Thursday, April 4, 2024

रंगमंच की दुनिया का सिलक्यारा मिशन

 







उत्तर नाट्य संस्थान एवं दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित नाट्य समारोह का आखिरी नाटक 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुआ। नाट्य समारोह की शुरुआत विश्व रंगमंच दिवस, 27 मार्च 2024 को हुई थी। समारोह का आखिरी नाटक-अन्वेषक दून विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग के विद्यार्थियों द्वारा खेला गया। वर्ष 2023 के लिए संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित किए गए डॉ राकेश भट्ट के निर्देशन में खेले गए इस नाटक का यह दूसरा प्रदर्शन था। मई 2023 में भी दून विश्वविद्यालय में इसको मंचित किया गया था। कहानीकार और नाट्य लेखक प्रताप सहगल के द्वारा लिखा गया नाटक “अन्वेषक”  प्राचीन भारतीय इतिहास की विसंगतियो को केंद्र में रखकर रचा गया है। महान खगोलविद और वैज्ञानिक आर्यभट के अनुसंधान- पृथ्वी चलायमान है, के प्रति पुरोहितों द्वारा की गई अवहेलना इस नाटक का कथा बिंदू है। 20 वीं सदी के आखरी दशक में प्रकाशित हुए इस नाट्य आलेख पर बात करने से पहले मंचन की खूबियों-खामियों पर बात कर ली जाए।

कुछ छोटी मोटी तकनीकी खामियों के बावजूद 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुए “अनवेषक” की प्रस्तुति को संतोषजनक कहा जा सकता है। मंचन में यदि कोई व्यवधान बन रहा था तो वह था नाटक का पर्श्व संगीत- जो अखरने वाला रहा। अभिनय के लिहाज से कहा जाये तो पात्र उस दायरे में रहे जिसे लेखक के रचे हुए के साथ संगत बैठाते हुए निर्देशक ने परिकल्पित किया। फिर चाहे नट-नटी (गणेश गौरव, सोनिया नौटियाल) के किरदारों का चुलबुलापन हो और चाहे संयत और धीर गम्भीर व्यवहार में राजा बुधगुप्त ( अरुण ठाकुर) या आर्यभट ( कपिल पाल) का अभिनय।      

निर्देशक की परिकल्पना के पहलुओं पर विचार किया जाये तो पाएंगे कि लेखक ने जिन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर नाटक लिखा, निर्देशक ने उनकी प्राप्ति के लिए ही हर सम्भव स्थितियों को नाट्य तत्वों में पिरोने की कोशिश की। स्पष्ट है कि लेखकीय उद्देश्य उस विचार की साम्यता में हैं, जो अतीत के गौरव गान को ही राष्ट्रीयता और देशप्रेम मानता है। वह एक ऐसा विचार, जो जब राजनीति का चोला पहनता है तो दुनिया के सारे ज्ञान और किसी भी अनुसंधान को सिर्फ अपने धर्मग्रंथों में तलाशता है, बल्कि जिद्द की हद तक धर्मग्रंथों को ही प्राथमिक स्रोत माने रहता है। बदलती हुई दुनिया के मूल्यबोध उसके आड़े आते हैं तो शुरु में तिलमिलाता है। लेकिन जब यह जान लेता है कि समाज उन बदले हुए मूल्यबोध से इतर व्यवहार नहीं करेगा तो इस तरह पैंतरा बदलता है कि मूल्यबोधों को स्वीकारने की बजाय  प्रतीकों के माध्यम से खुद को भी उनका हिमायती होने का झूठ रचता है। उसका झूठ पकड़ में न आए इसलिए प्रतीकों के झंडे बनाकर लहराने लगता है। मसलन, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ने आजादी की जो कल्पना की, उसके प्रति नफरत भरा होते हुए भी राष्ट्र भक्ति का झूठ रचने के लिए वह पहले भगत सिंह को पगड़ी पहनाता है और फिर उसे देव स्वरूप पूज्य बनाता है। अहिंसा के विचारक गांधी की हत्या करता है, लेकिन झूठ को रचने के लिए चश्मे को लहराते हुए ही गांधीवाद का पूजारी दिखना चाहता है।   

प्रताप सहगल का नाट्य आलेख भी ऐसे ही झूठ के साथ वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न आर्यभट की उस खोज को कथा में जगह देता है जिसने धार्मिक मान्यताओ को चौनौती दी थी। वे मान्यताएं, जिनका स्पष्ट मत था कि पृथ्वी स्थिर है और रात दिन की चक्रियता दैवीय चामत्कार है। ग्रहणों की स्थितियां राक्षसों के उत्पात हैं और उनके उपाय के लिए ही दैवीय उपासना और दान दक्षिणा के उपक्रम आवश्यक हैं।

चूंकि नाटक का विषय यह नहीं है कि वह उन कारणों को जानने के लिए लिखा गया है कि आखिर क्यों और कैसे एक महत्वपूर्ण अनुसंधान की पुस्तक पूरे इतिहास में विलुप्त रही, इसलिए यह आलेख भी उन स्थितियों को नहीं उठा रहा। जबकि यह कौन नहीं जानता कि झूठ को फैलाते रहने वाले धर्मग्रंथ ही नहीं, उनकी टिकाएँ तक सुरक्षित तरह से संरक्षित रहीं हैं। इसलिए यह प्रश्न विचारणीय होते हुए भी मुझे छोड़ देना पड़ रहा है कि क्यों ऐसा हुआ कि सिर्फ दो दो पंक्तियों में लिखे गए 121 श्लोकों की पुस्तक आर्यभटीय जो गणित और ज्योतिष विज्ञान के जटिल विषयों को सूत्रबद्ध किये थी, सैकड़ों सालो तक विलुप्त रही ? मेरी यह टिप्पणी सिर्फ उतने की ही बात करने के लिए बाध्य है जो मंचित हुए नाटक “अन्वेषक” का घटनाक्रम है।    

दिलचस्प है ऊपर के सवालों को दरकिनार करते हुए ही नाट्य आलेख उस गौरवगान का आख्यान बनने के साथ है जो “अतीत के सुवर्ण काल” को स्थापित करने वाला है। नाटक में आर्यभट को गुप्त शासक बुधगुप्त के समर्थन से अनुसंधान करते दिखाया जाना उसी अतीत को गौरवांवित करना है जो धर्मशास्त्रों पर टिकी मान्यताओं को ज्यादा मुस्तैदी से प्रसारित करने वाला हुआ। इतिहास गवाह है कि राजदरबारों के समर्थन कला साहित्य की उन गतिविधियों के लिए रहे, जो या तो सीधे धर्मग्रंथों की मान्यता को स्थापित कर रही थी, या फिर कुछ नया करते हुए इस बात का ध्यान रखती थी कि समाज में फैले अंधकार को चुनौती न देती हो। गुप्त काल के एक शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों के बारे में इतिहास से जानकारी मिलती है। “तथाकथित रूप से कवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध, परन्तु दरअसल 12वीं सदी में लिखी गई 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक जाली पोथी के एक श्लोक में भी इन नौ रत्नों की सूची है- धन्वंतरि क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि । यानी पाटलिपुत्र में पूजित ज्ञान को प्रतिष्ठित करने वाले गुप्तकाल के ही के प्रथम महान गणितज्ञ आर्यभट का नामोल्लेख, नहीं है! क्या यह भारतीय विज्ञान के प्रथम पौरुषेय कृतित्व को और उसके रचनाकार को लोक-परम्परा से ही बहिष्कृत कर देने वाला प्रयत्नपूर्वक किया गया प्रयास नहीं है?” (गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998) । भारतीय गणित के इतिहास की व्याख्या करने वाले विद्वान गुणाकर मूले स्पष्ट लिखते हैं, “आर्यभट के भूभ्रमण वाद पर हमला करने वाले पहले ज्योतिषी वराहमिहिर (मृत्यु : 587 ई.) हैं। आर्यभट के भूभ्रमणवाद पर कठोर प्रहार करने वाले दूसरे व गणितज्ञ-ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त हैं।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998)। आर्यभट द्वारा प्रतिपादित भूभ्रमण का सिद्धांत पुरोहित-वर्ग के लिए एक नई चुनौती थी। “'परमभागवत' गुप्तों के शासनकाल में यह वर्ग काफी बलशाली बन गया था। वेदों और धर्मशास्त्रों के हवाले देकर अचला पृथ्वी का जो लोकविश्वास कायम किया गया था उसे टिकाए रखने में सबसे ज़्यादा हित पुरोहित वर्ग का ही था। इसलिए समाज के इस प्रभावशाली वर्ग ने आर्यभट के भूभ्रमणवाद के उन्मूलन के लिए हर संभव प्रयास किया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।““(गुणाकर मूले, वही)     

नाटक स्पष्टत: दिखाता है कि अन्वेषक आर्यभट ने अपनी पुस्तक “आर्यभटीय” बुधगुप्त को सौंपी। यद्यपि तथ्य है, “आर्यभट अपनी कृति में किसी भी राजा या सामंत का उल्लेख नहीं करते हैं। समकालीन राजनींतिक परिस्थितियां भी अनुकूल नहीं थी। आर्यभट का जन्म 476 ई में हुआ।“ (गुणाकर मुले, महान गणितज्ञ- ज्योतिशी आर्यभट, राजकमल प्रकाशन, पेज 136)। फिर भी यदि नाटक की कथा को यदि सत्य मान लिया जाये तो फिर सवाल है कि ज्ञान विज्ञान को संरक्षण देने वाला राजदरबार ऐसे महान अनुसंधान की पुस्तक को गुप्त शासन के क्षेत्र में क्यों संरक्षित नहीं रख पाया ? यह भी इतिहास है कि “सुदूर दक्षिण भारत में, मुख्यतः मलयालम लिपि में, टीकाओं सहित आर्यभटीय की कई हस्तलिपियां उपलब्ध थीं। उनमें से कुछ हस्तलिपियां यूरोप के संग्रहालयों में भी पहुंच गई थीं, मगर उनका अध्ययन और प्रकाशन नहीं हो पाया था, और न ही उनके आधार किसी यूरोपीय विद्वान ने आर्यभट प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया था। डा. भाऊ दाजी प्रथम यह काम किया लाड (1824-74 ई.) ने। उन्होंने 1865 ई. में केरल की यात्रा करके वहां मलयालम लिपि में आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पोथियां खोजीं। उनका अध्ययन करके भाऊ दाजी ने आर्यभट और आर्यभटीय के बारे में एक खोजपरक निबंध तैयार किया।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, मार्च-जून1998)।   



स्पष्ट है प्रताप सहगल के नाट्य आलेख में इंन तथ्यों की अवहेलना के कुछ निहितार्ठ हैं। यह नाटक अतीत के गौरवगान के लिए ऐसे दृश्य रचता है कि राजा बुधगुप्त और उसके दरबारी बार बार ही आर्यभटीय सिद्धांतों को लागू करने के लिए उद्यत हैं। यहाँ तक कि आर्यभट की स्थापना का विरोध करने वालों को कारागार में डाल देते हैं। ऐसा करते हुए प्रताप सहगल न सिर्फ अतीत का गौरव गान करने वाली राजनीति को मद्द करते है बल्कि आर्यभट की वैज्ञानिक उपलब्धि को भी अतीत की उसी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा बना देने का रास्ता सुझाते है जिसका सारा कार्यव्यापार ही धार्मिक गतिविधियों को सर्वोपरि मानने वाला रहा है।

अतीत के गौरव गान के उद्देश्यों से तैयार प्रताप सहगल की यह स्क्रिप्ट राकेश भट्ट के निर्देशन में गुप्त काल के उस दौर को आधुनिक मूल्यबोध के उन रंगों से सजा देना चाहती हैं कि पुरातनपंथी वह दौर किस दर्शक की चाह न हो जाए जिसमें विद्ध्वत समाज की एक कुलपति स्त्री हो। पांच विद्वानों की उस सभा में दो स्त्रियां हो और उनमें से एक सभा की अध्यक्षता करे। तो कैसे नहीं वह पुरातनपंथी राजदरबार आज की जनता की चाह होने लगेगा। इतिहास की विकृति की ऐसी गौरव गाथाएं दून रंगमंच में पिछ्ले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढी हैं। दिलचस्प है कि ऐसी सभी गतिविधियों में इतिहास के नायकों की वास्तविक भूमिका को चौपट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई। फिर न तो वहां नागेंद्र सकलानी बच पाए हैं और न वीर चंद्र सिंह गढवाली। दून रंगमंच की यह चाल उस सिल्क्यारा मिशन की चाल है जो न तो सुरंग निर्माण के औचित्य पर बात करना चाहती है, न सुरंग में मजदूरों के फंस जाने के कारणों को तलाशना चाहती है और न ही उस श्रम का सम्मान करना चाहती है जिसके प्रतिफल से फंसे हुए मजदूरो को जीवन मिल पाया है। उसका उद्देश्य तो सिर्फ पैसा, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और शासन प्रशासन में घुसपैठ को महत्व देना हुआ है। 

यदि अपने आस पास के परिदृश्य पर निगाह डालें तो स्पष्ट देख सकते हैं कि देश के पैमाने में जारी हिंदी रंगमंच की दुनिया का यह सिलक्यारा मिशन ही कभी “राम की शक्तिपूजा” में शरण लेता है तो कभी प्रेमचंद के “गोदान” में।

Tuesday, April 2, 2024

लोक में वास करता विश्व



अकसर सुनते हैं कि फिल्म डायरेक्टर का माध्यम है और नाटक पात्रों का। हालांकि देखा जाए तो अभिनय की ये  दोनों विधाएं ही मूल रूप से है तो पात्रों का ही माध्यम। फिर भी यदि कहावत को सच की तरह स्वीकारें तो भी यह आश्चर्य की बात ही होगी कि 1 अप्रैल 2024 को दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद ऑडोटोरियम में खेले गए गढवाली नाटक “रुमेलो” को देखने के बाद कहना पड़ रहा है कि प्रदर्शित हुआ नाटक निर्देशन के कौशल का नमूना रहा। शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो की मंच परिकल्पना एवं निर्देशन दून विश्वविद्यालय में रंगमंच विभाग के शिक्षक डॉ अजीत पंवार ने किया। यह उल्लेखनीय है कीं नाटक के सभी पात्र दून विश्वविद्यालय के वे विद्यार्थी थे जिनमें से ज्यादतर के मंच पर उतरने के अनुभव नगण्य ही थे। मंचीय अनुभव सम्पन्न विद्यार्थियों की बात भी की जाए तो वे भी सीमित ही। यानि सीमित और नगण्य अनुभवों वाले कलाकारों से एक परिपक्व नाट्य प्रस्तुति को रच ले जाना बिना कुशल निर्देशकीय कौशल के सम्भव ही नहीं था। लेकिन सिर्फ इस एक मानक पर खरे उतरने के बाद भी यह कहना तो शायद उचित नहीं कि यह नाटक  निर्देशन के कौशल का नमूना रहा

जरूरी है कि उन अन्य जरूरी उपादानों का भी जिक्र हो जिन्होंने मंचित हुए इस नाटक में वे प्रभाव पैदा किये। इसीलिए सबसे पहला जिक्र होगा उस सेट का जो वातावरण का निर्माण करने के लिए नाटक में इस्तेमाल हुआ
, अन्य अर्थों में कहें तो जिसे न सिर्फ तकनीक के समुचित प्रयोग से रचा गया, बल्कि जिंदगी के राग रंग स्पष्ट तरह से दर्शकों तक पहुंच सकें, उस तरह से व्यवस्थित किया गया। यह कहना कतई ज्यादा न होगा कि सेट के कारण जो वातावरण सृजित हुआ, उसके प्रभाव में ही दर्शक उतराखण्ड की इतिहास कथा के आस्वाद को मंचित होते दृश्यों में महसूस करते रहे।  दृश्यों के प्रभाव उस पार्श्व संगीत से ओथेलो को रुमेलो में बदल रहे थे जो लोक की स्थानिकता में लयबद्ध होकर मंचीय संतुलन को सम्भाल रहा था और प्रकाश के सुनियोजन से प्रदीप्त हो रहा था। निर्देशकीय कौशल क़े ये उल्लेखनीय पक्ष भी भी शायद यह भ्रम रचने में असमर्थ रह जाते कि दर्शक शेक्सपियर का ओथेलो नहीं बल्कि गढवाली भाषा का ही कोई मूल नाटक देख रहे हैं, यदि नाटक का स्क्रिप्ट भाषायी रूपांतरण के रचनात्मक कौशल में न तैयार हुआ होता। नाट्य आलेख के लेखक दिनेश बिजल्वाण ने कथा के योरोपीय विन्यास से भिन्न उत्तराखण्डी भूगोल को ला खड़ा किया। सम्वादों में गढवाली भाषा का लालित्य उन मुहावरों में रचा जिन्होंने पात्रों की स्थानिकता को विश्वसनीय चरित्र की तरह पेश किया। नाटक के किरदार ओथेलो, डेसिमोना, इयागो, ऐमिला, कैशियो आदि के रूप में नहीं बल्कि अपनी स्थानिक आभा और चारित्रिक विशेषताओं के साथ रुमेलो, रुकमा, बिघ्नी, मायालू, बिच्छा आदि क़े रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।

  

यह कहने में संकोच नहीं कि न सिर्फ मंचन की दृष्टि से बल्कि लेखन की दृष्टि से भी शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो दून विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक उपलब्धि होने का पात्र तो हुआ ही है, साथ ही आयोजित किये गये इस सात दिवसीय नाट्य उत्सव की भी उपलब्धि है। ज्ञात हो की इस नाट्य उत्सव का अयोजन उत्त्र नाट्य संस्थान एवं रंगमंच, देहरादून और लोक कला विभाग दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में किया गया है और 27 मार्च 2024 को रंगमंच दिवस के दिन शुरु हुआ।


अभिनय के स्तर पर हर पात्र की कोशिश अपने सर्वोत्तम के साथ प्रस्तुत होती हुई थी। घटना के प्रभावों में बिघ्नी की भूमिका में सृजन जोशी, रुमेलो- सृजन डोभाल, रुकमा- साक्षी देवरानी, बिच्छा आयूष चौहान, राजा- सिद्धार्थ डंगवाल, सुनार- संयम बिष्ट कई दिनों तक याद रहने वाले अभिनय हैं। जोत्रा के रूप में अनन्य डोभाल, मायालू- अंशुमन सजवाण, अलका- कनिष्का उनियाल, जलका- संध्या, कलदारसाह- राजदीप राणा और अन्य ग्रामीणों के रूप में मंच पर मौजूद रहे पात्रों की उपस्थिति के बिना तो नाटक के दृश्य भीं स्मृतियों में न उतर पाएंगे।       



 


Saturday, March 30, 2024

मदन डुकलान की कविताएं

 

कुछ वर्ष पहले तक साहित्य में षष्ठीपूर्ति मनाने की सूचनाएंं खूब सुनी जाती थी। लेकिन "युवा रचनाओं" के "आंदोलन" के शुरु होने के बाद से ऐसा कोई आयोजन सुनायी नहीं दिया। 

गढवाली भाषा के कवि मदन डुकलान  की कविताओं के अनुवाद को सांझा करते हुए हम भी उस परम्परा को तो नहीं ही निभा रहे हैं। लेकिन यह बात फिर भी अपनी जगह है कि मार्च का महीना, कवि मदन डुकलान का जन्म माह है। और आज अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे करने के साथ भाई मदन का सेवाकाल से निवृत्ति क दिन है। उन्हें ढेरों शुभकामनाएं। 


मदन भाई लगभग चालीस वर्षों से  गढवाली भाषा में लेखन कर रहे हैं। लेखन के उन शुरुआती दिनों में जब वे हिंदी भाषा में भी लिखते थे, गढवाली भाषा साहित्य की बहुत अच्छी स्थिति नहीं थी। लेकिन एक गढवाली भाषा के प्रति अपने प्रेम और गढवाली भाषा साहित्य की चिंताओं के मद्देनजर उन्होंने गढवाली भाषा में ही लिखने का तय किया। "चिट्ठी पत्री" जैसा कविता फोल्डर निकालते हुए आज उसे एक गढवाली भाषा की जरूरी पत्रिका के रूप में स्थापित किया। यह उल्लेखनीय है कि "चिट्ठी पत्री" ने सौ सालों की गढवाली कविताओं के साथ "अंग्वाल" और सौ सालों की गढवाली कहानियों के साथ "हुंगारा" ऐतिहासिक महत्व के अंक निकाले। 

भाषायी प्रेम के चलते मदन भाई ने गढवाली भाषा में फिल्म भी बनायी और वैसे ही फिल्मों और गढवाली भाषा के नाटकों में भी आज तक सक्रिय हैं। 

मदन डुकलान की ये कविताएं उनके नए संग्रह "तेरि किताब छों" से हैं और इन कविताओं के अनुवाद गढवाली भाषा की एक विश्वसनीय अनुवादक कान्ता घिल्डियाल ने किए हैं।  


फूलदेई 


दरवाजे बंद खंडहरों की
उदास देहरी हूँ मैं 

उम्मीद लगाये 
कि तुम आओगे
और बोलोगे
फूलदेई छम्मा दे

हुलस उठेगा मन 
सीलन भरी नम दीवारों का
उदासी छटेगी ऐसी कि 
ताले टूट जाएंगे 
बंद दरवाजों के.......



चुनाव  


गाँव गांव भटकने लगे हैं गिद्ध
भेड़िए पुचकारने लगे हैं
निरीह मेमनों को
चुनाव आ गए हैं
औने कौने 
अंधेरे चौराहों पर
समर्थन की भीख मांगते 
बाज 
छले छलाए लोगों के आगे
नतमस्तक होने का
नाटक खेलने लगे हैं
चुनाव आ गए हैं........





क्या कहूँ यार 


कभी सरल कभी दुश्वार 
तेरा प्रेम , तेरा प्यार
अरे यार

तेरी कोठी तेरी कार
मै हूँ बस सड़कछाप
अरे यार

औरों के लिए समझदार
मेरे लिए बेकार 
अरे यार

प्यार में हैं  घाटे हजार
मुश्किल है यह व्यापार
क्या कहूँ यार

तेरी जीत मेरी हार
क्यों होती है बार बार 
क्या कहूँ यार

गंगा आर गंगा पार
बातें हो रही सौ हजार
क्या कहूँ यार

कैसा है तू कलाकार
 न दिया जीने  ,दिया मार
क्या कहु यार......



 मेरी आस  


मेरी सामर्थ्य से 
बाहर हो तुम

जैसे बाहर है
यह वायु
यह जल

पर तुम ही हो मेरी सामर्थ्य 
जैसे हवा
जैसे पानी.........








इससे पहले कि 


इससे पहले कि
यह घर ढह जाये
गांव का नामोनिशान न रहे

इससे पहले कि 
मवेशी (जानवर) न रहे
ओट हो जाए खत्म

इससे पहले कि  
न रहूं मैं
न रहो तुम

उठा लो कदम
इससे पहले कि 
यह रास्ता ध्वस्त न हो जाए......











Monday, March 11, 2024

ओबरे में खटोली

 मनोरमा नौटियाल 



राजा शाह जी का जमाना था। टिहरी रियासत वाले राजा शाह जी का जमाना। आज की राणी जी वाली टिहरी रियासत के राजा शाह जी का जमाना।

 

किस्सा रियासत के किसी गाँव का सुना गया है। मने हमारे ही पूर्वजों का। मने हमारा ही समझिए।

गाँव से प्रत्येक माह दरबार को टैक्स जाता था एक रुपया।  टका और आना वाले युग में एक रुपया बहुत बड़ी रकम थी। कई-कई रोज़ ध्याड़ी करने, ढेंके तोड़ने के बाद एक-दो आना मजूरी मिलती थी।

 

इस टैक्स कोमामलु (माबला)’ कहा जाता था।  माबला राजशाह जी द्वारा प्रजा पर लगाए जाने वाले डेढ़ दर्जन प्रकार के करों में एक था। यह भूमिकर था जो भूमि के स्वामी ‘भूपति’ यानी राजा शाह जी को नकद दिया जाता था।

भूमिकर का ही एक दूसरा प्रकार ‘बरु(बरा)’ अनाज के रूप मे भूपति के कारिंदों द्वारा किसानों से वसूला जाता था। मोटे अनाज को तब आज जैसा ‘सुपर फूड’ वाला सम्मान नसीब न था। गेहूं और धान फसलों में वही रसूख रखते थे जो आम प्रजा के बीच शाह राजा जी के माफ़ीदारों का हुआ करता था। इसलिए बरा के रूप में गेहूं चावल यदि एक टोफरी जाता तो इन अनाजों की जगह पर कोदा-झँगोरा देने पर मात्रा दोगुनी हो जाती- दो टोफरी।

 

राजा शाह जी की महानता की अनेक कथाओं में एक यह भी है कि यदि कोई सम्पन्न पुरुष बेऔलाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता तो उसकी जोरू-जमीन की जिम्मेदारी राजा शाह जी अपने कंधों पर ले लेते और वह जोरू-जमीन राजा शाह जी की हो जाती। इसे ‘औताली’ कर कहा जाता था। गाँव-घरों में आज भी जब किसी के पशु आवारा चरते दिखाई दे जाते हैं तो यही कहकर आवाज लगाई जाती है- हे लो ! कैकी औताली होईं या?

इसी से मिलते-जुलते ‘गयाली’ और ‘मुयाली’ भी थे। अर्थात सबका मालिक एक था- राजा  शाह जी। कुछ उसी तरह जैसे झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद आततायी अंग्रेजों ने झाँसी पर अपने आधिपत्य का ऐलान कर दिया था। हालांकि राजा शाह जी कोई आततायी नहीं बल्कि हमारे प्रभु थे।

 

बहरहाल, गाँव से पाँच लोग  माबला  लेकर  टिहरी  दरबार को चले बाई फुट। गाड़ी-मोटर  तब थे नहीं। पालकी  में  इधर  अंग्रेज  चलते थे, उधर राजा शाह। पालकी ढोने वाले हम- ‘प्रभु सेवा’ में सदैव उपस्थित।

न केवल प्रभु सेवा बल्कि प्रभु के दरबारी, अधिकारी, कर्मचारी, दलाल, मेहमान, मेहमानों की मेमों, उनके बच्चों, कुत्तों, मुर्गों की सेवा भी हम पूरी वफादारी से करते थे। उन्हें पालकियों में बैठाकर मैदान, पहाड़, नदी, घाट, एक राज्य से दूसरे राज्य में अपने कंधों पर ढोया करते थे। हमारी इन वफ़ादारियों को रसूखदार लोग ‘छोटी बरदाईश’-’बड़ी बरदाईश’ कहा करते थे। जहाँ  तक मेरी अक्ल के खच्चर दौड़ पा रहे हैं, ये ‘बरदाईश’ शब्द ‘बर्दाश्त’ की पालकी से निकला होगा। यूँ तो प्रभु सेवा हम टीर्यालों का जन्मसिद्ध कर्तव्य था और इसमें बर्दाश्त जैसा शब्द नहीं जोड़ा जाना चाहिए। खैर...!

 

माबला पहुंचाने वाले के लिए दरबार की तरफ़ से रात टिहरी रुकने की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के

अन्तर्गत एक ओबरे में खटोली(चारपाई) उपलब्ध होती।

हम टाट-बोरों के गुदड़ों में सोने  वालों के लिए वह खटोली किसी  कमल विभूषण से कम थी कौन जाने एक रात उस  खटोली में सोने का अरमान दिल में पाले ही हम माबला लेकर जाने को राजी होते हों।

 

किंतु, समस्या तब खड़ी हुई जब देखा खटोली एक और सोने वाले पाँच। गहन विमर्श हुआ। सीनियरता-जूनियरता पर भी विचार किया गया। इतिहास का भी सिंहावलोकन किया गया कि पाँचों में से किसी को क्या पहले यह स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ है!

आधी रात बीत गई लेकिन फैसला हो सका। सुबह सिर नवाए हुए दरबार में माबला भेंट करने भी जाना था और उसके बाद वापस गाँव भी।

 

अंत में तय हुआ कि सोएँगे सब जमीन पर ही, पैर खटोली के ऊपर रखेंगे। इस निर्णय में सबका हित था। आख़िर दूर जौनपुर से गाड-धार पार करके आए थे। किसी एक के साथ भी अन्याय बोलांदा बदरी की अवहेलना होती।

 

अब सब के सिर, धड़, हाथ, और रीढ़ खटाई के नीचे थे; पैर ऊपर खटाई में। आराम की नींद आई। इतनी गहरी कि अब तक भी उसका असर नहीं जाता।

 

तो साहिबान!  उपरोक्त कथा का सारतत्व यह है कि हम उस देस के वासी बाद में हैं जिस में गङ्गा बहती है। उससे भी पीढ़ियों पहले से हम उस टिहरी रियासत की फ़रमाँ-बरदार, होशियार प्रजा हैं जिस में भागीरथी-भिलंगना का संगम है। वही संगम जिसकी तलहटी में श्रीदेव सुमन की कंबल में लिपटी सड़ी-गली हुई देह के अवशेष शायद आज भी क्रांति की अग्नि की प्रतीक्षा करते होंगे।