश्लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है कि कहीं अपने मनोगत कारण की वजह से, उसे मुक्कमल तौर पर रखने में, वे आड़े तो नहीं आ रही। देशी बाजार का मनमाना पन भी कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं। यह सोचने वाली बात है कि तमाम चौकसियों के लिए सीना फुलाने वाली व्यवस्था क्यों उत्पादों के मूल्य निर्धारण की कोर्इ तार्किक पद्धति लागू नहीं करना चाहती। मनमाने एम आर पी मूल्यों के अंकन की छूट क्या एक खास वर्ग को उपभोक्ता सामानों में भी अघोषित सबसीडी की व्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए (?), जबकि किसानों और आम जनों को सबसीडी के सवाल पर यही वर्ग सबसे ज्यादा नाक भौं सिकोड़ने वाला है। दो पेन्ट खरीदने पर दो शर्ट मुफ्त बांटते इस बाजार की आर्थिकी क्या है ? यह सवाल आजादी के दायरे से बाहर का सवाल नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कारीगर और नौकरीपेशा आम कर्मचारियों को उपभोक्ता मानकर निर्धारित उत्पादकता लक्ष्यों के बाद के अतिरिक्त उत्पादन की मार्जिनल कास्ट का लाभ एक खास वर्ग को देता यह बाजार आजादी के वास्तविकता को ज्यादा क्रूरता से प्रस्तुत करता है। उत्पाद को खरीदने की स्वतंत्रता भी अधिकाधिक पूंजी वालों के लिए ही अवसर के रूप में है। ऐसे मसले पर आजादी जैसे शब्द को उचारना भी मखौल जैसा ही हो जाता है। 
 
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र हुआ है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गुण़वत्ता को जांचने की आजादी की भी जरूरत को नजर अंदाज कर दिया जा रहा है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, छुपाने के लिए नयी से नयी तकनीक की कोटिंग के प्रयोगों को चमकीली गुलामी ही कहा जा सकता है।

इस चमकीली गुलामी के असर से बचना भी आजादी को बचाने का ही सवाल है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औधोगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर किया है। बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक उसने ढीला किया है। लेकिन दलित आमजन की मुकित के लिए वैशिवक पूंजी की दुहार्इ देने का औचित्य दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन या दूसरे चेतना आंदोलन की राह फिर भी नहीं बन पा रहा है। स्त्री विमुकित का स्वप्न भी आजादी की चमकीली तस्वीर में जकड़बंदी के ज्यादा क्रूरतम रूप का पर्याय हुआ है। चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लेना उस असलियत से मुंह मोड़ लेना है जिसमें निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ लिया जाता है।
1947 से आज तक का भारतीय समय जिन कायदे कानूनों की व्यवस्था में पोषित और विकसित हुआ है, उसके विशलेषण को दुनिया के दूसरे मुल्कों से निरपेक्ष मानकर मूल्यांकन किया जाये तो ही आजादी के वास्तविक अर्थों तक पहुंचा जा सकता है। देख सकते हैं कि आजाद भारत में भी 1947 से पहले के सामंती शोषण और उसकी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका है। बलिक उसी वजह से विश्व पूंजी का पिछलग्गू बनने को ही एक मात्र रास्ता स्वीकार करने की मानसिकता को आधार मिला है और संवैधानिक स्वीकार्यता के बावजूद समाजवाद सिर्फ सपना ही बना हुआ है।  

-विजय गौड़