Wednesday, March 19, 2008

लघु कथा

युवा रचनाकार
(चेखव को याद करते हुए)

विजय गौड

एक

वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"


दो

वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।

तीन

ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।

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