Sunday, November 5, 2023

एक अलग आस्वाद और परिवेश की कहानियाँ अर्थात सौरी की कहानियां

कथाकार नवीन कुमार नैथानी का कहानी संग्रह सौरी की कहानियां वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था. उसके बाद की कहानियां अभी तक किताब की शक्ल में नहीं आईं, हालांकि ‘हतवाक, होराइजन, धन्यवाद ज्ञापन, लैंड्सलाइड आदि कई महत्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं और लगातार चर्चा में रहीं. लेकिन दिलचस्प है कि उनके उस पहले संग्रह की कहानियों का आस्वाद अभी भी उतना ही ताजा लगता है. इसकी मूल वजह क्या हो सकती है ? इस सवाल पर खुद से उलझने की जहमत उठाये बगैर भी हम उन कहानियों पर लगातार लिखी जा रही आलोचनाओं के जरिये भी पहुंच सकते हैं. समीक्षा के क्षेत्र में अपनी टिप्पणियों की विश्वसनीयता से स्थापित अलोचक गीता दूबे ने हाल ही मैं सौरी की कहानियों का उत्खनन किया है. पढते हैं उनका आलेख और जानते हैं सौरी की कहानियां के एक अन्य पाठ को.
विगौ


 गीता दूबे                                                         

बहुधा विभिन्न भाषाओं में एक ही चीज के लिए अलग- अलग शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ठीक उसी तरह एक ही शब्द विभिन्न भाषा परिवेश में अलग -अलग अर्थ में व्यवहृत होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में सौरी शब्द का अर्थ सौर गृह या प्रसूति गृह होता है लेकिन एक अलग कालखंड या स्थान पर उस शब्द विशेष के मायने बदल जाते हैं। वरिष्ठ कथाकार नवीन कुमार नैथानी जब 'सौरी की कहानियाँ' लिखते हैं तो वे प्रसूति गृह से संदर्भित कथा नहीं कहते बल्कि उनकी कहानियों में प्रयुक्त 'सौरी' एक ऐसा स्वप्नलोक या फैंटेसी जगत है जहाँ मनुष्य की आकांक्षाओं को एक नया आकाश मिलता है। ये कहानियाँ आमतौर पर कहीं कही, लिखी या सुनी जानेवाली साधारण कहानियों से भिन्न हैं या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है कि  साधारणता सी नजर आनेवाली ये कहानियाँ पाठकों को असाधारण लोक में ले जाती हैं। एक ऐसी दुनिया जो जानी -पहचानी होती हुई भी अपने अंदर जिन गोपन बिंदुओं या रहस्यों को छिपाए हुई थी, वे एक -एक कर हमारी दृष्टि के समक्ष उजागर होने लगते हैं और हम कुछ नया जानने के आश्चर्यमिश्रित आनंद से भर उठते हैं। एक ऐसा आनंद जिसमें दुखों की किरकिराहट भी है और आँसुओं का गीलापन भी, चाहनाओं की उड़ान भी है और अतृप्ति की कसक भी। उस दुनिया के लोगों में अपनी मंजिल को हासिल करने के लिए तिकड़मे या जोड़तोड करने का नहीं बल्कि बहुत कुछ कर गुजरने का साहस है। कथाकार द्वारा सृजित यह प्रदेश अर्थात सौरी वास्तविक है या काल्पनिक, इसका पता कहानी पाठ की यात्रा में तो नहीं लगता लेकिन पाठकों के मन में यह आकांक्षा अवश्य जन्म लेने लगती है कि काश ! वह भी इस अद्भुत प्रदेश का निवासी होता और वहाँ के परिवेश में व्याप्त अलौकिक आनंद के साथ ही अतृप्ति के कसक को भी महसूस कर पाता। कथाकार यह कहानी संग्रह सौरी के उन तमाम लोगों को समर्पित करता है जो संसार में हर जगह बिखरे हुए हैं। यह बात और है कि उनकी वह अद्भुत सौरी काल के प्रवाह में कहीं खो सी गई है। जिससे एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि कभी ना कभी ऐसी जगह जरूर थी जहाँ लोग सुख नहीं आनंद के प्रवाह में सहजता से बहते थे लेकिन जिस तरह तमाम अच्छी जगहें नष्ट हो जाती हैं, उसी तरह यह सौरी भी बर्बाद हो जाती है और गुरु नानक के जीवन की उस प्रसिद्ध कथा की तरह वहाँ के अद्भुत मानवीय लोग जिनके अंतस में प्रेम की निर्झरिणी प्रवाहित होती रहती है, इधर -उधर बिखर गये ताकि अपने प्रेम और सद्भावना का प्रकाश सब तक समान रूप से पहुँचा सके, दुनिया को और भी बेहतर और सुंदर बना सकें।

सौरी की यह विशेषता है कि यहाँ रहने वाले लोग अद्भुत हैं और बाहरी दुनिया से जो कोई व्यक्ति यहाँ प्रवेश करता है, उसकी समस्त पूर्व स्मृतियाँ लोप हो जाती हैं। संग्रह की पहली कहानी 'पारस' सौरी की उस खासियत या कमी को उद्घाटित करती है कि वहाँ किसी कन्या संतान का जन्म नहीं होता, मात्र लड़के ही पैदा होते हैं। आज अखबारों में इस बात पर लगातार चिंता प्रकट की जाती है कि लिंगानुपात गड़बड़ हो गया है, लड़कियों को मारते- मारते देश के बहुत से प्रदेश इस स्थिति में पहुँच गए हैं कि वहाँ लड़कों के मुकाबले लड़कियाँ बहुत कम संख्या में बची हैं और अब स्थिति यह है कि उन शहरों में लड़कों की शादी के लिए लड़कियाँ बाहर से खरीदकर लाई जाती हैं। सौरी के लोगों की भी बड़ी चिंता थी कि पिछले कई वर्षों से यहाँ कोई बारात नहीं आई है क्योंकि किसी लड़की का जन्म नहीं हुआ है और आस- पास के गाँव के लोगों ने यह तय किया है कि जब तक सौरी में कोई लड़की पैदा नहीं होती कोई अपनी लड़की का ब्याह उस गाँव के लड़कों से नहीं करेगा। यह बड़े- बुजुर्ग लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था। शायद इसीलिए खोजाराम पारस पत्थर की तलाश में जंगल की ओर चल पड़ता है क्योंकि एक तो उसे एक ही कान से सुनाई देता है और वह एक पाँव से लंगड़ाता भी है। ऐसे में पारस पत्थर मिलने पर ही वह अपने ब्याह के अरमान को पूरा कर पाएगा। हालांकि इस किस्से के कई संस्करण और प्रारूप मिलते हैं हर आदमी के पास इस किस्से की अपनी व्याख्या है। किसी दैवीय कथा या जादुई कहानी की तर्ज पर खोजाराम अपने पैरों में घोड़े की तरह लोहे की नाल बँधवाकर सोने की तलाश में निकल पड़ता है और वक्त के प्रवाह में खो जाता है, उसकी स्मृतियाँ भी लोगों के जेहन से मिटने लगती हैं लेकिन उसकी संगिनी सुनैना एक कन्या को जन्म देकर मानो सौरी के लोगों को शापमुक्त करती है। लोकप्रिय व्रत कथाएँ जिस तरह फल प्राप्ति के साथ समाप्त होती हैं, ठीक उसी तरह यह सुनैना द्वारा बेटी के जन्म के साथ समाप्त होती है लेकिन यह कथा इस मायने में भिन्न है कि इसमें पुत्र की कामना के बजाय कन्या की कामना की भी जाती है और वह पूरी भी होती है। ऊपरी तौर पर किसी सामाजिक समस्या के तार कहानी से जुड़ते से नहीं लगते लेकिन पुत्र संतान की चाह में कन्याओं को कोख में मारनेवाले लोगों की इस देश में कमी नहीं है और  उनके ऊपर अब भी यह शाप ज्यों का त्यों बना हुआ है। सुनैना की कन्या संतान का स्वागत सौरी में भले हुआ है लेकिन आम सौरगृहों में जन्म का सुयोग पाकर भी ये कन्याएँ घर परिवार की उपेक्षा झेलती हुई ही बड़ी होती हैं। सौरी की कथा से हमें सीखने की जरूरत है। खोजाराम सोने की तलाश में कहानियों की दुनिया में अब तक भटक रहे हैं या फिर यह भी कहा जा सकता है कि कन्या के जन्म के बाद उनकी खोज समाप्त हो जाती है। कुछ लोग इसी तरह सिर्फ किस्से -कहानियों में ही जीवित रहते हैं और एक उदाहरण के तौर पर लोगों के बीच उन्हें याद किया जाता है।

सौरी के लोगों की खासियत है कि सारी दुनिया में विचरने के बावजूद वे फिर- फिर सौरी में ही लौटते हैं। जो नहीं लौटता वह कहीं खो जाता है। बच जाती हैं तो बस उसकी यादें और कहानियाँ। यहाँ की कहानियाँ भी किसी फंतासी कथाओं से कम नहीं हैं। यहाँ कई ऐसी जगहें हैं जिन्हें देखने के लिए, उनकी तलाश में लोग भटकते रहते हैं। एक ऐसी ही जगह है, 'चोर घटड़ा' जहाँ पहुँचना आसान नहीं है लेकिन पहुँचकर लोग अक्सर अपनी तरकीबों से कमाई हुई पूँजी तमाम सावधानी के बावजूद गँवा बैठते हैं और सौरी के बाहर की स्मृतियों से मुक्त होकर पुनः निश्छल हो जाते हैं अर्थात सौरी में बसने वाले लोगों के लिए भोलापन जरूरी है। कपटी लोगों के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है और फिर तो वह जगह स्वर्ग सरीखी ही होगी क्योंकि वहाँ कोई ईर्ष्या द्वेष या कपट आचरण नहीं होगा। चोर घटड़े तक भी उसी भोलेपन और विश्वास के साथ ही जाया जा सकता है। सैलानियों की तरह वहाँ पहुँचने वाले यात्री अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं। पाली जैसे बुजुर्गों के पास उन लुटे हुए, गुमे हुए लोगों की, कलाधर वैद्य जैसे लोगों की कहानियाँ ही बची हैं। चोर घटड़े की तलाश में निकले पिता -पुत्र में से पुत्र तो उस जगह को ढूँढ लेता है लेकिन पिता अपनी दुनियादारी के बावजूद वहाँ तक नहीं पहुंच पाता। सौरी को केंद्र में रखकर कही -सुनी जानेवाली कहानियों में चोर घटड़ा बचा रहता है, भले ही वहाँ के लोग गुम हो जाएँ। ये किस्से ही लोक इतिहास रचते हैं जिमें बहुत सी अद्भुत अविस्मरणीय जगहें और उनकी कथा बची रह जाती है।

ऐसी ही एक कथा 'चाँद पत्थर' की भी है सौरी के दायरे में इसकी ढेरों कहानियाँ फैली हुई हैं और उन कहानियों के लोगों के पास अपने-अपने संस्करण हैं। हर कोई उसे अपने अंदाज में सुनाता है सौरी में आने वाले लोगों को सौरी के लोग यह सलाह देते हैं कि फुर्सत के वक्त जरा चा पत्थर तक घूम आइए, यानी चाँ पत्थर एक ऐसी जगह है जिस पर सौरी के लोगों को अभिमान है। अब  क्या यह चाँद पत्थर चोर घटड़े की तरह कोई वास्तविक स्थान है या बस पोल कल्पना या स्मृतियों का गह्वर ? इस चाँ पत्थर की कथा के साथ जुड़ी है वैद्य लीलाधर की कथा चोर घटड़ा वाली कहानी में वैद्य कलाधर थे जो भटकते हुए कहानियों की दुनिया में गुम हो जाते हैं और इस कथा में वैद्य लीलाधर हैं जो अपने समय के बेजोड़ वैद्य माने जाते थे और अपनी दवाइयाँ सौरी के आसपास फैले जंगलों से ढूँढ कर लाते  थे उनकी ख्याति सौरी के बाहर दूर-दूर तक फैली थी लेकिन वह मरीज को देखने भी सौरी के पास नहीं जाते थे शायद उन्हें भी अंदेशा रहा होगा कि अगर वह बाहर जाएँगे तो भटक जाएगे या दोबारा लौटकर नहीं पाएगे लेकिन कमल गोटा की कमला रानी की बीमारी ने उन्हें सौरी की सीमाओं को पार करने को विवश किया, यह बात और है कि वे कमल गोटा तक पहुँचे ही नहीं और कमला रानी उनकी प्रतीक्षा करते-करते हा कर खुद ही सौरी की ओर चल पड़ी लेकिन कमला रानी लोगों को नहीं मिली। शायद आपस में वे एक दूसरे से मिले। रात्रि के अंधकार में आभूषणों से लदी हुई कमला ही शायद सुस्ताने के लिए पत्थर पर बैठी हुई वैद्य जी को मिली या फिर उन्हें एक स्त्री की आवाज़ सुनाई दी और पत्थर पर आभूषणों की आभा दिखाई दी। दोनों एक दूसरे से मिल पाए या नहीं, यह कहानी तो बस हवा में तैरती रह गई लेकिन इस पत्थर पर बैठी हुई कमला या वायवीय स्त्री के आह्वान पर जब वह उस तक पहुँचने के लिए आगे बढ़े तो पत्थर पर चढ़ते ही फिसल कर नदी किनारे गिर पड़े। लोग ताप में पड़े, बर्राते हुए वैद्य जी को उठाकर गाँव ले गए लेकिन जरा सा ठीक होते ही वे जड़ी की तलाश में जंगल गए और फिर किसी को नहीं मिले। कमला और वैद्य जी दोनों ही गायब होकर मानो किसी जादुई लोक में पहुँच जाते हैं या लोककथाओं की तरह कमला अप्सरा की तरह स्वर्ग लोक में चली जाती है और वैद्य जी पत्थर में बदल जाते हैं। शायद इसलिए सौरी में जहाँ घरों की संख्या तीस से घटकर छ: पर गई थी, के बच्चे अंजुली में पानी भर -भर कर पत्थर पर डालते और कहते थे, वैद्य जी ठंडे हो जाओ अर्थात वह ताप मुक्त या शाप मुक्त हो जाएँ। ठीक उसी तरह जैसे राम कथा में अहिल्या पत्थर में बदल जाती है और फिर शापमुक्त होती है। ऐसा नहीं कि इस तरह की कहानियाँ हमारी स्मृतियों में नहीं है लेकिन हम उन कहानियों पर यकीन करना चाह कर भी कई बार नहीं कर पाते। यह बात और है कि ऐसे बहुत से लोग इस दुनिया में मिलेंगे जो इन पर यकीन करते हैं सौरी के लोगों के पास तो यकीन करने की कोई वजह ही नहीं थी। सौरी के लोग इसी तरह के विश्वास पर टिके हु लोग थे और उनका समय एक अद्भुत समय था। उनके वर्तमान भले ही अभावग्रस्त था लेकिन उनके पास अतीत की संपन्नता और समृद्धि की ढेरों कहानियाँ या स्मृतियाँ थीं जिनके साथ वह वर्तमान को खूबसूरत बना ही लेते थे। विस्मृति रोग से पीड़ित इस समय में यह स्मृति संपन्नता सचमुच आह्लादित करती है।

सौरी का हर किरदार अजूबा है जिसकी उपस्थिति सिर्फ वहीं हो सकती थी। यहीं मुँदरी बुढ़िया भी मिलती है जो उजाले से बचती फिरती है। रोशनी अर्थात कृत्रिम रोशनी से उसे परहेज हैं लेकिन चाँद की रोशनी से उसे कोई दुराव नहीं है। वह गोकुल मिस्त्री से अपने लिए एक अनोखा मकान बनवाती है जिसके कोने उसे आनेवाले लोगों से छिपने की जगह देते हैं। हालांकि वह मुसाफिरों का स्वागत करती है, उन्हें रात भर ठहरने की जगह भी देती है जो सौरी से कौड़सी तक जाते हुए उसके घर में पनाह लेते हैं लेकिन उसकी आवाज़ से ही लोगों का परिचय होता है या फिर उसके बारे में फैले किस्से -कहानियों से। सवाल यह है कि क्या असली जिंदगी में ऐसे किरदार होते हैं। इसका जवाब पाठकों को अपने अंदर या समाज के भीतर ढूँढने की आवश्यकता है। आज जब विमर्शों की धारा में एक और विमर्श अर्थात बुजुर्ग विमर्श भी जुड़ गया है और उनके जीवन की समस्याओं आदि पर बात होने लगी है, उस दौर में मुँदरी बुढ़िया किसी कल्पना लोक से उतरी हुई नहीं लगती। प्रेमचंद की बूढ़ी काकी को एक कोठरी में जगह मिलती है और भीष्म साहनी के शामनाथ अपनी बूढ़ी माँ को गैरजरूरी सामान की तरह एक कोठरी में छिपा देना चाहते हैं ताकि वह उनके विदेशी चीफ के सामने आकर उनकी भद न करवाए लेकिन नवीन नैथानी की वृद्ध किरदार अपनी बढ़ती उम्र को लेकर पारंपरिक चिंता में तो जरूर है और इसलिए लोगों से छिपती हैं क्योंकि "बहुत ज्यादा जीने के बाद अच्छा नहीं लगता। उनके सामने जाओ तो वे डर जाते हैं। लगता है मैं उनकी उम्र खा रही हूँ।"  (मुँदरी बुढ़िया के दरवाजे) ऐसे वृद्ध इस समाज में बहुतायत से मिलेंगे जिनकी मृत्यु की कामना उनके परिवार वाले ही करते हैं, इस तरह की बातें सुनने में आती हैं कि न जाने कितनी उम्र लेकर आई / आए हैं और इससे परेशान बुजुर्ग भी किलस कर कहते हैं कि भगवान बुलाता ही नहीं। ऐसे में मुँदरी का लोगों की नजर से छिपकर रहना कोई अजूबा नहीं है।

इस संग्रह की कहानियों में स्मृतियों की झीनी चादर पड़ी हुई है और एक ऐसे अद्भुत लोक का वर्णन है जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की विभाजक रेखा महीन होते -होते धुँधली पड़ जाती है। जीवन और मृत्यु भले ही जिंदगी के दो अलग -अलग किनारे हैं लेकिन क्षितिज की तरह वे भी कभी- कभार मिलते हुए से दिखाई देते हैं। दोनों लोकों के बीच एक अविश्वसनीय लेकिन आकर्षक लोक रचा गया है, 'अखंड सुहागवती' कहानी में। मृतक लोगों को इस तरह याद किया जाता है जैसे वे यह लोक नहीं बल्कि गाँव छोड़कर चले गए हैं और उनकी अनुपस्थिति के गह्वर को गाँव के लोग न केवल उनकी स्मृतियों से भरते हैं बल्कि जब जी चाहे उनसे मिल भी आते हैं। यह मिलना अस्वाभाविक नहीं बल्कि एकदम सहज- सरल लगता है जैसे हम अपने दोस्तों- रिश्तेदारों से मिलते हैं ठीक उसी तरह दिवंगत व्यक्तियों से भी मिलते हैं। इस मिलन में कोई जड़ता या भय नहीं बल्कि एक सुकून का भाव है, मानो उस पार के व्यक्तियों से हम इस पार की दुनिया को आनंददायक बनाने की युक्तियाँ या आश्वासन पाते हैं या उनके प्रति अपने नेह और सम्मान को अभिव्यक्ति देते हैं। यह मिलन स्थल कहाँ है, इसका कोइ ब्यौरा कहानीकार नहीं देता क्योंकि वह छोटे- छोटे ब्योरों या तथाकथित डिटेल्स में उलझने के बजाय अनुभूतियों का सघन और ऊष्मा से भरा हुआ लोक रचता है जो मानवीय प्रेम के भरोसे पर टिका हुआ है। मनुष्य का मन अपने लिए कुछ ऐसी जगहें या भावलोक ढूँढ ही लेता है जहाँ वह स्वप्न को यथार्थ और यथार्थ को स्वप्न में बदल दे। नवीन नैथानी की कहानियों में भी स्वप्न और यथार्थ, जीवन और मृत्यु, कल्पना और वास्तविकता के बीच की रेखाएँ गड्डमगड्ड हो जाती हैं और पाठकों के लिए एक अनोखा आस्वाद वह रस बचता है जो जीवन को तमाम वह प्रतिकूलताओं के बावजूद खूबसूरत और जीवंत बनाए रखता है। सत्यवती और किशन आखिरकार अपने डर पर काबू पाकर उस रस को बचा पाने में कामयाब हो जाते हैं। सत्यवती में वह पारंपरिक भारतीय स्त्री भी नजर आती है जो अखंड सुहागवती होने की कामना में परंपरागत जीवन मूल्यों को सीने से लगाए जीती है। सौरी की स्त्रियों में परंपरागत मान्यताएं जीती जागती हैं जो उनके अद्भुत चरित्र के बावजूद साधारण बनाती हैं।

सौरी के बाशिंदे रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए, साधारण होते हुए भी कुछ मायने में असाधारण होते हैं, इतने असाधारण कि दूर  दराज के लोग केवल सौरी को खोजने और देखने आते हैं बल्कि वहाँ के लोगों से मिलने भी आते हैं। ऐसा ही एक अविस्मरणीय किरदार है, 'चढ़ाई' कहानी का चौकीदार या बूढ़ा आदमी जो अपने उम्र की गिनती भूल गया है और शायद अपने घर का पता भी भूल जाना चाहता है, बस इसीलिए अपने घर पर कुंडी चढ़ाकर जंगलों में या फिर स्मृतियों की खोह में भटकता रहता है। वह आने जाने वालों को सौरी और कभी- कभार अपना ही पता बताता रहता है जो उसे सिर्फ नाम से जानते हैं। तकरीबन सौ की उम्र छू चुका या पार कर चुका रामप्रसाद अपने जीवन और पहाड़ों की चढ़ाई अपनी लाठी और शरीर के दम पर चढ़ता रहता है। उसके पास ढेरों कहानियाँ हैं, अपनी और सौरी की लेकिन उन कहानियों में उसकी अपनी कहानी कहीं खो सी गई है। अकेलापन आदमी को इसी तरह स्मृतिहीनता के अंधकार में झोंक देता है।

अकेलेपन का यह निचाट बियाबान अन्यान्य कहानियों में भी पसरा हुआ है। गाँव से शहर को प्रस्थान करतीं पीढ़ियाँ, वे चाहे सौरी की हों या फिर किसी भी गाँव की अपने पीछे अपने घर और घर में छूटे लोगों को अकेला छोड़ जाती हैं। समय और मौसम की 'आँधी' में मकान ढहता रहता है, छत उड़ जाती है, दीवारें सील जाती हैं और कोने- अँतरों में कबाड़ के ढेर जमा हो जाते हैं। गोकुल मिस्त्री जैसे माहिर कारीगर भी दीवारों के पोलेपन की बात करते हुए उसकी मरम्मत से इनकार कर देते हैं। पोलेपन की वजह सिर्फ पुरानापन ही नहीं अकेलेपन का त्रास भी है जिसकी ओर इशारा करता हुआ गोकुल मिस्त्री कहता है- "जब कोई नहीं रहता तो दीवारें पोली हो जाती हैं" और नौजवानों के पास शायद पैसा तो है जिसे वह मरम्मत पर खर्च करने को तैयार हैं लेकिन समय नहीं है जिसे वह घर और उसके बाशिंदों के साथ बाँट सके, उसकी दीवारों को मजबूत बना सके। जब रिश्तों और भावनाओं में पोलापन जाता है तो कोई सीमेंट या माहिर कारीगर घर की मरम्मत नहीं कर सकता है। गोकुल मिस्त्री की आँखों से फूटता घृणा का सैलाब अपनी जड़ों के प्रति उसके जुड़ाव को व्यक्त करता है और नैरेटर को उसकी स्वार्थपरता के लिए धिक्कारता है।

अकेलेपन का अवसाद जब संबंधों में घुलने लगता है, भावनाओं में सेंधमारी करता है तब मन मस्तिष्क के साथ शरीर में भी इतना ठंडापन पैठ जाता है कि गर्माहट की तलाश मनुष्य को बेचैनी से भर देती है। आश्चर्य इस बात का यह कि जिन जगहों से उसे 'गरमाहट' या ऊष्मा मिलनी चाहिए वे भी क्रमशः क्षरित होती जाती हैं। आखिरकार आदमी की महत्वाकांक्षाएँ उसे आदमियत से इस कदर मरहूम कर देती हैं कि वह अपनी सहज  स्वाभाविक जिंदगी को भुलाकर सत्ता के मद में चूर ऐसी जिंदगी जीने लगता है कि कृत्रिमता ही उसे तसल्ली बख्श लगती है। प्राकृतिक जीवन शैली से कटाव उसे कमजोर शख्सियत में तब्दील कर देता है। इंसान की संगत से दूर रहते हुए वह जीवन और संबंधों की ऊष्मा से भी दूर होता जाता है। निसंगता बर्फ सी डराने लगती है और फिर वह आवाजों के शोर के बीच, मनुष्यों के समुद्र के बीच दौड़ पड़ता है ताकि रगों को ठिठुराती हुई ठंड से निजात पा सके। लेकिन असली ठंड तो दिमाग में पसरी होती है इसलिए आदमियों की जिस उपस्थिति ने उसे ऊष्मा से भर दिया था, अंततः वह भी बर्फ सी हो जाती है और उससे बचने के लिए वह पानी में छलांग लगा देता है। अनुकूलता की हद से ज्यादा चाह जीवन में तमाम प्रतिकूलताओं को जन्म देती है। इसका उपाय क्या है ? आखिरकार क्या हो सकता है ? पलायन या मुकाबला। पलायन हमें कहीं नहीं ले जाता इसलिए मुकाबला बेहतर हो सकता है। लेकिन आत्ममुग्ध व्यक्ति मुकाबले के बजाय पलायन में यकीन करता है और अंततः सबसे कट जाता है।

आत्ममुग्धता की अति मनुष्य को किसी भी हद तक ले जा सकती हैं। उसमें अमरत्व की चाह को भी जन्म देती है और हमारे पास ढेरों कहानियाँ हैं कि यह चाह कितनी भयावह हो सकती है। आम आदमी चमत्कारों में यकीन करता है और अब तो विज्ञान ने बहुत से चमत्कारों को सच भी कर दिया है। इस संग्रह में एक विज्ञान फंतासी कथा भी है। क्लोनिंग की बहुत सी कहानियाँ कही-सुनी जाती हैं। पशुओं की क्लोंनिंग तो हो चुकी है लेकिन मनुष्यों की क्लोंनिंग अभी भी सवालों के घेरे में है, कानूनी मान्यता तो अलग बात है। हर किसी के मन में राजा ययाति की भाँति अक्षय यौवन की आकांक्षा जन्म लेती है ताकि वह अनंत भोग की लालसा को परितृप्त कर पाए। हालांकि तृप्ति एक कल्पित अवधारणा है क्योंकि वह शायद ही कभी मिलती है लेकिन अपनी तृप्ति के लिए मनुष्य अराजक और हिंसक भी हो सकता है। ययाति में भी ये प्रवृत्तियाँ थीं। इसी कारण वह पुत्र का यौवन माँगकर अनंत सुख भोगता है और प्रकारांतर से पुत्र को अपनी आकांक्षाओं पर कुर्बान कर देता है। 'एक हत्यारे की आत्मस्वीकृति' का पात्र भी अपने ही क्लोन की हत्या करता है। मनुष्य कितनी भी वैज्ञानिक उन्नति क्यों कर ले लेकिन ईर्ष्या द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता जैसी मानवीय भावनाओं से कभी मुक्ति नहीं पा सकता। इन्हीं दुर्भावनाओं के हाथों वशीभूत होकर या कामनाओं से परिचालित होकर वह अपने पिता, भाई या पुत्र की हत्या कर सकता है तो फिर अपने ही प्रतिरूप या प्रतिद्वंद्वी को भी मार सकता है। अब यह अपराध है या नहीं यह कौन तय करेगा ? अदालत या मानवीयता ? भले ही किसी जमाने में द्वंद्व युद्ध में की जाने वाली हत्याएँ अपराध की श्रेणी में नहीं आती थीं लेकिन आज की अदालत के लिए हत्या किसी की भी हो, वह उसी प्रकार का अपराध है जैसे क्लोनिंग। वस्तुतः मनुष्य की अतिशय आकांक्षा जिससे किसी को भी क्षति पहुँचे, वह अपराध ही माना जाना चाहिए। अमरत्व की कामना भी ऐसी ही आकांक्षा है। 

संग्रह की कहानियाँ स्मृतियों का धूसर अलबम बनाती हैं। इस अलबम में बहुत सी पुरानी तस्वीरें, यादें, क्षण कैद होते हैं जो हमारे अवचेतन में पड़े रहते हैं। उनकी उपस्थिति भले ही बहुत सजग हो लेकिन हम उन्हें भुला नहीं पाते। इनमें से कुछ यादें बेहद आत्मीय और कोमल होती हैं जिनकी छुअन भर हमें उद्वेलित, स्पंदित कर देती है और कुछ कसक से भर देती हैं। जीवन में बहुधा परिवर्तन आता है, स्थितियाँ बदल जाती हैं लेकिन तस्वीरों में समय ठहर जाता है। जीवन की हताशा, निराशा या उदासी की झाइयाँ तस्वीरों पर जरा नहीं पड़ती। मुस्कराते हुए पल उनमें बँध कर अमर हो जाते हैं, तभी तो हम खूबसूरत क्षणों को या क्षणिक खुशियों की स्मृतियों को हमेशा के लिए अपने एलबम में कैद कर लेना चाहते हैं। 'तस्वीरें' अतीत और वर्तमान के बीच आवाजाही करती स्मृतियों की कथा है जिसमें नैरेटर पिता अपनी बेटी के लिए उसके जन्मदिन पर बड़े एहतियात से एक खूबसूरत अलबम तैयार करता है। एहतियात इसलिए कि बदलती परिस्थितियों का खुरदरापन उस एलबम को जरा भी छुए। पत्र शैली में बुनी गई इस कहानी में दांपत्य जीवन में क्रमशः घुलती कड़वाहट और संतान पर पड़ते उसके नकारात्मक प्रभावों के संकेत जरूर मिलते हैं लेकिन अपनी बेटी को उपहार देने के लिए पिता ऐसे क्षणों की तलाश करता है जब वे दोनों अर्थात पुत्री के माता- पिता कभी साथ में बेहद खुश हुआ करते थे। वह खुशी जीवन से भले ही फिसल गई लेकिन तस्वीर में हमेशा के लिए कैद हो गई। कोई भी पिता या माता अपनी संतान को अवसाद की कड़वाहट नहीं बल्कि खुशनुमा क्षणों की मिठास सौंपना चाहता है। हालांकि कई बार तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाता। खुशियों या आशाओं का 'कद' घटते -घटते इतना सा रह जाता है कि मनुष्य को वे नजर ही नहीं आतीं और उनकी तलाश में आँखों की रोशनी भी साथ छोड़ती जाती है। माता -पिता का अपना दांपत्य कितना भी अवसाद पूर्ण या ठंडा क्यों हो वह अपनी संतान को खुश और आबाद ही देखना चाहते हैं। यह अलग बात है कि चाहने भर से ही कुछ नहीं होता। स्त्री जीवन की पराधीनता और घरेलू हिंसा के बीच पिसती हुई मानसिक संतुलन खोती स्त्री के लिए सहानुभूति का स्वर इस कहानी (कद)  में नजर आता है। हाँ प्रतिरोध की कमी जरूर खलती है लेकिन यथास्थितिवाद के प्रति क्षोभ को अभिव्यक्ति मिली है।

अधिकांशतः मैं शैली में लिखी गई इन कहानियों में स्मृतियों का घटाटोप छाया हुआ है। कहीं वह कुहासे की तरह मन के उल्लास पर बिछ जाता है तो कहीं रोशनी के तीर सा हृदय को बेध देता है। अतीत और वर्तमान को एक 'पुल' की तरह जोड़ती ये स्मृतियाँ रोज दर रोज अपने अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते इंसान के अंदर उस नामालूम अहसासात की तरह जिंदा रहती हैं जिनके बिना जिंदगी बेमानी होती है। वह वर्तमान समय में किसी पुराने परिचित से मिलते हुए उनमें किसी और परिचित की शक्ल को अनायास याद करने लगता है। हालांकि देबू दा और बल्लू की माँ के बीच कोई कड़ी नहीं जुड़ती लेकिन अट्ठाइस सालों बाद नैरेटर को अपने भाई के मित्र देबू दा से मिलकर जाने क्यों बल्लू की माँ की याद जाती है। उनका स्पर्श नब्बे वर्ष की बूढ़ी औरत के स्पर्श सा लगता है। देबू दा की हर बात, अदा या गतिविधियाँ उसे फिर- फिर बल्लू की माँ से क्यों जोड़ती हैं। शायद इसलिए क्योंकि हमें जिस व्यक्ति से जरा भी लगाव होता है या सहारा मिलता है, हम उसे बार- बार अन्य परिचित, अपरिचित या अल्प परिचित चरित्रों में खोजते हैं। चरित्रों का वैविध्य हमें आकर्षित भले करे लेकिन साम्यता हमें आशवस्त करती है और मनुष्य इस आशवस्ति या फिर शांति की तलाश में लगातार स्मृति लोक की यात्रा करता रहता है। देबू दा एक जगह कहता है- "सच कहूँ, यहाँ रहते हुए कभी कभी लगता है कि हम एक साथ दो अलग -अलग समय को जी रहे हैं।" वस्तुतः यह आम आदमी की नियति है कि वह कभी भी समूचा एक समय में नहीं जीता। अतीत का मुश्किलें और भविष्य की चिंता उसके वर्तमान पर दबाव डालती रहती हैं और जहाँ भविष्य को लेकर कोई स्वप्न नहीं बचता वहाँ अतीत की सपनीली छाया वर्तमान पर अपना आधिपत्य जमा लेती है। आलोच्य संग्रह की कहानियों के पात्रों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। नवीन नैथानी वर्तमान समय की बड़ी चुनौतियों या चिंताओं की जो सतह पर तैरती नजर आती हैं, की बात नहीं करते या किसी तथाकथित विमर्श या विचारधारा के दबाव में नहीं लिखते लेकिन मनुष्य के अंतर्मन को कुरदने वाली चिंताओं, उसके अवसाद, मानसिक विच्छिन्नता अथवा सामाजिक असंबद्धता या अलगाव के कारणों की पड़ताल करने वाली स्थितियों  को खोजने की कोशिश जरूर करते हैं। इस कोशिश में वे एक ऐसा सम्मोहक वातावरण या लोक रचते हैं जो हमें बेतरह आकर्षित करता है। ये कहानियाँ देश -काल की सीमा से परे ऐसे मनुष्यों की कहानियाँ हैं जो भौतिक सुख -दुख की सीमा से परे जा चुके हैं। उनके जीवन में संघर्ष तो हैं लेकिन वे रोजी-रोटी की चिंताओं से जुड़े संघर्ष नहीं है। जीवन में रोटी ,कपड़ा, मकान के अलावा भी मनुष्य की बहुत सी दिक्कतें होती हैं कहा जा सकता है कि इन कहानियों का लेखक आम आदमियों की कहानी कहता हुआ भी एक ऐसे वर्ग या समूह के लोगों की कहानी कहता है जो तथाकथित रोजमर्रा के संघर्ष से भले ही  गुजरते नजर नहीं आते लेकिन उनके अपने संघर्ष हैं। इनमें दफ्तर में काम करने वाला क्लर्क या ऑफिसर, लेखक, चित्रकार और ग्रामीण जीवन के तमाम पात्र बिखरे हुए हैं जो अपने जीवन की अंदरूनी लेकिन बड़ी   दिक्कतों से अपने तौर पर जूझ रहे हैं और जूझते- जूझते कभी -कभार अवसाद के गर्त में मुंह छिपा लेते हैं। शुतुरमुर्ग कहानी का लेखक 'रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग' शीर्षक से कहानी लिखता है और उसकी प्रेमिका शुतुरमुर्ग के चरित्र को उसके जीवन में उतरते हुए देखते है। वह दिन की रोशनी में लोगों का सामना करने से कतराता है, अँधेरे कोनों में मुँह छुपा कर बैठा मानो वास्तविक समस्याओं से दूर भागता है लेकिन उसका यह पलायन क्या उसका कवच नहीं है?  हर व्यक्ति के पास अपना एक कवच होता है और उस लेखक के पास शायद यह दुराव छिपाव या अगर आप उसे पलायन का नाम देना चाहे तो यह पलायन ही कवच की तरह है। हम में से बहुत सारे लोग इस कवच को धारण किया करते हैं। कुछ लोग मुखौटे लगाने में माहिर होते हैं तो कुछ इस कवच के पीछे खुद को छुपाए रहते हैं और जब यह कवच अभेद हो जाता है तो वास्तविक दुनिया से हमारा रिश्ता कटने सा लगता है और उसे स्थिति में ही हम एक बार फिर से संबंधों की ऊष्मा की चाह में भटकने लगते हैं। भटकते हुए जब संबंधों की उष्मा हमारे आसपास इफरात मात्रा में हो जाती है तो फिर उससे भी दूर भागते हैं।

 दरअसल इस संग्रह की कहानियाँ आम नजर आते खास लोगों की एक विशेष किस्म की मानसिक बुनावट की कहानियाँ है जिसके कारण हमारे पास जो कुछ होता है वह हमें कभी संतुष्ट नहीं कर पाता। कुछ अलग, कुछ खास की चाह हमें निरंतर भटकाती रहती है और उस परेशान हाल स्थिति में हम जिंदगी गुजारने को विवश होते हैं। उस स्थिति में मनुष्य एक ऐसा जादुई लोक रचता है, जहाँ सब कुछ बेहद भला-भला सा और खूबसूरत है और उसकी स्मृतियों, कहानियों के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदगी गुजार देता है। सौरी के लोगों के पास शायद अब भी ये कहानियाँ बची होंगी और उस के साथ बचा होगा रचने और कहने का अलौकिक सुख, किस्सागोई की कला भी जो कथाकार नवीन कुमार नैथानी में भरपूर है। इन कहानियों में पाठक सहजता से रम जाता है क्योंकि ये किसी सरलीकरण के सूत्र, समाधान या सुझाव के रूप में नहीं लिखी गई हैं। इनमें कथा कहने और सुनने के साथ उसमें डूबने के सुख को बचाए रखने की अद्भुत क्षमता है।

Sunday, October 22, 2023

पेशगी अन्दर रखी है


डा अतुल शर्मा


द मिनिएचरिस्ट आफ जूनागढ़





21 अक्टूबर 2023 की शाम दून लाईब्रेरी, देहरादून मे एक ऐसी फिल्म दिखाई गयी जो भारत पाक विभाजन पर केन्द्रित थी / पर इसके सादे और खामोश एक्स्प्रेशन मे दर्द भरा था, हर संवाद और दृष्य, ठहरे हुए और सादगी से आगे बढ़ रहे थे,, जिसकी अदृश्य पीड़ा और चीख महसूस की जा सकती थी,,, 

पाकिस्तान जा रहे मुसव्विर और परिवार से एंटीक सामान, मकान, खरीदने खरीदार किशोरी लाल बिक्री के कागज़ पर हस्ताक्षर लेने आता है और उसकी मुलाकात एक अंधे मिनिएचर आर्टिस्ट से हो जाती है / वह जो पेंटिंग उसे दिखाता है वह दर असल कोरे कैनवास ही होते हैं,,, क्योंकि बेशकीमती मिनियेचर तो उनकी पत्नी और बेटी ने बेच दिये थे,,, स्थिति सामान्य करने के लिए/ खरीदने वाले किशोरी लाल के प्रति पहले घृणा भाव दिखता है पर जब वह बूढ़े आर्टिस्ट के कहने पर तसवीर की तारीफ नही करता जो कोरे कागज ही होते है तो बेटी के इशारे को समझ कर वह कहता है कि चुप्पी ही जुबान है,,,, / 

ऐसे बहुत से अद्भुत संवाद है इसमे / जब वह जाने लगते है तो वह कहते हैं कि जब स्थित सामान्य हो जायेगी तो हम फिर आयेगे और अपना मकान तुमसे खरीद लेगे,,, पेशगी अन्दर रखी है,,,, जब खरीदने वाला उस पेशगी को देखता है तो वह आर्टिस्ट के हाथों से बनाई राधा कृष्ण की तसवीर होती है,,,, 


शुरु मे जब वह अपनी बेटी नूर के साथ चाय पीते है तो कहते है कि प्याले मे आखिरी घूट छोड़ देना क्यो कि वह जूनागढ़ की याद दिलाती है और वापसी की भी,,, ऐसा ही कुछ अभूतपूर्व संवाद थे ये,,,, 

विभाजन पर केन्द्रित इस फिल्म मे नसीरुद्दीन शाह, ने बेहतरीन अभिनय किया / साथ ही सभी ने परिपक्व अभिनय किया,,,, जिनमे,,,, राशिका  दुग्गल, राज अर्जुन, पद्मावती राव उदय चंद्र, शामिल है/ संगीत और वातावरण के साथ एडिटिंग बेहतरीन थे / 

निर्देशन कौशल झा का था / 


फिल्म आधे घंटे की थी पर भाई बीजू नेगी द्वारा उसपर दर्शको से चर्चा करने की सार्थक पहल यादगार रही / हिन्द स्वाज्य की टीम ने जगह जगह इसे और अन्य फिल्म व विभिन्न विधाओं को प्रदर्शित व चर्चा करने का भी निर्णय लिया / 


इसमे चन्द्र शेखर तिवारी, विजय भट्ट हरिओम पालीअरुण कुमार असफल , इन्देश नौटियाल और युवाओं ने सक्रिय भागीदारी की / 


(सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार दी जा रही हैं) 

Tuesday, September 26, 2023

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों के साथ कवि अतुल शर्मा

देहरादून के रचनात्मक माहौल पर यदि एक निगाह डाली जाए तो कविताओं की बनिस्पत कहानियों की एक विस्तृत दुनिया दिखायी देती है। यहां तक कि कवियों की तरह ही जिन रचनाकारों ने अपने लेखन की शुरुआत की और सतत कविताएं लिखते भी रहे, उन रचनाकारों को भी कहानीकार के रूप में ही पहचाना गया। अकेले ओम प्रकाश वाल्मिकि ही इसके उदाहरण नहीं, जितेन ठाकुर का नाम भी उल्लेखनीय है।

अब यदि विस्मृति की गुफा में झांके तो देशबंधु और विवेक मोहन दो ऐसे कथाकारों की छवि उभरती है जो अपनी शुरुआती कहानियों से ही देहरादून के साहित्य समाज में अपनी अलग छवि के रूप में चमक उठे थे। लेकिन काल की अबूझ गति को उनकी रोशनी भाई नहीं शायद और असमय ही वे इस दुनिया को छोड़ गये।

विवेक मोहन ने कई महत्वपूर्ण कहानियां लिखी जो 90 c आस पास निकलने वाली लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है।

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों को सांझा कर रहे हैं, लेखक और कवि अतुल शर्मा। 


अतुल शर्मा

वृंदा एनक्लेव फेज़ बंजारा वाला देहरादून




बात चालीस साल से भी पहले की होगी,,,,, पल्टन बाजार मे एक जूतों की दुकान थी । घंटाघर से जहाँ पल्टन बाजार शुरू ही होता है उसके सामने इलाहाबाद बैंक होता था और उसी की दीवार पर एक गोल और बडी़ घड़ी लगी रहती थी,,, पल्टन बाजार की तरफ । बस उसी घड़ी के ठीक सामने यह दुकान थी । हुआ यह कि एक दिन तेज़ बारिश से बचने के लिए मै इस जूतों की दुकान से चला गया । मैने पूछा कि क्या मै यहाँ बारिश रुकने तक रह सकता हूँ तो वहाँ उपस्थित व्यक्ति ने हामी भरी और मुस्कुराते हुए मुझे एक स्टूल भी दिया बैठने के लिए । बारिश लगभग ढाई घंटे तक नहीं रुकी । और इस ढ़ाई घंटे मे उस व्यक्ति से लम्बी बात चीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह इस संस्मरण लिखने तक जारी है,,, यही थे विवेक मोहन। वैसे नाम तो उनका बाबा दत्ता था पर कहानी लिखने के सिलसिले ने उन्होंने अपना नाम विवेक मोहन रख लिया । फिर तो जब भी उस तरफ जाते तो उस दुकान मे ज़रूर बैठना होता । वह ऐसी दुकान थी जहाँ खरीदार कम ही आते थे । लेडीज़ सैंडिल और चप्पल ज़यादा थीं । वही साहित्य चर्चा होती । मेरी एक कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान मे छपी थी तो उनके अनुरोध पर आनन्द पुरी मे जलेबी खाई गयी । भगवानदास क्वाटर्स मे सीढ़ियां चढ़ कर उनका घर था । भाभी जी और बिटिया रम्पी से वहीं मुलाकात हुई थी । घर मे पुरानी पत्रिकाओं को विवेक ने सम्भाल कर रखा था । उनमे से एक थी,,,, देहरादून से छपने वाली पत्रिका ' छवि' यह शायद सन् 60 के आसपास भास्कर प्रेस से छपती थी । इस अंक मे शेर जंग गर्ग, कहानी कार शशिप्रभा शास्त्री, कहानी कार राजेन्द्र कुमार, आदि की रचनाये छपी थीं। 

वहीं पर पहली बार मैने विवेक मोहन की कहानियों का रजिस्टर और बैग देखा जिसमे पन्द्रह बीस कहानियाँ थी । उनकी एक लम्बी कहानी " तबेले" वहीं सुनी । बहुत अच्छी और सशक्त कहानी थी यह । ऐसा माहौल बनता था कहानी मे जो दृष्य पैदा कर देता था । पात्र और उनकी परिस्थितियों का बारीक वर्णन । चर्चा आगे बढ़ना तो मैने कहा कि भाई इसको संग्रह के रूप मे लाओ,,,, मुश्किल काम था पर प्रयास किया,,, और सफलता नही मिली । 

पर उससे पहले एक और कठिन काम था कि इन सारी कहानियों को पढा़ गया । एक कहानी लगभग पंद्रह या दस पेज की तो थी ही। कभी जूतों की दुकान मे, कभी हमारे सुभाष रोड स्थित मकान मे, कभी गांधी पार्क तो कभी रेंजर्स कालेज ग्राउण्ड मे कहानी पढ़ी गयीं । बहुत जबरदस्त कहानियाँ थीं । वास्तविकता के करीब । सरल शब्दों । बोलचाल की भाषा । और उनके प्रति गम्भीरता। 

विवेक भाई अब हमारे पारिवारिक सदस्य की तरह हो गये थे । सुबह ही घर आ जाते और दोपहर खाना खा कर ही जाते । 

उन्हे जगजीत सिंह की ग़ज़लें बहुत पसंद थीं । कहते कि इनमे गले बाजी बहुत कम है और सहज हैं। अखबार लेते थे पंजाब केसरी। उसमे उनकी कहानी भी छपी थी । 

एक बार उनके घर कहानीकार सैली बलजीत आये तो मैने अपने घर पर एक गोष्ठी रखी थी,,,, वहाँ बहुत से रचनाकारों को भी बुलाया था । बलजीत ने विवेक मोहन की कहानी पढ़ी थी और विवेक ने सैली बलजीत की । 

आज सुबह जब भाई विजय गौड़ ने विवेक मोहन पर लिखने को कहा तो बहुत सी यादें आ बैठीं मेरे पास । 

हमने एक सिलसिला शुरू किया था कि महीने मे एक बार किसी रचना कार के घर जाते और गोष्ठी होतीं । उस रचनाकार को एक मोमेंट भी दिया जाता । इसी सिलसिले मे विवेक मोहन के घर भी गोष्ठी हुई थी । 

बहुत सी स्मृतियाँ है । 

एक दिन विवेक आये तो उनकी सांस फूल रही थी । बात करते हुए खांसी भी आ रही थी । वह अपना बैग संभाल कर बैठ गये । और बताया कि आज गाधी पार्क मे एक कहानी की शुरुआत की है । उन्होंने बैग से एक पत्रिका निकाली और मेरी तरफ बढायी । यह सारिका थी । मैने पन्ने पलटे तो उसमे मेरी कहानी छपी थी,,,, " पार्क की बैंच पर चश्मा"। नैशनल न्यूज़ एजेन्सी से खरीद कर लाये थे वे । उनके चेहरे की मुस्कान नहीं भूल पाता । 

 

वे बाहर गये हुए थे । काफी दिन वहाँ रहे । और फिर कभी नही आये । 

वहीं उनका देहांत हो गया । मन शोक से भर गया । 

 

पर वे जीवित है यादों मे। बहुत सी यादे है,,,, 

दून स्कूल मे एक गोष्ठी आयोजित की तो वहाँ विवेक भाई ने कहानी सुनाई तो रचनाकार अवधेश कुमार ने कहा कि ये तो प्रसिद्ध कहानी द कार्पेट से मिलती जुलती है,,,, उसके बाद विवेक न दो महीने तक द कार्पेट कहानी ढूंढ निकाली और पढी़ ,,,, वह कहानी विवेक की कहानी से अलग थी पर उसमे भी कालीन का जिक्र था और इसमे भी,,, अवधेश बहुत गम्भीर रचनाकार थे तो उनकी बात को भी विवेक ने गम्भीर होकर समझा और अपनी कहानी मे बदलाव की सोचने लगे,,, फिर बदलाव नही कर पाये, वे बस कालीन हटा कर कुछ और करना चाहते थे । 

 

एक गम्भीर कहानीकार और सह्रदय इंसान के रूप मे वे आज भी मेरी यादों मे हैं  

 


Monday, September 11, 2023

उपेक्षित भेंट

उपभोक्तावादी मानसिकता ने जीवन की आधारभूत जरूरतों को ही ठिकाने नहीं लगाया, अपितु ज्ञान विज्ञान के प्रति भी सामाजिक उपेक्षा के भाव को स्थापित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है. पुस्तकों से दूरी बनाते भारतीय समाज की प्रवृति उसका एक उदाहरण है. यहां तक कि उपभोक्तावादी मूल्यबोध से प्रभावित भारतीय मानस दुनिया के किसी भी कौने मेंं निवास करते हुए भी उसकी गिरफ्त से बाहर नहींं है. 
अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच आस्ट्रेलिया प्रवास मेंं रहते हुए, कथाकार मित्र दिनेश चंद्र जोशी ने एक ऐसी ही स्थिति को हमारे साथ शेयर करना जरूरी समझा है. तो पढ़ते हैं दिनेश चंद्र जोशी का ताजा संस्मरण -   उपेक्षित भेंट   
               

    दिनेश चंद्र जोशी





बच्चों के जन्मदिन के बहाने,कभी कभी ऐसा भी होता है,कि हमें विश्व के क्लासिक बाल कथा साहित्य से साक्षात्कार का मौका मिल जाता है। ऐसा ही अनुभव प्रवास के दौरान हुआ,जब घर में बच्चे का जन्मदिन मनाने के बाद प्राप्त हुए उपहारों में एक बड़े से मोटे और भारी  आयताकार उपहार का रंगीन आवरण हटाने के बाद प्राप्त पुस्तक को देख कर हुआ। 
हार्डबाउन्ड,ग्यारह गुणा नौ इंच आकार की इस किताब का नाम है,'द कम्पलीट एडवैंचर आफ स्नगलपाट एंड कडलपाई'।
इस किताब की लेखिका व चित्रकार का नाम है 'मे गिब्स'।
अन्य खिलोनेनुमा आकर्षक उपहारों के बीच इस किताब की स्थिति उपेक्षित सी हो गई थी,तथा इसकी प्राप्ति पर घर में कोई हर्ष,उल्लास, उत्तेजना या चर्चा भी नहीं हुई, हां, इतना जरूर पता चला कि जन्मदिन के दौरान भिन्न भिन्न संस्कृति के बच्चों व उपस्थित अभिभावकों में से एक,चायनीज बच्चे के मां,पिता द्वारा यह पुस्तक भेंट की गयी है।


यह पुस्तक,बच्चों को तो छोड़ दें,बड़ों के लिए भी कोई उत्साह व जिज्ञासा का सबब न बन कर अल्मारी में अन्य पुस्तकों के साथ अटा सटा दी गयी थी।
तीसरे चौथे दिन बाद मेरी नज़र उस किताब पर पड़ी और जिज्ञासावश गौर से उसके पृष्ठ पलटे तो भान हुआ,यह तो विश्व स्तरीय बाल साहित्य की प्रसिद्ध कृति है। 
किताब की लेखिका 'मे गिब्स' का परिचय पढ़ा तो और गहरी जानकारियां पता चली। 
लगभग एक शताब्दी पूर्व उन्नीस सौ अठारह में इस पुस्तक का पहला प्रकाशन आस्ट्रेलिया में हुआ था।
'मे गिब्स' का जन्म 1877 में इंग्लेंड में चित्रकार माता पिता के घर में हुआ। कुछ समय पश्चात ही यह परिवार आस्ट्रेलिया में बस गया। अपने पोनी (खच्चर) पर सवार हो कर खेत खलिहानों, झाड़ियों की सैर करती आठ दस वर्ष की उम्र की बच्ची 'मे गिब्स' ने उन भू दृश्यों व झाड़ियों के चित्र बनाने और उनके बारे में लिखना प्रारम्भ कर दिया था।
उनके बाद के चित्रों व लेखन में बचपन की इन प्राकृतिक सैरों की स्मृति व कल्पनाशीलता से रचे पगे अनुभवों के आधार पर नाना प्रकार के जीव जन्तुओं के अवतारवादी रुपांकन की तकनीक का विस्तार पाया जाता है‌। इस तरह के उनके रचनात्मक काम को 'एन्थ्रोमार्फिक बुश सैटिंग' के विशेषण व विधा के तौर पर ख्याति प्राप्त हुई। 

चित्रों के रेखांकन की विशेषता के साथ इस किताब के पाठ व चरित्रों का संसार इतना अद्भुत व अनोखा है कि काफी दिनों तक उनकी छवि मनोमस्तिष्क में घुमड़ती रहती है। किताब में दो छोटे गमनट भाईयों और उनके दोस्तों की ऐसी चित्ताकर्षक कथा है जिसने कई पीढ़ियों तक बच्चों के दिल,दिमाग व कल्पना पर राज किया है। इसके चरित्र अन्यथा उपेक्षित से,पेड़ पौधों खासकर युक्लिपटस पेड़ के नट,फल,फूल,डंठल, कलियां,फलियां हैं जिनको नवजात व बच्चों के प्रतीकों में दर्शाती व मानवीय रूप व्यवहार में तब्दील करती हुई चित्रकथायें हैं।
कीड़े,मकोड़े,चींटियां,मकड़ी,टिड्डी, मिस्टर लिज़ार्ड,छिपकली, मेंढक,मिसेज फिनटेल (चिड़ियां),पौसम (बिज्जूनुमा आस्ट्रेलियाई जीव) बंदर,मिस्टर बियर,कुकूबरा जैसे असंख्य अन्य सहायक पात्र हैं। बंकाशिया,जो भूरे काले रंग के कोननुमा बहुमुखी विभत्स मानव हैं, इन निर्दोष जीवों को नुक़सान पहुंचाने वाले खलनायक पात्रों के रूप में वर्णित व चित्रित हैं। इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने पर कथारस के साथ साथ  कीट पतिंगों की दुनिया व वनस्पतियों के संसार के प्रति प्रेम व सहानुभूति का ऐसा रिश्ता कायम होता है जो विकास के नाम पर जैवविविधता के नष्ट होने के सूक्ष्म षडयंत्रों का प्रतिकार करने की भावना व चेतना प्रदान करता है।  
अपने पहले प्रकाशन पर ही इस किताब की 17000 प्रतियों की बिक्री का जिक्र इसकी अपार लोकप्रियता को दर्शाता है। लेखिका की चार अन्य किताबें ऐसी ही विषय वस्तुओं को लेकर 1920 से 1924 के दौरान प्रकाशित हुई। प्रकाशन के शताब्दी वर्ष 2021 में उनके समग्र लेखन व चित्रांकन को समेटे हुए इस डीलक्स संस्करण की मांग व चर्चा पुनः हो रही है।
बाल साहित्य को लेकर ऐसा सृजन, प्रकाशन, मांग व उत्साह हमारे यहां कम देखने को मिलता है,जब कि पंचतंत्र से लेकर वेद पुराण, महाभारत की उप कथाओं का भंडार बाल साहित्य से सम्बद्ध है। ऐसे वृहत बालकथा ग्रंथ के प्रकाशन की कल्पना तो अपने हिंदी भाषा क्षेत्र में हम बमुश्किल ही कर सकते हैं। 

'स्कालास्टिक प्राइवेट लिमिटेड ग्रुप की इस वैश्विक प्रकाशन संस्था का कार्यालय दिल्ली में भी है,जिसके आस्ट्रेलिया कार्यालय ने यह किताब प्रकाशित की है। हो सकता है वे,अन्य भारतीय भाषाओं या अंग्रेजी में ऐसा प्रकाशन करते हों, मुझे जानकारी नहीं है।
बाल साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस चित्रकार लेखिका को आस्ट्रेलिया सरकार द्वारा,सन 1955 में सम्मान स्वरूप ब्रिटिश राजशाही की सदस्यता हेतु मनोनीत किया गया था।
1969 में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के पश्चात भी उनके नाम का डाक टिकट जारी करने के अलावा जन्मशताब्दी वर्ष  में उनके नाम पर स्थलों, मुहल्लों यहां तक की टूरिस्ट नौकाओं व जहाजों के नाम तक रखने के उदाहरण बताते हैं कि अपने दिवंगत साहित्यकार,कलाकारों का कैसा सम्मान इन देशों में होता है।
जैसा कि हर लोकप्रिय कृति के साथ कोई न कोई विवाद या वितंडा पैदा हो जाता है,इस किताब के साथ भी हुआ। एक आरोप तो लेखिका पर अति शुचितावादियों ने यह लगाया कि बाल पात्रों के चित्रांकन में नग्नता है जो पीडोफोलिक मनोवृत्ति को उकसाने हेतु प्रेरक हो सकती है। तथा दूसरा, 'किताब के खलनायक चरित्र बंकाशिया मानवों के चित्रण व वर्णन से आस्ट्रेलियाई आदिवासी समुदाय की समानता झलकने के कारण उनके प्रति रंगभेदी नश्लीय भेदभाव प्रकट होता है।'
इन असंगत आरोपों के प्रभाव ने यहां तक जीत हासिल की कि बाद के नये संस्करणों में एकाधिक अध्यायों में परिष्कार भी किया गया है। रंगभेद अध्येताओं व विमर्शकारों द्वारा तात्कालिक समाज व परिस्थितियों में लेखिका के अवचेतन में मौजूद इन ग्रन्थियों को जांचने परखने में पूर्वाग्रहग्रस्त होने के कारण उनके निर्दोष सृजन को कठघरे में खड़ा करने के ये विवाद कितने वजनदार हैं,कह नहीं सकते।
पर इतना तय है कि आधुनिक और उन्नत होने के बावजूद नैतिकतावादी शुचिता की पहरेदारी में ये देश भी कम नहीं हैं। यदा कदा पुस्तकालयों व बुकस्टालों से आपत्तिजनक संदिग्ध किताबों की जब्ती और आर्ट गैलरियों में वास्तु व कलाकृतियों पर,अशिष्टता के शक में छापे मारे जाने की ख़बरें सुनकर जहां ताज्जुब होता है वहीं राहत भी मिलती है कि ऐसा जुल्म तो अभिव्यक्ति की आजादी पर कम से कम अपने यहां तो नहीं होता है।
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Alokuthi

Saturday, September 2, 2023

पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई है कहानी

19.08.2023 को प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित कथाकार नवीन कुमार नैैैैैैैथानी द्वारा सम्मान समारोह के अवसर पर दिया गया वक्तव्य



आदरणीय मंच तथा इस सभागार में उपस्थित विद्वानों एवम मित्रों को मेरा विनम्र अभिवादन. 

सबसे पहले तो मैं ‘प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 ’ की आयोजन समिति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे आयोजन में सम्मिलित होने का अवसर प्रदान किया.` मैं निर्णायक मण्डल का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ जैसे अल्प-ज्ञात रचनाकार को खोज कर आपके सामने प्रस्तुत किया है.इस सम्मान को पाकर मुझे जो खुशी हुई है उसका वर्णन करना संभव नहीं.फिर भी मैं कुछ कहने की कोशिश करूँगा. 

मित्रों , 

यहाँ खड़े होकर मैं अपने आपको थोड़ा गर्वित महसूस कर रहा हूँ और यह भी सच है कि मुझे किंचित संकोच का भी अनुभव हो रहा है.गर्व होने का कारण है कि यह सम्मान इलाहाबाद की धरती पर मिल रहा है जहाँ साहित्य तथा संस्कृति की गंगा-यमुना एकाकार होकर सदियों से इस महादेश को एकता का सन्देश देती आयी हैं.साहित्य के विराट व्यक्तित्वों की इस कर्म-भूमि में खड़े होते हुए स्वाभाविक ही है कि आप उनके सामने नतमस्तक होकर संकोच का अनुभव करें कि आप इस योग्य हैं भी या नहीं. 

लेकिन जब अपने ही बीच के लेखक आप पर भरोसा जताते हैं तो अपने लिखने की सार्थकता का अनुभव होता है.मेरे लिये यह भी गर्व करने का क्षण है कि निर्णायक मण्डल में मेरे अत्यन्त प्रिय कथाकार सम्मिलित हैं. मैं इस सम्मान को इस तरह से भी देख रहा हूँ कि यह अपनों के द्वारा दिया जा रहा है और यह मेरे लिये बड़ी बात है क्योंकि अपनों के बीच सम्मान पाना आपको बाहर और भीतर दोनों तरह से देर तक भिगोता है.
मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है.

यह मेरी दूसरी इलाहाबाद यात्रा है. पहली बार सन 2003 में इलाहाबाद आया था , अभिविन्यास कार्य-क्रम था- इलाहाबाद विश्व-विद्यालय में.लेकिन इलाहाबाद बहुत पहले से मेरे भीतर बसा हुआ था. दरअसल, लेखन के शुरुआती दौर में मुझे गिरिराज किशोर जी के संपर्क में आने का अवसर मिला.वे पिछली सदी में नौवे दशक के ढलते हुए साल थे. कुछ दिनों के लिये मैं आई आई टी कानपुर की रमन रिसर्च लैब में काम के सिलसिले में गया हुआ था. उस वक्त गिरिराज जी वहाँ रचनात्मक लेखन केन्द्र स्थापित कर उसकी गतिविधियां चला रहे थे. वहीं मेरा उनसे परिचय हुआ परिचय हुआ. वे इलाहाबाद का जिक्र करते हुए कहते थे कि लेखक को उपेक्षा सहने का अभ्यास होना चाहिए. और इस बात का उदाहरण देते हुए वे अपने इलाहाबाद के दिनों को याद करते हुए कहते थे , “ वहाँ लोगों ने मुझे तब तक लेखक नहीं माना जब तक कि मेरा उपन्यास ‘ लोग ’ नहीं छप गया” 

मैं आज गिरिराज जी को याद कर रहा हूं तो उसका एक दूसरा कारण भी है.जैसा कि मैंने अभी कहा है वे मेरे लिखने के शुरुआती दिन थे.गिरिराज जी से संपर्क लेकिन निरन्तर बना रहा.वे मेरी कहानियां पढ़ते और अपनी राय देते. उसी वक्त एक बार मुझे लगा कि मेरे लिये अब लिखना संभव नहीं रह जायेगा.हुआ यूँ था कि मैं काफ़्का की कहानी मेटामार्फोसिस पढ़कर उसके सम्मोहन में जकड़ा हुआ था.मुझे लगने लगा था कि मेरे लिये लिखना अब संभव नहीं होगा. अपना लिखा हर शब्द व्यर्थ लगने लगा था. तब मैंने इस बारे में गिरिराज जी को पत्र लिखा था.उनका जवाब मिला था- साहित्य तो एक समुद्र है,जो भी पत्थर उठाओगे, उसके नीचे एक अनमोल रत्न मिल जायेगा. उस पत्र ने मुझे न लिख पाने की स्थिति से उबार लिया था और आज मैं आपके बीच एक लेखक की हैसियत से मौजूद हूँ.यह बहुत सही अवसर है कि मैं गिरिराज जी के इस ॠण को विनम्रतापूर्वक याद करूं. 

किसी भी लेखक के होने के पीछे उसके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों का योगदान होता है. लेखकों की इस बिरादरी में भाषा, राष्ट्र, भूगोल और संस्कृतियों की तमाम सरहदें मिट जाती हैं. यहाँ यह कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि ठीक- ठीक कौन सी चीज किस लेखक के यहाँ से हमने सीखी. और कभी कभी तो यह सीखना एक छलावे की तरह होता है- जैसे बहुत सारी छायाएं एक दूसरे में घुली मिली हमारे सपनों के भीतर दाखिल हो गयी हों. शायद यह हर लेखक के साथ होता है. मेरे साथ भी हुआ है.लेखकों की इस बिरादरी में कुछ लेखकों को पढ़कर ऐसा लगा जैसे वे मेरे दिल के बहुत नज़दीक कहीं बसे हुए हैं. इस बसाहट में प्रिय लेखकों का आना जाना निरन्तर बना रहा है. जैसे कोई लेखक बहुत दिनों तक वहां बने रहे, फिर कोई दूसरे लेखक न जाने कौन सी सरहद लाँघ कर चले आये. कुछ ऐसे भी लेखक रहे जो बार- बार यहां लौट आये. लेकिन फिर भी चेखव के असर से कोई भी कहानीकार कहाँ बच सका है. मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है. 

कहानी की बात करते हुए आप मुझे इजाजत दें कि मैं अपने बचपन की कुछ बातें आपके साथ साझा करूं क्योंकि इन बातों के भीतर जो शहर है वह बाहर से शायद काफी बदल चुका है लेकिन मेरे भीतर वह अभी भी वैसा ही है जैसा सन 1969 से 1971 के दरम्यान था.वह शहर है नैनीताल ! मेरे बचपन के लगभग ढाई साल नैनीताल में गुजरे हैं ! उन दिनों हम जिस इमारत में रहा करते थे उसका नाम ईटन हाउस था. वह इमारत शायद अब भी वहीं है. उसका वह नाम बचा रह गया है या बदल गया है यह मैं नहीं जानता. उम्मीद करता हूं कि शहरों के नाम बदलने की रवायतें अभी इमारतों तक नहीं पहुँची होंगी. और अगर बदल भी गया हो तो भी मेरी स्मृतियों में उस जगह की जो खुश्बुएं बसी हुई हैं वे ईटन हाउस नाम के साथ ही जागती हैं. और बरसात के दिनों की वे बारिश में नहायी गीली गन्ध- बिच्छू घास की झाड़ियों के पास उठती हुईं. वहाँ बच्चे एक खेल खेला करते थे- वह छुपम-छुपाई का खेल होता था. बादल जब भी इजाजत देते ,बच्चे घरों से बाहर निकल जाते और खेल शुरू हो जाता.इस खेल के लिए किसी गेंद की भी जरूरत न पड़ती. सड़क में पड़े किसी खाली डिब्बे से काम चल जाता. उस खाली डिब्बे को बीच में रख देते थे. कोई बलिष्ठ लड़का उस डब्बे को जितनी दूर तक संभव होता , लात मारकर पहुंचा देता .अब जिस लड़के की बारी होती , उसका काम होता कि वह उस डब्बे को ढूंढ कर लाये और तय स्थान पर रख दे.जितना समय उसे डिब्बे को खोज कर लाने में लगता उतनी देर में दूसरे सब बच्चे इधर-उधर छिप जाते.छिपने के इस खेल में सबसे अधिक मेरी नज़रों के बीच वह लड़का होता जो उस डिब्बे को खोज कर बाकी लोगों को ढूंढ रहा है. आज भी वह दृश्य मेरी आँखों के सामने है. ज्यादातर यह होता कि वह डिब्बा आसानी से हाथ नहीं आता. दिखायी तो देता , लेकिन थोड़ा छुपा- छुपा सा. कई बार तो वह बिच्छू घास के बीच दुबक जाता ! कई बार तो यह भी होता कि जब डब्बा हाथ में आता तो हाथ लहू-लुहान हो चुके होते. बिच्छू घास ही नहीं , वह डब्बा कई बार कंटीली झाड़ियों के बीच पाया जाता.बाद के वर्षों में जब भी मैं उस दृश्य को याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि अभी तक वह लड़का मेरे भीतर है . बल्कि वह लड़का मैं ही हूं . मुझे लगता है कि मेरे लिये कहानी भी उस डिब्बे की तरह है . दिखती हुई लेकिन छुपी हुई पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई. 

उस कहानी को पकड़ने के लिए कई बार – बल्कि ज्यादातर –आप अपने भीतर भी उतर जाते हैं .अक्सर लगता है कि जिसे आप बाहर ढूँढ रहे थे वह कहीं भीतर तो नहीं है ?बाहर से भीतर की यह यात्रा कई बार कष्टप्रद हो उठती है. कई बार तो यह भी नहीं मालूम होता कि आप किसकी तलाश में निकले थे!मेरे लिये कहानी लिखना उस यात्रा में निकलने की तरह है जहाँ मौसम साफ नहीं है, रास्ते बने हुए नहीं हैं और गन्तव्य अनिश्चित है.. 

यह सवाल अक्सर लेखकों से पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं या उनके लिखने के क्या मायने हैं? मेरे लिये इस तरह के सवालों का जवाब देना मुश्किल है. एक बात यह समझ में आती है कि लिखना एक तरह से चीजों और स्मृतियों को दर्ज करना है.बल्गारियन लेखक जिओर्गी गोस्पोदिनोव ने बूढ़े होने के साथ विस्मृतियों को केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिखा है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘टाइम शेल्टर’ नाम से छपा है. इसमें एक जगह वे कहते हैं, ‘अगर आप किसी की स्मृतियों में नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है.’ 

मैं कहानी लिखता हूँ तो जाहिर है कि मुझे जो भी कुछ कहना होगा वह मैं कहानी लिखकर ही कहूँगा.मुझसे कई बार पूछा गया है कि तुम इस कहानी में क्या कहना चाहते हो? मेरा जवाब होता है- मैं नहीं जानता . अगर मैं जानता होता तो कोई लेख लिखता, कहानी नहीं लिखता. लेकिन फिर भी मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे ऐसे संपादक मिले जिन्होंने जोखिम लेते हुए मेरी कहानियों पर भरोसा जताया.राजेन्द्र यादव तो नये लेखकों को उत्साहित करते ही थे .नये लेखकों पर भरोसा जताते हुए अप्रतिम कथाकार सत्येन कुमार ने ‘ कहानियाँ-मासिक चयन’ का प्रकाशन शुरू किया था. यहाँ मैं हरिनारायण जी की कथादेश का जिक्र विशेष सन्दर्भ में करना चाहूँगा. यह देखना आपके लिये भी दिलचस्प होगा कि एक संपादक और आलोचक किस तरह किसी लेखक की रचनात्मकता में सहायक हो सकते हैं.कथादेश में मेरी पहली कहानी छपी थी, ‘चोर-घटड़ा’. इसे छापते हुए पत्रिका ने एक स्तंभ शुरु किया था – गहरे पैठ. इसके साथ संपादकीय टिप्पणी इस तरह जाती थी कि कुछ कहानियाँ होती हैं जो सर के ऊपर से निकल जाती हैं. किसी कहानी लेखक के लिये यह कोई बहुत उत्साह- वर्धक स्थिति नहीं है कि उसकी कहानियाँ पाठक की समझ में नहीं आतीं. उस वक्त मैं मानता था – और आज भी मानता हूँ कि अगर कोई चीज मेरे भीतर है तो वह किसी दूसरे मनुष्य के भीतर भी होगी. खैर, उस स्तंभ की विशेषता थी कि अगले अंक में उस कहानी पर दो जिम्मेदार लेखकों की टिप्पणियां छपा करती थी. तो, ‘चोर-घटड़ा ’ कहानी पर सुरेश उनियाल और अर्चना वर्मा की टिप्पणियाँ छपीं. तब तक मैं सौरी को केन्द्र बनाकर चार-पाँच कहानियाँ लिख चुका था. अर्चना जी ने अपनी टिप्पणी में ध्यान दिलाया कि सौरी का एक अर्थ प्रसूति-गृह भी होता है.तब तक सौरी की परिकल्पना पूरी तरह से आकार नहीं ले सकी थी. अर्चना जी की टिप्पणी के बाद ‘पारस’ कहानी में सौरी अपने सही अर्थ को पा सकी. कई बार इस तरह से आलोचना भी रचना को मांझती है. लेकिन इसके लिये अर्चना वर्मा जैसे संवेदनशील आलोचक की जरूरत पड़ती है. अर्चना जी अब हमारे बीच नहीं हैं. मैं इस अवसर पर उनके योगदान को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूँ. 

यह मेरे लिये एक तरह का अपराध ही होगा अगर मैं अपने शहर देहरादून का जिक्र न करूँ जिसने मेरे भीतर के लेखक को गढ़ा.इस शहर में कही हरजीत और अवधेश भी रहते थे जिनके साथ अनगिन शामें साहित्य और कलाओं की चर्चा करते हुए अगली सुबह में बदल जाती थीं. देहरादून की एक विशेषता है- व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक स्नेह और प्रेम का व्यवहार किया जाता है लेकिन मित्रों की रचनाओं की प्रशंसा से भरसक बचने की कोशिश की जाती है.विशेष रूप से सम्मुख – प्रशंसा. इसे हम चिरायता प्रेम कहा करते हैं. यह खाने में कड़वा होता है लेकिन स्वास्थ्य के लिये लाभदायक ही सिद्ध होता है. इस शहर के अनौपचारिक महौल में मैंने अपनी बहुत सी कहानियों का पहला पाठ किया और मित्रों की प्रतिक्रिया के बाद उनको फिर फिर लिखा. मैं देहरादून के अपने मित्रों को याद करते हुए यह सम्मान विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ. 

एक बार पुनः आप सबका आभार.