Tuesday, July 19, 2022

कहानी के बारे में

हिंदी कहानी में गंवई आधुनिकता की तलाश करते हुए अनहद पत्रिका के लिए कहानियों पर लिखे गये मेरे आलेखों की श्रृंखला का एक आलेख मुक्तिबोध की कहानि‍यों पर था। गंवई आधुनिक प्रवृत्ति के बरक्‍स जिन रचनाकारों की रचनाओं में मैंने आधुनिकता के तत्‍वों को पाया- भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडी’, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय, यह आलेख उसकी पूर्व पीठिका भी माना जा सकता है। । मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखा गया आलेख वर्ष 2016 के अनहद में है और शेष रचनाकार  भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडीऔर रघुवीर सहाय कहानियों के मार्फत आधुनिकता को परिभाषित करने वाला आलेख सोवियत इंक्‍लाब के शताब्‍दी वर्ष को केन्‍द्रीय थीम बनाकर निकले अनहद के वर्ष 2017 में प्रकाशित है। 2017 वाले आलेख में ही अल्‍पना मिश्र की कहानी छावनी में बेघर को अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं में आधुनिक मानते हुए उसके उस पक्ष को देखने की कोशिश की थी जो इधर के दौर में सैन्‍य राष्‍ट्रवाद के रूप में दिखता है। छावनी में बेघरउस सैन्य राष्‍ट्रवाद को ही निशाने पर लेती है। 2017 के उसी आलेख में युद्धरत कहानियों की अवधारणा की बात करते हुए ही चन्‍द्रधर शर्मा गुलेरी की गंवई आधुनिक कहानी उसने कहा थाके बरक्‍स युद्ध के सवालों पर रमाप्रसाद घिल्डियाल पहाडी, भुवनेश्‍वर और रघुवीर सहाय की कई कहानियों के जरिये आधुनिकता की तलाश करने की कोशिश हुई। बाद में युद्धरत कहानियों पर आलोचक गरिमा  श्रीवास्‍तव जी के आलेख में पहाडी जी कहानियों और अल्‍पना मिश्र की कहानी पर की गयी टिप्‍पणी को बिना किसी संदर्भ के साथ गरिमा जी ने जिस तरह से अपने आलेख में उसे अपनी मौलिक अवधारणा के साथ रखा और समालोचन के संपादक अरुण देव जी ने युद्धरत हिंदी कहानियों पर गरिमा जी के आलेख को पहला मौलिक काम कह कर प्रस्‍तुत किया था, वह देखकर ही मैं उस वक्‍त क्षुब्‍ध हुआ था।

खैर। यह टिप्‍पणी लिखने के पीछे के बात इतनी से है कि इस वक्‍त मैं 2016 में कथाकार सुभाष पंत द्वारा हिंदी कहानियों पर लिखी उस टिप्‍पणी को यहां प्रकाशित करके सुरक्षित कर लेना चाहता हूं जो उन्‍होंने मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक मेल के जरिये मुझे भेजी थी। आज उसे प्रकाशित करने का औचित्‍य सिर्फ इसलिए कि अपने उस मेल को फारवर्ड करते हुए सुभाष जी ने मुझसे कल फिर जानना चाहा कि उन्‍होंने यह टिप्‍पणी क्‍यों लिखी थी, इसका संदर्भ क्‍या था। वे स्‍वयं याद नहीं कर पा रहे। उनको दिये जाने वाले जवाब ने ही प्रेरित किया कि चूंकि हिंदी कहानियों पर यह सुभाष जी की एक महत्‍वपूर्ण टीप है, तो इसे सार्वजनिक करना ही ठीक है ताकि लम्‍बे समय तक सुरक्षित भी रखा जा सके।

विगौ














सुभाष पंत 
  

आलोचना 

                                      सुभाष पंत


      तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा है और एक बार फिर से मुक्ति बोध के गद्य साहित्य को पढने को उत्साहित करता है। मुक्तिबोध की कहानियों के धूमिल से एक्सप्रैसन दिमाग़ होने की वजह से तुम्हारे आलेख पर कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी। लेकिन इसकी प्रस्तावना में कहानी पर भाषा और कहानीपन के जो मुद्दे तुमने उठाए हैं, उन पर एक कामचलाऊ, त्वरित टिप्पणी दे रहा हूं, इस पर विचार किया जा सकता है। यह संभवतः तुम्हारे अगले समीक्षाकर्म में किसी काम आ सके।

वह चाय सुड़क रहा था। वह चाय घकेल रहा था। वह चाय सिप कर रहा था। वह चाय पी रहा था। वह चाय नहीं, चाय उसे पी रही थी।’

 इतना कह देने के बाद मुझे नहीं लगता की चाय पीनेवाले पात्र के विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती है। यह उसके वर्गचरित्र के साथ उसके संस्कार, मिजाज, शिक्षा के स्तर वगैरह के विजुअल्स निर्मित कर देती है। एक सार्थक भाषा वही है, जिसे पढ़ते हुए बिम्ब स्वयं ही निर्मित होते चले जाएं। यह ताकत हर भाषा में होती है लेकिन जैसे जैसे भाषा देसज से अभिजन में बदलती जाती है वैसे वैसे यह अपनी इस ताक़त खोती जाती है। जब एक पिता अपने बच्चे को डांट रहा होता है, ’अबे स्साले दिनभर चकरघिन्नी बना रहता है’-यहां स्साले गाली न रहकर पिता की बच्चे के भविष्य की चिंता और ममता है। और चकरघिन्नी शब्द तो हवा में घूमती फिरकी का अनायास आंखों के सामने नाचता हुआ बिम्ब है। हर शब्द का अपना एक बाहरी और भीतरी जगत, इतिहास, संस्कार, छवि, लय और ध्वनि है। स्थिर दिखते शब्द परमाणु में घूमते न्यूट्रॉन की तरह भीतर ही भीतर गतिमान रहते है और सही तरह से प्रयोग में लाए जाने से ऊर्जा प्रवाहित करते है। शब्दों से भाषा बनती है और भाषा से अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति साध्य है, भाषा अभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसका सटीक प्रयोग लेखकीय जिम्मेदारी है, वह इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। हिन्दी भाषा की दूसरी ताकत उसके मुहावरे हैं। हर मुहावरे के भीतर कहन का एक संसार बसा होता है। ’नाच न जाने आंगन टेढ़ा’, ’राड़ से बाड़ भली’ बस दो ही उदाहरण है। इन्हें खोलकर देखिए कितनी बातें उनमें छिपी हुई हैं। हर लेखक के लिए जरूरी है कि वह रचना में अपने मुहावरे भी गढे। अफसोस है कि अपने मुहावरे गढ़ने की बात तो दूर लेखन से मुहावरे गायब हो रहे हैं और भाषा नंगी होती जा रही है। रचना में कोमल भाषा मुझे बहुत परेशान करती है। उसमें उसकी अक्खड़ता, अकड़, करेर और बांकपन होना चाहिए। जब जीवन ही कोमल नहीं है तो भाषा की कोमलता उसका गुण नहीं हो सकती, भले ही उसमें माधुर्य हो।

तुम्हारी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि रचनात्मक भाषा शब्दकोश से नहीं, उनसे सीखी जाती है, जो भाषा का व्याकरण नहीं जानते। मुझे एक्सप्लाइटर के लिए शब्दकोश ने ’शोषक’ शब्द सिखाया था लेकिन एक मजदूर ने मेरा शब्दसंस्कार करके बताया कि उसे ’नोचनिया’ कहते हैं। इस शब्द में ज्यादा ताकत है और अनायास बनता बिम्ब भी है।

सरलता भाषा का तीसरा गुण है, लेकिन इसे साधना उसी तरह मुश्किल है, जैसे फ्री हैंड सरल रेखा खींचना। किसी भी बच्चे के हाथ में पेंसिल पकड़ा दो तो वह फूल, पत्ती, चिड़िया वगैरह बना लेगा लेकिन फ्रीहैंड सरल रेखा खींचना तो पिकासो के लिए भी संभव न होता। मुक्तिबोध यहां मुझे कविता और गद्य दोनों में कमजोर दिखाई देते हैं। सरल भाषा का अर्थ सरलीकरण कतई नहीं है। मैंने तो आजतक जितने भी महान रचनाकारों-प्रेमचंद, गोगोल, दास्तोयास्की, चेखब, गोर्की, स्टेनबैक, हेनरी, हैमिंगवे, बक, सेस्पेडिस वगैरह की रचनाएं पढ़ी है, उनमें भाषा की सरलता में जादू रचने का कौशल देखा है।

भाषा पर और भी बातें हो सकती हैं। फिलहाल इतनी ही।

अब कहानी में कहानी की बात।

प्रेमचंद युग की कहानियों में कहानी का एक सुगठित ढांचा है। कहानी अपने मिजाज में बहुत संवेदनशील है। वह हर दशक में अपना मिजाज बदलती जाती है। नई कहानी के दौर में उसका शहरीकरण हुआ। जाहिर है जब कहानी गांव से शहर आई तो उसे अपना लिबास, भाषा, शिल्प, तेवर वगैरह बदलने ही थे। उसने बदले। प्रेमचंदीय कहानी के ढांचे पर प्रहार हुआ। यह ढांचा पूरी तरह से नहीं टूटा। यह कहीं संघन  और कहीं विरल रूप में मौजूद रहा। इन कहानियों में शिल्प और भाषा का नयापन है लेकिन इनकी सामाजिकता संकुचित है और भोगा हुआ यथार्थ का नारा देकर इन्होंने अपनी सामाजिकता को और भी ज्यादा संकीर्ण कर लिया और कहानियों के केंद्र में खुद स्थापित हो गए। कमलेश्वर की आरम्भिक कस्बे की कहानियों में कहानीपन मौजूद है और ये कहानिया जैसें-राजा निरबंसिया, नीली झील, देबा की मां आदि महत्वपूर्ण कहानियां हैं। दिल्ली और मुम्बई के दौर की उनकी कहानियों में कहीं यह ढांचा बना रहता है और कंहीं टूटता है और दोनों ही प्रकारो में उनके पास मांस का दरिया और जो लिखा नहीं जाता जैसी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। यादव की कहानियों में कहानीपन कम है लेकिन उनके पास कोई अच्छी कहानी नहीं है सिवा जहां लक्ष्मी कैद है, उसमें कहानीपन मौजूद है। मोहन राकेश की सबसे महत्वपूर्ण कहानी-मलवे का मालिक में भी कहानीपन की रक्षा की गई है। इसके अलावा उस समय की अमरकांत और भीष्म साहनी की बड़ी और चर्चित कहानियां, हत्यारे, डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत वगैरह में कहीं न कहीं कहानीपन है।

   कहानी का ढांचा तोड़ने की घोषणा के बावजूद नई कहानी में कहानीपन एक नए रूप में उपस्थित रहा। ये नेहरूयुग के मोहभंग की कहानियां हैं, लेकिन इनमें कोई नया रास्ता तलाश करने की तड़प या संघर्ष दिखाई नहीं देता। कुल मिलाकर ये राजनैतिक दृष्टिशून्य कहानियां हैं। इस दौर की कहानियों का सकारात्मक पक्ष यह है कि कहानी लेखन में महिलाएं भी हिस्सेदार हुई। मैं तो नई कहानी का प्रस्थानबिन्दू ही ऊषा प्रियंवदा की कहानी ’वापसी’ को ही मानता हूं। इस कहानी में भी कहानीपन है। नामवर इसका श्रेय निर्मल वर्मा की कहानी ’परिंदे’ को देते हैं। शायद इसके पीछे उनकी पुरुषवादी मानसिकता रही हो। बहरहाल इस कहानी  में कहानीपन गौण है और लतिका का अकेलापन ज्यादा मुखर है और भाषा-शिल्प का नयापन है। इसके अतिरिक्त उनकी लगभग सभी कहानियां कहानीपन से विरत मऩस्थितियों, अजीब सी उदासी और परिवेश की काव्यात्मक अभिव्यक्तियां है, जिनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। मनोहरश्याम जोशी की कहानियों में लाजवाब भाषा, विलक्षण शिल्प, विट् के साथ कहानीपन है, लेकिन ये संवेदना का कोई धरातल नहीं छूतीं। इस दौर का सबसे बड़ा कहानीकार शैलेष मटियानी है, जिसके पास भाषा-शिल्प, विश्वसनीयता, कहानीपन, संवेदनशीलता का बेजोड संतुलन है। अगर प्रेमचंद के पास दो-चार विश्वस्तरीय कहानियां हैं, तो मटियानी के पास आधा दर्जन से ज्यादा ऐसी कहानियां हैं। महिला कथाकारों में मन्नूभंड़ारी और कृष्णा सोबती ने कहानीपन बनाए रखने के साथ बहुत सी लाजवाब कहानियां दी हैं। काशीनाथ की कहानियों में भाषा का करेर और विट है और वे कहानियां अपनी बात शिद्दत से कहती हैं। इसके विपरीत दूधनाथ के पास बहुत अच्छी भाषा और शिल्प नहीं होने के बावजूद बेहद सशक्त कहानीपन की अविस्मरणीय कहानियां है। शेखर जोशी के पास सामान्य भाषा और शिल्प होने के बावजूद बहुत अच्छी कहानियां है। उनके पास जहां एक ओर कोसी का घटवार जैसी विलक्षण प्रेम कहानी है तो दूसरी ओर दाज्यु जैसी संवेदनशील कहानी है और तीसरी ओर कारखाने के जीवन की बदबू जैसी कहानी है। इनकी सभी कहानियों में झीना ही सही पर कहानीपन देखा जा सकता है। नई कहानी आंदोलन के बावजूद प्रेमचंद परम्परा की कहानियां इस दौर में जीवित ही नहीं रहीं बल्कि रेणु ने तो उन्हें कलात्मक उत्कर्ष पर भी पहुंचाया। इस परम्परा की कहानियां शिवमूर्ति, यादव, वगैरह आज भी एक नई दृष्टि भाष और शिल्प में लिख रहे हैं। इस दौर में मुक्तिबोध ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानी के कहानीपन को फैंटंसी में बदला है। लेकिन उनका रचना विधान जटिल है, जिसके कारण वे एक विशेष बौद्धिकता की मांग करती हैं। यहां एक विचारणीय प्रश्न यह है समतामूलक समाज के निर्माण में, जहां  आदमी के सम्पत्ति वगैरह के बराबर अधिकार की बात की जाती है साहित्य संरचना को इतना दूरूह बनाना न्यायोचित होगा कि वह सामान्य पाठक की पहुंच से दूर हो जाए। 

नई कहानी के बाद उसके समग्र विरोध में अकहानी का दौर आया। कहानी यहां पूरी तरह बदलती दिखाई देने लगी, उसका कहानीपन विरल होता चला गया और एक नई भाषा, कहन के तरीके और भावबोध में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। इस दौर का सबसे महत्त्वपूर्ण लेखक ज्ञानरंजन है। उनकी कहानियां एक साथ भीतर और बाहर की यात्रा करती हैं। उनमें बिल्कुल अलग तरह की बोलती भाषा, अनोखा शिल्प और गजब की पठनीयता है। वे अपने वक्त के संकटों के साथ भविष्य के संकटों की ओर भी संकेत करती हैं।

अकहानी के बाद कहानियां पूरी तरह भटक गईं। वे सैक्स और स्त्री की जांधों के गिर्द घूमने लगी। ऐसी कहानियों के खिलाफ कमलेश्वर के घर्मयुग में ’अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ नाम से तीन या चार बेहद महत्त्व आलेख प्रकाशित हुए। नक्सलवाड़ी का विद्रोह ने भी कहनियों में राजनैतिक चेतना विकसित की। इस बात को बहुत गहराई से महसूस किया जाने लगा कि कहानियों के केन्द्र में आम आदमी और उसके संकटों को जगह दी जानी चाहिए। एक तरह से इसे नई कहानी का ही विस्तार ही कहा जा सकता था। इसमें इतना ही परिवर्तन है कि कहानी के केन्द्र जहां पहले लेखक खुद स्थापित था, उसकी जगह सामान्यजन ने और भोगे हुए यथार्थ की जगह देखें ओर अनुभव किए यथार्थ ने ले ली। यह समान्तर कहानी आंदोलन था, जिसके साथ दलित पैंथर के प्रखर लेखक भी इसके साथ जुड़े जिन्होंने हिन्दी साहित्य में दलित लेखन का दरवाजा भी खोला। संयोंग से संमातर का मधुकर ऐसा लेखक था जिसका समस्त रचनाकर्म दलित चेतना के साथ राजनैतिक चेतना को समर्पित है, लेकिन उसने आत्मदया बटोरने के लिए अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। वह निरंतर पाले बदलकर सीपीआई से एम और फिर एमएल की ओर जाता रहा और झगड़कर जाता रहा तो वामपंथ की साहित्यिक बिरादरी ने उसके साहित्यिक अवदान पर चुप रहीं। इसके बाद इस परिवर्तित साहित्य की राजनीति में उसे इसलिए कभी रेखांकित नहीं किया जिससे दलित साहित्य का सेहरा उसके सिर पर न बंध जाए। बहरहाल संमातर कहानियों में केंद्रित किया गया आम तो जाहिर था कि उसके साथ उसकी कहानियां भी आनी ही थीं। इसी के साथ प्रेमचंद का कहानीपन का मुहावरा भी कहानी में लौटा। संभवतः सुभाष पंत की कहानी ’गाय के दूध’ के साथ यह ठोस रूप में लौटा। यह पुराने ढांचे के पुनःस्थपित करनेवाली टै्रंड सैटर कहानी थी। संभवतः यही कारण था कि यह इतनी पसंद की गई कि इसके अंग्रेजी समेत भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद और नाट्य रूपान्तरण हुए। बाद में इस कहानी के ल लेखक ने कहानीपन की इस जकड़बंदी को विरल करने के लिए सेमी फैटेसी का सहारा लेना भी शुरू किया। इस कहानी आंदोलन में चिंरतर वाम की अवधारणा थी कि जब तक एक भी आदमी हाशिए के बाहर है तब तक लेखक की भूमिका निरंतर विरोध की भूमिका में रहेगा। इस आंदोलन का निराशाजनक पक्ष यह रहा कि यह आमआदमी की दयनीय अवस्था  और उसके लिए सहानुभूति तक सीमित रह गया। उसकी संधर्षकामी जिजीविषा पुष्ठभूमि में चली गई। सहानुभूति लिजलिजी होती है। जीवन सहानुभूति से नहीं संघर्ष से बदलता है। इसके अलावा सारिका में छपने के लिए अवरवादी लेखकों एक जमावड़ा भी इस आंदोलन में जुड़ता चला गया और कहानियां टाइप्ड़ होती चली गई। कमलेश्वर जी के सारिका से हटते ही यह सारा कुनबा बिखर गया। शायद मैं ही एक ऐसी बचा रहा, जो तब भी वैसा ही लिख रहा था और आज भी वैसा ही लिख रहा।          

सारिका के बंद होते ही यादवजी ने इस शून्य का लाभ उठाया और हंस के राइट्स खरीदकर इसे पुनर्जिवित किया। यह उनका हिन्दी साहित्य के लिए अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने स्त्री और दलित विमर्श का मुहावरा अपनाया लेकिन वे सिर्फ उसतक सीमित न रहकर दूसरी तरह की कहानियों को लिए भी अपने दरवाजे खुले रखे। कहानी के क्षेत्र में मार्केज का ’जादुई यथार्थवाद’ का सिक्का उछल रहा था। उदय प्रकाश की कहानियों को जादुई यथार्थवाद की कहानियों कहकर भी हंस ने उसे शीर्ष कहानीकार बना दिया। बहरहाल स्त्री विमर्श की कहानियों में कहानीपन का झीना ढांचा है, दलित विमर्श में सधन और जादुई यथार्थवाद की कहानियों में अतिशयोक्ति भरा।

   बाजार के आक्रमण के साथा कहानियांं में अनाश्यक विवरण, नेट से प्राप्त सूचनाओं, भाषा और शिल्प के चमत्कार से भरी कहानियां बड़ी कहानियां मानी जाने लगी और ऐसा लगने लगा कि अब कहानीयां लिचाने के नियम अब मल्टीनेश्नल ही ही निर्धारित करेंगी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा। यह पत्रिकाओं का दौर है। हर शहर से पत्रिकाएं निकल रही हैं। कहानियों का धरातल व्यापक हुआ और विविध मिजाज की कहानियां लिखी जा रही है। कहीं कहानी का पारम्परिक ढांचा मौजूद है और कहीं उसका अतिक्रमण भी हो रहा है।                               

Friday, July 15, 2022

आत्म सम्मान की चेतना

हिन्दी आलोचना का परिदृश्य इस कदर उदार है कि बहुत सामान्य रचना को भी असाधारण साबित कर देने में हर वक्त उपलब्ध रहता है। पाठकों को उसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ता । जैसे ही किसी परिचित या दोस्त-रचनाकार की रचना के प्रकाशन की सूचना आती है, रचना के प्रकाशन के अगले दिन ही उसके असाधारण होने के प्रमाणपत्र जारी होने शुरु हो जाते हैं। लेकिन आलोचना की उदारता के ऐसे उपक्रम से जारी प्रमाणपत्र को पाना हर किसी रचनाकार के लिए आसान नहीं। वरना पाठक चंद रचनाकारों और उनकी ही रचनाओं से परिचित होते रहने को अभिशप्तन न होते।          खैर,अभी हम हिंदी के एक लगभग अज्ञात से लेखक की कहानियों से थोड़ा रुबरू होने की कोशिश कर लेते हैं। 85 वर्ष की उम्र से ऊपर के इस लेखक के उस पहले कहानी संग्रह से परिचित हो लेते हैं, जीवन भर लेखक द्वारा 400 से अधिक लिखी गयी कहानियों के बावजूद वह मात्र 22 कहानियों की एक जिल्दा के रूप में ‘’अन्तू से पूर्व’’ होकर देखने में आ रहा है। अलबत्ता इस संग्रह से पूर्व लेखक के आठ उपन्यास,एक लघुकथा संग्रह और आत्मकथा प्रकाशित है। तब भी इस साधारण से लेखक की साधारण-सी कहानियों में से एक असाधारण कहानी को ढूंढना और उस पर बात करना क्यों जरूरी है ? क्या यह कोशिश भी हिंदी आलोचना के उस परिदृश्य की ही तरह की कोशिश है, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, या, इसके मायने इस धारणा पर निर्भर कर रहे कि आलोचना का कर्म एक जिम्मेदारी का कर्म बन सके ? इन सवालों के हल ढूंढने से पहले ''अन्त से पूर्व'' कथा संग्रह के लेखक मदन शर्मा के नाम से परिचित हो जाना जरूरी है। उम्‍मीद की जा सकती है कि उनके द्वारा लिखे गये बेहद आत्मीय संस्मरणों से इस ब्लाग के पाठक अच्‍छे से परिचित होंगे।                                                    ‘सुबह होने तक’, ‘भीतर की चीज’, ‘बाबर’, ‘चोर’, ‘रफ ड्राफ्ट’, ‘देश’ एवं ‘मिस्टार और मिसेस सिन्हा्’, इस संग्रह में ये सात कहानियां ऐसी हैं जिनके कथ्य ही नहीं, बल्कि उसके ट्रीटमेंट का तरीका और उस ट्रीटमेंट से प्रकट होते कथा के आशय मदन शर्मा को अन्य किसी भी हिंदी लेखक से जुदा कर देते हैं। अपने आशयों के कारण इन कहानियों की मौलिकता अनूठी है। ‘भीतर की चीज’ इस ब्लाभग के पाठकों के लिए यहां बानगी के तौर पर पुन: प्रकाशित की जा रही है।            ‘भीतर की चीज’ का कथ्य इस बात की ताकीद कर रहा है कि आत्म सम्‍मान की रक्षा का पाठ कामगार की चेतना ही नहीं, बल्कि मालिक-दुकानदार की चेतना का भी वारिस हो सकता है। शोषण के प्रतिरोध में शोषित के प्रति सदइच्छााओं वाली रचनाओं के संसार के बीच उल्लेखित कहानी का यह कथ्य उस मौलिकता का स्प्ष्ट साक्ष्य है जिसके जरिये यह देखना संभव हो जा रहा है कि कहानी के मालिक-दुकानदार की शक्ल् ओ सूरत डिजीटल भाषा में संदेशों को दोहराने वाले उस मालिक-दुकानदार से भिन्न है, विकसित होती गयी तकनीक को जिसकी सेवादारी में तत्पर रूप से प्रयोग किया जा रहा है। कहानी का यह पात्र देशी बाजार का वह मालिक-दुकानदार है, बड़ी पूंजी ने जिस पर हमला इतना तीखा किया है कि आज उसको ढूंढना ही मुश्किल है। कहीं कस्बों, देहात में उसके रंग रूप की छटा दिख जाये, बेशक। प्रताड़ना को झेलने के अभ्यास ने कामगार को इस कदर सक्षम बनाया है कि वह तो बद से बदतर स्थितियों के बीच भी जीवन संघर्षों की राह में आज भी नजर आ जाता है, लेकिन बाजार के षडयंत्रों से पस्त हो चुका देशी दुकानदार आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। अपने चरित्र में मुनाफाखौर होते हुए भी कुछ छद्म नैतिकता और आदर्शों से वह खुद को बांधे रहता था। वह झलक कथाकार मदन शर्मा की एक अन्य कहानी, ‘’बाबर’’ में भी अपने तरह से आकार लेती है, जिसमें वह देशी बुर्जुवा, सरकारी कर्मचारी के रूप में मौजूद है। एक ऐसा पिता जो अपने पुत्र की बेरोजगारी के कारण चिंतित है और अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल सके यह सोचते हुए ही उस गल्प की स्मृति में है जो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता रहा है कि असाधय रोग की गिरफ्त में पड़े बेटे  हुमायूं के स्वस्थ होने की कामना में ही बाबर यह दुआ मांगते हुए होता है कि बेटे का रोग उसे मिल जाये और रोगी बेटा पूरी तरह स्वस्थ हो जाये। आइये प्रस्‍तुत कहानी के पाठ से कथाकार मदन शर्मा की उस मौलिकता से साक्षात्‍कार करते हैं जो बेहद सामान्‍य होते हुए भी असाधारण हो जाने की ओर सरकती है।                     विगौ 


  

कहानी

भीतर की चीज़

                                             मदन शर्मा

      वह मेरे मुंह पर तमाचा-सा मारकर चला गया। चेहरा अभी तक तमतमा रहा है। दिल की धड़कन तेज़ है। शायद भीतर बनियान भी पसीने से तरबतर हो गई है।

 थोड़ा संतुलित होता हूं और याद करने की कोशिश करता हूं, कि बार-बार क्यों ऐसा हो जाता है।

 वह तीन महीने पहले मेरे पास आया था। उससे पहले मेरे बचपन के दोस्त रामदयाल का फोन आया था। कहा था, ‘‘एक मेहनती और जहीन लड़के को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। आस-पास किसी दुकान पर इसे रखवा देना। यह काम करना ज़रूर है।’’

 मैंने उसे देखा। बातचीत से वह अच्छे घर का मालूम पड़ा। बी0 एस0 सी0 सैकेण्ड डिवीजन में किया था। नौकरी कहीं नहीं लगी थी। पिता जी पिछले साल चल बसे, घर की हालत खस्ता है।

 मैंने कहा, ‘‘चाहो तो मेरी दुकान पर ही रह जाओ, जब तक कोई और काम नहीं मिलता, मैं समझता हूं, साढ़े चार सौ रूपये, कुछ बुरा नहीं रहेगा।’’

 मैं तुरन्त मान गया।

तीन में से एक सेल्समैन दो सप्ताह पूर्व बिना नोटिस दिये ही ग़ायब हो गया था। अब तक उसका पता नहीं था। इसलिये मुझे एक आदमी चाहिये ही था।

‘‘मुझे क्या काम करना होगा?’’ उसने भोलेपन से पूछा, मेरी हंसी निकल गई। कहा,‘‘इस की चिंता तुम क्यों करते हो? साढ़े चार सौ दूंगा, तो नौ सौ का काम लूंगा ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं कि...’’

 ‘‘फिर भी..’’

  ‘‘बस, दुकान का हिसाब-किताब बनाना है और शाम को दो-ढाई घंटे काउंटर पर खड़े होकर, ग्राहकों क्राॅकरी दिखानी है और उनकी जेब से पैसे निकलवा कर मेरी जेब में डालने हैं। भई, तुम बी0 एस0 सी0 हो, मेरे कोई लेबार्टरी तो है नहीं, जहां तुम्हें खड़े कर सकूं।’’

  ख़ैर, वह काम सीखने लगा। सभी रजिस्टर और कैशबुक का काम उसे बहुत जल्द समझ में आ गया। मगर मैंने महसूस किया, कि काउंटर पर खड़े उसे कुछ परेशानी हो रही है। सोचा, थोड़ा शर्मिला है दो-चार दिन में ठीक हो जायेगा।

  एक दिन, वह किसी ग्राहक को लेमनसेट दिखा रहा था। अचानक फ़र्श पर, कांच के टूटकर बिखरने की आवाज़ सुनकर मैं चैंका। दुकान पर, उस तरह का एक ही सेट था। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। उससे भी बढ़कर अफ़सोस इस बात का था, कि उसका कहना था, गिलास ग्राहक के हाथ से छूटा है और ग्राहक इसका उल्ट बता रहा था। जो भी था, नुकसान मेरा हुआ था। और मुझे बुरी तरह ताव आ रहा था। ग्राहक के जाते ही, मैंने आदतन, उसकी तबीयत हरी कर दी।

 लताड़ खाकर वह काफी सुस्त हो गया था। कुछ देर बाद मेरा पारा उतरा, तो मैंने उसे पास बुलाया और सस्नेह दुकानदारी की दो-एक बातें समझाने के बाद कहा, मेरी बात का बुरा मत माना करो, मेरे दिल में कुछ नहीं है।’’

  वह संतुष्ट हो गया। मैंने भी सोच लिया, लड़का भावुक है, ज़रा-सी बात का भी बुरा मान जाता है। मगर मेरी तरह शायद वह भी दिल का बुरा नहीं।

  किन्तु कुछ ही दिन बाद, एक अठारह-उन्नीस साल की गोरी-सी लड़की दुकान पर आई और उससे हंस-हंस कर बातें करने लगी। उसे क्रॉकरी खरीदनी थी इसलिये मुझे, उनकी जान-पहचान या हंसी पर कोई आपत्ति न थी। किन्तु जैसे ही वह क्रॉकरी का बंधा पैकेट संभाल दुकान से बाहर हुई, मैंने श्रीमान जी को दबोच लिया।

 ‘‘यह घाटे का सौदा किस खुशी में तय किया?’’

 ‘‘मेरे चाचा की लड़की थी।’’

 चचा की थी या मामा की, थूक तो मुझे लगा गई?

‘‘आप मेरे वेतन से काट लीजियेगा।’’

 ‘‘क्या कहा?’’

  मेरे लिये इतना पर्याप्त था। मेरा अपना लड़का होता, तो ऐसी बात कहने पर मैं मुक्के मार-मारकर उसकी पीठ तोड़ डालता। इसकी यह मजाल, कि मेरे सामने ऐसी बात कह जाये। उठा कर अभी दुकान से बाहर दे मारूंगा। समझता क्या है आपने को।

  तब मैं पिल ही पड़ा उस पर। बच्चू को दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसकी आंखों में लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे पछतावा हो रहा था, मैं क्यों इस तरह बेकाबू हो जाता हूं। डाक्टरों ने कितना समझाया है! खाने-पीने के कितने परहेज़ बताये हैं। जिनको मैं कभी नहीं भूलता। मगर यह दूसरा परहेज़, इस पर तो मैं बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाता। डाक्टर कहता है, ऐसी हालत में कभी कुछ भी हो सकता है। मगर अपने इस स्वभाव का क्या करूं? पता ही नहीं चलता, अचानक क्या हो जाता है।

  उसकी आंखें अब खुश्क थीं। किन्तु अभी तक उनमें गहरी उदासी मौजूद थी। मैंने उसे पास बुलाया और समझाया, ‘‘तुम मेरे बेटे जैसे हो। मैंने तुम्हें पहले भी बताया था, मेरी बात का बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम मुझे समझने की कोशिश करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो। सब कुछ समझ सकते हो। मैं ज़बान का थोड़ा सख्त हूं। मगर इतना बता दूं, कि जो लोग जबान के मीठे होते हैं, वे भीतर से तेज़ छुरी होते हैं। समझ गये न?’’

   वह कुछ नहीं बोला, जैसे मुझे एक अवसर और देना चाहता हो। मैंने भी सोच लिया, आगे के लिये अपना क्रोध अन्य दो सैल्समैंनों पर निकाल लिया करूंगा। वे दोनों समझदार हैं। मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। इसीलिये मज़े भी उड़ा रहे हैं। इसे कुछ भी नहीं कहा करूंगा। भले ही यह काउंटर पर कुछ ख़ास योग्य सिद्व नहीं हुआ। मगर हिसाब-किताब में काफी माहिर है। इसके यहां होते, सैल्सटैक्स और इन्कमटैक्स का कोई लफड़ा नहीं हो सकता।

   मगर थोड़े ही दिन बाद की बात है। दुकान पर एक अन्य लड़की आई। काफी गम्भीर लग रही थी। एक मिनट, दोनों के बीच धीरे-धीरे कुछ बात हुई। फिर पांच मिनट की छुट्टी लेकर, वह उस लड़की के साथ चला गया और लौटा पूरे चालीस मिनट बाद।

 ‘‘चली गई वह लड़की?’’ मैंने पूछा।

 ‘‘जी’’, उसने बिना मेरी ओर देखे सपाट-सा उत्तर दिया।

मैंने सोचा, छोड़ो, क्यों बात बढ़ाई जाये। किन्तु दो दिन बाद वही लड़की फिर चली आई। उसी तरह धीरे-धीरे बात हुई और अभी आ रहा हूं कहकर वह उसके साथ चला गया और काफी देर बाद लौटा।

आज भी वह पच्चीस मिनट बाद लौटा था, मैं देखते ही भड़क उठा।

‘‘यह अब हर रोज यहां आया करेगी?’’

‘‘जी?’’ वह तनिक गुर्राया।

‘‘जी क्या! यह दुकानदारी का टाइम है, या लड़कियों को बाज़ार घुमाने का?’’

उसके बाद कुछ याद नहीं, मैं क्या-क्या बोल गया। वह सुनता रहा। किन्तु इस बार वह रोया नहीं, बल्कि ग़ौर से मेरी ओर देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं नार्मल हुआ। एक गिलास पानी पिया। चार चाय मंगवाई। एक स्वयं ली अन्य तीनों सैल्समैनों के पास पहुंच गई।

देखा, चाय उसके सामने पड़ी है और वह कुछ सोच रहा है। पूछा, ‘चाय क्यों नहीं पीते?’

उत्तर में वह मुस्करा दिया।

दुकान बढ़ाते हुए देखा, वह बेहद गम्भीर है

मैंने कहा, ‘‘सुनो’’।

‘‘जी’’

‘‘आज मैं तुम्हें बहुत कुछ कह गया। मुझे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये थी। बहुत चाहता हूं, ऐसा न किया करूं। मगर पता नहीं, इच्छा के विरूद्व ज़रा-सी बात हो जाने पर मुझे क्या हो जाता है। मेरी इसी आदत की वजह से, मेरे दोनों लड़के और बहुएं, अपने बच्चों सहित अलग मकानों में रहने लगे हैं। पत्नी कभी मेरे पास आती है, तो कभी लड़-झगड़ कर बच्चों के पास चली जाती है। मगर तुम तो बहुत अच्छे लड़के हो। कोई बात दिल पर मत लाया करो। मैं स्पष्टवादी हूं, मगर भीतर से....’’

वह कहक़हा लगा कर हंसा और फिर पहले की तरह गम्भीर हो गया।

   अकस्मात ही वह निर्मम होकर बोला, ‘‘ठीक से सुन लीजिये मुझे स्पष्टवादी लोगों से सख्त नफरत है। आदमी, जो दूसरों के प्रति अपना व्यवहार ठीक न रख सके, वह आदमी नहीं पशु है। आप बार-बार दिल का रोना क्यों रोते रहते हैं? आपके दिल का किसी को क्या करना है?’’

‘‘यह तुम क्या कहे जा रहे हो!’’ मुझे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीें हो पा रहा था।

‘‘वही, जो बहुत पहले कह देना चाहिये था। मैं जा रहा हूं। मेरे जितने पैसे आपकी और निकलते हों, उनसे आंवले का मुरब्बा खरीद, उसे चांदी के वर्क लगाकर खाइयेगा, ताकि आपकी यह दिल नाम की चीज़, और भी मज़बूत और मुकम्मल बन जाये!’’

  वह चला गया। कोई अन्य सैल्समैन मुझे मिल ही जायेगा। किन्तु सोचता हूं, यह व्यक्ति, जो किसी की मामूली-सी बात भी सहन करने में असमर्थ है, जीवन में मेरी ही तरह धक्के खायेगा।