Monday, November 20, 2017

हिन्दी में दलित कविता की आहट

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

हमारा वर्तमान देवत्‍व को प्राप्‍त हो चुके लोगों की ही स्‍मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्‍ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्‍ठभूमि एक महत्‍वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्‍ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्‍सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्‍तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्‍तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्‍यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्‍ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्‍मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्‍ठभूमि में तो सामाजिक सम्‍मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्‍व को प्राप्‍त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्‍सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्‍यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्‍यवर्गीय व्‍यवहार से मुक्‍त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्‍ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्‍यक्ति का वर्तमान व्‍यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्‍वकर्मा का जिक्र तक  नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्‍सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्‍वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्‍त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रका‍शन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्‍त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्‍वकर्मा अकेले शख्‍स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्‍यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्‍यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्‍नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्‍दी में दलित साहित्‍य नाम की कोई संज्ञा उस वक्‍त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्‍टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्‍याख्‍या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्‍सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्‍वर मुझे भिन्‍न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्‍याख्‍याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्‍मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल न‍हीं कर रहा तो)  लिखी थी, न ‘तब तुम क्‍या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्‍मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्‍त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्‍दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्‍मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्‍दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।

उस वक्‍त आपके मार्फत जिन दो व्‍यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्‍थान के मुखिया श्‍याम सिंह ‘शशि’। श्‍याम सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्‍यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्‍मीय छवि बनी रही।
#स्‍मृति

Friday, November 17, 2017

चल निगोड़े

मेरी उम्र चालीस के पास पहुंच रही थी उस वक्‍त। आपको ख्‍याल नहीं था। चंदा भाभी को भी ख्‍याल नहीं रहा होगा। मुझे याद नहीं भाभी ने न जाने क्‍या मजाक किया था, आपकी मुस्‍कराहट याद है बस, और याद है वह जवाब जो मैंने उस वक्‍त दिया था। चंदा भाभी नहीं जानती थी कि मैंने वैसा जवाब क्‍यों दिया। आप समझ गए थे पर। आपके चेहरे की मुस्‍कराहट बुझ गयी थी। कही गयी बात को सुनते हुए बोलने वाले के भीतर चल रही प्रक्रिया को जानने का आपमें खूब सलीका था। रंगकर्मी जो थे आप। एक रंगकर्मी की पहचान ही है यह कि वह न सिर्फ अपनी ‘एक्जिट’ और ‘एंट्री’ से अपने पात्र का परिचय दे दे बल्कि अपने पात्र को तैयार करते हुए ऐसे कितने ही लोगों के चलने बोलने, देखने, सुनने, मुस्‍कराने, रुठने जैसे भावों का अध्‍ययन करे। आप जानते थे कि मेरे और आपके बीच वह लम्‍बे समय का अंतरंग साथ कुछ कम हुआ है। ऐसा आपको इसलिए भी लग सकता था कि आपके जबलपुर स्‍थानांतरित हो जाने के बाद हमारा हर वक्‍त का साथ नहीं रहा था। जबकि असल वजह इतनी भर नहीं थी, आप अब पहले वाले आमेप्रकाश वाल्‍मीकि नहीं रहे थे, हिन्‍दी के ‘सुपर स्‍टार’ लेखक हो चुके थे। अपने इर्द गिर्द एक घेरा खड़ा कर लेने वाले लेखक के रूप में जाने जाने लगे थे। अब आपको लौटती हुई रचनाओं के साथ किलसते हुए देखने वाला कोई नहीं हो सकता था। बल्कि आज यहां का बुलावा तो कल वहां के बुलावे पर आपको हर दिन कहीं न कहीं लेक्‍चर देने जाने के जाते हुए देखने पर हतप्रभ होने वाले लोग ही थे। मेरा संबंध तो उस वाल्‍मीकि से नहीं था। मैं तो उस वाल्‍मीकि को जानता था जो मेरा आत्‍मीय ही नहीं, सबसे करीबी मित्र और बड़ा भाई था। अपनी उस फितरत का क्‍या करूं जो महानता को प्राप्‍त हो गये लोगों के साथ मुझे तटस्‍थ रहने को मजबूर कर देती है। तब भी हल्‍के फुल्‍के और थोड़ा मजाकिया लहजे में ही मैंने चंदा भाभी की बात का जवाब दिया था, 
‘’देखो अब मुझे अठारह साल का किशोर न समझो भाभी। आप लोगों से भी ज्‍यादा उम्र हो गई मेरी।‘’

भाभी मेरी बात पर चौंकी थी। चौंके तो आप भी थे। क्‍योंकि वास्‍तविकता तो यही है कि उम्र तो हर व्‍यक्ति समय के सापेक्ष ही बढ़ती है। दरअसल उस वक्‍त मेरे मन एकाएक ख्‍याल उठा था कि हम जब करीब आए थे आपकी उम्र कितनी रही होगी। आपको याद होगा कि कुछ ही देर पहले आपने बताया था कि बस दो साल रह गए रिटायरमेंट के। उस वक्‍त हम मार्च 2009 के अप्रैल की धूप ही तो सेंक रहे थे आपके आवास की बॉलकनी में बैठकर। अपनी बात को स्‍पष्‍ट करते हुए मैंने कहा था, 
‘’अच्‍छा बताओ भाभी जब हम पहली बार मिले थे आपकी उम्र कितनी थी ?’’ 
वे समय का अनुमान लगाते हुए कुछ गिनती सी करने लगीं थीं। आपके मन में भी कोई ख्‍याल तो आया ही होगा। वे जब तक जवाब तक पहुंचती, मैंने उनका रास्‍ता आसान कर देना चाहा था, 
‘’मैं बताता हूं, 37 या 38 के आस-पास ही रही होगी।‘’ 
वे खामोशी से मुझे सुनती रहीं। आप भी। मेरा बोलना जारी था, 
‘’तब बताइये, आज मैं चालीस पूरे करने की ओर हूं... तो हुआ नहीं क्‍या आपसे बड़ा?’’ 
भाभी बहुत जोर से हंसी थी और एक धौल जमाते हुए उन्‍होंने सिर्फ इतना ही कहा था, 
‘’चल निगोड़े’’ 
आपके चेहरे पर बहुत धूमिल सी  मुस्‍कराहट ठहर गई थी। वैसे आप भी जानते होंगे रंगमंच मेरा भी क्षेत्र रहा और मैंने चेहरे की मुद्रा के बावजूद मुस्‍कराहट को मुस्‍कराहट की तरह नहीं पकड़ा था।    

#स्‍मृति

Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

Friday, November 10, 2017

खाने में जो भी स्वाद था, सब नमक की वजह से था



यह एक स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक एक्‍टर का माध्‍यम है तो फिल्‍म डाइरेक्‍टर का। लेकिन फिल्‍म एवं नाटकों की दुनिया का यथार्थ जो तस्‍वीर बनाता रहा है, वह तस्‍वीर कुछ भिन्‍न प्रभाव छोड़ती रही है। इधर यह भिन्‍नता कुछ ज्‍यादा चमकीली हुई है। हिन्‍दी नाटकों की दुनिया में यह रौशनी कई बार तडि़त की सी चौंध बिखेरती हुई है। नाटकों की दुनिया में उभरते सिद्धांत और व्‍यवहार के ये अन्‍तर्विरोध कोलकाता में आयोजित हुए राष्‍ट्रीय नाटय महोत्‍सव ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों में भी दिखायी देते रहे। 

‘जश्‍न-ए-रंग’ कोलकाता की नाट्य संस्‍था लिटिल थेस्पियन के प्रयासों का सातवां क्रम था। पिछले कुछ वर्षों से लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा आयोजित होने वाले ऐसे जलशों में देश भर की कई नाट्य मण्‍डलियां कोलकाता पहुंचती रही हैं। इस बार, 3 नवम्‍बर से 8 नवम्‍बर 2017 तक आयोजित हुए इस नाट्य उत्‍सव में लिटिल थेस्पियन के अलावा जम्‍मू से ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, इलाहाबाद से ‘बैक स्‍टेज’, नई दिल्‍ली से ‘पीपुल्‍स थियेटर’ एवं बेगुसराय से ‘आशीर्वाद रंगमण्‍डल‘ नाट्य दलों की उपस्थिति रही। इस उत्‍सव की विशेषता थी कि नाटकों के साथ रंग के अन्‍य प्रयोग जैसे किस्‍सा कहानी, नुक्‍कड़ एवं कहानी पाठ जैसी अन्‍य गतिविधियां उत्‍सव का मंच बनी। कोलकाता के बाशिंदे एवं गुजराती भाषा के कलाकार- दिलीप दवे एवं दिनेश वडेरा, मॉरिसस के कलाकार- लीलाश्री, शावीन, शाबरीन एवं वोमेश, पटना से दिनकर एवं बहुत से अन्‍य कलाकारों ने इस तरह की गतिविधियों से 6 दिन तक चले इस उत्‍सव को यादगार बनाने की पहलकदमी में अपनी भूमिका निभायी। 6 दिवसीय इस आयोजन में एक नाटकों के विकास में अखबारों एवं शिक्षण संस्‍थानों की भूमिका पर भी विचार विमर्श हुआ। प्रबंधन के कौशल के पेशेवराना अंदाज के कारण भी लिटिल थेस्पियन का यह एक महत्‍वपूर्ण आयोजन कहा जा सकता है। हर दिन के कार्यक्रम की जानाकारी को फोन एवं एसएमएस के माध्‍यम से दर्शकों तक पहुंचाने और सीधे सम्‍पर्क बनाये रखने वाले लिटिल थेस्पियन के युवा कार्यताओं की भूमिका इस मायने में उल्‍लेखनीय रही। ध्‍यान रहे कि लिटिल थेस्पियन, कोलकाता शौकिया रंगकर्मियों की संस्‍था है जो अपने सीमित साधनों से बांगला भाषी कोलकाता में लगातार हिन्‍दी नाटकों का पक्ष प्रस्‍तुत करती रहती है।  



नाट्य समारोह के दौरान मंचित हुए नाटकों पर अलग अलग बात करने की बजाय एक लय में बहती उस समानता को देखें जो हिंदी नाटकों का वर्तमान हो रही है तो मन में यह सवाल बार--बार  उठ रहा कि कलाकारों के माध्‍यम नाटक में सिद्धांत और व्‍यवहार का यह अन्‍तर्विरोध क्‍यों उभर रहा है कि प्रमुखता निर्देशन को ही मिलती जा रही है और कलाकार हाशिए में होता जा रहा है ?

सवाल के जवाब को ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों की मूर्तता में तलाशते हुए देखा जा सकता है कि तकनीक के विकास ने नाटय निर्देशकों को सहूलियत दी है कि वे दृश्‍य जिन्‍हें पहले कभी मंचित कर पाना मुश्किल था, आज उन्‍हें भी मंचित करना आसान हुआ है। इस तरह से देखें तो यह सुखद स्थिति होनी चाहिए थी, लेकिन कुछ ही मामलों में ऐसे सुखद क्षणों के बावजूद इसने अभिनेता की स्‍वतंत्रता का ही हनन किया है। उन्‍नत तकनीक के प्रयोग से रचे जा रहे दृश्‍यबंधों ने निर्देशक को तो स्‍थापित करने में भूमिका निभायी है लेकिन प्रयुक्‍त तकनीक से सामंजस्‍य बैठाने की चिंता में ही उलझे अभिनेता को अपने पात्र में कन्‍स्‍ट्रेट होकर अभिनय करने की स्‍वतंतत्रा में बाधाएं भी खड़ी की है। परिणमत: निर्देशकों के व्‍यवहार में एक अजीब तरह की अराजकता के साथ अतिमहत्‍वकांक्षा ने भी जन्‍म लिया है। ‘जश्‍ने-ए-रंग’ के तीसरे दिन मंचित हुए ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, जम्‍मू के नाटक ‘द चेयर्स’ के बाद चचिर्ति निर्देशक मुश्‍ताक काक का यह कहना इस बात का गवाह है। जब वे कहते हैं, ‘’चीयर्स एक एब्‍सर्ड नाटक है और मैं हमेशा ऐसे ही नाटकों की तलाश में रहता हूं। हां, मेरे ये कलाकार जरूर मुझे हमेशा टोकते हैं कि कभी इनसे हटकर भी करूं। लेकिन मुझे तो यही पसंद हैं।‘’ इस वक्‍तव्‍य के साथ आत्‍मश्‍लाघा से भरी मुश्‍ताक काक की हंसी की आवाज भी सुनायी देती है। यूं कलाकारों के अभिनय के लिहाज से यह खूबसूरत प्रस्‍तुति थी।

‘द चेयर्स’ फ्रांसिसी नाटककार यूजिन ने लगभग पचास के दशक में लिखा है। नाटक की कथा एक निर्जन द्वीप में एकाकी जीवन बिताते एक बूढ़े दम्‍पति की है। एकाकीपन ने जिन्‍हें एक सामान्‍य मनुष्‍य भी नहीं रहने दिया है। समाज की वास्‍तविकता से कटे होने के कारण वे कुछ कुछ पगलेट तरह के असमान्‍य व्‍यवहार में जीने को मजबूर हैं। यूजिन जिस वक्‍त इस नाटक को लिखा, उस वक्‍त का फ्रांसीसी साहित्‍य अस्तितवादी के दर्शन के पक्षधर ज्‍या पॉल सात्र से प्रभावित है। अस्तित्‍ववाद के साथ अपने वर्तमान को अमूर्तता में देखने का वह दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध की निराशा और पस्‍ती में मनुष्‍य के जीवन को ही उददेश्‍य विहीन एवं निर्थक मानता रहा है। अस्तित्‍ववादी एवं अमूर्तता के पक्षधर मानते रहे हैं कि विश्‍व की अमूर्तता (जटिलता) का कोई तार्किक हल नहीं। आज जब दुनिया की जटिलताएं उतनी अमूर्त नहीं रह गई हैं, ‘द चेयर्स’ का मंचन करते हुए आत्‍मगौरव से भरे रहने का कारण समझ नहीं आता। इसे विशिष्‍टताबोध से भरे निर्देशक को कसने वाली अतिमहत्‍वाकांक्षा क्‍यों न माना जाए ? यद्यपि यह नाटक निर्देशक की उपरोक्‍त वर्णित प्रश्‍नांकिकता के बावजूद तकनीक के अतिश्‍य प्रयोग के बोझ से न दबी होने के कारण कलाकारों को अभिनय करने की पूर्ण स्‍वतंत्रता देती हुई थी। नाटक के दोनों ही कलाकारों ने उस अवसर को भरसक ही उपयोग किया। फिर भी अपने निर्देशक के उपरोक्‍त वक्‍तव्‍य पर उनके चेहरे पर भी एक थका देने वाली मुस्‍कान ही बिखरती रही। यह नाटक की समाप्ति पर मंच पर घट रही एक ऐसी वास्‍तविकता का नाटक था जिसकी अनुगूंज अतिमहत्‍वाकांक्षा की डोर के सहारे उड़ायी जाने वाली पतंग की सरसराहट में मंचन के सफल प्रयोग को कलाकारों की सामूहिकता में देखने की बजाय निर्देशक को प्राथमिक बना दे रही थी।

यह देखना दिलचस्‍प है कि नाटकों में विकसित तकनीकी के जिन प्रयोगों ने निर्देशकों को महत्‍वपूर्ण बनाया हैं, फिल्‍मों की दुनिया में वही तकनीक कलाकारों की भूमिका को ही महत्‍वपूर्ण रूप से स्‍थापित करने में सहायक हुई है। कलाकार की सुक्ष्‍म से सुक्ष्‍म अभिव्‍यक्ति को उभारने में वही मददगार है। जिसके प्रयोग में जबकि निर्देशक की निगाहें ही प्रमुख एवं निर्णायक होती हैं। नाटक हो चाहे फिल्‍म, दर्शकों से सीधे मुखतिब होने का अवसर तो कलाकार के पास ही रहता है। यही वजह है कि प्रयोग की जा रही तकनीक का सीधा प्रभाव भी कलाकार की अदाकारी पर ही पड़ता है। इलाहाबाद की नाट्य संस्‍था ‘बैक स्‍टेज’ प्रवीण शेखर के निर्देशन में भुवनेश्‍वर की कहानी ‘भेडि़ये’ का नाटय रूप ‘खारू का किस्‍सा’ मंचित करती है। दृश्‍य गंभीर है और कलाकार भरसक प्रयासों के साथ अभिनय करता है। भेडि़यों के हमले से खुद की जान बचाने के लिए बाप और बेटे के पास हथियारों का जखीरा खत्‍म हो चुका है। भेडि़ये हैं कि झुण्‍ड के रूप में दौड़ते चले आ रहे हैं। गाड़ी को खींचते बैल सरपट दौड़ते चले जा रहे हैं लेकिन भेडि़यों को पछाड़ना मुश्किल है। गाड़ी में तीन नटनियां भी सवार है जिसके कारण गाड़ी का बोझ खींचना बैलों के मुश्किल होता जा रहा है। बाप और बेटे तय करके एक नटनियां को भेडि़यों के शिकार के तौर पर गाड़ी से धकेल देना चाहते हैं लेकिन अपनी इस योजना का दर्शकों तक पहुंचाने के लिए खारू को गाड़ी से उतरकर मंच के अग्रभाग में आकर संवाद अदायगी करनी है और पाते हैं कि उस कारूणिक दृश्‍य में कुछ दर्शक है कि जोर जोर से हंस रहे हैं। ऐसा अगली नटनियाओं को फेंकते वक्‍त भी होता है और फिर वही हंसी पहले से ज्‍यादा तीव्र होकर सुनायी देती है। बैल खोल दिये जाने हैं ताकि भेडि़यों के झुण्‍ड से निपटा सके। लेकिन अभिनय की सारगर्भित अदायगी के बावजूद दर्शक हंस रहे हैं। बेट की सलामती के लिए बाप खुद भेडि़यों से मुठभेड़ करने के लिए गाड़ी से छलांग लगा देने की स्थिति में है और हंसने वाले दर्शक अब भी दृश्‍य की कारूणिकता के साथ नहीं हो पा रहे हैं। सवाल है कि ऐसा क्‍यों हुआ जबकि कलाकारों के हाव भाव, उनकी मुद्रा, उनकी आवाजों के उतार चढ़ाव तो उस दहशत को बयां करने में कतई कमतर नहीं थे। इसे सिर्फ यह कहकर हवा नहीं किया जा सकता कि वे वैसे ही वर्ग के दर्शक थे जिन्‍हें दूसरों की परेशानी में ही लुत्‍फ उठाने की आदत होती है। ऐसा निश्चित सत्‍य है कि आज समाज का एक वर्ग इस विकृत मानसिकता से भी ग्रसित है, पूंजी की चकाचौंध में जिसके भीतर अमानवीयता ही हावी है। लेकिन नाटक के दौरान ऐसे घटने के कारण बिल्‍कुल साफ थे कि जब कलाकार को संवाद अदायगी करनी होती थी, उस वक्‍त उसे नाटक में घट रहे घटनाक्रम वाली जगह से हटना जरूरी हो रहा था। खारू दौड़कर गाड़ी से नीचे उतरता, संवाद अदा करता और फिर गाड़ी में चढ़ जाता। क्‍योंकि गाड़ी रूपी तकनीक को मंच पर होना जरूरी है, बेशक चाहे कलाकार के उस पर चढ़ने और उतरने के दौरान दर्शक मंचित हो रहे घटनाक्रम से बाहर निकल जाए, निर्देशक को इसकी चिंता नहीं। निर्देशक की चिंता में तो दृश्‍य की सजीवता गाड़ी की उपस्थिति से ही हो रही है। उस सेट को डिजाइन करने में ही तो वह अपने निर्देशक को स्‍थापित होता हुआ देख रहा है। ‘खारू का किस्‍सा‘ फिर भी एक बेहतर प्रस्‍तुति कही जा सकती है। हां नाटक की स्क्रिप्‍ट में यदि अंत को नाटक वास्‍तविक अंत पर ही संपादित कर दिया जाए तो। क्‍योंकि खारू के किस्‍से का अंत हो जाने के बाद भी जारी रहने वाली उपदेशात्‍मकता नाटक के पूरे प्रभाव को ही लील जा रही थी। 


कुछ कुछ वही स्थितियां जो खारू के किस्‍से में सेट के कारण दिखायी दी, अमित रौशन के निर्देशन में मंचित हुए बेगूसराय की संस्‍था के नाटक ‘दो औरतें’ में भी दिखती है। नाटक में नैरेटर की भूमिका निभा रही अदाकारा को बीच मंच पर दोनों ओर लटक रही दो बड़ी बड़ी चावीनुमा औरतों से मुखातिब होना है। चावियों को औरत में बदलने के लिए कभी उसे उन्‍हें साथ में झूल रहे दो लम्‍बे लम्‍बे लाल दुपटटों से ढकना है कभी उन दुपटों के सहारे उसे स्‍कूटर की सवारी करनी है और कभी उन्‍हें अपने ईर्द गिर्द लपेटते हुए दर्द की आहें भरते हुए संवाद अदायगी करनी है। साथ ही बदलते हुए भावों के साथ बहुत तेज आवाज में गूंज रहे पार्श्‍व संगीत से पार पाते हुए भी अपनी आवाज दर्शकों तक पहुंचानी है। मंच के बीच एक लम्‍बा ब्‍लाक रखा है। ज्‍यादा असहजता समझे तो उस पर जाकर खड़ी हो जाए और संवाद अदा करे। इन स्थितियों में कवि नवेन्‍दु की कविता ‘नमक’ की पंक्तियां याद आ जाना स्‍वाभाविक है- खाने में जो भी स्‍वाद था, सब नमक की वजह से था। नाटक में तकनीक भी नमक की तरह से इस्‍तेमाल हो तो प्रस्‍तुति निखर उठती है लेकिन अधिकता पूरा मजा ही किरकिरा कर देती है। रंगकर्मी अजहर आलम के निर्देशन में मंचित हुए लिटिल थेस्पियन के नाटक ‘रूहे’ में तो भारी भरकम सेट पर चीख चीख कर संवाद अदा करते बूढे की दयनीयता का जिक्र करना ठीक ही नहीं लग रहा। संवाद अदायगी पर तंज कसते देहरादून थियेटर के दादा अशोक चक्रवर्ती की कही बातें याद आती हैं कि एक खाली डिब्‍बा लो, उसमें पत्‍थर भरो और जोर जोर से हिलाओ तो वे भी आवाज करते हैं। संवाद अदायगी खाली डिब्‍बे में भरे पत्‍थरों की आवाज नहीं हो सकती।


मुश्किल है दिल्‍ली की संस्‍था ‘पीपुल्‍स थिेयेटर’ के नाटक ‘अर्थ’ पर बात करना जिसका निर्देशन निलय राय ने किया। क्‍योंकि वहां तो कलाकारों को तमाम तरह के ड्रील करने थे और ड्रील करते करते ही संवाद अदा करने थे। अब वे ड्रील का अभ्‍यास किए होंगे कि अपने पात्र में डूबे होंगे। एक दूसरों की पीठ पर, कंधों पर चढ़कर जबकि कभी उनके पांव लड़खड़ाने को होते और कभी पूरा शरीर ही झूल कर लटक आने को हो रहा होता। तिस पर अतिमहत्‍वाकांक्षा में डूबा निर्देशक इतिहास कथा के उस कथानक के तार्किकता पर भी नहीं सोचता कि क्‍या चाणक्‍य की हत्‍या हो जाने और मौर्य वंश का विनाश हो जाने से ही बौद्ध धर्म कैसे अचानक उदित हो गया। बस सभी कलाकारों को गोल घेरे में बुद्धम शरणम गच्‍छामी उच्‍चारना है।







Sunday, October 29, 2017

रनर

"नवरंग" के वार्षिकांक (2017) में प्रकाशित कहानी ‘रनर’- पूंजीवाद चुनाव तंत्र के उस रूप से साक्षात्कार कराती है जिसमें चुनाव प्रक्रिया एक ढकोसला बनती हुई दिखती है। 
नील कमल मूलत: कवि है, और ऐसे कवि हैं जिनकी निगाहें हमेशा अपने आस पास पर चौकन्नी बनी रहती हैं। कहानी एवं उनके आलोचनात्‍मक लेखन पर भी यह बात उतनी ही सच है। यह भी प्रत्यक्ष है कि उनकी रचनाओं की प्रमाणिकता एक रचनाकार के मनोगत आग्रहों से नहीं, बल्कि वस्‍तुगत स्थिति के तार्किक विश्ले षण के साथ अवधारणा का रूप अख्तियार करती है। कवि, कथाकार एवं आलोचक नील कमल की यह महत्व पूर्ण रचना ‘रनर’, जिसको पढ़ने का सुअवसर मुझे उसके प्रकाशन के पूर्व ही मिल गया था, इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तु त है। कथाकार का आभार कि कहानी को प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी। आभार इसलिए भी कि उनकी इस रचना से यह ब्‍लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है।

वि.गौ.

कहानी 

 नील कमल



दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था |
1.
बड़ा ही खूबसूरत सा गाँव है यह | पक्की सड़क के दोनों तरफ धान के विस्तीर्ण खेत | एकदम हरे भरे | गाँव के निवासी यातायात की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे आ बसे हैं | वरना गाँव की मूल आबादी पहले इस सड़क से काफी भीतर की ओर बसती थी | सड़क बमुश्किल 12 फीट चौड़ी है | यह सड़क गाँव से निकल कर पूरब दिशा में एक भेरी पर समाप्त हो जाती है और पश्चिम दिशा में शहर की तरफ जाने वाले मुख्य मार्ग से जुड़ती है | भेरी, मतलब विशाल जलाशय | सड़क के दाहिने-बाँये, जहां-तहां गहरी खाईं है जो इस वक़्त शैवाल से भरी पड़ी थी | यह खाईं शायद मकानों के निर्माण के लिए निकाली गई मिट्टी के कारण बन गई होगी जिसमें बरसात का पानी ठहर जाता होगा | इस क्षेत्र में ऐसी खाँइयों को खाल कहते हैं | आधुनिक आर्किटेक्चरल डिजाइन वाले भवनों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गांव में सम्पन्न लोग भी अच्छी संख्या में होंगे | लेकिन इस संपन्नता के बीच ही मिट्टी के परंपरागत घर भी हैं जिनपर टिन या पुआल की छप्पर पड़ी है | इन घरों के बाहर मुर्गियों के चूज़े, बत्तखें और बकरियाँ दिख जाती हैं | ये आदिवासी परिवार हैं जो विकास की दौड़ में तमाम सरकारी योजनाओं और घोषणाओं के बावजूद जीवन स्तर के मामले में अभी भी पिछड़े हुए हैं और छोटे मोटे काम के लिए सम्पन्न घरों की तरफ देखते रहते हैं |

इस गाँव के किसी किसान ने आज तक आत्महत्या नहीं की | पढ़े लिखे युवा गाँव छोड़कर नौकरियों की तलाश में शहर जरूर निकल गए थे पर कुल मिलाकर यह एक खुशहाल गाँव था | खेती यहाँ आजीविका का मुख्य साधन थी | धान की तीन फसलों के अलावा आलू, सरसो की खेती यहाँ के किसान बड़ी कुशलता के साथ करते | अधिकांश परिवारों से कोई न कोई व्यक्ति उस बैंक का सदस्य था जिसके बोर्ड के गठन के लिए यह चुनाव हो रहा है | ये किसान अपनी फसलों का बीमा कराते थे | उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रयोग में ये निपुण थे | यह बैंक इनकी अपनी संस्था थी जो इन्हें खेती के लिए आवश्यकतानुसार ऋण भी उपलब्ध कराती थी | बैंक का सालाना लाभ दस लाख रुपए तक निश्चित ही हो जाता था | एक करोड़ रुपए की रकम गाँव के किसानों ने अपनी गाढ़ी कमाई और बचत से बैंक के पास अमानत के तौर पर जमा रखी थी जिससे बैंक की व्यावसायिक जरूरत पूरी होती थी | गाँव की महिलाएँ किसी न किसी स्वनिर्भर समूह से जुड़ी थीं और आर्थिक रूप से स्वच्छंदता को महसूस करती थीं | गाँव में एक सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र भी ठीक ठाक काम कर रहे थे |

2.
दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था | यह बैंक के प्राक्तन सचिव का इकलौता बेटा था जो शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ता था और खास तौर पर इस चुनाव में वोट डालने के लिए गाँव आया हुआ था |

राजनीति उस जोरन की तरह है जो सद्भाव रूपी दूध में जब पड़ जाता है तो वह दूध अपना प्राकृतिक स्वरूप ही खो देता है | उसे दही में बदलते बहुत देर नहीं लगती है | राजनीति की जोरदार पैठ इस गाँव में भी थी | महिला पुरुष समेत कम से कम 2000 की आबादी का गाँव था यह | पिछले तीस वर्षों से इस बैंक के बोर्ड में एक ही दल के लोग काबिज रहते आए थे | बैंक के पिछले बोर्ड ने सदस्यता बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि उसे इस बात की आशंका थी कि नए सदस्यों की राजनैतिक समझ उनसे भिन्न भी हो सकती है और ऐसी स्थिति में बैंक पर से उनका वर्चस्व भविष्य में कभी भी समाप्त हो सकता था | सदस्यता के नए आवेदन को वे यह कर कर टाल देते कि उस परिवार से एक सदस्य तो पहले ही है | नई उम्र के लोग बात को बहुत तूल न देकर शहर के निजी बैंकों में खाता खोले हुए थे हालांकि शहराती बैंकों की अपेक्षा यह बैंक अधिक सुविधाजनक था | उन्हें उम्मीद थी कि कभी जब बोर्ड बदलेगा तो उनके आवेदन भी मंजूर कर लिए जाएँगे |

इधर पिछले कुछ वर्षों में रियासत में निजाम बदलने के बाद गाँव-दखल , पंचायत- दखल, जिला-दखल जैसे नारे ज़ोर शोर से समाचार माध्यमों में सुर्खियों में आ रहे थे | बदले हुए निजाम में बैंक के बोर्ड पर शासक दल अपना कब्जा चाहता था | इतिहास अपने आप को शायद इसी तरह दोहराता है | खेल वही चलता रहता है | खिलाड़ी बदल जाया करते हैं | नहीं बदलता है कुछ तो वह है खेल का नियम | चुनाव पंचायत स्तर का था जिसमें कुल मतदाता महज 726 की संख्या में थे | गाँव की पंचायत, विरोधी दल के कब्जे में थी जबकि विधान सभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व शासक दल का विधायक कर रहा था | गाँव के किसानों के इस बैंक में अब तक बोर्ड के सारे सदस्य विरोधी दल से ताल्लुक रखने वाले थे | जिस दिन से नए बोर्ड के गठन के लिए चुनाव की घोषणा हुई थी उसी दिन से शासक दल ने इसे जीतने के लिए जोड़ तोड़ शुरू कर दी थी | स्वतःस्फूर्त और निष्पक्ष चुनाव की सूरत में इस बदली परिस्थिति में  शासक दल की हार निश्चित थी जिसे अगले ही साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर शासक दल किसी भी सूरत में जीत में बदलने के लिए दृढ़संकल्प था | इसकी तैयारियां बहुत पहले ही शुरू हो गई थीं

3.
बैंक के पुराने बोर्ड के सचिव गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध थी | उन्हें मतदान में हराना असंभव था | इधर शासक दल के समर्थकों ने उन्हें धमकाना शुरू कर दिया था जिससे वे उम्मीदवार ही न बनें | लेकिन जब धमकियों से बात बनती न दिखी तो थाने में प्राक्तन सचिव के खिलाफ महिला यौन उत्पीड़न का केस दर्ज करा दिया गया | केस गैर जमानती था | स्थानीय विधायक भी इस चुनाव में पूरी दिलचस्पी ले रहा था | मजे की बात यह कि इलाके का थाना प्रभारी विधायक का साला था | खेल जम गया | सचिव को गाँव छोड़ कर भूमिगत हो जाना पड़ा | किन्तु किसी तरह नामांकन पत्र उनका जमा हो चुका था इसलिए उम्मीदवारी तय हो गई थी | इधर शासक दल गाँव के प्राइमरी स्कूल के एक दबंग अध्यापक को नए सचिव के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा था सबसे पहले विभागीय जिला अधिकारी पर दबाव बनाने का काम शुरू किया गया | मंत्री से लेकर जिला परिषद अध्यक्ष और स्थानीय विधायक की तरफ से स्पष्ट वार्ता दे दी गई कि शासक दल का बोर्ड ही वहाँ सुनिश्चित करना होगा | विभागीय अधिकारी सरकार पक्ष की तरफ से गठित चुनाव आयोग के द्वारा रिटर्निंग ऑफिसर नियुक्त थे | मामले की गंभीरता को समझते हुए इस चुनाव के लिए एक विश्वस्त असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को उन्होने ज़िम्मेदारी सौंप दी | चुनाव के लिए ड्राफ्ट वोटर लिस्ट तैयार करने और चुनावी कार्यक्रम की अधिसूचना जारी करने के दौरान स्थानीय थाना प्रभारी और विधायक के साथ असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर की कई बैठकें हुईं |
बैठक के दौरान थाना प्रभारी के प्रस्ताव को सुनकर असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को यकीन हो चला कि यह चुनाव इतना आसान नहीं होने वाला | भविष्य में उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है, अगर ऐसे विकट प्रस्ताव पर अमल किया गया | थाना प्रभारी ने अपने चैंबर में सिगरेट का कश खींचने के बाद धुंवा छोडते हुए जो प्रस्ताव रखा था वह भयानक था |
देखिए, आप ऐसा कीजिए कि दो सेट बैलट छपवाइए | एक सेट पर आप बूथ पर मतदान करवाइए | दूसरे पर हमारे लोग मुहर लगाएंगे | काउंटिंग से पहले आप बक्से बदल देंगे” |
“इसकी जरूरत क्या है” ? असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर ने असहज होते हुए अपना पैंतरा बदला , “आपको जीतने से ही मतलब होना चाहिए | तरीका हमें तय करने दीजिए” |
चुनाव को लेकर गाँव का माहौल उत्तप्त था | पिछली रात को ही थाना से पुलिस की जीप में सिपाही आए थे और विरोधी दल के चार युवा समर्थकों को ले जाकर लॉक अप में डाल दिया | उन पर आपराधिक मामले ठोंक दिए थे पुलिस ने | सुबह नौ बजे से मतदान आरंभ होना था | आठ बजे के लगभग जब चुनाव कर्मियों को लेकर तीन चार गाड़ियों ने गाँव की सीमा में प्रवेश किया तो मंजर किसी बड़े चुनावी जंग जैसा नजर आया | बूथ के सौ मीटर के रेंज में पुलिस ने बैरीकेटिंग कर रखी थी |  सौ डेढ़ सौ की संख्या में पुलिस कर्मी परिसर को घेरे हुए थे | मतदान के लिए बने तीन बूथों के साथ एक बड़ा सा पंडाल बनाया गया था जिसमें प्रवेश करने वालों की जांच पड़ताल चल रही थी | डी वाई एस पी मौके पर खुद मौजूद थे | थाना प्रभारी सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेते हुए टहल रहे थे | बूथ संलग्न इलाके में धारा 144 लगी हुई थी |
सुबह सात बजे से ही बूथ संख्या तीन पर भारी संख्या में लोग कतार में खड़े थे | इनमें महिलाएँ और बुजुर्ग बड़ी तादाद में थे | कुछ महिलाओं की गोद में शिशु भी थे जो टुकुर टुकुर देख रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि आस पास क्या हो रहा है | अन्य बूथों पर भी वोटर कतार में खड़े थे | जिला स्तर के कुछ नेता जो शासक दल की तरफ से जिला परिषद सदस्य भी थे मोटर बाइक पर गश्त लगा रहे थे | लगभग चार पाँच सौ की संख्या में लोग बूथ के सौ मीटर के दायरे में फैले हुए थे | रिटर्निंग ऑफिसर बूथ के बाहर ही थाना प्रभारी के साथ बैठे स्थिति पर नजर बनाए हुए थे | ठीक नौ बजे मतदान शुरू हुआ |
बैलट पेपर पर उम्मीदवारों के नाम और उनके चुनाव चिन्ह सिलसिलेवार छपे हुए थे | चूंकि यह किसानों के एक बैंक का चुनाव था इसलिए राजनैतिक दलों के चुनाव चिन्ह यहाँ व्यवहार में नहीं लाए जा सकते थे | बैंक के बोर्ड के लिए छह सदस्यों को इनमें से चुना जाना था |

4.
शुरू के डेढ़ दो घंटे मतदान लगभग शांतिपूर्ण ढंग से चलता रहा | पहचान पत्र के साथ लोग आते और मतदान करके चले जाते | इसके बाद पीठासीन अधिकारियों ने लक्षित किया कि लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक कंपेनियन वोट डालने आने लगा | कंपेनियन वोटर ! यह कुछ कुछ वैसा ही था कि जैसे क्रिकेट मैच के दौरान किसी बल्लेबाज को चोट आ जाए तो वह अपनी सहायता के लिए एक रनर बुलावा सकता है | बल्लेबाज शॉट खेलता है और रनर उसके बदले दौड़ कर रन बनाता है | चुनाव की नियमावली में इसी तरह कंपेनियन वोटर का एक प्रावधान होता है | यह उनके लिए प्रयोज्य है जो अंधे हों, शारीरिक रूप से अक्षम हों या निरक्षर हों | वे अपनी सहायता के लिए एक सहायक या कंपेनियन बूथ तक ले जा सकते हैं | आम चुनावों में ऐसे कंपेनियन उसी बूथ के वोटर भी हों यह अनिवार्य नियम होता है लेकिन इस चुनाव में ऐसी किसी अनिवार्यता कि बात स्पष्ट नहीं थी | तो कोई भी व्यक्ति जो उस वोटर को पसंद हो वह उसका कंपेनियन हो सकता था , भले ही वह किसी दूसरे गाँव का ही क्यों न हो | नियमावली की यह फाँक शासक दल को विभागीय अधिकारी ने दिखला दी थी | बाहर के गांवों से चार पाँच सौ लोग इसी तैयारी के साथ बुलवा लिए गए थे | यह बात पुलिस और प्रशासन के संज्ञान में पहले से ही थी | इस प्रक्रिया में ग्यारह बजे के बाद मतदान की गति धीमी होती गई और लोगों का जमावड़ा बढ़ता गया | कतार में लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक बहिरागत साये की तरह लगा हुआ था | वोटर की पहचान होती, उसे बैलट इशू होता और उस बैलट के साथ वह बहिरागत कंपेनियन मतदान कक्ष में प्रवेश कर जाता | वोटर बेचारा असहाय देखता रह जाता | यह दृश्य बदस्तूर चल रहा था | तभी दो नंबर बूथ पर अचानक तनावपूर्ण स्थिति बनती हुई नजर आई | बूथ के पीठासीन अधिकारी ने पूछताछ आरंभ कर दी थी |
महिला वोटर थी | जैसे ही बैलट उसके हाथ में आया उसके साथ वाले व्यक्ति ने उसे लपक लेना चाहा | लेकिन उसने तभी पीठासीन अधिकारी की तरफ देखते हुए उससे फरियाद की |
“साहब, मैं अपना वोट खुद डाल सकती हूँ लेकिन ये ज़बरदस्ती मेरे साथ घुसे चले आ रहे हैं” |
“क्यों भाई, आप कौन” ?
“सर, मैं इनका वोट डालूँगा” |
“क्यों, अप क्यों इनका वोट डालेंगे जबकि ये कह रही हैं कि ये अपना वोट खुद डाल सकती हैं” |
“ऐ, बैलट मुझे दे” |
“अरे, अरे, आप इधर आयें ... क्या तकलीफ है आपको ? आखिर वोटर ये हैं या आप .. आप बाहर जाएँ..” |
वह व्यक्ति जो कंपेनियन वोटर की हैसियत से बूथ के भीतर दाखिल हुआ था अब अपने रौद्र रूप में आ चुका था | दाहिने हाथ से उसने पीठासीन अधिकारी की छाती पर धक्का देते हुए बाँये हाथ से महिला से बैलट छीन लिया और बूथ के भीतर जाकर मुहर लगाने लगा | पीठासीन अधिकारी इस आकस्मिक हमले से बड़ी मुश्किल से संभला | तभी बूथ संलग्न पंडाल के बाहर विधायक की गाड़ी पूरे लाव लश्कर के साथ आकार रुकी | विधायक को बूथ की हर घटना की पल पल की खबर दी जा रही थी | गाड़ी से उतरते ही वह डी वाई एस पी पर भड़क उठा |
“आप लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ! आपसे कहा गया था कि यहाँ पुलिस फोर्स कि जरूरत नहीं है” |
“सर, हम तो बस अपना काम कर रहे हैं” |
“तुम लोग ऐसे नहीं समझोगे बात को .. लातों के भूत हो तुम सब | अभी हटाओ फोर्स को यहाँ से” !
इसके बाद विधायक रिटर्निंग ऑफिसर की तरफ बढ़ा |
“और .. आप कर क्या रहे हैं यहाँ ! आखिए सरकार किसलिए पोस रही है आपलोगों को .. जनता के पैसे से वेतन दिया जाता है आपको” !
“सर, सबकुछ शांतिपूर्ण ढंग से हो रहा है” |
“क्या शांतिपूर्ण हो रहा है ! यहाँ क्या लोकसभा का चुनाव हो रहा है ! सुन लीजिए , कोई पहचान पत्र नहीं चेक किया जाएगा यहाँ..” |
विधायक की गाड़ी के हटते ही बूथ परिसर का माहौल एकदम से बदल गया | पुलिस बूथ छोड़ कर सड़क पर कुर्सियाँ डाल कर बैठी रही | दूसरे गांवों से आए चार पाच सौ लोग पंडाल के भीतर आ गए | धारा 144 की धज्जियां, धुनी जा रही रुई के फाहों सी उड़ती रहीं |

5.
ठीक दो बजे मतदान समाप्त हुआ | अब मतगणना कि बारी थी | ऐसे चुनावों में मतदान के तुरंत बाद ही गणना आरंभ कर देनी होती है | चुनाव के फलाफल भी मतगणना के अंत में घोषित कर दिए जाते हैं | बूथ नंबर एक पर शासक दल के पैनल को ठीक ठाक बढ़त मिल रही थी | बूथ नंबर दो पर भी यह बढ़त बनी रही | तीसरे बूथ के परिणाम में विलंब हो रहा था | इधर शासक दल के पैनल के जीत की गंध मिलते ही उनके तमाम समर्थक एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल मलने लगे | उत्सव का दृश्य बन रहा था | लेकिन बूथ नंबर तीन के परिणाम ने गणित को उलट दिया था | मुक़ाबला कांटे का हो रहा था | अंतिम राउंड की मतगणना के मुताबिक छह सदस्यों वाले नए बोर्ड में शासक दल के तीन और विरोधी दल के पैनल से तीन सदस्य जीत रहे थे | पिछले बोर्ड के सचिव जो भूमिगत रह कर चुनाव लड़ रहे थे उनके जीतने की खबर चौंकाने वाली थी सबके लिए | 726 वोटरों में से 233 कंपेनियन वोट पड़े थे |
परिणाम घोषित किए जाने का वक़्त आ गया था | नए बोर्ड में दोनों पैनलों से तीन-तीन सदस्य जीते थे | शासक दल के समर्थक उत्तेजित थे | पीठासीन अधिकारियों को मारने की खुली धमकी देने लगे |
“साले, हमारी सरकार से वेतन लेते हो .. किसी काम के नहीं .. टाँगें तोड़ कर वापस भेजेंगे आज तुम सबको” !
इस परिणाम ने स्थिति को जटिल बना दिया था | बैंक के नियमों के मुताबिक छह सदस्यों के बोर्ड में किसी जरूरी फैसले के लिए कम से कम चार का समर्थन जरूरी था | इतना ही नहीं बोर्ड की मीटिंग के लिए भी कोरम भी चार सदस्यों की उपस्थिति से ही पूरा होता था | मिलजुल कर काम करने की संभावना नहीं दिख रही थी | लेकिन इस जटिलता का कोई जादुई हल निकालना ही होगा रिटर्निंग ऑफिसर को | चलते चलते उसने फोन पर विधायक को आश्वस्त करते हुए बड़ी मुलायमियत भरी आवाज़ में कहा, “सर, सात दिन के बाद ही ऑफिस बियरर इलेक्ट कर देंगे हम .. आप बिलकुल चिंता न करें सर ..” | इस बीच उसे उस लड़के का ख्याल आया जिसे पुलिस जीप में थाना प्रभारी थोड़ी देर पहले ले गया था | थाना प्रभारी से कह तो दिया था, “बच्चा है, केस मत दीजिएगा.. कैरियर खराब हो जाएगा बच्चे का ..” पर क्या वह उसकी बात मानेगा ?
सूरज ढलने को था | चुनाव कर्मी गाड़ियों में वापस लौट रहे थे | हाथ में गुलाल लिए कुछ लोग किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से खड़े थे | चुनावी आंकड़ों के आधार पर यह साबित करने में कोई कठिनाई नहीं थी कि गाँव के 726 मतदाताओं में से 233 या तो अंधे थे या शारीरिक रूप से अक्षम या फिर निरक्षर | चुनाव कि भाषा में ब्लाईंड, इंफर्म ऐंड इल्लीटेरेट वोटर्स ! क्रिकेट की भाषा में इतने ही रनर !
संपर्क : 
नील कमल
244, बांसद्रोणी प्लेस (मुक्त धारा नर्सरी स्कूल के निकट) 
कोलकाता – 700070

मोबाइल – (0) 9433123379