Friday, November 4, 2016

कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें



गनीमत है कि महत्वाकांक्षा में डूबा मेरा भीतर सत्‍तामुखापेक्षी, स्‍त्री विरोधी, दलित विरोधी एवं साम्‍प्रदायिकता का पक्षधर मान लिए जाने से अभी तक बचा रह पाया है। वैसे उम्‍मीद है आगे भी शायद मैं बचा ले जाउुं,  महत्‍वाकांक्षा से अति महत्वाकांक्षा की फिसलन को मेरी आंखें अभी ठीक से देख पा रही है। हालांकि आंखों की रोशनी को बचाए रखने में उन आयोजकों का ही अहम रोल है जिन्‍हें कभी मुझे भी मंच पर बुला लेने की नहीं सूझी या जिनके देखने की सीमा, तय दायरे में ही बनी रही। उन आलोचकों का भी अहम रोल है जिन्‍होंने अपनी नाम गिनाउुं आलोचनाओं में मेरा जिक्र करने की जहमत नहीं उठाई। उन घोषित संगठनवादियों की भी अहम भूमिका है जिन्‍होंने अपने गिरोह में मुझे शामिल देखने से पहले ही दूरी बनाये रखी। उन आत्मीय मित्रों का भी आभारी हूं अतिमहत्‍वाकांक्षा के नशे में जिन्‍हें खुद मुझ जैसे अति निकट के व्‍यक्तियों के नाम लेने में कभी कोई लाभ नहीं दिखा। लाभ हानि के गणित के साथ वे सिर्फ अवसरों को उपलब्‍ध करा सकने वाले सम्‍पर्कां को ही भुनाने की जुगत बैठाते रहे। काश अगर इनमें से कोई भी स्थिति बनी होती तो अतिमहत्‍वाकांक्षा की फिसलन में मेरे पाँव भी रिपट तो गये ही होते। आभारी हूं मैं उन आयोजकों का भी, आकस्मिक तरह से जिनके आमंत्रण पर मैं उपस्थिति हो तो गया पर जो अपने आयोजन के खर्चे के स्रोत को विवाद के दायरे में आने से बचा गये। उन समीक्षकों का, मेरे लिखे का जिक्र कर देने पर भी जिन्‍होंने अपने को किसी गिरोह में दिखने से बचाए रखा। उन आत्मीय मित्रों का भी जिनके साथ मैं भी जीवन का ककहरा सीखता रहा पर जो अपनी दुनिया में रमते हुए कहीं जिक्र करना जैसा भी हुआ तो भुलाए रहे और देवतव को प्राप्‍त हो ये लोगों के जिक्र के साथ ही अपनी हैसियत के लिए सचेत रहे। वरना कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें। कौन नहीं चाहेगा कि अरबों खरबों की जनसंख्‍या वाली इस धरती पर चार, छै, दस उसके भी ऐसे भी प्रशंसक हो कि जिन्‍हें उसके अहंकार में भी विनम्रता दिखे और उसकी डुगडुगी पीटते हुए उसकी आलोचना करने वालों तक पर वे पिल पड़ें। मेरे भीतर की महत्‍वाकांक्षा भी फिसलकर अति महत्‍वाकांक्षा की खाई में गिर जाने वाली तो हो ही सकती थी। यह तो स्‍पष्‍ट ही है कि मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा की एक कोठरी तो है ही जिसमें बैठकर मुझे भी यह देखने का मन तो होता ही है कि लोग मुझे जाने, मेरे लिखे को पढ़े, मेरे लिखे पर बात हो जे एन यू की औपचारिक गाष्ठियों से लेकर धारचूला या गंगोलीहाट के जंगलों तक में चलने वाली अनौपचारिक गोष्ठियों में, और उनका जिक्र भी हो मीडिया में। मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा का स्रोत वैसे ही मौजूद है जैसे उन दूसरों के भीतर, जो एक दो और तीन एवं अनंत की गिनतियों तक पुरस्‍कार प्राप्‍त करते हैं।     

क्‍या ही अच्‍छा हो कि किसी सांस्‍कृतिक एकजुटता की शुरूआत वस्‍तुनिष्‍ठता के साथ तय कार्यभार से हो। तय हो कि किस किस तरह के आयोजन को साम्‍प्रदायिक, फासीवादी, स्‍त्रीविारेध, दलित विरोधी, सत्‍तामुखापेक्षी माना जाए। ताकि समय समय के हिसाब से व्‍याख्‍यायित करना न हो। कौन सा पुरस्‍कार ग्रहण किया जाए और किसका विरोध हो। वरना यह मुश्किल होगा कि कब कौन उदय प्रकाश बन जाए या बना दिया जाए, कब कौन कृष्‍ण मोहन घोषित कर दिया जाए या हो जाए, कब कौन नरेश सक्‍सेना हो जाए या बना दिया जाए। चुन कर टारगेट करने और चुन कर कुतर्क का सहारा लेकर कहीं भी शामिल हो जाने की प्रवृत्ति वस्‍तुनिष्‍ठता के दायरे में लक्षित हो तो चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्‍य ध्‍वस्‍त किया जा सकता है और समाज को जनतांत्रिक बनाने के कार्यभार को आगे बढ़ाया जा सकता है।   

Tuesday, October 25, 2016

वस्तुनिष्ठता की मांग अपराध नहीं

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


 बेनाम दास की कविता 

मेरे बच्चे
स्पैम में कभी मत झाँकना
देखना पर उस ओर कभी मत देखना
जिधर फैलते जा रहे हों
अश्लील वाइरल विडियोज़ ।

लिखा कमेंट
कभी मत डिलीट करना
और अगर करना तो ऐसे
कि मॉडरेटर को ज़रा भी
न हो पीड़ा ।

रात को लिंक जब भी खोलना
तो पहले आँख-कान खोल कर
पोस्ट करने वाले को याद कर लेना ।

अगर कभी ढेरों लाइक्स
दिखाई पड़ें
तो समझना
कोई अफवाह आने वाली है
अगर कई कई दिन तक सुनाई न दे
कमेंट-शेयर की आहट
तो जान लेना
पोस्ट फ्लॉप होने वाली है ।

मेरे बेटे
हैकर की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ना
तो क्रैकर की तरह फट पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना ।

कभी बहस में
अगर खो बैठो अपना विवेक
तो प्रतिक्रियाओं पर नहीं
दूर से इनबॉक्स में आते मेसेज़ेस पर
भरोसा करना ।

मेरे बेटे
मंगल को लॉग-इन कभी मत करना
न शुक्र को लॉग-आउट ।

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि स्टैटस अपडेट के बाद
सारे टैग्स रिमूव कर देना

ताकि कल जब फेसबुक खोलो
तो तुम्हारी टाइमलाइन
रोज की तरह
स्पैम-फ्री
टैग-फ्री
दमकती रहे ।


 

हिन्दी की लोकप्रिय कविताओं का प्रतिसंसार भी हिन्दीं की समकालीन कविता का एक चेहरा बनाता है। बहुप्रचलित अंदाज में लिखी जाने वाली लोकप्रिय कविताओं का मिज़ाज थोड़ा बड़बोला होता है और सूंत्रातमकता के आधार स्तम्भों पर खड़ी ये कविताएं पंच लाइनों से अपना महत्व साबित करवाती है। हिन्‍दी में ऐसी बड़बोली कविताएं अक्सर स्थापित कवियों की कविता की पहचान है। अकादमिक बहसों में उनकी पंच लाइनों को कोट करने और दोहरा दोहरा कर रखने से ही उनका महत्व स्थापित हुआ है। 

ये विचार, पिछले दिनों एक कवि के पहले संग्रह को पढ़ते हुए आए। लेकिन यह बात मैं जिस कविता को पढ़ते हुए कह रहा हूं, उस कवि और उस कविता का जिक्र करने की बजाय मैं हाल में लिखी बेनाम दास की उस कविता का जिक्र करना ज्या दा उपयुक्त समझ रहा हूं, कवि नील कमल ने जिसे अपनी फेसुबक पट्टी पर साया किया। बेनाम दास की उस कविता पर नील कमल की टिप्पणी उसे केदार-स्टाइल की कविता के रूप में याद करती है। यहां उस कवि और कविता का, जिसे पढ़ते हुए यह कहने का मन हुआ, जिक्र न करने के पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि उस कवि की कुछ कविताओं के अलावा अन्य कविताओं के बारे में यह बात उसी रूप में सच नहीं है कि वे लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास हो। फिर दूसरा कारण यह भी कि लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास कराती दूसरे कवियों की भी कई कई कविताओं के साथ वह कविता भी समकालीन कविता के उस खांचे में डाल देना ही उचित लग रहा, जिनके बहाने यह सब लिखने का मन हो पड़ा। 

दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ के एक अंश पर एक टिप्पणी भी नील कमल ने अपनी फेसबुक पट्टी पर लिखी थी। इससे पहले भी नील कमल कविताओं पर टिप्प्णियां करते रहे हैं, जिनमें उनके भीतर के आलोचक को कविता में वस्तुनिष्ठता की मांग करते हुए देखा जा सकता है। नील कमल को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। उनसे पूर्ण सहमति न होते हुए भी रचना में एक तार्किक वस्तुनिष्ठता हो, मैं अपने को उनसे सहमत पाता हूं। रचना में वस्तुनिष्ठ ता की मांग करना कोई अपराध नहीं बल्कि उस वैज्ञानिक सत्य को खोजना है जो तार्किक परिणति में सार्वभौमिक होता है। मुझे हमेशा लगता है कि गैर वस्तुरनिष्ठतता की प्रवृत्ति में ही कोई कविता जहां किसी एक पाठक के लिए सिर्फ कलात्मक रूप हो जाती है वहीं किसी अन्य के लिए भा भू आ का पैमाना। कविता ही नहीं, किसी भी विधा, यहां तक कि कला के किसी भी रूप का, गैर-वस्तुनिष्ठता के साथ किया जाने वाला मूल्यांकन रचनाकार को इतना दयनीय बना देता है कि एक और आलोचक को गरियाते हुए भी लिखी जा रही आलोचनाओं में अपनी रचनाओं के जिक्र तक के लिए वह फिक्रमंद रहने लगता है। उसके भीतर महत्वाकांक्षा की एक लालसा ऐसी ही स्थितियों में ही अति महत्वाकांक्षा तक पेंग मारने को उतावली रहती है। यह विचार ही अपने आप में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि कविता का तो अपना विज्ञान होता है। अभी तक ज्ञात हो चुके रहस्यों की पहचान कविता का हिस्सा होने से उलट नहीं सकती है। यही वैज्ञानिकता है और जो हर विषय एवं स्थिति के लिए एक सार हो सकती है। यहां यह भी कह देना उचित होगा कि जब तक प्रकृति के समस्त् रहस्यों से पर्दाफाश नहीं हो जाता कोई ज्ञात सत्य भी अन्तिम और निर्णायक नहीं हो सकता। संशय और संदेह के घेरे उस पर हर बार पड़ते रहेंगे और हर बार उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा, तभी वह सत्य कहलाता रह सकता है। 

अकादमिक मानदण्डों को संतुष्ट करती रचनाओं ने गैर वस्तुनिष्ठता को ही बढ़ावा दिया है। बिना किसी तार्किकता के कुछ भी अभिव्यक्त‍ कर देने को ही मौलिकता मान लेने वाली अकादमिक आलोचना की अपनी सीमाएं हैं। तय है कि कल्पतनाओं के पैर भी यदि गैर भौतिक धरातल से उठेंगे तो निश्चित ही गुरूत्वाकर्षण की सीमाओं से बाहर अवस्थित ब्रहमाण्ड में उनका विचरण भी बेवजह की गति ही कहलायेगा, बेशक ऐसी कविताओं का बड़बोलापन चेले चपाटों की कविता में कॉपी पेस्ट होता रहे। देख सकते हैं बेनाम दास की कविता केदारनाथ सिंह जी कविता का कैसा प्रतिसंसार बनाती है। निसंदेह यह प्रतिसंसार होती कविता तो मूल से ज्यादा तार्किक होकर भी प्रस्तुत है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कहन के कच्चेपन और परिपक्वता के अंतर वाली बड़बोली कविता का स्तरबोध बेशक भिन्न हो, पर तथ्यात्मकता और अनुभव की वैयक्तिकता में भी, उनकी सूत्रात्मक पंच लाइने उन्हें कॉपी पेस्ट से अलग होने नहीं देती। 


Friday, October 21, 2016

कहां है वॉइस् रिकॉर्डर और कहां है मेरा कैमरा


वह इंसान रह रहकर याद आएगा

भास्‍कर उप्रेती

डेंगू के उपचार के बाद अस्पताल से डिस्चार्ज हो ही रहा था कि अनुराग भाई का फ़ोन आया.."पापा नहीं रहे"..भवाली के लिए निकल रहा हूँ..अनुराग का नंबर सेव नहीं था सो समझ ही नहीं आया..लेकिन आवाज किसी परिचित की सी लगी..थोड़ी ही देर में विनीत का भीमताल से फ़ोन आ गया..'दयानंद अनंत नहीं रहे'..सर झन्ना गया..मन मानने को तैयार नहीं था.. दो महीने पहले उनसे मिला था कहलक्वीरा में..वे सड़क तक आने में समर्थ नहीं थे..लेकिन बाकी तो पूरे ठीक थे..हमने विश्व राजनीति पर पहले की तरह बातें कीं..उनके फ़िनलैंड से आये मित्र सईद साब के बारे में बातें हुईं..उनका आग्रह था कि वे लौटें इससे पहले उनका इंटरव्यू करो..मैंने हामी भरी थी..लेकिन इंटरव्यू के लिए जो दिन सोचा उसी दिन उनको फ्लाइट पकड़नी थी. अनंत जी दिमागी रूप से हमेशा की तरह अलर्ट थे. पिछले तीन साल से मैं उनसे कह रहा था..आप जल्दी अपनी जीवनी लिख दीजिये..पता नहीं किस दिन जाना हो जायेगा..लेकिन वे जीवनी लिखने से बचते रहे..उन्होंने कहा..'आई ऍम क्वाईट यंग..क्या कहती हो उमा?'. उमा जी ने कहा..आप तो 18 साल के हो रहे अभी..लेकिन अनंत जी वाकई चले गए..टी.बी. ने तो युवावस्था में ही जकड़ लिया था. तब सी.पी.आई. ने पी.पी.एच. की झोली पकड़ाकर उन्हें मुंबई से नैनीताल रवाना कर दिया था.
जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता!
और दो दशक पहले तो दिल्ली में वो लगभग चले हीे गए थे..जब जानलेवा हमले के बाद कोमा में चले गए थे. उमा जी उन्हें वापस बुला लायी थीं. उनके हाथ में दुबारा कलम दी..विदेश से मित्र द्वारा भेजा कैमरा और वौइस् रिकॉर्डर तो हमेशा हाथ में ही रहता था..मानो अभी चल पड़ेंगे छापामार पत्रकारिता को. अभी कुछ समय पहले ही दिल्ली के एक बड़े प्रकाशक से उनकी कहानियों का समग्र लाने का मामला भी बन गया था. अभी कुछ ही समय तक वे युगवाणी के लिए कॉलम लिख ही रहे थे..अनंत जी के भीतर अनंत आत्माएं थीं. नैनीताल में दरोगा के घर जन्मे ..फिर नास्तिक हुए..फिर मुंबई..लाहौर..कराँची..मोस्को..लंदन..कहीं किसी काम में मन रमा नहीं..दूरदर्शन में उनकी रचनाओं के मंचन कब के आ गए..लगातार खुद को तोड़ते चले गए..खुद को किसी बुत में ढलने नहीं दिया.. फैज, कैफ़ी, मजाज, सरदार जाफ़री..संगी साथी थे..कवि/गीतकार शैलेन्द्र को उन्होंने ही मार-मारकर कम्युनिस्ट बनाया..हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों की शुरुआती रचनाएँ एडिट कीं..लेकिन वे लेखक बन गए तो कभी नहीं कहा..हासिल. दिल्ली में जो जोड़ा था, उसे दिल्ली ही छोड़कर आ गए अपनी भवाली की प्रिय झोपड़ी में रहने. गढ़वाल पितरों की भूमि थी, लेकिन वहां इसलिए नहीं गए कि बिरादर कहेंगे देखो न यहाँ पैदा हुआ..न रहा..अब बुढ़ापे में जमीन लेने आ गया. जबकि उनके अनुज विवेकानंद (आई.ए.एस.) और दूसरे अनुज कर्नल साब ने उनके हिस्से की 80 नाली जमीन उनके लिए जरूर रख छोड़ी थी. अनुराग से भी कहते..गढ़वाली होने के लिए जरूरी नहीं गढ़वाल में जमीन हो. तुम्हारे चाचा अपने आप देखेंगे..नहीं देखेंगे तो कभी दलित/ भूमिहीन भाईयों को दान कर आना. देहरादून आते तो मेरे किराये के घर में ही रहते..वहीं उनके जर्जर हो चुके यार उनसे मिलने आ जाते. कुछ नाम तो वे ऐसे बताते जो एक दशक पहले ही सिधार चुके होते..मैं उनसे कहता वो तो गए सर..तब वो कान की मशीन की संभालते हुए जोर से चीखते 'चला गया..'..फिर दुबारा धीमे स्वर में कहते.."अच्छा चला गया होगा". मृत्यु से वो कभी नहीं डरते..जबकि अपने प्रिय यार के किस्सों में खो जाते..किस्से आलोचना और आत्मालोचना से भरे होते..लेकिन कटुता कभी नहीं आने दी..खंडूड़ी परिवार (पूर्व सी.एम. खंडूड़ी का परिवार) के वे बड़े प्रशंसक थे, सिवा बी.सी. खंडूड़ी के. खंडूड़ी की पत्नी ही उनसे हमारे घर पर मिलने आ जाती, वे कभी उनके पास नहीं गए. मगर वे कहते घनानंद खंडूड़ी बड़ा आदमी था..उन्होंने मसूरी के बच्चों की शिक्षा का बीड़ा उठाया था. ये तो नेता हो गया..फिर कहते इस खंडूड़ी का अंग्रेजी-तलफ्फुज मैं ठीक करता था..और इसे पैग कैसे बनाते हैं मैंने ही सिखाया था. वो एक बार लंबे समय तक घर पर रहे तो डंगवाल आंटी ने एक दिन उन्हें घूरते हुए कहा..'अरे ये दया दाज्यू तो नहीं?' उन्होंने बचपन में उन्हें नैनीताल में देखा था. उनके पिता वहां डी.ऍफ़.ओ. रहे थे. फिर दोनों दया दाज्यू के बचपन की शरारतों के बारे में देर से बातें करते रहे..'ये तो मंदिर से पैसे चुरा लेते थे', 'ये तो आग माँगने जरूर आते थे', 'ये तो खूब स्मार्ट थे'..'फिर से भाग गये घर से..और अब देख रही हूँ इन्हें..'. 'हे भगवान ये तो अब भी इतने स्मार्ट हैं..और मैं तो कैसी चिमड़ी गयी हूँ.' ...तो अस्पताल से रिहा होने के दूसरे दिन नैनीताल श्मशान घाट यानी पाईन्स जाना हुआ. उनका जनाजा एकदम शांत था..कोई शोर नहीं..कोई चीख नहीं..कहलक्वीरा के ही चार-छह जन..मैं अजीब-सी उदासी से भर गया इस सुनसान मौत पर. अगर दिल्ली से उस दिन पंकज बिष्ट और डॉ. ज्योत्सना नहीं आतीं तो कोई बड़ा आदमी कहने को नहीं था वहां. सब के सब आम आदमी थे. नैनीताल से थोड़ी देरी के बाद महेश जोशी और अनिल कार्की पहुंचे..और जो दरअसल दोनों नैनीताल के नहीं थे. जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता! खैर इसके बाद मैं कई दिन तक अनंत जी की फोटो अपने लैपटॉप में ढूंढता रहा..अमर उजाला के 'आखर' के लिए उनका पहला इंटरव्यू किया था डॉ विनोद पाण्डे (अहमदाबाद) और मैंने..उसके बाद दैनिक जागरण के लिए भी..उसके बाद तो बार-बार उनके घर जाना ही रहा..फोटो भी खिंचते रहे..लेकिन पता नहीं उनके जाते ही उनके फोटो कहाँ चले गए..हाँ उन्होंने हमारी जो फोटो खीचीं..वे सब की सब हैं..एक से एक बेहतरीन..वे हमेशा व्यक्तिपरता के खिलाफ रहे..और शायद उनके फोटो इसीलिए नहीं मिल रहे..उमा जी और सुनीता के साथ खींचा हमारी शादी से चार बरस पहले का ये फोटो हमें बहुत प्यारा है..एक बार तो उन्होंने हम दोनों की ढेरों फोटो खींचकर..उन्हें लैब से बनवाकर हमें बंच भेंट कर चौंका ही दिया था. कितने उत्साही ..कितने जिंदादिल थे दयानंद अनंत! (आज आठ दिन बाद उन पर कुछ लिखने की हिम्मत मैं कर पाया..और मन कर रहा है..लिखता चला जाऊं..बहुत शानदार यादें हैं इस शानदार दोस्त की संगत की.)"

Thursday, October 20, 2016

सम्मानजनक विदाई

यह हैं मृत होते समाज के लक्षण


जगमोहन रौतेला 

वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार दयानन्द अनन्त का पार्थिव शरीर गत 13 अक्टूबर 2016 को प्रात: दस बजे नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया . उनकी अंतिम यात्रा भवाली के कहलक्वीरा गॉव स्थित उनके घर से प्रात: नौ बजे शुरु हुई . उनको मुखाग्नि पुत्र अनुराग ढौडियाल ने दी . उनकी अंतिम यात्रा में लेखन , पत्रकारिता व संस्कृतिकर्मी , परिवारीजन , उनके गॉव के लोग मौजूद थे . उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट पर किया गया . उन्होंने अपने परिवार के लोगों और मित्रों से कहा था कि उनकी मौत भले ही कहीं भी हो , लेकिन अंतिम संस्कार नैनीताल के पाइन्स शमशान घाट पर ही किया जाय .
       उनके सैकड़ों मित्रों व हजारों प्रशंसकों के होने के बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों का मौजूद रहना अनेक सवाल छोड़ गया है . अंतिम यात्रा में दिल्ली से पहुँचे समयान्तर के सम्पादक व वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट , उनकी पत्नी , युवा कथाकार अनिल कार्की , रंगकर्मी महेश जोशी , भाष्कर उप्रेती , विनीत ,संजीव भगत , ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा आदि कुछ लोग ही मौजूद रहे . पंकज बिष्ट की बीमार पत्नी का शमशान घाट तक पहुँचना अनन्त जी के प्रति उनके आत्मीय सम्बंधों व सम्मान को बता गया . युवा कथाकार अनिल कार्की का कहना है कि वे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी , इसके बाद भी वह शमशान घाट तक पहुँची . पर मुठ्ठी भर लोगों का एक प्रसिद्ध कथाकार व अपने समय के प्रखर पत्रकार की अंतिम यात्रा में शामिल होना कार्की के लिए बहुत ही पीड़ादायक था . वह कहते हैं ," यदि जीवन के अंतिम समय में भी आप सक्रिय नहीं हैं या फिर आपके परिवार के साथ भविष्य के लिए लोगों का " स्वार्थ " नहीं जुड़ा है तो यह दुनिया आपके किसी भी तरह की सामाजिक , साहित्यिक कर्मशीलता को भूला देने में क्षण भर भी नहीं लगाती और  यह समाज बहुत ही खुदगर्ज है ". अंतिम यात्रा में उनके शुभचिंतकों , मित्रों व प्रशंसकों में से किसी के भी मौजूद न रहने पर पंकज बिष्ट को भी बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने भाष्कर उप्रेती से सवाल किया कि क्या पहाड़ में अब लोग अपने लोगों को अंतिम यात्रा में यूँ ही लावारिस सा छोड़ देते हैं ? ये कैसा बन रहा है हमारा पहाड़ ?
       यह स्थिति तब हुई जब नैनीताल , भवाली , हल्द्वानी , रामनगर , रुद्रपुर , अल्मोड़ा , भीमताल में ही लेखन , साहित्य , संस्कृतिकर्म और तथाकथित जनसरोकारों से जुड़े चार - पॉच सौ लोग तो हैं ही . और इनमें कई लोग दयानन्द जी से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी थे . या यूँ कहें कि उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे . उनके साथ आत्मीय सम्बंधों के बारे में इन लोगों के बयान तक छपे . पर इनमें से भी किसी ने उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए जाना तक उचित नहीं समझा . कुछ लोगों ने पहले ही दिन उनके घर जाकर अपनी सामाजिक व उनके प्रति आत्मीय जिम्मेदारी पूरी कर ली थी . इनमें से किसी ने भी यह सोचने व सुध लेने की कोशिस नहीं की कि कल उनकी अंतिम यात्रा कैसे होगी ? ऐसा भी नहीं है कि उनकी मौत की सूचना लोगों तक नहीं पहुँची हो . चौबीस घंटे पहले उनकी मौत हो गई थी . सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से उनके मौत की खबर दूर - दूर तक पहुँच गई थी . इसके बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में रचनाकर्म से जुड़े लोगों का न पहुँचना भी हमारी सामाजिक संवेदना व जिम्मेदारियों के प्रति एक बड़ा व घिनौना सवाल खड़े करता है ? क्या समाज में खुद को सबसे बड़ा संवेदनशील होने का ढ़िढौरा पिटने वाले लोग भी दूसरों की तरह ही असमाजिक व असंवेदनशील हो गए हैं ? जिनके पास अपने रचनाकर्म की बिरादरी के एक व्यक्ति को अंतिम विदाई तक देने का समय नहीं था ? या उन्होंने इसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं समझी ?
       इससे आहात भाष्कर उप्रेती कहते हैं ," नैनीताल को आज भी चिंतनशील , सांस्कृतिक चेतना व वैचारिक धरातल वाले लोगों का शहर माना जाता है . जो समय - समय पर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के सावर्जनिक प्रतिरोध के रुप में सामने भी आता रहा है . पर अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शहर के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है . मैं यह सोचने को विवश हूँ कि इस शहर के लोग इतने आत्मकेन्द्रित कब से हो गए ? क्या हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना केवल गोष्ठियों , सभा , प्रदर्शनों तक ही सीमित है ?" इसी तरह का सवाल भवाली के उन लोगों के लिए भी है , जो शहर में सांस्कृतिक व वैचारिक कार्यक्रम करवाते रहते हैं और उसमें बाहर से लोगों को आमंत्रित भी करते हैं . जिनमें अनन्त जी जैसे लोग भी बहुत होते हैं . ये लोग भी अपने शहर के पास ही रहने वाले अनन्त जी की अंतिम यात्रा से क्यों दूर रहे ? उन्होंने एक सामाजिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह क्यों नहीं किया ?
       सवाल भवाली से मात्र आधे घंटे की दूरी पर रामगढ़ में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी वर्मा सृजन पीठ पर भी उठता है . पीठ की स्थापना साहित्यिक विचार - विमर्श व लेखकों को साहित्य सृजन के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए की गई है . जहॉ ठहर कर लेखक अपनी रचनाओं का सृजन कर सकते हैं . तो क्या पीठ सिर्फ इसके लिए ही है ? इसका उत्तर हो सकता है कि वह सरकार के अधीन है और उसी आधार पर कार्य करता है . यह बात सही भी है , लेकिन सृजन पीठ की क्या यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने समय के एक वरिष्ठ कथाकार के अवसान की जानकारी पीठ से जुड़े सभी रचना व संस्कृतिकर्मियों को देता ? और भवाली के आस - पास रहने वाले इस तरह के सभी लोगों से अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने का अनुरोध करता ? यदि हम किसी लेखक , कवि, कथाकार व संस्कृतिकर्मी की अंतिम यात्रा के समय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके न रहने पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण और उन पर शोध व चर्चा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास रहता है क्या ?
        इससे तो यही लगता है कि हम चाहे खुद को जितना संवेदनशील , समाज चिंतक व उसका पैरोकार होने का दावा करें , लेकिन हम भीतर से पूरी तरह से खोखले और लिजलिजे हो चुके हैं .उनका पुत्र अनुराग स्थानीय रुप से बिल्कुल ही अकेला पड़ गया था . अगर ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा ने अपने स्तर से उनके अंतिम यात्रा की तैयारी न की होती तो क्या होता ? तब शायद अनुराग और उनकी मॉ उमा अनन्त को इस समाज के प्रति घृणा व गुस्सा ही पैदा होता और कुछ नहीं ! अपने प्रसिद्ध रचनाकार पति की अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों को देखकर पीड़ा व क्षोभ का भाव तो उनके मन में होगा ही . भले ही वह उसे अभी बाहर नहीं निकाल पा रही हों . यह सोचकर ही मन ग्लानि व शर्म से भर उठता है .
        अंतिम यात्रा में न तो स्थानीय विधायक ही दिखाई दी और न कोई मन्त्री और संत्री . दूसरे स्तर के और भी किसी जनप्रतिनिधि ने भी अंतिम यात्रा में शामिल होना उचित नहीं समझा . किसी छुटभय्यै और मवाली टाइप के नेता की मौत को भी समाज के लिए अपूरणीय क्षति बताने के लम्बे - लम्बे बयान देने और शवयात्रा में शामिल होकर घड़ियाली ऑसू बहाने वाले जिले के छह विधायकों , दो मन्त्रियों और कई पूर्व विधायकों में से किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो दूर उनके शोक में दो शब्द तक नहीं कहे . यह हमारे राजनैतिक नेताओं के चरित्र के दोगलेपन की धज्जी तो उड़ाता ही है , साथ ही यह भी बताता है कि अपने समय , समाज , संस्कृति , लोक व साहित्य की चिंता करने और उसको संरक्षित करने के इनके भारी - भरकम बयान कितने उथले और छद्म से भरे होते हैं .
          मुख्यमन्त्री हरीश रावत गत 14-15 अक्टूबर को दो दिन हल्द्वानी में रहे , लेकिन उन्होंने भी अनन्त जी के घर जाकर पारिवार के लोगों से संवेदना व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं समझी . ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्यमन्त्री को अनन्त जी के बारे में कोई जानकारी ही न हो कि वे कौन थे ? जब अनन्त जी दिल्ली से " पर्वतीय टाइम्स " का सम्पादन कर रहे थे , तब मुख्यमन्त्री अल्मोड़ा से सांसद होते थे . जिन तेवरों के साथ " पर्वतीय टाइम्स " उत्तराखण्ड के सवालों व मुद्दों को लेकर निकल रहा था उसमें वे अखबार , उसके सम्पादक व उसकी टीम से अवश्य ही परिचित रहे होंगे . उनका साक्षात्कार भी उसमें प्रकाशित हुआ होगा ( मुझे इसकी जानकारी नहीं है , इसलिए ) . हो सकता है कि एक लम्बा अर्सा बीत जाने से मुख्यमन्त्री उन्हें भूल गए हों , क्योंकि करना अधिकतर नेताओं के डीएनए में शामिल होता है . पर क्या उनके भारी - भरकम सूचना तंत्र और उनकी सलाहकार मंडली ने भी उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी ? यदि यही सच है तो फिर उनके इस लापरवाह सूचना तंत्र का " सर्जिकल स्ट्राइक " किए जाने की तुरन्त आवश्यकता है .
       यह जिले के सूचना विभाग व जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गम्भीर सवाल उठाता है . जो मीडिया की आड़ में दलाली करने , बड़े नेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करने वालों के हर सुख - दुख का ख्याल बहुत ही संजीदा होकर तो करता है , लेकिन अनन्त जी जैसे प्रसिद्ध कथाकार व पत्रकार की मौत पर कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं करता . इससे साफ पता चलता है कि उसके पास अपने जिले में रहने वाले हर क्षेत्र के सक्रिय व प्रसिद्ध लोगों के बारे में कितनी जानकारी है ? क्या सूचना विभाग का कार्य केवल मन्त्रियों के दौरे पर विज्ञप्तियॉ जारी करना और मीडिया की आड़ में दलाली करने वालों की जी हजूरी करना भर रह गया है ?
      यह असंवेदनशीलता लोगों ने केवल अनन्त जी के बारे में ही दिखाई हो , ऐसा भी नहीं है . उनकी मौत से दो दिन पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार व महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे डॉ. राम सिंह की भी पिथौरागढ़ में 10 अक्टूबर की रात मृत्यु हुई थी . जिनका अंतिम संस्कार 11 अक्टूबर 2016 को किया गया . वे पिथौरागढ़ शहर से कुछ दूर गैना गॉव में रहते थे . उनकी अंतिम यात्रा में भी गॉव व उनके पारिवार के 20-25 लोगों के अलावा और कोई नहीं था . उनकी अंतिम यात्रा में पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व कहानीकार प्रेम पुनेठा भी पिथौरागढ़ के लोगों के इस असामाजिक व्यवहार से बहुत दुखी हैं . वे कहते हैें ," ऐसा नहीं है कि डॉ. राम सिंह पिथौरागढ़ के लिए कोई अनजान चेहरा हों . शहर में होने वाले किसी भी तरह के वैचारिक , सांस्कृतिक गोष्ठी में वे ही मुख्य वक्ता होते थे . उनके बिना इस तरह के आयोजनों की कल्पना तक नहीं होती थी . और कुछ भी नहीं तो उनके साथ अध्यापन कार्य करने वाले और उनके पढ़ाए हुए ही दर्जनों लोग पिथौरागढ़ में हैं . उन लोगों में से भी किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना जरुरी क्यों नहीं समझा ? यह सवाल मुझे बहुत व्यथित किए हुए है . जिसका एक ही जबाव मुझे नजर आता है कि हम दोहरी व सामाजिकता के नाम पर बहुत ही खोखली जिंदगी जी रहे हैं ".
     अपने - अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व समाज को अपने कार्यों से बहुत कुछ देने वाले इन दो व्यक्तियों की अंतिम यात्रा में समाज के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उससे यह लगता कि जैसे आपकी दुनिया से सामाजिक रुप से सम्मानजनक विदाई के लिए भी आपको किसी " गिरोह " का सम्मानित सदस्य होना आवश्यक है . अन्यथा जो लोग आपके जीवित रहते आपके साथ बैठने और सानिध्य पाने में गर्व का अनुभव करते थे , वे भी आपसे किनारा करने में क्षण भर नहीं लगायेंगे . यह एक तरह से तेजी के साथ मृत होते समाज के ही लक्षण लगते हैं .

Thursday, October 13, 2016

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की

उत्तराखण्ड के इतिहास को केन्द्र में रखकर रचनात्मक साहित्य सृजन में जुटे डॉक्टर शोभाराम शर्मा की कोशिशें इस मायने में उल्लेखनीय है कि गाथाओं, किंवदतियों, लोककथाओं और मिथों में छुपे उत्तराखण्ड के इतिहास को वे लगातार उदघाटित करते रहना चाहते हैं। उनकी डायरी के पन्‍नों में झांके तो उनके विषय क्षेत्रों से वाकिफ हो सकते हैं । 1950 के दशक में उन्‍होंने कुछ गढ़वाली लोकगीतों के हिन्दी काव्यानुवाद भी किए जो अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं। यहां प्रस्‍तुत हैं उनकी उस पुरानी डायरी का एक पन्‍ना । 
वि.गौ.

चेल्यो या झुमैलो....



तैल देश कि चेल्यो मैल देश आवो...
मैल देश कि चेल्यो तैल देश जावो...
लम्बी बणाट्यूं  या झुमैलो......
जैंकु बाबा ह्वालू चेल्यो या झुमैलो
जैंकु बाबा ह्वालू लत्ता म्वलालू
जैंकु इजु ह्वेली चेल्यो या झुमैलो....
जैंकु इजु ह्वेली कल्यो पकाली
जैंकि भौजी ह्वेली मुंड मलासली
जैंकु भाई ह्वालू चेल्यो या झुमैलो....
जैंकु भाई ह्वालू बोजी भ्वरालू
जैंकु बाबा ह्वालू आंगड़ी सौंपालू
निमैतु वली दणमण र्वेली
चेल्यो या झुमैलो..

 

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
याद म मैताकि ब्वे कु जु नि झूरली
आंख्यों म आंसू कि ब्वे धार ब्वागली
मैतु आई गौली ब्वे बेटीब्वारी गौं की
मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
काफलों की डाली ब्वे लाल बणी ह्वेली
कुखली भोरिक ब्वे दीदीभुली खाली
फूलिं मैं बुरांस ब्वे बांज गैना मौली
जुग मुग रति ब्वे गांदी गांदी जाली
हिंस्वलो की खोज ब्वे फजलेक खाली
मेरी जिकुड़ी............
ल्वखु कि बेटी आली ब्वे देख पूस मैना
बौड़ीबौड़ी आली ब्वे भाऊ मैना
मैत्वड़ा बुलाली ब्वे, ब्वेई ह्वेली जौंकी

 

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
 घुघुती घूरद ब्वे जोड़ी छूटी जैंकी
घुघुती घूरद ब्ले जिकुड़ी झूरद
यखुली यखुली ब्वे उदासी लगद
मेरी जिकुड़ी .....................
सब्बि जागा खुशि ब्वे झूरी बिन स्वामी
आश मेरी मोरी ब्वे कब आला स्वामी
रौल्यों-रौल्यों पाणि ब्वे डांड्यों कुयड़ों होली
सौंण भादो आंखो ब्वे बेटी तेरी र्वेली
मेरी जिकुड़ी .....................
बुबा जी ल खैंईं ब्वे रुपया भोरी थाली
सबि झुरांदा छैं ब्वे दींदी भारी गाली
पता नि कै देश ब्वे स्वामी चली गैना
कर्जा चुकाड़ कु ब्वे रुणि कैरी गैना
पिताजी व द्याखु ब्ले अपुणु स्वारथ
गाजू म्यारू ध्वाटू ब्वे अपुणु स्वारथ
मनकभी आंद ब्वे ढंढी पोड़ी जौऊं
इन दुख सेत ब्वे जान घाई दीऊं
मेरी जिकुड़ी .....................
हिंल्वसि बसद ब्वे जिकुड़ी झूरद
आंखि सूजि गैना ब्वे  आंसू  सूखा रूंद
भाग हैंका हथु ब्ले भाग रुणि वींकी
मेरी जिकुड़ी ....

 

बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...


बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...
गैड़ी छैं झुमक.....
डांड्यों कूड़्यों घाम बौ..गद्यरि रुमक
अस्यली को पूच...
ये मैना हेर फेरि पलि मैना कूच...
धम्यलि क तैतू....
ये मैना हेर फिर मैरि बौ..पलि मैना मैतु...
तमखू कू ख्यारू..
त्वे ह्यरिदि, ह्यरिदि बौ...कख म्वार त्यारू
संगाड़ की बीछी
अगि बटी द्वाड़ा दी मैंची,
 अब केल खाई गिच्चि
बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ..

चेल्यो या झुमैलो..


अपनीअपनी मातृ-धरा से ,

दूर कहीं तुम पार शिखर से।

निम्न देश से उत्तर पथ को,

उत्तर पथ से निम्न देश को ।

चलो सुहागिन ललनाआे

लम्बेलम्बे खेतों में से,

हलधर तीखी आवाजों से .

अपनेअपने आकुल मन को,

बहलाएं कुछ ठहरा हल को।

चलते,चलते छवि मुड़ देखो,

सजी सुहागिन ललनाआें

वसन बनायें भागिन किनके,

पिता अभी हो जीवित जिनके

जननि आंचल कल्यो धरेगी

बंधु प्रिया नत माथ मलेगी

पलकें गीली पोंछ विदा लो

बोजी भरते बंधु कहेंगे

और भरें यदि प्राण रहेंगे

लेकिन कोई सगा न जिनका

रोये जीभर, भार व्यथा का

उसे अकेला ही सहना है

चलो सुहागिन ललनाआे




मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की



मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा

जननि गेह से दूर अभागिन

पीड़ा सी उठती मन से

क्यों न बहे फिर नीर नयन से

दूर जननि के आंचल से

ललनाएं आ पहुंची होंगी

अपनी मां की गोदी में

पीड़ा मैं भी सह लेती पर

बेबस आंसू आंखों में

हंसती रोती वह भावों में

चूमें अपनी बेटी को

लेकिन जननि कहां तू ,

छोड़ अकेली बेटी को

झुके वनों में होंगे काफल

लाल रसीले दानों से

आंचल भर-भर खाएं साथिन

जीभर के अरमानों से

हरित सुनीली वन आभा में

जगमग तारे से नभ के

लाल बुरांसी फूल खिले औ

प्योलि किरण नवजीवन के

स्वच्छ केशरी मंजुल कोंपल

उगे बांज के ुमदल में

सरस हिंसोली पके हुए मां

झुके हुए नत भूतल में

उषा विहंसती देख किसी को

जग जगती से कुछ पहिले

चली फलों की टोह लिए और

रागिनि मुख से झर निकले

शीत शिशिर का बीतेगा दिन

किनका मां की गोदी में

चली चलें फिर प्रियतम के घर

रोकर पावन गोदी में

माता जीवित होंगी जिनकी

अपने पास बुलाएंगी

पीहर के दुख भूल अभागिन

अपना मन बहलाएंगी

मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा




मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा

ऊब उठी एकाकीपन से

मां इस तन से जीवन से

पूछे कोई अंतर्पीड़ा

आहत घुघुती विरहन से

नियति नटी के हर अंगों में

अल्हड़ यौलन छाया सा

किंतु विरह की दावानल में

जली लता सी मम आशा

नद नालों में पानी बहता

धवलित कुहरा शिखरों में

लेकिन तेरी सुता कहीं मां

सावन भादो आंखों में

मिटी पिता के कर कमलों से

आज त्रिहणी पतिदेव हुए

सभी कोसते इंगित कर मां

हाय भला फिर कौन जिए

पता न प्रियतम कहां चले औ

सूना यौवन रोता सा

आह प्रणय के स्वर्णिम पट पर

अंकित मुक्ता बाधा सा

बेच सुता को बने पिता तुम

निपट अहं स्वारथ प्रेरा

अपने हाथों गला घोटकर

भार किया जीवन मेरा

हूक कभी यह उठती मन में

आत्म घात कर डालूं मां

जीवन फीका दुख भारों से

जीवित रहना बोझिल मां

हृदय चीरता रोदन जिसका

ङ्क्षहल्वसि रोती है वन में

फूल गई हैं आंखें मेरी

हाय नहीं आंसू जिनमें

 भाग्य नहीं निज कर में जिसका

अपना उसका जीवन क्या

आंसू ही धन वैभव जिसका

शोषित जन का जीवन क्या

मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा






बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...

 

चली लालिमा थकीथकी सी

ऊंचेऊंचे गिरि श्रृगों में

झुटपुट संध्या गहरीगहरी

निचली घाटी सरिता तट में

चलें गेह को भली न देरी

बंधु प्रिया हे साथिन मेरी

इतनी आकुल होना भी क्या

इतना पलपल रोना भी क्या

ठहरो माह गुजरने भी दो

यादों ही में खोना भी क्या

जननि गेह  को अभी न देरी

बंधु प्रिया........

मरी कहां तुम जीभर रोने

यहां अकेली फिरती हूं मैं

छिपी कहां तुम जी बहलाने

ढूंढा लेकिन हार चुकी मैं

बंधु प्रिया..............

अभीभी तो उत्तर देती

थी तुम मेरी आवाजों का

लेकिन अब चुप नीरव हो क्या

रोना रोती गत बातों का

किसने हर ली वाणी देरी

बंधु प्रिया...........