Friday, November 25, 2016

बैल की जोड़ी

नंद किशोर हटवाल की यह कहानी परिकथा के ताजे अंक में प्रकाशित है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की खेती बाड़ी आज भी पारम्‍परिक तरह से हल बैल पर आधारित है। हटवाल की चिन्‍ताओं में शामिल उसके चित्र उन पशुओं के प्रति विनम्र अभिवादन के रूप में आते हैं। कहानी पर पाठकों की राय मिले तो आगे बहुत सी बातें हो सकती हैं। इस उम्‍मीद के साथ ही कहानी यहां प्रस्‍तुत है।

नंद किशोर हटवाल


    इंदरू कल जाने की तैयारी में है।
    ...गज्जू रै गया अकेला। रज्जू ने धोका कर दिया..।...बीच में छोड़कर चला गया।
    दो महीने हो गये रज्जू को चट्टान से गिरे।...ये पहाड़ है माराज। चारों तरफ चट्टान, खाईयां, रपटे और घाटियां। समतल काँ मिलेगा चरने को।...क्या ढोर डंगर..क्या आदमी। पेट की खातिर चट्टान-खाईयों में तो जाना ही जाना है।...जवान था रज्जू अभी...पर आ गई काल घड़ी। इस बार बैल गिर कर चट्टान पर ऐसी जगह अटका कि देखने तक नहीं जा सका इंदरू। साम को सीधे गिद्द घूमते दिखे।
    ...धन्नी ताऊ जीवित होते तो मुझे समझाणे पहुँच जाते...कि..कि..खेती किसाणी करने वाले काँ निभा पाते शौक..।
    ये रां! बिचारे धन्नी ताऊ। अपने गज्जू-रज्जू बैलों के खांखरों की झमणाट और घण्टियों की खमणाट के साथ हो ऽ ऽ ऽ हा ऽ ऽ ऽ करता इंदरू जब भी दिखता धन्नी ताऊ के अंदर आग पैदा हो जाती थी। कहते....खेती किसाणी करने वालों पर काँ फबती है अकड़! शौक तो उन पर फबते हैं जो मिट्टी में हाथ नयीं डालते।...हल लगाते समय हलिया का तो सिर नीचा रैता है हमेशा..तो नीचा ही रैणा चायिये।...हम तो मिट्टी के आदमी हुये..मिट्टी की तरों ही रैणा खपता।...खेत तबि तैयार होंगे जब सिर नीचा रखेंगे! सिर उठायेगा तो गिरेंगे..नाक टूटेगी। हमारी तो चार दिन की फ्वीं-फ्वां होती। एक बैल चट्टान-घाटी में लुड़का नयीं कि फूक सरक जायेगी। जवानी के चार दिन के फुंफ्याट हैं ये! रोब-दाब...शौक-शाक...इधर खेती किसाणी में काँ चलते।..ठसक तो राज्जा-माराज्जों के होते..पूरी जिंनगी निभाणे की ताकत जिनपे है!!
     धन्नी ताऊ बैलों के शौकिया थे। पर उनकी खूबसूरत जोड़ी के एक बैल को बाघ ने मार दिया था। जैसे-तैसे उन्होंने फिर जोड़ी बनाई तो फिर कुछ समय बाद एक बैल गाँव की बगल से ही खाई में गिरा। तब तो उठ नहीं पाये थे धन्नी ताऊ। तभी से किसी की खूबसूरत बैलों की जोड़ी देखते तो जल-भुन जाते थे।
     इंदरू ने मेहरू गल्दार को बुलाया था साथ चलने के लिए। मना कर दिया उसने।...इंदरू के साथ बैल खरीदणे के लिए जाणा तो ब्येकूबि..है..। सिब सिंग भी बड़ी मुश्किल से साथ चलने को तैयार हुआ। बहाने कर रहा था।...काँ जायेंगे..। मिल काँ रे बैल? लोग पाल बि रे हैं बैलों को अब...?
    भादी ने इंदरू की उमर का हवाला दिया, ‘‘...तू साथ में रै के समझाणा जरा।...अपणी चलाते रैते हैं।’’
    ‘‘...समझते काँ कि उमर हो रयी कह के..? बछड़े बणे रैते...!’’    
    दूसरे दिन इंदरू और सिब सिंग मुंह अंधेरे ही गाँव से निकल गये। गाँव से सीढ़ीनुमा खेतों से सीधे नीचे को उतरते हुए अलकनंदा पर बने झूलापुल को पार किया। आगे की खड़ी चढ़ाई चढ़ ही रहे थे कि गड़..गड़..गड़ गड़ाम्म! बादल गरजे। पौ फटने लगी थी। सिब सिंग ने देखा, ‘‘ओ प्पापा!...ठिक्क आज गणाईं का पाड़ घन्नाघोर बणा है!’’
    ‘‘आंह! बरखा काँ आयेगी! ठग बद्दल हैं!’’ इंदरू ने कहा।
    पहला बसेरा गणाईं पहुँचे। वहाँ पोस्ट मास्टर साहब के पास बताया था किसी ने बैल। गोसाला गये। इंदरू ने बैल देखा-परखा। आगे-पीछे। पीठ पर दो-चार हाथ मारे। टाँगों को छूकर देखा। सींगों को हाथ से नापा। सिब सिंग ने बैल को छूने की कोशिस की तो मना कर दिया।...इन चीजों को तू क्या समझता..! फिर कुछ देर इंदरू अपनी नजरों से एकटक बैल को देखता रहा। गज्जू से मिलान किया। और मना कर दिया।
    दूसरे दिन पहुँचे सेम गाँव। वहाँ भी एक बैल देखा। रंग थोड़ा भूरा था। गज्जू एकदम काला है। सस्ते में मिल जाता पर इंदरू ने साफ मना कर दिया, ‘‘जोड़ा नहीं बैठा तो चाहे मोफत में बि मिले...! बिना रंग मिले तो...!’’
    तीसरे दिन रतगाँव और साम को बज्वाड़ गये। इन गाँवों में बैल थे ही नहीं बिकाऊ। किसी ने ऐसे ही गलत सूचना दी। साठ-सत्तर मवासों में बीस-पच्चीसों ने पाले हैं बैल।
    नौ दिनो में पन्द्रह गाँव घूमे इंदरू और सिब सिंग। कहीं बालभर छोटे-बड़े सींग या कद-काठी तो कहीं डील-डौल, ऊंचाई में फर्क। और बातें मिल बि जातीं पर रज्जू के जैसे सींग..! क्या फिट्ट मिलते थे गज्जू से..!
    दसवें दिन पहुँचे स्वींग गाँव। स्वींग के पंचम सिंग के पास था एक बिकाऊ बैल।
    ‘‘ओ ब्बेट्टा पंचम! अब पाल्टी पड़ती तेर को जबड़दस्त!’’
    ‘‘अब्बे पैले बिकणे तो दे। देखते हैं कितना झड़ता है।’’
    ‘‘ओब्बै, झड़ जायेगा ढंग से। भौत दिन से घूम रा सुना हमने ये। अब जादा डबड्याणे के चक्कर में नयी पड़ेगा।’’
    ‘‘अबे तुम पटाणे में मदद करोगे तबि तो पाल्टी करूंगा।’’
    ‘‘उस बकील को बि बुला!...अबे उसे क्या पता कि ये असली बकील है कि नकली!’’
    ‘‘ये ठिक्क बोला तुमने!! बकील जिरै करेगा तो बैल की ठिक्क कीमत मिल जायेगी।’’
    इंदरू पंचम के घर पहुँचा तो पंचम ने इंदरू का बड़़ा सम्मान किया।
    ‘‘इंदर सिंग जी मैंने आपका बड़ा नाम सुणा है।’’ पंचम के मुँह से जैसे मोती झड़ रहे थे।
    पंचम के बैल पास की पहाड़ी पर चर रहे थे। पंचम वहीं ले गया इंदरू को अपना बैल दिखाने। दूर से ही देख लिया इंदरू ने। दोनो सींग टूटे थे बैल के। ...आं..इसीलिए.. ये मिट्ठी जुबान हो रयी थी...।
     बिना कुछ कहे वहीं पर से वापस लौट गया इंदरू। ‘क्या हुआ? क्या हुआ?’ कहता पंचम सिंग इंदरू के पीछे-पीछे भागता रहा। पर इंदरू कुछ नहीं बोला।
     इंदरू सीधे मूनाकोट के रास्ते लग गया।
    पंचम सिंग ने कहा, ‘‘अरे इंदर सिंग जी बात तो बताओ क्या हुआ? चलो हट्टाओ खरीदणा-बेचणा..। मूनाकोट दूर है...साम को ही पोंछेगे। भात काँ खायेंगे..। भात खा के तो जावो।’’
    ‘‘ये सयी कै रे हैं।’’ सिब सिंग ने कहा।
    ‘‘आप लोग मेरे घर आये मेमान हैं। भूखे जायेंगे? लोग क्या बोलेंगे मेरे को..? गज्जब बात! भात का टैम बि हो रा।’’
    कुछ तो भात सुन कर और कुछ मेहमान का दर्जा पाकर इंदरू रूक गया, ‘‘आं..हां, भात तो खा ही लेते हैं। आज तो नाश्ता-पाणी बि नयी हुआ।’’
    पंचम ने परिचय कराया, ‘‘ये बकील साब हैं। नियम कानून इनकी मुट्टी में रैता है। सिद्दे पड़दान मंतरी के फोन आते इन्को। और ये हैं सिताब सिंग जी। बड़े काँन्टैक्टर हैं। कुरड़ों के ठेके चल्ते हैं। और ये हैं..ये तो भाय..बस क्या बोलें..डारिक्ट मुख्यमंत्री से इनकी पोंछ है..। खाऽऽस..अपणे आदमी हैं..। और ये राम्प्रसाद जी हैं..। डारिक्ट डीयम के साथ उठणा बैठणा है इनका..! और ये हैं गोविंद सिंग जी। इनका नाम सुणा होगा तुमने..। इनकी दिल्ली बम्बे में अपनी फैकटरी हैं। और ये सिरण के इंदर सिंग जी हैं..।’’ 
    ‘‘ओ स्यमन्या माराज स्यमन्या। ओ प्पापा! बड़े-बड़े ल्वोग हैं भाय! ब्वाह! दरसन हो गये!’’ इंदरू ने दोनो हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया।
    ‘‘बैल खरीदणे आये थे ये..तो हमने का बैठ के बात कर लेते हैं?’’ पंचम ने लोगों को बताया।
    ‘‘भौत बड़िया। तुमारा बैल तो एकदम टन्न है।’’ सिताब िंसंग ने कहा।
    ‘‘भै पंचम दा, हल लगाणे में कोई मुकाबला नयी कर पायेगा तुमारे बैल का इलाके भर में।’’
    ‘‘अबे? बेचणे लग गया बैल को? अब्बे! पैले बोल्ता, मैं खरीद लेता! अब्बे यार तु बि..। इतना गज्जब का बैल..।’’
    ‘‘देख लिया इनोने..बस कीमत होणी है!..जितना ये कहेंगे उतने में ही दे दूंगा।’’ पंचम ने उन लोगों से कहा।
    ‘‘कीमत क्या होणी..!..पर मेरे को पसंद नयीं आया माराज।’’ इंदरू ने भी लोगों को ही जवाब दिया।
    ‘‘क्यों?’’ बकील ने पूछा।
     ‘‘असली चीज तो हैं ही नयी उसपे!’’ इंदरू ने कहा।
    ‘‘असली चीज माने?’’ आँह! बकील जिरै करने लग गया। ठिक बणा देगा इंदरू को।
    ‘‘सिंग!’’
    ‘‘सिंग? असली चीज तो हलिया है...कि बैल कैसा हल लगाता है?’’
    ‘‘वो तो है। सिंग बि जरूड़ी हैं। सिंग शान होती हैं बैल की। बैल का अच्छा हलिया होणा अपणी जगा पे ठीक है।’’ इंदरू ने कहा।
    बकील घचपचा गया।..दिखणे में तो हलिया से भी गया बीता लगता है..पर...! इंदरू का हाथ जोड़ कर जी जी न कहना और ऐसे अपनी बात को कहना बकील को बड़ा नागवार गुजरा। हलिया दर्जे का आदमी, बैल का खरीदार ऐसे बात करे..। बकील को कमजोरी महसूस होने लगी और असंतुलित हो गया।
    ‘‘तुम लोग सिंगों से तो नयी लगाते हल?’’ 
    ‘‘अब सिंगों से तो क्या लगाणा...पर ...मेरे को पसंद नयीं हैं बिना सींग का बैल।’’
    ..येई ऽ ऽ ऽ! हलिया की भी पसंद-नापसंद..! अकड़ देखो इसकी! खरीदने आया है बैल...और बातें...?
    ‘‘तुम थ्वोकदार हो!’’ 
    इंदरू ‘थ्वोकदार’ पर हंसा, ‘‘अरे थ्वोकदार-थूकदार काँ मराज। मैं तो घरी में रैता, ख्येत्ती किसाणी करता हूं।’’
    ‘‘..हमने सोचा तुम लंदन-अमरिका रैते..।’’
    ‘‘हा! हा!! हा!!!’’ सभी हंसे। वे इंदरू के लंदन-अमेरिका न रहने और घर में ही रहने पर हंसे तो इंदरू उनकी हंसी पर हंसा। 
    ‘‘नयी माराज, तुमने गलत सोचा। मैं लंदन-अमरिका कयीं नयी रैता। गाँव में यी रैता हूँ। ख्येत्ती-किसाणी करता हूँ...हलिया आदमी हूँ।’’
    ...हल्या नयीं जिला जज होगा जैसे! हल्या आदमी दोनो हाथ जोड़कर, सर झुका कर बात न करे तो भद्दा तो लगता ही है। ..शर्मिन्दा होकर बात करणी चाहिए कि....खेती किसानी का धंधा करने के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ..। आपके सामने नतमस्तक हूँ कि आप मिट्टी में हाथ नयीं डालते..। यही तो सनातन से होता चला आया है...। पर ये साला सनातनी परम्परा को तोड़ रहा...घंतर आदमी..!   
    ‘‘खैर पसंद तो अपणी-अपणी हुयी पर.....देशों में तो कुछ बैलों के सींग ही नयी होते?’’ पंचम ने संभाला।
    ‘‘अब सींग नयी होते, वो अलग बात है..पर ये तो सींग वाले बैल होते हैं ना।’’
    ‘‘हल सींगों से लगाते या नसेड़े से?’’ बकील ने कहा।
    ‘‘हा! हा!! हा!!!’’ पंचम ने दाद दी।
    इंदरू ने कहा, ‘‘देखो माराज, मेरे को बिना सींग के बैल नयीं पसंद हैं तो नयीं हैं। बैल के सींग टूटणे का क्या मतलब है? या तो वो लड़ाख्या है और या...क्या...बोलते..मतलब...चालू टैप का है..।...बाकी उसके सींग क्यों टूटेंगे?...बैल लड़ता क्यों है? किस चीज के लिए लड़ता है? बोलो! वो बिधैक यमपी है?’’
    लोग हंसे। बकील जिरह के लिए कुछ सोच रहा था।
    इंदरू खड़ा हो गया, ‘‘क्या उसका भौत राजपाट छिन रा है? बौडर पर लड़ता है वो? सिपे की तरौं ? किसी को बचाणे के लिए लड़ता है वो? वो पेट के लिए बि नयीं लड़ता। जीवित रैणे के लिए बि नयीं लड़ता। जो आदमी उसे संताता उससे तो कबि नयीं लड़ता। यूँ ढाँगे बण जायेंगे भूख से... पर जो उन्को भूका रख रा उससे कबि नयीं लड़ेंगे...!..घास डालेंगे एक मुट्ठी और सारा दिन हल लगायेंगे, उन पर तो नयी मारता लात वो कबि। ऐसे बि लोग हैं कि जिंनगी भर हल लगायेंगे अर बुढ़ापे में जंगल रप्टा देंगे,   उनको तो नयी घोंपता वो सींग कबि। वो तो सिरप अपनी ही जाति से लड़ता है..बैल जाति से। अपणे भायी-बिरादरों से...। बल्कि जो जरा खारा-पीरा होगा वो अपने सींगों से कमजोर बैल को डरायेगा कि मुझपे तुझसे जादा ताकत है ..सिरप..ऐसा दिखाणे को। ..या फिर गाय को पाने के लिए करेगा ऐसा...।..लड़ाई के पीछे वही स्वारथ होता उसका..। क्यों लड़ा? क्यों जीता? कुछ पता नयीं।’’
    सब हँसे। बकील ने भी हँसने की कोशिस की पर नहीं हँस पाया।
     ‘‘अपणे डण्डे वाले मालिक को दिखाणे के लिए कि मैंने दूसरे का बैल मार दिया। अंकार मालिक का...शांत करे बैल..। जो बैल ऐसे लड़ता है वो मूरख है।....वो खाली इसलिए लड़ता कि उसे सींग मिले हैं।..मूरख बैल को ये पता ही नयीं चलता कि सींग तेरी शान है भायी! अर तेरी शान मालिक की शान!...मालिक की शान तेरी शान नयीं..। बैल का सींग टूटा है माने वो लड़ाख्या है और बैल का लड़ाख्या होना अच्छा नयीं होता! सींग टूटा मतलब..उसकी भावना अच्छी नयीं...सुभाव अच्छा नयीं। सिंग हैं मतलब वो ‘राज्जा’ है। लड़ाई वाला राज्जा नयीं! बिना लड़ाई के राज्जा बणो तब बात है ना! ही! ही! बकील साब!  अच्छा स्यम्न्या! मैं चलता हूं।....भौत सुणा दिया!!’’
    ‘‘भात बण गया, खा के जावो!’’ पंचम बोला।...एक बार और कोसिश करके देखणे में कोई हरज नयीं..।
    ‘‘हाँ ठीक कै रे हैं ये।’’ सिब सिंग ने कहा।
    ‘‘नयीं नयीं चल्ते हैं।’’ कहते हुए इंदरू ने सिब सिंग को ‘चल्ल’ कहा और मूनाकोट की तरफ निकल पड़ा।
    एक आध मील तक तो इंदरू ऐसे भागा कि जैसे पंचम पीछे से आकर सींग टूटा बैल उसकी जेब में न ठूंस दे। पीछे पीछे बेमन से चल रहा सिब सिंग उस घड़ी को कोश रहा था जब वो इंदरू दा के साथ आया।
    ‘‘...भूख तो लगी है पर अब ठीक नयी था पंचम के याँ भात खाणा।...ये भात ही तो काम गड़बड़ करता।’’ इंदरू ने रास्ता चलते चलते कहा।
    ‘‘तुम सब जगा ऐसेयी करेंगे तो कैसे होगा!’’
    ‘‘ऐसे भात खाणा ठीक नयी कि जो मैं बोलूंगा उस्पे तुम हाँ हाँ करो..। मैं तुमारे सिर में बैठुंगा अर तुम भात खावो..।..अगर पंचम ने भात खाणे के लिए बुलाया था तो बैल की बात नयीं करणी चायिये थी।..नियम तो ययी बोल्ता..। पर वो भात खाते टैम फिर खिचिर-खिचिर करता।..तब भात गले लग जाता..। कुछ बोल नयी पाते हम। भूख में आदमी कमजोर तो पड़ता ही है...पर भूखे को जब खाणे को मिल्ता तो उस टैम वो दुन्या का सबसे कमजोर इंसान होता है..।...सम्झा बात को ?.. उस टैम कुछ बी मनवा लो..। .इसलिये ऐसे भात पे मारो लात..!’’
    ....मैं कैता था ना अपणी चलायेंगे..!
    बीच में बांज-बुरांश का जंगल था। तेज ढलान। टूटा हुआ रास्ता। जब तक गपसप चलती इंदरू सिब सिंग के साथ-साथ चलता। बातें ज्योंही थमती इंदरू रीछ की तरह भागने लगता।
    घस्स घस्स घस्स। सिब सिंग ने ढलान पर थोड़ा अपना पैर फिसलाया और धम्म से बांज बुरांश के झड़े पत्तों के ढेर में गिर गया।
    ‘‘...ये म्येरी ब्वेई...’’ सिब सिंग ने इतनी जोर से बोला कि इंदरू के कान तक पहुंच जाय।
    ‘‘...बकील इस रास्ते के लिए जिरै नयीं..करता..! बैल की खरीद-फरोखत में टांग अड़ा रा!’’ इंदरू वापस सिब सिंग के पास दौड़ा।
    सिब सिंग पिछवाड़ा सहलाते हुए कराहने लगा। 
    मूनाकोट पहुँचे तो दुकाने बंद हो चुकी थी। अंधेरा घिर आया था। पौन-पंछियों का वृक्षों पर बसेरे के लिए संघर्ष बढ़ने लगा...चकर-चकर...चुकुर-चुकुर। पेड़ के तनो से चिपके झींगुर अपने स्वर यंत्रों के तार कश रहे थे... झींग-झींग...झांग-झांग। हाक्क! हाक्क!! काखड़ की आवाज सुनाई दी। आसमान का सिंदूरीपन काला पड़ने लगा था। मूनाकोट में चाय की भट्टियों की आग अभी बुझी नहीं थी।
    ‘‘...आह! जाड़ा बि लग रा है।’’ इंदरू ने भट्टी की आग जलायी और आग तापने लगा।
    ‘‘याँ कुछ खाणे-पीणे का...इंतजाम...।’’ कहते हुए सिब सिंग दुकान का मुआयना करने लगा। उस दुकान का अंदर का कमरा बिना दरवाजे का था। टाट-पट्टी से बंद किया गया।
    ‘‘...काँ हो पायेगा!’’
    ‘‘...जाँ हो रा था वाँ से भाग के आये...!’’
    ‘‘आज ऐसे ही लटकणा पड़ेगा...। अब कल की कली है..।’’ कहते हुए इंदरू भट्टी के पास ही पसर गया। सोने की कोशिस करने लगा। भूख और थकान को इंदरू ने कई बार पटकणी दी है...लेकिन जो ये बकील बण रा था ना इसकी बि अक्कल ठिकाणे लग गयी होगी..।
    खर्र र्र र्र.! गहरी नींद सो गया इंदरू।
    सिब सिंग आग तापता रहा। कुछ देर बाद उठा और बाहर को निकल गया। चार पाँच दुकाने थी वहाँ पर। सभी अस्थाई रूप से बनीं और जुगाड़ से बंद की गयीं। एक ने तो केतली और ट्रे भी बाहर ही छोड़ी थी। पर ट्रे में कुछ नहीं था खाने को।
    भट्टी की दूसरी तरफ लकड़ी की एक बैंच पड़ी थी। उसी में लटक गया सिब सिंग। सोने की कोशिश करने लगा। ..बेंच असजीला है..।...कुछ चुभ रा..है। वो खड़ा होकर देखने लगा।...खर्र खर्र खर्र..।   ...अपणे आप मजे से सो गया इंदरू दा...। अच्छी रयी..ये बि..।..अनाड़ी आदमी। ..फालतू फंसा इसके साथ।...मेहरू गल्दार ने ठीक किया जो..पैले ही ना कह दिया साफ..।...खर्र खर्र खर्र..।
    सिब सिंग दूसरी दुकान के अंदर चला गया।..वहाँ जमीन पर टाट बिछा था, उसमें पसर गया।...मैं मना ही कर रा था...।..भाबी के कारण..आणा पड़ा। ..नयीं बात थोड़ी है ये..। पैले बि ऐसेयी आफत निकाली है इसने..।
    सिब सिंग ने बाहर नजर मारी।...रात काफी हो गई थी।...उसकी आँख लगने लगी। सुबह नींद टूटी तो इंदरू उसे हिला हिला कर उठा रहा था।   
    ‘‘उठ भाय!..अब आगे बि तो चलणा है!’’
    ‘‘ओह! इंदरू दा मेरी टांग पे भौत दर्द हो रा।’’ सिब सिंग ने कराहते हुए कहा।
    ‘‘बासी पिड़ा है।..कल गिर गया था!’’
    ‘‘आँह!’’ सिब सिंग कराहा।
    ‘‘तू आज घर चले जा। मैं बि दो-चार दिन और खोजता हूं। ...मिल जाये तो ठीक न मिले तो...’’
    ‘‘न मिले तो?’’
    ‘‘फिर बण्ड पट्टी का टूर पुरगराम बणाएंगे। तब तक तू बि ठीक हो जाता है।’’
    ‘‘आह!’’ सिब सिंग और जोर से कराहा।
    ‘‘...घर जाते ही नमक-पाणी का सेंक करणा।’’
    ‘‘ठिक गज्जू के जैसा जोड़ मिलणा...ठिक उतने ही बड़े सींग..रंग..’’
    इंदरू बीच में ही खाँस पड़ा, ‘‘दिखा जरा, जादा तो नयीं लगी?’’
    ‘‘नयीं नयीं ज्यादा तो नयीं पर गुम चोट है।...एक बैल मिलणा मुश्किल होता है ना। पैले की बात हौर थी...जमाना..।’’
    ‘‘...ये दुकान्दार लोग पता नयीं कब तक आते!’’
    ‘‘...इतना भटका-भटक करके फैदा बि क्या है..’’
    ‘‘परसों रतगाँव जाते टैम फिसला तो कमर पे झटका पड़ा। उस्टैम पता नयीं चला..पर अब दर्द कर रा..आह!’’
    ‘‘नयीं तो गज्जू को बेच लो..। एक जैसी नयी जोड़ी तो मिल जायेगी।’’
    इंदरू को ये बात जँची, ‘‘बण्ड में बि नयी मिला तो ऐसेयी करणा पड़ेगा।’’   
    ‘‘ठीक है, अच्छा मैं चलता हूँ।’’ कराहते हुए सिब सिंग घर के रास्ते लगा। जब तक इंदरू की नजरों में रहा लंगड़ा कर चलता रहा। और फिर ढलुवा पगडण्डी पर सरपट भागने लगा...भगवान बचाये इस इंदरू दा से...।   
    इंदरू देर तक मूनाकोट में बैठा रहा।...पाणी की आवाज काँ से आ रयी है? ...उधर सैद कोई गधेरा है। वह झाड़-झंकार को हाथ से दाँए-बाँए हटाते, झुकते हुए आवाज की तरफ बढ़ा। खत्तबत्त खत्तबत्त..। पेड़ों और झाड़ियों के बीच से छुपता-बहता पानी। इंदरू मुँह धोने के लिए उकड़ू बैठा तो...ऐऽयी..! पैर दर्द कर रे हैं। भूख से बदन सुस्त हो गया है। उसने हाथ-मुँह धोया।...ठण्डा पाणी..कुछ जान आयी!...कुछ देर रूकी जाता हूँ।..दुकान्दार आयेंगे तो आगे के बारे में उनसे पूछ-जाँच करना ठीक रहेगा..।
    उसने पैर सहलाये।..चलूँगा तो अपणी जगा पे ठीक आ जायेंगे।...उमर का असर हो रा है। अपणे टैम पर आयी जाती है उमर बि..।
    आसमान को छूते खड़े पहाड़ और पेड़ों के झुरमुटों के पीछे से सूरज की किरणे मूनाकोट पर पड़ने लगी थी। खच्चर वालों की आवाजाही बढ़ गई। दुकानदार पहुँचने लगे।
    इंदरू ने भरपेट भात खाया। बैल के बारे में पूछा। कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला।...झूमाखेत..मोल्टा या सिमखाल में कयीं मिल सकता है...पर जैसा तुम चा रे हैं ठिक वैसा तो..।...अब काँ बैलों की च्वैस रै गयी..। 
    मूनाकोट से झूमाखेत सात मील था। खड़ी चढ़ाई। सिमखाल ग्यारह मील। लेकिन हल्की चढ़ाई, थोड़ा सीधा। झूमाखेत से ऊपर ही ऊपर चलो तो बीच में मोल्टा गाँव पड़ता है। वहाँ से भी सिमखाल जाया जा सकता है। जंगल का रास्ता, थोड़ा खराब है पर चल सकते हैं। बीच में एक गधेरा पड़ता है। उसमें पुल नहीं है। वैसे ही पार करना पड़ता है।
    इंदरू झूमाखेत की चढ़ाई चढ़ने लगा। साम तक पहुँच गया गाँव में। पहला घर सतबीर सिंग का था। 
    ‘‘..ये कौन आया? हाँ जी क्या काम है?’’ सतबीर ने पूछा।
    ‘‘स्यमन्या माराज। सिरण गाँव का हूँ। इंदर सिंग नाम है मेरा। बैल का ख्वज्यारा हूँ।’’
    ‘‘बैल का ख्वज्यारा....? माने?’’
    ‘‘बैल खरीदणे के वास्ते आया हूँ..।’’
    सतबीर ने एक बार पूरा देखा इंदरू को, ‘‘तुमको क्या लग रा है? हम बैल बेचणे का धंधा करते हैं याँ ?’’
    ‘‘ओए प्पापा! इतनी बड़ी गाली सच्ची देता तुमको माराज।’’ इंदरू ने दोनो हाथ जोड़ दिये और झुक कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘बैल बेचणे का धंधा हैं! चोरी अर नाजैज काम से बि घट्या काम..! दा ब्वोलो!!’’
    ‘‘क्या मतलब?’’
    ‘‘कुछ धंधा तो करते ही होंगे माराज...। पेट कि खातिर क्या करते होंगे? मनखी देखणे में तो अच्छे ही लग रे हैं..पर धंधे..!’’
    सतबीर की ब्वारी बड़बड़ाते हुए बाहर निकली, ‘‘...इस दारू को लगे आग! बज्जर पड़़े..!..घर आये मैमान की बिज्जती करते हैं..!’’
    ‘‘इधर काये को दिमाक पकाणे आया भायी ये? काँ का है? जान न पैछान हम तुमारे मैमान!’’ सतबीर की जुबान लड़खड़ाने लगी।
    ‘‘तुम भित्तर चलो हें सिद्धे..! इज्जत परमत का बि नयी रैता..न अपणी न दुसरे की..।’’ सतबीर की ब्वारी सतबीर को अंदर धकेलने लगी।
    ‘‘अरे नयी माराज तुमारे पास थोड़ी आया हूँ। मैं तो याँ गाँव में आया हूँ बैल खरीदणे कि किसी के पास होगा।...कोई बता रा था बच्चू पदान..।’’
    ‘‘बच्चू-फच्चू पदान कोई नयीं है याँ ! वाँ गाँव में जावो। वाँ पूछो।’’ सतबीर की ब्वारी सतबीर को अंदर ले गई थी लेकिन उसने फिर बाहर आकर कहा। 
    ‘‘हाँ गाँव में यी जा रा हूँ। याँ पर तो ऐसेई आ गया।..सोचा जो बि होगा..आदमी ही होगा..!’’ कहकर इंदरू गाँव की तरफ निकल गया।
     घुप्प अंधेरा था। घरों के अंदर से आ रही रोशनी रात पर उजाले के रंग फेंकती। चारों तरफ के खामोश और निस्तब्ध पहाड़ आसमान की झिलमिल काली चादर ओढ़ कर सो गए थे। इंदरू की आहट से कुत्ते भौंकने लगे। घर का मालिक बाहर निकला।
    ‘‘कौन होगा?’’
    ‘‘मैं हूँ माराज, इंदर सिंग, सिरण का। बच्चू पदान का घर ययी होगा?’’
     ‘‘हाँ, है तो ययी। बैठा माराज।’’
    चाय-पानी के बाद इंदरू ने बच्चू पदान को अपने आने का मकसद बताया। बच्चू पदान के बैल का पूरा हुलिया लिया। साइज-अगले पैरों से जुंड (कंधे) तक की ऊंचाई और सिर से लेकर पूंछ तक की लम्बाई। रंग..सींग..दाँया-बाँया..गर्दन खड़ी रखता कि झुका के चलता, सींग मारने वाला, लात चलाने वाला आदि बहुत सारी बातें।
    बच्चू पदान को कुछ याद आया,    ‘‘क्या नाम बोला अपणा?’’
    ‘‘इंदर सिंग..सिरण..।’’
    ‘‘पच्चीस...तीस साल हो गये होंगे..।’’ बच्चू पदान याद करने लगा, ‘‘तुमारे याँ बण्ड से कोई बैल खरीदणे आया था।’’
    ‘‘...बण्ड से बैल खरीदणे..?..आया होगा..। आया था भौत पैले..।...हां मैंने मना कर दिया था।...बण्ड्वालों को मैंने कब्बि नयीं बेचे बैल। वे बूढ़े बैलों को जंगल रप्टा देते हैं।..वाँ उनको बाग मार देता है या वे चट्टान-खाई-खंदकों में गिर जाते हैं।...ये गल्त बात है।...और फिर उनके याँ तलाऊ जमीन हैं। दस-दस बारा-बारा दिनों तक लगातार रोपाई में जुते रहेंगे बैल...एक दिन का भी आराम नयीं देते बैलों को..।..एकी जोड़ी बीस-बीस दिनो तक जुती रैती..! दूसरी जोड़ी नयी करेंगे...। मैंने तो देखे हाल हैं उनके..।’’
    ‘‘...और तुमने उस आदमी से पूछा था कि कितनी जमीन है? उसने अस्सी नाली बताई तो तुमने का कि मेरे बैल पचास नाली से जादा हल नहीं लगा पायेंगे..। फिर तुमने पूछा कि तुम क्या करते हो? उस आदमी ने का कि नौकरी। तुमने का कि मैं नौकरी वालों को नहीं बेचता अपने बैल।...जो आदमी खुद मालिक और खुद हलिया हो उसी को बेचूँगा...।’’
    ‘‘अब भाई मुझे इतना तो याद नयीं..पर इतना जरूर है कि जो हलिया बैलों की खुद देख-भाल नयीं करता..जनानियों के ऊपर छोड़ देता सबकुछ.. अपणे को लाटसाब बणा रैता..उनको मैंने बैल नयीं बेचे..आज तक।..नौकरी वाले...फौजी लोग..बैल खरीदते हैं और अपणा चले जाते हैं।...बैलों की क्या गति हो रयी है..हलिया उनके साथ कैसा बर्ताव कर रा? उनको घास-पाणी दे रा या नयीं..इससे कोयी मतलब नयीं रैता उनको..। ..तो ऐसों को बैल बेचणा अच्छा नयीं..।...पर ये इतनी पुराणी बात काँ से याद आ गयी..तुमको?’’
    ‘‘वो मेरे मामा थे ...और साथ में मैं था।..पैछाणा?.’’ बच्चू पदान हंसा, ‘‘मामा ने भौत खुशामद की तुमारी..। मुहमांगी कीमत देने को तैयार थे..। उनको नौकरी पर जाणा था..दूसरे दिन..। पर तुमने साफ मना कर दिया...कि बण्ड्वालों को तो देन्नायी नयीं। तुम बण्ड्वालों से भौत चिढ़े थे।..उस टैम तुमारे पास दो-दो जोड़ी बैल थे..।...और अबि तुम मेरे बैल का पूरा हुलिया ले रे हैं?..खरीदते टैम बि तुमी लेंगे हुलिया और बेचते टैम बि तुमी..। खरीदते टैम बि तुमारी चलेगी अर बेचते टैम बि तुमारी। ये अच्छी रयी!!’’
    ‘‘अरे मराज तुम बि पूछ लो..। ले लो हुलिया। कयीं पर कोई ऐतराज हो तो ना कर देणा।....मैं तो राज्जा बणा के रखता बैलां को..।’’
    ‘‘क्यों पूछो? अगर मैंने बैल बेच दिया..तुमसे पैंसे ले लिए तो...फिर मुझे बैल से मतलब?..तुम कुछ करें बैल के साथ..इससे मतलब?।’’
    ‘‘अरे माराज तुम राशन थोड़ी बेच रे..? आखिर जीबन बेच रे हैं.!’’
    ‘‘जीबन बेच रे का क्या मतलब होता है? फालतू बात लगा रे।’’
    ‘‘देखो पदान जी..मुझे कैणा नयी चायिये था पर कैणा पड़ रा है..। तुमारे गाँव वाले पैले बेटियों के पैंसे खाते थे..। वो बि बेचणा ही हुआ एक परकार से..। बेटी बेचते टैम घर-परिवार देखते थे कि नयीं?.उसके सुख-दुख का हुलिया लेते थे कि नयीं?..या बेच दिया तो तब कोई मतलब नयी?...कोयी कोऽछ करे..!’’
    ‘‘इसमें बेटी-बूटी की बात काँ से आ गयी?..कैसा आदमी है ये!’’
    ‘‘तुम समझ नी रहे तो समझाणे के लिए बोलणा पड़ रा मुझे।’’
    ‘‘..फालतू की बात लगा रे। नयीं बेचणा मुझे ऐसे आदमी को बैल..।’’ कह कर बच्चू पदान अपने घर के अन्दर चला गया।
    ‘‘मर्जी तुमारी माराज..। बैल तुमारा है।’’
    रात गहरा गई थी। इंदरू कुछ देर वहीं पर बैठा रहा। ...सब दिन एक समान काँ रैते इंसान के.....रात रैणे का ठिकाणा..!..ठिकाणा क्या चायिये मुझे! ..कयीं बैठे-बैठे बि रात काट लूंगा। वो उठा और गाँव में दूसरे घरों की तरफ निकला। सामने की पहाड़ी पर उसे कुछ काले-भूरे बादल दिखे।...नयीं नयीं यीधर नयीं आयेगी बारिश।..उधर चैना है...वयीं हो रयी होगी। चाइना का खयाल आते ही इंदरू खड़ा होकर एकटक उन बादलों को देखने लगा जो चाइना के ऊपर छाये थे। उसे बैलों की आकृति उभरती नजर आयी। खूबसूरत एक जोड़ी बैल! साफ दिख रे!...एकदम्म काले।....चैना में बि तो होते होंगे बैल? चैनीज बैल...! खित्त खित्त...उसे हंसी आ गई। इंदरू के पास उजाले का साधन नहीं था। मुश्किल से रास्ते का अंदाजा कर चल रहा था।...आज भौत काली रात है।...रात सफेद तो नयी होती ना!...आज तक कोई रात सफेद नयीं हुयी।..क..ट्टे..गी..कैसे!...कोई रात हम थोड़ी काटते हैं।...उसे कटणा पड़ता है।...मैं क्या काटूंगा इस काली रात को! इसे कटणा पड़ेगा। ...रात कितनी बि कठिण हो! पर सुबै होती ही होती है। कितनी बि काली हो पर सुबै उसका नामोनिशान खत्तम होणा ही होणा है...।...ये पदान समझता क्या है अपणे को...!!
    उस रात इंदरू को सपनों में बार बार धन्नी ताऊ दिखे।
    दूसरे दिन गाँव घूमा। कोई बिकाऊ बैल नहीं मिला।...कयीं धन्नी ताऊ..नयीं नयीं..। बिचारे धन्नी ताऊ..।
     अगला बसेरा पहुँचा मोल्टा। वहाँ दौलत सिंग से रिश्तेदारी निकल गई। रातभर समझाता रहा दौलत सिंग, ‘‘जंवैं जी, अब काँ वो जमाना रै गया।...अब कोई ख्येती हो रयी है? मजाक हो गया..। कोयी फैदा नयीं...पर तुमारी वयी पुराणी लैन पकड़ रखी..। जमन सिंग के याँ है एक बैल..। वयी उमर होगी जितनी तुमारे बैल की है। तुमारा दाँया है कि बाँया?’’
    ‘‘दाँया।’’
    ‘‘बिल्कुल फिट! वो बाँया है। अर जमन दा सस्ते में दे बि देगा।’’
    बैल देखने गये तो गजरीला रंग।
    ‘‘..पर हमारा तो काला है..येकदम! काला रिख की तरों...एकदम खड़े सींग हैं उसके..। रोबीला चेरा ।...ये तो झ्योंतू लग रा....इसके सींग नीचे को मुड़े हैं..!’’
    ‘‘तुम सैज देखो। दाँया-बाँया फिट मिल गया।..रंग-रुंग का रैणे दो। ठिक कीमत लगा दूंगा। छै मैंने से पाल रा हूँ मैं बि इस यकुले बैल को।..लड़के-बहू चले गये देश। अब हमसे बि नयी होते ख्येत..बोलो तुमी बोलो कीमत..। मैं लगा दूंगा।’’ जमन सिंग ने कहा।
     पर इंदरू तो गज्जू के रंग, कद, सींग से मिलान कर रहा था, ‘‘..काँ जोड़ी बैठ री फिट..!’’
    ‘‘भौत खरीदार आ रे। कयीं चित नयीं बूज रा। कयीं दांया-बांया का चक्कर फंस रा।..कयीं मनखी समझ में नयीं आ रा। मनखी की बि तो बात होती। कयी आ गये पर मेरी समझ में नयीं आया। ना बोल दिया। अपणे कीले पर रहेगा। तुम आ गये तो तुमारी बात कुछ हौर है..अब ये तो रिश्तेदारी वाली बात बि हो गयी.. तुम जो बोलोगे वयी लगा दुंगा..।’’
    ‘‘ल्यो! इससे ज्यादा अब क्या चायिये तुम्को!!’’ दौलत सिंग ने कहा।
    ‘‘वो तो ठीक है ना ज्योठू जी!..पर असली चीज है जोड़ी..। जोड़ी काँ बणी!!’’
    ‘‘जोड़ी काँ बणी माने?’’
    ‘‘जोड़ी बोल्ते जिस्को। एक रंग, एक जैसे सींग, एक सैज, गर्दन उठी हुई!..तब देखो तुम?’’   

    इधर सिब सिंग गाँव पहुँच गया था। उसे अकेले देख भादी घबरा गई।
    ‘‘..चार-पाँच दिन में आ जायेंगे। उनोने का तू घर चले जा। मैं बि दो-चार दिन और खोजता हूँ। ...मिल जाये तो ठीक, न मिले तो...’’
    ‘‘...न मिले तो?’’
     ‘‘..न मिले तो कै रे थे कि...कि..। ...नयीं नयीं कुछ नयीं कै रे थे।’’
    ‘‘तुमने समझाया नयीं कि जैसा मिलता वैसेयी ले चलो..।’’
    ‘‘मेरी सुणता कौन!....लेकिन ठीक जोड़ा काँ मिलेगा..? हैं कां बैल अब! अंत में जैसा मिले वैसा लाणा पड़ेगा। देखणा तुम..। इंदरू दा की जो ये अकड़ है ना ये उतर जायेगी..!’’
    ...इसी अकड़ पर तो लाड़ है भादी को!...ये उतर जायेगी तो रहेगा क्या...हमारे पास! अच्छा नहीं लगा भादी को।
    ‘‘खुदी लेके आयेंगे बिजोड़।..मैं चुपी रहा। तुमने बि तो आदत खराब करी है। कबि कुछ नयीं बोला तो..’’
    ‘‘...अब ....बोऽलऽणा बिऽक्याऽ..! समझाती तो हूँ ...।’’
    ‘‘काँऽहं समझाती! लाड़ करती रैती हैं..!’’
    ‘‘खित्त्..खित्त्’’ इंदरू के लिए भादी की लाज और लाड़ घुली खित खित। 
    ‘‘वैसे तो बिना भाबी के एक दिन नयीं रै सकते ददा..।..पर बैल खरीदणे गये तो कोई याद ही नयीं भाबी की...। बिल्कुल नयीं...कोई बात ही नयीं भाबी की। एकी रटन्त..एकी धुन है बैल..।’’
    ‘‘...आंणे दो घर..। इस बार तो....मैं.. चुप नयीं रहूँगी..ये उमर है ऐसे डबड्याणे की। ...अब बिजोड़ ही लेके आयेंगे वाँ..तुम ठीक कै रे...उतर जायेगी अकड़...। तब सुणाउंगी मैं. छक्क।. अब काँ गई अकड़..! एकी रटन्त..अच्छी काँ होती!’’ भादी को बैल से ईर्ष्या हो गई।
    ‘‘हड़काणा जरा..जम के..आं!’’
    ‘‘आं.ऽ..इस बार जरूर सुणाऊंगी मैं..।..एकी रटन्त..हैंय! ...और कोई याद-बात नयीं इतने दिनों तक?’’
    ‘‘काँ याद...किसकी याद,  वाँ तो बैल की ही पड़ी थी दिन-रात।’’
     भादी ने ठान ली...सुणाऊँगी।..मुझे बि क्या सुख दिया इनोने..। रोज वही बैल के पीछे रहे...अर अपणे को बि क्या सुख देखा...। ...एकी रटन्त..एकी धुन...कोई याद-बात नयीं!

    उधर इंदरू मोल्टा गाँव से चढ़ाई नापने के बाद एक धार में पहुँच गया था। ऊँची धार। देवदार के दो पेड़ खड़े थे वहाँ पर। साँय साँय...हवा बहने से आवाज निकलती पेड़ों से। चारों तरफ पहाड़ियों की उठान और ढलान पर गाँव बिखरे थे। कहीं तड़तड़ा घाम था और कुछ गाँवों को पहाड़ों ने छाया से ढका था। इंदरू ने चारों तरफ नजर मारी। ...फाल्तू बसे हैं...बैल तो हैं ही नयीं..इनमें! कुछ दूर रास्ता धार ही धार जा रहा था। दाँई तरफ...बहुत गहरी घाटी। आँखें रिंगा गई इंदरू की।...कोई गिरे तो चकनाचूर हो जाय।...रज्जू!...ऐसे ही चट्टान से गिरा और आधे में अटका। इंदरू धारों धार आगे बढ़ता जा रहा था। अब उसे घाटी के तल पर बहती कोई गंगा दिखने लगी।...क्या नाम होगा इस गाड़ का! .
    आगे तेज ढलान आ गया। ....ऐई...मेरे घुटनो को क्या हो गया! ढलान उतरने के बाद एक गधेरे के किनारे पहुँचा इंदरू। गधेरे में पुल नहीं था। ...बता दिया था मूनाकोट के दुकान्दारों ने। इंदरू ने अपना सलवार उतार कर गर्दन पर बाँधा। जूते हाथ में लिये। छलांग मार कर गधेरे के बीच पानी के ऊपर झाँक रहे एक पत्थर पर चढ़ गया। लेकिन खड़ा नहीं रह पाया। संतुलन बिगड़ा और गल्ताम्म पानी में।
    ...ऐयीऽऽ बरफ का पाणी...! कुछ देर हाथ-पाँव मारने के बाद एक और पत्थर पकड़ लिया इंदरू ने। उस पर मेंढ़क की तरह चिपक गया। पानी की धार तेज थी।...हाथ छूटा तो फिर बचणा मुश्किल है। इंदरू को अकेला खड़ा गज्जू दिखने लगा। ....नयीं ...ऐसेयी थोड़ी छोड़ेगा जिनगी..को! कुछ देर तक उसने पानी की ताकत परखी। पत्थर की संभावनाएँ टटोली। एक अच्छी पकड़ मिल गई उसे। इंदरू रेंगते हुए पत्थर में चढ़ने की कोशिश करने लगा। पानी के हर थपेड़े से पत्थर पर चढ़ने में मदद लेता। और सफल हो गया। उस पत्थर से कूद कर वो दूसरे किनारे पहुँचा।...गज्जू ने बचा दिया!
    ठण्ड से इंदरू का बदन अकड़ गया। ...सीधे चलणा चाहिये। ...नयीं तो ठण्ड से यहीं पर गुड़ा जाऊँगा।
    दूसरी तरफ फिर चढ़ाई। पवित्र भोजपत्र का जंगल।...काये का पवितर भायी..?..हैत्त...!..सूरी बामण फाल्तू बक-बक करता..! इंदरू तेजी से चढ़ाई चढ़ने लगा। तेज हवा इंदरू के कपड़ों को जितना ठण्डा करती इंदरू उतनी तेजी से चढ़ाई चढ़ता। दो मील चढ़ने के बाद थोड़ा समतल रास्ता आया। इसके बाद इंदरू सिमखाल धार में पहुँचा।....ओ! दिख गया सिमखाल गाँव!...बस्स पहुँच गया! ...ऐत्तेरी...यहाँ पे तो भौत ठण्डा है!!
    ‘‘होऽऽय! होऽऽय! होऽऽय!’’ सहसा बैल के पीछे दौड़ता एक बच्चा दिखा इंदरू को, ‘‘रोऽऽक्क! रोऽऽक्क! रोऽऽक्क!’’ बच्चे ने कहा तो बैल रूक गया।
    ‘‘आह! एक्कदम्म! एक्कदम्म!...गज्जू के जैसा..।..फिट्ट जोड़ी!!’’ इंदरू बैल को देखता ही रह गया।   जिसकी सूरत मन में बसी है...वयी तो है ये..। जिसे वो खोज रा है।...इसी को ढ़ूँढ रा हूँ...। ...छबि मन में बसी.. तेरी मूरत मन में...। ..सूरी बामण ययी भजन गाता है!...येकदम्म सयी बोला है!...है तो बिलकुल यही...इसी तरह का...गज्जू की जोड़ी..रज्जू जैसा..।
    कुछ देर बाद पीछे से दूसरा बैल भी आता दिखा।
    ‘‘...आँ ये इसका जोड़ा है?’’ इंदरू ने बच्चे से पूछा।
    ‘‘हाँ’’ बच्चे ने कहा।   
    इंदरू को विश्वास नहीं हो रहा था। ...ऐसी बेढंगी जोड़ी!
    ‘‘किसके बैल हैं?’’
    ‘‘हम्मारे।’’
    इंदरू का दिल बैठ गया। पूछणा ही क्यों है येक बैल बेचणे के बारे में..जब जोड़ी है..।
    ‘‘...अरे बिस्सू गल्दार के बैल हैं।...कोई पैंसा फैंके तो अपणे को बि बेच दे!’’
    ऐं हं! इंदरू के अंदर आशा जागी। ..किसी भी कीमत पर इस बैल को हाथ से जाने नयीं देगा!...गज्जू की फिट जोड़ी। आज तक...यही ..ऐसा ही तो ढ़ूँढ़ रा था..।
    बिस्सू गल्दार एकदम भाँप गया। साफ ‘ना’ कह दिया, ‘‘जोड़ी है माराज। घर की जोड़ी। जोड़ी तोड़नी है मैंने?’’
    ‘‘तो कीमत बोलो, एक बार बता तो दो। जंचेगा तो ठीक, नयी तो न सयी।’’ इंदरू ने भी धीरज का परिचय दिया।
    ‘‘नयीं नयीं। कीमत शूट नयीं करेगी तुमको।....शौक तो सब पाल लेते हैं पर जब कीमत देणे की बात आती है तो फूक सरक जाती है।...सब शौक-शाक निकल जाता एक मिलट में बाहर...।’’ 
    ‘‘...जब तुम अपणी कीमत खुलायेंगे तबी तो...!’’   
    ‘‘दस हजार।’’
    ‘‘ये तो जाटा अर गंग्पार्या की जोड़ी से बि ज्यादा बोल दिया।’’
    ‘‘चौदंता है अर जाटा-फाटा, गंगपार्य-संगपार्या झक मारेंगे इसके सामणे। बायुबरण है बायुबरण।‘‘
    ...बात तो सयी है...जाटा-फाटा, गंगपार्य-संगपार्या सब द्यखावा है! मेरेको बि पसंद नयीं हैं बड़े नसल के बैल।...नाखून भर खेत और हाथ भर बैल...! अरे कोने-किनारे भी निकल पायेंगे? अलट-पलट भी पायेंगे बैल बित्ते-बित्ते भर खेतों में? हमारे यीधर तो ठेठ ब्वंगड़े (पहाड़ी नस्ल के) ही ठीक हैं..। हमारी खेती यीन्हीं के लिये बणी है।.. खिदमत हो तो ये करदें धरती आगास येक...!
    ‘‘..तो ययी तो मैं बि बोल रा..।’’
    ...एेंऽहं! यीस्ने कैसे सुणा...?
    ‘‘..कि...पसंद आणी चायिये चीज।...पसंद है तो ले जावो..। कीमत से क्या डरणा।..दिल बड़ा रखणा चायिये हमेसा..! छोटा दिल करके क्या फैदा..! चीज देखो..। कीमत-सीमत किसने देखणी!...लोग तो चीज देखेंगे.!’’
    सात हजार से नीचे नहीं आया बिस्सू गल्दार। चार नगद और तीन उधार करके बैल खरीद लिया इंदरू ने।
     पूरी दुनियाँ खरीद ली। उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्तों से हाँकता हुआ ढलान पर चल रहा था इंदरू। नहीं, उड़ रहा था। पाँव जमीं पे कहाँ थे।...उसके आगे बैल नहीं सपना चल रहा था। उसकी रगों में बहने वाला खून गति पकड़ने लगा। ठण्ड और भूख वहीं पर छूट गई थी जहाँ पर उसने इस बैल को देखा। इंदरू की हाऽऽ वोऽऽ से इतनी उर्जा निकलती कि पेड़-पौधे भी महक उठे।..उसका खोया राजपाट वापस मिल गया है।
    तेज ढलान। ...धीरे भायी धीरे..र..र..रज्जू..। हाँ रज्जू...हीऽहाऽ..रज्जू नाम ठीक है..। इंदरू को लगा उसका बैल जीवित हो गया।
     ‘‘...आराम से चल रे! फिसलेगा तो..।..बै ऽ ऽ ऽ क्या सूंग रा। तेरे काम की चीज नयीं..। भोज पत्तर हैं..पवितर भोज पत्तर।...सूरी बामण ने सयी बोला..। इन पर बेद-पुराण लिखे गये..।’’ रास्ते में पड़े भोजपत्र उठा कर जेब में रख लिए इंदरू ने।...सूरी बामण को दूंगा..!
    ‘‘..अब समतल आ गया भाय..!’’ आह! जौ के खेत!! बैल ललचाया। ‘‘रज्जू..रज्जू..!..अबी कोच्छ नयीं..सीधे चल्लो।’’ इंदरू गीत गुनगुनाने लगा-
    जौ कि हर्याली, पंचमी का जौऊ, जौ कि हर्याली।
    जौ कि हर्याली, कै द्योउ स्वभालो, जौ कि हर्याली।
     ...हाँ..पाँच दिन रै गये पंचमी आणे में..।
    दो दिन पैदल चलने के बाद साम को कुनबगड़ पहुँचा। वहाँ से छोटा ट्रक बुक किया और तीसरे दिन अपराह्न अपने गाँव के मोटर हैड हेलंग पहुँच गया। हेलंग से तीन किमी पैदल है। ...बैठूंगा तो रात हो जायेगी..।
    सीधे गाँव के रास्ते लगा इंदरू, ‘‘हे ऽ ऽ ऽ य! चल भाय...रज्जू!’’ 
    अंधेरा होने से पहले ही पहुँच गया गाँव। सीमा में पहुँचते ही इंदरू ने जोर की हाँक मारी। हे ऽ ऽ ऽ य! चल भाय..। पौंछ गये अब! यही है गाँव! किनारे किनारे से जाता था रास्ता गोसालाओं को। इंदरू जोर जोर से हे ऽ ऽ ऽ य! चल्ल!..लेऽ लेऽ करता हुआ हाँक रहा था बैल को ताकि लोग सुन लें। ..साम का टैम है..। ..सभी घर में होंगे..।..पर...पर...कोई बच्चा भी नयीं दिख रा...आता हुवा..!
    ...ठिक्क..सेम..वैसेयी..फिट्ट..क्या गज्जब्ब..जोड़ीदार लाए..!! ओय पीछे हटो! आगे नयीं..। सींग देखो इसके..भाय क्या फिट्ट है गज्जू के जैसा..।...कका रज्जू ही नाम रखो इस्का। ही.ह..वही नाम रखा है।...काँ से लाये..कितनी कीमत..।..ये रस्सी मेरेको दो मैं ले जाता...।   
    इंदरू ने आगे-पीछे देखा।...ऐंईं..कोई बि तो नयीं है! उसने कान खुजलाये।..ये आवाज क्यों सुणायी देरी मुझे..? फाल्तू में..!   
    इंदरू गोसाला पहुँचा। भादी इंतजार कर रही थी। पूरे उन्नीस दिन बाद लौटा था घर। हलजोत के दिन से ठीक दो दिन पहले। ...सुणाऊंगी मैं इस बार..। लेकिन बैल को देखते ही सब कुछ भूल गई भादी।
    ‘‘पाणी ला जरा। प्यास लगी होगी इसे।’’ बैल को गोसाला के बाहर खड़ा कर इंदरू ने कहा।
    भादी ने बैल को पानी पिलाया, इंदरू ने घास खिलाया।
    ‘‘...गज्जू देखते हैं..क्या सोचता है!’’ बैल को अंदर ले जाने से पहले एक बार फिर इधर-उधर देखा इंदरू ने।..कोई आरा हो!. बैल देखणे..!..न आए कोयी..!..कोयी जरूड़ी थोड़ी किसी का आणा..। दिखावा नयी होणा चायिये..!..ये कान बज रे..सैद.! इंदरू अंदर ले गया बैल को। परीक्षा की ये भी बड़ी घड़ी थी। गज्जू अपने कीले से बंधा था। बगल के खाली कीले से बांधने लगा रज्जू को।
    ‘‘फ्वींऽऽऽऽऽऽ’’ गज्जू ने एक बार नाक से जोर की हवा निकाली।
    ‘‘..रज्जू है रे ये...। तेरा नया जोड़ीदार।’’ इंदरू ने परिचय कराया।
    ‘‘घणमण, घणमण, घणमण‘‘ गज्जू ने गले के खाँखर और घण्टियाँ बजा कर सहमति दी।
    रज्जू ने भी उसी अंदाज में सिर हिलाया। ‘‘ऐई रुक! क्या हिलाता है खाली गर्दन..! खप बि रा है! नंगा रखा है तेरे मालिक ने। कैसे-कैसे लोग हैं इस दुन्याँ में?....एक मिलट रूक जा..।’’ इंदरू घण्टियों और खाँखरों से सजा पट्टा बाँधने लगा रज्जू के गले पर। ‘‘ये लो...हो गया..। फिट्ट हो गया...। अब हिला...जितना हिलाता है..।‘‘
    ...कितनी सुरीली आवाजें आती हैं इनसे।..दिल को छूने वाला संगीत बजता है।..दुनिया का कोई संगीत इसका मुकाबला नहीं कर सकता..। न्योली की तरह मिठास..। ...उदयराम लाला से खरीदे थे इनोने .बण्ड मेले में..।
    ...दोनो बैल एक साथ एक ही परात में पींडा खाने लगे...सीधे..! बिना किसी फ्वीं-फ्वाँ के!!
    ‘‘ठहर जरा हैं..रूक रूक..। पट्टा जरा ठीक से नयीं बंधा...।’’
    भादी पींडे की परात खींचने लगी ताकि पट्टा बाँधने के लिए वहाँ पर खड़े होने की जगह बन जाय। रज्जू ने एक बार ‘फ्वीं’ किया भादी के लिए।
    ‘‘ऐई क्या करता! अबि पैछाणा नयीं..। मालकिन है रे तेरी..! मेरी बि मालकिन ययी है रे!!’’
    ‘‘ओं मालकिन...मैं क्यूं होगी!...मालिक त तुम हैं..खित्त! खित्त!’’। इतना बड़ा पद! इतनी खूबसूरत..ऐसी सजीली...दुनिया की सबसे निराली बैल की जोड़ी की मालकिन! भादी के अन्दर हिलोरें उठ रही हैं।
    ‘‘मालिक की मैंमसाब मालकिन...! हा! हा!!’’..गज्जू सेतान...टुकर टुकर इधरी देख रा है..। नहीं ..तो एक बार हाथ चूम लेता भादी का, पैले पैले की तरौं!
    दोनो बैल घास-पींडा खा कर एकदम शांत खड़े हैं।
    इंदरू दरवाजे पर खड़े होकर देख रहा है दोनो को। एकदम फिट्ट..बराबर। आगे की तरफ से देख रहा है...क्या सज रहे हैं। इंदरू को अपने ही कारनामें पर विश्वास नहीं हो रहा है।
    .‘‘..पीछे से तो कोई नयीं पैछान पायेगा कि कौन गज्जू है और कौन रज्जू..।..मैं बि ब्येकूब बन जावूंगा!!’’
    इंदरू ने अब दोनो के पुट्ठों पर हाथ फेरा। घणमण, घणमण, घणमण..रज्जू ने थोड़ी असहमति जताई।
    ‘‘...ऐई क्या करता! ...थक गया क्या?...बस अब इसके बाद तो लेट का मोर्चा लेणा है..।’’ फिर ध्यान से देखा इंदरू ने दोनो को।
    भादी इंदरू को देख कर खित्त खित्त! हँस रही है।..ठिक्क बोला सिब सिंग ने..बछड़े बणे रैते..खित्त खित्त...। गोशाला के हल्के उजाले में...शुरू शुरू की तरौ दिख रयी है भादी इस टैम...।
    इंदरू को धन्नी ताऊ याद आ रहे हैं......सिर उठायेगा तो गिरेगा...!..नाक टूटेगी..!!
    इंदरू ने नाक पर हाथ लगा कर देखा। एकदम ठीक थी।

एच-323, नेहरू कालोनी, देहरादून, उत्तराखण्ड
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Friday, November 4, 2016

कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें



गनीमत है कि महत्वाकांक्षा में डूबा मेरा भीतर सत्‍तामुखापेक्षी, स्‍त्री विरोधी, दलित विरोधी एवं साम्‍प्रदायिकता का पक्षधर मान लिए जाने से अभी तक बचा रह पाया है। वैसे उम्‍मीद है आगे भी शायद मैं बचा ले जाउुं,  महत्‍वाकांक्षा से अति महत्वाकांक्षा की फिसलन को मेरी आंखें अभी ठीक से देख पा रही है। हालांकि आंखों की रोशनी को बचाए रखने में उन आयोजकों का ही अहम रोल है जिन्‍हें कभी मुझे भी मंच पर बुला लेने की नहीं सूझी या जिनके देखने की सीमा, तय दायरे में ही बनी रही। उन आलोचकों का भी अहम रोल है जिन्‍होंने अपनी नाम गिनाउुं आलोचनाओं में मेरा जिक्र करने की जहमत नहीं उठाई। उन घोषित संगठनवादियों की भी अहम भूमिका है जिन्‍होंने अपने गिरोह में मुझे शामिल देखने से पहले ही दूरी बनाये रखी। उन आत्मीय मित्रों का भी आभारी हूं अतिमहत्‍वाकांक्षा के नशे में जिन्‍हें खुद मुझ जैसे अति निकट के व्‍यक्तियों के नाम लेने में कभी कोई लाभ नहीं दिखा। लाभ हानि के गणित के साथ वे सिर्फ अवसरों को उपलब्‍ध करा सकने वाले सम्‍पर्कां को ही भुनाने की जुगत बैठाते रहे। काश अगर इनमें से कोई भी स्थिति बनी होती तो अतिमहत्‍वाकांक्षा की फिसलन में मेरे पाँव भी रिपट तो गये ही होते। आभारी हूं मैं उन आयोजकों का भी, आकस्मिक तरह से जिनके आमंत्रण पर मैं उपस्थिति हो तो गया पर जो अपने आयोजन के खर्चे के स्रोत को विवाद के दायरे में आने से बचा गये। उन समीक्षकों का, मेरे लिखे का जिक्र कर देने पर भी जिन्‍होंने अपने को किसी गिरोह में दिखने से बचाए रखा। उन आत्मीय मित्रों का भी जिनके साथ मैं भी जीवन का ककहरा सीखता रहा पर जो अपनी दुनिया में रमते हुए कहीं जिक्र करना जैसा भी हुआ तो भुलाए रहे और देवतव को प्राप्‍त हो ये लोगों के जिक्र के साथ ही अपनी हैसियत के लिए सचेत रहे। वरना कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें। कौन नहीं चाहेगा कि अरबों खरबों की जनसंख्‍या वाली इस धरती पर चार, छै, दस उसके भी ऐसे भी प्रशंसक हो कि जिन्‍हें उसके अहंकार में भी विनम्रता दिखे और उसकी डुगडुगी पीटते हुए उसकी आलोचना करने वालों तक पर वे पिल पड़ें। मेरे भीतर की महत्‍वाकांक्षा भी फिसलकर अति महत्‍वाकांक्षा की खाई में गिर जाने वाली तो हो ही सकती थी। यह तो स्‍पष्‍ट ही है कि मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा की एक कोठरी तो है ही जिसमें बैठकर मुझे भी यह देखने का मन तो होता ही है कि लोग मुझे जाने, मेरे लिखे को पढ़े, मेरे लिखे पर बात हो जे एन यू की औपचारिक गाष्ठियों से लेकर धारचूला या गंगोलीहाट के जंगलों तक में चलने वाली अनौपचारिक गोष्ठियों में, और उनका जिक्र भी हो मीडिया में। मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा का स्रोत वैसे ही मौजूद है जैसे उन दूसरों के भीतर, जो एक दो और तीन एवं अनंत की गिनतियों तक पुरस्‍कार प्राप्‍त करते हैं।     

क्‍या ही अच्‍छा हो कि किसी सांस्‍कृतिक एकजुटता की शुरूआत वस्‍तुनिष्‍ठता के साथ तय कार्यभार से हो। तय हो कि किस किस तरह के आयोजन को साम्‍प्रदायिक, फासीवादी, स्‍त्रीविारेध, दलित विरोधी, सत्‍तामुखापेक्षी माना जाए। ताकि समय समय के हिसाब से व्‍याख्‍यायित करना न हो। कौन सा पुरस्‍कार ग्रहण किया जाए और किसका विरोध हो। वरना यह मुश्किल होगा कि कब कौन उदय प्रकाश बन जाए या बना दिया जाए, कब कौन कृष्‍ण मोहन घोषित कर दिया जाए या हो जाए, कब कौन नरेश सक्‍सेना हो जाए या बना दिया जाए। चुन कर टारगेट करने और चुन कर कुतर्क का सहारा लेकर कहीं भी शामिल हो जाने की प्रवृत्ति वस्‍तुनिष्‍ठता के दायरे में लक्षित हो तो चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्‍य ध्‍वस्‍त किया जा सकता है और समाज को जनतांत्रिक बनाने के कार्यभार को आगे बढ़ाया जा सकता है।   

Tuesday, October 25, 2016

वस्तुनिष्ठता की मांग अपराध नहीं

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


 बेनाम दास की कविता 

मेरे बच्चे
स्पैम में कभी मत झाँकना
देखना पर उस ओर कभी मत देखना
जिधर फैलते जा रहे हों
अश्लील वाइरल विडियोज़ ।

लिखा कमेंट
कभी मत डिलीट करना
और अगर करना तो ऐसे
कि मॉडरेटर को ज़रा भी
न हो पीड़ा ।

रात को लिंक जब भी खोलना
तो पहले आँख-कान खोल कर
पोस्ट करने वाले को याद कर लेना ।

अगर कभी ढेरों लाइक्स
दिखाई पड़ें
तो समझना
कोई अफवाह आने वाली है
अगर कई कई दिन तक सुनाई न दे
कमेंट-शेयर की आहट
तो जान लेना
पोस्ट फ्लॉप होने वाली है ।

मेरे बेटे
हैकर की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ना
तो क्रैकर की तरह फट पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना ।

कभी बहस में
अगर खो बैठो अपना विवेक
तो प्रतिक्रियाओं पर नहीं
दूर से इनबॉक्स में आते मेसेज़ेस पर
भरोसा करना ।

मेरे बेटे
मंगल को लॉग-इन कभी मत करना
न शुक्र को लॉग-आउट ।

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि स्टैटस अपडेट के बाद
सारे टैग्स रिमूव कर देना

ताकि कल जब फेसबुक खोलो
तो तुम्हारी टाइमलाइन
रोज की तरह
स्पैम-फ्री
टैग-फ्री
दमकती रहे ।


 

हिन्दी की लोकप्रिय कविताओं का प्रतिसंसार भी हिन्दीं की समकालीन कविता का एक चेहरा बनाता है। बहुप्रचलित अंदाज में लिखी जाने वाली लोकप्रिय कविताओं का मिज़ाज थोड़ा बड़बोला होता है और सूंत्रातमकता के आधार स्तम्भों पर खड़ी ये कविताएं पंच लाइनों से अपना महत्व साबित करवाती है। हिन्‍दी में ऐसी बड़बोली कविताएं अक्सर स्थापित कवियों की कविता की पहचान है। अकादमिक बहसों में उनकी पंच लाइनों को कोट करने और दोहरा दोहरा कर रखने से ही उनका महत्व स्थापित हुआ है। 

ये विचार, पिछले दिनों एक कवि के पहले संग्रह को पढ़ते हुए आए। लेकिन यह बात मैं जिस कविता को पढ़ते हुए कह रहा हूं, उस कवि और उस कविता का जिक्र करने की बजाय मैं हाल में लिखी बेनाम दास की उस कविता का जिक्र करना ज्या दा उपयुक्त समझ रहा हूं, कवि नील कमल ने जिसे अपनी फेसुबक पट्टी पर साया किया। बेनाम दास की उस कविता पर नील कमल की टिप्पणी उसे केदार-स्टाइल की कविता के रूप में याद करती है। यहां उस कवि और कविता का, जिसे पढ़ते हुए यह कहने का मन हुआ, जिक्र न करने के पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि उस कवि की कुछ कविताओं के अलावा अन्य कविताओं के बारे में यह बात उसी रूप में सच नहीं है कि वे लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास हो। फिर दूसरा कारण यह भी कि लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास कराती दूसरे कवियों की भी कई कई कविताओं के साथ वह कविता भी समकालीन कविता के उस खांचे में डाल देना ही उचित लग रहा, जिनके बहाने यह सब लिखने का मन हो पड़ा। 

दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ के एक अंश पर एक टिप्पणी भी नील कमल ने अपनी फेसबुक पट्टी पर लिखी थी। इससे पहले भी नील कमल कविताओं पर टिप्प्णियां करते रहे हैं, जिनमें उनके भीतर के आलोचक को कविता में वस्तुनिष्ठता की मांग करते हुए देखा जा सकता है। नील कमल को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। उनसे पूर्ण सहमति न होते हुए भी रचना में एक तार्किक वस्तुनिष्ठता हो, मैं अपने को उनसे सहमत पाता हूं। रचना में वस्तुनिष्ठ ता की मांग करना कोई अपराध नहीं बल्कि उस वैज्ञानिक सत्य को खोजना है जो तार्किक परिणति में सार्वभौमिक होता है। मुझे हमेशा लगता है कि गैर वस्तुरनिष्ठतता की प्रवृत्ति में ही कोई कविता जहां किसी एक पाठक के लिए सिर्फ कलात्मक रूप हो जाती है वहीं किसी अन्य के लिए भा भू आ का पैमाना। कविता ही नहीं, किसी भी विधा, यहां तक कि कला के किसी भी रूप का, गैर-वस्तुनिष्ठता के साथ किया जाने वाला मूल्यांकन रचनाकार को इतना दयनीय बना देता है कि एक और आलोचक को गरियाते हुए भी लिखी जा रही आलोचनाओं में अपनी रचनाओं के जिक्र तक के लिए वह फिक्रमंद रहने लगता है। उसके भीतर महत्वाकांक्षा की एक लालसा ऐसी ही स्थितियों में ही अति महत्वाकांक्षा तक पेंग मारने को उतावली रहती है। यह विचार ही अपने आप में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि कविता का तो अपना विज्ञान होता है। अभी तक ज्ञात हो चुके रहस्यों की पहचान कविता का हिस्सा होने से उलट नहीं सकती है। यही वैज्ञानिकता है और जो हर विषय एवं स्थिति के लिए एक सार हो सकती है। यहां यह भी कह देना उचित होगा कि जब तक प्रकृति के समस्त् रहस्यों से पर्दाफाश नहीं हो जाता कोई ज्ञात सत्य भी अन्तिम और निर्णायक नहीं हो सकता। संशय और संदेह के घेरे उस पर हर बार पड़ते रहेंगे और हर बार उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा, तभी वह सत्य कहलाता रह सकता है। 

अकादमिक मानदण्डों को संतुष्ट करती रचनाओं ने गैर वस्तुनिष्ठता को ही बढ़ावा दिया है। बिना किसी तार्किकता के कुछ भी अभिव्यक्त‍ कर देने को ही मौलिकता मान लेने वाली अकादमिक आलोचना की अपनी सीमाएं हैं। तय है कि कल्पतनाओं के पैर भी यदि गैर भौतिक धरातल से उठेंगे तो निश्चित ही गुरूत्वाकर्षण की सीमाओं से बाहर अवस्थित ब्रहमाण्ड में उनका विचरण भी बेवजह की गति ही कहलायेगा, बेशक ऐसी कविताओं का बड़बोलापन चेले चपाटों की कविता में कॉपी पेस्ट होता रहे। देख सकते हैं बेनाम दास की कविता केदारनाथ सिंह जी कविता का कैसा प्रतिसंसार बनाती है। निसंदेह यह प्रतिसंसार होती कविता तो मूल से ज्यादा तार्किक होकर भी प्रस्तुत है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कहन के कच्चेपन और परिपक्वता के अंतर वाली बड़बोली कविता का स्तरबोध बेशक भिन्न हो, पर तथ्यात्मकता और अनुभव की वैयक्तिकता में भी, उनकी सूत्रात्मक पंच लाइने उन्हें कॉपी पेस्ट से अलग होने नहीं देती। 


Friday, October 21, 2016

कहां है वॉइस् रिकॉर्डर और कहां है मेरा कैमरा


वह इंसान रह रहकर याद आएगा

भास्‍कर उप्रेती

डेंगू के उपचार के बाद अस्पताल से डिस्चार्ज हो ही रहा था कि अनुराग भाई का फ़ोन आया.."पापा नहीं रहे"..भवाली के लिए निकल रहा हूँ..अनुराग का नंबर सेव नहीं था सो समझ ही नहीं आया..लेकिन आवाज किसी परिचित की सी लगी..थोड़ी ही देर में विनीत का भीमताल से फ़ोन आ गया..'दयानंद अनंत नहीं रहे'..सर झन्ना गया..मन मानने को तैयार नहीं था.. दो महीने पहले उनसे मिला था कहलक्वीरा में..वे सड़क तक आने में समर्थ नहीं थे..लेकिन बाकी तो पूरे ठीक थे..हमने विश्व राजनीति पर पहले की तरह बातें कीं..उनके फ़िनलैंड से आये मित्र सईद साब के बारे में बातें हुईं..उनका आग्रह था कि वे लौटें इससे पहले उनका इंटरव्यू करो..मैंने हामी भरी थी..लेकिन इंटरव्यू के लिए जो दिन सोचा उसी दिन उनको फ्लाइट पकड़नी थी. अनंत जी दिमागी रूप से हमेशा की तरह अलर्ट थे. पिछले तीन साल से मैं उनसे कह रहा था..आप जल्दी अपनी जीवनी लिख दीजिये..पता नहीं किस दिन जाना हो जायेगा..लेकिन वे जीवनी लिखने से बचते रहे..उन्होंने कहा..'आई ऍम क्वाईट यंग..क्या कहती हो उमा?'. उमा जी ने कहा..आप तो 18 साल के हो रहे अभी..लेकिन अनंत जी वाकई चले गए..टी.बी. ने तो युवावस्था में ही जकड़ लिया था. तब सी.पी.आई. ने पी.पी.एच. की झोली पकड़ाकर उन्हें मुंबई से नैनीताल रवाना कर दिया था.
जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता!
और दो दशक पहले तो दिल्ली में वो लगभग चले हीे गए थे..जब जानलेवा हमले के बाद कोमा में चले गए थे. उमा जी उन्हें वापस बुला लायी थीं. उनके हाथ में दुबारा कलम दी..विदेश से मित्र द्वारा भेजा कैमरा और वौइस् रिकॉर्डर तो हमेशा हाथ में ही रहता था..मानो अभी चल पड़ेंगे छापामार पत्रकारिता को. अभी कुछ समय पहले ही दिल्ली के एक बड़े प्रकाशक से उनकी कहानियों का समग्र लाने का मामला भी बन गया था. अभी कुछ ही समय तक वे युगवाणी के लिए कॉलम लिख ही रहे थे..अनंत जी के भीतर अनंत आत्माएं थीं. नैनीताल में दरोगा के घर जन्मे ..फिर नास्तिक हुए..फिर मुंबई..लाहौर..कराँची..मोस्को..लंदन..कहीं किसी काम में मन रमा नहीं..दूरदर्शन में उनकी रचनाओं के मंचन कब के आ गए..लगातार खुद को तोड़ते चले गए..खुद को किसी बुत में ढलने नहीं दिया.. फैज, कैफ़ी, मजाज, सरदार जाफ़री..संगी साथी थे..कवि/गीतकार शैलेन्द्र को उन्होंने ही मार-मारकर कम्युनिस्ट बनाया..हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों की शुरुआती रचनाएँ एडिट कीं..लेकिन वे लेखक बन गए तो कभी नहीं कहा..हासिल. दिल्ली में जो जोड़ा था, उसे दिल्ली ही छोड़कर आ गए अपनी भवाली की प्रिय झोपड़ी में रहने. गढ़वाल पितरों की भूमि थी, लेकिन वहां इसलिए नहीं गए कि बिरादर कहेंगे देखो न यहाँ पैदा हुआ..न रहा..अब बुढ़ापे में जमीन लेने आ गया. जबकि उनके अनुज विवेकानंद (आई.ए.एस.) और दूसरे अनुज कर्नल साब ने उनके हिस्से की 80 नाली जमीन उनके लिए जरूर रख छोड़ी थी. अनुराग से भी कहते..गढ़वाली होने के लिए जरूरी नहीं गढ़वाल में जमीन हो. तुम्हारे चाचा अपने आप देखेंगे..नहीं देखेंगे तो कभी दलित/ भूमिहीन भाईयों को दान कर आना. देहरादून आते तो मेरे किराये के घर में ही रहते..वहीं उनके जर्जर हो चुके यार उनसे मिलने आ जाते. कुछ नाम तो वे ऐसे बताते जो एक दशक पहले ही सिधार चुके होते..मैं उनसे कहता वो तो गए सर..तब वो कान की मशीन की संभालते हुए जोर से चीखते 'चला गया..'..फिर दुबारा धीमे स्वर में कहते.."अच्छा चला गया होगा". मृत्यु से वो कभी नहीं डरते..जबकि अपने प्रिय यार के किस्सों में खो जाते..किस्से आलोचना और आत्मालोचना से भरे होते..लेकिन कटुता कभी नहीं आने दी..खंडूड़ी परिवार (पूर्व सी.एम. खंडूड़ी का परिवार) के वे बड़े प्रशंसक थे, सिवा बी.सी. खंडूड़ी के. खंडूड़ी की पत्नी ही उनसे हमारे घर पर मिलने आ जाती, वे कभी उनके पास नहीं गए. मगर वे कहते घनानंद खंडूड़ी बड़ा आदमी था..उन्होंने मसूरी के बच्चों की शिक्षा का बीड़ा उठाया था. ये तो नेता हो गया..फिर कहते इस खंडूड़ी का अंग्रेजी-तलफ्फुज मैं ठीक करता था..और इसे पैग कैसे बनाते हैं मैंने ही सिखाया था. वो एक बार लंबे समय तक घर पर रहे तो डंगवाल आंटी ने एक दिन उन्हें घूरते हुए कहा..'अरे ये दया दाज्यू तो नहीं?' उन्होंने बचपन में उन्हें नैनीताल में देखा था. उनके पिता वहां डी.ऍफ़.ओ. रहे थे. फिर दोनों दया दाज्यू के बचपन की शरारतों के बारे में देर से बातें करते रहे..'ये तो मंदिर से पैसे चुरा लेते थे', 'ये तो आग माँगने जरूर आते थे', 'ये तो खूब स्मार्ट थे'..'फिर से भाग गये घर से..और अब देख रही हूँ इन्हें..'. 'हे भगवान ये तो अब भी इतने स्मार्ट हैं..और मैं तो कैसी चिमड़ी गयी हूँ.' ...तो अस्पताल से रिहा होने के दूसरे दिन नैनीताल श्मशान घाट यानी पाईन्स जाना हुआ. उनका जनाजा एकदम शांत था..कोई शोर नहीं..कोई चीख नहीं..कहलक्वीरा के ही चार-छह जन..मैं अजीब-सी उदासी से भर गया इस सुनसान मौत पर. अगर दिल्ली से उस दिन पंकज बिष्ट और डॉ. ज्योत्सना नहीं आतीं तो कोई बड़ा आदमी कहने को नहीं था वहां. सब के सब आम आदमी थे. नैनीताल से थोड़ी देरी के बाद महेश जोशी और अनिल कार्की पहुंचे..और जो दरअसल दोनों नैनीताल के नहीं थे. जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता! खैर इसके बाद मैं कई दिन तक अनंत जी की फोटो अपने लैपटॉप में ढूंढता रहा..अमर उजाला के 'आखर' के लिए उनका पहला इंटरव्यू किया था डॉ विनोद पाण्डे (अहमदाबाद) और मैंने..उसके बाद दैनिक जागरण के लिए भी..उसके बाद तो बार-बार उनके घर जाना ही रहा..फोटो भी खिंचते रहे..लेकिन पता नहीं उनके जाते ही उनके फोटो कहाँ चले गए..हाँ उन्होंने हमारी जो फोटो खीचीं..वे सब की सब हैं..एक से एक बेहतरीन..वे हमेशा व्यक्तिपरता के खिलाफ रहे..और शायद उनके फोटो इसीलिए नहीं मिल रहे..उमा जी और सुनीता के साथ खींचा हमारी शादी से चार बरस पहले का ये फोटो हमें बहुत प्यारा है..एक बार तो उन्होंने हम दोनों की ढेरों फोटो खींचकर..उन्हें लैब से बनवाकर हमें बंच भेंट कर चौंका ही दिया था. कितने उत्साही ..कितने जिंदादिल थे दयानंद अनंत! (आज आठ दिन बाद उन पर कुछ लिखने की हिम्मत मैं कर पाया..और मन कर रहा है..लिखता चला जाऊं..बहुत शानदार यादें हैं इस शानदार दोस्त की संगत की.)"

Thursday, October 20, 2016

सम्मानजनक विदाई

यह हैं मृत होते समाज के लक्षण


जगमोहन रौतेला 

वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार दयानन्द अनन्त का पार्थिव शरीर गत 13 अक्टूबर 2016 को प्रात: दस बजे नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया . उनकी अंतिम यात्रा भवाली के कहलक्वीरा गॉव स्थित उनके घर से प्रात: नौ बजे शुरु हुई . उनको मुखाग्नि पुत्र अनुराग ढौडियाल ने दी . उनकी अंतिम यात्रा में लेखन , पत्रकारिता व संस्कृतिकर्मी , परिवारीजन , उनके गॉव के लोग मौजूद थे . उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट पर किया गया . उन्होंने अपने परिवार के लोगों और मित्रों से कहा था कि उनकी मौत भले ही कहीं भी हो , लेकिन अंतिम संस्कार नैनीताल के पाइन्स शमशान घाट पर ही किया जाय .
       उनके सैकड़ों मित्रों व हजारों प्रशंसकों के होने के बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों का मौजूद रहना अनेक सवाल छोड़ गया है . अंतिम यात्रा में दिल्ली से पहुँचे समयान्तर के सम्पादक व वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट , उनकी पत्नी , युवा कथाकार अनिल कार्की , रंगकर्मी महेश जोशी , भाष्कर उप्रेती , विनीत ,संजीव भगत , ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा आदि कुछ लोग ही मौजूद रहे . पंकज बिष्ट की बीमार पत्नी का शमशान घाट तक पहुँचना अनन्त जी के प्रति उनके आत्मीय सम्बंधों व सम्मान को बता गया . युवा कथाकार अनिल कार्की का कहना है कि वे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी , इसके बाद भी वह शमशान घाट तक पहुँची . पर मुठ्ठी भर लोगों का एक प्रसिद्ध कथाकार व अपने समय के प्रखर पत्रकार की अंतिम यात्रा में शामिल होना कार्की के लिए बहुत ही पीड़ादायक था . वह कहते हैं ," यदि जीवन के अंतिम समय में भी आप सक्रिय नहीं हैं या फिर आपके परिवार के साथ भविष्य के लिए लोगों का " स्वार्थ " नहीं जुड़ा है तो यह दुनिया आपके किसी भी तरह की सामाजिक , साहित्यिक कर्मशीलता को भूला देने में क्षण भर भी नहीं लगाती और  यह समाज बहुत ही खुदगर्ज है ". अंतिम यात्रा में उनके शुभचिंतकों , मित्रों व प्रशंसकों में से किसी के भी मौजूद न रहने पर पंकज बिष्ट को भी बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने भाष्कर उप्रेती से सवाल किया कि क्या पहाड़ में अब लोग अपने लोगों को अंतिम यात्रा में यूँ ही लावारिस सा छोड़ देते हैं ? ये कैसा बन रहा है हमारा पहाड़ ?
       यह स्थिति तब हुई जब नैनीताल , भवाली , हल्द्वानी , रामनगर , रुद्रपुर , अल्मोड़ा , भीमताल में ही लेखन , साहित्य , संस्कृतिकर्म और तथाकथित जनसरोकारों से जुड़े चार - पॉच सौ लोग तो हैं ही . और इनमें कई लोग दयानन्द जी से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी थे . या यूँ कहें कि उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे . उनके साथ आत्मीय सम्बंधों के बारे में इन लोगों के बयान तक छपे . पर इनमें से भी किसी ने उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए जाना तक उचित नहीं समझा . कुछ लोगों ने पहले ही दिन उनके घर जाकर अपनी सामाजिक व उनके प्रति आत्मीय जिम्मेदारी पूरी कर ली थी . इनमें से किसी ने भी यह सोचने व सुध लेने की कोशिस नहीं की कि कल उनकी अंतिम यात्रा कैसे होगी ? ऐसा भी नहीं है कि उनकी मौत की सूचना लोगों तक नहीं पहुँची हो . चौबीस घंटे पहले उनकी मौत हो गई थी . सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से उनके मौत की खबर दूर - दूर तक पहुँच गई थी . इसके बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में रचनाकर्म से जुड़े लोगों का न पहुँचना भी हमारी सामाजिक संवेदना व जिम्मेदारियों के प्रति एक बड़ा व घिनौना सवाल खड़े करता है ? क्या समाज में खुद को सबसे बड़ा संवेदनशील होने का ढ़िढौरा पिटने वाले लोग भी दूसरों की तरह ही असमाजिक व असंवेदनशील हो गए हैं ? जिनके पास अपने रचनाकर्म की बिरादरी के एक व्यक्ति को अंतिम विदाई तक देने का समय नहीं था ? या उन्होंने इसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं समझी ?
       इससे आहात भाष्कर उप्रेती कहते हैं ," नैनीताल को आज भी चिंतनशील , सांस्कृतिक चेतना व वैचारिक धरातल वाले लोगों का शहर माना जाता है . जो समय - समय पर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के सावर्जनिक प्रतिरोध के रुप में सामने भी आता रहा है . पर अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शहर के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है . मैं यह सोचने को विवश हूँ कि इस शहर के लोग इतने आत्मकेन्द्रित कब से हो गए ? क्या हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना केवल गोष्ठियों , सभा , प्रदर्शनों तक ही सीमित है ?" इसी तरह का सवाल भवाली के उन लोगों के लिए भी है , जो शहर में सांस्कृतिक व वैचारिक कार्यक्रम करवाते रहते हैं और उसमें बाहर से लोगों को आमंत्रित भी करते हैं . जिनमें अनन्त जी जैसे लोग भी बहुत होते हैं . ये लोग भी अपने शहर के पास ही रहने वाले अनन्त जी की अंतिम यात्रा से क्यों दूर रहे ? उन्होंने एक सामाजिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह क्यों नहीं किया ?
       सवाल भवाली से मात्र आधे घंटे की दूरी पर रामगढ़ में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी वर्मा सृजन पीठ पर भी उठता है . पीठ की स्थापना साहित्यिक विचार - विमर्श व लेखकों को साहित्य सृजन के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए की गई है . जहॉ ठहर कर लेखक अपनी रचनाओं का सृजन कर सकते हैं . तो क्या पीठ सिर्फ इसके लिए ही है ? इसका उत्तर हो सकता है कि वह सरकार के अधीन है और उसी आधार पर कार्य करता है . यह बात सही भी है , लेकिन सृजन पीठ की क्या यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने समय के एक वरिष्ठ कथाकार के अवसान की जानकारी पीठ से जुड़े सभी रचना व संस्कृतिकर्मियों को देता ? और भवाली के आस - पास रहने वाले इस तरह के सभी लोगों से अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने का अनुरोध करता ? यदि हम किसी लेखक , कवि, कथाकार व संस्कृतिकर्मी की अंतिम यात्रा के समय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके न रहने पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण और उन पर शोध व चर्चा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास रहता है क्या ?
        इससे तो यही लगता है कि हम चाहे खुद को जितना संवेदनशील , समाज चिंतक व उसका पैरोकार होने का दावा करें , लेकिन हम भीतर से पूरी तरह से खोखले और लिजलिजे हो चुके हैं .उनका पुत्र अनुराग स्थानीय रुप से बिल्कुल ही अकेला पड़ गया था . अगर ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा ने अपने स्तर से उनके अंतिम यात्रा की तैयारी न की होती तो क्या होता ? तब शायद अनुराग और उनकी मॉ उमा अनन्त को इस समाज के प्रति घृणा व गुस्सा ही पैदा होता और कुछ नहीं ! अपने प्रसिद्ध रचनाकार पति की अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों को देखकर पीड़ा व क्षोभ का भाव तो उनके मन में होगा ही . भले ही वह उसे अभी बाहर नहीं निकाल पा रही हों . यह सोचकर ही मन ग्लानि व शर्म से भर उठता है .
        अंतिम यात्रा में न तो स्थानीय विधायक ही दिखाई दी और न कोई मन्त्री और संत्री . दूसरे स्तर के और भी किसी जनप्रतिनिधि ने भी अंतिम यात्रा में शामिल होना उचित नहीं समझा . किसी छुटभय्यै और मवाली टाइप के नेता की मौत को भी समाज के लिए अपूरणीय क्षति बताने के लम्बे - लम्बे बयान देने और शवयात्रा में शामिल होकर घड़ियाली ऑसू बहाने वाले जिले के छह विधायकों , दो मन्त्रियों और कई पूर्व विधायकों में से किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो दूर उनके शोक में दो शब्द तक नहीं कहे . यह हमारे राजनैतिक नेताओं के चरित्र के दोगलेपन की धज्जी तो उड़ाता ही है , साथ ही यह भी बताता है कि अपने समय , समाज , संस्कृति , लोक व साहित्य की चिंता करने और उसको संरक्षित करने के इनके भारी - भरकम बयान कितने उथले और छद्म से भरे होते हैं .
          मुख्यमन्त्री हरीश रावत गत 14-15 अक्टूबर को दो दिन हल्द्वानी में रहे , लेकिन उन्होंने भी अनन्त जी के घर जाकर पारिवार के लोगों से संवेदना व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं समझी . ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्यमन्त्री को अनन्त जी के बारे में कोई जानकारी ही न हो कि वे कौन थे ? जब अनन्त जी दिल्ली से " पर्वतीय टाइम्स " का सम्पादन कर रहे थे , तब मुख्यमन्त्री अल्मोड़ा से सांसद होते थे . जिन तेवरों के साथ " पर्वतीय टाइम्स " उत्तराखण्ड के सवालों व मुद्दों को लेकर निकल रहा था उसमें वे अखबार , उसके सम्पादक व उसकी टीम से अवश्य ही परिचित रहे होंगे . उनका साक्षात्कार भी उसमें प्रकाशित हुआ होगा ( मुझे इसकी जानकारी नहीं है , इसलिए ) . हो सकता है कि एक लम्बा अर्सा बीत जाने से मुख्यमन्त्री उन्हें भूल गए हों , क्योंकि करना अधिकतर नेताओं के डीएनए में शामिल होता है . पर क्या उनके भारी - भरकम सूचना तंत्र और उनकी सलाहकार मंडली ने भी उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी ? यदि यही सच है तो फिर उनके इस लापरवाह सूचना तंत्र का " सर्जिकल स्ट्राइक " किए जाने की तुरन्त आवश्यकता है .
       यह जिले के सूचना विभाग व जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गम्भीर सवाल उठाता है . जो मीडिया की आड़ में दलाली करने , बड़े नेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करने वालों के हर सुख - दुख का ख्याल बहुत ही संजीदा होकर तो करता है , लेकिन अनन्त जी जैसे प्रसिद्ध कथाकार व पत्रकार की मौत पर कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं करता . इससे साफ पता चलता है कि उसके पास अपने जिले में रहने वाले हर क्षेत्र के सक्रिय व प्रसिद्ध लोगों के बारे में कितनी जानकारी है ? क्या सूचना विभाग का कार्य केवल मन्त्रियों के दौरे पर विज्ञप्तियॉ जारी करना और मीडिया की आड़ में दलाली करने वालों की जी हजूरी करना भर रह गया है ?
      यह असंवेदनशीलता लोगों ने केवल अनन्त जी के बारे में ही दिखाई हो , ऐसा भी नहीं है . उनकी मौत से दो दिन पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार व महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे डॉ. राम सिंह की भी पिथौरागढ़ में 10 अक्टूबर की रात मृत्यु हुई थी . जिनका अंतिम संस्कार 11 अक्टूबर 2016 को किया गया . वे पिथौरागढ़ शहर से कुछ दूर गैना गॉव में रहते थे . उनकी अंतिम यात्रा में भी गॉव व उनके पारिवार के 20-25 लोगों के अलावा और कोई नहीं था . उनकी अंतिम यात्रा में पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व कहानीकार प्रेम पुनेठा भी पिथौरागढ़ के लोगों के इस असामाजिक व्यवहार से बहुत दुखी हैं . वे कहते हैें ," ऐसा नहीं है कि डॉ. राम सिंह पिथौरागढ़ के लिए कोई अनजान चेहरा हों . शहर में होने वाले किसी भी तरह के वैचारिक , सांस्कृतिक गोष्ठी में वे ही मुख्य वक्ता होते थे . उनके बिना इस तरह के आयोजनों की कल्पना तक नहीं होती थी . और कुछ भी नहीं तो उनके साथ अध्यापन कार्य करने वाले और उनके पढ़ाए हुए ही दर्जनों लोग पिथौरागढ़ में हैं . उन लोगों में से भी किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना जरुरी क्यों नहीं समझा ? यह सवाल मुझे बहुत व्यथित किए हुए है . जिसका एक ही जबाव मुझे नजर आता है कि हम दोहरी व सामाजिकता के नाम पर बहुत ही खोखली जिंदगी जी रहे हैं ".
     अपने - अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व समाज को अपने कार्यों से बहुत कुछ देने वाले इन दो व्यक्तियों की अंतिम यात्रा में समाज के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उससे यह लगता कि जैसे आपकी दुनिया से सामाजिक रुप से सम्मानजनक विदाई के लिए भी आपको किसी " गिरोह " का सम्मानित सदस्य होना आवश्यक है . अन्यथा जो लोग आपके जीवित रहते आपके साथ बैठने और सानिध्य पाने में गर्व का अनुभव करते थे , वे भी आपसे किनारा करने में क्षण भर नहीं लगायेंगे . यह एक तरह से तेजी के साथ मृत होते समाज के ही लक्षण लगते हैं .