परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो
विजय गौड़ सी 24/9 आयुध निर्माणी एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008, नेपथ्य: 09411580467
समकालीन यथार्थ के वृत्त पर, जहां बदलते सामाजिक आर्थिक मूल्यों ने संवेदनहीनता को जन्म दिया है, प्रेम और आदर्श की मिली-जुली अभिव्यक्ति से संगुम्फित, 'कोई नाम न दो" परितोष चक्रवर्ती के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह की कहानियॉं अपने विषय की विशिष्टता से जो जाप काटती हैं उस कटान बिन्दु से एक सीधी स्पर्श रेखा खींचने का लेखकीय प्रयास इन कहानियों में दिखायी देता है। ऐसी स्पर्श रेखा जो त्रिज्या पर समकोण बनाती है और संवेदनहीनता की उस धारा को मोड़ने के लिए प्रयासरत जान पड़ती हैं। कहानी दर कहानी बात करें तो पाते हैं कि 'सोनपत्ती" उस लोक परम्परा के वृत्त पर पल्लवित होती प्रेम कथा है जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुॅचे हुए स्त्री-पुरुष को अकेलेपन के बीच सहारा देता है। कथानक में घ्ाटित होती घ्ाटनाऐं सम्बंधों को उस तरह की मूर्तता नहीं देती जैसा अक्सर युवा प्रेमियों की कथाओं में आकार लेता है। प्रेम की छट-पटाहट वाली मानसिक उद्विगनता नहीं, बस एक हल्का-हल्का सा अहसास जिसकी स्मृतियां सोनपत्ती पर टिकी रहती हैं। ऐसी स्मृतियां जिन्हें कैसी भी परिस्थितियां मिटा नहीं सकती। बिछोह की उदासी इंतजार की लड़ी बनकर टंगी रहती है। कहानी की नायिका सरोज का अकेलापन कप्तान सहाब के अकेलेपन का समानार्थी नहीं है। वहां तो परिवार के अन्य लोगों के बीच पूरे मान के बावजूद अन्य लोगों और उनके बीच उम्र का एक फासला है जो उन्हें अकेला किये दे रहा है। अपने छोटे भाई के परिवार के बीच अटी पड़ी वे खुद ही अकेलेपन की गिरफ्त में जकड़ी चली जाती हैं। छोटे भाई के बच्चों के साथ पार्क में होते हुए भी एक हम उम्र, हम मनस कप्तान सहाब की उपस्थिति इसी लिए सुकूनदेय लगने लगती है। कप्तान सहाब की ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थिति में बदल जाना सरोज को बेचैन तो करता है पर ऐसी स्थिति में युवापन की छटपटाहट वाली बेचैनी के बजाय वहां गम्भीरता का एक गहरा आवरण उन्हें ढकने लगता है। वे चाहती हैं कि उनका भाई छोटू कप्तान सहाब के घ्ार जाकर उनकी खोज-खबर ले आये। छोटू के मना करने पर वे स्पष्टता के साथ पेश आती हैं- ''छोटू, मैंने तुझे पता करने को कहा है, कोई दित है तो बता।""''वृत्त से बाहर"" एवं 'घ्ार बुनते हुए" ऐसी कहानियां हैं जिनमें घ्ाटनाओं को काफी कुशलता के साथ संयोजित किया गया है। वृत्त से बाहर के पात्र रजत पर जहां आदर्शवाद हावी है वहीं घ्ार बुनते हुए का सामन्ता बेहद दयनीय नजर आता है। सामन्ता की दयनीयता को लेखक के राजनीतिक आग्रहों के दायरे में समझा जा सकता है। इस कहानी में सामन्ता को एक ऐसी राजनीति से जुड़ा दिखाया गया है जहां सिर्फ और सिर्फ हत्या और आतंक का माहौल ही रचा जा रहा है। अन्तत: सामन्ता का उससे मोहभंग होता है। मोहभंग की इस स्थिति में जाते हुए सामन्ता के भीतर भी कोई द्वंद्व है, ऐसा कहानी से दिखायी नहीं पड़ता। बस वह तो वहां से निकल भागता है रेड लाईट एरिया की ओर जहां ग्राहकों को पानी पिलाने का काम करना है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, गुरुजी का आदर्श वाक्य, ''दुनिया में अपने कर्म से यदि तुम किसी को दुख-यातना या नुकसान नहीं पहुॅचा रहे हो तो वह काम खराब नहीं होता"" सामन्ता के जीवन दर्शन का सूत्र वाक्य है। इस कहानी के मार्फत यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या सिर्फ हत्या का रोमांचक खेल किसी ऐसे आंदोलन का रुप ले सकता है जिसमें आवाम का एक हिस्सा भागीदारी करता हो ? यदि नहीं, तो फिर सामन्ता के मोहभंग के वास्तविक कारण क्या हैं ? यहां लेखकीय आग्रह ही सामन्ता के चरित्र को निर्धारित करते जान पड़ते ह्रैं। कहा जा सकता है कि बिना किसी तार्किक आधार के किसी भी राजनैतिक दिशा को अप्रसांगिक ठहराना कोई गम्भीर कर्म नहीं। नक्सलवादी राजनीति का जिक्र कहानी में सनसनी बिखेरने के लिए किया गया ही जान पड़ता है। ऐसी ही कोशिश कुछ अन्य कहानियों में भी दिखायी पड़ती है। 'सड़क नम्बर तीस" के मार्फत इस बात को ज्यादा स्पष्ट तरह से कहा जा सकता है। इस कहानी में भी ऐसी ही राजनीति से जुड़ा एक कार्यकर्ता है जो अपनी कुठाओं से उबरने के लिए और हताशा के क्षणों में हौंसला प्राप्त करने के लिए रेड लाईट एरिया में पहुॅचता है, ''।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।पिछले कुछ सालों से मेरी पार्टी समाज के पूरे ढॉंचे में बदलाव की लड़ाई लड़ रही है। मेरे जैसे कई युवक घ्ार-बार छोड़कर इस लड़ाई में कूद पड़े हैं। हम गांवों के किसानों और शहर के श्रमिकों के बीच अपना काम करते हैं। पर सरकार को यह पसन्द नहीं। मैं अपने बाप का बड़ा बेटा हूॅं।।।।।।।। आज रहा नहीं गया तो इधर पॉंव उठ गए।"" घ्ार के प्रति उत्कट मोह में फंसे एक क्रांतिकारी को रेड लाईट एरिया में जाकर शरण लेना और फिर वहॉं का ग्राहक बन जाना, क्या यही है यर्थाथ ? रेड लाईट एरिया और दुनिया को बदलने की राजनीति का एक ऐसा कोलाज इन कहानियों से उभरता है जिसमें समकालीन यर्थाथ को समझना बेहद मुश्किल है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि ऐसी कहानियों में न तो राजनीति की वास्तविक तसवीर ही उभर पायी है और न ही प्रेम की व्याख्या हो सकी है। 'कमजोर" और 'कोई नाम न दो" इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां है। कमजोर एक ऐसी कहानी है जो इस बात को स्थापित करती है कि प्रेम विज्ञापन की वस्तु नहीं, संबंधों की निजता का नाम है। दया, करुणा, कुंठा, निराशा और हताशा की जीवन स्थितियों के बीच इन कहानियों के पात्र जिस प्रेम की आकांक्षा में तड़पते दिखायी देते हैं उसे समकालीन विमर्श के दायरे में (जहां सहानुभूतियों से भरा यथार्थ छलांग मार चुका है) पढ़े तो कहा जा सकता है कि ये कहानियां एक सीमा के बाद उसी पुरुषोचित मानसिकता का प्ार्याय बनने लगती हैं जो एकनिष्ठता की मांग सिर्फ स्त्रियों पर लादे हुए है। जहां दावा होता है वहां प्रेम नहीं होता। दावा करते हुए दया, करुणा और सहानुभूति तो बिखेरी जा सकती है पर प्रेम नहीं किया जा सकता। परितोष चक्रवर्ती की कहानियों की यह पुस्तक प्रेम का दावा करती पुस्तक है- ''प्यार की कहानियां है"" और उन तमाम लोगों को समर्पित है जिन्होंने हमेशा प्यार को मान दिया है। प्रेम में पगलाया कोई पागल-प्रेमी क्या यह कह सकता है- वह प्रेम करता है ? और क्या प्रेम करते हुए भी वह उतना ही सहज, सामान्य और दैनिक व्यवहार में अपनी सम्पूर्ण मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों को सुरक्षित रख सकता है ? शायद ऐसा कर पाना असंभव है। वैसे प्रेम के लिए कोई तय व्यवहार या नियम हो, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। पर इन कहानियों के ये पात्र जिस मानसिक संत्रास से छटपटाते हुए प्रेम की ओर कदम बढ़ाते हुए दिखायी देते हैं वहां हत्या और आतंक की स्थितियों को दर्शाया गया है। ये सभी पात्र नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर एवं दुनिया के दुख-दर्द से द्रवित होकर उसको मिटाने के लिए जिस आंदोलन का हिस्सा होना चाहते हैं वहां हत्या और आतंक का सृजन ही (एक मात्र पक्ष) उन्हें दिखायी देता है और इसी कारण एक प्रकार की विक्षिप्तता के शिकार वे किसी की गोद में सिर रख कर प्रेम के लिए विचलित जान पड़ते है। एक राजनितिक आंदोलन की इतनी उथले तरह की व्याख्या करती ये कहानियां प्रेम की संवेदना को भी विक्षेपित कर देती हैं। क्रान्तिकारी राजनीति का ऐसा ही उत्तर-आधुनिक पाठ प्रस्तुत करने की कोशिश वी।एस।नायपॉल के उपन्यास डंहपब ैममके ;माटी मेरे देश की द्ध में ज्यादा तीव्रता के साथ दिखायी देती है। 'माटी मेरे देश की" का नायक विली तो बकायदा आधार क्षेत्रों का कार्यकर्ता बन जाता है और तथ्यों की प्रमाणिकता से बचने के लिए नायपॉल ने शिल्प के स्तर कुछ-कुछ जादूई किस्म के एक ऐसे यथार्थ का सृजन किया है जिसमें हत्या और आतंक की स्थितियां ही छायी रहती है। एक ऐसा आंदोलन जो लगातार दमन को झेलते हुए भी कैसे अपना प्रसार करता गया, उस पर ठोस विश्लेषण करने की बजाय मुक्त क्षेत्रों के बीच उस राजनीति को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के साथ राय मश्विरा करता विली हर क्षण उपहास उड़ाता हुआ-सा ही नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि परितोष चक्रवर्ती के पात्रों को हम वी।एस।नायपॉल के पात्रों की तरह एक व्यापक आंदोलन का उपहास उड़ाते हुए नहीं पाते। वहां सिर्फ कहानीकार की वह दृष्टि ही हावी दिखायी देती है जो शायद ऐसे किसी भी आंदोलन से नाइतिफाकी रखती होगी। ऐसी किसी भी असहमति को तभी जायज ठहराया जा सकता है जब वहां तार्किकता भी हो। सिर्फ अपने मनोगत वाद के चलते किसी भी आंदोलन को अतार्किक तरह से खारिज करने की यह प्रवृत्ति सामान्य जनतांत्रिकता को भी संदेह के घ्ोरे में खड़ा ही करेगी । पुस्तक: कोई नाम न दोलेखक: परितोष चक्रवर्तीप्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्सए नई दिल्ल्ी
विजय गौड़ सी 24/9 आयुध निर्माणी एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008, नेपथ्य: 09411580467
समकालीन यथार्थ के वृत्त पर, जहां बदलते सामाजिक आर्थिक मूल्यों ने संवेदनहीनता को जन्म दिया है, प्रेम और आदर्श की मिली-जुली अभिव्यक्ति से संगुम्फित, 'कोई नाम न दो" परितोष चक्रवर्ती के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह की कहानियॉं अपने विषय की विशिष्टता से जो जाप काटती हैं उस कटान बिन्दु से एक सीधी स्पर्श रेखा खींचने का लेखकीय प्रयास इन कहानियों में दिखायी देता है। ऐसी स्पर्श रेखा जो त्रिज्या पर समकोण बनाती है और संवेदनहीनता की उस धारा को मोड़ने के लिए प्रयासरत जान पड़ती हैं। कहानी दर कहानी बात करें तो पाते हैं कि 'सोनपत्ती" उस लोक परम्परा के वृत्त पर पल्लवित होती प्रेम कथा है जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुॅचे हुए स्त्री-पुरुष को अकेलेपन के बीच सहारा देता है। कथानक में घ्ाटित होती घ्ाटनाऐं सम्बंधों को उस तरह की मूर्तता नहीं देती जैसा अक्सर युवा प्रेमियों की कथाओं में आकार लेता है। प्रेम की छट-पटाहट वाली मानसिक उद्विगनता नहीं, बस एक हल्का-हल्का सा अहसास जिसकी स्मृतियां सोनपत्ती पर टिकी रहती हैं। ऐसी स्मृतियां जिन्हें कैसी भी परिस्थितियां मिटा नहीं सकती। बिछोह की उदासी इंतजार की लड़ी बनकर टंगी रहती है। कहानी की नायिका सरोज का अकेलापन कप्तान सहाब के अकेलेपन का समानार्थी नहीं है। वहां तो परिवार के अन्य लोगों के बीच पूरे मान के बावजूद अन्य लोगों और उनके बीच उम्र का एक फासला है जो उन्हें अकेला किये दे रहा है। अपने छोटे भाई के परिवार के बीच अटी पड़ी वे खुद ही अकेलेपन की गिरफ्त में जकड़ी चली जाती हैं। छोटे भाई के बच्चों के साथ पार्क में होते हुए भी एक हम उम्र, हम मनस कप्तान सहाब की उपस्थिति इसी लिए सुकूनदेय लगने लगती है। कप्तान सहाब की ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थिति में बदल जाना सरोज को बेचैन तो करता है पर ऐसी स्थिति में युवापन की छटपटाहट वाली बेचैनी के बजाय वहां गम्भीरता का एक गहरा आवरण उन्हें ढकने लगता है। वे चाहती हैं कि उनका भाई छोटू कप्तान सहाब के घ्ार जाकर उनकी खोज-खबर ले आये। छोटू के मना करने पर वे स्पष्टता के साथ पेश आती हैं- ''छोटू, मैंने तुझे पता करने को कहा है, कोई दित है तो बता।""''वृत्त से बाहर"" एवं 'घ्ार बुनते हुए" ऐसी कहानियां हैं जिनमें घ्ाटनाओं को काफी कुशलता के साथ संयोजित किया गया है। वृत्त से बाहर के पात्र रजत पर जहां आदर्शवाद हावी है वहीं घ्ार बुनते हुए का सामन्ता बेहद दयनीय नजर आता है। सामन्ता की दयनीयता को लेखक के राजनीतिक आग्रहों के दायरे में समझा जा सकता है। इस कहानी में सामन्ता को एक ऐसी राजनीति से जुड़ा दिखाया गया है जहां सिर्फ और सिर्फ हत्या और आतंक का माहौल ही रचा जा रहा है। अन्तत: सामन्ता का उससे मोहभंग होता है। मोहभंग की इस स्थिति में जाते हुए सामन्ता के भीतर भी कोई द्वंद्व है, ऐसा कहानी से दिखायी नहीं पड़ता। बस वह तो वहां से निकल भागता है रेड लाईट एरिया की ओर जहां ग्राहकों को पानी पिलाने का काम करना है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, गुरुजी का आदर्श वाक्य, ''दुनिया में अपने कर्म से यदि तुम किसी को दुख-यातना या नुकसान नहीं पहुॅचा रहे हो तो वह काम खराब नहीं होता"" सामन्ता के जीवन दर्शन का सूत्र वाक्य है। इस कहानी के मार्फत यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या सिर्फ हत्या का रोमांचक खेल किसी ऐसे आंदोलन का रुप ले सकता है जिसमें आवाम का एक हिस्सा भागीदारी करता हो ? यदि नहीं, तो फिर सामन्ता के मोहभंग के वास्तविक कारण क्या हैं ? यहां लेखकीय आग्रह ही सामन्ता के चरित्र को निर्धारित करते जान पड़ते ह्रैं। कहा जा सकता है कि बिना किसी तार्किक आधार के किसी भी राजनैतिक दिशा को अप्रसांगिक ठहराना कोई गम्भीर कर्म नहीं। नक्सलवादी राजनीति का जिक्र कहानी में सनसनी बिखेरने के लिए किया गया ही जान पड़ता है। ऐसी ही कोशिश कुछ अन्य कहानियों में भी दिखायी पड़ती है। 'सड़क नम्बर तीस" के मार्फत इस बात को ज्यादा स्पष्ट तरह से कहा जा सकता है। इस कहानी में भी ऐसी ही राजनीति से जुड़ा एक कार्यकर्ता है जो अपनी कुठाओं से उबरने के लिए और हताशा के क्षणों में हौंसला प्राप्त करने के लिए रेड लाईट एरिया में पहुॅचता है, ''।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।पिछले कुछ सालों से मेरी पार्टी समाज के पूरे ढॉंचे में बदलाव की लड़ाई लड़ रही है। मेरे जैसे कई युवक घ्ार-बार छोड़कर इस लड़ाई में कूद पड़े हैं। हम गांवों के किसानों और शहर के श्रमिकों के बीच अपना काम करते हैं। पर सरकार को यह पसन्द नहीं। मैं अपने बाप का बड़ा बेटा हूॅं।।।।।।।। आज रहा नहीं गया तो इधर पॉंव उठ गए।"" घ्ार के प्रति उत्कट मोह में फंसे एक क्रांतिकारी को रेड लाईट एरिया में जाकर शरण लेना और फिर वहॉं का ग्राहक बन जाना, क्या यही है यर्थाथ ? रेड लाईट एरिया और दुनिया को बदलने की राजनीति का एक ऐसा कोलाज इन कहानियों से उभरता है जिसमें समकालीन यर्थाथ को समझना बेहद मुश्किल है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि ऐसी कहानियों में न तो राजनीति की वास्तविक तसवीर ही उभर पायी है और न ही प्रेम की व्याख्या हो सकी है। 'कमजोर" और 'कोई नाम न दो" इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां है। कमजोर एक ऐसी कहानी है जो इस बात को स्थापित करती है कि प्रेम विज्ञापन की वस्तु नहीं, संबंधों की निजता का नाम है। दया, करुणा, कुंठा, निराशा और हताशा की जीवन स्थितियों के बीच इन कहानियों के पात्र जिस प्रेम की आकांक्षा में तड़पते दिखायी देते हैं उसे समकालीन विमर्श के दायरे में (जहां सहानुभूतियों से भरा यथार्थ छलांग मार चुका है) पढ़े तो कहा जा सकता है कि ये कहानियां एक सीमा के बाद उसी पुरुषोचित मानसिकता का प्ार्याय बनने लगती हैं जो एकनिष्ठता की मांग सिर्फ स्त्रियों पर लादे हुए है। जहां दावा होता है वहां प्रेम नहीं होता। दावा करते हुए दया, करुणा और सहानुभूति तो बिखेरी जा सकती है पर प्रेम नहीं किया जा सकता। परितोष चक्रवर्ती की कहानियों की यह पुस्तक प्रेम का दावा करती पुस्तक है- ''प्यार की कहानियां है"" और उन तमाम लोगों को समर्पित है जिन्होंने हमेशा प्यार को मान दिया है। प्रेम में पगलाया कोई पागल-प्रेमी क्या यह कह सकता है- वह प्रेम करता है ? और क्या प्रेम करते हुए भी वह उतना ही सहज, सामान्य और दैनिक व्यवहार में अपनी सम्पूर्ण मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों को सुरक्षित रख सकता है ? शायद ऐसा कर पाना असंभव है। वैसे प्रेम के लिए कोई तय व्यवहार या नियम हो, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। पर इन कहानियों के ये पात्र जिस मानसिक संत्रास से छटपटाते हुए प्रेम की ओर कदम बढ़ाते हुए दिखायी देते हैं वहां हत्या और आतंक की स्थितियों को दर्शाया गया है। ये सभी पात्र नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर एवं दुनिया के दुख-दर्द से द्रवित होकर उसको मिटाने के लिए जिस आंदोलन का हिस्सा होना चाहते हैं वहां हत्या और आतंक का सृजन ही (एक मात्र पक्ष) उन्हें दिखायी देता है और इसी कारण एक प्रकार की विक्षिप्तता के शिकार वे किसी की गोद में सिर रख कर प्रेम के लिए विचलित जान पड़ते है। एक राजनितिक आंदोलन की इतनी उथले तरह की व्याख्या करती ये कहानियां प्रेम की संवेदना को भी विक्षेपित कर देती हैं। क्रान्तिकारी राजनीति का ऐसा ही उत्तर-आधुनिक पाठ प्रस्तुत करने की कोशिश वी।एस।नायपॉल के उपन्यास डंहपब ैममके ;माटी मेरे देश की द्ध में ज्यादा तीव्रता के साथ दिखायी देती है। 'माटी मेरे देश की" का नायक विली तो बकायदा आधार क्षेत्रों का कार्यकर्ता बन जाता है और तथ्यों की प्रमाणिकता से बचने के लिए नायपॉल ने शिल्प के स्तर कुछ-कुछ जादूई किस्म के एक ऐसे यथार्थ का सृजन किया है जिसमें हत्या और आतंक की स्थितियां ही छायी रहती है। एक ऐसा आंदोलन जो लगातार दमन को झेलते हुए भी कैसे अपना प्रसार करता गया, उस पर ठोस विश्लेषण करने की बजाय मुक्त क्षेत्रों के बीच उस राजनीति को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के साथ राय मश्विरा करता विली हर क्षण उपहास उड़ाता हुआ-सा ही नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि परितोष चक्रवर्ती के पात्रों को हम वी।एस।नायपॉल के पात्रों की तरह एक व्यापक आंदोलन का उपहास उड़ाते हुए नहीं पाते। वहां सिर्फ कहानीकार की वह दृष्टि ही हावी दिखायी देती है जो शायद ऐसे किसी भी आंदोलन से नाइतिफाकी रखती होगी। ऐसी किसी भी असहमति को तभी जायज ठहराया जा सकता है जब वहां तार्किकता भी हो। सिर्फ अपने मनोगत वाद के चलते किसी भी आंदोलन को अतार्किक तरह से खारिज करने की यह प्रवृत्ति सामान्य जनतांत्रिकता को भी संदेह के घ्ोरे में खड़ा ही करेगी । पुस्तक: कोई नाम न दोलेखक: परितोष चक्रवर्तीप्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्सए नई दिल्ल्ी
No comments:
Post a Comment