Sunday, March 23, 2008

क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना

भाई नवीन नैथानी ने यह आलेख विशेष तौर पर इस ब्लाग पत्रिका के लिए ही लिखा है और समय-समय पर आगे भी लिखते रहने का वायदा किया है।
नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार है। वर्ष 2006 में नवीन को रमाकान्त स्मृति सम्मान उनकी कहानी 'पारस" पर दिया गया था। इससे पूर्व 1998 में कहानी 'चोर घ्ाटडा" के लिए कथा सम्मान से सम्मानित किया गया था।
नवीन नैथानी विज्ञान के अध्येता है। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं।
(हम अपने ऐसे अन्य मित्रों से जिनकी पहचान जहॉं एक ओर साहित्यक क्षेत्र में उनकी अपनी सक्रियता के कारणों से है और वहीं वे दूसरी ओर किसी अन्य विषय में भी दख्ाल रखते हंै या कार्यारत हैं, अनुरोध करते है कि अपने उस विषय के साथ इस ब्लाग पत्रिका में हाज़िर हों। इसे एक सीधा अनौपचारिक आमंत्रण समझते हुए बेहिचक अपनी रचना के साथ ब्लाग में उपस्थित हों या फिर किसी भी माध्यम से हम तक पहुॅंचाने का कष्ट करें। आपकी उपस्थिति से पूर्व ही हम आपके स्वागत एवं आभार के लिए तत्पर है। - ब्लागर।)


मैं विज्ञान का विद्यार्थी हॅंू और साहित्य का अध्येता। विज्ञान पढ़ते हुए उसे साहित्य की असीम सीमाओं में बांधने की जद्दोजहद रहती है। यहॉं मजेदार बात यह है कि हम साहित्य पढ़ते हैं और विज्ञान का अध्ययन करते हैं। जो पढ़ते हैं उसे अध्ययन कहें क्या! शिक्षाविदों और शैक्षिक प्रविधयों के प्रणेताओं के पास इस प्रश्न का जवाब होगा मेरे पास नहीं। मैं काफ्का की मैटामॉर्फोसिस पढ़ता हॅंू। पढ़ते हुए मुझे एक साथ तीन चीजें अपनी ओर खींचती हैं। लेखक ;काफ्काद्ध की मन:स्थिति, उसका परिवेश और उन दोनों के बीच संतरण करता हुआ मेरा ;पाठक काद्ध समय। पढ़ते हुए मैं इन तीनों के बीच अर्न्तसंबंधों का अध्ययन अचेतन रुप में करने लगता हॅूं। मैं सापेक्षिकता पर आईस्टिन के पर्चे पढ़ता हॅंू, स्टीफन हॉकिंग की प्रख्यात पुस्तक से रुबरु होता हॅूं और क्वाण्टम ;सूक्ष्मद्ध जगत की विभिन्नताओं से परिचित होता हूूं। इन तमाम भैतिक परिघ्ाटनाओं के बारे में पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक ही बात अपनी तरफ खींचती है - यह जगत कैसा है ?क्या विज्ञान या वैज्ञानिक तथ्यों को जानना समझना हमारे अनुभव को इतना एकांगी रुप में सम्द्ध करता है ? या इससे मेरी चेतना अथवा मेरे संचित ज्ञान में व्द्धि कोई खलबली पैदा करती है ? इन्हीं दो प्रश्नों के बीच मैं क्वाटण्म अवधारणा के शुरुआती बिन्दुओं पर अपने विचारों को साझा करना चाहता हॅूं।मनुष्य अपने प्रारम्भ से ही विराट जगत को देखकर विस्मित होता रहा। इस विस्मय में मनुष्य में क्षुद्रता का भान तो था ही, साथ ही असीमितताऐं भी उसे उद्वेलित करती थी। आश्चर्यजनक किंतु सत्य तो यह है कि मनुष्य ने इन अनिश्चितताओं से भयभीत होना नहीं सीखा बल्कि उनके भीतर किसी अन्तर्निहित निश्चित नियम को जानने का बीड़ा उठाया।बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में मानव सभ्यता सामूहिक चेतना के उस उत्थान बिन्दु के नजदीक पहॅुंच गयी थी जहॉं हम इन अनिश्चिततओं को सिद्धान्तों की निश्चितताओं में ढालने के अनुक्रम में जुट पाते।क्वाण्टम भौतिकी की बहुत सारी व्याख्याऐं और इसके दार्शनिक विमर्श, बेशक, अनिश्चितताओं के घ्ाटाटोप की तरफ संकेत करते हैं। ईश्वर जैसी अमूर्त अवधारणाओं के पोषक कुछ खुराक भी इनसे ले लेते हों किन्तु क्वाण्टम भौतिकी अपने शुद्ध गणितीय स्वरूप में इतनी ही निश्चित है जितनी धरती के सामने चन्द्रमा की छवि!जीवन निर्जीव तत्वों से बना है। स्टनले मिलर के प्रयोगों में यह तथ्य बीसवीं शताब्दी के छठे दशक की शुरुआत में सामने आया। स्टनले मिलर के प्रयोगों से पहले प्रख्यात भैतिकविद्ध ;और क्वाण्टम अवधारणा के प्रवर्तकों में से एक, इर्विन श्रोडिंजर ने अपने निबन्ध -वॉट इज लाईफ में इस तरफ संकेत किया था। क्रिस्टलव्द्धि की सहज रासायनिक/भौतिक परिघ्ाटना के विश्लेषण में श्रोडिंजर जीवन की उत्पत्ति में निर्जीव तत्वों के योगदान की भविष्यवाणी कर चुके थे। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब प्लांक, रदरफोर्ड, आईंस्टीन, बोर आदि सूक्ष्म जगत की घ्ाटनाओं को व्याख्यायित करने की कोशिश में थे तब वह सुदूर भविष्य की बात थी। उन लागों ने सोचा भी नहीं था। और उन्हें सोचने की आवश्यकता भी नहीं थी। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आज बॉयोटैक्नालॉजी की इस सदी में उन घ्ाटनाओं की तरफ थोड़ा विस्मय और किंचित उपहास के साथ देखने की प्रव्त्ति पायी जाती है।विज्ञान का इतिहास हमेशा इस तरह की घ्ाटनाओं से भरा हुआ है कि अतीत के काल विशेष में किसी महान मेधा से भीषण चूक हुई है और वह उस समय विशेष की परिघ्ाटना को लक्षित/व्याख्यायित करने से रह गया जिसका खामियाजा सभ्यता को भुगतना पड़ा। वे लोग उस समय नहीं जानते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह हम लोग नहीं जानते हैं। हमारे आगे की पीढ़ियां तय करेगीं कि हम लोग भी नहीं जानते हैं। विज्ञान यहॉं दर्शन के सामने बौना है। और यहीं विज्ञान दर्शन से अधिक बड़ा और लचीला भी है। एक दार्शनिक अवधारणा आपके सामने भविष्य के लिए कुछ भी नहीं छोड़ती। विज्ञान के सामने आपका समूचा भविष्य खुला रहता है - सांभावनाओं और प्रयोगों की एक विस्त्त स्ष्टि जहॉं पूर्वग्रह, मत-अभिमत, धर्म, आस्थाऐं और विश्वास सब प्रश्नों की खराद पर नव सृजन के लिए तत्पर हैं। तो हम क्वाण्टम अवधारणाओं के शुरुआती प्रश्नों की तरफ लौटे। नवीन नैथानी

Saturday, March 22, 2008

देहरादून पर एक गीत

'बीटल्स' के मुख्य गायक गिटारिस्ट जॉर्ज हैरिसन का गाया गीत ' देहरादून ' पेश है। इसे " कबाड़ख़ाने" से साभार लिया गया है। बीटल्स ग्रुप के सदस्य १९६० - १९७० के दौरान, आत्मिक शांति की खातिर ऋषिकेश बहुत आया जाया करते थे। प्रस्तुत गीत उसी दौर का है।
Dehra, Dehra dun,
Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many people on the roads looking at the sights
Many others with their troubles looking for their rights
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
See them move along the road in search of life devine..........................
Beggers in a goldmine
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun

Thursday, March 20, 2008

फेंटा

कल यानी 19 मार्च 2008 को नवीन भाई (नवीन नैथानी) और मैं साथ थे। शिरीष कुमार मौर्य का ब्लाग देख रहे थे। हरजीत याद आ गया। नवीन भाई कह रहे थे, ''आज हरजीत होता तो ब्लाग पर जुटा होता।'' ऐसे जैसे स्पीक मेके के साथ जुटा रहता था, जैसे समय साक्ष्य के साथ और जैसे बाद में बच्चों के खिलौने बनाने में जुट गया था। कभी कभी एकलव्य के साथ भी। कोई कभी पूरी तरह से कभी नहीं जान पाया वह कहॉं-कहॉं जुटा है इन दिनों। ब्लाग पर भी होता तो सिर्फ अपने ही नहीं ढेरों अपने तरहों के साथ होता। कम्बख्त समय से पहले चला गया। वह हुनरमंद कारीगर था लकड़ी का। गज़ल कहता था। स्केच करता था। फोटोग्राफी करने लगा था। फोटोग्राफी सीखाने वाला हुआ अरविन्द शर्मा। वही अरविन्द जिसका पता ठिकाना था - ''टिप टॉप''। आजकल कहां है, मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं अहमदाबाद में है। हमारा देहरादूनिया भाई सूरज प्रकाश शायद जानता होगा उसका पता। अहमदाबाद आना जाना अरविन्द का पहले भी होता ही रहता था। अहमदाबाद में उसके परिवार के लोग जो ठहरे। भाई सूरज प्रकाश को वहीं से खोज कर लाया था वह और हम सब जानने लगे फिर सूरज भाई को।
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -

जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है

हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।

प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -

सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
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रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
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इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं

मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है

हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है

कोई चुप हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही सकें

Wednesday, March 19, 2008

लघु कथा

युवा रचनाकार
(चेखव को याद करते हुए)

विजय गौड

एक

वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"


दो

वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।

तीन

ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।