Tuesday, April 7, 2015

सिंगिंग बेल

जब भी एक सहज-सरल व्‍यक्ति का जिक्र करना हो, मेरी स्‍मृतियों में जो चेहरा कौंधता है, पाता हूं कि वह हिन्‍दी के कथाकार सुभाष पंत से मिलता जुलता है । उसकी आंखें, उसके बोलने का ढंग और किसी भी भाव के प्रति एक अपने ही तरह की तटस्‍थता में वह ऐसा शख्‍स नजर आता है जिसे मैं उम्र के अंतर के बावजूद बिना औपचारिक हुए दोस्‍ताने के संग साथ की तरह करीब पाता हूं । आत्‍मीयता का अनोखापन भी सुभाष पंत के यहां उसी तटस्‍थता में रहता है। जिसे उनके इस पत्र में भी देखा जा सकता है । 
प्रिय विजय,
नए कहानी संकलन की पांडुलिपि भिजवा रहा हूँ। इसकी अंतिम कहानी पुराने ढंग की  लेकिन सकारात्मक कहानी है, ऐसी कहानियाँ आजकल लिखी नहीं जा रहीं। लेकिन मुझे लगा ऐसी कहानियाँ लिखी जानी जरूरी है। पहल को भेजी है। अभी निर्णय का पता नहीं। इस कहानी को छोड़कर तुम जो भी कहानी चाहो अपने ब्लाग में उपयोग कर सकते हो। उपन्यास प्रकाशन की प्रगति के बारे में बताना।

तुम्हारा, सुभाष पंत

यह पत्र उन्‍होंने मुझे अपने नये संग्रह की पांडुलिपि भेजते हुए मेल किया। सच, यह खुशी की बात है कि पंत जी अपने नये संकलन की तैयारी में हैं ओर सतत् रचनाशील । सामांतर कहानी आंदोलन दौर के कुछ एक कहानीकारों में सुभाष पंत का नाम प्रमुख है। पहाड़ चोर उनका एक महतवपूर्ण उपन्‍यास है। उनकी कहानियां सामान्‍य जन के जीवन घटनाक्रमों काे अपना विषय बनाती हैं एवं उनकी दृष्टि से ही अमानवीयता की मुखालफत में खड़ी होती हैं। सिंगिंग बेल पहल की दूसरी पारी में प्रकाशित हुई उनकी एक ऐसी ही कहानी है। इस कहानी की विशेषता यह भी है कि यह मंचन की संभावनाओं से युक्‍त है। 

वि.गौ.
सुभाष पंत
मारिया डिसूजा ने आँखें उठाकर हिलक्वीन की खिड़की से बाहर झांका। काली, गहरी, नम धुंध फैली हुर्इ थी। एक भूरा-काला सैलाब, जिसमें पहाड़ के शिखर, घाटी, पेड़, सड़के और मकान और गिरजाघर सब डूब गए थे।
   एकाएक उसके भीतर जैसे कुछ टूट गया। उसने गले में लटकते क्रास को उंगलियों से टटोला। हर बार उसने मौसम में छाए कोहरे को देखा था, लेकिन उसमें गिरजाघर पूरी तरह खो गया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ।
   कोहरा बेआवाज़ शीशों पर नमी की परत की तरह फैल रहा था और एक बेचैन सी आवाज़ के साथ टिन की छत से बूँदों में टपक रहा था।
   और बफऱ् पड़ने का कोर्इ आसार नहीं।
   बफऱ् गिरने से पहले वह उसका गिरना जान लेती है। उसके पैर के तलुवों में गुदगुदी होने लगती है, जैसे उन्हें कोर्इ नाजुक उंगलियों से सहला रहा हो। मौसम कभी चोरी छुपे नहीं आता। वह एक खुली किताब है, जिसके हर पन्ने पर उसका बयान लिखा होता है। बफऱ् की चादर फैलाता ठंडा कोहरा नसों मे बरस रहा था, लेकिन बफऱ्बारी का कोर्इ आसार नहीं था।
   वह उदास हो गर्इ। आदमी ही नहीं, मौसम भी बेर्इमान हो गए। अनायास उसके मुँह से आह निकली, और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही।
   उसने गले में स्कार्फ बांधा और फिरन पहन लिया, जो अब उसके बदन पर तंग था। उसका लाल रंग अपनी आभा खो चुका था। कालर और आस्तीनों की सफेद कढ़ार्इ मटमैली पड़ गर्इ थी और कपड़ा कर्इ जगह से इतना झिरक गया था कि उसकी मरम्मत नहीं हो सकती थी। वह उसे बहुत एतिहात से पहनती, ताकि अपनी अंतिम साँस तक उसे पहनती रह सके। वह उसे अपनी अंतिम साँस तक पहनना चाहती थी।
   इसे डेविड काश्मीर से उसके लिए लाया था। चालीस बरस पहले। वह उसे पहन कर निकलती तो बर्फ में आग लग जाती। तब वह बीस साल की खूबसूरत लड़की थी।
   उसने चर्च में प्रार्थना खत्म की ही थी कि फ़ादर ने इशारे से उसे अपने पास बुला लिया। वे आत्म-स्वीकार करने वाले मंच के समीप खड़े थे। उनका हाथ खिड़की की जाली पर था, जिसके पीछे गुनहगार अपने गुनाहों पर पश्चात्ताप करते और बाहर अपराध स्वीकार किए जाते। 'मिसेज मारिया, उन्होंने कहा और उनकी आवाज़ काँप रही थी, 'र्इशू के लिए, आगे ये फिरन पहनकर चर्च में मत आना। मैंने देखा, किसी का भी ध्यान प्रार्थना की पुस्तक पर नहीं था। सब तुम्हें देख रहे थे।
   यह वक्त की बात है। तब चर्च ने उससे रियायत चाही थी....
   वह काठ की सीढि़याँ उतरने लगी। कभी खट खट का संगीत हवा में बिखर जाता था, जब वो पैडि़यों से उतरती थी, और अब एक धपधप की आवाज़ हो रही थी। घुन लगा काठ जैसे साँस भर रहा हो....
   नीचे उतरते ही अबूझे सन्नाटे ने उसे घेर लिया। कोर्इ आत्मीय जैसे सहसा अनुपसिथत हो गया हो। वह यह जानने के लिए ठिठकी और अगले ही क्षण बेचैन हो गर्इ। निरन्तर बजती लय खामोश थी। उसने निगाह उठा कर देखा। हिलक्वीन की भीतरी दीवारों पर बाहर के कोहरे से अलग दूूसरी तरह का कोहरा फैला हुआ था। जंगखार्इ आत्मा-सा सबकुछ बेआब उदासी में डूबा हुआ और दीवालघड़ी का पैडुलम ठहरा हुआ। उसे अहसास हुआ मानो जीवन की सारी गतियाँ ही ठहर गर्इ हैं। हुकम से यह ग़लती कैसे हुर्इ। वह तो घड़ी में चाबी देना कभी नहीं भूलता था। इस बार कैसे भूल गया?
   वह अपना घ्यान बटाने के लिए डस्टर निकालकर कुर्सियाँ और मेजें साफ करने लगी। पिछले दिन कोर्इ ग्राहक नहीं आया था, उन पर गर्द नहीं थी, सिवा नमी की एक महीन-सी परत के, जो पता नहीं कहाँ से पसीजकर वहाँ फैली हुर्इ थी। मौसम के हाथों में ठंडे नश्तर थे। और हìयिँ काँँँप रही थीं। एक वक्त था जब वह जानती ही नहीं थी कि ठंड क्या होती है? वह शमीज के ऊपर एक हल्का-सा पुलओवर पहन कर बेलचे से दरवाज़े के बाहर फैली बर्फ हटाकर रास्ता बना देती। तब उसके सुडौल उराजों में अंडे को चूजे में बदल सकने की तपिश थी और मौसम, मौसम था। इतनी बर्फ पड़ती कि जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक के पहाड़ सफेद हो जाते। बर्फबारी के बाद आसमान झक नीला हो जाता और तब वहीं नहीं, बर्फ के हर कतरे में सूरज चमकने लगते।
   फ़र्नीचर से नमी साफ करते हुए वह लगातार बहादुर के बारे में सोचती रहीं। आज सुबह लौट आने का वायदा करके वह कल अपने बीमार पिता को देखने गाँव गया था। ऐसे कोहरे में जिसमें चर्च, गुम्बद और गुम्बद पर लटका क्रास डूब गया हो, वह गाँव से कैसे आ सकता है, जिसकी पगडंडिया सकरी हैं और वे जंगल और खाइयों से गुजरती हैं। एक मन करता वह अभी न आए। कोहरे में खो जाएगा। दूसरा मन चाहता, वह कैसे भी हो, आ जाए। उससे दीवार घड़ी की खामोशी बर्दाश्त नहीं हो रही थी....जो उसकी पहुँच के बाहर की ऊँचार्इ पर टंगी थी। बहादुर ही मेज पर कुर्सी रखकर उस तक पहुँच सकता था। 
   ज्यादा समय नहीं बीता कि घंटी घनघनाने लगी। कोहरे की चादर में लिपटा बहादुर था।
   'तू इतनी सुबह कैसे चला आया। ठंड और कोहरे में, जिसमें हाथ को हाथ दिखार्इ नहीं देता। किसी खार्इ-खंदक में गिर पड़ता....मैं तेरे घरवालों को क्या जवाब देती? उसने मीठी फटकार लगार्इ।
   बहादुर ने कोहरे से नीली पड़ गर्इ उंगलियों को आपस में रगड़ा। अपनी छोटी-छोटी आँखें मिचमिचार्इं जो ठंड से सिकुड़कर और छोटी हो गर्इ थींं। जवाब में वह सिर्फ एक भोली-सी हँसी हँसा।
   'ठंड से कैसे काँप रहा है कम्बख्त, मारया ने कहा, 'और वो कोट! कोट कहाँ गया?
   अपराधबोध से हुकम की गर्दन झुक गर्इ।
   मारया समझ गर्इ अपने पिता को दे आया है।
   'वे बूढ़े हैं न! ठंड सहन नहीं कर सकते। मैं जवान हूँ। ठंड से लटपटाती आवाज़ में हुकम ने कहा।
   'अच्छा, अच्छा, ज्यादा चालाक मत बन। भोटिया बाजार से तेरे लिए दूसरा कोट खरीद दूँगी। और तेरा बाप अब कैसा है?
   'ओझा कहता है ओपरे के असर में है। नरसिंग भगवान की बड़ी पूजा देनी पड़ेगी। ठीक हो जाएगा।
   'अपने बाप को यहाँ ले आ। बिमारी देवता नहीं, डाक्टर ठीक करते हैं, लाटे। कम्युनिटी स्पताल का बड़ा डाक्टर मेरी जान-पहचान का है। मैं कराउँगी उसका इलाज।
   हुकम को मेमसाब का नरसिंग महाराज पर विश्वास न किया जाना बुरा लगा। र्इसार्इ हैं। दया तो बहुत है उनके मन में पर वे हमारे भगवानों की ताकत नहीं समझ सकतीं। लेकिन उसने कोर्इ तर्क न करने की जगह पूछा, 'चाह बना दूँ मेमसाब आपने पी नहीं होगी।
   वाकर्इ मारया ने चाय नहीं पी थी। चाय हुकम ही बनाता। वह न हो तो इच्छा के बावजूद वह टाल जाती। क्या झंझट करना। अकेले चाय पीना उसे अच्छा ही नहीं लगता। 'पी नहीं, तेरा इंतजार कर रही थी। पर तू चाय बाद में बनना पहले घड़ी को चालू का दे, बंद पड़ी है। चाबी देना कैसे भूल गया?
   'चाबी तो दी थी, भगवान कसम। यकीन न हो तो फिर दे देता हूँ। हुकम ने कहा और मेज पर कुर्सी रख कर संतुलन बनाते हुए उस पर चढ़ गया। घड़ी की बगल में कील पर लटकी चाबी निकाली और घड़ी में चाबी भरने लगा। चाबी सरकी ही नहीं। उसने शीशा हटाकर पैंडुलम को हिलाया तो वह कुछ क्षणतक दोलन करने के बाद रुक गया। घड़ी की सुुइयाँ हिली तक नहीं। उसने निराशा में सिर हिलाया, 'खराब हो गर्इ शैद। और कुर्सी से नीचे कूदकर अपराधी की तरह खड़ा हो गया।
   घड़ी की टिकटिकाहट शुरु नहीं हुर्इ लेकिन मारया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा।
   'बीमार घडि़यों के अस्पताल से इसकी मरम्मत करवा लाना। करनैल होशियार कारीगर है। उसके हाथ का जादू बिगड़ी से बिगड़ी घड़ी को ठीक कर देता है।
   'घड़ीसाज तो दुकान बंद करके मैदान चला गया। ठंड खतम होने पर लौटेगा। मेमसाब आप दूसरी घड़ी क्यों नहीं ले लेतीं। अब सैलवाली घडि़याँ चलती हैं। चाबी भरने की कोर्इ जरूरत ही नहीं। टैम भी सही बताती हैं। यह तो वैसेर्इ सुस्त चलती है। हर दूसरे दिन कांटा सरकाकर टैम ठीक करना पड़ता है।
   'ज्यादा बकबक मत कर। तुझे जो कहा जाता है.... मारया ने उसे झिड़क दिया। वक्त तो वह मसजिद की अजान, गुरूद्वारे की अरदास, मंदिर के घंटों और गिरजाघर की प्रार्थना से भी जान लेती है। लेकिन उसके जीवन की गतियाँ बस हिलक्वीन की जंगखार्इ दीवार पर टंगी यह घड़ी ही नियंत्रित करती हैं, चाहे सुस्त चले या तेज चले....इसे डेविड लाया था। वह चला गया लेकिन उसे वह हर समय इसमें धड़कते हुए महसूस करती है....
   मेमसाब तो उसकी बड़ी गलतियाँ तक नजरअंदाज कर देती थी। आज उन्हें क्या हुआ? और यह तो कोर्इ गलती भी नहीं थी। हुकम को अजीब लगा, बहुत ही अजीब। वह सिर झुकाए चाय बनाने चला गया।
   उसने बहुत मनोेयोग से मेमसाब की पसंद की चाय तैयार की। ठंड से लड़नेवाली गुड़, अदरख, काली मिर्च की पहाड़ी चाय। काश! तुलसी की पत्ती और ताजा दूध भी होता। तुलसी सर्दियों में सूख जाती है और दूधिए पहाड़ छोड़कर मैदानों में उतर जाते हैं। पाउडर का दूध।ं उसमें वह मजा कहाँ? लेकिन क्या किया जा सकता है। मौसम; मैदानों में सिर्फ पोशाकें बदलता है, पर पहाड़ तो मौसम के साथ पूरी तरह बदल जाता है।
   मारया चाय सिप करने लगी। इतने धीमें धीमें मानों वह चाय नहीं पी रही, चाय उसे पी रही है।
   चाय खत्म करके उसने गिलास रखा और अपने सूजे पपोटे उठाकर इस उम्मीद से खिड़की के शीशों से बाहर देखा कि कोहरा छंट रहा होगा। शीशे अंधे हो गए थे। बाहर कुछ भी दिखार्इ नहीं दिया। सूरज निकल चुका था। उसे भी कोहरे ने निगल लिया था।
   'मेमसाब ठंडे से आपकी आँखें सूज गर्इ। बोरिक से सेंकने के लिए पानी नमाया कर देता हूँ। हुकम ने कहा।
   अचानक अतीत का एक टुकड़ा छिटक कर मारया की सूजी आँखों में जाग गया। डेविड उससे पूछता और अक्सर पूछता, 'मालूम है, तेरी क्या चीज सबसे खूबसूरत है?ंंंंंंंंंंंंंंंंंं
   वह मुसकुराते हुए जवाब देती, और अक्सर यही जवाब देती, 'एक जवान लड़की की हर चीज खूबसूरत होती है, खासकर उस लड़की की, जो प्यार करना जानती है....
   वह हँसने लगता, एक ही तरह से हँसता और हर बार लगता और ही तरह से हँस रहा है, 'सारी खूबसूरती में भी कुछ ज्यादा खूबसूरत होता है....    
   वह जानती होती, डेविड क्या कहेगा, फिर भी सुनना चाहती, महाआख्यानाें की तरह जिनकी सर्वविदित कहानियाँ हर बार ऐसे उत्साह और रोमांंच से सुनी जाती हैं जैसे पहली बार सुनी जा रही हों। वह चुप हो जाती और इंतजार करने लगती।
   'तेरी काली आँखें मारया, जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती हैं, जो शोले भी है और शबनम भी। झुकती हैं तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती हैं तो धरती ऊपर उठ जाती है।
   मारया ने अपनी सूजी आँखों में ममता भरते हुए हुकम की ओर देखा, 'लगता है, आँख का पानी जमकर बरफ की परत बन गया। इस समय नहीं, रात को याद से कर देना।
   मेमसाब की आवाज़ से सहसा हुकम छीज गया। उसने झुककर गिलास उठाया और ठिठककर उनके चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ता रहा। कोर्इ ऐसी जगह नहीं उस चेहरे में जहाँ से ममता न टपकती हो। फिर उसने अफ़सोस के साथ कहा, 'कर्इ दिन से कोर्इ गाहक नहीं आ रहा.... और रुक कर फिर मारया के चेहरे को देखने लगा। दरअसल वह जानना चाहता था कि काम जोड़ना होगा या नहीं।
   'गाहक और मौत का कोर्इ भरोसा नहीं हुकम। दोनों में कौन कब टपक जाए कोर्इ नहीं जानता। सर्दियों में काम वैसे ही मंदा रहता है। बर्फ पड़ जाती तो गाहकों की भरमार हो जाती। यह होटल का धरम है कि वह तब भी स्वागत में तैनात रहे जब गाहक आने की उम्मीद बहुत कम हो। हिलक्वीन की शाख पर बêा नहीं लगना चाहिए। पैसा नहीं, इज्जत बड़ी चीज है। कमस्कम तीन-चार आदमियों का खाना तो तैयार कर ही लेना चाहिए। तू शुरु कर मैं आती हूँ।


दोनों ने मिलकर तीन-चार घंटे में सारी व्यवस्थाएँ करलीं। सफार्इ से लेकर खाना बनाने का काम निबट गया। तीन घंटे कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला गया।
   हिलक्वीन आँखें पसारे दस दिन के पहले ग्राहक की प्रतीक्षा करने लगा।
   कोहरा छंट गया था। सूरज ने खिड़कियों के शीशों पर फैली नमी की परत को सोख लिया था। और अब उनसे आसमान, शिखर, सड़क और हिलक्वीन के कैम्पस के डहेलिया दिखार्इ दे रहे थे।
   मिसेज मारया काउंटर पर बैठी यह सब देख रही थी। अगरबत्ती स्टैंड में सिलाप की बदबू खत्म करने के लिए कर्इ अगरबत्तियाँ जल रही थी जिनसे निकलती सुगंधित घुुएँ की पतली रेखाएँ हवा में बल खा रही थीं। वह हर आहट पर चौंकती और फिर निराश हो जाती। सड़क सुुनसान थी। कभी कभी इक्का-दुक्का आदमी चेहरे पर मफलर लपेटे ऐसे गुमसुम गुजरते दिखार्इ पड़ते जैसे खुद अपने से डरे हुए हों।
   'मानो यहाँ हमला हुआ है। आदमी या तो कहीं भाग गए या छुप गए। मारया बड़बड़ार्इ। उसने आदत के मुताबिक टाइम देखने के लिए दीवालघड़ी की ओर देखा। उसके सीने में टकटक कुछ बजने लगा। 'देखना कोर्इ और घड़ीसाज हो....करनैल के लौटने तक इंतजार नहीं किया जा सकता।
   'ठीक मेमसाब, हुकम ने मारया को आश्वस्त किया।
   'पता नहीं कितना टाइम हो गया। स्कूूल भी बंद हैं, वरना उसकी घंटियों से टाइम का पता चल जाता।
   'टैम तो भौत हो गया। हुकम ने कहा। उसे बहुत जोर की भूख लगी थी। वह समय को भूख से मापता था।
   'हो सकता है कि कोर्इ भूला-भटका गाहक आ ही जाए। वैसे तेरा क्या खयाल है, इस सीजन में बर्फ गिरेगी?
   'जरूर गिरेगी मेमसाब। कर्इ बार बरफ देर से गिरती है।
   'जिस दिन भी बर्फ गिरे तू अपने लिए भोटिया मार्केट से कोट खरीद लाना।
   हुकम जानता था कि बर्फ गिरे या न गिरे कोट उसके लिए खरीदा ही जाएगा। कुछ कहे बगैर वह चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगा। सहसा खुश होते हुए उसने कहा, 'मेमसाब कोर्इ आदमी है। गाहक हो सकता है। हाँ, गाहक ही है। वह सड़क से इस तरफ ही घूम गया है।
   मारया के दिल की धड़कन तेज हो गर्इ। अगरबत्तियाँ बुझ गर्इ थीं। उसने शीघ्रता से दोबारा नर्इ अगरबत्तियाँ जलार्इ और उत्तेजना में उसके हाथ काँपने लगे। ओवरकोट पहने, सिर गोल ऊनी टोपी से ढके और हाथ में ब्रीफकेस लिए एक आदमी तेज़ क़दमों से इस ओर ही आ रहा था। आगन्तुक ने सिर उठाकर होटल के साइनबोर्ड को देखा। आश्वस्त होने के बाद कि वह ठीक जगह पहुँच गया है, उसने डोरमेट पर जूते के तले रगडे़ और कंधे उचकाते हुए भीतर दाखिल हो गया। उसके भीतर आते ही दरवाजे की चौखट पर लटकी सौभाग्य सूचक जापानी सिंगिंग बेल बजने लगी।
   मारया उसके स्वागत में खड़ी हो गर्इ। आगंतुक ने अपना ब्रीफकेस मेज पर रखते हुए उसकी  ओर निगाह उठाकर देखा और बोला, 'अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आप मिसेज मारया हैं।
   'हाँ, मैं ही... मारया ने कहा और अपनी स्मृतियों को खंगालने लगी। कुछ याद नहीं आया तो उसने कातर दयनीयता से कहा, 'अफसोस है, मैं आपको पहचान नहीं रही।
   आगंतुक हँसा और कुर्सी पर बैठते हुए बोला, 'चश्मा नहीं लगाए हैं न, इस वजह से....मुझे भी आपको पहचानने में दिक्कत हुर्इ। खैर, आप मुझे जान जाएँगी और एक शुभचिंतक से मिलकर खुश भी होंगी।
   'चश्मा टूट गया था। नया अभी बनकर नही आया। बिना चश्में के वाकर्इ आदमी की शकल बदल जाती है, उसकी पहचानने की ताकत भी.... 
   'आप ठीक कह रही हैं। वैसे आपकी सेहत तो ठीक है मिसेज मारया?
   'बस वैसे ही हैं जैसे इस उम्र में किसी की होने चहिए। उम्र किसी का भी लिहाज नहीं करती।
   'यह भी आपने ठीक कहा। आपका होटल तो तो ठीक चल रहा है न?
   'हाँ, ठीक ही चल रहा है।
   'लेकिन इस समय यहाँ बहुत सूनापन है। कोर्इ गाहक भी दिखार्इ नहीं दे रहा। जैसे किसी गाहक को आए अरसा गुजर गया हो।
   'जाड़ोंं में छोटे हिल-स्टेशनों के होटलों में मंदी रहती है। ज्यादातर होटल तो सीजन आने तक बंद रहते हैं। मैं नुकसान सहकर भी इसे आफ सीजन में खुला रखती हूँ।
   'वाकर्इ आप हिम्मतवाली महिला हैं। ऐसा न करतीं तो आपको ढूँढने में मुझे दिक्कत होती और आपको ढूँढना मेरे लिए बहुत जरूरी था.... आगंतुक ने कहा।
   मारया ऊबने लगी थी। यह हैरानी की बात थी कि कोर्इ ग्राहक खाने का आदेश देने की जगह उसके बारे में निजी सवाल पूछे। लेकिन दस दिन के इंतजार के बाद आया ग्राहक किसी मेहमान की तरह था। उसे झेलना उसकी व्यवसायिक और नैतिक मजबूरी थी।
   हुकम मेज पर पानी रख गया।
   'इतनी ठंड में पानी! नही, मिसेज मारया मुझे पानी की जरूरत नहीं है। क्या आप चाहती हैं कि मुझे निमोनिया हो जाए। आगन्तुक ने परिहास किया।
   'पानी तो जीवन की पहली जरूरत है। रोटी से भी पहली। मारया ने तत्परता से जवाब दिया। 
   'यह तो आपने ठीक कहा। फिर भी इतनी ठंड में.... आगंतुक ने कहा और हिलक्वीन की दीवालोंं को भेदती दृषिट से देखने लगा और फिर सहसा उसका स्वर बदल गया, 'लेकिन आप अपने होटल के बारे में काफी लापरवाह हैं। लगता है बरसों से दीवालों, खिड़की-दरवाजों पर रंग-रोगन नहीं हुआ।
   'होटल रिनोवेट किया जाना है। मारया ने सहजभाव से बताया।
   'रिनोवेट! यह तो बहुत अच्छी खबर है। पर मैंने तो सुना कि हिलक्वीन की प्रापर्टी पर कोर्इ मुकदमा चल रहा है।
   मारया ने भेदती नजर से उसे देखा और फिर मजबूती से कहा, 'आपने ठीक सुना। उन्होंने हिलक्वीन की कुछ जमीन पर कब्जा कर लिया। लेकिन फैसला मेरे हक़ में होगा। मैं एक सच्ची और र्इमानदार औरत हूँ।
   वह हँसने लगा। 'अच्छी बात है आप आशावादी हैं। वैसे सच्चार्इ और र्इमानदारी मुकदमा जीत जाने की कोर्इ शर्त नहीं है। फिर दीवानी के मुकदमें सालोंसाल चलते हैं। और हमारी न्याय-व्यवस्था की चाल कछुवे की है और इतनी खर्चीली भी कि आदमी के घर के बर्तन तक बिक जाते हैं और जब फै़सला आता है तबतक वह इतना निरीह हो जाता है कि उसे फ़ैसले की ज़रूरत ही नहीं रह जाती। नसीब सिंह शराब का ठेकेदार है और मेरा ख़याल है कि उसके पास पैसों की कमी नहीं हैं।
   'क्या मतलअ? मैं यह मुकदमा नहीं लड़ सकती। मारया ने तुर्शी से कहा।
   'जरूर लड़ सकती है। आगंतुक ने उपहास उड़ाती निगाह से मारया को देखा। 'लेकिन मेरे पास कुछ पुख्ता जानकारियाँ है। क्या आप उन्हें सुनना चाहेंगी? मेरे ख़याल से आपको उन्हें सुन ही लेना चाहिए।
   मारया पशोपेश में फँस गर्इ। आखिर इस आदमी का इरादा क्या है। वह निर्णय नहीं कर सकी कि उसे फिजूल की बातें सुननी चाहिए या नहीं।
   तभी उस आदमी ने कहना शुरु कर दिया, 'बुरा मत मानिए मिसेज मारया लेकिन यह सच है कि 'भê आप्टेशियन के यहाँ आपका चश्मा बने बारह दिन हो गए। आप उसे नहीं ला रहीं, क्योंकि उसे छुड़ाने के लिए चार सौ रुपए आपके पास नहीं हैं। इसके अलावा गुप्ता प्रोविजन में राशन का कुछ पैसा भी आपके सिर उधार है। मेरे पूछने पर उसके मालिक ने उधार की रकम बताने से इनकार कर दिया। बस इतना कहा कि अगर आप मिसेज मारया से मिलें तो मेरा सलाम कह दें। बनिए के सलाम का मतलब तो आप समझती हैं न?
   मारया ने अपना धीरज खोए बिना सहजता से कहा, 'बिजनेस में ऊँच-नीच चलती रहती है। बफऱ् पड़ जाती तो ऐसी नौबत न आती, फिर दो-चार महीने के बाद तो सीज़न शुरु होने ही वाला है।
'लेकिन जब आपने अपने सोने के कंगन ज्वैलर 'झब्बालाल एड सन्ज को बेचे तब सीज़न पीक पर था।
   मारया का चेहरा पीला पड़ गया। मानों सरेआम नंगी हो गर्इ हो। कंगन बेचते हुए उसे महसूस हुआ था, उनके साथ उनमें समार्इ अपने हाथों की गंध भी वह बेच रही है, जिस पर सिर्फ डेविड का अधिकार था....जैसे उसने डेविड को धोखा दिया था। वह इस लज्जाभरे प्रसंग को भूल जाना चाहती थी। इस आदमी ने उसकी दुखती रग को दबा दिया, जो भीतर ही भीतर कहीं अतल गहरार्इ में चुुपचाप कसक रही थी। वह आवेग में, जिसे नियंत्रित करना उसके काबू में नहीं रहा था, चीखी, 'आपकी मंशा क्या है, क्यों कर रहे मेरी जासूसी? बोलिए क्यों कर रहे?
   'मैं आपको असलियत बताना चाहता हूँ। वह यह है कि न आपका होटल ठीक चल रहा है और न आप मुकदमा लड़ सकती हैं।
   'मेरी निजी जिंदगी के बारे में टांग अड़ानेवाले आप कौन होते हैं? मारया ने सख्ती से कहा।
   'एक हमदर्द जो आपकी मदद करना चाहता है।
   'ओह! तो आप मेरे हमदर्द हैं। एक अनजान और ऐसा हममदर्द जिसे मैंने कभी चाहा ही नहीं कि वह मेरा हमदर्द हो। उसने व्यंग्य किया, 'तो फरमाइए जनाब आप मेरी क्या मदद करना चाहते हैं।
   आगंतुक ने दस्ताने उतारकर ब्रीफकेस खोला और नोटों का एक पुलिंदा निकाला। करारे, झिलमिलाते और अपनी ताकत के गरूर से भरे हज़ार-हज़ार रुपए के नोट। उन्हें मारया की ओर सरकाते हुए उसने कहा, 'यह बयाना है। अब आपको सिर्फ दो काग़ज़ों पर दस्तख़त करने हैं.....
   'तो आप दलाल हैं.... मारया ने लिजलिजी घृणा से कहा, 'और मैं दलालों से नफरत करती हूँ।
   आगंतुक हँसने लगा, 'लेकिन यह वक्त दलालों का वक्त है। खैर, आपको दलाल शब्द से ऐतराज है तो एजेंट कह लीजिए। और फिर मैं तो मुशिकल वक्त में एक हमदर्द की तरह आपकी मदद करने आया हूँ।
   'आश्चर्य की बात है। हमदर्द दलाल।
   'मैं आपकी हिलक्वीन उतनी कीमत पर बिकवा रहा हूँ, जितने की आप उम्मीद नहीं कर सकतीं। और फिर मैं आपसे कमीशन भी नहीं लूँगा हालांकि उस समय आप काफी अमीर होंगी जब आपका होटल बिक जाएगा। फिर भी मैंने ठेकेदार को राजी कर लिया कि दोनों तरफ का कमीशन वही अदा करे। और वह इसके लिए राजी है।
   'हूँ, तो खरीदार नसीब सिंह है और आप उसके गुर्गे हैं....वह कमीना मुझे इतना परेशान कर रहा है कि मैं तंग आकर हिलक्वीन उसे बेच दूँ। आप उसे बता दें, मैं हिलक्वीन नहीं बेचूँगी।
   'अगर नसीब सिंह इसे खरीदना तय कर चुका है तो आप इसका बिकना कैसे रोक सकती हैं मिसेज मारिया। आप उसकी ताक़त नहीं जानती और अपने बारे में भी गलतफहमी में हैं।
   'आप मुझे धमका रहे हैं। मारया ने तल्खी से कहा।
   'नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मेरे पास कोर्इ हथियार नहीं है। रुपए हैं।
   'रुपया सबसे घातक हथियार है मिस्टर दलाल। आप यह बात नहीं जानते। शायद जान भी नहीं सकते। आखिर एक दलाल इस बात को कैसे जान सकता है...
   दलाल अश्लील हँसी हँसा, 'और आपको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। आपके हक़ में यही मुनासिब है कि आप मेरे प्रस्ताव को ठुकराएँ नहीं। फिर उसका चेहरा बदल कर सख्त हो गया  और आवाज बर्फ में दबे छुरे की तरह ठंडी और घातक हो गर्इ, 'समझ लीजिए आप एकदम अकेली हैं और वक्त बहुत खराब है....
   मारया इस चेतावनी से भीतर तक दहल गर्इ लेकिन अपने भय को जज्ब करते हुए बोली,   'अब मैं आपको और बर्दाश्त नहीं कर सकती। इससे पहले कि मैं आपको बेइज्जत करूँ, आप यहाँ से चले जाइए। जैसा कि आप समझ रहे हैं, मैं अकेली भी नहीं हूँ।
   'जाता हूँ मिसेज मारिया। दलाल ने नोटों की गìी ब्रीफकेस में वापिस रखते हुए कहा, 'मैं  फिर आपकी सेवा में हाजिर होऊँगा। माफ कीजिए, मेरा तो यह काम ही है। वह खड़ा हो गया। बाहर निकलने से पहले उसने सूराख करती नजरों से मारया को देखा जिसका चेहरा ठंड और भय से पीला पड़ा हुआ था। 'मिसेज मारया, आपको यकीन है कि....अच्छा छोडि़ए...मैं आपको नाराज़ नहीं करना चाहता। हमें एक दूसरे की जरूरत है। 


दलाल की चेतावनी ने उसे भीतर तक दहला दिया। कच्ची डोर से बंधा छुरा जैसे कि सीने पर लटका हुआ.... वह सो ही नहीं पार्इ। पहली बार उसने महसूस किया कि रात इतनी लम्बी होती है और त्रासद भी। कि सन्नाटे की भी आवाज़ होती है और अंधेरा भी आकृतियाँ गढ़ता है....और सर्दियों की ठंड़ी रात में कुत्ते ऐसे भौकते हैं जैसे रुदन कर रहे हों....कि रात में हवा से हिलक्वीन की छत रहस्यमय ढँग से खड़खड़ाती है और छाती में कुछ बजने लगता है.... 
   शहर अब वैसा नहीं रहा जैसा वह उसे जानती थी। उसके बचपन में पीटरसन साहब के पानी का मीटर चुरा लिया गया था। यह इतनी बड़ी घटना थी कि सारा टाउनशिप उद्वेलित हो गया था। स्थानीय अखबारों ने इसे लीड स्टोरी की तरह छापा। प्रशासन हिल गया था और पुलिस महकमें में हड़कम्प मच गया था। गली, चौराहों, पान के खोखों और चायघरों में यह अपराध कर्इ महीनों तक चर्चा का विषय बना रहा। अब सबकुछ बदल गया है। हवाएँ बदल गर्इ, आदमी और उनके व्यवहार बदल गए। अच्छे-भले भले आदमी हाशिए में खिसक गए और अपराधी मुख्यधारा में शामिल हो गए। हत्या और बलात्कार लोगों को उद्वेलित नहीं करते और ऐसे समाचार शौर्यगाथाओं की तरह पढ़े जाते हैं।
   पहली बार उसे अपने अकेलेपन का अहसास हुआ।
   वह अकेली है और उसके खिलाफ ठेकेदार नसीब सिंह है.... वह उससे हिलक्वीन छीनना चाहता है। हिलक्वीन....जो डेविड और उसके साझे श्रम का संंगीत है। डेविड चला गया लेकिन उसका संगीत उसमें जिन्दा है।
   और वह उस संगीत को मरने नहीं देना चाहती....


यह प्रार्थना का दिन था।
   कोहरा छंट गया था। हवा में ठंडक थी लेकिन धुली नील दी और झटककर फैलार्इ चादर की तरह निर्दोष आसमान में उसके खिलाफ लड़ता सूरज चमक रहा था।
   चर्च की सलेटी मीनार अपनी बाँहें फैलाए करुणा और दया का संंदेश दे रही थी।
   मारया ने फिरन पहना। उसे न पहनने के लिए कभी चर्च ने उससे रियायत चाही थी। वह उसे पहनकर तबतक प्रार्थना में शामिल नहीं हुुर्इ थी, जब तक फिरन में चमक रही और उसमें बर्फ में आग लगाने की ताब थी। फिरन की चमक फीकी पड़ चुकी थी। उसकी भी। और अब वह चर्च से सहायता चाहती थी। प्रार्थना केे लिए निकलने से पहले उसने सिर पर गरम टोेपी, पैरों में घुटनाें तक के ऊनी मोजे और गले में मफलर बांधकर ठंड के खिलाफ एक दुर्ग बना लिया। पर बाहर निकलते ही वह काँपने लगी। ठंड ने उसके बनाए दुर्ग को ध्वस्त कर दिया।
   कोर्इ भी दुर्ग अजेय नहीं होता चाहे उसे कितना ही मजबूत बना लिया जाए.....अजेय सिर्फ वक्त है....जिसे पढ़ने में वह नाकाम हो रही है....
   इक्का-दुक्का दुकानें जो सर्दियों में खुली रहती थीं, वे भी अभी नहीं खुली थीं। बंंद दुकानें मनहूस उदासी बिखेर रहीं थी और पूरा बाजार उसमें डूबा हुआ था। वे सड़कें जो सीज़न में रंगबिरंगी मछलियों से भरी नदियाँ होतीं, अजगरों की तरह पसरी हुर्इ थीं। भयावह उदास और इतनी लम्बी कि जैसे वे पार ही नहीं की जा सकतीं। वह मना रही थी कमस्कम मनभर की दुकान खुली हो, जहाँ से वह मोमबत्ती खरीदती थी। उसने चर्च में जितनी प्रार्थनाएँ की थी, जब से होश संभाला, प्रभु के लिए उतनी ही मोमबत्तियाँ जलार्इ थीं, जिसने खुद वह सलीब ढोया जिस पर वह लटकाया गया, इसलिए कि फिर कभी कोर्इ और किसी सलीब पर न चढ़ाया जाए.....
   वह उस मोड़ पर पहुँची जहाँ से मनभर की दुकान दिखार्इ देती थी। आशंका की धुंध छंट गर्इ। दुकान खुली थी। उसके इंतजार में कन्टोप और मिलिटरी का खारिज ओवरकोट पहने मनभर थड़े पर बैठा ठिठुर रहा था। मारया को देखकर उसकी बुझी आँखें चमकने लगी। मोमबत्ती निकालते हुए उसने कहा, 'आपके लिए ही मेमसाब...कितनी ही ठंड हो....बर्फ ही क्यों न गिरे, मैं प्रार्थना के दिन दुकान जरूर खोलता हूँ। 
   मारया ने मुसकराते हुए आभार प्रकट किया, 'वाकर्इ तुम्हारी दुकान खुली न होती तो मुझे अफसोस होता। मेरी प्रार्थना अधूरी रह जाती...
   'लेकिन... मनभर ने हकलाते हुए कहा, 'आप प्रार्थना के लिए आखरी मोमबत्ती खरीद रही हैं न।
   'क्या मतलब? मारया चौंकी। 
   'सुना कि आपने ठेकेदार नसीब सिंह को अपना होटल बेच दिया है, और आप यह शहर छोड़कर अपने बेटे के पास जा रही हैं....
   मारया को लगा जैसे उसके सिर पर कोर्इ कील ठोक दी गर्इ हो। उसके हाथ की वह मोमबत्ती काँपने लगी जो उसने प्रार्थना के लिए खरीदी थी। 'किसने कहा? उसने लड़खड़ाते स्वर में पूछा।
   'सभी कह रहे। हर जगह यही चर्चा है।
   उसने बेचैनी में मोमबत्ती को मजबूती से थाम लिया जिसका मोम ठंड से सख्त पड़ गया था और धागा जिसे लौ बनना था गर्व से तना हुआ था। सर्दियों में अमूमन बंद रहने वाले खिड़की और दरवाजो़ का आधारहीन चर्चा में मशगूल होना किसी भी तरह मामूली बात नहीं है। उसने सोचा। यह एक फंदा है जो उसे मानसिक रूप से तोड़ने के लिए फैलाया जा चुका है। वह एक उपेक्षित हँसी हँसी, 'अफवाह है बल्कुल अफवाह। मैंने अपना होटल नहीं बेचा और मैंं इसे बेचूँगी भी नहीं।
   मनभर ने बेचैन हमदर्दी में अपना सिर उठाया, 'एक बात है मेमसाब। बुरा मत मानिए। नसीब सिंह अगर आपका होटल खरीदना चाहता है तो आप उसे बेच ही दें। इसी में चैन है। वह एक खतरनाक आदमी है।
   मारया का मन भारी हो गया। उसकी समझ में नहीं आया, मनभर से क्या कहे। वह उसका एक भोला हममदर्द था। उसने कोर्इ जवाब नहीं और तेज़ी से उस सकरी सड़क की और मुड़ गर्इ जो कुछ दूरी के बाद उन सीढि़यों में बदल जाती थी, जो गिरजाघर के परिसर में पहुँचाती थी।


कैम्पस की घास पाले से जल कर बेजान हो गर्इ थी। पेड़ों की छालें तिड़क रही थीं और उनके पीले होते पत्ते पतझर का इंतजार कर रहे थे। लेकिन ऐसे उजाड़ में भी मौसम की बेरहमी के खिलाफ एक शालीन अवज्ञा में गिरजाघर की क्यारियों में गुलदाउदी, बोगेनवेलिया और डहेलिया के फूल खिले हुए थे, पैंजी, डाग, डैंठस और बटर फ्लार्इ की कलियाँ महकने की तैयारी कर रहीं थी। औरतें और मर्द रंग-बिरंगे लिबासों में फूलों के गुलदस्तों की तरह फैले हुए थे और बच्चे तितलियों की तरह मंडरा रहे थे। नरम और नाजुक धूप फैली हुर्इ थी जिसमें फूल, जूते, वस्त्र और टाइयाँ चमक रही थी।  
   यह र्इशू का प्रार्थना समय था जो पवित्र गिरजाघर की भित्ती में क्रास पर लटका हुआ था।
   मारया ने परिसर में कदम रखा और वह अवसन्न रह गर्इ। सारी निग़ाहें उस पर टिकी थीं। सब असहनीय किस्म की मुस्कान मुस्कुरा रहे थे और एक दूसरे के कान में फुसफुसा रहे थे। धीमी सी फुसफुसाहट, जो उससे आगे नहीं जाती जिसके कान में कही गर्इ है....लेकिन हर फुसफुसाहट परिसर के आख़री छोर पर खड़ी और सीढि़याँ चढ़ने से थकी और हाँफती मारया के कानों में चिंघाड़ रही थी। शराब के ठेकेदार को....
   उसे लगा वह निहत्थी है और दगती हुर्इ गोलियों के बीच खड़ी है और हिलक्वीन खो चुकी है....उसने अपने को ऐसे अपराधबोध से धिरा पाया जो उसने किया ही नहीं और जिसकी सफार्इ देना भी उसके वश में नहीं है। आखि़र किस किस को तो सफार्इ दे। वह सिर झुकाए चुपचाप प्रार्थना कक्ष में चली गर्इ और एक निरीह कोने में खड़ी हो गर्इ, जहाँ लोगों की आँखों से बची रह सके। फ़ादर अभी नहीं आए थे और प्रार्थना करनेवाले भी। प्रार्थना कक्ष में सिर्फ प्रभु थे और वह थी और दोनों सलीब पर लटके हुए थे...
   प्रार्थना के बाद वह चुपचाप गिरजाघर के पिछवाड़े चली गर्इ और सूनी बेंच पर बैठ गर्इ।
   बयालीस साल पहले भी वह इसी तरह भीड़ से छिटक कर गिरजाघर के पिछवाड़े आर्इ थी और इसी बेंच पर बैठी गर्इ थी। तब सर्दियाँ नहीं थीं। मौसम सुहावना था। हवाएँ जीवन स्पंदनो से भरी हुर्इ थी और सामने की घाटी फूलों से महक रही थी। उसकी आँखों में छवियाँ थीं। कोमल सपने थे। और मोहक-आकुल प्रतीक्षा थी। और फिर सचमुच डेविड आया था और इसी बेंच पर उसने प्रपोज किया था। 
   बयालीस साल बाद वह फिर उसी बेंच पर बैठी है। हवा चल रही है और वह हìयिें को कँपा देनेवाली ठंडक से भरी हुर्इ है।
   'मिसेज मारया तुम यहाँ अकेली और इतनी सर्दी में....
   उसने सिर उठाकर देखा। फ़ादर उसे विस्मय से देख रहे थे।
   उसने हड़बड़ाकर बैंच से खड़े होते हुए कहा, 'मैं अकेले में आपसे कुछ कहना चाहती हूँ। भीड़ छटने का इंंतजार कर रही थी।
   'हाँ, क्यों नहीं... फ़ादर ने कहा, 'पर क्या तुम आज प्रभु के लिए बोमबत्ती जलाना भूल गइर्ं?
   मारया ने चौंक कर देखा। वह अपने हाथ में मजबूती से उस मोमबत्ती को थामें थी जिसे वह प्रभु के लिए मनभर की दुकान से खरीद कर लार्इ थी। हताशा में उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसने छाती पर सलीब बनाया, 'ऐसा कैसे हो गया...
   'कोर्इ बात नहीं। मोमबत्ती तुम अब भी जला सकती हो। चर्च के दरवाजे हर समय खुले रहते हैं। मैं तुम्हे फिर से प्रार्थना भी करवा सकता हूँ। वैसे इसकी जरूरत नहीं है, प्रार्थना तुम कर चुकी हो।
   वह, होंठों ही होंठों में बुदबुदाते हुए कि प्रभु उसे उस गलती के लिए क्षमा करें जिसे उसने करना नहीं चाहा लेकिन जो अनायास हो गइर्, फ़ादर के पीछे चलने लगी। वे एक लम्बे और शांत गलियारे से गुजर रहे थे और हवा उनके जूतों की आवाज से हड़बड़ा रही थी। प्रार्थना कक्ष में पहुँच कर उसने श्रद्धा से मोमबत्ती जलार्इ और फिर फ़ादर की ओर देखा।
   वे घूम कर अपराध स्वीकार करने की बेदी के पास गए और उसकी जाली पर हाथ रखते हुए बोले, 'क्या तुम आत्म स्वीकार की बेदी पर जाओगी?
   उन्होंने तेज़ आवाज़ में नहीं पूछा था, लेकिन जनविहीन प्रार्थना कक्ष के सन्नाटे में वह एक गूँज में बदल गर्इ। हो सकता है कि ऐसा न भी हुआ हो, वह सिर्फ मारया के भीतर ही गूँजी हो। इस उम्र में जब वह युवा औरत की असीम शकित गंवा कर अशक्त बूढ़ी औरत में बदल गर्इ है, ऐसा प्र्रश्न पूछा जाना बेतुका ही नहीं, अपमानजनक भी था। उसका चेहरा रुआँसा गया। 'ऐसी बात नहीं, उसने विनम्र प्रतिरोध किया, 'मैंने कोर्इ पाप नहीं किया जिसके लिए प्रायशिचत करूँ। अफ़सोस है, औरतों के चरित्र के प्रति समाज की सोच से चर्च भी मुक्त नहीं है।
   'मैंने वैसे ही सोचा जैसे किसी पादरी को उस औरत के बारे में सोचना चाहिए जो चर्च में उससे मिलने के लिए भीड़ छंटजाने का इंतजार करती है....
   'दरअसल मुझे आपसे एक मदद चाहिए। आप की मदद का मतलब होगा सारा र्इसार्इ समाज मेरे साथ है।
   'उसका तो मैं पहले ही वायदा कर चुका हूँ मिसेज मारया डिसूजा...
   'वायदा कर चुके है... मारया असमंजस में पड़ गर्इ।
   'हिलक्वीन का मामला है न? फादर ने कहा और उसे ऐसे देखा जैसे उस बच्चे को देखा जाता है जो वह लौलीपाप मांग रहा हो, जो उसे दिया जा चुका है।
   'हाँ...उसी मामले में...लेकिन अजीब बात है अभी तो मैंने इस सिलसिले में आपसे कोर्इ बात की ही नहीं।
   'तुमने नहीं की पर ठेकेदार के आदमी आए थे। प्रार्थना करने लगे कि यह एक र्इसार्इ औरत की प्रापर्टी का मामला है। रजिस्ट्री के समय मैं एक गवाह के रूप में मौजूूद रहूँ, जिससे कल यह आरोप न लगाया जा सके कि प्रापर्टी बेचने के लिए उस पर दबाव डाला गया। किसी धर्मगुरु को ऐसे मामले में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन मैं मान गया कि एक र्इसार्इ के साथ अन्याय न हो और उसे उसकी प्रापर्टी की वाजिब क़ीमत मिल सके।
   मारया सन्न रह गर्इ। लगा कि उसकी धमनियों में बहता रक्त जम गया है और आँखें अपनी धुरियों पर ठिठक गर्इ हैं। हवा रुक गर्इ और उसकी साँस भी। लेकिन हवा चल रही थी, जिससे पेड़ों के पत्ते खड़क रहे थे और साँस भी.... उसने अपनी आवाज़ को यथा संभव संतुलित करने की कोशिश की लेकिन वह भर्रार्इ हुर्इ आवाज़ थी, 'मैंने हिलक्वीन बेचने का कोर्इ वायदा नहीं किया फ़ादर।
   फ़ादर ने उसकी ओर देखा। उनकी आँखों में गहरा अविश्वास था। 'तुमने वायदा नहीं किया तो फिर वकील रजिस्ट्री की कार्यवार्इ क्यों कर रहा है और मुझ से गवाह के रूप में पेश होने की दरख़्वास्त क्यों की गर्इ....
   'मैं नहीं जानती फ़ादर। 
   'चीजें हवा में नहीं होती मिसेज डिसूजा....
   'पर यहाँ तो सबकुछ हवा में है। ठेकेदार का दलाल प्रस्ताव लेकर जरूर आया था जिसे मैंने अस्वीकार कर दिया। उसने मुझे धमकाया कि मैं अकेली हूँ। पर मुझे विश्वास था कि बेटे के बाहर होने के बावजूद मैं अकेली नहीं हूँ। प्रभु मेरे साथ है, आप और चर्च और पूरा र्इसार्इ समाज मेरे साथ है। कोर्इ मुझे वो करने को विवश नहीं कर सकता जो मैं नहीं करना चाहती। हिलक्वीन मेरी आत्मा का हिस्सा है फ़ादर।
   'र्इशू हमेशा सच्चे र्इसार्इ के साथ होता है। लेकिन तुम भूल रही हो मिसेज मारया। उस समय तुमने दलाल का प्रस्ताव नहींं ठुकराया। जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुुम्हारा मन बाद में बदल गया। शायद तुम्हारे पास इससे बड़ा आफ़र आया हो या तुम्हे उम्मीद रही हो कि शायद कोर्इ और बड़ा आफ़र आएगा। एक सच्चे र्इसार्इ को अपने वायदे से नहीं मुकरना चाहिए।
   'मेरी बात का यकीन करिए फ़ादर....क्या एक सच्ची र्इसार्इ औरत र्इशू की प्रतिमा के समाने झूठ बोलेगी?
   'लेकिन पूरे र्इसार्इ समाज में यह चर्चा है। असेम्बली से पहले सब यही बात कर रहे थे....जहाँ तक मैं समझता हूँ सारे टाउनशिप में भी....
   'अफ़वाह! और वह एक ही तरीके से सब जगह फैल गर्इ। मुझे हैरानी है, ऐसा कैसे हुआ?
   फ़ादर सोच में पड़ गए। कमर के पीछे हाथ बाँधे, वे कुछ देर मौन रहे। फिर उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा, 'ये वे ही लोग हैं जो उन पादरियों को जिन्दा जलाते हैं और ननों के साथ बलात्कार करते हैं, जो र्इशू की करुणा लेकर उन इलाकों में सेवा करते हैं जहाँ कोर्इ नहीं पहुँचता। हमें सचेत हो जाना चाहिए। यह अफ़वाह बिना वजह नहींं फैलार्इ गर्इ। उन्हें बहाना चाहिए....मेरी सलाह है मारया इससे पहले कि यहाँ वैसी घटना घटे जैसी नहीं घटनी चाहिए तुम ठेकेदार को हिलक्वीन बेच दो।
   मारया ने चौंक कर फ़ादर को देखा। उनका चेहरा हताश भय में डूबा हुआ था। 'आप डर गए फ़ादर, उसने पूछा।
   'क्योंकि हम हाथ में हथियार नहीं, बाइबल लेकर चलते हैं।
   'अगर हम पहले ही हार गए....बिना लड़े...उनके हौंसले और नहीं बढ़ेंगे....
   'शायद तुम खतरे को नहीं देख रही़ जबकि तुम अपने बेटे के पास जा सकती हो।
   'माँ बेटे के घर में सिर्फ एक मेहमान होती है। मेहमान कभी बहुत दिन बर्दाश्त नहीं किया जाता। और फिर जब मैं खुद कमा सकती हूँ।
   'मैं एक बार फिर तुम्हें वही सलाह देना चाहूँगा।
   'मैंने और डेविड़ ने एक एक र्इंट जोड़ कर इसे बनाया फ़ादर। डेविड नहीं रहा पर मैं उसे हिलक्वीन में धड़कता महसूस करती हूँ।
   'आदमी सारी जिंदगी स्मृति मेंं नहीं जी सकता। कभी तो उसका मोह छोड़ना ही होता है।
   'चर्च भी तो र्इशू की स्मृति है और सारे र्इसार्इ उसी स्मृति में जी रहे हैं। हिलक्वीन भी मेरे लिए चर्च की तरह पवित्र है। उसने ही तब मुझे टूटने से बचाया जब मैं टूट सकती थी और एक सम्मानभरी जिन्दगी दी। मैं उसे नहीं बेच सकती जैसे चर्च नहीं बेची जा सकती। मारया ने कहा और इससे पहले कि फ़ादर कुछ कहें वह उन्हें भय और असमंजस में छोड़ कर बाहर निकल गर्इ।


चर्च की सीढि़याँ उतरते हुए वह आतिमक उर्जा से भरी हुर्इ थी। अगर उसकी हत्या भी कर दी जाती है, जो मुमकिन है, क्योंकि उनके लिए हत्या करना एक दिलचस्प खेल है, तो यह एक शानदार मौत होगी और ताबूत में उसका सिर शर्म से झुका नहीं रहेगा। लेकिन वह अपने को उन आँखों का सामना करने में अक्षम पा रही थी जिनमें उसके प्रति मरी मछली की तरह अविश्वास चिपका होगा। जब वह वहाँ पहुँची जहाँ से मनभर की दुकान दिखार्इ देती थी, तो उसने राहत की साँस ली। दुकान बंद थी। उसे आश्चर्य हुआ क्या मनभर ने एक मोमबत्ती बेचने के लिए अपनी दुकान खोली थी....
   इक्का-दुक्का दुकानें खुली हुर्इ थी और दुकानदार आकसिमक ग्राहकों की प्रतीक्षा में थड़ो पर बैठे सर्दियों की धूप सेंक रहे थे। उसने किसी से भी नज़र नहीं मिलार्इ और सिर झुकाए चुपचाप चलती रही। उसे डर लग रहा था कि जिससे भी नज़र मिलाएगी, वहाँ एक ही सवाल होगा। पहाड़ी जगह सब एक दूसरे को जानते हैं। वे अपने बारे में कम, दूसरों के बारे में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। र्इसाइयों के बारे में तो उनमें विशेष-रूप से रहस्यमयी जिज्ञासा रहती है और उनकी आँखें खुर्दबीन में बदल जाती हैं। उसके भीतर कुछ था जो फटने के लिए धपधपा रहा था....वह जल्दी से सड़क को पार कर लेना चाहती थी लेकिन सर्दियों में पहाड़ की सड़के लम्बी हो जाती हैं जिन पर चलता आदमी चढ़ान चढ़ रहा होता हैं या ढ़लान उतर रहा होता है। उसकी साँस फूल गर्इ और ठीक उस जगह जहाँ उसके होटल की आखरी चढ़ान आरम्भ होती थी वह पूरी तरह पस्त हो गर्इ और सुस्ताने के लिए एक बड़े गोल पत्थर पर बैठ गर्इ जिस पर हिलक्वीन का मार्ग संकेत चिन्ह तीर बना हुआ था।
  बैठते ही उसे धूप ने अपने सम्मोहन में ले लिया जो पहाड़ की सर्दियों में जादू बिखेर रही थी। उसे झपकी आ गर्इ और शायद कुछ लम्बी ही। टूटी तो सामने एक कांस्टेबल खड़ा था जो रुटीन गश्त के लिए निकला था और उसे सड़क पर बैठे देखकर हैरान था।
   'कैसी हैं मिसेज मारिया?' उसके आँख खोलते ही उसने पूछा, 'मैं गश्त के लिए निकला था। आपको बैठे देखा तो रुक गया। तबीयत तो ठीक है न! मेरी किसी मदद की जरूरत हो तो....
   'धन्यवाद कांस्टेबल। तबीयत ठीक है। चर्च सेे लौट रही थी। थकान लगी। बस थोड़ा सुस्ता रही थी।' मारया ने फीकी-सी मुस्कान के साथ कहा।
   कांस्टेबल ओवरकोट की जेब में कुछ टटोलने लगा। जाहिर था उसका इरादा गश्त पर जाने की जगह उससे बात करने का था। यह परेशानी की बात थी। वह किसी से भी बात करने से बचना चाहती थी। लेकिन उसके उठने से पहले कांस्टेबल कोट की जेब से एक मुड़ी-तुड़ी बीड़ी निकाल चुका था, जो साबित कर रही थी कि वह मौसम की वजह से अपनी आर्थिकी के चिंताजनक स्तर पर था। सुêा मार कर लापरवाही से धुआँ उड़ाते हुए उसने कहा, 'अच्छा किया आपने मुकदमा वापस ले लिया। आप बहौत परेशान थी। मुकदमा तो अच्छे-अच्छोंं का चैंंन लूट लेता है। लोग दाँतों तले उंगली दबाते थे कि आपने ठेकेदार नसीब सिंह के खिलाफ मुकदमा दायर करने की हिम्मत की। लेकिन सबका यही विश्वास था कि एक दिन आप इसे वापिस ले लेंगी....और फिर वही हुआ....  
   मारया इस नर्इ अफ़वाह से बौखला गर्इ। 'यह बकवास है। अजीब बात है, मुझे ही नहीं मालूम और तुम्हे मालूम है कि मैंने मुकदमा वापिस ले लिया।
   'कैसी बात करती हैं मिसेज मारया? यह बात तो सभी जानते हैं। ठेकेदार की बेटी के जन्मदिन की पार्टी में खुद आपके वकील ने बताया कि वह मुकदमा वापिस लेने के काग़ज़ तैयार कर रहा है। उस पार्टी में थाना, तहसील के अलावा यहाँ के सभी गणमान्य मौजूद थे।
   'आपने जो भी सुना हो कांस्टेबल लेकिन जानलो मैं मुकदमा वापिस नहीं ले रही। वकील अगर ऐसी अफ़वाह फैला रहा है तो मैं उसकी जगह दूसरा वकील खड़ा करूँगी।
   'फिर होटल कैसे बेचेंगी?
   'मैं होटल भी नहीं बेच रही हूँ।
   कांस्टेबल हँसने लगा। 'सिर उठाकर अपने होटल का साइनबोर्ड तो देखो मिसेज मारया।
   साइनबोर्ड पर 'हिलक्वीन में आपका स्वागत है के नीचे 'होटल बिक रहा है और आगामी सूचना तक यह बंद है--प्रोपराइटर श्रीमती मारया डिसूजा लिखा हुआ था।
   साइनबोर्ड के नीचे लिखी इबारत पढ़ते ही मारया को लगा जैसे एक डूबते जहाज में उसका सबकुछ डूब रहा हो और वह उसे बचाने के लिए पागलों की तरह उफनते हुए समुæ के किनारे दौड़ रही हो। उसने उछलकर साइनबोर्ड के अक्षरों तक पहुँचना चाहा। कर्इ बार कोशिश करने पर भी वह उस तक नहीं पहुँच सकी। 
   'बेकार है, कांस्टेबल ने कहा, 'आप वहाँ तक नहीं पहुँच सकती। अगर पहुँच भी गर्इ तो इबारत को नहीं मिटा सकती। वह सफेदे से लिखी हुर्इ है।
   मारया फिर से पत्थर पर बैठ गर्इ। उसने हाँफते हुए कहा, 'मेरी बात सुनों कांस्टेबल। चाहो तो यहाँ भी सुन सकते हो और मैं अपनी बात कहने के लिए थाने भी जा सकती हूँ। मेरा होटल छीनने की साजिश की जा रही है।
   कांस्टेबल बीड़ी फेंक कर उसके पास ही पत्थर पर बैठ गया। उसने शकित के प्रतीक अपने डंडे को घुटनों के बीच फँसाया और बोलने की दिक्कत से बचने के लिए ओवरकोट के ऊपरी दो बटन खोले और खंखारकर बोला, 'पंæह साल पहले जब मैं यहाँ पहली पोसिटंग पर आया था और जब तक मेरे खाने का पुख्ता इंतजाम नहीं हुआ था, मैं अकसर हिलक्वीन में खाना खाता था। तब आज के मुकाबले परतनपुर एक छोटी-सी पहाड़ी जगह थी और यहाँ नए भर्ती पुलिसवाले के लिए पैसे कमाने की गुंजाइश नहीं के बराबर थी। कर्इ मर्तबा ऐसा होता कि मेरी जेब खाली रहती, तब मैं उधार खाना खा लेता। चूंकि आप उधार का हिसाब किसी रजिस्टर में नहीं लिखती थी और जैसी कि पुलिसवालों की आदत होती है, मैं उधार अदा करना भूल जाता था। आपने भी उधार का कभी तगादा नहीं किया। शायद आप एक व्यापारी औरत की जगह माँ ज्यादा थी। इस तरह मैंने आपका नमक खाया है और इस नाते मैं आपकी मदद करना चाहता हूँ।
   'थैंक यू कांस्टेबल, मारया ने आभार प्रकट करते हुए कहा, 'बात यह है कि ठेकेदार नसीब सिंह अकेली जानकर हिलक्वीन मुझसे छीनना चाहता है, जिसके लिए वह मुझे कर्इ तरह से परेशान कर रहा है। पहले उसने हिलक्वीन की कुछ जगह हथियार्इ, जिसका मुकदमा चल रहा है। फिर उसने दलाल भेजकर मुझे धमकाया। वह अफवाएँ फैला रहा है और अफवाएंँ कितनी घातक होती हैं, इसे वही जान सकता है जिसके खिलाफ उन्हें फैलाया जाता है....और अब होटल का साइनबोर्ड तो तुम देख ही रहे हो, बलिक इसके बारे में तो तुमने ही मुझे बताया। यही वजह है कि मेरे होटल में गाहक नहीं आ रहे। वरना ऐसा कभी नहीं हुआ कि होटल में कभी कोर्इ गाहक न आया हो, मौसम चाहे कैसा भी रहा हो....बता नहीं सकती कि मैं कितनी दहशत में हूँ....
   'वक्त की बात है मिसेज मारिया। कांस्टेबल ने कहा, 'तब आपके होटल का परतनपुर में नाम था। घरेलु होटल, जहाँ अपनेपन से पहाड़ी खाना खिलाया जाता। वाह! क्या खाना होता था। आप यहांँ की एक सम्मानित महिला थीं, जिसे यहाँ का हर आदमी सलाम करता था। उन दिनों नसीब सिंह छोटे स्तर पर शराब की तस्करी करता था। वह शातिर और चालाक बदमाश था। उसने  थाने की नींद उड़ रखी थी। कमबख्त माल के साथ पकड़ में ही नहीं आता था। लेकिन बिल्ली के राज में चूहा कब तक खैर मना सकता है। मैं झूठी शान नहीं बघार रहा। इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं। यह लोकल पेपरों में छपा था, जिन की कटिंगें अब तक मेरी फाइल में हैं, आप चाहें तो उन्हें देख सकती हैं। मुखबिर की सूचना पर वह पकड़ ही लिया गया। जनाब उसे आपके इस सेवक ने ही पकड़ा था। और फिर मैंने उसकी इतनी धुनार्इ की कि उसका गरम पैजामा गीला हो गया, जो उसने कबाड़ी बाजार से खरीदा था। मेरा ख़याल है इसी डंडे से जो इस बखत मेरे हाथ में है। कांस्टेबल ने कहा और अभिमान से अपना डंडा हवा में लहराया और उसकी तेल पिलार्इ सतह धूप में चमकने लगी। 
   मरया डिसूजा ने राहत की साँस ली। 'चलो, कोर्इ तो है जो नसीब सिंह की असलियत जानता है....वह भी एक पुलिसवाला जिसके जिम्मे व्यवस्था बनाए रखना है।
   'हाँ, लेकिन यह पंæह साल पहले की बात है। कांस्टेबल ने कहा। उसने बीड़ी ढूँढने के लिए एक बार फिर अपनी जेब टटोली। शायद निराशाजनक समय होने की वजह से जेब में कोर्इ बीड़ी नहीं थी या यह भी हो सकता है कि मारिया डिसूजा की एकदम बगल में बैठे होने की वजह से नमक के सम्मान में, उसने बिड़ी पीने का इरादा बदल दिया हो। 
   'क्या मतलब? डिसूजा ने कहा और उसके डंडे की ओर देखा। वह एकदम निर्विकार था जैसे उसे कभी मार-पीट के लिए इस्तेमाल ही न किया हो। सहसा उसे लगा कि संभवत: अपनी सार्वभौम निरपेक्षता के लिए यह पुलिस को पहले हथियार के रूप में दिया जाता है।
   'दो साल यहाँ रहने के बाद मेरी बदली हो गर्इ। दस साल बाद मैं फिर परतनपुर के इसी थाने में अपनी पुराने पद पर लौट आया। मुझे उम्मीद है कि मैं जल्दी ही दीवान या हैड कास्टेबल बना दिया जाऊँगा। मेरा रिकार्ड अच्छा है और चरित्र बेदाग़ है, जैसा अमूमन हर कांस्टेबल का नहीं होता। इसके अलावा मेरी गोपनीय रिपोर्ट में यह दर्ज है कि मैंने दारू के तस्कर को पकड़ा था, जो पकड़ा नहीं जाता था। हाँ, तो यहाँ आने के बाद एक बार फिर मुझे हथियार के रूप में वही डंडा मिल गया, जिसे मैं यहाँ से जाते हुए माल गोदाम में जमा कर गया था, जो इस बखत मेरे हाथ में है और जिससे मैंने कभी नसीब सिंह की ऐसी कुटम्मस की थी कि उसका पैजामा गीला हो गया था। कांस्टेबल से कहा और उसने मूँछाें पर ताव देते हुए डंडे को जमीन पर खटखटाया। 
   'मैं र्इशू से दुआ करूँगी कि तुम जल्द से जल्द हैड कांस्टेबल बन जाओ और इस डंडे का न्याय पूर्वक इस्तेमाल कर सको। मारया ने दुआ के लिए हवा में अपना हाथ उठाया।
   'वही तो मैं आपको बताने जा रहा हूँ। डंडे के न्याय पूर्वक इस्तेमाल की बात। दस साल बाद लौटने पर मैंने पाया कि परतनपुर पूरी तरह बदल गया है। नसीब सिंह शराब ठेकेदार हो गया। परतनपुर का सबसे ताकतवर और सम्मानित। हिन्दु उद्धार संध का प्रमुख ध्वजाधारक और महान आर्य संस्कृति का पोषक। यह डंडा, जिसने कभी....अब उसकी हिफाजत के लिए है। यह तो आप जानती ही होंगी कि पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ने के साथ सम्मानित लोगों की हिफाजत करना भी है।
   'तो यह है तुम्हारे पतन की कहानी। मारया का चेहरा घृणा से तिड़क गया।
   'पतन की!, कांस्टेबल हँसा, 'यह ताकत का सम्मान है। जानती हैं? वह थाने को हर महीने बंधी रकम और बोतलें देता है। बस, हमें समझ मेंं आ गया कि शराब की तस्करी, जिसे अब वह नहीं उसके आदमी करते हैं, एक सेवाभाव है। अगर मैं कुछ गलत कह रहा होऊँ तो आप मेरा कान पकड़ सकती हैं। Ñपया अपने दिल पर हाथ रख कर मेरी बात पर गौर करें। पहाड़ी आदमी रोटी के बिना रह सकता है, दारू के बिना नहीं रह सकता। उन तक दारू पहुँचाना जो ठेके पर नहीं आ सकते अपराध माना जाएगा या पुण्य का काम माना जाएगा। फैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ।
   'तुम एक बिके हुए आदमी हो कांस्टेबल लेकिन मैं फिर भी तुम्हारे लिए र्इशू से प्रार्थना करूँगी की वह तुम्हे माफ करे... मारया ने कहा और उठने के लिए घुटने पर हाथ रखे।
   'ठहरिए मिसेज मारया। गश्त पर होने के बावजूद मैं रुक कर आपसे बातें कर रहा हूँ तो इसका मतलब है कि मैं आपको तफसील से कुछ ऐसा बताना चाहता हूँ जो आपके काम आ सके।
   मारया उठते उठते फिर बैठ गर्इ। उसने एक बार साइनबोर्ड पर निगाह डाली और फिर कांस्टेबल के डंडे को देखने लगी।
   'और इस बीच आपका कारोबार मंदा हो गया। आप बदले वक्त को नहीं समझ सकींं। वक्त बदल रहा था और वक्त के साथ लोगों की खान-पान की रुचियाँ बदल रही थी। आप पहाड़ी की पहाड़ी ही रही और आपका होटल वही पहाड़ी खाना परोसता रहा। और फिर मुकदमा। उसने आपको इतना गरीब बना दिया कि गहने तक....और हाल ही में जब आप अपनी खिड़की से गिरजाघर देख रही थी और अपने होटल के भविष्य के बारे में इतनी बेचैन थीं कि उस बेचैनी में नाक से फिसलकर चश्मा गिरा और टूट गया।
   'और मैं उसे बनवा नहीं सकी... मारया ने हँसते हुए कहा, 'अच्छी जासूसी कर लेते हो....मुझे लगता है कि परतनपुर का हर आदमी ठेकेदार का जासूस है। लेकिन तुम्हारी जासूसी फेल हो गर्इ....चश्म ऐसे नहीं टूटा था।
   कांस्टेबल हड़बड़ा गया। 'खैर, उसने सड़क पर डंडा खटखटाते हुए कहा, 'असली मुíा यह है ककि ठेकेदार आपके होटल के दाएँ और बाएँ बाजू की ज़मीन खरीद चुका है। मालिक जमीन नहीं  बेचना चाहते थे, लेकिन उन्होंने बेच दी। मगरमच्छ से तो बैर नहीं कि जा सकता, जब नदी के किनारे रहना हो। वह यहाँ एक थ्री स्टार होटल खोलना चाहता है। जाहिर है थ्री स्टार होटल से परतनपुर का चेहरा बदल जाए। नगर के सभी गणमान्यों का उसे समर्थन है और हुकूमत उसका साथ दे रही है। लेकिन बीच में आपका होटल...
   'उसने अपना दलाल मेरे पास भेजा था।
   'यह उसका बड़प्पन है कि उसने दलाल आपके पास भेजा वरना उसके पास तो और भी बहुत से रास्ते थे।
   'कौन से रास्ते? क्या वह होटल छीनने के लिए....
   'मुमकिन है... कांस्टेबल ने सहजभाव से सिर हिलाया।
   'सुनो कांस्टेबल और गौर से सुनों। मैंने बयाना नहीं लिया और होटल बेचने से इनकार कर दिया।
   'क्या कह रही मिसेज मारया? बयाना तो आप ले चुकी हैं।
   क्या कहा? बयाना ले चुकी। वाह!
   आपने दलाल से कहा, जमाना खराब है। इतनी रकम नगद लेना ठीक नहीं रहेगा। वह इसे आपके बैंक के खाते में जमा करा दे और उसने यह रकम वहाँ जमा करादी है। परतनपुर में सब जगह यही चर्चा है कि बयाना लेने के बाद आप होटल बेचने से मुकर गर्इ। आपके कारण सारा र्इसार्इ समाज डरा हुआ है और उसकी गरदन शर्म से झुक गर्इ है। मैंने सुना तो मेरी आत्मा को बहुत क्लेश हुआ मिसेज मारया। मैं सचमुच आपकी बहुत इज्जत करता हूँ।
 मारया का चेहरा भय से पीला पड़ गया। उसने कुछ कहना चाहा लेकिन उसे लगा कि उसके होंठों में शब्द जम गए हैं और वह शब्दहीन हो गर्इ है।
   कांस्टेबल खड़ा हो गया और सम्मान से सिर झुकाते हुए बोला, 'यकीन मानिए जब मैं वर्दी में नहीं होता तो मेरे पास एक दूसरी आत्मा होती है और वह आपके लिए बहुत छटपटाती है। आप समझती हैं न बिना वर्दी के पुलिसवाले के पास कोर्इ ताकत नहीं होती और तब अगर आप किसी मुसीबत में हैं तो मैं आपकी मदद नहीं कर सकता।
   'चलो, कोर्इ तो है जिसकी आत्मा में मेरे लिए दर्द है, भले ही वह मेरी कोर्इ सहायता न कर सके। अगर तुम्हारी बात सच हुर्इ तो मैं जालसाजी के मामाले में बैंक को भी अदालत में खड़ा करूँगी।
   'लेकिन, माफ करिए मिसेज मारया आप अपने बेटे विक्टर को किस अदालत में खड़ा करेंगी? जहाँ तक मेरी जानकारी है, दलाल उससे बात कर चुका है। वह भी चाहता है कि आप होटल बेच दें। और चाहेगा क्यो नहीं जब जमाना ही ऐसा है कि हर आदमी ऐश की जिन्दग़ी जीना चाहता है। वह कार में क्यों नहीं घूमना चाहेगा? मुमकिन है उसकी सलाह पर ही दलाल ने....वह अगले महीने आ रहा है और तब तक यहीं रह कर आप पर दबाव डालेगा जब तक रजिस्ट्री नहीं हो जाती। मेरा सुझाव है कि....अच्छा छोडि़ए....बस इतना याद रखिए कि मेरी हमदर्दी सदा आपके साथ है। उसने हाथ हिलाया और सड़क पर डंडा खटखटाते हुए गश्त पर निकल गया।
   मारया हिलक्वीन के साइनबोर्ड के नीचे पत्थर पर चुपचाप बैठी कांस्टेबल के डंडे की खटखटाहट सुनती रही जो पहाड़ की निदोर्ंष शांंित को काठ के कीड़े की तरह कुतर रही थी। आवाज़ विलीन होने के बहुत देर बाद भी वह उसके कानों में गूँजती रही। सहसा उसे दलाल के शब्द याद आए--क्या आप सचमुच सोचती हैं कि अकेली नहीं हैं? तब वह उसके आशय को समझी ही नहीं थी। अब समझ रही है। दलाल विक्टर से बात कर चुका होगा और उसकी सहमति के बाद ही उसने उसे बयाना देने और धमकाने की हिम्मत की। एकाएक उसकी समझ में नहीं आया कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन कौन है, ठेकेदार या उसका बेटा विक्टर और उससे हिलक्वीन कौन छीनना चाता है?
   विक्टर चार साल का था जब डेविड दुनिया से चला गया था। हिलक्वीन ने ही तब पिता बनकर उसकी परवरिश की और इस योग्य बनाया कि वह इस दुनिया में अपने पैरों पर खड़ा हो सके। बाज़ार की चकाचौध क्या सबकुछ को अंधा कर देती है। उसने अपनी छाती पर सलीब बनाया, 'प्रभु मैं विक्टर को माफ नहीं कर सकती। लेकिन तू उसे माफ़ करना।
   वह घुटनों पर हाथ रखकर उठी।
   उसकी आँखों के सामने वह छोटी-सी चढ़ार्इ थी, जिसे हिलक्वीन तक पहँुचने के लिए पार करना था। एक बारगी उसे लगा कि वह अंतिम बिंदू तक टूट गर्इ है और वह इस चढ़ार्इ को कभी पार नहीं कर सकेगी और दूसरे ही क्षण उसने महसूस किया कि सारे भरोसे टूट जाने के बाद वह एक अबूझ शकित से भी गर्इ है और वह कैसी भी दुर्गम चढ़ाइयों को दौड़ते हुए पार कर सकती है।


बहादुर हिलक्वीन के दरवाज़े पर खड़ा उसका इंतजार कर रहा था। मारया के लौटने में देर होने के कारण आशंका का बादल उसके चेहरे पर फैला हुआ था। उसे देखते ही वह बादल छंटा और उसके होंठों पर एक भोली मुस्कान बिखर गर्इ। घुप्प अंधेरी रात में अनायास प्रकाश की किरण की तरह।
   और जैसे ही मारया ने हिलक्वीन के भीतर क़दम रखा वैसे ही दरवाज़े के ऊपर टंगी सिंगिंग बेल बजने लगी....

Wednesday, January 21, 2015

दुश्मनों से दोस्ती

दुश्मनों से दोस्ती होने लगी है ;
गहन मेरी चौकसी होने लगी है।

ज़िन्दग़ी के नाज़ उठाने लगे हैं आप;
बात चलो काम की होने लगी है ।

हाँफ़ने लगी थी अब मेरी निगाह भी;
शुक्र है कि भोर सी होने लगी है ।

हो गये हैं कान चौकन्ने से और भी;
मुखर जब से खामुशी होने लगी है ।

खटकने लगी है ग़म को बात ये साहिल;
ख़ुशी से जो वाकिफ़ी होने लगी है ।

                          प्रेम साहिल



   प्रेम साहिल पंजाबी के कवि है. उनकी यह रचना मुझे उनके द्वारा ही वाट्सअप पर संदेश रूप में प्राप्त हुई. निशचित लिप्यांतरण और अनुवाद प्रेम साहिल ने खुद किया होगा.




Saturday, January 17, 2015

फेसबुक तो एक युक्तिभर है





यह उल्‍लेखनीय है कि इन्‍टरनेट तकनीक ने कविता, कहानी, उपन्‍यास, यात्रा वृतांतों के साथ साथ साहित्‍य की कई दूसरी नयी विधाओं की संभावनाओं के भी द्वार खोले हैं। ये नयी विधाऐं न सिर्फ माध्‍यम के अनुकूल साबित हो रही है बल्कि उनमें अभिव्‍यक्ति का ऐसा संदेश भी है जो माहौल में ताजगी भरने वाला है। उसे और ज्‍यादा आत्‍मीय बनाता हुआ। गतिविधियों में पारदर्शिता बरतता हुआ और जनतांत्रिक स्थितियों के लिए माहौल गढ़ता हुआ। ये नयी विधाऐं अभी अपनी इतनी शैशव अवस्‍था में हैं कि उनका नामकरण भी नहीं किया जा सकता। हालांकि उस तरह के प्रयास भी इन्टरनेट के जरिये संभव हैं। ये नयी विधाऐं जो एक हद तक अपना आकार बनाती हुई हैं, उनमें एक है खुद का खुद से ही साक्षात्‍कार। इसके प्रणेता के तौर पर हिन्‍दी कथाकार रमेश उपध्‍याय का नाम उल्‍लेखनीय है और दूसरी अभी हाल ही में शुरू हुई लेकिन माध्यम के लिए ज्‍यादा अनुकूल साबित होती हुई अनिल जनविजय की फोटो प्रश्‍नावलियां। दिलचस्‍प है कि ‘कौन बनेगा करोड़पति’जैसी बाजारू प्रतियोगतिओं में दिल थाम कर हिस्‍सा लेने वाले प्रतियोगियों का एक एक क्षण वाला विचित्र मनोरंजन नहीं बल्कि संदर्भ विशेष को ज्‍यादा से ज्‍यादा विस्‍तार देते प्रतियोगियों का बेहिचक प्रवेश इस प्रतियोगिता की खूबी की तरह है जो इसे स्‍वस्‍थ मनोरंजक स्थितियों के लिए जरूरी बनाता जा रहा है। अन्‍य बहुत सी विधायें जो बिखरे बिखरे से रूप में होती हैं, उनको याद करूं तो जगदीश्‍वर चतुर्वेदी, चौखम्‍बा ब्‍लाग वाले द्विवेदी जी, अशोक पाण्‍डे, प्रभात रंजन, संज्ञा पाण्‍डे, शिरीष कुमार मौर्य, यादवेन्‍द्र, सुजाता तेबतिया, नूर अहमद, नील कमल, राकेश रोहित, आशुतोष, आशुतोष सिंह, तेजिन्दर, महेश पुनेठा, अजित साहनी,  शीमा असलम, संध्राया नवोदिता, ताराशंकर, अनुराग मिश्रा  रामजी तिवारी, बोधिसत्‍व और भी कई मित्रों की पोस्‍टों से कभी कभी उभरती है। अरे हां एक शख्‍स का जिक्र तो छूट ही गया, वह आजकल किताबों के दिलचस्‍प किस्‍सों के साथ हैं- सूरज प्रकाश। तकनीक से परहेज करने वाली हिन्‍दी की एक ऐसी जमात है जिसे इन्‍टरनेट की यह सब सकारात्‍मकता देखनी चाहिए और सिर्फ चलताऊ तरह से ‘फेसबुकिया’ कहने से बचना चाहिए। फेसबुक तो तकनीक के भीतर एक छोटी सी जगह है और ज्‍यादा सहजता से कहने का प्रयास करूं तो उसे एक युक्ति माना जा सकता है। टिविटर, ब्‍लाग और वेबसाइटें आदि और भी कई युक्तियां हैं जो एक तकनीक का हिस्‍सा भर है।


Friday, October 24, 2014

गंवर्इ आधुनिकता में सांस लेती हिन्दी कहानी

 यह आलेख हिन्दी चेतना के कथा आलोचना विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। 

विजय गौड़

बेशक साहितियक रचनाओं को इतिहास न कहा जा सके पर उनमें दर्ज होता यथार्थ, दौर विशेष की सामाजिकी को ऐतिहासिक नजरिये से खंगालने का अवसर तो देता ही है। कथादेश, अक्टूबर 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन मध्यवर्गीय जीवन के समकालीन यथार्थ को ऐसी ही करीबी से पकड़ती है। उसका पाठ भारतीय समाज के ऐतिहासिक अव्लोकन की मांग करने लगता है। पिछले 60-70 सालों की हिन्दी कहानियों में दर्ज होते समय से गुजरे बिना उसको समझा भी नहीं जा सकता है। कथ्य की संगतता में वह अपनी जैसी जिन अन्य कहानियों को याद करवाती है उनमें प्रमुख हैं- कथाकार ज्ञानरंजन की सबसे ज्यादा याद आने वाली कहानी पिता, उदय प्रकाश की तिरिछ और सुभाष पंत की ए सिटच इन टाइम। आजादी के बाद लगातार आगे बढ़ते समय में पिता और पुत्र के संबंधों की एक श्रृंखला बनाती ये चारों कहानियां भारतीय समाज व्यवस्था के विकासक्रम का सांखियकी आंकड़ा जैसा प्रस्तुत करने लगती है। ''सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन का पिता जहां कुछ ही समय पहले लिखी गयी कहानी 'ए सिटच इन टाइम के पिता का हम उम्र साथी नजर आता है तो वहीं नब्बे के दशक में आयी 'तिरिछ’ के पिता से उसका पुत्र का सा संबंध बन रहा है और 'पिता का पिता उसे दादा-पोते के से रिश्ते में बांधता हुआ है। कथाकार कामतानाथ की कहानी संक्रमण भी पिता-पुत्र के ही संबंधों पर रची गयी है। सतत सामाजिक बदलावों की संगत में उसके कथ्य को इन चारों कहानियों के ठीक मध्य में रखा जा सकता है। दकियानूस सामंती जकड़न के विरूद्ध 'पिता’ कहानी का अंदाज जहां 'लव-हे’ रिलेशनशिप के साथ है, वहीं 'तिरिछ’ में मिथकीय आख्यान जीवन्त हो उठता है। सुभाष पंत के यहां भावनात्मक संवेदना के अतिरिक्त उभार में असंवेदनशील होता जा रहा समय बोलने लगता है तो हरीचरण प्रकाश की कहानी परिसिथतियों के वस्तुगत बदलाव में यकीन जताती है। सामाजिक बदलावों के इस प्रवाह की मध्यस्ता में खड़ी 'संक्रमण उन अवस्थओं को पुन:सृजित करती है जो बदलाव को एक सीमित गतिविधि या वय की एक अवस्था भर मान रही हैं और पुत्र में संकि्रमत होते पिता के साथ अपना होना सुनिशिचत करती है।    

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा।
उद्धृत की जा रही कहानियां के अलावा भी कर्इ कहानियां हो सकती है जिनमें पिता-पुत्र का संबंध करीब से गुजरा हो। पर इन चारों कहानियों की तारतम्यता आजादी के बाद विकसित होते मध्यवर्ग के भीतर लगातार पनपती और घर बनाती गर्इ गंवर्इ आधुनिकता को चिहिनत करने में मददगार है। वैसे गंवर्इ आधुनिकता एक भिन्न पद है लेकिन यह भिन्नता सिर्फ शाबिदक नहीं है। बलिक रचनात्मक दौर की प्रवृतितयों को चिहिनत किये बगैर, उसको आंदोलन मान लेने वाली प्रवृतित से नाइतितफाकी है, जिसकी मांग हरी चरण प्रकाश की कहानी भी कर रही है। तात्कालिकता को एक आंदोलन मान लेने वाली गैर विश्लेषणात्मक पद्धति ही आलोचना के ऐसे मान दण्ड खड़ी करती रही है जिसमें रचना से इतर रचनाकार को ही ध्यान में रखकर, पहले से तय निष्कषोर्ं को ही आरोपित किया जाने लगता है। लेखक तो कहानी के इस दौर को गंवर्इ आधुनिकता, से नवाजे जाने वाली संज्ञा के पक्ष में है और कहानी आंदोलन के नाम पर अभी तक जारी सारी संज्ञाओं को तथाकथित मानने को मजबूर है। 

पिछले लगभग 70-80 वर्षो के भारतीय समाजिक ढांचे को देखें तो उसका गंवर्इ आधुनिकपन साफ तरह से समझा जा सकता है। आधुनिक काल के आरमिभक समय में उसका व्यवहार किस तरह और कौन से मध्यवर्गीय रास्तों की राह को पकड़ कर वह आगे बढ़ रही है, इसे भी जाना जा सकता है। हरीचरण प्रकाश की कहानी यहां दूसरे छोर पर है और पहला छोर कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता’ के मार्फत ज्यादा साफ दिख रहा है। बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के यदि बहस में उतरें तो अनेकों सवालों से टकराना होगा और गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता में छलांग लगाते भारतीय मध्यवर्ग का चेहरा किस रूप में हमारे कथा साहित्य में दर्ज हुआ है उसे जानना-समझना संभव हो सकता है। 

सवाल है कि गंवर्इ आधुनिकता है क्या ? हरीचरण प्रकाश की कहानी और उसके बहाने याद आ रही अन्य कहानियों से उसका क्या संबंध बनता है ? स्पष्ट है कि गंवर्इ आधुनिकता का वास्तविक अर्थ हिन्दी साहित्य की अभी तक की उस दुनिया से भिन्न नहीं है, जो मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर रही। वैशिवक पूंजी के आक्रामक बदलावों से नाइत्तफाकी ही उसका आदर्श है। लाख कहा जाये कि हिन्दी साहित्य के पाठकों की दुनिया सीमित है तो भी इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि  भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा साहित्य के आदर्शोे की रोशनी में ही आवाम के प्रति संवेदनशील बना रहा है, यह उस गंवर्इपन की सकारात्मकता ही है। निम्न वर्गीय सामाजिक पष्ठभूमि से भरे कथ्य के बावजूद संवाद की मध्यवर्गीय जड़ताओं के दायरे में सिमटा होना इसके कमजोर पक्ष के रूप में रहा है। भले-भले से विचार और मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर होने के बावजूद भी बदलाव के सतही नारों की शिकार रही राजनैतिक पृष्ठभूमि इसकी सीमा निर्धारित करती रही। जिसके चलते तकनीकी बदलावों को ठीक से समझने और उस आधार पर सामाजिक आदर्श को गढ़ने की प्रक्रिया में अवरोध ही बना रहा। इसका सीधा असर उन मूल्य-आदर्शों पर पड़ा जो समाज की खुशहाली का स्वप्न बुनने में सहायक होते। सिर्फ कोरे आदशोर्ं के कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़े गये जिसने आधुनिकता की ओर संक्रमण करते समाज को घोर निराशा में जीने को मजबूर किया। व्यकितगत महत्वाकांक्षाओं की तुषिट के लिए बचाव की भूमिका ही व्यकित का आदर्श होती गर्इ। जनतांत्रिक मध्यवर्गीय आधुनिकता की बजाय भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता को जन्म देने वाली सिथतियां ऐसे तथ्यों के साक्ष्य है। 

चूंकि हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ--- गंवर्इ आधुनिकता के अंत होते दौर को बयान करती है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि इस अंत होती गंवर्इ आधुनिकता की पड़ताल पूर्ववर्ती कहानियों के सहारे की जाये। और उस मध्यवर्गीय आधुनिकता को भी समझा जाये जो सामाजिक बदलाव की स्वाभाविक वैज्ञानिक प्रक्रिया की बजाय बलात आरोपित होती हुर्इ है। पायेगें कि गंवर्इ आधुनिकता का परित्याग अकस्मात झटके के साथ नहीं हो रहा है बलिक सामाजिक आदर्श और नैतिकताओं से धीरे-धीरे किनारा करते ऐसे मध्यवर्गीय रुझानों के साथ है जो अस्वीकार एवं स्वीकारोकित की सिथतियों की द्विविधा में गैर सामाजिक हो जाने के अंदेशों से कांपती भी रहती है। कांपने की थर-थरहाट को शिल्प और भाषा पर जरूररत से ज्यादा जोर देकर लिखी गयी कहानियों के रूप में देख सकते हैं। बिना किसी असमंजस के यदि ऐसी कहानियों का जिक्र करना पड़े तो योगेन्द्र आहूजा की पांच मिनट, मनोज रूपड़ा की रददोबदल गीत चतुर्वेदी की सावंत आंटी..., पिंक सिलप डेडी का जिक्र किया जा सकता है। ऐसी अन्य कहानियों से गुजरते हुए देखा जा सकता है कि तरह-तरह के उपभोक्ता उत्पाद की भूख पैदा करने वाली मुनाफाखौर पूंजी के विरोध के नाम पर विषय की विशिष्टता, शिल्प और अति भाषायी सजगता में मनोगत कारणों के प्रभाव ही ज्यादा प्रबल होते हुए हैं। 

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा। लोभ और भ्रष्टता का दल-दल समाज में ऐसे भी अपना दायरा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी उसके होने और उससे निषेध की बहुत क्षीण आवाज का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है।

सामंती मानसिकता में रंगी जिस गंवर्इ आधुनिकता ने आजादी के आंदोलन में भारतीय जन मानस का नेतृत्व किया, आगे के समय में पीढ़ी दर पीढ़ी उसका ज्यों का त्यों बना रहना भी सामंती मूल्यों को पोषित करती राजनीति की ही देन रहा। उपभोक्ता संस्कृति की मुखालफत में मशीनीकरण का ही विरोध भारतीय मध्यवर्ग की भी आवाज होता गया। परिणामत: नाक भौं सिकोड़ोते हुए भी वैशिवक पूंजी की मंशाओं को पूरी तरह से पर्दा फाश करने में प्रगतिशील धारा की राजनीतिक सीमायें भी सामाजिक निराशा को जन्म देती रही है। व्यवस्था रूपी संख्याबल से बाहर हो जाने की चिन्ताओं में वह खुद अपने भीतर के मैकेनिज्म में भी वैसी ही सिथतियों को यथावत बने रहने देने वाली कार्यशैली को अपनाने वाली रही, जिसने गैर वैज्ञानिकता का ही साथ दिया। भारतीय राजनीति के इस 'प्रगतिशील रूप की बहुत साफ तस्वीर हिन्दी साहित्य में देखी जा सकती है। विचारभूमि की ऐसी सिथतियाें में ही हिन्दी कहानी का केन्द्र दया, करुणा वाले नैतिक आदर्शों से आगे नहीं बढ़ पाया। शोषण के प्रतिरोध की सदइच्छायें, साम्प्रदायिकता जैसे कुतिसत विचार की मुखालफत में भी एक ऐसा दार्शनिक अंदाज जो धर्म पर चोट करने को कतर्इ जरूरी नहीं मानता रहा। प्रगतिशीलता के ऐसे ही मानदण्ड संस्कृति और कला के घालमेली करण में वहां-वहां तर्क बन कर सामने आते रहे जहां पूजा पंडालों वाले उत्सवों के साथ बली प्रथाओं जैसी अमानवीय प्रवृत्तियां आज तक खुले आम जारी हैं, बल्कि सरकारी संरक्षण देता वर्दी धारी कानूनी राज मानो उनके लिए ही पहरे पर हो। 

उन कहानियों का जिक्र फिर कभी जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा हो रही हैं, अभी तो गंवर्इ आधुनिकता की तलाश में जुटते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय समाज के चेहरे पर उभर आने वाले गंवर्इपन को पूरी तरह से मिटा पाने में असमर्थ और स्वंय को आधुनिक मान लेने के मुगालते में जीता मध्यवर्ग, न टूट पाये सामंती मूल्यों की जड़ता में वर्ण संकर जैसा जरूर हुआ। सामंतवादी मूल्य और आदर्शों से मुकित की सिथतियां इस वर्ग के निजी दायरे में भी वहीं तक प्रवेश कर पायी हैं जिनकी वजह से उसकी मौज मस्ती में खलल पड़ सकती थी। यदा कदा के प्रतिरोधी प्रदर्शनों वाले 'इवेन्ट को खबर बनाकर पेश करने वाले मीडिया पर भी इस वर्ग का यकीन ही जनतंत्र का झूठ रचकर आजादी का झण्डा फहराती मुनाफाखौर पूंजी की षडयंत्रकारी गतिविधियों में भी सहायक हुआ है। सिर्फ मुनाफे की हवस से भरी दलाल पूंजी ने सामंतवादी मूल्यों को पोषित करती शासन-प्रशासन की नीतियों को ही राष्ट्रीयता का नाम दिया। वैशिवक पूंजी ने स्वंय के विस्तार के लिए भी, तंत्र की इस खूबी को पहचानते हुए उसे यथावत बना रहने देने की हर भरसक कोशिश की। उसके दोहरेपन ने, जो एक ओर तो स्तंत्रता और संपभुता का स्वीकार प्रस्तुत करता रहा और दूसरी ओर वैसी सिथतियों में जारी सिथतियों को छुपाये रखने वाली मानसिकता का पक्ष चुनता रहा, स्वतंत्रता के मायने कभी पूरी तरह से परिभाषित नहीं होने दिये और स्थानीय पूंजी के दलाल रूप पर भी पर्दा पड़ा रहा। जात-पांत, क्षेत्र, धर्म और लैंगिक भेदभाव को फैलानी वाली विभेदकारी शकितयों के लगातार आगे बढ़ते रहने की सिथतियां भारतीय राजनीति की सीमा रही। बदलाव की वैशिवक भूमिका में स्वंय को प्रगतिशील मानती ताकतें भी व्यवहार में भिन्न नहीं हो पायीं। सीमित स्वत्रंता वाली स्थानीय पूंजी को अपना पिछलग्गू बनाये रखने और संसाधनों पर सीधे कब्जे वाली एफ.डी.आर्इ की हिस्सेदारी पर मन मसौस-मसौस कर भी स्वीकारोकित का वातावरण मौजूद रहा। इस प्रक्रिया में इतिहासबोध और सांस्कृतिकपन की जितनी जरूरत थी, भारतीय मध्यवर्ग ने उसे स्वीकारने में कभी कोर्इ हिचक नहीं दिखायी। घुड़सवारी, तैराकी और तमाम रोमांचक गतिविधियों में दक्षता के साथ पुरूष को पति परमेश्वर मानते रहने वाली स्कूली शिक्षा के आदर्श इसका एक नमूना मात्र है। ऐसी विशेष भारतीय सामाजिकी में जिस तरह की रचना उपज सकती हैं, वे गंवर्इ आधुनिकता से भिन्न हो नहीं सकती थी। न ही हो पायी हैं। देख सकते हैं कि दलित धारा की रचनायें भी इसी गंवर्इ आधुनिकता के भीतर सांस लेती हुर्इ हैं। लेकिन आलोचना की चालू पद्धति में वे भी उसी तरह एक अलग धारा के रूप में परिभाषित हुर्इ हैं, जैसे स्त्री सवालों की वे रचनायें जो सामंती मूल्यों की बगावत में तो लिखी गर्इं लेकिन विमर्श के भीतर आकार लेते आर्थिक स्वतंत्रता और दैहिक सजगता से भरे दो भिन्न पाठों में बंट कर रह गयीं। 

आज तक की हिन्दी कहानी मुख्यतौर पर शिल्प और पासंग में भाषायी बदलाव के साथ ही दिखायी देती  हैं। आलोचना के स्तर पर भी कलात्मक सौन्दर्य के ऐसे ही प्रतिमानों की स्थापना में रचनात्मक साहित्य के मूल्यांकन की जो पद्धति अपनायी गयी वह दृषिट में तात्कालिक और प्रस्तुति में निर्णायक ही ज्यादा रही, जिसके लक्ष्य न सिर्फ खुद में अतिमहत्वाकांक्षा से भरे रहे बलिक रचना जगत के सामने जिसने व्यकितवादी होने के मानदण्डों वाली नैतिकता के आदर्श को स्वीकारोकित प्र्रदान की। राजनैतिक ढुलमुलपन में वास्तविक प्रतिरोध के प्रतिमानों की चूकती गयी स्थापनाओं ने ही रचनात्मक जगत को भी ऐसे तार्किक आधार दिये कि सामंतवाद को उसके क्रूरतम में चिहिनत करना प्राथमिक नहीं रहा। संस्कृति को ध्वस्त किये बगैर आजादी के आंदोलन में पैदा होती आधुनिकता, आजादी के बाद भी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी बलिक शासन प्रशासन के भीतर तक घुसपैठ करते हुए संवैधानिक ढांचे की शक्ल अखितयार करती गर्इ। भारतीय नौकरशाही के मूल चरित्र को उसने 'बासिज्म की ऐसी ठकुरार्इ प्रदान की कि कानून चौराहे पर खड़े सिपाही का हाथ होता गया। यानी किसी भी सीट पर बैठा कर्मचारी अपनी सीमित समझ और मनोगत कारणों से जन्म लेती व्याख्यायों को ही कानून बनाकर सामान्य जन की मुसिबतों को बढ़ाने की छूट पाता रहा। 

60 के दशक में लिखी गयी कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता', दौर विशेष के भीतर मौजूद सामंती मूल्यों की भिड़न्त में आधुनिकता की जिस तस्वीर को प्रस्तुत करती है उसमें नये जीवन मूल्य के समर्थन में खड़ी भारतीय राजनीति की प्रगतिशील धारा के तत्कालिन मानदण्ड साफ दिखायी देते हैं। पिछड़ी तकनीक को जिददीपन की हद तक जीवन का आदर्श मान रहे पिता से आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के पक्ष को चुनने वाले पुत्र का मतभेद कहानी का मूल विषय है। लेकिन इस प्रगतिशीलता की अपनी सीमायें रही जिसमें तकनीक के बजाय उत्पाद के प्रति मोह को आधुनिक मान लिये जाने का खतरा था और उसी की गिरफ्त में फंसती गर्इ आधुनिकता का प्रवाह ही परवर्ती काल की विशेषता बन कर उभरने लगा। सामंती अन्तर्विरोधों को उभारते हुए भी उनसे पूरी तरह से मुक्त न हो पाने की त्रासदी भारतीय मध्यवर्गीय आधुनिकता की वह तस्वीर है जो वास्तविक रूप में आधुनिक होने की बजाय गंवर्इपन के झूठे विलगाव में भ्रष्ट हो जाने का आधार प्रदान करती है। संबंधों में एक किस्म का आत्मीय अनुराग लेकिन अभिव्यकित पर ताले लगाने को मजबूर करता सामंतीपन यहां सतत मौजूद रहता है। विवरणों में पुत्र की नफरत है लेकिन नफरत की वजह पुत्र का अपनी पहचान का संकट है। वह झूठी पहचान, जो सामंती ठसक में नाक को ऊंची रखने के लिए जिन्दा रहती है। लू के थपेड़ो वाली गर्मी की रात पंखे में लेटने की बजाय पिता घर के बाहर 'बान वाली चारपार्इ को भिगो-भिगो कर उस पर लेटते हुए गर्मी से निपटने की युक्ती खोज रहे हैं। पंखे की हवा में लेटा पुत्र चिनितत है कि गर्मी के कारण हो रही बेचैनी से पिता निजात पा जायें और चैन की नींद सो सकें। इस निजात पाने में पिता की हरकतों पर ध्यान देने की आशंका से भरा ऐसा आस-पास है जो पुत्र को इस कदर डराये है कि अब नाक कटी कि तब। नाक का यह सवाल ही भारतीय मध्यवर्ग की आधुनिकता के साथ आगे बढ़ता गया है। स्वस्थ पूंजीवादी प्रभावों के असर में नहीं बलिक आरोपित किस्म के पूंजीवाद ने जिस तरह सामंती गठजोड़ को आकार दिया, बिल्कुल वही। सृंजय की एक कहानी है ''मूंछ" जिसमें इस विशेष भारतीय पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ की स्तिथियाें पर करारा व्यंग्य हुआ है। 

'पिता’ भारतीय समाज के उस वर्ग का चेहरा बनती है जिसने आजादी के बाद आकार लेना शुरू किया है। तकनीक का उपयोग जिसे खुद के जीवन को सरल बनाता हुआ लग रहा था और अपने सीमित संसाधनों में वह उनका उपयोग भी करने लगा था।  यथा,

''उसने जम्हार्इ ली, पंखे की हवा बहुत गरम थी और वह पुराना होने की वजह से चिढ़ाती सी आवाज भी कर रहा है।''

वह एक पुराना पंखा है जो खड़खड़ाहट करने की सिथति तक पहुंच चुका है। उपभोक्तावाद ने यहां अभी अपने पांव नहीं पसारे हैं। यानी जरूरत के हिसाब से पुरानी-धुरानी चीजों के साथ जीवन आगे बढ़ रहा है। अपने सीमित साधनों में ही पहुंच की सीमायें हैं।

''... लेकिन दूसरे कमरे के पंखे पुराने नहीं हैं।''

  ये अनिवार्य सुविधायें नये उभरते वर्ग की जरूरत का हिस्सा होती जा रही हैं और नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच जीवन मूल्यों की खींचतान ऐसे मुददों पर ही अपने-अपने तर्क के साथ आगे बढ़ती है।

'' वे पुत्र, जो पिता के लिए कुल्लू का सेब मंगाते और दिल्ली एम्पोरियम से बढि़यां धोतियां मंगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से पिता विरोधी होते जा रहे हैं।''

पिछड़ेपन की जिद पर अड़े रहने वाले पिता से मतभेद के बावजूद अपने विरोध को सीधे रखने की एक स्पष्ट हिचकिचाहट यहां नयी पीढ़ी के भीतर सतत मौजूद है। बलिक पिता की भूमिका यहां कुछ आक्रामक ही बनी रहती है और गैर जनतांत्रिकता और सामंतीपन सामाजिक मूल्य के रूप में ज्यों के त्यों बचे रहते हैं।

''आप लोग जाइए न भार्इ, काफी हाऊस में बैठिये, झूठी वैनिटी के लिए बेयरा को टिप दीजिए, रहमान के यहां डेढ़ वाला बाल कटाइए, मुझे क्यों घसीटते हैं ?''

इस आक्रामकता का तार्किक जवाब देने की बजाय सिथति को यथावत जारी रहने देने के लिए तात्कलिक तौर पर किनारा कर लेने में ही विरोध की गढ़ी जाती तमीज ने उस मध्यवर्गीय व्यवहार को जन्म दिया जो भले-भले बने रहने की मानसिकता में ही समाज का चेहरा होती गयी।

''कमरे से पहले एक भार्इ खिसकेगा, फिर दूसरा, फिर बहन और फिर तीसरा चुपचाप। सब खीझे हारे खिसकते रहेंगे। अंदर फिर मां जाण्ंगी और पिता, विजयी पिता कमरे में गीता पढ़ने लगेंगे या झोला लेकर बाजार सौदा लेने चले जाएंगे।''

आधुनिकता के नाम पर बचा रह जा रहा यह सामंतीपन अगली पीढ़ी तक स्थायित्व होता चला गया। 'तिरछ कहानी में ऐसे ही पिता की तस्वीर आदर्श पिता के रूप में दर्ज है। जीवन मूल्यों में बदलाव की हिमायती होने के बावजूद भी समय के साथ वैसी ही जिदद के संक्रमण का यही रूप बाद के दौर में कथाकार कामतानाथ की कहानी 'संक्रमण' में दिखता है।

''थोड़ा समय गुजर जाने के बाद फिर लोगों का मन पिता के लिए उमड़ने लगता है। लोग मौका ढूंढ़ने लगते हैं, पिता को किसी प्रकार अपने साथ की सुविधाओं में थोड़ा बहुत शामिल कर सकें।''  - पिता, ज्ञानरंजन

यूं गैरजनतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ यहां मुखरता की सिथति फिर भी साफ-साफ है। कहानी के विवरण बतातें हैं कि पिता अपनी ही तरह की अकड़ ओर जिदद के साथ हैं। सामंती मानसिकता ने पिता को इस कदर जकड़ा हुआ है कि बढ़ती तकनीक की आधुनिकता में भी उन्हें असहजता महसूस होती है और वे उसका विरोध करने को मजबूर होते हैं। उनकी सांस्कृतिक शुद्धता के आगे तकनीक की आधुनिकता भी, बेशक वह कितना ही मनुष्य के हक में हो, त्याज्य है। भारतीय आजादी के आंदोलन में यह विचार गांधी के प्रभाव से मुखर हुआ और जिसे बाद के काल में स्वतंत्र चिंतन की सीमित सिथतियों के साथ, मौखिक रूप से गांधी से असहमति के बावजूद, ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। एक लम्बे समय तक, बलिक आज तक, ऐसे प्रभाव में जकड़ा हिन्दी भाषा, समाज और उसका पूरा बौद्धिक वातावरण इसका गवाह है। गांधी का गांधीवाद तो गंवर्इ दौर की सिथतियों में सांस लेता था लेकिन आधुनिक होते समाज के भीतर भी उसकी ज्यों की त्यों सिथति को फिर 'गंवर्इ आधुनिकता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए ? भारतीय राजनीति का यह एक ऐसा चेहरा था जिसके कारण औपनिवेशिक दासता की छाया से पूरी तरह मुकित का रास्ता तलाशना भी मुशिकल हुआ। वामपंथी राजनीति के भटकाव की गलियां भी एक हद तक ऐसी ही खाइयों में धंसी देखी जा सकती हैं। जहां उत्पाद को ही तकनीक मानते रहने की समझ काम करती रही। पायेंगे कि इंक्लाब का नारा बुलन्द करती  क्रान्तिकारी धारा तक ने अपने को ट्रेड यूनियन आंदोलन से बचाये रखते हुए नवजनवादी क्रानित के उस नारे को बुलन्द किया है जो पिछड़े तरह के औजारों और दैवीय अनुकम्पा में टिकी खेती का हिस्सा हो जाता है। 'आधुनिक किस्म के उपक्रमों में काम कर रहे मजदूर और कर्मचारियों की तकलीफें उसके दायरे से बाहर रही और झूठे जनवाद की वकालत में जुटी संसदीय राजनीति के आसरे मजबूत संभावनाओं वाले ट्रेड यूनियन आंदोलन का जो हश्र और पतन होना था, वह लगातार जारी रहा। बौद्धिक जमात और साहित्य, संस्कृति और कला में जुटे समाज से भी क्रानितकारी धारा की एक हद तक दूरी इसी लिए बनी रही- खासतौर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र में तो इसे दूरी के रूप में भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। परिणामत: सांस्कृतिक बिरादरी का अधिकांश हिस्सा सामाजिक परिवर्तन की किसी सकारात्मक कार्यवाही से बाहर ही खड़ा रहा और बदलाव की क्रानितकारी धारा ही नहीं बलिक बदलाव का परस्पर रास्ता तक विकसित नहीं हो पाया। सिथतियों की यह विकटता जनपक्षधर प्रतिबद्ध रचनाकार जमात को भी अपने औजार तलाशने के अवसरों से वंचित करने वाली साबित हुर्इ। साहित्य की दुनिया के ऐतिहासिक पड़ाव को रचनाकारों के नामों के साथ जोड़कर, या कोर्इ नया सा नाम देकर, स्थापित होने की व्यकितवादी प्रवृतित ही आगे बढ़ती रही। 19 वीं सदी से शुरू हुर्इ आधुनिक हिन्दी साहित्य की पड़ताल में जुटी हिन्दी आलोचना का ऐतिहासिकताबोध तो इस बात की तथ्यात्मक पुष्टी करता है। जहां कितने ही पड़ावों से हिन्दी की आधुनिक धारा को परिभाषित होते हुए देखने के बाद भी किसी एक रचना को पढ़कर यह अनुमान लगाना संभव नहीं कि इसे किस खांचे में रखकर पढ़ा जाये जब तक कि रचनाकार का नाम और रचना के काल एवं उसको प्रकाशित करने वाले ग्रुप के साथ जोड़ने वाली सूचनाओं का अभाव हो। यानी प्रवृतित में एक ही तरह की रचनायें, कमोबेश कालक्रम के कारण आ रहे छोटे मोटे बदलावों में सांस लेने के कारण कुछ भिन्नता भी बेशक लिए हों, लगातार पनपती और विकसित होती व्यकितवादी प्रवृतितयों के कारण जन्म लेते गये खेमों में बंटी हुर्इ रही। व्यवहार में गिरोहगर्द होते जाने का इतिहास निर्माण जारी रहा और आलोचना, आत्मआलोचना का दायरा सिकुड़ता चला गया। भारतीय राजनीति के संसदीय चेहरे को निखारने में जुटे साहित्यक संगठनों ने इस प्रक्रिया में खाद पानी का काम किया और मनोगत कारणों से व्याख्यायित होती झूठी प्रगतिशीलता की स्थापनाओं को आधार प्रदान किया। हिन्दी कथा साहित्य में ऐसे यथार्थ की अनेकों तस्वीरें साफ-साफ दर्ज हुर्इ हैं जो स्वत: इस बात का भी प्रमाण हैं कि बिना किसी दूरगामी राजनीति के साहित्य भी किसी नये कल्पनालोक की स्थापनाओं का वास्तविक पक्षधर नहीं हो सकता।

संदर्भित कहानी 'पिता’ में निसंदेह सामंतवाद के प्रति एक निषेध तो दिखता है लेकिन समाज में बहुत भीतर तक जड़ जमायी सामंती प्रवृति से पूरी तरह से मुक्त न हो पाये रचनाकार का मानस भी अपना असर डालता है। कथाकार ज्ञानरंजन की आलोचना में कहा जाये तो स्पष्टतौर से कहना पड़ेगा कि वे 'अकहानी के दौर के ऐसे रचनाकार हैं जिनके यहां मानवीय संबंधों की आत्मीय पुकार सामंती मुकित से पूरी तरह विलग संसार रचने में एक पड़ाव भर ही रही। प्रतिरोध की मुक्कमल तस्वीर नहीं बनाती। हां, यह जरूर है कि पिता कहानी में मानवीय संबंधों की ऊष्मा को बचाए रखने की कोशिश अपने समय के हिसाब से ज्यादा तार्किक और संबंधों में आ रहे बदलावों को ज्यादा करीब से पकड़ती है। इस कहानी के साथ ही शुरु हुआ दौर कुछ भिन्न इसीलिए भी दिखायी देता है कि यहीं से हिन्दी कहानी जिन्दगी के ऊबड़ खाबड़ पन को ज्यादा मारक तरह से रखने वाली भाषा को गढ़ने के साथ आगे बढ़ती हुर्इ दिखने लगी। लेकिन अनुतरित रह जा रही सामंती सिथतियों से छलांग लगाकर मध्यवर्गीय होते जीवन के उस कथा संसार से बहुत भिन्न न हो पायीं जो छायावादी युगीन काव्य-कोमलता से आगे निकल आने के बावजूद मध्ववर्गीय जीवन के कलह-झगड़े, प्रेम और नफरत के कोमल-कोमल से दृश्य ही लगातार रच रही थी । यहां तक कि निर्ममता से भरी मुनाफाखोर संस्कृति पर राजनैतिक दृढ़ता से भरे हमले की ठोस पहल को प्रेरित करने में भी अपनी सीमाओं के साथ रहीं। सांस्कृतिक वातवारण के निर्माण में ही नहीं अपितु वास्तविक अर्थोें में भी वित्तीय पूंजी की बढ़ती चौधराहट के साथ कामगार वर्ग पर तेज हो रहे हमलों से बच निकल जा रहा हिन्दी का रचनात्मक संसार सिर्फ भाषायी प्रयोग और कलात्मक अभिव्यकित में बदलाव के साथ भिन्न नहीं हो सकता था और न ही है भी।
     
इतिहास अपनी व्याख्याओं में 'ऐसा था होने की स्थितियों का नाम नहीं बल्कि 'यही थ’ होने की तार्किकता का समर्थक होता है। और उस 'यही था को प्रस्तुत करने के लिए उसे साक्ष्यों को रखना अनिवार्य शर्त जैसा हो जाता है। गल्प और कथाऐं 'ऐसा था’ होने की आवृतित के साथ इतिहास जैसी आवाज हो जाती है। क्योंकि तथ्यों का अनुसंधान और उनके अनिवार्य विश्लेषण में वे अपना होना साबित करती हैं। साक्ष्यों की उपसिथति की वहां कोर्इ जरूरत भी नहीं लगती। साहित्य की यह खूबी किसी भी घटना के एकांगी पाठ की सीमाओं को तोड़ देती है और रचनाकार के मंतव्य का भी अतिक्रमण करते हुए अनेकों पाठ की छूट ले लेती है। संभावनाओं की अनंत दिशाओं के द्वार खोलते पाठों के रास्ते ही 'ऐसा था से 'ऐसा होगा तक की व्याख्याऐं जन्म लेना शुरू होती है। यानी, साहित्य की प्रासंगिकता इस दृषिटकोण से भी महत्वपूर्ण होती है कि वह मात्र सांखियकी आंकड़ों के आधार पर किसी मसले को पूरी तरह से समझने की सीमाओं को चिहिनत करती है। 'तिरिछ कहानी का पाठ घटना के विश्लेषण को विभिन्न स्तरों पर मांग का पक्षधर है। पिता की मृत्यु हो जाना एक घटना है और मृत्यु के कारणों की खोज में जो ताना-बाना है वह किस कदर वास्तविक कारणों तक पहुंचना चाहता है कि उससे गुजरना दिलचस्प है। मृत्यु तिरिछ के काट लेने से हुर्इ है। लेकिन प्रश्न है कि वह तिरिछ एक जहरीला जंगली जानवर भर है, जो किसी अंधेरी खोह में रहता है, या सर्वत्र व्याप्त तिरिछ की सिथतियां मृत्यु का कारण हैं ? साथ ही उपचार की वह कौन सी पद्धति है जो पूरी तरह से स्वस्थ कर पाने में कारगर हो सकती है ? कल्पनाओं की अनंत उछालों के साथ रची गयी यह कहानी अभी तक की ज्ञान-विज्ञान की जानकरियों से उपजी पद्धति तक को सवालों के घेरे में लेती है और अज्ञात रह गये बहुत से क्षेत्रों तक आगे बढ़ने का इशारा करती है। तिरिछ के काट लिये जाने पर समुचित रूप से उपचारित होने की संभवानायें बेशक यहां निशाने पर नहीं हैं पर धतुरे का काढ़ा पिलाकर किये जा रहे उपचार की विधि पर आधारित तथाकथित 'आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सैद्धानितकी तो निशाने पर है ही। 'तिरिछ’ कहानी का यह पाठ भी उसको एक महत्वपूर्ण कहानी बनाता है। भाषा और शिल्प के स्तर पर गंवर्इ आधुनिकता में धंसे समाज की अनेको-अनेक पर्तों को उदघाटित करने की सचेत कोशिश भी कहानी को महत्वपूर्ण बना रही है।

गांव-गंवर्इ का ठेठ देशीपन जो सामूहिकता के साथ ही विपदाओं से निपटने को तैयार रहता है, बदलती सामाजिक सिथतियों में 'तिरिछ के पिता को धतुरे का काढ़ा पिलाकर निशिचत हो जाता है। लेकिन एक ऐसा पिता (एक समय का पुत्र) जो सामंती जकड़न से अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाया, साम्राज्यवादी शहरीकरण के बीच उसके खो जाने की आशंका निमर्ूल नहीं थी। भविष्य के पिता और वर्तमान पुत्र द्वारा पूर्व पुत्र और वर्तमान पिता को खोजने के लिए बहुत से बंद पड़े दरवाजों को खड़-खड़ाना इसीलिए जरूरी भी था।   

''पिताजी के साथ एक दिक्कत यह भी थी कि गांव या जंगल की पगडंडियां तो उन्हें याद रहती थीं, शहर की सड़कों को वे भूल जाते थे।   - तिरिछ

तिरिछ कहानी का पिता पिता कहानी का वह पुत्र है जो एक दौर में पिछली पीढ़ी से एक हद तक आधुनिक हुआ था। और इस आधे-अधूरे आधुनिकत पिता पर उसके पुत्र का यकीन स्पष्ट है। पिता का जिक्र यहां कुछ इस तरह से होता है,

''दुबला शरीर, बाल बिल्कुल मक्के के भुटटे जैसे सफेद। सिर पर जैसे रूर्इ रखी हो। वे सोचते ज्यादा थे बोलते बहुत कम। जब बोलते तो हमं राहत मिलती जैसे देर से रुकी हुर्इ सांस निकल रही हो।"

आदर्शवादी और दूसरों से कुछ आधुनिक पिता पर मुग्ध यह पुत्र चश्मदीद गवाह, पत्रकार सत्येन्द्र थपलियाल के कहे पर यकीन नहीं कर सकता कि उसका पिता किसी सर्राफ की बीबी और बेटी पर हमला करने वाला शख्स हो सकता है। पिता के आदर्श और उनकी नैतिकता पर उसका पूरा भरोसा है। किन्हीं अनजानों को बेवजह गालियां देने वाले पिता की तो वह कल्पना ही नहीं कर सकता।

''मेरा अनुमान है कि पिताजी उनके पास या तो पानी मांगने गये होंगे या बकेली जाने वाली सड़क के बारे में पूछने। उस एक पल के लिए पिताजी को होश जरूर रहा होगा। लेकिन इस हुलिये के आदमी को अपने इतना करीब देखकर वे औरतें डरकर चीखनें लगी होंगी।"

भारतीय राजनीति के इंक्लाबी दौर का सातवां, आठवां दशक इस बात का गवाह है कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाला पुत्र नव औपनिवेशिक ढांचे के साथ विस्तार लेती जा रही सिथतियों को नजरअंदाज कर रहा था, ट्रेड यूनियन आंदोलन में हिस्सेदारी से परहेज कर गांव-देहातों से जंगल के भीतर तक सुरक्षित आधार तैयार कर लेना उसकी प्राथमिकी में रहा और आज तक बना हुआ है। इसीलिए वह उन गहरे अंधेरों के तिरिछों से निपटना तो जानता था जो किसी खोह में, नदी के तट पर या किसी गाछ की जड़ में दिख जाते हैं लेकिन शहरी वातावरण में हर ओर मौजूद ज्यादा जहरीले तिरिछ की उसे पहचान नहीं हो सकती थी।

किराये के मकान में रहते हुए मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी ढोता तिरिछ कहानी का पिता साठ के दशक के पुत्र होने के पूरे प्रमाण छोड़ता है। पारिवारिक ढांचा यहां सिर्फ पत्नी और ब्च्चों वाली तस्वीर में मौजूद है। संयुक्त परिवारों वाली सामूहिकता यहां गायब होने लगी है। साथ ही छल-छदम और हर तरह से मारकाट के निर्मित होते वातारवरण में परिवार के मुखिया की चिंताएं अपने परिवार की सुख-सुविधाओं को बचाये रखने की है। जीवन के इस संघर्ष में न सिर्फ मध्यवर्गीय जड़ताएं हैं बलिक सामंती प्रभावों में जन्म लेती बहुत-सी दैनिक दिक्कतें हैं जो उसे घेरे रहती हैं।

''उस समय पिताजी सिर्फ तिरिछ के जहर और धतूरे के नशे के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे थे बलिक हमारे मकान को बचाने की चिन्ता भी कहीं न कहीं उनके नशे की नींद में बार-बार सिर उठा रही थी।"

यहां पिता का अपने परिवार और बच्चों से जो रिश्ता है, उसमें एक हद तक खुलापन है। वह यदा-कदा बच्चों के साथ घूमने भी जाता है। पारिवारिक ढांचे में एक सीमित हद तक बराबरी के भाव भी रखना चाहता है। पुरानी पीढ़ी से भिन्न उसकी यह छवी ही उसे अपनी संततियों के सामने एक आदर्श पिता का व्यकितत्व प्रदान करती है।

''कभी-कभी, वैसे ऐसा सालों में ही होता, वे शाम को हमें अपने साथ टहलाने बाहर ले जाते। चलने से पहले वे मुंह में तंबाकू भर लेते। तंबाकू के कारण वे कुछ बोल नहीं पाते थे। वे चुप रहते। यह चुप्पी हमें बहुत गंभीर, गौरवशाली, आश्चर्यजनक और भारी-भरकम लगती।"

कितना साफ दर्ज है कि पिता कहानी में जहां पुत्र पिता का विरोधी नजर आता है, वहीं तिरिछ का पुत्र विरोध तो बहुत दूर की बात, उस तरह की किसी अभिव्यकित को भी अपने भीतर नहीं उपजने देता। पिता पर उसके यकीन के ढेरों साक्ष्य कहानी में हैं,

"एक तरह की राहत और मुक्ति की खुशी मेरे भीतर धीरे-धीरे पैदा हो रही थी। कारण, एक तो यही कि पिताजी ने तिरिछ को तुरन्त मार डाला था और दूसरा यह कि मेरा सबसे खतरनाक, पुराना परिचित शत्रु आखिरकार मर चुका था। उसका वध हो गया था और मैं अपने सपने भीतर, कहीं भी, बिना किसी डर के सीटी बजाता घूम सकता था।"

 देख सकते हैं कि संबंधों को बचाये रखने के नाम पर सामंती सरोकार से मुकित की कोर्इ स्पष्ट राह नहीं बन पाती। बलिक जो थोड़ा-बहुत रास्ता बन भी रहा होता है उसमें भी गतिरोध पैदा होने लगा। जनतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होने लगी है और अन्तर्विरोधों के उभरने की बजाय स्वीकारोकित का यथासिथ्तिवाद जन्म लेने लगा। पिता की आधुनिकता को ही अनितम रूप से स्वीकारते हुए, पीढ़ीगत अन्तर्विरोध जैसा भी कुछ नहीं उभरता। पूरी तरह से सहमत पुत्र के भीतर स्थापित हो रहे आदर्शों को अपनाने में किसी भी तरह की कोर्इ द्विविधा नहीं रहती। यह विचारणीय है कि सामाजिक बदलाव की यह गति क्या उतनी ही स्वाभाविक थी जितनी सरलता से वह साहित्य में दर्ज हो रही थी ?

यह विवरण भी कहानी में ही है कि पिता को जहां सबसे ज्यादा प्रताड़ना मिली वह इतवारी कालोनी है। विकसित होती आर्थिक व्यवस्था का स्थायी कहा जा सकने वाला डेरा, जहां साम्राज्वादी पूंजी की खुरचन से जीने के नये अंदाजों की ओर बढ़ते मध्यवर्ग का विस्तार दिखायी देता है। तिरिछ कहानी के पुत्र का अपने पिता के बारे में दिया जा रहा यह विवरण उल्लेखनीय है,

''इस घटना का संबंध पिताजी से है। मेरे सपने से है। और शहरों से भी है। शहर के प्रति जो एक जन्मजात भय होता है, उससे भी है।"

मध्यवर्गीय जीवन शैली कैसे नितांत व्यकितगत बनाती जाती है और सामूहिकता को नष्ट करती जाती है, बदलते भारतीय समाज की आरमिभक पदचापों में ही उसके संकेत दिखने लगे थे।

''एक सबसे बड़ी विडम्बना भी इसी बीच हुर्इ। हमारे ग्राम-पंचायत के सरपंच और पिताजी के बचपन के पुराने दोस्त पंडित कंधर्इ राम तिवारी लगभग साढ़े तीन बजे नेशनल रेस्टोरेंट के सामने, सड़क से गुजरे थे। वे रिक्शे पर थे। उन्हें अगले चौराहे से बस लेकर गांव लौटना था। उन्होंने उस ढाबे के सामने इक्टठी भीड़ को भी देखा और उन्हें यह पता भी चल गया था कि वहां पर किसी आदमी को मारा जा रहा है। उनकी यह इच्छा भी हुर्इ कि वहां जाकर देखें कि आखिर मामला क्या है। उन्होंने रिक्शा रुकवा ली थी। लेकिन उनके पूछने पर किसी ने कहा कि कोर्इ पाकिस्तानी जासूस पकड़ा गया है जो पानी की टंकी में जहर डालने जा रहा था, उसे ही लोग मार रहे हैं। ठीक इसी समय पंडित कंधर्इ राम को गांव जाने वाली बस आती हुर्इ दिखी और उन्होंने रिक्शेवाले से अगले चौराहे तक जल्दी-जल्दी रिक्शा बढ़ाने के लिए कहा। गांव जाने वाली यह आखिरी बस थी। अगर उस बस के आने में तीन-चार मिनट की भी देरी हो जाती तो वे निशिचत ही वहां जाकर पिताजी को देखते और उन्हें पहचान लेते।"

आरोपित शहरी जीवन की सामूहिकता यहां निशाने पर है, बेशक स्वााभाविक रूप से विकसित होते शहरों की बुनावट का जिक्र नहीं लेकिन उस तरह के क्रमिक विकास पर सोचने का रास्ता तो कहानी देती ही है। गफलतों में विकसित होती शहरी मानसिकता के शिकार पिता भीड़ के हत्थे चढ़े हैं।

कहानी से बाहर जाकर यदि तत्कालिन समय को खंगाले तो तथ्य बताने लगेंगे कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाले पिता ने नव औपनिवेशिक विस्तार के खतरों से बिना डरे और उससे निपटने के ट्रेड यूनियनवादी तरीकों को गैर इंक्लाबी रूझान मानकर उनसे किनारा करना ही उचित समझा। आंदोलन के केन्द्र सिर्फ पिछड़े इलाकों तक ही केन्द्रीत होते चले गये। कहानी में दर्ज समय 1972 अनायास नहीं माना जा सकता। बावजूद बदलते हुए समय के, पुत्र अपने पिता के प्रति अभी भी सहृदय है। पिता सामंती प्रवृतितयों के तिरिछ के काटे जाने के शिकार हुए हैं। बलिक कथा विवरणों के सहारे आगे बढ़े तो कह सकते हैं कि सामंती दौर से भी पहले की समाज व्यवस्था का प्रतीक,

''तालाब के किनारे जो बड़ी-बड़ी चटटानों के ढेर थे और जो दोपहर में खूब गर्म हो जाते थे, उनमें से किसी चटटान की दरार से निकलकर वह पानी पीने तालाब की ओर जा रहा था।"

हिन्दी कहानी की राजनैतिक और वैचारिक सीमा उस समाज से भिन्न नहीं, जो हर स्तर पर गंवर्इ मानसिकता में सिमटा रहा। घटना के कारणों को बहुस्तरीय मानते हुए भी समाज निर्माण में विभिन्न स्तरों को निधार्रित करती चलाक व्यव्स्था के पेचोंखम इसीलिए अपने तीखेपन के साथ दर्ज नहीं हो पाते। उनका आभाव ही समाज को निर्णायक बदलाव वाले संघर्ष तक ले जाने में बाधा बन जाता है। सिर्फ प्रचलित शहरी और गंवर्इ मानसिकता के अन्तर्विरोध ही प्रधान बने रहते हैं। जबकि वे कारण, जो समाज को पिछड़ा बनाये रखने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं और जिनके कारण यह दिखायी देता हो कि चालाक व्यवस्था किस तरह से अपने मंसूबों को साधने के लिए 'आधुनिक चोला ओढ़ती है, अछूते रह जाते हैं। सिर्फ मिथकों, धार्मिक विश्वासों और गैर तार्किक धारणाओं को आधार बनाकर गल्प रचने का यह जादुर्इपन रचनाकार की उस अवधारणा से उपजा होता है जिसमें राजनीति से परहेज करना एक रचनाकार के लिए जरूरी मान लिया जाता है।  
'तिरिछ’ से आगे बढ़ते हैं तो सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम’ पिता की भूमिका में तब्दील हुए पुत्र का साक्ष्य बनती है। बहुत करीब से गुजरता समय यहां दिखायी देने लगता है। उस करीब के समय में ही सामाजिक वंचना के नये-नये रूप भी दिखायी देने लगे हैं। बेरोजगारी उन्हीं में से एक ऐसी आधुनिक अवधारणा है जिसकी शुरूआत पारम्परिक और पुश्तैनी कार्यव्यापार के ध्वस्त होने के साथ और उधोग की नयी केन्द्रीकृत सिथतियों में जन्म लेती है। ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता का दौर भारतीय समाज में आ रहे बदलावों का वह दौर है जिसमें पुश्तैनी कार्यव्यापार को ध्वस्त कर सृजित होते हुए नये उधोगों की आर्थिकी पनपती है। इस आर्थिकी की परिणिति में ही नये किस्म की बेरोजगारी भी जन्म लेती है। यहीं से भारतीय राजनीति का वह घुमावदार रास्ता भी शुरू होता है जो कारणों की तलाश में उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली गैर तार्किकता के साथ तकनीक का ही विरोधी करने लगता है। इस तरह की सिथतियों से पूंजी के षड़यंत्रों का पर्दाफाश होने की बजाय षड़यंत्रकारी ताकतों को पूंजी के विभ्रम का तानाबाना बुनने में ही मदद मिली और आरोपित बेरोजगारी के भी भयावह मंजर दिखायी देने लगे। कथाकार सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम में आरोपित की जा रही बेरोजगारी का चेहरा ज्यादा भयावह है। ज्ञान रंजन की कहानी के दौर की बेरोजगारी की सिथतियों से भिन्न यहां पैने नाखूनों वाले जालिम जमाने का अदृश्य विभत्सपन लेखकीय चिन्ताओं के दायरे में है। चमचमाती दृनिया की चकाचौंध से पैदा होते अंधकार में ठीक से पांव भी न उठा पाने की बेचैनी यहां साफ दर्ज होती है। सिथति का सामना करने की बजाय अवसाद में डूबते जाने की मजबूरियां लेखकीय बेचारगी की भी गवाह बन रही हैं। अपने चुराये एकान्त में बेरोजगार बना दिये जा रहे कारणों की पहचान करने का अवकाश भी यहां मौजूद नहीं है। बावजूद इसके कि 'ए सिटच इन टाइम ऐलानिया बाजार के प्र्रतिरोध में लिखी रचना है लेकिन देख सकते हैं कि ऐलानिया बाजार के आदर्शों का हव्वा कहानी के उस पात्र के भीतर भी मौजूद है जो प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर लेखकीय आदर्श के रूप में दिखता रहता है। यह वही पिता है जो तकनीक और उत्पाद को अलग-अलग देख पाने में चूक जाने के कारण प्रतिरोध की किसी सामूहिक कार्यवाही का हिस्सा होने की बजाय खुद को हारा हुआ महसूस करता है। ऐलानिया बाजार से मतभेद के बावजूद झूठी जीत के आदर्शों से भरी उसके भीतर की अभिव्यकितयां कुछ इस तरह हैं,

''मैंने फोरन अमन टेलर्ज से सिलवार्इ कमीज निकालकर मेज पर फैला दी। यह सिर्फ मेरे लिए सिली गर्इ कमीज थी, जो ऐलानिया बाजार में खरीदी या बेची नहीं जा सकती थी और मेरी एक अलग पहचान कायम करती थी।''

यूनिक होने और यूनिक दिखने के ये जो आदर्श हैं, ऐलानिया बाजार के प्रतिरोध को बेहद बचकाना साबित कर दे रहे हैं। जबकि 'यूनिकनेस का प्र्रोपोगण्डा फैलाता ऐलानिया बाजार वस्तुओं को उपयोगिता से ज्यादा उनके विशिष्ट होने के ही आदर्श से गढ़ रहा है। पक्ष का यह ऐसा प्र्रतिपक्ष है जिसकी पहचान में ही न सिर्फ राजनैतिक दिशा गड़बड़ायी है बलिक इस देश की तमाम बौद्धिकता लाचार साबित हुर्इ है। खास तौर पर हिन्दी क्षेत्र में सतही तरह के विरोध। इस देश के कामगार वर्ग ने ऐसे बौद्धिकपन की कमजोरी को अच्छे से पहचाना है। पाठक का रोना रोते हिन्दी समाज का विश्लेषण करें तो देख सकते हैं कि संकटों से बाहर निकलने की कोर्इ स्पष्ट राह न सुझा पा रहे साहित्य से आम जन की दूरी दिखायी दे सकती है,

''दरअसल अब रेडीमेड गारमेंटस का जमाना है। इन्हें बचाने के लिए आइ बड़ी कम्पनियों ने दर्जियों के कारोबार को मंदी में धकेल दिया है। कारीगरों का मेहनताना निकालना ही मुशिकल हो गया। हमारा यह धंधा बंद होने के कगार पर है। बच्चों का मन दुकान से पूरी तरह उचट गया है। बड़ी मछली के सामने छोटी मछली बहुत दिन टिकी नहीं रह सकती ... कभी हमारे भी दिन थे।''

यहां देख सकते हैं कि अमन टेलर न सिर्फ खुद की सिथति और सहानुभूति की आवाज में बतियाते किसी ग्र्राहक के भीतरी मन से वाबस्ता है बलिक व्याप्त माहौल की गिरफ्त में जीवन जीती खुद की संततियों से भी उसे कोर्इ उम्मीद नजर नहीं आती। उसे कोर्इ अंदेशा नहीं कि यूनिकनेस का जादू एक दिन उसे अपने ग्र्राहकों से पूरी तरह से जुदा कर देगा क्योंकि मशीनी कुशलता के आगे तो मानवीय कौशल वैसे भी पिछड़ना ही है। फिर रंग की यूंनिकनेस, स्टफ की यूनिकनेस और दूसरे ऐसे बहुत से कारक जिन पर बड़ी पूंजी का स्पष्ट नियंत्रण है। सचमुच की यूनिक कमीज जो किसी एक ग्राहक विशेष के लिए ही हो सकती है, वैसा मानदण्ड खड़ा करने के लिए मात्र कारीगरी काफी नहीं है। उसे अपने ग्र्राहक की भीतरी मनसिथति भी अच्छे से मालूम है जो बाजारू पूंजी के विरोध में उत्पाद की नहीं बलिक तकनीक का ही विरोधी करती है और स्वंय कलात्मक यूनिकनेस की सी जद में होती जा रही है,

''उसे पहनते ही मैंने महसूस किया मैं बदल गया हूं। मैं ज्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया। बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गर्इ। सीना गदबदाने लगा और आंखों की झिलिलयां फैल गर्इ। मेरे पीछे ताकतें थी। आला दिमाग, श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे। मैं सतह से ऊपर उठ चुका था।''

ब्र्राण्डेड कमीज और अमन टेलर की सीली कमीज के बीच तुलना की एक अन्य सिथति भी कहानी में देखी जा सकती हैं जो अमन टेलर वाले समाज के भीतर निराशा पैदा करती है,

''टीना की कमीज मेरी नाप के अनुसार नहीं थी। ऐसी कमीजें किसी के भी नाप के मुताबिक नहीं होती। ये पहनने वाले से रिश्ता कायम करके नहीं बनार्इ जाती। इनका नाप स्टेटिस्टीस्कम की मोस्ट अकरिंग फ्रिक्वेंसिज है। बहरहाल, ढीली फिटिंग के बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी। शोख, गुस्सैल और मोहक लड़की की तरह। इनके साथ समझोता करना होता है। मैंने भी किया और कमीज पहन ली।''

उत्पाद और तकनीक को एकमेव मानते हुए बड़ी पूंजी के विरोध का जो रूप 'पिता' में दिखता हैं उससे भिन्न समझदारी 'ए सिटच इन टाइम' के पिता की भी नहीं बन पा रही है। 'पिता’ कहानी में पिता अपने पुत्रों को लताड़ते हुए कहते है,

''मैं सबको जानता हूं, वही म्यूनिसिपल मार्केट के छोटे-मोटे दर्जियों से काम कराते है और अपना लेबल लगा लेते हैं। साहब लोग, मैंने कलकत्ते के 'हाल एण्डरसन के सिले कोट पहने हैं अपने जमाने में, जिनके यहां अच्छे-खासे यूरोपियन लोग कपड़े सिलवाते थे। ये फैशन-वैशन, जिसके आगे आप लोग चक्कर लगाया करते हैं, उसके आगे पांव की धूल हैं। मुझे व्यर्थ पैसा नहीं खर्च करना है।               ..... पिता, ज्ञानरंजन    

ठीक वैसे ही मन:सिथति 'ए सिटच इन टाइम' के कारीगर को फंतासी में ले जाती है,

'' आखिरकार हमारी फैक्ट्री ने घुटने टेक दिए और वह ठेके पर 'एक्सेल गारमेंटस मल्टीनेशनल' का माल बनाने लगी। इन बड़ी और सारी दुनिया में फैली कम्पनियों की अपनी फैक्ट्रीयां नहीं होती। ये गरीब मुल्कों की फैक्ट्रीयों में अपना माल बनवाती है। इनका तो बस नाम चलता है। ये नाम का पैसा बटोरती हैं। गरीब मुल्क की फैक्ट्रीयां तालाबंदी के डर से लागत से भी कम में इनका माल तैयार करने को मजबूर हो जाती है।''              
अन्तत: अनिच्छा के बावजूद लाचारी भरी सिथतियों में ब्राण्डेड कमीज को पहन कर जश्न का हिस्सा हो जाते पिता का चेहरा भारतीय मध्यवर्ग का यर्थाथवादी चित्र उकेरता है। भले-भले बने रहने और भले-भले दिखने का इससे साफ चित्र दूसरा नहीं हो सकता। एक लम्बे अंतराल में बहुत सी हो चुकी तब्दलियों में देखा जा सकता है कि पिता अब मजबूर हैं पुत्री के सामने। यहां पुत्र के रूप में पुत्री की उपसिथति उस सामाजिक बदलाव का एक ऐसा सकारात्मक संकेत जरूर है जहां पुरूष प्रधान समाज के सामने चुनौतियां पेश होनी शुरू हो चुकी हैं। एक खास तबके में पुत्र और पुत्री में भेद को जायज नहीं माना जाने लगा है।  
साम्राज्यवादी पूंजी का प्रसार ब्रांडेड उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में स्थापित हो चुका है। देशी किस्म कारीगरी तक को मशीनी उत्पादन ने लील लिया है। गुणवत्ता के पैमाने बहुत चुस्त दुरस्त दिखने वाले हुए हैं। पैकेजिंग के तीखे नोकदार उभार गुणवत्ता की प्राथमिकी में स्थापित हुए हैं। लेकिन पिता अभी भी देशी कारीगर के हाथ से बनी हुर्इ कमीज पहनना चाहता है। उसका पूरा यकीन उस कारगरी पर है जो रोजी-रोटी के अवसरों का विकंन्द्रीकरण कर सकती है। लेकिन उसका यह चाहना सिर्फ मनोगत भाव है। वरना व्यवहार में उसके लगातार खत्म होते जाने की सिथतियां बनी रहती हैं। 'कपड़े विचार हैं, यह सूत्र वाक्य है 'ए सिटच इन टाइम का। बर्थडे पार्टियों की सिथतियां यहां एक क्षण-विशेष को जीना मात्र नहीं बलिक बाजारू संस्कृति की लगातार चाहत का नमूना है। एक तरफ बदलती सिथतियों से विरोध तो दूसरी ओर उसकी स्वीकार्यता की मजबूरी। इन्हीं सिथतियों की संगत में समाज के उस चेहरे को देख सकते हैं जहां दुनिया के बदलाव के संघर्ष के लिए हमेशा बेचैन रहने वाले पिताओं तक की भावी संततियां कैसे बाजारू मूल्यबोध के साथ अपने होने को साबित करती रही है। किसी व्यकित विशेष का नाम लेकर अलोचना को व्यकित केनिद्रत कर देना होगा। एक लम्बे दौर की राजनैतिक शखिसयतों एवं बदलाव की राजनीति से इतफाक रखने वाले बौद्धिकों तक की भावी संततियां किन रास्तों से गुजरी हैं और गुजर रही हैं, यह छुपा हुआ नहीं है। साम्राज्वाद विरोध का दावा घर की चारदीवारी के भीतर ही ध्वस्त हुआ है। तुर्रा यह कि व्यकितगत आजादी का सिद्धान्त बघारते हुए भी झूठ से लिपटे रहने की सिथतियां चहूं ओर हैं। 'ए सिटच इन टाइम के पिता का संकट ऐसी ही सिथतियों की उपज है जहां घर के भीतर साम्राज्यवादी चाल-चलन के नशे में धुत होकर लड़खड़ाता परिवारिक वातावरण है। हर तरह की सुविधा संपन्नता का ताउम्र इंतजाम करते पिता की द्धिविधा उसे स्वंय ही उन अवस्थाओं तक नहीं ले जाती जब जाने और अनजाने उसने ही अपनी संततियों के आगे कोर्इ आदर्श गढ़ा होता है या उसके लिए वातावरण बनाया होता है।

भारतीय समाज की इस यात्रा से गुजरते हुए यह देखना दिलचस्प है कि कथाकार हरी चरण प्रकाश की कहानी के विवरण गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते भारतीय समाज का इससे भिन्न चेहरा नहीं रचते। कहानी के मार्फत जान सकते हैं कि 'प्रोफेशनली अप-टू-डेट न हो पा रही मध्यवर्गीय आधुनिकता कैसे तकनीक के ही प्रतिरोध में जाने को विवश है। कहानी का एक हिस्सा इस बात का गवाह है कि घर में काम करने वाली बार्इ से बतियाते हुए कथा नायिका ऋचा अपनी चिन्ताओं को दोहराती है,

''करता तो तुम्हारा आदमी भी कुछ नहीं।"
''ऐसा न बालो मैडम जब मैंने शादी की तो खूब काम करता था। मैं तुम्हें बताऊं, मेरी मौसी ने शादी नहीं बनार्इ क्योंकि शादी के बाद मालिक का घर छोड़ना पड़ता था। मुझे भी कहा, सोच समझ कर शादी कर। मैं बोली मेरा हसबैण्ड इतना अच्छा कैमरा चलाता है उसे काम की क्या कमी। आज झोपड़पटटी में रह लूंगी, कल को अच्छा मिलेगा, लेकिन फिर वही किस्मत, नए किस्म के कैमरे आ गए और उसका काम खत्म हो गया।"
''सून रहे हो ऋचा की आवाज वेद के कान खींचने लगी। ऋचा हमेशा यह कोशिश करती थी कि वेद साफ्टवेयर की नर्इ टेक्नालाजी सीखे और प्रोफेशनली अप-टू-डेट रहे लेकिन यह अलहदी लड़का आगे बढ़ने का तैयार नहीं था।"   
हरीचरण प्रकाश की कहानी का नैरेटर इस बात से सचेत तो दिखता है कि तकनीक के साथ प्रोफेशनली अप-टू-डेट होना आज की जरूरत है। वह बाजारूपन की उस चालाकी से भी वाबस्ता है जो किसी भी उत्पाद को बेचने के लिए आइडेनिटटी पालीटिक्स करता है। मसलन, भोजन के ही रूप में शाकाहार की आइडेनिटटी पालीटिक्स जहां पंजाबी थाली, राजस्थानी थाली, वैष्णव थाली इत्यादी नामों से अपने ग्राहकों को लक्षित करती है। लेकिन उसके पास भी यह तर्क एक दूसरे किस्म के बाजारूपन को प्रसारित करती मानसिकता से पैदा होता हुआ दिखता है। वह मानसिकता जो न सिर्फ आर्थिक स्तर पर बलिक सांस्कृतिक स्तर पर भी गुलाम बना लेना चाहती है। सौन्दर्य का मतलब, तराशा हुआ जिस्म जिसके पैमाने हैं और देख सकते हैं कि कहानी उन्हीं रास्तों से आगे बढ़ने लगती है। जिम जाने को ही आधुनिक मान लिया जाना एक लक्षण के तौर पर उभरता है। बेशक यह स्वास्थय की चिन्ता करती मासूमियत के साथ आता है। स्वमंत्रता के मायने यहां निर्वस्त्र होकर घूम सकने की छूट ले लेना जैसे हो रहे है।

सकारात्मक सिथतियों के तौर पर यहां पति-पत्नी के आपसी रिश्तों में एक हद तक आ रही बराबरी की भावना को पुरानी पीढ़ी की स्वीकार्यता मिलने लगी है। लेकिन बदलाव की गति सामंती सरकारों से पूरी तरह अभी भी मुक्त नहीं हुर्इ है। बहुत सी द्विविधाऐं अभी भी ज्यों की त्यों हैं। परिसिथतियां जिस तरह का मोड़ ले रही उसमें उनको टूटना ही है। कहानी में एक प्रसंग आता है जहां कुछ रोज के लिए मेड छुटटी पर जा रही हैं। मेड की अनुपसिथति में घर को संभालने का संकट दोनों काम-काजी पती-पत्नी, वेद एवं ऋचा के सामने है। बच्चे की केयरिंग को लेकर उनके बीच के संवाद और कहानी के विवरण उल्लेखनीय है,

'' डोन्ट वरी, मैं घर से काम कर लूंगा। वेद ने सीनियर साफ्टवेयर इंजिनियरों की इस सुविधा का उल्लेख किया।"
''आज तो नहीं।"
''आज मैं छुटटी लूंगी। कल से चाहे जो करना। बस इस समय मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।, कहने हेतु उसने ऐसी सांस खींची  किवह भी सुनार्इ पड़ गर्इ।
"मैं चुपचाप बैठा अवि की पीठ सहलाता रहा। ऋचा ने जब मेरी ओर देखा तो सहमकर मैंने पीठ सहलाना बन्द कर दिया। "

क्या यह अनायास है कि सुभाष पंत की कहानी में जहां पुत्री को पुत्र के रूप में देखना संभव होता है वहीं हरीचरण प्रकाश की कहानी पुत्र एवं पुत्रवधु दोनों के साथ ही आधुनिक पुत्र रूपी पात्र प्रकट हो रहे हैं। बदलाव के ये चिहन जिस तरह से गंवर्इ आधुनिकता को लांधते हुए हैं, उसी के साथ ही मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा भी आकार लेता हुआ सामने होने लगता है। लैंगिक समानता की सिथतियों के एक हद तक स्वीकार की ये सकारात्मक मध्यवर्गीय मानसिकता समाज में दिखायी देने लगी है। यधपि व्यापक जनसमाज में अभी भी वह पिछड़ी मानसिकता की जकड़ में ही है। परिस्थितिजन्य बदलाव से असमहति का स्वर कहानी में ही दर्ज होता हुआ है, पिता की त्रासद स्वरों में उसे सुना जा सकता है,

 ''कल मेरा बेटा ही मां का दायित्व निभायेगा, यह ख्याल आते ही मुझे सीरियल गुस्सा आने लगा। पहले बहू पर, फिर बेटे पर और अन्त में अपने आप पर।"

भारतीय मध्यवर्ग के व्यवहार में होते गये इस बदलाव को उस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है जो उसे परम्परागत और पुरातन मूल्यों से पूरी तरह मुक्त नहीं होने दे रही थी। बहुत सी ऐसी सिथतियां जिनसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया अवरूद्ध हो रही हो, उसे जानते बूझते हुए भी उससे पूरी तरह मुक्त न हो पाने की भारतीय मध्यवर्गीय समझदारी यहां अपनी सीमाओं में दिखती है। अन्य सिथतियों में भी ऐसे प्रभावों को देखने के लिए यह कहानी हवाला बन जाती है,

'' हमने कभी आध्यातिमक होने की तैयारी नहीं की। मैं आसितक जरूर था लेकिन पूजा पाठ में मन नहीं लगता था, वह भी आसितक थी लेकिन इतना ही कि जल चढ़ाने के बाद ही सबेरे की चरय पीती थी।" -. हरीचरण प्रकाश

'योजनामय प्रेम विवाह’ के दौर की ओर बढ़ रही सामाजिक स्थितियों में अपने बुढ़ापे को इन्जाय करते इस पिता की तस्वीर अभी तक की गंवर्इ आधुनिकता का अनितम सोपान बन रही है लेकिन आधुनिकता की जिस उछाल में वह प्रवेश करती है, वहां उत्पाद को ही पूरी तरह से तकनीक मान लेने की वह आरमिभक गड़बड़ जिस तरह का माहौल रचती है उसे नये ज्ञान की उत्सुकता और चीजों के प्रति मात्र आकर्षण से परिभाषित नहीं किया जा सकता। नव- औपनिवेशिक आदर्शो के प्रति ललचायी दृषिट से भरी 'मध्यवर्गीय आधुनिकता का वह रूप जो बड़ी पूंजी के प्रतिरोध में होने की सदइच्छा के साथ भी उसके समर्थन में जुटा होता है, उसे पहचानने तक की सुध-बुध यहां पूरी तरह से गायब हो जाती है।

''उन दिनों मैं और पत्नी विवाह प्र्रस्तावों की कटार्इ छंटार्इ में लगे हुए थे कि बेटे ने खुद ही अपने विवाह का प्रस्ताव कर दिया। लड़की मुसलमान नहीं है, हमने राहत की सांस ली। इसके बाद तो हम दोनों के बीच अनुलोम प्रतिलोम किस्म का संवाद होने लगा। हिन्दू है तो जाति क्या है ? जाति से क्या मतलब जब वह हमारे तरफ की हिन्दू नहीं है, केरल की हिन्दू है, कोर्इ पूछे तो ? कौन पूछता है और कौन सी हमें दूसरी औलाद ब्याहनी है, इकलौता बेटा।''

रोजगार ने क्षेत्र विशेष की हदबंदी को जिस तरह से तोड़ा है, उसमें एक हद तक जातिगत विभेद का तंत्र थोड़ा ढीला हुआ है। शहरीकरण की प्र्रक्रिया में जातिगत जड़ताएं अपने पुराने रूप में रह पाने की सिथति में नहीं रह गयीं। लेकिन सामाजिक बदलाव की यह प्र्रक्रिया सामंती नैतिकता और आदर्श को पूरी तरह से बदलने वाली नहीं रही क्योंकि प्र्रगतिशील नैतिक मूल्यों और आदर्शों की स्थापना की प्र्रक्रिया आरोपित शहरीकरण के कारण जन्म लेने वाली रही। स्वाभाविक गति में उसका विकास न हुआ। स्पष्ट है कि विकास के टापू खड़े करता बड़ी पूंजी का माडल सामाजिक बदलाव के प्र्रति किसी भी तरह की सजग जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। मुनाफे के मंसूबे उसकी प्र्राथमिकता को तय करते रहे। इसीलिए क्षेत्र और एक हद तक जातिबंधन से मुक्त हो चुकी मानसिकता में धर्म की चार दीवारियां ज्यों की त्यों खड़ी दिखायी देती हैं। बलिक इसे धर्म की धार्मिकता की तरह भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। विभेदों का दानव घृणा को ही जन्म देने वाला रहा और धार्मिक वैमनस्य के साथ श्रैष्ठताबोध में संलग्न धार्मिकता का माडल तैयार होता रहा। विकास की असंतुलित और लड़खड़ाती गति में पीछे छुट जा रहे लोगों के धर्म विशेष के प्रति घृणा फैलाता राजनैतिक ताना-बाना बुनना आसान हुआ है। यूं विश्लेषण की इस पद्धति से सीधे तौर पर हरीचरण प्रकाश की कहानी से तथ्य नहीं जुटाये जा सकते। बलिक अपने मिजाज में ऐसी मुखालफत के साथ वह इस ओर ही सोचने को मजबूर करती है कि क्या जाति और क्षेत्र के बंधनों को तोड़ने में सुक्ष्म से सुक्ष्म होते जा रहे परिवारिक ढांचे की कोइ भूमिका है ? सीमित संतानों वाली सिथति में सामाजिक बदलाव की कोर्इ नयी सिथति जन्म ले रही है ? यह निशिचत ही एक दिलचस्प विचारणीय पहलू है। हिन्दी कथा साहित्य में दर्ज सामाजिक बदलाव के ऐसे विवरण साहित्य की भूमिका को महत्वपूर्ण तरह से स्थापित कर रहे हैं। ऐसे ही वातावरण में गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता की ओर सरक रहे जमाने का जो रूप दिख रहा है वह बहुत आशानिवत नहीं करता।

हिन्दी कहानी ही नहीं किसी भी विधा के लिए यह प्राथमिक सवाल होना चाहिए कि गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते दौर को वास्तविक जनतांत्रिक मूल्यों के लिए माहौल बना सकने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता का पाठ रचे। उसे ठीक से चिहनत कर पाये। ताकि झूठे रूप में भले-भले बने रहने की बजाय वास्तविक जनवाद का माहौल जन्म ले। तकनीक और उत्पाद के फर्क के साथ वैशिवक पूंजी के उस षड़यंत्र का भी पर्दाफाश हो सके, जो अनुसंधान पर अबोली रोक बनाये रखते हुए विज्ञान के भी कर्मकाण्ड का माहौल रच रही है। एक रचना की सार्थकता इस बात में भी है कि वह ऐसे सवालों से टकराने को भी प्रेरित कर सके है। हरीचरण प्रकाश की कहानी इस कारण से भी एक यादगार कहानी है कि उसके बहाने ऐसे बहुत से सवाल सहजता से उठा पाना संभव हो रहा है।