कथादेश के सितम्बर अंक में छपे हमारे मित्र और इस ब्लाग के सहलेखक यादविन्द्र जी की डायरी के कुछ अंश पुनः प्रकाशित हैं पढ़ें और अपनी बेबाक राय दें।
वि गौ
सपनों की नदी में डूबते उतराते
नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात
सपनों की नदी में डूबते उतराते
नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात
सपनों की नदी में डूबते उतराते
वि गौ
आज सुबह सुबह सैर के वक्त एक दिलचस्प लेकिन ठहर कर सोचने के लिये प्रेरित करने वाली घटना हुई -- एक मामूली कपड़े पहने आदमी ने(बाद में बातचीत से मालूम हुआ प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड का काम करता है) अनायास मुझे रोका और सड़क पर पड़े हुए दस रुपये के नोट को दिखा कर पूछा :"सर, ये नोट कहीं आपकी जेब से तो नहीं गिर गया ?"ताज्जुब भी हुआ कि दूर से वः मुझे आता हुआ देख रहा था और वहाँ पहुँचने पर पूछ रहा है कि नीचे सड़क पर पड़ा नोट मेरा तो नहीं है..... गिरने की गुंजाइश तो तब होती जब मैं वहाँ से होते हुए आगे बढ़ गया होता। मैंने इन्कार किया तो उसने उसी कंसर्न के साथ पीछे आते व्यक्ति को रोक कर यही सवाल पूछा ।फिर एक और ....और ....और। मुझे इस खेल में मज़ा आने लगा था सो वहीं ठहर गया।इनकार करने वाले लोगों की गिनती जब बढ़ती गयी तब मैं उस से इस मसले की बाबत पूछने लगा ... उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले वह रात की सिक्युरिटी गार्ड की ड्यूटी पूरी करके वापस घर लौट रहा था तो अचानक उसकी निगाह सड़क पर पड़े इस दस रु के नोट पर पड़ गयी ....और तब से वह उस आदमी को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसकी जेब से अनजाने में यह नोट फिसल कर सड़क पर आ गिरा ..... ठिकाने पर पहुँच कर ,या आगे कहीं रुक कर उसको नोट की ज़रूरत पड़ी होगी तो बेचारा परेशान हो रहा होगा - कहीं किसी मुसीबत में न हो। मालूम हो जाये किसका है यह नोट तो मैं उसके घर जाकर पहुँचा दूँ।
उसकी बात में कहीं कोई दिखावा या नाटक नहीं था ,यह उसके चेहरे पर छाये हाव भाव से साफ़ झलक रहा था।मैं भी खड़ा होकर लौट आने वाले का इंतज़ार करने लगा ,मुझे देखकर रोज रोज की पहचान वाले दो तीन और लोग ठहर गए।
"मैंने सोचा इतने सारे लोग इस सड़क से गुज़र रहे हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी की नज़र उस नोट पर न पड़ी हो .... मैं पहला इंसान तो नहीं हूँ जो सड़क पर पड़े इस नोट को देख रहा है। हो सकता है जिसका नोट गिरा हो वह उसको ढूँढ़ता हुआ पलट कर इसी रास्ते आ रहा हो। मैंने पहले सोचा था वहाँ से गुज़रते हुए दस आदमियों से नोट के बारे में पूछ कर देखूँगा ,इतने समय में ज़रूर नोट का मालिक मिल जायेगा..... दस की गिनती पूरी होने पर सोचा और दस लोगों से पूछ लूँ -- मेरा क्या है ,घर ही तो जाना है मैं घंटे भर बाद भी घर पहुँच जाऊँगा तो कुछ नुक्सान नहीं होना ,पर एक दो मिनट से कोई गरीब अपना खोया हुआ पैसा फिर से हासिल करने से चूक जाये तो बहुत बुरा होगा।सर ,आप सत्रहवें आदमी हो जिनसे मैंने पूछ कर अपनी आत्मा की भरपूर तसल्ली कर ली .....फिर भी मेरा मन मानता नहीं। "
मैं थोड़ी दूर से खड़ा खड़ा देखता रहा कि बीस की गिनती पार कर के वह व्यक्ति हताश होकर अपनी साइकिल के साथ साथ दूर तक पैदल चलने लगा पर हर दो कदम पर पीछे मुड़ मुड़ कर उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहा --- शायद उसको लापरवाही में दस का नोट जेब से गिरा चुके अभागे के लौट कर आ जाने का इन्तज़ार अब भी था।
"ठरकी है साला ....खुद उसकी जेब से गिर गया होगा नोट और अब सिम्पैथी के लिये नाटक कर
रहा है ..... लगता है दस का नोट नहीं कोहिनूर हीरे की अँगूठी गिर गयी हो। "कहते हुए एक साहब वहाँ से इस अंदाज में आगे बढ़े कि किसी ने उनका हाथ पकड़ कर तमाशा देखने को रोक लिया हो और तमाशा हुआ ही नहीं - टाँय टॉय फिस्स !
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अपने प्रोफेशनल काम से मुझे सड़क यात्रा बहुत करनी होती है ,ख़ास तौर पर पहाड़ पर…… मैदानी क्षेत्रों में भी। आम तौर पर नौजवान ड्राइवर तेज गति से गाड़ियाँ चलाते हैं और जबतक आप उनको रुकने के लिये मनायें तबतक दो सौ चार सौ मीटर आगे बढ़ चुके होते हैं - फिर पीछे मुड़कर लौटना बहुत भारी पड़ता है … और कई बार तो जबतक आप पीछे लौटें तबतक परिदृश्य पूरा बदल चुका होता है।
अभी कल सुबह सुबह की बात है ,हम लखनऊ से अयोध्या जा रहे थे -फूलगोभी के लम्बे चौड़े खेत लगभग वर्गाकार बिलकुल एक आकार के दिखाई दे रहे थे और भोर की ओस के ऊपर सुनहरी धूप पड़ने पर मोहक रंग बिखेरते पौधे बार बार बरबस अपनी ओर ध्यान खींच रहे थे ..... मैं उनकी कुछ तस्वीरें लेने की सोच रहा था। ज्यादातर खेत सड़क से थोड़ी दूर अंदर थे और मैं धीरज रख कर किसी बिलकुल सड़क किनारे खेत का इंतज़ार कर रहा था ..... पर इंतज़ार करते करते जब धीरज खो बैठा तब देखा ,गोभी के खेतों का स्थान केले के बागानों ने ले लिया है। पूछने पर ड्राइवर पारस ने बताया अब आपको गोभी के खेत नहीं मिलेंगे ,वह इलाका बीत चुका है।
एक जगह खेत से भाप का चमकता हुआ बगूला जैसे उठ रहा था उसने मुझे मनाली से लेह जाने वाले लगभग रेगिस्तानी रास्ते के गंधक तालाबों की याद आई जिनसे उठती हुई ऐसी ही भाप दूर से दिखाई देती है - सुबह सुबह की सुनहरी धूप उसको और चमका देती है । दरअसल जुते हुए खेत में सिंचाई के लिए डाले जाते पानी से उठती भाप दूर से दिखाई दे रही थी पर जब खाली सड़क पर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से भागते हुए हम आगे निकल गए तो मन को मना लिया कि आगे फिर देख लेंगे - आगे हम इंतज़ार करते ही रहे ,पर साध कहाँ पूरी हुई।
जीवन ऐसी ही स्मृतियों की अनवरत श्रृंखला है - लपक कर जिसको पकड़ लिया वह तो जैसे तैसे हाथ आ जाता है .... और जो छूट गया सो छूट गया।
मेरी कवि मित्र ने उन्हीं दिनों किसी शायर की एक शानदार नज़्म मुझे भेजी थी जो कल वाली घटना पर बिलकुल सटीक बैठती है :
ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं ……
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मेरी अम्मा अस्सी के आसपास पहुँच रही हैं पर शरीर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए मन से अब भी एकदम युवा हैं - चाहे कहीं घूमने का मौका हो या फ़िल्म देखने का। बहते हुए पानी को देख कर पिछली बार यहाँ आने तक वे भी वैसे ही मचला करती थीं जैसे उनके बेटे की बेटी का बेटा पलाश। पिछले हफ़्ते जब हमने हरिद्वार घूमने का नाम लिया तो तैयार तो वे फ़ौरन हो गयीं पर वहाँ पहुँचने के बाद नहाने को कहने पर ना नुकुर करने लगीं - यह अम्मा के स्वभाव से बिलकुल उलट था।पहले हरिद्वार ऋषिकेश जाने पर कोई और गंगा में उतरे या न उतरे अम्मा और उनका यह बेटा ज़रूर उतरता था। जब बहुत ज़िद कर के मेरी बहन उनको सीढ़ियाँ उतार कर नीचे पानी तक ले आयी तो उन्होंने हिचकिचाने का कारण बताया -- अप्रैल मई के महीनों में पटना में महसूस होने वाले भूकम्प के झटकों और सब कुछ तहस नहस कर डालने वाले दुनिया के सबसे बड़े भूकम्प आने की अफ़वाहों के बीच कई बार घुटनों की तकलीफ़ के बावज़ूद उन्हें बदहवासी में जैसे घर की सीढ़ियों से कूदते फाँदते हुए रात बिरात उतरना पड़ा उस से उनको किसी भी हिलती चीज़ से हिलती हुई धरती का एहसास होने लगता है। पानी की तेज़ धार के साथ उस दिन अम्मा की बड़ी संक्षिप्त मुलाकात हुई …मैं सोचता रहा वास्तविक भूकम्प के केन्द्र से सैकड़ों मील दूर (भूकम्प का केन्द्र नेपाल की सुदूर पहाड़ियों में बताया जा रहा था ) रह रही बेहद दृढ़ निश्चयी और साहसी अम्मा के मन में जब इतनी दहशत बैठ गयी तो महाविनाश के केन्द्र में रहने वाले अभिशप्तों के मन की दशा कितनी डाँवाडोल होगी।
मन की अंदरूनी परतों में दुबक कर बैठे डर मौका मिलते ही कैसे सिर उठाते फुफकारते हैं .... =============
मामूली चीजें भी आपको कभी कभी एकदम हतप्रभ कर देती हैं … बात पुरानी है , बीसियों साल पहले रेल से पटना से रुड़की आते हुए लक्सर स्टेशन पड़ने पर अम्मा ने बाल सुलभ सरलता से मुझे बताया था कि बचपन में अपने नाना के साथ वे महीने भर के लिए पहली बार रेल पर चढ़ कर गृह शहर आरा (बिहार) से हरिद्वार आयी थीं --- रास्ते में पहले तो बक्सर( आरा से महज पचास किलोमीटर) पड़ा और नौ सौ किलोमीटर और चलने के बाद लक्सर स्टेशन दिखाई दिया। स्कूल में मास्टरजी ने उन्हीं दिनों दुनिया गोल है वाला पाठ पढ़ाया था और कहा था कि इसका प्रमाण यह है कि किसी स्थान से यदि यात्रा शुरू की जाए तो चलते चलते मुसाफ़िर उसी स्थान पर दुबारा पहुँच जाएगा --- बच्ची अम्मा नींद से उठी उठी थीं और लक्सर बक्सर के एक ही होने की उलझन में आसानी से उलझ गयी थीं.... जहाँ से चली थीं इतनी लम्बी यात्रा के बाद फिर वहीँ पहुँच गयीं ( ब के बदले गलती से ल भी तो लिखा जा सकता है )…… उनको पक्का प्रमाण मिल गया ,सचमुच दुनिया गोल है।
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कल रात निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।उसका राउल मेलो की भावपूर्ण आवाज़ में गाया "ड्रीम रिवर" गीत हर बार की तरह मन में इस बार भी कहीं ठहर गया …… एक चलताऊ अनुवाद ,जिसने साँस लेने की गुंजाइश बनायीं और मन हल्का किया :
ऊपर छाये हुए चाँद सितारे
आस लगाये हूँ उनसे मदद की
कि दिलवा दें प्रेम तुम्हारा
पूरा पूरा अ टूट ....
कालिमा की अंतिम कोठरी में सोया हूँ
तुम्हें बाँहों में समेटे होने के ख़्वाब देखता ....
काश, यह सपना सच हो जाता
और ऊपर से नीचे तक तर जाता मेरा मन।
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं
फ़िर भी इतना करो
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।
नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता .......
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं
फ़िर भी इतना करो
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं
फ़िर भी इतना करो
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।
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कोई पंद्रह दिन पहले की बात होगी - एक मित्र के साथ सुबह सात बजे चाय पीने का वायदा था ,वे रिटायर होकर शहर छोड़ रहे थे। मैं अपने हिसाब से उठा और घूमने के लिए दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि बहन का फ़ोन आ गया। फ़ोन पर बात करते करते मैं घर के आहाते से बाहर निकल आया और घूमता टहलता मित्र के घर पहुँच गया। बातचीत के दौरान मेरे दूधवाले का फोन आया तब मुझे मालूम हुआ कि मुझसे दरवाज़ा बगैर ताले के खुला ही छूट गया है। जल्दी जल्दी मैं रास्ते भर अपने बुढ़ापे और याददाश्त के क्षरण के बारे में सोचता सोचता घर लौटा - अपने भुलक्कड़पन को सोचते सोचते कुछ साल पहले आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी के बारे में पढ़ी एक खबर याद आ गयी जब वे ऐसे ही सुबह की सैर को निकले और अपना पता ठिकाना भूल पीने का पानी ढूँढ़ते हुए किसी अजनबी घर जा बैठे। वे बड़े आदमी थे,बात पुलिस तक पहुँची और उन्हें सुरक्षित घर पहुंचा दिया गया। मुझे बार बार यह लगता रहा कि मेरे साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा - अपने शहर में तो लोग पहचान लेंगे पर किसी दूसरे शहर में ???????
बरसो पहले पढ़ी और सहेज कर रखी बिली कॉलिन्स की चर्चित कविता "विस्मरण" कुछ ऐसे ही पलों का बड़ा मार्मिक विवरण देती है :
"सबसे पहले लेखक का नाम गुम होता है
और लगता है जैसे डूबते डूबते उसने समझाया हो
किताब के नाम को .... विषय को ... और दारुण अंत को भी
कि चलते चले आओ पदचिह्न ढूँढ़ते मेरे पीछे पीछे
और पल भर भी नहीं लगता पूरे उपन्यास को विस्मृत होते
जैसे पढ़ना तो बहुत दूर, सुना भी न हो उसका नाम कभी इस जीवन में
जो जो भी आप याद करने का यत्न करते हैं
दिमाग पर भरपूर जोर डाल के
सब का सब बच कर दूर छिटक जाता है आपकी ज़बान से
या कि आपकी तिल्ली (spleen) के किसी अंधेरे कोने में
रुक रुक कर जुगनू सरीखा टिमटिमाता रहता है......
कोई अचरज नहीं कि आधी रात अचानक आपकी नींद उचट जाये
और आप किताबों में ढूँढने लगें किसी ख़ास लड़ाई की तारीख़
कोई अचरज नहीं कि आपको अनमना देख
खिड़की से बाहर दिख रहा चन्द्रमा
आँख बचा कर भाग जाये उस प्रेम कविता से भी बाहर
जो आजीवन आपके मन में बोलती बतियाती रही...."
मुझे इस हिंसक समय में प्रेम कविताओं के विस्मृत हो जाने का बड़ा डर सताने लगा है उस दिन से .....
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कल शाम दिल्ली से लौटते हुए एफ़ एम रेडियो पर एक ग़ज़ल इतनी दिलकश जनाना आवाज़ में कानों में पड़ी कि लगा थोड़ी देर के लिए जीवन उलट पलट हो गया - सड़क के शोर शराबे के कारण शब्द शब्द सुनना और समझना उस तसल्ली से नहीं हो पाया जिस से मैं चाह्ता था। पहले तो मुझे लगा कि ड्राइवर राधेश्याम ने अपने पेनड्राइव कलेक्शन से यह ग़ज़ल सुनायी ,सो उसको दुबारा बजाने को कहा। पर जब मालूम हुआ कि रेडियो पर आ रही थी तो इंटरनेट पर ढूँढ़ने लगा और गूगल सर्च के पहले पन्ने पर 1994 की फ़िल्म "विजयपथ" का इन्दीवर का लिखा और अलका याग्निक का गाया गीत हाथ लगा। मेरी स्मृति ने इन्दीवर वाला गीत स्वीकार करने से मना कर दिया और वह आवाज़ भी अलका जी की नहीं थी। आज सुबह जब मुझे अंदलीब शादानी की यह मूल ग़ज़ल हाथ लगी तब इन्दीवर जी की खिचड़ी सामने आ गयी। पर अब भी यह पता नहीं लग पाया कि कल मैंने किसकी दिलकश आवाज सुनी थी : आस ने दिल का हाल न छोड़ा वैसे हम घबराये तो .... घबराने का ऐसा भी अनूठा अंदाज़ हो सकता है ,मुझे इल्म भी न था। बहरहाल यह ग़ज़ल :
देर लगी आने में तुमको शुक्र है फिर भी आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराये तो…
शफ़क़ धनुक महताब घटायें तारे नग़मे बिजली फूल
इस दामन में क्या क्या कुछ है दामन हाथ में आये तो ....
चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक
कोई मिले तो दिल का गाहक कोई हमें अपनाये तो …
क्यूँ ये मेहर अंगेज़ तबस्सुम मद्द ए नज़र जब कुछ भी नहीं
हाय!! कोई अनजान अगर इस धोखे में आ जाये तो…
सुनी सुनाई बात नहीं ये अपने ऊपर बीती है
फूल निकलते हैं शोलों से चाहत आग लगाये तो …
झूठ है सब तारीख़ हमेशा अपने को दोहराती है
अच्छा मेरा ख़्वाब ए जवानी थोड़ा सा दोहराये तो…
नादानी और मज़बूरी में यारों कुछ तो फ़र्क करो
एक बे आस इंसान करे क्या टूट के दिल आये तो ....
---- अंदलीब शादानी
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लम्बे अरसे बाद हमारे पच्चीस तीस साल पुराने मित्र ( जब हम मिले थे तो ये मस्तमौला कुँवारे थे ,उनकी शादी में शामिल होने वालों में मैं भी था और अब उनकी बड़ी बिटिया पंतनगर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने को है) नवीन कुमार नैथानी कल शाम घर आये ..... ढेर सारी गप्पें हमने मारीं और उनके सात आठ महीनों से स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहने की विस्तार से चर्चा सुनी .... फिर हरिद्वार जाकर कवि कथाकार सीमा शफ़क के घर खूब स्वादिष्ट भोजन किया। वैसे तो नवीन बेतक़ल्लुफ़ी में विश्वास करने वाले इंसान हैं पर घर से दूर रहने पर जब बगैर रोकटोक तबियत से खाना खाने के बाद उन्होंने "तृप्त हो गया" कहा तो सत्कार करने वाली सीमा के चेहरे पर भी तृप्ति और संतुष्टि का भाव झलक पड़ा। आज सुबह की सैर करते नवीन ने शुरूआती दिनों को याद करते हुए मज़ेदार बात बताई कि बचपन में उनकी रूचि साइंस में बिलकुल नहीं थी पर स्व मनोहर श्याम जोशी के सम्पादन में "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में डॉ वागीश शुक्ल की क्वांटम फ़िजिक्स पर छपी लेखमाला पढ़ कर वे विज्ञान की ओर आकर्षित हुए - वे डाकपत्थर के सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक इसाक असिमोव की उसी पत्रिका में छपी एक कहानी "टेक ए मैच" का ज़िक्र बड़े मज़ेदार अंदाज़ में किया। इस कहानी में एक अंतरिक्षयान के बादलों के विशाल समूह के बीच फँस जाता है जिसके कारण अपेक्षित मात्र में ईंधन नहीं बन पा रहा है - धरती से लाखों किलोमीटर दूर वापस लौटना संभव नहीं है और आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त ईंधन भी है नहीं। यान में सफ़र कर रहे लोगों की जान पर बन आई है और यान के ईंधन की जिम्मेदारी जिस विशेषज्ञ फ़्यूज़निस्ट पर है उसको कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है और वह अपनी नाकामी के चलते अपनी मूँछ भी नीची नहीं होने देना चाहता। यान में बैठे एक साइंस टीचर को इस गड़बड़ी का आभास हो जाता है और विज्ञान पढ़ाने के अभ्यास से विकल्प भी सूझ जाता है - कि माचिस की तीली को जलाने जैसी पुरातनपंथी क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है उसकी मदद लें तो थोड़ी मात्र में जिस ईंधन की दरकार है वह प्राप्त हो सकती है।असमंजस में पड़ा हुआ फ़्यूज़निस्ट टीचर की बताई तरकीब अपनाता है और यान संकट से निकलने में कामयाब हो जाता है...पर यान के कैप्टन और फ़्यूज़निस्ट की साख बनी रहे इसलिए आशा की किरण दिखाने वाले साइंस टीचर को घर में नज़रबंद कर दिया जाता है। नवीन को फ़्यूज़निस्ट के बारे में लेखक का यह कथन हू ब हू याद था :"ए स्पेशलिस्ट ऑलवेज़ लिव इन स्पेशलिटीज़"....... अपनी बीमारी के शुरूआती दौर में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के एक दायरे में बंध कर रह जाने और अन्य संभावनाओं को न तलाशने की बात बताते हुए नवीन भाई को असिमोव याद आये और जिस सरसता के साथ उन्होंने सुबह मुझे यह बात बताई वह कोई कहानीकार ही बता सकता है। उनकी कहानियों का जो सकारात्मक जादुई संसार है उसकी जड़ें नवीन की पूरी शख्सियत में फैली हुई हैं ..... उनकी द्रौपदी के चीर सरीखी बातों को सुनना एक ट्रीट है।
अभी इस एक बात के साथ बस ... बाकी बातें फिर कभी और ..... नवीन भाई जल्द से जल्द खाने पीने के परहेज से बाहर आयें और जोरदार ठहाके लगाते हुए मिलें ,शुभ कामनायें।
नोट : जब मैंने आज दो तीन बार उन्हें बिना चीनी की चाय पिलाई तो उन्होंने राज की यह बात भी बताई कि पहले एक मामला ऐसा था जब पत्नी के सामने झूठ बोलना पड़ता था ....अब तो वह भी छूट गया।
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घर की भौतिक शक्ल सूरत को लेकर भले ही कितना कुछ लिखा कहा जाए पर चार दीवारों और छत वाले एक अदद घर के अंदर व्याप्त भावनात्मक निष्ठा व ऊष्मा की अनुपस्थिति को समझे बगैर घर के मायने को समझ पाना मुमकिन नहीं होगा। अपनी किशोरावस्था में पढ़ी उषा प्रियंवदा की कहानी "वापसी" मुझे कई दिनों तक इसलिये हैरान परेशान किये रही कि गजाधर बाबू के किरदार का नौकरी से रिटायर होकर घर लौटना और चंद दिनों में ही इस तरह उसको छोड़ कर चल देना उस अनुभवहीन अवस्था में गले नहीं उत्तर रहा था .... पर जैसे जैसे दीन दुनिया देखता गया वैसे वैसे उनके बर्ताव की असलियत मेरे मन में खुलती गयी- अपने ढर्रे पर चल रहे घर में चारपाई की तरह उनकी दैहिक उपस्थिति के असंगत लगने का मर्म समझ में आने लगा।कहानी का सिर्फ़ एक वाक्य " घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।" घर और मकान के बारीक अंतर को समझाने के लिए पर्याप्त है - कोई चालीस साल पहले पढ़ी कहानी का यह वाक्य मुझे अब भी अक्षरशः याद है।
बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास "सारा आकाश" पर इसी नाम की फ़िल्म बना कर उसकी कई परतें और खोलीं - फ़िल्म निर्माण के दौरान उपयुक्त घर खोजने की पूरी कहानी राजेंद्र यादव ने बयान की है और लिखा भी है कि "घर बोलता है "...... पुरातन संस्कारों से जकड़े खोखले आदर्शवाद का पनपना अंधेरे भुतहे घरों के अंदर खूब होता है और इस परिवेश में क्या मज़ाल कि आधुनिक समय की ताज़ा हवा प्रवेश कर जाये। इस फिल्म में समर का कॉलेज से घर लौटते हुए साइकिल चलाना बेहद संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है - शुरूआती उत्साह घर के पास आते आते कितना थका थका और सुस्त हो जाता है यह बेमन से ढोये जाने वाले रिश्तों की बर्फ़ीली ईंट गारे मिट्टी के निर्माण को घर कहने की परिपाटी पर गंभीर सवाल उठाता है।
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प्रसिद्ध ग्रीक कवि यिआन्निस रित्सोस ने लिखा :
मुझे मालूम है हम में एक एक को
कदम बढ़ाना पड़ता है प्रेम की राह पर अकेले ही
वैसे ही आस्था के रास्ते
और मृत्यु को जाते रास्ते पर भी
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
कोशिश तो बहुतेरी की पर कर नहीं पाया कुछ .
अब मैं एकाकी नहीं
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ
चलोगी प्रिय?