पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं।
प्रस्तुत है डॉ शोभाराम शर्मा की दो व्यंग्य रचनाएं।
डॉ.शोभाराम शर्मा
(रचनाकाल 1989)
आर्य आर्यानन्द जी वर्मा (1)
ठिगना कद । नाक-नक्श कुछ-कुछ आदिवासियों से । एकदम काले नहीं तो गोरे भी नहीं। तोंद कुछ बाहर निकलती हुई और सिर इतना छोटा कि किसी बड़े से घड़े के संकरे मुंह पर रखे कटर जैसा । नस्ल नामालूम । आर्य शब्द से इतना लगाव कि पहले नाम के आगे लेकिन अब पुछल्ले के रूप में भी। बात इतनी सी थी कि कुछ शिल्पजीवी लोग भी अपने नाम के आगे आर्य लिखने लगे तो वर्मा जी ने उसे पुछल्ला बनाना ही बेहतर समझा। इस तरह आर्यानन्द आर्य जी, आर्य आर्यानंद वर्मा हो गए। हमने पूछा भी कि, जब नाम के पहले ही आर्य शब्द है तो फिर दुहरा प्रयोग करने का क्या तुक है ?
वे बोले-''गुरुजनो ने तो यों ही आर्यानन्द नाम रख दिया जैसे महानन्द या कार्यानन्द । मैं इस दुहरे प्रयोग से यह सन्देश देना चाहता हू कि हम आर्य है, यह देश आर्यावर्त है और जो आर्यावर्त में रहकर अपने को आर्य नहीं कहता उसे इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
"आपकी इस धारणा में तो हिटलरी सोच के दर्शन होते है। "- हमने कहा तो आर्य जी हत्थे से ही उखड़ गए बोले - " हिटलर न हुआ चिन्तन-पथ का रोना हो गया । ऐरा- गैरा जो भी आए ठोकर मारकर चला जाए । अरे, हिटलर जैसे महानायक तो कभी-कभी ही जन्म लेते हैं एक पराभूत
निर्जीव राष्ट्र को उसने किस तरह एक शक्तिशाली राष्ट्र में बदल दिया- यह नहीं देख पाते क्यों ?
"वह सब तो ठीक ले कि परिणाम क्या निकला ? "- हमने कह दिया ।
"परिणाम का भय कायरता को जन्म देता है और हिटलर कायर नहीं था । शक्ति-सम्पन्न स्वाभिमान के साथ जितना भी जिए वह व्यक्ति हो या राष्ट्र बस उतने में ही जीवन की सार्थकता है। दूसरो के तलुए चाटकर जीना भी क्या जीना है।" उन्होंने कहा और मेज पर पड़ी फाइल के ऊपर-नीचे 'ओम' लिखकर बीच में स्वस्तिक का चिन्ह बनाने लगे।
"लेकिन आर्यत्व के नाम पर पूरी यहूदी जाति पर जो अत्याचार किए गए, क्या आप उनका भी समथर्न करते हैं ? क्या आप भी यह मानते है कि प्रतिभा केवल तथाकथित आर्यों की पूंजी है ? कार्ल मार्क्स, फ्रॉयड और आइंस्टाइन जैसे लोगों का मूल्य क्या आप नस्ली आधार पर आंकेंगे ? " -हमने पूछ लिया ।
" देखिए, जब एक राष्ट्र की अस्मिता का सवाल हो तो पंचमांगियो को सहन करना, अपने विनाश को न्यौता देना है। जर्मन राष्ट्र को भितरघात से सुरक्षित रखना समय की मांग थी। क्या हमें भी अपने हिटलर की आवश्यकता नहीं है ? " यहां भी ऐसे लोग है जो खाते यहां का और गाते कहीं और का हैं। जिन्होंने देश का दोफाड़ किया, उन्हें यहां रहने का क्या अधिकार है ? ऐसे लोग अगर यहां से निकल जाते तो हमारी अधिकांश समस्याएं कब की हल हो गई होतीं ।" उन्होंने अपना आशय स्पष्ट करते हुए कहा।
"तो किसी हिटलर या सूर्यवंशी सम्राट की प्रतीक्षा है आप लोगों को । आपके हिसाब से यहां
सारी बुराइयां किसी मजहब विशेष के कारण उत्पन्न हुई है। अन्यथा अपना यह देश तो हर हर अच्छाई का घर, था पापों और अपराधों का उल्लेख तो शायद जायका बदलने के लिए हो गया होगा, है न ।"
हमने छेड़ दिया तो आर्य आर्यानन्दजी भेदभरी मुस्कान के साथ बोले-" देखिए, हमारे पूर्वजों ने मानव जाति के इतिहास को जिन चार काल-खण्डों में विभाजित किया है उनके अनुसार सतयुग में कहीं कोई पाप या अपराध नहीं होता था । त्रेता से अधोगति की सूचना मिलती है जो द्वापर और वर्तमान कलियुग में उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। कलियुग में ही देवभूमि भारत की ओर विदेशी आक्रान्ता उन्मुख हुए और आज हमारी दुर्दशा का एकमात्र सबसे बड़ा कारण यही है।"
"अर्थात आप यह मानते है कि मानव जाति प्रगति की ओर नहीं अधोगति की और उन्मुख है। लेकिन ज्ञान-विज्ञान में जो विस्फोट हुआ है, क्या उसे भी आप अधोगति में ही शुमार करते है ?"
हमने पूछा तो वे बोले- "यह सब पश्चिम की बकवास है । अरे, असली ज्ञान-विज्ञान तो धर्म और आध्यात्म्य है और इस क्षेत्र में कोई हमारे सामने नहीं ठहरता । भौतिक ज्ञान -विज्ञान के जिन चमत्कारों को आप लोग गिनते है, उनसे भी बड़े चमत्कार तो हमारे पूर्वज बहुत पहले ही दिखा घुके है। महाभारत और पुराणों में ऐसे-ऐसे चमत्कारों का उल्लेख है कि दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। यहां ऐसे अस्त्र-शस्त्र थे कि नापाम बम, अणुबम या हाइड्रोजन बम भी पानी भरें। हमारे पूर्वज चन्द्रलोक-सूर्यलोक और नक्षत्र लोक ऐसे आते-जाते, जैसे पड़ोस में गप-शप करने जाते हों। आज का दूरदर्शन (टेलिविजन) भला हमारे पूर्वजों की दिव्य दृष्टि के सामने कहीं टिकता है?
परखनली शिशु की बात करते हो तो यहां महर्षि अगस्त्य तो घड़े में जन्मे थे । आजकल बन्दर और भेड़ के प्रतिरूपों(क्लोन) की चर्चा जोरों पर है लेकिन हमारे यहाँ तो रक्तबीज का उदाहरण मौजूद है। जितनी रक्त की बूंद उतने ही रक्तबीज । है न आश्चर्य की बात । आज के शल्य- चिकित्सक क्या मानव-धड़ पर पशु का सिर जोड़ सकते है। गणेशजी और दक्ष प्रजापति के जैसे उदाहरण क्या आज कहीं देखने को मिल सकते है ?
अपने पूर्वजों के ये थोड़े से प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भौतिक ज्ञान-विज्ञान में भी हम बहुत आगे थे । पश्चिम वाले क्या खाकर मुकाबला करेंगे ?- आर्य जी ने भाषण ही दे डाला।
इस पर हमने जड़ दिया-- " लेकिन आज हम स्वयं कहां है ? पश्चिम मे अगर कोई नया आविष्कार होता है तो हम अपने पौराणिक ग्रंथों के पन्ने उलटने लगते हैं और घोषित करते हैं यह सब तो हमारे पूर्वज पहले ही कर चुके थे । अगर यहा सब पका-पकाया है तो हम दूसरों से पहले ही दुनिया के आगे क्यों नही परोस देते ? "
" सही कहा आपने लेकिन....। " वे कुछ झिझके और फिर बोले-"बात यह है कि हमारे असली ग्रन्थ लुटेरों ने पश्चिम में पहुंचा दिए और जो यहां रह भी गए, उनमे केवल उल्लेख भर मिलता है। वास्तव में अपना यह देश तो जगत-गुरु था और आगे भी रहेगा। दुनिया को पढ़ना-लिखना इसी देश ने सिखाया है । संस्कृत वस्तुत: संसार भर की भाषाओं की ज़ननी है"। और देखिए कह कर उन्होंने एक अभ्यास पुस्तिका सामने रख दी बोले - "इसी देश में सर्व प्रथम लिपि का आविष्कार हुआ । सिन्धु लिपि का अगला विकास ब्राह्मी लिपि में हुआ। उसी से रोमन, अरबी, फारसी आदि संसार की अधिकांश लिपियां निकली हैं ।"
उन्होने विभिन्न लिपि-चिह्नों के विकास को समझाने का प्रयास उस अभ्यास-पुस्तिका में किया था। हमने कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से खुद को रोक लिया।
आर्य आर्यानंद जी वर्मा-- 2
रथ-यात्रा हमारे कस्बे में भी पहुंची थी और कस्बे के एकमात्र बड़े प्राचार्य होने के नाते आर्य
आर्यानन्द जी वर्मा को स्वागत-सभा की सदारत करने का अवसर मिला। गेरुवे वस्त्र धारी एक साधु रूपी नेता ने ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान’ को केन्द्र में रखकर जो आग उगली, उसका असर आर्य जी पर कुछ ऐसा पड़ा कि अपने अध्यक्षीय भाषण में वे सारी सीमाएं भूलकर मुसलमानो और ईसाइयों पर बरस पड़े । उनका कहना था कि हिंदुस्थान बनाम भारत अर्थात आर्यावर्त एक लोकतंत्र है और लोकतन्त्र बहुमत के आधार पर चलता है। अब यहां के 83 प्रतिशत लोग हिन्दू है तो उन्हीं की बात मानी जानी चाहिए । अगर हम कहते है कि अयोध्या में मन्दिर की जगह मस्जिद बनी थी तो मुसलमान मान क्यों नहीं लेते ? उन्हे बहुमत का सम्मान करना चाहिए राम-मन्दिर तो वहीं बनेगा। काशी और मथुरा का भी सवाल है । और भी मुद्दे उभर सकते हैं जिनका निर्णय हिन्दू बहुमत के अनुरूप होना ही लोकतंत्र की मांग है अन्त में उन्होंने सामने मिशन स्कूल की ओर इशारा करते हुए ईसाइयों और मुसलमानों को हिन्दू बहुमत का सम्मान करने या भारत से निकल जाने तक का अल्टीमेटम दे दिया । सभा में खूब तालियां पिटी और वर्मा जी के उस दिन के हीरो बन गए।
और उस दिन तो कमाल ही हो गया। वे इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य पसबोला जी के छज्जे पर बैठे थे। नीचे मुझ पर नजर पड़ी तो ऊपर बुला लिया। चाय तैयार थी। पसबोला जी बिस्कुट का
पैकेट खोलने लगे तो वर्मा जी ने टोक दिया --देखिए इस पर उर्दू में लिखा है इसका मतलब है कि ये बिस्कुट किसी मुसलमान के हाथों बने हैं, मैं तो नहीं लूगा । मैं और पसबोला जी आर्य जी का मुंह देखते रह गए।
अंत में मैंने ही चुप्पी तोड़ी, बोला- " वर्मा जी इसका क्या गारण्टी है कि जिन पर उर्दू में न लिखा हो वे मुसलमानो के उत्पाद न हो। फिर तो आपको कुछ भी नहीं खाना चाहिए। उत्पादों में भी हम हिन्दू-मुसलमान का भेद करने तगे तो इस देश का बण्टाधार होने में क्या सन्देह है ? यह देश इण्डोनेशिया के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है। करोड़ों मुसलमान यहां की हवा में सांस लेते और छोड़ते हैं । उसी हवा में आप भी सांस लेते है । अगर आप मुसलमानों को इतना अस्पृश्य समझते है तो मेरी माने आप साँस लेना ही छोड़ दीजिए | आपकी पवित्र आत्मा अपवित्र होने से बच जाएगी और मुक्ति का लाभ मिलेगा सो अलग ।"
" क्या कहा आपने ? मैं क्यो मरूं ? मरें वे जिन्होने इस देश का बेड़ा गर्क किया है । वे अपने पाकिस्तान क्यों नही चले जाते ?" आर्य जी विफर उठे ।
"अगर वे आपकी सताह मानकर पाकिस्तान को भी गए तो सांसों की समस्या तब भी बनी रहेगी। आप जानते है कि यहां (उत्तराखंड में )जाड़ों की वर्षा भूमध्य सागरीय चक्रवातों से सम्भव होती है । अर्थात ईरान-अफगानिस्तान और पाकिस्तान की ओर से बनती चक्रवाती हवाएं वहां के मुसलमान आबादी की सांसों को लेकर आती है। क्या आप उन पश्चिमोतरी हवाओं में सांस लेना बन्द कर देगे?
" देखिए मेरे मन्तव्य को आपने व्यर्थ में इतना खींच लिया मै तो केवल अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा था। चार-चार शादियां करेंगे और देश के सम्मुख बढ़ती आबादी की समस्या खड़ी करेंगे।" -वे फिर बोले ।
"आप जैसे बुद्धिजीवियों का यह आक्रोश कितना अनर्थ कर सकता है, क्या आपने इस पर भी सोचा है कभी? जरा अपनी ओर भी तो नजर डालें ।"(वर्मा जी को सात पुत्रों और एक पुत्री के यशस्वी पिता होने का गौरव प्राप्त था) -हमने कहा तो वर्मा जी बगलें झांकने लगे।
वर्मा जी का व्यक्तित्व मेरे लिए एक पहेली बनकर रह गया । विचारों से इतने संकीर्ण और उग्र लेकिन व्यवहार में एकदम सीधे-सादे और नम्रता के अवतार। सादा जीवन लेकिन विचारों से उच्चता गायब । प्राचार्य जैसे उच्च पद पर कार्य करते हुए भी उनके रहन-सहन में कोई अन्तर नहीं आया। भोजन बिलकुल साधारण । पकौड़ी उनकी कमजोरी थी । कहीं भी जाते तो चाय के साथ पकौड़ी की मांग अवश्य करते । कोई विशेष लत-नहीं। हां, छिपकर यदा-कदा बीड़ी का सुट्टा अवश्य लगाते । मुफ्तखोरी से उन्हें चिढ़ थी। वे न उत्कोच देते या लेते थे। कॉलेज के लेखा - परीक्षण के लिए एजी आफिस से लेखा-परीक्षक आए थे। कुछ विशेष अनियमितताएं पकड़ी गईं तो वर्मा जी ने टिप्पणी लिखी- भविष्य में ध्यान रखा जाएगा।
लेखा परीक्षक समझते थे कि प्राचार्य महोदय लीपा-पोती के लिए उनकी जेबें गरम अवश्य करेंगे । लेकिन वर्माजी ने उन्हें हनुमान चालीसा की प्रतियां भेंट की और वे देखते रह गए । कुछ कह भी नहीं पाए और चुपचाप चलते बने ।
पीठ पीछे लोग उन्हें मक्खीचूस भले ही कहते हो लेकिन सामने कुछ नहीं कह पाते । उनका यह रूप निश्चित रूप से श्लाघनीय है किन्तु विचारो का वह उग्र रूप......। कौन सा रूप वास्तविक है और कौन सा ओढ़ा हुआ ....आज तक समझ नहीं पाया।