Tuesday, March 18, 2008

पुस्तक समीक्षा

परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो
विजय गौड़ सी 24/9 आयुध निर्माणी एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008, नेपथ्य: 09411580467
समकालीन यथार्थ के वृत्त पर, जहां बदलते सामाजिक आर्थिक मूल्यों ने संवेदनहीनता को जन्म दिया है, प्रेम और आदर्श की मिली-जुली अभिव्यक्ति से संगुम्फित, 'कोई नाम न दो" परितोष चक्रवर्ती के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह की कहानियॉं अपने विषय की विशिष्टता से जो जाप काटती हैं उस कटान बिन्दु से एक सीधी स्पर्श रेखा खींचने का लेखकीय प्रयास इन कहानियों में दिखायी देता है। ऐसी स्पर्श रेखा जो त्रिज्या पर समकोण बनाती है और संवेदनहीनता की उस धारा को मोड़ने के लिए प्रयासरत जान पड़ती हैं। कहानी दर कहानी बात करें तो पाते हैं कि 'सोनपत्ती" उस लोक परम्परा के वृत्त पर पल्लवित होती प्रेम कथा है जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुॅचे हुए स्त्री-पुरुष को अकेलेपन के बीच सहारा देता है। कथानक में घ्ाटित होती घ्ाटनाऐं सम्बंधों को उस तरह की मूर्तता नहीं देती जैसा अक्सर युवा प्रेमियों की कथाओं में आकार लेता है। प्रेम की छट-पटाहट वाली मानसिक उद्विगनता नहीं, बस एक हल्का-हल्का सा अहसास जिसकी स्मृतियां सोनपत्ती पर टिकी रहती हैं। ऐसी स्मृतियां जिन्हें कैसी भी परिस्थितियां मिटा नहीं सकती। बिछोह की उदासी इंतजार की लड़ी बनकर टंगी रहती है। कहानी की नायिका सरोज का अकेलापन कप्तान सहाब के अकेलेपन का समानार्थी नहीं है। वहां तो परिवार के अन्य लोगों के बीच पूरे मान के बावजूद अन्य लोगों और उनके बीच उम्र का एक फासला है जो उन्हें अकेला किये दे रहा है। अपने छोटे भाई के परिवार के बीच अटी पड़ी वे खुद ही अकेलेपन की गिरफ्त में जकड़ी चली जाती हैं। छोटे भाई के बच्चों के साथ पार्क में होते हुए भी एक हम उम्र, हम मनस कप्तान सहाब की उपस्थिति इसी लिए सुकूनदेय लगने लगती है। कप्तान सहाब की ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थिति में बदल जाना सरोज को बेचैन तो करता है पर ऐसी स्थिति में युवापन की छटपटाहट वाली बेचैनी के बजाय वहां गम्भीरता का एक गहरा आवरण उन्हें ढकने लगता है। वे चाहती हैं कि उनका भाई छोटू कप्तान सहाब के घ्ार जाकर उनकी खोज-खबर ले आये। छोटू के मना करने पर वे स्पष्टता के साथ पेश आती हैं- ''छोटू, मैंने तुझे पता करने को कहा है, कोई दित है तो बता।""''वृत्त से बाहर"" एवं 'घ्ार बुनते हुए" ऐसी कहानियां हैं जिनमें घ्ाटनाओं को काफी कुशलता के साथ संयोजित किया गया है। वृत्त से बाहर के पात्र रजत पर जहां आदर्शवाद हावी है वहीं घ्ार बुनते हुए का सामन्ता बेहद दयनीय नजर आता है। सामन्ता की दयनीयता को लेखक के राजनीतिक आग्रहों के दायरे में समझा जा सकता है। इस कहानी में सामन्ता को एक ऐसी राजनीति से जुड़ा दिखाया गया है जहां सिर्फ और सिर्फ हत्या और आतंक का माहौल ही रचा जा रहा है। अन्तत: सामन्ता का उससे मोहभंग होता है। मोहभंग की इस स्थिति में जाते हुए सामन्ता के भीतर भी कोई द्वंद्व है, ऐसा कहानी से दिखायी नहीं पड़ता। बस वह तो वहां से निकल भागता है रेड लाईट एरिया की ओर जहां ग्राहकों को पानी पिलाने का काम करना है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, गुरुजी का आदर्श वाक्य, ''दुनिया में अपने कर्म से यदि तुम किसी को दुख-यातना या नुकसान नहीं पहुॅचा रहे हो तो वह काम खराब नहीं होता"" सामन्ता के जीवन दर्शन का सूत्र वाक्य है। इस कहानी के मार्फत यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या सिर्फ हत्या का रोमांचक खेल किसी ऐसे आंदोलन का रुप ले सकता है जिसमें आवाम का एक हिस्सा भागीदारी करता हो ? यदि नहीं, तो फिर सामन्ता के मोहभंग के वास्तविक कारण क्या हैं ? यहां लेखकीय आग्रह ही सामन्ता के चरित्र को निर्धारित करते जान पड़ते ह्रैं। कहा जा सकता है कि बिना किसी तार्किक आधार के किसी भी राजनैतिक दिशा को अप्रसांगिक ठहराना कोई गम्भीर कर्म नहीं। नक्सलवादी राजनीति का जिक्र कहानी में सनसनी बिखेरने के लिए किया गया ही जान पड़ता है। ऐसी ही कोशिश कुछ अन्य कहानियों में भी दिखायी पड़ती है। 'सड़क नम्बर तीस" के मार्फत इस बात को ज्यादा स्पष्ट तरह से कहा जा सकता है। इस कहानी में भी ऐसी ही राजनीति से जुड़ा एक कार्यकर्ता है जो अपनी कुठाओं से उबरने के लिए और हताशा के क्षणों में हौंसला प्राप्त करने के लिए रेड लाईट एरिया में पहुॅचता है, ''।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।पिछले कुछ सालों से मेरी पार्टी समाज के पूरे ढॉंचे में बदलाव की लड़ाई लड़ रही है। मेरे जैसे कई युवक घ्ार-बार छोड़कर इस लड़ाई में कूद पड़े हैं। हम गांवों के किसानों और शहर के श्रमिकों के बीच अपना काम करते हैं। पर सरकार को यह पसन्द नहीं। मैं अपने बाप का बड़ा बेटा हूॅं।।।।।।।। आज रहा नहीं गया तो इधर पॉंव उठ गए।"" घ्ार के प्रति उत्कट मोह में फंसे एक क्रांतिकारी को रेड लाईट एरिया में जाकर शरण लेना और फिर वहॉं का ग्राहक बन जाना, क्या यही है यर्थाथ ? रेड लाईट एरिया और दुनिया को बदलने की राजनीति का एक ऐसा कोलाज इन कहानियों से उभरता है जिसमें समकालीन यर्थाथ को समझना बेहद मुश्किल है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि ऐसी कहानियों में न तो राजनीति की वास्तविक तसवीर ही उभर पायी है और न ही प्रेम की व्याख्या हो सकी है। 'कमजोर" और 'कोई नाम न दो" इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां है। कमजोर एक ऐसी कहानी है जो इस बात को स्थापित करती है कि प्रेम विज्ञापन की वस्तु नहीं, संबंधों की निजता का नाम है। दया, करुणा, कुंठा, निराशा और हताशा की जीवन स्थितियों के बीच इन कहानियों के पात्र जिस प्रेम की आकांक्षा में तड़पते दिखायी देते हैं उसे समकालीन विमर्श के दायरे में (जहां सहानुभूतियों से भरा यथार्थ छलांग मार चुका है) पढ़े तो कहा जा सकता है कि ये कहानियां एक सीमा के बाद उसी पुरुषोचित मानसिकता का प्ार्याय बनने लगती हैं जो एकनिष्ठता की मांग सिर्फ स्त्रियों पर लादे हुए है। जहां दावा होता है वहां प्रेम नहीं होता। दावा करते हुए दया, करुणा और सहानुभूति तो बिखेरी जा सकती है पर प्रेम नहीं किया जा सकता। परितोष चक्रवर्ती की कहानियों की यह पुस्तक प्रेम का दावा करती पुस्तक है- ''प्यार की कहानियां है"" और उन तमाम लोगों को समर्पित है जिन्होंने हमेशा प्यार को मान दिया है। प्रेम में पगलाया कोई पागल-प्रेमी क्या यह कह सकता है- वह प्रेम करता है ? और क्या प्रेम करते हुए भी वह उतना ही सहज, सामान्य और दैनिक व्यवहार में अपनी सम्पूर्ण मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों को सुरक्षित रख सकता है ? शायद ऐसा कर पाना असंभव है। वैसे प्रेम के लिए कोई तय व्यवहार या नियम हो, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। पर इन कहानियों के ये पात्र जिस मानसिक संत्रास से छटपटाते हुए प्रेम की ओर कदम बढ़ाते हुए दिखायी देते हैं वहां हत्या और आतंक की स्थितियों को दर्शाया गया है। ये सभी पात्र नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर एवं दुनिया के दुख-दर्द से द्रवित होकर उसको मिटाने के लिए जिस आंदोलन का हिस्सा होना चाहते हैं वहां हत्या और आतंक का सृजन ही (एक मात्र पक्ष) उन्हें दिखायी देता है और इसी कारण एक प्रकार की विक्षिप्तता के शिकार वे किसी की गोद में सिर रख कर प्रेम के लिए विचलित जान पड़ते है। एक राजनितिक आंदोलन की इतनी उथले तरह की व्याख्या करती ये कहानियां प्रेम की संवेदना को भी विक्षेपित कर देती हैं। क्रान्तिकारी राजनीति का ऐसा ही उत्तर-आधुनिक पाठ प्रस्तुत करने की कोशिश वी।एस।नायपॉल के उपन्यास डंहपब ैममके ;माटी मेरे देश की द्ध में ज्यादा तीव्रता के साथ दिखायी देती है। 'माटी मेरे देश की" का नायक विली तो बकायदा आधार क्षेत्रों का कार्यकर्ता बन जाता है और तथ्यों की प्रमाणिकता से बचने के लिए नायपॉल ने शिल्प के स्तर कुछ-कुछ जादूई किस्म के एक ऐसे यथार्थ का सृजन किया है जिसमें हत्या और आतंक की स्थितियां ही छायी रहती है। एक ऐसा आंदोलन जो लगातार दमन को झेलते हुए भी कैसे अपना प्रसार करता गया, उस पर ठोस विश्लेषण करने की बजाय मुक्त क्षेत्रों के बीच उस राजनीति को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के साथ राय मश्विरा करता विली हर क्षण उपहास उड़ाता हुआ-सा ही नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि परितोष चक्रवर्ती के पात्रों को हम वी।एस।नायपॉल के पात्रों की तरह एक व्यापक आंदोलन का उपहास उड़ाते हुए नहीं पाते। वहां सिर्फ कहानीकार की वह दृष्टि ही हावी दिखायी देती है जो शायद ऐसे किसी भी आंदोलन से नाइतिफाकी रखती होगी। ऐसी किसी भी असहमति को तभी जायज ठहराया जा सकता है जब वहां तार्किकता भी हो। सिर्फ अपने मनोगत वाद के चलते किसी भी आंदोलन को अतार्किक तरह से खारिज करने की यह प्रवृत्ति सामान्य जनतांत्रिकता को भी संदेह के घ्ोरे में खड़ा ही करेगी । पुस्तक: कोई नाम न दोलेखक: परितोष चक्रवर्तीप्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्सए नई दिल्ल्ी

कहानी पर टिपण्णी

पहल सम्मान-2006, जबलपुर में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी की कहानी ज्वार पर टिप्प्णी को आधे-अधूरे तरह से ही रख पाया था। आलेख पढ़ते हुए आये गतिरोध के कारण पढ़ना बीच में ही रोक देना पड़ा था। जो पढ़ना चाहता था उसे यहॉं दे देने का मन हुआ तो प्रस्तुत कर दिया।
ज्वार के बहाने
किसी भी रचना पर बात करने से पहले उस रचना के परिप्रेक्ष्य को जान समझ कर ही उसके मंत्ाव्य विचार करते हुए उसकी व्याख्या की जा सकती है। एक परिप्रेक्षय रचना का अपना होता है जिसमें वो रची गयी होती है दूसरा जिस दौर में वो प्ाढ़ी जा रही होती है। हो सकता है दोनों ही परिप्रेक्ष्य एक समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। यही वजह है कि ये परिस्थितियां विशेष ही रचना के पाठ को निर्धारित करती हैं। क्या ही संभव हो कि कोई रचना अपने दौर और अपने समाज का बयान करते हुए भी हर दौर में अपने निश्चित मंत्ाव्य को ही प्रक्षेपित करती रहे। स्पष्ट है कि कथाकार संजीव की कहानी 'ज्वार" का परिप्रेक्ष्य साम्प्रदायिक हिंसा है और मंसूबा उसकी मुखालफ्त है, सर्वधर्म सम्भाव का विचार जिसका उत्स है। इसमेंं कोई दो राय नहीं कि संजीव जनवाद के प्ाक्षधर, मानवीय मूल्यों के संरक्षक, धर्म निरपेक्ष और ईमानदार व्यक्ति के रुप्ा में अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से बिखरे पड़े हैं। चाहे सावधान नीचे आग है, सूत्रधार, जंगल जहां से शुरु होता है या कहानियों के रुप्ा में अभी याद आ रही- सागर और सीमांत, आरोहण, तिरबेनी का तड़बना, उनका ऐसा रचना संसार है जिसमें एक प्रतिबद्ध और सचेत रचनकार के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं के आधार पर संजीव की मंशाओं और जिस नीयत को मैं जान पाया हूं उसमें वे ऐसे ही नजर आये है।ज्वार कहानी के परिप्रेक्ष्य में जो माहौल है उसमें बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात तक का दौर स्थानीय स्तर पर और अंतराष्टीय स्तर पर तालीबानी नृशंसता के साथ साथ उस नृशंसता के खिलाफ एक सैद्धान्तिकी को रचते हुए एक तरफा हिंसा का दौर है और हाल ही में रचा गया कैरिकैचर कांड और उसके विरोध में उपजी हिंसा का माहौल। देखना यह है कि क्या ज्वार ऐसी स्थितियों से टकराने वाली रचना बन पा रही है। इसके निष्कर्षों को यदि लागू कर दिया जाये या स्थितियां ऐसी बन जाये कि वे लागू हो जाये तो स्थितियां बदल सकती हैं। साथ ही इन निष्कर्षों को लागू होने की शर्त क्या है? उसके लिए हर सचेत व्यक्ति को क्या करना होगा? यह मूल प्रश्न ही इस कहानी को समझने और उसके विश्लेषण करने में मद्दगार हो सकते है। स्ंाजीव की कहानी ज्वार के मंतव्य, जो कि मानवीय मूल्यों की स्भापना के लिए हैं, से सहमत होते हुए भी इसकी परास की एक सीमा दिखायी देती है। कहा जाये कि हिन्दी बौद्धिक जगत और साहित्य के भीतर साम्प्रदायिकता के सवाल पर जारी बहस और उन बहसों से बनती दृष्टि से उपजी ज्यादातर रचनाये, जिनमें साम्प्रदायिकता जैसे समाज विरोधि, मनुष्यता विरोधि विचार से निपटने के लिए सर्वधर्म सम्भाव का विचार है और संवेदनात्मक स्तर पर उस विचार की वकालत है। अपनी इस सीमा का अतिक्रमण ज्वार भी नहीं कर पाती है। है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी इन रचनाओं की विशेषता है कि वे संवेदना के धरातल पर विचलित तो करती हैं पर साम्प्रदायिकता के मूल स्रोत- धर्म को बचाये रखने की भी, अन्जाने में ही चाहे हो, वकालत करने लगती है और साम्प्रदायिकता से निपटने में नाकाम रही धर्मनिरपेक्षता की वह परिभाषा, भारतीय गणतंत्र के साथ जिसने जन्म लिया था उसी की रोशनी को बिखेरने लगती है। जबकि लगातार हिंसक होते गये वातावरण ने उसकी प्रसांगिकता पर खुद ही प्रश्न चिहन लगा दिया है। यही कारण है कि ऐसी रचनायें जहां किसी समाज विशेष में साम्प्रदायिकता के विरोध में होती हैं वहीं किसी दूसरे पहले के विपरीत समाज में साम्प्रदायिक शक्तियों का हथियार बन जाती हैं। स्ाम्प्रदायिकता, जो अपनी प्रवृत्ति में एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की उपज है, का मूल स्रोत धर्म है। इसलिए साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए धर्म की आलोचना से बचते हुए रची गयी कोई भी रचना यथार्थ का काल्पनिक आख्यान बन कर ही रहने वाली है। ऐसा मेरी समझदारी कहती है। सिर्फ हिसा की आलोचना साम्प्रदायिकता की बेहद स्थूल किस्म की आलोचना है। धर्म के भीतर निहित आध्यत्मिक गौरव की अभिव्यक्ति, परलौकिक सत्य की अवधारणा- जीवन के वास्तविक यथार्थ से दूर जाना है। धर्म के पीछे अन्धे होकर दौड़ते समुदायों का एकांगी और संकीर्णता की अन्धि गलियों में भटकने का यह एक ऐसा कल्पना लोक है जिसका आधार तर्क का निषेध और आस्था और अन्धविश्वास की जमीन पर खड़ा है। स्वतंत्र विचार की बजाय समर्पण की मांग जिसकी पहली शर्त है। मौजूदा वैज्ञानिक दौर में प्ाढ़े लिखे बौद्धिक समाज का आस्था के इस अतार्किक तंत्र को कुतर्क के सहारे उसके कर्मकाण्डिय क्रिया कलापों पर वैज्ञानिकता का जामा पहनाने की जिद निश्चित ही अवैज्ञानिक है जिसके निहितार्थ खतरनाक हिंसक माहैल से आबद्ध है। विवेक के अनुशासन से रहित भावनाओं के इस ज्वार को उन्माद की हद तक पहुॅचाने की यह खतरनाक पहल है। कहा जाता है कि धर्म तो जीवन जीने की एक प्ाद्धति है। अब सवाल है कि यह प्ाद्धति आखिर कौन से कालखण्ड की उत्पति है। स्पष्ट है कि प्रकृति की विराटता में घ्ाटती घ्ाटनाओं से अन्जान और चौंकता हुआ मनुष्य जब उस दौर के सीमित ज्ञान की सीमा की वजह से कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता रहा तो शक्तिरुपा अज्ञात ईश्वरों की कल्पनायें उसने कटनी शुरु की और उन्हीं अज्ञात अन्जान ईश्वरों की स्थापनाओं का कार्यभार धार्मिक कर्मकाण्ड के रुप्ा में स्थापित हुआ है। इसलिए धर्म तर्क से परे की चीज हो गयी। सिर्फ भावनाओं और आस्थाओं के इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने समय समय पर अपनी श्रेष्ठता की स्थापना के लिए खून खराबे भी किये जिसे साम्प्रदायिक उन्माद कहा जा सकता है। इसलिए साम्प्रदायिकता की मुखालफत बिना धर्म पर चोट किये, उससे समाज को मुक्त किये बगैर संभव नहीं। इतिहास गवाह है कि समाज को बदलने के लिए प्राचीन काल से आज तक जितनी भी विचार प्रक्रियायें आगे बढ़ी और जिसने भी धर्म पर चोट किये बगैर सामाजिक संरचना को बदलने के लिए कुछ सीमित परिवर्तनों का या भावनात्मक संवेदनों के तहत मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया, उसकी परिणति भी अन्तत: कर्मकाण्डिय ही होती चली गयी। बैद्ध धर्म जो ईश्वर की कल्पना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के विचार से परहेज करते हुए सामने आया, अन्तत: उसी का शिकार होता चला गया। भक्ति आंदोलन का पूरा दौर जिसने तमाम सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया लेकिन उस दौर के सीमित ज्ञान की वजह से धर्म पर चोट न कर पाने की वजह से खुद उसी की गिरफत में चला गया। कबीर जैसा क्रांतिकारी कवि अन्तत: रहस्यवादी होता चला गया। अन्जाने अज्ञात भय, आशंका में दबे ढके कारणों पर से विज्ञान ने आज काफी हद तक पर्दा उठा दिया है और जिन घ्ाटनाओं के कारणेंा की वास्तविक पड़ताल आज तक भी भले ही नहीं की गयी हो उसके विश्लेषण के दर्शन जो कार्य-कारण संबंधों से संभव है कि दार्शनिकता को जन्म दिया है जिसकी रोशनी में ऐसे ही दौरों में पैदा होते गये धर्मो की प्रासंगिकता पर संदेह किया जा सकता है। इसलिए आज के दौर में साम्प्रदायिकता की मुखालफ्त बिना धर्म पर चोट किये संभव नहीं जान पड़ती। अपने बेहद मानवीय रुपों वाला धर्म भी कट्टरता की उन्हीं हदों को छूने लगता है जहां धर्म विशेष की सर्वोच्चता का तर्क आस्था का सवाल बन कर खड़ा होता है। ऐसी आस्था जो तर्क से परे है। वो आस्था जो अन्जानी घ्ाटनाओं को न सिर्फ दैवीय प्रकोप मानने को विवश करती है बल्कि उसके कारणों के विश्लेषण पर भी अंकुश लगाने पर आमादा है। धर्म यदि एक जीवन प्ाद्धति है तो उससे उपजी संस्कृति निश्चित ही अन्य धर्म से भिन्न ही होगी। यानी उसके मूल में ही खुद को विशिष्ट और एक मात्र उचित दिशा मानने की गैर जनवादी अवधारणा जिद की हद तक निहित है। इसकी जद में दुनिया में अभी तक उदय हो चुके सारे ही धर्म आते हैं। तय है कि यह धार्मिक एकता संख्याबल में बढ़ जाने पर संख्या बल में अल्प पड़ गये धार्मिकों को अपनी ही संस्कृति अपने ही धर्म के आचरण को मनवाने के लिए हिंसकता पर उतारु हो जाती है। फिर सुधारवादी आंदोलन के जरिये या अहिंसा का जाप करते हुए क्या ऐसी हिंसकता का मुकाबला संभव है? मानवीय गरिमा को बचाये रखने के लिए सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा की मुखालफत करते हुए धर्म पर चुप्पी साधकर रची गयी कोई भी रचना साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़े जाने वाले संघ्ार्ष में कोई खास ऊर्जा प्रदान करने वाली नहीं है और न ही मानवीयता की गरिमा को बचाये रखने में मद्दगार हो सकती है। संजीव की कहानी ज्वार भी एक ऐसी ही कहानी है।भारतीय परिपे्रक्ष्य में यदि बात करें तो सामाजिक संरचना में सामंती अवशेषों के बीच पनपा मध्यवर्ग अपने सामंतीपन के साथ है जो तर्क की गुजाईश तो कतई नहीं छोड़ता। आज भी बड़े बूड़ों के सामने तमाम आधुनिक कहलाने वाले परिवारों के भीतर भी तर्क की कोई जगह नहीं है। जबकि आधुनिकता की तस्वीर बिखेरता यह मध्यवर्ग जिस तरह से इतराता फिरता है उससे उसकी पोल खुद ही खुलने लगती है। उपभोक्तवादी संस्कृति के फलस्वरुप्ा आरोपित आधुनिकता के ढोंग के बावजूद धर्म और आस्था की खाद ने उसके सामंतीपन को मुरझाने नहीं दिया है और समय बेसमय उन्माद के माहौल को पैदा करने में उसकी अग्रणी भूमिका है। एक ओर बड़ी पूंजी की दलाली और दूसरी ओर उसकी सामंती अकड़ ने माहौल्ा को बेहद खौफनाक बना दिया है और राजकीय हिंसा का ऐसा प्रपंच रचा है जो बेशर्मी की हद तक जन आंदोलन को कुचलने में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है। बेहद चालाकी और कुशलता से उसने योग और सिद्धियों की दुकान खड़ी करनी शुरु कर दी है। साथ ही जनता के खिलाफ चालू अमानवीय आर्थिक तंत्र को मजबूत आधार प्रदान करते हुए उसके विरोध के नाम पर पुरातनपंथी अवधारणाओं को पुर्नस्थापित करने का सिलसिला भी बढ़ाया हुआ है। जनविरोधि नीतियों के चलते बढ़ती तकलीफों के वास्तविक कारणों को छुपाये हुए ऐसे कल्पना लोक को खड़ा किया जा रहा है जिसमें दुविधा और हताशा की स्थितियां जन्म लेने लगी है। फलत: साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों गुरिल्ला कार्यवाहियों के लिए तमाम दलित आदिवासियों की फौज खड़ी दिखायी दे रही है, हिंसा के माहौल में लूटपाट का तोहफा देकर उसकी बदहाली के कारणों पर परदा डालने का दोे मुंहा खेल खेलना भी जिससे आसान हो गया है। भावनात्मक मुद्दों को उछाले जाने का और धृणा के सृजन का कृचक्र चालू है। ऐसे में फिर वो उदारतावादी विचार जो सर्वधर्म सम्भाव की बात करता है, अन्तत: उसी आधुनिक से दिखते साम्प्रदायिक वर्ग के हित साधने में ही तो अपनी उर्जा गंवायेगा जिसकी उसको बेहद जरुरत है। सबके बीच भाईचारे का तर्क बाजार के सुचारु रुप्ा से चलते रहने का भी तो तर्क है। यानी साम्प्रदायिक धार्मिक और गैर साम्प्रदायिक धार्मिक के बीच की यह नूरा कुश्ती अपने आप में एक झूठे जनतंत्र का सृजन कर रही है। हिंसा के माहौल में बिना वास्तविक कारणों पर चोट किये आंसू बहाती संवेदना एक ढकोसला ही है जो आये दिन बढ़ती आक्रमकता को रोकने में सफल्ा नहीं हो पायेगी। ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी जाने वाली रचना सिर्फ चुभन का अहसास भर कराये तो फासीवादी की ओर संक्रमित होते दौर के खिलाफ आखिर लामबंदी कैसे संभव होगी। इस कहानी की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसके भीतर नागरिक और राज्य की पहचान को धर्म से इतर देखने की कोशिश हुई है। लेकिन ऐसा भी कहा जा सकता है कि अवचेतन में स्थित किन्हीं दुविधाओं की वजह से यह विचार बहुत प्रभावी नहीं बन पाया उसकी एक सूक्ष्म सी लकीर ही दिखायी देती है जो बांग्लादेश के गठन के बाद भी कहानी के पात्रों के द्वारा उसे पाकिस्तान ही मानते रहने वाली मानसिक पर्तो को खोलने का प्रयास करती है। लेकिन अवचेतन में उपस्थित धर्म को बचाये रखने वाली मानसिकता ही यहां भी आड़े आ जाती है। फिर अपने प्रिय पात्र जो खुद लेखकीय मानसिकता से संचालित होते दिखायी देते है, साम्प्रदायिक कैसे हो सकते है। यानी कहानी की मां और अणिमा के अवचेतन में धंसी हिन्दू मानसिकता क्या इसलिए साम्प्रदायिक नहीं है क्योकि वो हिंसक नहीं है। क्या हिंसा के बीज बोने वालों के लिए अणिमा और मां का चरित्र एक मॉडल नहीं है? हिसा से बचे रहने के लिए अणिमा की अपने पूर्व धर्म का परित्याग कर देने की असहायता और उन स्थियों से साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से आंखें चुराने की असफल चेष्टायें क्या साम्प्रायिक शक्तियों को अपने हिंसक विचार को फैलाने में मद्दगार नहीं हैं ? आखिर बांगल्ाादेश की लेखिका तसलिमा की रचनाओं को बैन करने वाली और उन्हीं रचनाओं के सहारे अपने यहां हिंसा का माहौल रचने वाली दृष्टि क्या एक ही नहीं है। मेरी निगाह में ज्वार ऐसे सवालों से टकराना तो छोड़ो उसका विरोध भी करने का साहस नहीं करती और न ही प्रेरित करती है।

Sunday, March 16, 2008

कागज का नक्शाभर नहीं है देहरादून

कागज पर खींच दिये गये किसी नक्शे की शक्ल में देहरादून को दिखा पाना मेरे लिए असंभव है। रेखांकन करने का वो हुनर, जो हुबहू नहीं तो आभास जैसा कुछ गढ़ पाये, मेरे पास नहीं। एक ड्राफ्रट्समैन वाली समझ तो कतई भी नहीं। मौसम के बारे में कहूॅं तो हर बार के मौसम मुझे गये सालों के मौसम से ज्यादा तीखे ही दिखायी दिये और वही उक्ति दोहराने को मजबूर हॅंू - इस बार गर्मी बड़ी तीखी है बारिश भी हुई इस बार ज्यादा औ ठंड भी पड़ी पहले से अधिक ।इतिहास की पाठ्य पुस्तकें, जिन्हें पढ़कर प्राप्त हुआ सरकारी मोहर लगा कागज़, जिसे हर वक्त अपनी जान की तरह सुरक्षित रखने को विवश हॅंू, वह समझ दे ही नहीं पाया कि किसी भी जन-जीवन के विकास को क्रमवार विश्लेषित कर पांऊँ। फिर जिन पाठ्य पुस्तकों को मैंने पढ़ा, उनमें देहरादून तो क्या देश भर के कितने ही अनगिनत इलाके हैं, जिनका उनमें कोई जिक्र ही नहीं रहा।ऐसे में आये दिन तेज गति से बदल रहे देहरादून के भूगोल के साथ-साथ माहौल की बदल रही आबो हवा को समझ सकूं और आपके सामने रख पाऊँ, इसमें मैं अपने को अक्षम पाता हॅू। स्पष्ट है कि यह समझ सिर्फ किताबों को पढ़ लेने भर से हांसिल नहीं की जा सकती। उसे तो व्यवहार से जाना जा सकता है। व्यवहार का मामला तो यह है कि एक हद तक उसी मध्यवर्गीय शालीन मानसिकता में, जिसमें असहमति को खुलकर न रख पाने का दब्बूपन और उस दब्बूपन के भावों को छुपाये रखने की कला का कुशलता के साथ प्रयोग किया जाता है, अपने को जकड़ा हुआ पाता हॅूं - जो देहरादून के मिजाज की खासियत के तौर पर चारों ओर बिखरी हुई है। देहरादून के मिजाज में आयी ये व्यवाहारिक गड़बड़ रिटायर्ड नौकरशाहों और थैलीशाहों के लिए ऐशगाह बन जाने के कारण ही पनपी है। सरकारी मुलाजिमों के एक बहुत बड़े वर्ग ने, जिनका मासिक वेतन इस शहर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, उसके चलते ही ऐसी मानसिकता न सिर्फ पनपी है बल्कि दनि प्रति दिन ज्यादा मजबूत होती जा रही है। पुश्त दर पुश्त बॅंटती गयी खेती की सीमित ज़मीन और अविकसित खेती की कंगाल व्यवस्था में खुद को जिन्दा रख सकने वाली रेढ़ी-ठेली वाली बाजार व्यवस्था को वैकल्पिक रूप्ा में जब देखा जाने लगा था उस वक्त के देहरादून और आज के देहरादून में जो एक खास अन्तर दिखायी दे रहा है, वह यही कि आज ज़मीनों की उछाल लेती कीमतों ने उस वैकल्पिक बाजार व्यवस्था को बेदखल करना शुरु कर दिया है। राजधानी बन चुके देहरादून के सौन्दर्य के नाम पर रेढ़ी-ठेली वाली व्यवस्था को पूरी तरह से बेदखल कर देने की कोशिश 'मॉल" संस्कृति को पनपाने का एक दूसरा पहलू है। राज्य बनने के बाद एकाएक आये ज़मीनों के इस उछाल में जहॉं एक ओर अपना काफी कुछ बेचकर 'आय" के उन तलाशे गये स्रोतों को अपनाने वाले उस दौर के युवा किसान अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे हैं, वहीं आज के इस दौर में बिल्डरों-भूमाफियाओं की तेजी से बढ़ती आक्रमकता का नशा अपना जाल फैलाती दलाल संस्कृति मंें बाकी के बचे रह गये किसानों को अपनी अपनी ज़मीनों को बेचकर चमत्कृत दुनिया के सपने दिखाने लगा है। और इस सपने ने ही उस दौर के बाद बची रह गयी कुछ खेती योग्य भूमि को बीसवा, गज और फुटों की नाप जोख वाली संस्कृति में बदलकर रख दिया है। वर्तमान समय में देहरादून की अर्थ-व्यवस्था में 'उछाल" का यह मायावी खेल उत्पादकता के बेशक छोटे-छोटे, लेकिन स्थायी तंत्र को तहस-नहस कर उपभोक्तवाद की अंधि दौड़ में चकाचौंध पैदा कर रहा है। कोई भी सामान्य समझ से कह सकता है कि उत्पादकता के अभाव में फैलने वाली यह तात्कालिक चमक क्षणिक ही साबित होगी। रुपयों पैसों की वो गठरी जिसको संभालने में अभी बेशक अफरातफरी का एक माहौल दिखायी दे रहा हो पर उसका क्षरण होते ही स्थितियां एकदम साफ नजर आने लगेंगी। सरकारी महकमों के दम पर टिकी देहरादून की अर्थव्यवस्था को भविष्य तो पहले ही आये दिन बढ़ती जा रही निगमीकरण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की चपेट में है। ऐसे में पारम्परिक खेती के बासमति चावल, गन्ना और चाय के एकड़ों खेतों पर उगते जा रहे कंक्रीट के जंगलों का यह आक्रमण जल्द ही युवाओं के भीतर हताशा पैदा करने लगेगा।दागिस्तान के तीन खजानों का जिक्र करते हुए रसूल हमजातोव द्वारा सुनाया गया किस्सा याद आ रहा है -''किसी पहाड़िये ने अपने खेत को जोतने का इरादा बनाया। उसका खेत गाूंव से दूर था। वह शाम को वहीं चला गया ताकि तड़के काम में जुट पाये। यह पहाड़ी आदमी वहॉं पहुॅंचा, उसने अपना लबादा वहॉं बिछाया और सो गया। वह सुबह ही जाग गया ताकि खेत जोतना शुरु कर सके, लेकिन खेत तो कहीं था ही नहीं। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मगर खेत कहीं दिखायी ही नहीं दिया। गुनाहों की सज़ा देने के लिए अल्लाह ने छीन लिया था या ईमानदार आदमी की खिल्ली उड़ाने के लिए शैतान ने उसे कहीें छिपा दिया। कोई चारा नहीं था। पहाड़ी आदमी म नही मन दुखी होता रहा और आखिर उसने घ्ार लौटने का फैसला किया। उसने ज़मीन पर से लबादा उठाया और - हे भगवान! यह रहा लबादे के नीचे उसका खेत।
देहरादून ही नहीं पूरे पहाड़ पर उगे रहे ऐसे नीरस कंक्रीट के जंगलों की खबर, लबादे के नीचे ढके इन खेतों पर टिकी गिद्ध निगाहों और उनके कारनामें का बेहतरनीन नमुना बनकर, ग्लोबल विज्ञापन जगत में छाती जा रही है। शिक्षा के मन्दिर के रुप में स्थापित देहरादून के बारे में मैं आज भी अपनी उसी राय पर कायम हूॅं, जो मैंने एक दौर में अपनी कविता 'बस यात्रा" में रखने की कोशिश की थी -बदलते ही जा रहे हैं ईटों के भट्ठे जगह-जगह खुले स्कूलों की तरह जबकि ताजा बनी दीवारें लगातार ढह रही हैं।
राजनीति की अखाड़ेबाजी ने उममीदों की बजाय निराशा का माहौल रचा है जिसकी परिधि में जीवन कार्यव्यापार के सभी क्षेत्र जकड़े हुए दिखायी देने लगे हैं। मैं कोई इतिहासविद्ध नहीं। समय दर समय की शिनाख्त तारीखों के रूप में नहीं बल्कि दौर के रूप्ा में मेरे भीतर अंगड़ाई लेती है। वैसे भी समय की नपी तुली तथ्यात्मकता शायद ही मुझे अपनी बात रखने में मद्द पहुॅंचाये। दौर के हिसाब से कहॅंू तो साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण में 'टिप-टाप' की टंटा समिति पूरी तरह से उखड़ चुकी है। टंटाधीश, टंटाधिपति, टंटा शिरोमणि की उपाधियों से नवाज़े जाने का वक्त समाप्त हो चुका है। आत्मीयता और एकजुटता का बचा खुचा, बेहद झीना पर्दा ही 'संवेदना" की प्रासंगिकता के रूप्ा में दर्ज किया जा सकता है। नाटकों के क्षेत्र में भी एक दौर में संलग्न संस्थाऍं और रंगकर्मी लूप्तप्राय: से हो गये हैं। ज़मीनों की खरीद-फ़रोख्त और मल्टीस्टोरिज ईमारतों की अवधारणा ने भी एक हद तक इसमें अपना रंग दिखाया है। एक दौर में रंगकर्मियों का अड्डा रही वह बिल्डिंग, नेहरुयुवा केन्द्र के नाम से जिसे जाना जाता था, उजड़ चुकी है। अभ्यास के लिए स्थान की अनुपलब्धता एक तर्क के रूप्ा में स्थापित होती चली गयी है। माहौल में फैली निराशा और हताशा ने ज्यादातर को घ्ार, परिवार और बच्चों में उलझा दिया है। जिनमें थोड़ी बहुत ऊर्जा या उत्साह बाकि है, वे मेले-ठेलों के खेल में जुटे हैं या बड़े पर्दे के कल्पनालोक में गोते लगा रहे हैं। कुछ उत्साही युवा रंगकर्मियों की ज़मात है जो अनुभवहीनता के चलते या तो दोहराव की राह पर है या फिर सरकार और गैर सरकारी तंत्र के तंत्र के द्वारा तय किये जा रहे एजेन्डे के तहत अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न है।खेलों के क्षेत में अखबारी उपलब्धियों के बावजूद भी माहौल में उल्लास की वो चमक नहीं है जो सचमुच की जीत की खुशी देती है। हॉं, देहरादून का फुटबॉल कुछ-कुछ ज़िन्दा होता हुआ सा दिख रहा है। एक दौर में खॅंूटियों पर टंग चुके जूते फिर से फुटबॉल खिलाड़ियों के पॉंवों में चरमराने लगे हैं और चमड़े को पीटने के लिए कुछ बेताब भी नज़र आने लगे हैं। उत्तेजना और उल्लास की यह चमक कायम रहे। नहीं जानता कि जो कुछ भी मैंने अभी तक कहा, उससे देहरादून की कोई छवी बनी भी या नहीं। पर यह तो कहना ही पड़ रहा है कि पहाड़ी समाज के सामूहिक विकास की स्वाभाविक जीवन शैली के खिलाफ़ दलाल किस्म की गतिविधियों ने व्यक्तिवाद को चरम पर पहुॅंचाया है और असंवेदनशील समाज के सर्जन एवं विकास का बीज बोया है। देहरादून के चरित्र को जानने और समझने के लिए, अतीत के एक हिस्से पर, मैं भी देहरादून जनपद के कवि राजेश सकलानी की इस बात से इत्तिफाक रखता हॅूं कि एक दौर था जब पहाड़ का भागा हुआ कोई नवयुवक पहले से भाग आये अपने किसी साथी, नाते-रिश्तेदार के सहॉं शरण पाता था और महीनो-महीनों दर7दर की ठोकरें खाता हुआ अपने लिए अपनी कही जा सकने वाली ऐसी ही किसी शरणगाह का जुगाड़ कर लेता था, जो बाद में दूसरे किसी वैसे के लिए ही शरणगाह बन जाती। ऐसी ही सामूहिक कार्यवाहियों ने देहरादून के चरित्र को गढ़ा है। लेकिन आज किसी के पास इतनी फुर्सत या इतनी अनुकूल स्थिति नहीं बची ि कवह मद्द के नाम पर भी ऐसा कुछ कर पाये। आज का देहरादून, एक दौर में रोजगार के वास्ते पहाड़ से भाग-भाग कर आये ऐसे ही तमाम लोगों की सामूहिक गतिविधियों का प्रमाण है। पहाड़ के लोगों के लिए वे दिन उनके अपने जीवन के स्वर्णिम दिन भी कहे जा सकते हैं। उन्हीं पहाड़ी बुजुर्गो को, आज की युवा पीढ़ी, चौंधियाते माहौल में शायद याद भी नहीं करना चाहती। उस अतीत से उसका कोई लेना देना नहीं जो सहयोगात्मक तरह से दूसरे को भी आगे बढ़ाने की जगह बनाता है। वह तो गला काटू प्रतियोगिता में सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही सब कुछ बटौर लेना चाहती है।कथाकार सुभाष पंत की कहानियां देहरादून के ऐसे ही अतीत को पुन:सर्जित करती हैं। अरुण कुमार 'असफल" अपनी कहानियों में उसी छद्म की पड़ताल करते हैं जो दलाल संस्कृति का संवाहक है। नवीन नैथनी की कल्पनाओं में उछाल लेता देहरादून का एक दूसरा क्षेत्र ''सौरी"" के रूप्ा में ज़िन्दा होता है। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की रचनाऐं जिनमें टिहरी बार7बार अपने इतिहास को सुना रहा होता है, हमें देहरादून के इतिहास में झांकने को मज़बूर करता है। पूरब से पहाड़ तक, तमाम स्त्रियों के जीवन में अवसाद के क्षणों की पड़ताल और उनको बदलने की चाह अल्पना मिश्र की रचनाओं का ताना-बाना है। अवधेश, हरतीज और सुखबीर विश्वकर्मा (कवि जी) ऐसे ही देहरादून का पुन:सर्जन करते हुए हमसे विदा हो चुके हैं। हिन्दी में दलित विमर्श की गूॅंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। देहरादून की तस्वीर को रख पाऊँ, मैं पहले भी कह चुका हॅूं, असमर्थ हॅंू। मैं तो साहित्य से बाहर ही नहीं निकल पा रहा हूॅं। जबकि स्पष्ट कहूॅं कि देहरादून को आकार और पहचान देने में फुटबॉलर श्याम थापा जैसे ढेरों नामी गिरामी खिलाड़ी, दंगल के उस्ताद शर्मा जी और एक दौर के वे नामी पहलवान लियाकत अली और फकीरा, राजनैतिक कार्यकर्ता समर भण्डारी और उन जैसे ही अन्य क्षेत्रों में संलग्न प्रतिबद्ध साथी जगदीश कुकरेती, स्वाध्यायी राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, मिचमिची ऑंखों वाला वह बूढा पत्रकार - चारु चन्द्र चंदोला। जिसकी ऑंखों की रोशनी आज भी 'युगवाणी" के रुप में निखर-बिखर रही है। जगमोहन रौतेला, अरविन्द शेखर, राजू गुंसाई, अशोक मिश्रा आदि न जाने कितने लोगों के नाम लिये जा सकते हैं। ऐसे बहुत से लोग जिन तक मेरी पहुॅंच नहीं या जो बहुत चुपचाप सत्त कार्यवाहियों को अंजाम तक पहुॅंचाने में जुटे हैं वे सारे के सारे ही देहरादून कहे जा सकते हैं। उनसे ही बनती है पहचान देहरादून की।कुछ के नाम जो मुझे याद पड़ रहे हैं यहॉं लिए गये हैं पर अनेकों हैं जो छूट गये हैं। वे छूटे हुए नाम पाठक ले लेगें। पाठक हम लिखने वालों से ज्यादा दुनियादार हैं। हम तो निश्चित ही एक सीमित दुनिया के बीच में हैं। फिर जैसा मेरा मानना है भी है और यही सच भी कि किसी भी भू-भाग को आकार देने में जहॉं एक ओर सचेत कार्यवाहियों में जुटे लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, वहीं नैतिक ईमानदार और कर्तव्यबोध के तहत अपने-अपने विशेष क्षेत में जुटे लोगों की भूमिका को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे सामान्य लोगों ने फुॅटबॉल, खो-खो, शतरंज, तीरअंदाजी जैसे खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर देहरादून की जो तस्वीर गढ़ी है, उससे मॅंुह फेरा जा सकता है क्या ? देहरादून के धावकों को याद करने का मन किसका नहीं होगा। ये वे क्षेत्र हैं, कमोबेश जिनसे मेरा वास्ता रहा। जबकि जीवन के कार्यव्यापार के न जाने ऐसे कितने ही क्षेत्र हैं जिनके बारे में न तो मेरी जानकारी है और न जिन्हें जान पाने की मेरी क्षमता। ण्ेसे हीसामान्य लोग आज भी बेचैन स्थिति में हैं। आये दिन सड़कों पर उतरने वाली महिलाऐं, हर गलत पर चौकन्नी निगाह रखने वाले छात्र-नौजवान और मेहनतकशों की छोटी-छोटी कोशिशे ही इस बेचैनी को तोड़ेगीं। उम्मीदों के पौधे हमारे खेतों में ऐसे ही सामान्य लोगों के प्रयासों से लह-लहायेगें। उन सबसे सीख और समझ लेकर ही मैं देहरादून की तस्वीर शायद रख पाऊँगा। यह जो कुछ भी कहा गया देहरादून के बारे में, नितांत मेरी व्यक्तिगत राय का अक्श है, जो मेरी स्मृतियों में दर्ज घ्ाटनाओं और मेरे निजी अनुभवों के आकाश से उपजा है। बहुतों की राय इससे भिन्न हो सकती है। मैं उस भिन्नता का सम्मान करता हॅूं। वैसे भी इसे हीअन्तिम माना जाये, यह तो मैं इसलिए भी नहीं कह सकता क्योंकि मेरे ही भीतर दर्ज स्मृतियों के कोनों में अभी और भीकई बातें हैं जिन्हें पूरी तरह से नहीं रख पाया हॅूं। फिर कैसे मान लूं कि यही एक मात्र और माकूल छवी हो सकती है देहरादून की। रतन और ली पतंगबाज, कुसम्बरी का मांजा, भरतू और बारु की दोस्ती-दुश्मनियों के किस्से, देहरादून की रामलीलाऐं, गुरुबचन तांगे वाले का जीवन, रोशन हलवाई के रसगुल्ले, मैंगा राम के समोसे, देहरादून का कबाड़ी बाजार, कागज के लिफाफे बनाने वाले लोग, सड़के पर पड़े हुए गोबर को इक्टठा करके कंउे थापने वाली लड़कियां, पॉंच पैसे - दस पैसे वाली लाटरी के पत्ते को फाड़कर हर क्षण भाग्य आजमाने वाले लोग, गोली वाली सोडे की बोतल का पानी बेचता वह बूढ़ा सिक्ख - देश के विभाजन ने जिसको पूरी तरह से तोड़ देने के बाद भी जीवन के संघ्ार्ष में जुटे रहने की ताकत दी। ऐसे ढेरों लोगों की बाते मेरे भीतर स्मृतियों के रुप में अब तक जिन्दा है। अभी तो नुडत्र नाटक आंदोलन में 'दृष्टि" की भूमिका 'दादा" अशोक चक्रवर्ती और अरुण विक्रम राणा सरीखे अपने न जाने कितने अग्रजों के माध्यम से मैं और भी बहुत कुछ कहने को बेचैन हॅूं। अभी देहरादून का लघ्ाु उद्योग - बल्ब फैक्ट्री का जिक्र करना बाकी है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का खदबदाता हुआ समय फिर से वैसे ही हुज़ूम को सड़क पर उतर आने का समना दिखा रहा है। छात्राों का आंदोलन, जो बी।एड के संदर्भ में शिक्षा के निजीकरण की मुखालफ़त को लेकर शुरु हुआ। छात्र आंदोलन का वह दौर भी जब विवेकानन्द खण्डूरी निर्विवाद रुप से छात्र नेता के रुप में स्थापित था। उसके बाद के दौर में वेदिका वेद सरीखे छात्र नेताओं की भूमिकादमदार रही। जिनके रहते एस एफ आई ने अपना परचम लहराया। कामरेड सुनिल चंद्र दत्ता के दौर के देहरादून,जिसे मैंने कारखाने में जाने के बाद अपने वरिष्ठ साथी कामगारों और ट्रेड यूनियन साथियों से जाना। मुझे लगता है, देहरादून की तस्वीर जो अभी और आगे भी, लगातार मेरे भीतर दर्ज होने वाली है, उसको भी कहना होगा।

Friday, March 14, 2008

दो वरिस्थ कवियों की कविताएँ

इब्बार रब्बी और भगवत रावत, जिन्होंने हाल ही में अपने-अपने ढंग से दिल्ली को परिभाषित किया.
दिल्ली पर भागवत रावत की कविता “नया ज्ञानोदय” मैं पर्कासित हुई थी और इब्बार रब्बी की कविता “वाक”
मैं. यहाँ इब्बार रब्बी के संग्रह – “लोग बाग” से एक और कविता हैं जिसमें उसी दिल्ली की उनके भीतर
बसी छवी दिखाई देती है. भगवत रावत की कविता उनके संग्रह “निर्वाचित कविताओं” से लिया गया
है. इसे पूर्व ये कविता उनके अपने कविता संग्रह “ऐसी कैसी नींद” में सम्मलित थी.
दोनों ही कविताएँ अपने परिवेश के प्रति लगाव और जुडाव का उदाहार्ण है. यह महज संयोग नहीं बल्कि दो
सचेत और गंभीर नागरिकों का वक्तव्य भी .

भगवत रावत की कविता

यह महज संयोग है

अभी पृथी इतनी छोटी नहीं हुई की गेंद की तरह
उनकी मुट्ठी में आ सके
और समुन्द्र इतने उथले नहीं हुए कि उनके लिए
टेनिस का कोर्ट बन सके
और यह महज संयोग है
हमारी किसी बचाव की तैयारी के तहत नहीं कि अभी
बहुत सारी चीजें
कुछ लोगों की पकड़ के बाहर हैं
वैसे उनके नक्शों पर
पृथ्वी और आकाश के बीच जो भी जघह खाली है
उसके प्लाट्स काटे जा चुके हैं और उन पर
ताले डाले जा चुके हैं
और हम आदिवासियों की तरह आज भी
खुले आकाश के नीचे
अपनी दारुण अकिंचनता में
रोते हैं, गाते हैं
गाते हैं, रोते हैं
सूरज हमारा है, चन्द्रमा हमारा है
हमारा है आकाश, वायु, जल
और धरती हमारी है .