Sunday, January 4, 2009

संवेदना की मासिक बैठक जनवरी 2009

वर्ष 2009 की शुभकामनाओं और कथाकार जितेन ठाकुर के दिवंगत पिता को विनम्र श्रद्धांजली के साथ आज दिनांक 4/1/2009 को सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक बैठक में कवि राजेश सकलानी ने अपनी नयी रचनाओं का पाठ किया जिन पर विस्तार से चर्चा हुई। कवि राजेश पाल ने भी अपनी ताजा रचनाएं सुनायी। अपने कथ्य में स्थानिकता को बयान करती राजेश पाल की कविता टिहरी की चिट्ठी ने निर्विवाद रुप से सभी को प्रभावित किया।
कथाकार डॉ जितेन्द्र भारती ने अपनी एक पुरानी कहानी लछमनिया, जिसे उन्होंने पहले मिली राय मश्विरों के अधार पर पुन: दुरस्त किया, का पाठ किया। मैंने भी अपनी ताजा कहानी फोल्डिंग दीवान पढ़ी। डॉ विद्या सिंह ने भी अपनी एक रचना का पाठ किया।
गोष्ठी में अन्य उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, दिनेश चंद्र जोशी,, जयन्ती सिजवाली,, प्रेम साहिल, आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता शकुन्तला, सुनील रावत और राजेन्द्र गुप्ता मौजूद थे।

गोष्ठी में पढ़ी गयी राजेश पाल की कविताएं यहां प्रकाशित की जा रही है।

राजेश पाल

टिहरी की चिट्ठी


दिन 8 जुलाई 2008
पोस्टमैन के हाथ में है
एक चिट्ठी
पता लिखा है-
राम प्रसाद नौटियाल
पुरानी मण्डी चौक
टिहरी

दुनियां में आज भी कितने लोग हैं
जो अपने पुराने दोस्तों को भी याद करते हैं
जिन्हें नहीं पता है
कि टिहरी का अब कोई पता नहीं है
और न ही पता है अब दोस्त का।


चादर

गड़रिये
सफर में
कन्धे पर चादर रखते हैं
धूप लगी तो - सिर पर बांध ली
ज्रुरत पड़ी तो - बिछा ली
नहाये तो
बदन पोछकर धेती बांध ली

दरअसल
बौहने पैर
बबूल के जंगल से गुजरते हुये
गड़रिये की जिन्दगी
और चादर में कोई फर्क नहीं है।

Thursday, January 1, 2009

करो कामना थाप, धमक और थिरकने वाले तार की

आतंक के साये से जख्मी, वर्ष 2008 बीत गया है। प्रेम की फुहार बिखेरते, नव वर्ष 2009 का स्वागत है। आयशी गुल की कविताओं के अनुवाद के साथ प्रस्तुत है हमारे वरिष्ठ साथी यादवेन्द्र जी। गुल तुर्की की कवियत्री हैं जो ब्रिटेन में रहती हैं।

priy vijayji,

do chhoti kavitayen aapko bhej raha hun...
mujhe behad priy lagin...itni ki yadi is desh me kahi hotin GUL to ja kar unse jaroor milta aur anya kavitayen sunta.(2001 me britain ki POETRY MAGAZINE me prakashit)

yadvendra


तुम्हारे साथ


(1)

तुम्हारे साथ
आदमी औरत जैसी कोई बात नहीं
न ही तुम तुम हो, न ही मैं मैं
हम बस हम हैं और वे वे---

तुम्हारे साथ
हम महज दो वृक्ष हैं तने हुए इस सड़क पर
आजू बाजू में एक दूसरे के
हवा में अठखेलियां करते
ताकते तालाब को तो कभी आकाश को
बीच-बीच में दूसरे वृक्षों को भी
मेरी पत्तियां वही सांस ले रही हैं
जो ले रही हैं तुम्हारी पत्तियां
वैसे ही धूप में नहा रही हैं
और वैसे ही चख रही है स्वाद
हवा और बारिश के---

तुम्हारे साथ
न ही काल की और न ही स्थान की बंदिशें हैं
मेरी डालियां झुक रही हैं
आतुर छूने को तुम्हारी डालियां
वैसे ही जैसे कि मेरी पत्तियां
हौले-हौले गले लग रही है
तुम्हारी पत्तियां---

(2)

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल जगा देते हैं भूख की ज्वाला
और मैं कामना करने लगती हूं
चार जून के व्यंजनों की
शराब और ब्रांडी की लज्जत के साथ

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल हो जाते हैं बन कर प्रस्तवाना
और मैं कामना करने लगती हूं सम्पूर्ण उपन्यास की
साथ हो जिसमें पटाक्षेप भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल बन जाते हैं पूर्व परिचय
और मैं कामना करने लगती हूं
चार दिशाओं वाले ओपेरा की
जिसमें हिलते रहे पर्दे बार-बार

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल छा जाते हैं भूमिका बनकर
और मैं कामना करने लगती हूं एक मुकम्मल सिंफोनी की
जिसमें हो आरोह और क्लाईमेक्स भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
बजने लगते हैं जैसे हों बंशी और मादल
और मैं कामना करने लगती हूं पूरे ऑक्रेस्ट्रा की
जिसमें फूंक हो, थाप हो, धमक हो
और हो थिरकने वाले तार भी

Thursday, December 25, 2008

क्रांतिकारी धारा के कवि ज्वालामुखी को विनम्र श्रद्धांजलि



सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे.चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया.इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा।
ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है। जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

मैनेजर पांडेय,राष्ट्रीय अध्यक्ष
जनसंस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण,महासचिव,
जनसंस्कृति मंच

विद्यासागर नौटियाल का नया कथा-संग्रह " मेरी कथा यात्रा"




सुप्रसिद्ध आलोचक डा0 नामवरसिंह 25 दिसम्बर '08 को दूरदर्शन के ने्शनल प्रोग्राम के अंतर्गत
सुबह 8-20 बजे विद्यासागर नौटियाल के कथा-संग्रह
मेरी कथा यात्रा की समीक्षा करेंगे

Friday, December 12, 2008

तुम्हारी ओर मैं क्यों आकृष्ट हुआ - पत्र में कैसे कर दूं दर्ज

प्रस्तुति : यादवेन्द्र



गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ जगदीश चंद्र बसु की अंतरंग मित्रता थी जिसमें एक दूसरे के घर आना-जाना, पत्रों और पुस्तकों का आदान-प्रदान और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर विचार-विमर्श शामिल था। जब पहली बार गुरुदेव जगदीश बाबू के घर गये तो वे वहीं कहीं बाहर गए हुए थे- गुरुदेव वहां एक फूलों का गुच्छा छोड़ आए। यहीं से आने जाने का सिलसिला शुरु हुआ। एक बार गुरुदेव ने वैज्ञानिक को अपने साथ कुछ दिन रहने के लिए आमंत्रित किया। जगदीश बाबू इस शर्त पर राजी हुए कि हर रोज गुरुदेव उन्हें कोई कोई नयी कहानी जरुर सुनाएंगे। कहानियों का अनवरत क्रम जिस दिन टूट जाएगा उस दिन वे लौट जाएंगे वापिस। चौदह दिनों के बाद एक दिन यह सिलसिला भंग हुआ। रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुली वाला" इसी विदित समागम की उपलब्धि है जिसे भगिनी निवेदिता ने 1912 में अंग्रेजी में अनुवाद करके और तपन सिन्हा ने फिल्म बनाकर अहिन्दी भाषियों के बीच भी अमर कर दिया। महान रचनाकार रोम्यां रोला और जार्ज बर्नाड शॉ से भी जगदीश बाबूका खासा मेल मिलाप और संवाद था। इन दोंनों ने अपनी एक-एक पुस्तक भारतीय वैज्ञानिक को समर्पित की है।जगदीश बाबू की साहित्य में रुचि को देखते हुए उन्हें बंग साहित्य परिषद का अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया था।इतना ही नहीं जगदीश बाबू गुरुदेव के सतरवें जन्मदिवस (सप्ततितम जन्मवार्षिकी) की आयोजन समिति के सभापति भी बनाए गए।

बौद्धिक आदान प्रदान तो इन दो महान विभूतियों के बीच होता ही था,पर इनकी बालसुलभ मित्रता यहां तक थी किवे मिलकर पुरी में एक साझाा मकान बनाने की सोच रहे थे। इस संबंध में अपने 18 अगस्त 1903 के पत्र में वैज्ञानिक स्पष्ट लिखते हैं - "एक बार सोचा था कि दोनों मिलकर एक कुटिया बनाएंगे और कभी-कभार वहां जाकररहेंगे। तुम्हारी जमीन तुम्हें ही मुबारक हो, तुम यदि इस तरह निरासक्त हो जाओ और पुरी में मेरे साथ रह सको तो मेरे लिए वह निर्जन एकांत असह्य हो जाएगा।"





17 सितम्बर 1900 को जगदीश चंद्र बसु को लिखा रवीन्द्र नाथ ठाकुर का पत्र

आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि मैं आजकल स्केचबुक में पेंटिग करने लगा हूं। ऐसा नहीं है कि ये चित्र पेरिस की किसी कलादीर्घा के लिए बना रहा हूं और न ही यह मुगालता है कि किसी देश की राष्ट्रीय गैलरी अपने कर दाताओं का पैसा लगाकर इन्हें अपने यहां प्रदर्शन करने के लिए खरीदेगी। यह किसी व्यक्ति का अन्जान कला की ओर वैसे ही खिंच जाना है जैसे कुछ न कमाने वाले अपने बेटे के प्रति भी मां खिंच जाती है। अब जब मेरे ऊपर आलस्य हावी होने लगा है तब अचानक एक कलाकार का धंधा सूझा जिसमें लगकर समय खुशी-खुशी व्यतीत किया जा सकता है। मुश्किल यह है कि मेरी अधिकांश ऊर्जा रेखाएं खींचने में नहीं बल्कि उन्हें मिटाने में चली जाती है- परिणाम यह होता कि मैं पेंसिल की तुलना में मिटाने वाले रबर को पकड़ने में ज्यादा पारंगत हो गया हूं। इसे देखते हुए अब राफेले को चैन से अपनी कब्र में आराम फरमाते रहना चाहिए, कम से कम उसके रंगों के लिए मैं किसी तरह का खतरा नहीं बनने वाला।





जगदीश चन्द्र बसु के रवीन्द्र नाथ को लिखे गये पत्रों के उद्धरण


तुम्हारी ओर मैं क्यों आकृष्ट हुआ, बता दूं - हृदय की जो महत आकाक्षांए हैं वे संभवत: मन में ही रह जातीं यदि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी रचनाओं प्रस्फुटित होते नहीं देख पाता।
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तुम्हारे स्वर में मुझे क्षीण मातृ-स्वर सुनाई पड़ता है - उस मातृ देवी के अतिरिक्त मेरा और क्या उपास्य हो सकता है ? उसी के वरदान से मुझे बल प्राप्त होता है। मेरा और है ही कौन ? तुम्हारे अपूर्व स्नेह से मेरी अवसन्नता दूर होती है। मेरे उत्साह तुम उत्साहित होते हो और मैं तुम्हारे बल से बलवान बनता हूं। मैं अपने सुख-दुख के बारे में नहीं सोचूंगा, तुम्हीं बताओगे कि मुझे क्या करना है। यदि मैं कार्य भार से अथक परिश्रम या निराशा से अवसन्न हो जाऊं तो इसे ध्यान में रखते हुए मुझे बराबर प्रोत्साहन भरे शब्दों से पुनर्जीवित करना।

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तुम्हारी पुस्तक के लिए मैंने कई जुगाड़ बिठाए हैं। मैं तुम्हें यशोमण्डित देखना चाहता हूं। अब तुम छोटे गांव में नहीं रह पाओगे। तुम्हारी रचनाओं का अनुवाद करके यहां के मित्रों को अक्सर सुनाता रहता हूं- वे अपने आंसुओं को नहीं रोक पाते हैं। पर इन्हें यहां कैसे प्रकाशित करवाया जाए, समझ में नहीं आता। एक बार यदि तुम्हारा नाम प्रतिष्ठित कर पाऊं तो अपने आपको परम सौभाग्यशाली समझूंगा।