Wednesday, August 30, 2023

पानी का खेल

कवि की इस बात- "केदारनाथ सबसे सबसे पहले पानी का शिकार हुआ", को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यह एक बहस तलब मुद्दा हो सकता है। लेकिन पानी किसी को नहीं देखता यह पूर्णतया सच है। बल्कि प्रकृति है ही इतनी उदात कि वह खुद को भी नहीं देखती। कवि और वैज्ञानिक, प्रकृति के उन्हीं रहस्यों के अन्वेषक हैं, लेकिन अठारहवें संग्रह की गगनभेदी घोषणा एक मंदिर में सिमटी हुई नजर आती। क्या सचमुच पानी ऐसे ही किसी बिंब पर ठहर कर अपना रास्ता बनाता है? यह विचारणीय प्रश्न है। पुस्तक का कवर पेज भीतर की सामग्री का प्रतीक ही होता है। इसे एक कवि से ज्यादा और कौन जान-समझ सकता है। उम्मीद है कवर पेज भीतर बैठी कविताएं सचमुच के पानी की बात करें जो न मंदिर देखता हो और न मस्जिद, या अन्य किसी धर्म के प्रतीक ही। अभी तो यही कहते बन रहा कविताओं का चेहरा केदारनाथ से ढका है।

पानी प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनदायी धरोहर है। इसके कुछ रूपों को हिंदी के महत्वपूर्ण कवि राजेश सकलानी की कविताओं में भी देख सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनके संग्रह पानी है तो फूटेगा से आज कुछ कविताएं शेयर करने का मन है। यदि कहेंगे तो तरह से प्रकट होते इस पानी की आवाज को भी प्रस्तुत करना चाहूंगा। ताकि आप भी आश्वस्त हो सकें और मैं भी दोहरा सकूं सुनता हूं पानी गिरने की आवाज।

विगौ


पानी का खेल

पानी है तो मचलेगा                                          

हाथ छुड़ा कर भागेगा

हँसते-हँसते थक जायेगा

रो जायेगा

सो जायेगा

जागेगा तो उछलेगा

पानी है तो फूटेगा।

 

जब हम पत्थर हुए

जब हम पत्थर हुए

अपने आकार और रूप लिए,

इकट्ठा हो कर खुश हुए।

इतने करीब हुए कि जुड़कर

प्रदेश हुए

उछलते-कूदते कोमल हुए

और धारदार हुए

हजार साल का स्वप्न हुए

जब हम पहाड़ हुए

आसमान की सारी हवाओं ने

अपना लिया

बादलों ने गले से लगा लिया

इतने किस्म के बीज़ चिड़ियाएँ ले कर आईं

सजते धजते हरे हो गए

जब हम संविधान हुए

न्याय की महापंचायत ने

फूल बरसाये

जगे गीत भीतर इतने सारे

नदियाँ फूट कर निकलीं

और हमारे पाँव भीग गए

जब हम मनुष्य हुए

पिफर किन्हीं समयों में भटके हुए।

कठिनाईयों से झगड़ कर

तब हम मनुष्य हुए।

 

 

पहाड़ों का स्वभाव

जो रचते नहीं है वे रुकते नहीं है

इसलिये गौरव, उलार व ललक विहीन

हम ऐसे आये जैसे पहाड़ों के बजाय

कहीं और से आये हुए हो

वे पथरीले हैं लेकिन कठिन नहीं है

और वे हमारे छोड़कर चले आने से भौंचक है

वे शरण देते हैं लेकिन बुरे दिनों की याद दिला कर

शर्मिन्दा नहीं करते

जब दिल करे तब चले आओ

उन्हें कृतज्ञता ज्ञापित करने की ज़रूरत नहीं है

तुम्हें कभी जरूरत पड़ेगी तो वे आत्मीयता से

स्वागत करते मिलेंगे

पहाड़ों के सामान्य नियम है

समझो कि वे सिर्फ तुम्हारे लिये हैं

उन्हें समूचे रूप में ही अपनाया जा सकता है

वे विक्रय के लिए नहीं है

उन्हें जंगलों और नदियों से अलग कर

नहीं देखा जा सकता

उफँचाई पर जा कर दुनिया पर नजर डालने

का हक़ खुद ब खुद मिल जाता है

यहाँ आओ और मौसमों के साथ

धीमे-धीमे बदलते जाते रहो

और ज़ज्ब होते रहो

पाओ ऐसी बानी जो भीड़ को

बदल देती हो समुदाय में

नदियों को समुद्र में।

 

ये धूप की लौ हमारी है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरब से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे-भरे पेड़ों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में

जो तेरे जी का मकसद है

वो मेरे जी का मकसद है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

         

सोने की गेंद

पांडव खेलें कौरव खेलें

सोने की गेंद से मिलजुल खेलें

नभ खेले झिलमिल परबत पर

उछल मचल जलधारें खेलें

चिड़िया के पंखों से खेले हवाएँ

डाल-डाल पर डालें खेलें

चाँदी की हँसिया नदिया जैसी

भेड़ों के संग बाला खेले

तीखे पाथर मृदल भये अकुलाए

बादल किलक पुलक कर खेले

हिन्दू खेले मुस्लिम खेले

धूप की किरणें मुख पर खेलें।

(गढ़वली लोकगीत की एक पंक्ति से प्रेरित)

 


अनुगूँजें

पत्थरों पर प्यार आता है

हाँ पत्थरो पर प्यार आता है

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

कैसे बासती है घुघूति

घुर्र घुर्र बासती है घुघूति।

 

 

 

मेरे लोगों

ऐ राहे हक़ के शहीदों

ऐ मेरे वतन के लोगों

कोई गोली चलाए क्यों

कोई मारा जाए क्यों

इन ज़मीनों में ज़ज़्ब हैं कई वादे

रोटी पानी पे मुलाक़ातें भूल जाएं क्यों

कोई इधर के उधर रह गये

फक़त इसलिए पराये क्यों

यूँ न जायेगी यादों की डोर

गैर के मंसूवों से टूट जाये क्यों

झील सी गहराई आवामों में हैं

अरे पागल, घबराये क्यों।

 

ओ पाकिस्तान

तुम जो चीज़ें छोड़ गए

हैं अब तलक दूर-दूर तक मैदानों में ज्यों कि त्यों

उन्हें भुला देने के किसी इरादे की निगाह में नहीं

ये साझा धूप की आँच के निशान है

बीती मुलाकातों की सरसराहटें

कोशिकाओं के द्रव में मनुष्यता की आहटें

ये छोड़ी हुई साँसों के मानसून में घुल जाने

और पिफर लौटने वाली बरसातें हैं

हमारे हँसने, रोने में अक्सर आतीं हैं

इतिहास से बाहर ललक उठने को

अपनी आवाज़ पर गौर करें

लफ्जों के बीच ये अपने मायने बचा लेती हैं

भले से देखें तो ये

कुछ पल खुशहाल करती हैं।

 

 

थोड़ा सा

मैं बहुत थोड़ा हूँ

थोड़ी सी मिट्टी

थोड़ा सा दरख़्त

थोड़ सा मौसम

थोड़ी सी रोटियाँ हूँ

जो रसदार साग के बिना भी

खुश रहती हैं

मैं थोड़ी सी जगह हूँ

जितने तक मेरी टांगे अट जाती है

मैं थोड़ा सा नमक हूँ

जो पतेले भर दाल को

जा़यके दार बना सकता है

मैं थोड़ी सी आग हूँ

जो लगातार लग कर

भगोने भर भात को सिझा सकती है

मैं थोड़ी सी शुभकामना हूँ

जिसे उम्मीद है पूरी दुनिया में

अमन आ सकता है

मैं थोड़ा सा घोड़ा हूँ

जिसकी पीठ पर बच्चे

सकपकाये नहीं रहते और मैं

हुक्के के पानी की तरह गुड़गुड़ करता हूँ

मैं थोड़ी सी आवाज़ हूँ

जो धौंस जमाने वालों की

ज़ुबान को घबड़ा देती है

मैं थोड़ा सा पागल हूँ

इतना पागल होना तो

हर ज़ने को चलता है।

 

 

मैं भी इन्हीं हवाओं में

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरव से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे भरे पत्तों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में                                                                        

जिस राह पे तेरी मंजिल है

उस राह पे मेरी मंजिल है

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

 

  

ये छटाएँ सुन्दर है                                          

हर जना अनिवार्य रूप से सुन्दर है

और अपने रूप से बहक गया है

कुछ कम पलों के लिए सुन्दर है

कि निगाहों में आने से रह गया है

उसे खुद भी पता नहीं चलता

उधाड़ते चलो रास्ते में इन चीज़ों को

जो उसे दबा देती है

उसकी आवाज़ की उफपरी झिल्ली को

हल्के नाखून से पलट दो

देखते रह जाओ पनीर जैसी बनावट को

जो गुलाब के रस से भीगा हुआ है

और खरगोश की तरह धड़कता है

उसकी पहचान की छटाएँ सुन्दर है

और वे सारे पर्दों को हटाकर भी सुन्दर है

उसकी आँते और पफेपफड़ें भी सुन्दर है

हिन्दू या मुसलमान के चेहरे को बांई ओर से देखो

नाक को परछाई दांई ओर हिलती हुई सुन्दर है।


Sunday, August 20, 2023

नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य



हिंदी के अनूठे, अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’ कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’ होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और ‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’ प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।


नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन” या “Philosophy of Science”  कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल जानकारियों का एक नया यूनिवर्स है । इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?

.....

इस मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी जानता हूँ पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है, इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब । मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है । वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता । कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए होता है ।

यह किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे पर trolling और सर्वनिषेधवाद । एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स, फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात नवीन जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ निजी और सामाजिक होता है वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकरअन्य’ से संवाद है – एक साथ ‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।

नवीन जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा । दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर -  ऐसी है जो कृति की कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है । जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल, सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो, उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखव और रिल्के जैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है । अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित, अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक । ग़ालिब ने एक शेर में अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे”  यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे । ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में ज़रूर होता है ।

एक कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।

जर्मन कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी बना लिया है । मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार लिया है एक लेखक को अगर भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’ या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’ के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं । लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।      

हममें से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है । ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा   I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’ or literature इसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।

मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को ध्यान से सुना ।




Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।