Wednesday, August 30, 2023

पानी का खेल

कवि की इस बात- "केदारनाथ सबसे सबसे पहले पानी का शिकार हुआ", को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यह एक बहस तलब मुद्दा हो सकता है। लेकिन पानी किसी को नहीं देखता यह पूर्णतया सच है। बल्कि प्रकृति है ही इतनी उदात कि वह खुद को भी नहीं देखती। कवि और वैज्ञानिक, प्रकृति के उन्हीं रहस्यों के अन्वेषक हैं, लेकिन अठारहवें संग्रह की गगनभेदी घोषणा एक मंदिर में सिमटी हुई नजर आती। क्या सचमुच पानी ऐसे ही किसी बिंब पर ठहर कर अपना रास्ता बनाता है? यह विचारणीय प्रश्न है। पुस्तक का कवर पेज भीतर की सामग्री का प्रतीक ही होता है। इसे एक कवि से ज्यादा और कौन जान-समझ सकता है। उम्मीद है कवर पेज भीतर बैठी कविताएं सचमुच के पानी की बात करें जो न मंदिर देखता हो और न मस्जिद, या अन्य किसी धर्म के प्रतीक ही। अभी तो यही कहते बन रहा कविताओं का चेहरा केदारनाथ से ढका है।

पानी प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनदायी धरोहर है। इसके कुछ रूपों को हिंदी के महत्वपूर्ण कवि राजेश सकलानी की कविताओं में भी देख सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनके संग्रह पानी है तो फूटेगा से आज कुछ कविताएं शेयर करने का मन है। यदि कहेंगे तो तरह से प्रकट होते इस पानी की आवाज को भी प्रस्तुत करना चाहूंगा। ताकि आप भी आश्वस्त हो सकें और मैं भी दोहरा सकूं सुनता हूं पानी गिरने की आवाज।

विगौ


पानी का खेल

पानी है तो मचलेगा                                          

हाथ छुड़ा कर भागेगा

हँसते-हँसते थक जायेगा

रो जायेगा

सो जायेगा

जागेगा तो उछलेगा

पानी है तो फूटेगा।

 

जब हम पत्थर हुए

जब हम पत्थर हुए

अपने आकार और रूप लिए,

इकट्ठा हो कर खुश हुए।

इतने करीब हुए कि जुड़कर

प्रदेश हुए

उछलते-कूदते कोमल हुए

और धारदार हुए

हजार साल का स्वप्न हुए

जब हम पहाड़ हुए

आसमान की सारी हवाओं ने

अपना लिया

बादलों ने गले से लगा लिया

इतने किस्म के बीज़ चिड़ियाएँ ले कर आईं

सजते धजते हरे हो गए

जब हम संविधान हुए

न्याय की महापंचायत ने

फूल बरसाये

जगे गीत भीतर इतने सारे

नदियाँ फूट कर निकलीं

और हमारे पाँव भीग गए

जब हम मनुष्य हुए

पिफर किन्हीं समयों में भटके हुए।

कठिनाईयों से झगड़ कर

तब हम मनुष्य हुए।

 

 

पहाड़ों का स्वभाव

जो रचते नहीं है वे रुकते नहीं है

इसलिये गौरव, उलार व ललक विहीन

हम ऐसे आये जैसे पहाड़ों के बजाय

कहीं और से आये हुए हो

वे पथरीले हैं लेकिन कठिन नहीं है

और वे हमारे छोड़कर चले आने से भौंचक है

वे शरण देते हैं लेकिन बुरे दिनों की याद दिला कर

शर्मिन्दा नहीं करते

जब दिल करे तब चले आओ

उन्हें कृतज्ञता ज्ञापित करने की ज़रूरत नहीं है

तुम्हें कभी जरूरत पड़ेगी तो वे आत्मीयता से

स्वागत करते मिलेंगे

पहाड़ों के सामान्य नियम है

समझो कि वे सिर्फ तुम्हारे लिये हैं

उन्हें समूचे रूप में ही अपनाया जा सकता है

वे विक्रय के लिए नहीं है

उन्हें जंगलों और नदियों से अलग कर

नहीं देखा जा सकता

उफँचाई पर जा कर दुनिया पर नजर डालने

का हक़ खुद ब खुद मिल जाता है

यहाँ आओ और मौसमों के साथ

धीमे-धीमे बदलते जाते रहो

और ज़ज्ब होते रहो

पाओ ऐसी बानी जो भीड़ को

बदल देती हो समुदाय में

नदियों को समुद्र में।

 

ये धूप की लौ हमारी है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरब से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे-भरे पेड़ों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में

जो तेरे जी का मकसद है

वो मेरे जी का मकसद है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

         

सोने की गेंद

पांडव खेलें कौरव खेलें

सोने की गेंद से मिलजुल खेलें

नभ खेले झिलमिल परबत पर

उछल मचल जलधारें खेलें

चिड़िया के पंखों से खेले हवाएँ

डाल-डाल पर डालें खेलें

चाँदी की हँसिया नदिया जैसी

भेड़ों के संग बाला खेले

तीखे पाथर मृदल भये अकुलाए

बादल किलक पुलक कर खेले

हिन्दू खेले मुस्लिम खेले

धूप की किरणें मुख पर खेलें।

(गढ़वली लोकगीत की एक पंक्ति से प्रेरित)

 


अनुगूँजें

पत्थरों पर प्यार आता है

हाँ पत्थरो पर प्यार आता है

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

कैसे बासती है घुघूति

घुर्र घुर्र बासती है घुघूति।

 

 

 

मेरे लोगों

ऐ राहे हक़ के शहीदों

ऐ मेरे वतन के लोगों

कोई गोली चलाए क्यों

कोई मारा जाए क्यों

इन ज़मीनों में ज़ज़्ब हैं कई वादे

रोटी पानी पे मुलाक़ातें भूल जाएं क्यों

कोई इधर के उधर रह गये

फक़त इसलिए पराये क्यों

यूँ न जायेगी यादों की डोर

गैर के मंसूवों से टूट जाये क्यों

झील सी गहराई आवामों में हैं

अरे पागल, घबराये क्यों।

 

ओ पाकिस्तान

तुम जो चीज़ें छोड़ गए

हैं अब तलक दूर-दूर तक मैदानों में ज्यों कि त्यों

उन्हें भुला देने के किसी इरादे की निगाह में नहीं

ये साझा धूप की आँच के निशान है

बीती मुलाकातों की सरसराहटें

कोशिकाओं के द्रव में मनुष्यता की आहटें

ये छोड़ी हुई साँसों के मानसून में घुल जाने

और पिफर लौटने वाली बरसातें हैं

हमारे हँसने, रोने में अक्सर आतीं हैं

इतिहास से बाहर ललक उठने को

अपनी आवाज़ पर गौर करें

लफ्जों के बीच ये अपने मायने बचा लेती हैं

भले से देखें तो ये

कुछ पल खुशहाल करती हैं।

 

 

थोड़ा सा

मैं बहुत थोड़ा हूँ

थोड़ी सी मिट्टी

थोड़ा सा दरख़्त

थोड़ सा मौसम

थोड़ी सी रोटियाँ हूँ

जो रसदार साग के बिना भी

खुश रहती हैं

मैं थोड़ी सी जगह हूँ

जितने तक मेरी टांगे अट जाती है

मैं थोड़ा सा नमक हूँ

जो पतेले भर दाल को

जा़यके दार बना सकता है

मैं थोड़ी सी आग हूँ

जो लगातार लग कर

भगोने भर भात को सिझा सकती है

मैं थोड़ी सी शुभकामना हूँ

जिसे उम्मीद है पूरी दुनिया में

अमन आ सकता है

मैं थोड़ा सा घोड़ा हूँ

जिसकी पीठ पर बच्चे

सकपकाये नहीं रहते और मैं

हुक्के के पानी की तरह गुड़गुड़ करता हूँ

मैं थोड़ी सी आवाज़ हूँ

जो धौंस जमाने वालों की

ज़ुबान को घबड़ा देती है

मैं थोड़ा सा पागल हूँ

इतना पागल होना तो

हर ज़ने को चलता है।

 

 

मैं भी इन्हीं हवाओं में

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरव से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे भरे पत्तों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में                                                                        

जिस राह पे तेरी मंजिल है

उस राह पे मेरी मंजिल है

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

 

  

ये छटाएँ सुन्दर है                                          

हर जना अनिवार्य रूप से सुन्दर है

और अपने रूप से बहक गया है

कुछ कम पलों के लिए सुन्दर है

कि निगाहों में आने से रह गया है

उसे खुद भी पता नहीं चलता

उधाड़ते चलो रास्ते में इन चीज़ों को

जो उसे दबा देती है

उसकी आवाज़ की उफपरी झिल्ली को

हल्के नाखून से पलट दो

देखते रह जाओ पनीर जैसी बनावट को

जो गुलाब के रस से भीगा हुआ है

और खरगोश की तरह धड़कता है

उसकी पहचान की छटाएँ सुन्दर है

और वे सारे पर्दों को हटाकर भी सुन्दर है

उसकी आँते और पफेपफड़ें भी सुन्दर है

हिन्दू या मुसलमान के चेहरे को बांई ओर से देखो

नाक को परछाई दांई ओर हिलती हुई सुन्दर है।


6 comments:

गीता दूबे, कोलकाता said...

खूबसूरत कविताएं। प्रकृति और मानव के बीच के आदिम संवाद को सहेजे हुए एक अद्भुत वितान रचतीं साथ ही मौजूदा हालात के खतरों को गंभीरता से संकेतित करतीं। कवि को बधाई।

Onkar said...

बढ़िया कविताएं

Sweta sinha said...

गहन भाव लिए बेहद सार्थक रचनाएँ.है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर सृजन

Jyoti khare said...

समकालीन दौर की बहुत अच्छी कविताएं

बधाई
सुंदर प्रस्तुति

Harash Mahajan said...

उत्तम प्रस्तुति !!