Wednesday, June 22, 2016

कैराना से बाहर बहुत फैला हुआ है किराना घराना

आज से लगभग दस वर्ष पहले कथाकार योगेन्द्रत आहूजा की कहानी 'मर्सिया' पहल में प्रकाशित हुई। गुजरात की नृशंसता के बाद हिंसा का ताडण्व रचती सांप्रदायिकता को कहानी में प्रश्नााकिंत किया गया है। मेरे निगाह में सांप्रदायिकता के प्रतिरोध में रची गई वह हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानी है। शास्स्‍त्रीय  संगीत की रवायत का ख्या ल करते हुए पीपे परात और तसलों के संगीत भरा कोरस एक बिम्ब कहानी में उभरता है। योगेन्द्र आहूजा की वह कहानी हर उस वक्तत याद की जाने वाली कहानी है जब जब नृशंस्ताअों की ऐसी घटनायें या उनसे जुड़ी बातें सामने हों। हाल ही में एक वेब पेज (बीबीसी हिंदी डॉट कॉम) पर नजर आया, हमारे दौर के महत्वीपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का आलेख भी प्रतिरोध की उसी संगति में किराना घराने को याद कर रहा है। आलेख लेखक की अनुमति के साथ साभार प्रस्तु त है। 
 वि.गौ.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का पिछड़ा हुआ, ऊंघता हुआ सा एक कस्बा कैराना अचानक सुर्ख़ियों में है. केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के एक संसद सदस्य हुकुम सिंह ने मुस्लिम बहुसंख्या वाले इस इलाके से हिंदुओं के पलायन की सूची जारी करते हुए उसे 'एक और कश्मीर' करार दिया. इसके बाद एक सियासी घमासान शुरू हो गया. अंततः यह पाया गया कि यह हरकत आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र वोटों के ध्रुवीकरण के लिए की गई थी. लेकिन इन सुर्ख़ियों के बीच शायद एकाध जगहों को छोड़कर कहीं इस तथ्य का उल्लेख भी नहीं हुआ कि कैराना शास्त्रीय संगीत की एक बड़ी विरासत का कस्बा है. हमारे सांप्रदायिक और विकृत दिमागों के नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि उनकी राजनीति हमारी बहुलतावादी सांस्कृतिक विरासत के विस्मरण पर ही टिकी हुई है, लेकिन यह एक गहरी उत्तर भारतीय विडंबना है कि सूचना समाचार के माध्यमों की निगाह भी इस तरफ नहीं गई ।
मंगलेश डबराल 
वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार

शायद वास्तविक कैराना वह जगह है, जहां उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महान और सर्वाधिक रागमय परंपरा का जन्म हुआ था. किराना कहे जाने वाले इस घराने के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खां और उनके मामूजाद भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खां थे. अब्दुल करीम खां की आवाज़ असाधारण रूप से सुरीली और मिठास-भरी थी और उसमें इतना विस्तार था कि वह तीनों सप्तकों –मंद्र, मध्य और तार-से भी परे चली जाती थी। संगीत में तीन ही सप्तक मान्य हैं. लेकिन अगर कोई चौथा सप्तक होता तो वे आराम से वहाँ भी टहल आते. अब्दुल करीम खां कैराना में ऐसे खानदान में जन्मे थे जहां सारंगी का प्रचलन ज़्यादा था. संगीत की तालीम उन्हें अपने पिता काले खां और दादा गुलाम अली से मिली थी. दरअसल, मुग़ल सल्तनत के दौर में कैराना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के कई दूसरे गाँव भी बीन, सितार, सारंगी और तबला बजाने वालों के गढ़ थे. मुग़ल सल्तनत की हार और ईस्ट इंडिया कंपनी की फतह के बाद शाही संरक्षण ख़त्म होने पर ये खानदान भी उजड़ गए, उनके कई लोग दूर-दराज़ के दरबारों में आश्रय लेने चले गए. अब्दुल करीम खां महाराजा बडौदा के यहाँ पहुंचने वालों में थे. कहते हैं कि एक बार किसी ने उन्हें तिरस्कार के साथ 'सारंगिये' कहा तो उन्होंने सारंगी बजाना छोड़ दिया और फिर गायन में जो कीर्तिमान स्थापित किए, वे अब तक संगीत-प्रेमियों को चमत्कृत किए हुए हैं. 

अब्दुल करीम खां के गायन की द्रुत बंदिशों की तीन मिनट की कई रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं, जिनमें शुद्ध कल्याण, मुल्तानी, बसंत,गूजरी तोडी, झिंझोटी, भैरवी आदि प्रमुख हैं. कहा जाता है कि उन्होंने खयाल गायन में विलंबित की भी शुरुआत की थी, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है. उनका गायन और जीवन दोनों विलक्षण थे. बडौदा में उन्होंने अपनी शिष्या ताराबाई माने से प्रेम किया और जब धार्मिक लिहाज़ से इसका विरोध हुआ तो दोनों भाग कर बंबई चले गए, जहां से उनकी असल संगीत यात्रा शुरू हुई जो अंत में मिरज जाकर रुकी. उनके दांपत्य में कई विवाद भी हुए. लेकिन उनकी संतानों में से सुरेशबाबू माने, हीराबाई बड़ोदेकर, सरस्वती राणे आदि ने संगीत में खूब प्रतिष्ठा हासिल की. इनके अलावा जितने प्रतिभाशाली शिष्य उन्होंने बनाए उसे देखकर आश्चर्य होता है सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर, रोशनआरा बेगम, विश्वनाथ जाधव, अरशद अली, मश्कूर अली खां. पुणे में उन्होंने एक संगीत विद्यालय भी शुरू किया जहां वे परिवार के उदार मुखिया की तरह अपने शिष्यों का ख़याल रखते थे. 

अब्दुल करीम खां पहले उत्तर भारतीय संगीतकार थे जिन्होंने कर्नाटक संगीत से सरगम की तान आदि कई विशेषताएं अपनी कला में समाहित कीं और उसके संगीतकारों के बीच उत्तर भारतीय गायन को प्रतिष्ठा दिलाई. उन्होंने अपनी ठुमरियों को पूरब अंग से अलग कर एक नए शिल्प में ढाला और मराठी नाट्य संगीत भी गाया जिसमें 'चंद्रिका ही जणू' काफी प्रसिद्ध है. भारत-प्रेमी प्रसिद्ध थियोसोफिस्ट एनी बेसेंट उनसे बहुत प्रभावित थीं, लेकिन खां साहब की स्वप्निल और खुमार भरी आँखों के कारण उन्हें लगता था कि खां साहब ज़रूर अफीम का नशा करते होंगे. उन्होंने उनके एक शिष्य से गोपनीय पूछताछ की. शिष्य ने यह बात अब्दुल करीम खां को बताई तो उन्होंने चुटकी लेते हुए यह कहला भेजा, 'मैं नशा तो करता हूँ, लेकिन सिर्फ संगीत का.' भीमसेन जोशी शायद बीसवीं सदी में किराना के सबसे बड़े संगीतकार हुए हैं हालांकि गंगूबाई हंगल भी उनसे कमतर नहीं कही जाएंगी.ये दोनों विभूतियाँ अब्दुल करीम खां के सबसे योग्य शिष्य रामभाऊ कुंदगोलकर यानी सवाई गंधर्व की शिष्य थीं. भीमसेन जोशी मज़ाक में उनसे कहा करते थे कि 'बई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है, मेरी तो किराने की दुकान है!अब्दुल करीम खां के गायन में कैसा सम्मोहन था, इसकी एक बानगी भीमसेन जोशी के एक इंटरव्यू में मिलती है. वे 11 साल की उम्र में संगीत सीखने घर से भागे थे और ट्रेनों में बिना टिकट सफ़र करते रहे. इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "गदग में हमारे घर के पास एक दुकान थी, जहां अब्दुल करीम खां साहब का एक रिकॉर्ड अक्सर बजता था. एक तरफ शुद्ध कल्याण की बंदिश थी- 'मंदर बाजो' और दूसरी तरफ झिंझोटी में ठुमरी थी, 'पिया बिन नहीं आवत चैन.' मैं आते-जाते वहां खड़ा हो जाता और मंत्रमुग्ध उस आवाज़ को सुनता रहता. बस, मैंने तय किया कि ऐसा ही गाना सीखना है, और घर से निकल गया." किराना घराने के दूसरे दिग्गज उस्ताद अब्दुल वहीद खां कैराना में नहीं, बल्कि उसके पास के गाँव लुहारी में पैदा हुए थे. वो संगीत सीखने कोल्हापुर चले गए थे. वे करीम खां के मामूजाद भाई थे और उनकी बहन गफूरन बीबी से करीम खां का पहला विवाह हुआ था, जो टूट गया और इस वजह से दोनों उस्तादों के बीच मतभेद पैदा हुए. वहीद खां अपने गायन की रिकॉर्डिंग नहीं करने देते थे. उनकी सिर्फ तीन रिकॉर्डिंग मिलती हैं और वे भी गुपचुप ढंग से की गई थीं. लेकिन उनसे किराना के गायकों की विलंबित लयकारी का पता चलता है इंदौर घराने के महान गायक उस्ताद अमीर खां इस गायकी को अति-विलंबित तक ले गए. अब्दुल वहीद खां (जो ऊंचा सुनने के कारण बहरे वहीद खां भी कहे जाते थे) की दरबारी कान्हड़ा की एक विलंबित रिकॉर्डिंग है: 'गुमानी जग तज गयो'. 

अमीर खां पर इसका इतना गहरा असर पड़ा कि वे अंत तक यह बंदिश लगभग उसी अंदाज़ में गाते रहे. अमीर खां को इस वजह से भी कई लोग इंदौर नहीं, किराना घराने का मानते हैं. आज कैराना कस्बे में कहीं किराना घराना नहीं है. उसे महज़ एक सियासी मोहरा बना दिया गया है. राहत की बात सिर्फ यह है कि तमाम जांच के बाद भाजपा सांसद की सांप्रदायिक पलायन वाली रिपोर्ट सही नहीं निकली. इतना ही साबित हो पाया कि कैराना में एक माफिया ज़रूर है हालांकि उसके ज़्यादातर लोग जेल में हैं, लेकिन वह कोई सांप्रदायिक नहीं, बल्कि 'सर्वधर्म समभाव' वाला माफिया है जिसका शिकंजा हिन्दू-मुसलमान दोनों पर है लेकिन हमारे लोकतंत्र में अब कौन सी जगह बची है जहां माफिया नहीं है? धमकी, रंगदारी, फिरौती, हत्या का माफिया और वह खनन माफिया, जिसका जाल उत्तराखंड से लेकर मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गोवा तक बिछा हुआ है और जिसके काम करने के तरीके बहुत बारीक़ और राजनीतिक स्तर पर सम्मानित हैं. किराना घराना कैराना से बाहर बहुत फैला हुआ है. इस घराने की विलक्षण आवाजों में जीवित है. उसे हम उस्ताद मश्कूर अली खां (जिनका जन्म कैराना में ही हुआ), डॉ. प्रभा अत्रे, पंडित वेंकटेश कुमार, जयतीर्थ मेवुंडी और भीमसेन जोशी के शिष्यों माधव गुडी, आनंद भाटे, श्रीकांत देशपांडे आदि की आवाज़ में पलता-पनपता हुआ सुन सकते हैं. वह उन विभूतियों की आवाजों में भी सुरक्षित है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन किराना के सुरीले, राग-रंजित और विकल करनेवाले संगीत की विरासत छोड़ गई हैं

Monday, June 20, 2016

जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया



आप मुझसे किसी मद्द की कोई रिक्‍वेस्‍ट करें और मैं हामी भरकर आपको आश्वंस्त कर दूं। कई बार आपके जानकारी मांगने वाले फोन कॉल्स को इग्‍नोर करूं और फिर किसी एक दिन फोन कानों में संभाल लेने के बाद कहूं कि मैं तो अपका काम पहले ही कर चुका हूं, लेकिन असलियत आप जान रहे हों कि काम नहीं हुआ। आप दुबारा कॉल करें। मैं फिर कई बार के नो रिप्लािई के बाद आपकी सूचना पर आश्चर्य व्यक्त करूं कि अरे क्या नहीं हुआ वो काम आपका, और फिर से आश्‍वस्‍त करूं कि अच्छा‍ मैं देख कर बताता हूं, लेकिन कभी अपने से न बताऊं। बल्कि किसी भी तरह का जवाब देने से बचते हुए या तो फोन ही न उठाऊं, या कहूं कि अभी बिजी हूं, बाद में बात करता हूं और वह बाद कभी न आये तो भी आपको यह छूट नहीं मिल जाती कि आप मेरे व्‍यवहार की तुलना बिल्डहर, भूमाफिया, दलालों से करें।

ऊपर जो कुछ व्यक्त हुआ है वह आज के मध्य वर्गीय जमात की आम तस्वीक जैसा है। लेकिन देहरादून के किंवदंत हो चुके तीन पात्रों के बारे में जब बात की जाए तो पाएंगे कि उनमें से किसी ने भी मध्यवर्गीय जीवन का वरण नहीं किया। लेकिन अराजक तरह से अविश्वसनीय बने रहने की प्रवृत्ति के शिकार रहे। अवधेश, हरजीत एवं अरविन्दे शर्मा। दिलचस्प‍ है कि कविताएं लिखना और स्केेच बनाना तीनों के शौक रहे। संभवत: प्रेरणास्रोत अवधेश ही रहे हों। अवधेश चित्रकार थे। हरजीत लकड़ी पर दस्तकारी में माहिर और अरविन्दव शर्मा फोटोग्राफर।

अवधेश एवं हरजीत असमय ही इस बेरहम दुनिया को छोड़कर चले गये। अरविन्‍द अब देहरादून में नहीं है और अब भी अपने तरह से कला साहित्य की दुनिया का हिस्सा है। अरविन्द तीनों में ही सबसे कम महत्वाकांक्षी व्‍यक्ति रहा। शायद इसीलिए ज्‍यादा अराजक भी। इस कदर अराजक कि न तो अपनी कविताओं को ठीक से संभाला और न ही उन तस्वीरों को जिनमें कुछ लोग ही नहीं बल्कि देहरादून इतिहास बोलता था। आज के दौर में वे तस्‍वीरें साक्ष्य हो सकती थी। लेकिन लापरवाह अरविन्‍द के पास उनका होना आश्‍चर्य की बात ही होगी।

तमाम अराजकता के बावजूद अवधेश में अपने काम के प्रति एक खास किस्‍म का लगाव था। कथाकार सुरेश उनियाल की मद्द से अवधेश को दिल्ली में एक ठौर मिली हुई थी। सुरेश उनियाल 'सारिका' में थे। अवधेश सारिका के लिए स्‍केच बना रहा था और पुस्तकों के कवर डिजाइन भी करता था। अरविन्द का कहना रहा कि अवधेश अरविन्द को एक कवि के रूप में महत्व देने को तैयार नहीं था। अवधेश को याद करते हुए अरविन्द् अवधेश की अराजकता का बयान करता है-

एक बार अवधेश ने बड़े तपाक से कहा, अरविन्द इस बार तुम्हारे लिए एक अनुबंध लाया हूं। तुम ओर मैं सोमवार को दिल्ली जा रहे हैं। पैसों की चिन्ता मत कर। मैं इंतजाम कर चुका हूं। तुम्हें केवल कैमरा लेकर मेरे साथ चलना है। अगले दिन मेरे उठने से पहले ही गुरू अपना छोटा सा थैला कंधें पर लटकाएं मेरे घर पहुंच गये- जैसे कि देवलोक से कोई देवता किसी भक्त का कल्याकण करने के लिए प्रकट हुआ हो।
जमनापार लक्मीनगर में अवधेश ने एक किराये के कमरे में डेरा बनाया हुआ था। पहली बार मुझे अवधेश के महान गुण से मेरा साक्षात्कार हुआ। मैंने जाना कि वह एक अच्छा मेहमान नवाज भी है। तरल-गरल सब सरलता से उपलब्ध कराया गया। दूसरे दिन सुबह हम एक कार्यालय के लिए रवाना हुए। बड़े सम्मान के साथ मुझे और अवधेश को वहां जलपान कराया गया। हम काफी देर तक यूंही बैठे रहे। अवधेश की बेचैनी बढ़ने लगी। कार्यालय बाबू ने काम की कोई बात ही नहीं छेड़ी।
अन्तत: अवधेश को ही कहना पड़ा, आज मंगलवार है और मैं वायदे के साथ देहरादून से अपने छायाकार मित्र को ले आया हूं।
दूसरी तरफ से उत्तर आया- हां, आज मंगलवार है लेकिन जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया पिछले हफ्ते। अब तो धर्मवीर जैन को उस काम के लिए रख लिया गया है।

अवधेश को इस अंदाज में याद करने वाला अरविन्द आजकल कोलाज कला को साधने की कोशिश में है। कोलाज बनाने में अवधेश तीनों में ही सबसे कुशल था। पुरानी पत्रिकाओं के रंगीन ग्लेजी कागजों को काट काटकर उन्हें रचनात्मक रूप देता था। अरविन्द में इधर ठहराव आया है। उसके कोलाज किसी भी पेंटिंग से कम असरकारी नहीं। बहुधा पेंटिग ओर फोटोग्राफी का भ्रम देते हैं। प्रस्तुत हैं अरविन्द के कुछ नये कोलाज। 

Monday, June 6, 2016

सोचने वाला बॉक्सर

आज सुबह सुबह यादवेन्‍द्र जी का संदेश मिला, 'ब्‍लाग के लिए सामग्री भेजी है।' मेल देखा तो बहुत मन से लिखे गये और मुहम्मद अली के जरूरी उदगार दिखे। यादवेन्‍द्र जी का आभार।

 वि.गो.
 


मुहम्मद अली बॉक्सिंग से रिटायर होने के बाद हेनरी किसिंजर की तरह किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने की बात अक्सर किया करते थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त निर्भीकतापूर्वक अपने सुस्पष्ट एवं प्रखर विचारों को बेवाकी के साथ कह देने का धर्म निभाया। उनके कुछ वक्तव्य गहरी समझ का पर्याय हैं ,इनमें से एक वक्तव्य यहाँ उद्धृत है ।

प्रस्तुति : यादवेन्द्र
"जो लोग मुझसे यह जानने की इच्छा रखते हैं कि कल दुनिया में उपस्थित न रहने पर मैं किस तरह याद किया जाना चाहूँगा ,उनके लिए कहना चाहूँगा :

मुहम्मद अली

उसने कुछ प्याले प्यार के पिये 
एक बड़ा चम्मच सब्र का लिया 
छोटे चम्मच में दरियादिली 
और कटोरी भर नेकी 
हँसी ठट्ठा गिलास भर कर लिया 
और उसमें डाला  चुटकी भर लगाव और अपनापन  
उसके बाद ख़ुशी के रस में घोल दी अपनी स्वीकृति 
उसके पास बहुत बड़ी थी भरोसे की गठरी , उसमें वह भी मिलाया 
सबको अच्छी तरह से घुमा घुमा कर फेंट दिया .... 
पूरे जीवन को रोटी जैसा फैला कर
उसपर उड़ेला फैला दिया तैयार किया हुआ लेप 
और हर उस को थमाता रहा हाथ में एक एक टुकड़ा 
जिन जिन से सफ़र में  मुलाकात हुई 
और लगे वे साझेपन के सुयोग्य अधिकारी। 

Friday, May 27, 2016

कवि के अनकहे को पहचानना जरूरी है

यादवेन्द्र जी इस ब्लाग के ऐसे सहयोगी हैं कि इसमें जो कुछ अन्य भाषाओं से दिखेगा उन्में ज्यादातर अनुवाद और चयन यादवेन्द्र् जी ने ही किये हैं। यह उनकी स्वैच्छिक जिम्मेदारी और ब्लाग से उनके जुड़ाव का हिस्साा हैं। पिछले कई महीनों से वे जरूरी कामों में व्यस्त हैं। यही वजह है कि हम अपने पाठकों को अनुदित रचनाओं का फलक दे पाने में असमर्थ रहे हैं। उक्‍त के मद्देनजर, मैं खुद अनुवाद का प्रयास करते हुए दो कविताएं पोस्‍ट कर रहा हूं। अपने सीमित भाषा ज्ञान और कथाकार साथी योगन्द्र आहूजा की मद्द से चीनी कवि मिंग डी की दो कविताओं का अनुवाद करने का प्रयास किया है। मेरे अभी तक के जीवन का यह पहला अनुवाद है।
वैसे एक राज की बात है कि पहली कविता के अनुवाद में मेरे भाषायी ज्ञान की सीमा भर वाले अनुवाद में आप कविता का वह आस्वाद शायद न पकड़ पाते जो योगेन्द्र जी के भाषायी ज्ञान और अनुभव के द्वारा कविता को करीब से पकड़ने वाला हुआ है। सिर्फ योगन्द्र जी के संकोच का ख्याल रखकर ही कह रहा हूं कि मैं उनके सुझावों के मद्देनजर ही अनुवाद को अन्तिम रूप दे पाया हूं, वरना इस कविता के लिए तो श्रेय उन्हीं का है। हिन्दी अनुवाद उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है। अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहां लिंक कीजिये। अनुवाद के बारे में स्वंय मिंग डी का कहना है कि अनुवाद का मतलब है, मूल कवि के मानस में प्रवेश करके उस चीज को अच्‍छे से परखना चाहिए जो कवि का उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता। ताकि अनुवाद में संश्यात्मकता से बचा जा सके। अपनी कोशिशों में मेरे सामने यह सूत्र वाक्य लगातार मौजूद रहा।

चीन में पैदा हुई मिंग डी एक सुप्रसिद्ध चीनी कवि हैं। अभी यू एस ए में रहती हैं। अनुवाद और संपादन की दुनिया में वे सक्रिय रूप से हत्सतक्षेप करती हैं। इन्टरनेट पर मौजूद जानकारियां बता रही हैं कि अभी तक उनके 6 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 

वि.गौ.

पत्ती का बयान  


अपने तेज आघातों से सवाल करती हवा को
ढह जाते चिनार का जवाब-

हजार सफेद पत्तियां। हजार
निर्दोष जुबानें।  हजार
दस हजार रंगीन बहानें।         (उपरोक्‍त पंक्तियों  के अनुवाद अनिल जनविजय जी की सलाह पर दुरस्त किये गये।  
                                                      अनिल जी  का आभार)



मैं एक पत्ती उठाती हूं, जकड़ लेती हूं मुट्ठी में
जैसे थाम रही हूं समूचा दरख्त 

क्यू  युनान बताता है
पत्ती सच्चा बयान है दरख्त का

तांग लोग बताते हैं,
पतझड़ के दौरान पत्ती ही उघाड़ती है
समूचे शरद का रहस्य

मगर मैं तो महज एक पत्ती ही देखती हूं।


एक द्वीप चिडि़यों का  


हर दिन रहती है सपनों की दोपहर
लबालब जलाशय में तैरता जैसे बेहद शांत द्वीप


पेड़ की फुनगी पर बैठी चिडि़या पुकारती है मुझे 
नहीं जानती मैं हूं यहां नीचे
अपने शरीर को, चार अंगों को घुमेर देती नदी
सारी रात अंधेरे में खुली रहने वाली मेरी आंखें
चिडि़या की परछायी सी
नजर आती हैं जल में

अंधेरे में भी मुझे ताकती रहती हैं चिडि़यां
एक द्वीप मेरे भीतर चिडि़यों का
गाता रहता है गीत उजालों के:  

काफी पहले विदा हो गया मेरा घर
नारीयल और केलों के पेड़ो के साथ

सपनों में देखती हूं खिली हुई दोपहर ने
गढ़ दिया है एक स्वच्छंद द्वीप

Thursday, May 26, 2016

महानता के मारे



यह जो ऊपर शीर्षक है – ‘’महानता के मारे’’, यह इस बात को नहीं बताता कि किस महानता की बात हो रही। लिखने वाले चाहें तो लिख ही सकते हैं संबंधित क्षेत्र- क्रिकेटर/ वैज्ञानिक/ लेखक/ कवि/फेसबुकिये, आदि आदि।

लिखा तो यहां भी जा सकता था। पर अभी मेरे भीतर कोई ऐसी ग्रंथी फूलने को नहीं जिसको देखकर लोग मुझे आदतन मुफ्त की चिकित्‍सकीय सलाह बांटने लगें। यद्यपि दावे से मैं भी नहीं कह सकता कि सच में ही ऐसी किसी ग्रंथी का रोग मेरे भीतर भी न हो। इस तरह की कोई चिकितसकीय जांच मैंने नहीं कराई है। वैसे भी मुझे स्‍वंय की चिकित्‍सा करने का रोग तब से ही लगा हुआ है जब से मैंने होम्‍योपैथी चिकितसा पद्धति को अपनाना शुरू किया। कभी असमान्‍य महसूस करता हूं तो चिकित्‍सक के पास जाने की बजाय, एक सीमा तक अपना इलाज खुद ही कर लेता हूं। कई बार घर परिवार के लोगों और दोस्‍तों को दवा देने की हिमाकत कर चुका हूं। वैसे उनका कुछ बिगड़ा नहीं, ठीक हो ही गये। हां, होम्‍योपैथी की उन छोटी छोटी ओर अचूक गोलियां बेशक उनके भीतर सम्‍मान न पा पाईं, उन्‍हें तो यही लगा कि जैसे उन्‍हें कोई ऐसी बीमारी हुई नहीं थी, स्‍वस्‍थ ही थे। 

होम्‍योपैथी को जानने समझने और बहुत सी दवाओं को जरूरत पड़ने पर फिर फिर इस्‍तेमाल करने को जुटाने का मेरा अपना ही तरीका रहा। कभी किसी बीमारी ने घेरा तो डाक्‍टर को दी जाने वाली फीस और खरीदी जाने वाली संभावित दवाओं की कीमत, जो उससे पहले के जीवन के अनुभव रहे, का अनुमान लगाकर उन्‍हें सिर पर आ पड़ा खर्चा मान, मैंने उस उस समय पर होम्‍योपेथी चिकितसा पद्धति की किताबें और रोग लक्षणों के आधार पर चुन ली गयी दवाओं की कितनी ही शीशियां खरीदी हुई हैं। यहां तक कि सुगर बाल और किसी को कभी दवा बना कर देने के अनुमान से खाली खोखे भी। एक आला, एक प्रेशन नापने का यंत्र और एक थर्मामीटर भी, जबकि उनकी जरूरत मुझे शायद ही कभी पड़ी हो। मैं तो रोग को पहचानने के लिए लक्षणों पर यकीन करने लगा हूं और जितनी भी तरह की व्‍याधियां दिख रही हों उनके लिए एक अचूक दवा तलाश कर ही रोग का निवारण करने में सफल रहा हूं। बताता चलूं कि मैंने जब भी खुद को रोगी पाया है तो मेरे सम्‍पूर्ण को, खण्‍ड खण्‍ड करके तमाम तरह की रोग जांचों वाली चिकितसा पद्धति से मैंने अपने को बचाने पर ही यकीन नहीं किया, बल्कि उन जांचों के बाद प्रस्‍तावित की जाने वाली तरह तरह की दवाओं से अपने को बचाया है। बल्कि उन अनाप सनाप दामों में लुटने से भी बचाया हे जिनमें वे बिकती हैं।  लेकिन यह भी सच है कि ऐसा करते हुए कइ्र बार मैं भी कमजोर साबित हुआ और शुभेक्षुओं की सलाह पर उस पद्धति को ही अपनाने और उन दवाओं पर ही पैसा लुटाने के लिए मजबूर हुआ। ऐसी स्थितियों में भी बहुत जिद्द के साथ मैं अपनी होम्‍योपैथी की दवाओं को पूरी तरह से परित्‍यााग करने वालों से लोहा लेता रहा और साथ साथ उन्‍हें भी इस्‍तेमाल करते रहने की छूट लेता रहा हूं।

अरे, बात तो शीर्षक में आदि आदि वाले क्षेत्रों की हो रही थी। तो मैं यहां उन आदि आदि क्षेत्रों के नाम नहीं देना चाहता, वैसे भी वह कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं, जिनमें महानता के मारे बहुत वाचाल हुए जाते हैं। यह मैं उन लिक्‍खाड़ों के लिए छोड़ता हूं जो जमाने की प्रवृति को खण्‍ड खण्‍ड में देखने पर यकीन करते हैं। वैसे आप देख सकते हैं कि कि फेसबुक पर महानता के मारे बहुत से लोगों की आमद इस बीच बढ़ी है। वे रोज कोई न कोई ऐसा किस्‍सा लेकर सामने होते हैं कि आदि आदि के मारे लिक्खाड़ो को मौका मिल ही जाता है जो लिख/कह ही देते हैं -  महानता के मारे फेसबुकिये। उस वक्‍त उन्‍हें भी महानता के मारे रोग से तो ग्रसित माना ही जा सकता है न शायद।