Friday, March 11, 2011

• प्रेमचन्द और दलित समस्या

हिन्दी भाषी भौगोलिक क्षेत्र में दलित राजनीति का उभार और हिन्दी साहित्य में दलित धारा का उदय का आरम्भिक काल लगभग एक समान आक्रामकता का चरण कहा जा सकता है। राजनीति में तिलक, तराजू और--- की गूंज तो सत्ता की चौहदी के लिए बेशक चरदार गलियों में गलबहियां डालने को मजबूर हो गई पर संवेदनाओं के गहरे दंश को अपने लेखन का हिस्सा बनाने वाले रचनाकारों ने अपने संशयों से मुक्ति की रचना के साथ एक ठोस वैचारिक जमीन को आधार बनाया है और साहित्य के मूल्यांकन के कुछ ऐसे मानदण्डों को खड़ा करने का लगातार प्रयास किया है जिसकी रोशनी में भारतीय समाज व्यवस्था के सामंति ढांचे में बहुत भीतर तक पैठी हुई मानसिकता उदघाटित होती हुई है। हाल में जनसत्ता में प्रकाशित दलित धारा के चिंतक, रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि का आलेख जो कथादेश मासिक फरवरी में प्रकाशित आलोचक चमन लाल के आलेख के प्रत्युत्तर में है, उसकी एक बानगी कहा जा सकता है। कथाकार प्रेमचंद की रचनाओं के मूल्यांकन के सवाल पर यह आलेख दलित धारा के चिंतन के उस दृष्टिकोण को सामने रखता है जिससे एक बहस जन्म ले रही है। दलित धारा के साहित्य के शुरुआती समय में जो बहस कफन कहानी को लेकर समकालीन जनमत से शुरू हुई थी बिल्कुल एक अलग ही अंदाज में आज दुबारा जिन्दा होती हुई है। कथाकार और कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि का मूल आलेख बिना किसी भी तरह के संपादन के साथ यहां इसी उद्देश्य से प्रकाशित किया जा रहा है कि एक स्वस्थ बहस आकार ले। अपनी प्रतिक्रिया तो मैं अवश्य ही लिखूंगा, चाहता हूं कि इस ब्लाग के सचेत पाठक और जिम्मेदार लेख कइस बहस को आगे बढ़ाये। अपनी प्रतिक्रियाओं के टिप्पणी के अलावा विस्तार से भी मेल कर सकते हैं- vggaurvijay@gmail.com

वि.गौ.
प्रेमचन्द ने अछूत समस्या पर जो भी लिखा ,उसे लेकर हिन्दी साहित्य में दो विपरीत ध्रुव निर्मित हो चुके है.हाल ही में कथादेश (फरवरी,2011) के अंक मे चमनलाल का आलेख ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्श ‘के द्वारा उस विभेद को और ज्यादा पुख्ता करने की कोशिश की गयी है.
क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है.
अपने आलेख के प्रारम्भ मे ही बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के हवाले से चमनलाल जी प्रेमचन्द के विरुद्ध बोलने वालों को चेतावनी देते है- ‘प्रेमचन्द के निन्दक मारे जायेंगे ,लेकिन प्रेमचन्द जीवित रहेंगे ,’चमन लाल जी की दृष्टि मे दलितों द्वारा प्रेमचन्द पर उठाये गये सवाल अतिवादी दृष्टि कोण है.साहित्य आलोचना और विमर्श के लिए जो स्पेस होता है ,उसे अतिवादी दृष्टिकोण कहकर खारिज करना ,क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है. बेहतर होगा प्रेमचन्द को धार्मिक आडम्बरों से मुक्त रखा जाये .आज यदि प्रेमचन्द जिन्दा हैं तो उन निरंतर और नयी –नयी आयामो से होने वाली चर्चा के कारण. बिना चर्चा के किसी भी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनायें भी समय के गर्त में खो जाती हैं. उन्हें भूला दिया जाता है.किसी आलोचक ने यदि कोई स्थापना दे दी तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए ?क्या यह प्रवृत्ति साहित्य के कालजयी होने के पक्ष में जाती है? ‌‌‌
प्रेमचन्द की अछूत-समस्याओं के सन्दर्भ में ,जो शंकाये और विचार दलित लेखकों के मन मे उठे ,उन्हें बेबाकी से रखा गया .जिसमें प्रेमचन्द की निन्दा करना ध्येय नहीं रहा ,बल्कि दलित दृष्टिकोण से तथ्यों को परखने की कोशिश की गयी .इस कोशिश को ‘अतिवादी’ कह कर खारिज करने वालो की वाणी और सोच पर अंकुश लगाने की न तो दलित लेखको की कोई मंशा रही है,न जिद्द .अपने पूर्व साहित्यकारो के कृतित्व ,उनकी प्रतिबद्धता ,उनके सामाजिक दायित्व और उनके जीवन अनुभवो को जानना,समझना यदि साहित्यिक दृष्टि से गलत है,तो यह गलती दलित लेखको ने की है,अपनी सामाजिक चेतना और दायित्व के निर्वाह के लिए .क्योंकि साहित्य ही एक माध्यम है ,मानवीय संवेदनाओँ और सरोकारो को जानने का.
73-74 वर्ष पूर्व प्रेमचन्द ने ‘क़फन ’ कहानी लिखी थी,जो मूल उर्दू मे थी.हिन्दी में यह कहानी बाद मे छपी.हिन्दी आलोचको ,विद्वानो ने इस कहानी को कला,शिल्प और विचार की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा. तब से और आज तक यही भाव साहित्य मे मान्य रहा है.लेकिन हिन्दी मे दलित साहित्य के उभरने के साथ –साथ इस कहानी पर सवाल उठने लगे ,तो हाय तौबा मच गयी......’अब प्रेमचन्द दलित विरोधी हो गये ...जैसे शीर्षक छपने लगे.और साहित्य मे एक अजीब तरह का वातावरण निर्मित करने की कोशिशे शुरू हो गयी .कई प्रतिष्ष्ठित आलोचको ने यह भी कहने मे गुरेज नहीं किया – दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएँ ...यानि प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखको को डराया –धमकाया जाने लगा.जैसे दलित लेखक उनके अहम और वर्चस्व को खंडित करने ,उनके आरक्षित क्षेत्र मे घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन विद्वानो ने दलित पक्ष को जानने ,समझने का प्रयास ही नही किया .क्योंकि यह उनके संस्कारो के विरुद्ध है. उन्हें सिखाने की आदत है ,सीखने की नहीं.
दलित का कोई वैचारिक पक्ष भी हो सकता है ,यह सच्चाई गले नहीं उतर रही है.ऎसे ही विद्वानों ने ‘क़फन’ को दलित पक्षधरता की कहानी सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क गढ लिए थे.और इस कहानी को पाठ्यक्रमो में ससम्मान शामिल करते रहे हैं .शिक्षक भी उन्ही तर्कों के सहारे भाव विभोर होकर इस कहानी को संवेदनशील (?) कह कर छात्रों के भीतर उतारते रहे हैं.यह वह समय था, जब हिन्दी में कुछ खास प्रवृत्ति और संस्कारों के लेखकों ,आलोचकों ,शिक्षा-तंत्र से जुडे विद्वानो क वर्चस्व था. लेकिन गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध् में स्थिति बदल गयी. इस कहानी की संवेदना ,श्रेष्ठता ,शिल्प ,गठन ,और दलित पक्षधरता पर सवाल उठने लगे. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि हिन्दी साहित्य प्रारम्भ से ही सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक रहा है.’क़फन ‘ कहानी इन ध्वजवाहकों ,जिनमे मार्क्सवादी आलोचक भी काफी मात्रा मे हैं, की दृष्टि मे यह कहानी कलात्मक हो सकती है,संवेदनशील भी हो सकती है.क्योंकि साहित्य के सृजन और विश्लेषण मे संस्कारों का बहुत बड़ा हाथ होता है.लेकिन जब दलित चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को जोड़कर देखने के प्रयास होते हैं ,तब ‘अर्थ’ और ‘आशय’ बदलने लगते हैं. यहाँ यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि भारतीय समाज में हज़ारों साल से शूद्र ,अंत्यज,अस्पृश्यों, चाण्डाल् ,डोम आदि के प्रति घृणा की भावना को आदर्श रूप में नैसर्गिकता के साथ स्वीकार किया जाता रहा है.जो आज भी पूर्वाग्रहों के रूप में मौजूद है.हिन्दू समाज मे मौजूद इन पूर्वाग्रहों को यह कहानी अपने पूरे सरोकारो के साथ सुदृढ करती है. इसी लिए संस्कारी मन को यह कहानी संवेदनशील लगती है.लेकिन जब एक दलित अपनी चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को पढ़ता है ,तो उसे यह कहानी वैसी नहीं लगती जैसी नामवर सिह ,परमानन्द श्रीवास्तव ,काशीनाथ सिह,विश्वनाथ त्रिपाठी ,राजेन्द्र यादव, पी.एन.सिह, बच्चन सिह ,चमन लाल ......आदि को लगती है.
प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा .
दलित लेखको ने इस कहानी को लेकर जो सवाल उठाये हैं, उनके उत्तर देना चमनलाल जी को जरूरी नहीं लगा .अपने आलेख में भरपूर उद्धरणो के द्वारा यही सिद्ध करते हैं कि प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा . उन्होंने वैचारिक लेख ,टिप्पणियाँ ,सम्पादकीय ,कहानी उपन्यास अछूत – समस्या पर लिखे.उनकी सहानुभूति किसान,मजदूर और अछूतों के साथ थी.लेकिन जब उनके ही जीवन काल में एक निर्णायक मोड़ आया तो स्थितियाँ बदल गयी .प्रेमचन्द ही नहीं ,तमाम पारम्परिक स्थापित लेखक ,प्रगतिशील,जनवादी,मार्क्सवादी ,कहे जाने वाले रचनाकारों ,आलोचकों ,विद्वानों की भी,ऎसे निर्णायक मोड आते ही, भूमिकाएँ और प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं. उस वक्त दलित उनकी प्राथमिकता से बाहर हो जाता है.यह पहले भी हुआ है और आज भी जारी है.
प्रेमचन्द के सामने भी ऎसा ही एक निर्णायक मोड़ आया था.जब दलितों ने सामाजिक वैमनस्य ,उत्पीडन ,शोषण ,और मौलिक अधिकारों से वंचित ,त्रस्त होकर डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में ‘प्रथक –निर्वाचन’ की मांग रखी थी.जो उनके हज़ारों साल की दासता से मुक्त होने का सवाल था.यह निर्णायक मोड गाँधी जी को स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि गाँधी जी की दृष्टि में यह हिन्दू धर्म के लिए खतरा था.इसी मुद्दे पर गाँधी जी गोलमेज –कांफ्रेंस से निराश और दुखी होकर लौटे थे. क्योंकि डा. अम्बेडकर ने यह ‘दलित –मुक्ति’ का सवाल अंतराष्ट्रीय मंच से उठाया था.इसी लिए गाँधी जी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया था.और गाँधीजी ने भूख हड़ताल करके डा.अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वे इस सवाल और मांग को वापस लें. गाँधी जी इस में सफल रहे थे.पूना-पैक्ट के रूप में डा. अम्बेडकर को झुकना पडा. एक तरफा समझौता डा. अम्बेडकर की हार थी. ऎसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है,कि इस निरणायक मोड पर वे किस ओर खडे़ थे.
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
यानि दलितों का हजारो साल की दासता से मुक्ति का संघर्ष प्रेमचन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिक था,जिससे देश को दैविक शक्तियों ने बचाया .प्रेमचन्द की यह भूमिका और निर्णायक मोड पर आते ही अछूत – सहानुभूति अपना पाला बदल लेती है.’हंस’ के मुखपृष्ठ पर बाबा साहेब का चित्र तो छापते हैं,लेकिन उनकी प्राथमिकता में दलित पक्ष की जगह गाँधी जी का पक्ष ज्यादा महात्त्वपूर्ण था.जो पूना-पैक्ट के रूप में दलितों के हितों के खिलाफ ही गया.यह ऎतिहासिक सच्चाई है.और प्रेमचन्द उस वक्त भी डा.अम्बेडकर को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे.इस तथ्य को चमन लाल भी स्वीकार करते हैं- ‘..... दलित प्रश्न पर अधिक विचार मिलते हैं और ये विचार गाँधी और गाँधीवाद से प्रभावित हैं.’
अपने लेख में चमन लाल लिखते हैं – ‘..........पहली बार एक दलित को उपन्यास का नायक बनाने का सराहनीय समझा गया ,लेकिन उपन्यास छपने के अस्सी वर्ष बाद दलित नायकत्व स्थापित करने वाले उपन्यास को इस आधार पर ‘दलित विरोधी .कहा गया कि सूरदास क उल्लेख ‘जातिवाचक ‘नाम से किया गया है....” चमन लाल ही नहीं हिन्दी के स्वमनाम धन्य आलोचक इस बात से तो गदगद हैं कि एक दलित को नायकत्व प्रदान किया गया और अस्सी वर्षों तक इस नायकत्व पर किसी ने उंगली नहीं उठाई.लेकिन यह भूल जाते हैं कि उंगली उठाने वालों के हाथ में कलम कहाँ थी.और यदि थी भी तो उन्हें छापा नहीं जाता था.दूसरे प्रेमचन्द ने एक अछूत को नायकत्व प्रदान किया.लेकिन किस रूप में ?उस नायक के आदर्श क्या हैं ?एक दलित जो पैदा होते ही ‘जाति- उत्पीडन क दंश झेलते हुए बड़ा होता है,और घृणा के प्रति उसके मन में कहीं कोई प्रतिक्रिया न हो ,क्या यह सम्भव है?वहाँ कहीं कोई विरोध ,उस दंश की कोई छाया ,कोई अक्स, दिखाई नहीं पडता .उस पीडा ,दर्द को कहीँ किसी भी रूप में अभिव्यक्त नहीं करता ? हजारों साल के इस उत्पीडन पर यदि नायक चुप है,तो उस नायक के जीवन का उद्देश्य क्या है?नायक चेतना विहीन क्यों है?समाज ,धर्म ,व्यवस्था के प्रति उस नायक को कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं ,ऎसे नायक पर गर्व किया जाये य उस पर शंर्मिन्दा हों ?सूरदास गाँधी जी के आदर्शों पर चलने वाला ‘दलित’ नहीं एक ‘हरिजन’ है.उसका सत्याग्रह भी गाँधी वादी आदर्शों की प्रतिछाया है. जबकि उस दौर में ,जब ‘रंगभूमि ‘उपन्यास ‘लिखा गया, डा. अम्बेडकर का ‘मुक्ति- आन्दोलन’समाज में चेतना पैदा कर रहा था.उ.प्र.में अछूतानन्द का आन्दोलन जारी था.पंजाब में मंगूराम ने अपने तरीके से दलितों को जागरुक करने का अभियान चलाया था.लेकिन प्रेमचन्द इन सभी आन्दोलनों को अनदेखा करके सिर्फ गाँधी जी के ‘अछूतोद्धार’ की सीमाओं में नायकत्व खड़ा कर रहे थे. इसी लिए सूरदास में दलित चेतना की शुन्यता है.
यही स्थिति ‘कफन’ कहानी की भी है.हजारों साल से हिन्दू समाज दलितों के प्रति नकारात्मक सोच रखता आ रहा है.यह सोच साहित्य के माध्यम से भी प्रचारित की गयी.और समाज में श्रेष्ठता भाव के साथ दलितों को दीन- हीन बनाने की मुहिम चलाई गयी.उनके लिए असभ्य,उज्जड,नीच,कमीन,ढेड,गंवार,निकम्मे,जाहिल जैसे शब्दों का प्रचलन जारी रहा है. बडे से बडे रचनाकारों आलोचकों ,विद्वानों ने इन शब्दों का प्रयोग दलितों के सन्दर्भ में किया है.दलित जातियों को गाली की तरह प्रयोग् करने की परम्परा आज भी समाज में मौजूद है.यही नकारात्मकता प्रेमचन्द के पात्रों ‘घीसू – माधो’ में भरपूर मात्रा में दिखाई देती है.जिसे प्रेमचन्द ने कुशलता से स्थापित किया है.यहाँ ‘कफन’ के शिल्प और संरचनात्मकता की बात नहीं कर रहे हैं .केवल ‘आशय’ की बात कर रहे हैं.क्योंकि चमन लाल जी के आलेख का केन्द्र बिन्दु भी यही है.
अक्सर ‘गोदान’ के मातादीन – सिलिया प्रसंग को आलोचक बहुत ऊंचे स्वर में रेखांकित करते हैं.इसी प्रसंग में प्रेमचन्द के अंतिम निष्कर्ष को भी देख लें .मातादीन और सिलिया का प्रेम-प्रकरण वियोगात्मक नहीं है.प्रेमचन्द उन दोनों के बीच होने वाले संवाद के जरिये बहुत कुछ ऎसा कहते हैं जिसे आलोचक अनदेखा करते रहे हैं –
‘......मैं डर रही हूँ,गांव वाले क्या कहेंगे ...’ ’जो भले आदमी हैं ,वह कहेंगे ,यही इसका धर्म था.जो बुरे हैं ,उनकी मैं परवाह नहीं करता.’ ’और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा ?’ ’मेरी रानी ,सिलिया.’ ’तो ब्राह्मण कैसे रहोगे ?’ ’मैं ब्राह्मण नहीं ,चमार रहना चाहता हूँ .जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे़ ,वही चमार.’
सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दी.( गोदान ,पृष्ठ -288-89 )
क्या प्रेमचन्द की उपरोक्त परिभाषा पूर्वाग्रहों पर आधारित नहीं है?इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी दिखाई देते हैं.मातादीन जिसके पूर्णत: बदल जाने का उल्लेख प्रेमचन्द करते हैं,उसके संवाद में श्रेष्ठता भाव जड़ जमाये बैठा है.मातादीन किस धर्म के पालन की बात कर रहा है,जो दलित का कभी हुआ ही नहीं.क्या एक चमार के लिए भी वह उतना ही स्वीकार्य है या नहीं ,इस बिन्दु पर प्रेमचन्द जैसे महान लेखक ने विचार करना क्यों जरूरी नहीं समझा ?क्या यह कथन् मानवीय गरिमा के अनुकूल है? इस वाक्य को जब एक चमार पढ़ता है ,तो क्या वह हीनता बोध का शिकार नहीं होगा ? यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि ‘गोदान’ का रचनाकाल 1936 ई.है.प्रगतिशील् लेखक संघ अस्तित्व में आ चुका था.अम्बेडकर – आन्दोलन राष्ट्रीय पहचान बना चुका था.पूना- पैक्ट पर हस्ताक्षर हो चुके थे .उस दौर में प्रेमचन्द की यह टिप्पणी – जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे ,वही चमार.’, गले नहीं उतरती.चमनलाल जी विद्वान हैं ,किसी भी तर्क से प्रेमचन्द को सही सिद्ध कर सकते हैं.लेकिन एक दलित होने के नाते मुझे यह टिप्पणी पूर्वाग्रह से परिपूर्ण लगती है. यहाँ यह कहना भी जरूरी लगता है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन ,विश्लेषण ,बौद्धिक शब्दजाल या आख्यान भर नहीं होता.इससे परे भी कुछ अर्थ होते हैं .जिनके सामाजिक सरोकार होते हैं.प्रेमचन्द की रचनाओं को एक दलित ठीक उसी तरह स्वीकार करे ,जैसे गैर दलित उन्हें समझा रहे हैं .क्या परिवेशगत ,पारिवारिक संस्कारों की मनुष्य की सामाजिक चेतना के निर्माण में कोई भूमिका नहीं होती?क्या उन समीक्षकों ,विद्वानों की स्थापनाओँ को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेना चाहिए ,जो मंचो ,सभा गोष्ठियों में मार्क्सवादी हैं और घर की देहरी पर कट्टर सामंतवादी,ब्राह्मणवादी संस्कारो से लैस हैं ? जो वर्ण और जाति के समर्थक बने हुए हैं ? ऎसे लोगो को प्रेमचन्द के लेखन में अंतर्विरोध दिखाई नहीं देते हैं.क्योंकि उनके लिए यह सहज और सामान्य है.

Thursday, March 10, 2011

याद आली टिहरी

पहली ग्ढ़वाली फिल्म के निर्माता-निर्देशक पाराशर गौड़, लोक गायक गोपालबाबू गोस्वामी एवं लोक गायिका कबूतरी देवी को सम्मानित करने के साथ-साथ यंग उत्तराखण्ड द्वारा सीरीफोर्ट, नई दिल्ली में आयोजित पुरस्कार समारोह में गढ़वाली फिल्म  याद आली टिहरी को सर्वश्रेष्ठ फिल्म से पुरस्क्रत किया गया। अन्य पुरस्कारों की घोषणा के साथ यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स २०११ में उनके सिनेमा एवं संगीत छेत्र में जिन कलाकारों को सम्मानित किया गया वे इस प्रकार है |

सर्वश्रेष्ठ गीतकार (Best lyricist)
नरेन्द्र सिंह नेगी - बिनिसिरी की बेला (सलान्या श्याली)

सर्वश्रेष्ठ गायक (Best singer male)
किशन महिपाल - सुनिंदी रात्यूं माँ (सामन्या बौजी )

सर्वश्रेष्ठ गायिका (Best singer female)
मीना राणा - औ बूलाणु यो फहाड़ा (दिन जवानी चार)

सर्वश्रेष्ठ संगीतकार (Best music director)
नरेन्द्र सिंह नेगी - (सलान्या श्याली)

सर्वश्रेष्ठ संगीत एल्बम निर्देशक (Best Music album director)
किशन महिपाल - (सामन्या बौजी )

सर्वश्रेष्ठ संगीत एल्बम (Best Music album)
सलान्या श्याली

सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता (Best actor in comic role)
रमेश रावत - गुल्लू

सर्वश्रेष्ठ खलनायक अभिनेता (Best actor in nagetive role)
पन्नू गुसाईं - छम घुन्गुरु

सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता (Best actor in supporting role – Male)
राकेश गौड़ - कभी त होली सुबेर

सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री (Best actor in supporting role – Female)
संगीता नेगी - छम घुन्गुरु

सर्वश्रेष्ठ कैमरामैन (Best cinematographer)
जयदेव भट्टाचार्य - याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (best actor in lead role-male)
मदन डुकलान - याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (Best actor in lead role – female)
रचित कुकरेती - माँ के आंसूं

सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशक (Best film director)
अनुज जोशी- याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ फिल्म (Best film)
याद आली टिहरी

Wednesday, March 9, 2011

इतिहास के अंदर सांस लेना

 क्या यह समाचार वाकई इतना गैरजरूरी है कि रस्सी को सांप बनाने वाले मीडिया को सांप सूंघा हुआ है।

      समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव में हुए बम धमाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक शामिल थे, स्वामी असीमानंद का इकबालिया बयान---

अला अल असवानी  (Alaa Al Aswany)
मिस्र की नयी पीढ़ी के प्रमुख लेखक हैं जो पेशे से तो दन्त चिकित्सक हैं पर  अरबी के लोकप्रिय और सामाजिक रूप में सजग कहानीकार उपन्यासकार हैं.होस्नी मुबारक की सत्ता का मुखर विरोध इनकी रचनाओं में दिखाई देता है.हाल में उनके एक लोकप्रिय उपन्यास पर एक लोकप्रिय फिल्म भी बनी है. हमारे मित्र और एक सजग अनुवादक यादवेन्द्र जी ने उनकी एक कहानी का अनुवाद पिछले तीन चार साल पहले किया था कथादेश में वह प्रकाशित हुई है । 
मिस्र के लोकतान्त्रिक आन्दोलन का संक्षिप्त विवरण अला अल असवानी ने पिछले दिनों विभिन्न माध्यमों में दिया है, इंटरनेट पर अंग्रेजी में उपलब्ध ऐसी ही कुछ सामग्रियों को संकलित कर के साथी पाठकों के लिए यह प्रस्तुति यादवेन्द्र जी के मार्फत है ...
 
मेरे लिए यह अविस्मरणीय अनुभव था.काहिरा में मैं आन्दोलनकारियों के काफिले में शामिल हुआ – पूरे मिस्र से इकठ्ठा हुए हजारों लोग काहिरा की सड़कों पर आजादी की मांग कर रहे थे और पुलिस की बेरहम हिंसा का उन्हें बिलकुल भय नहीं था.मिस्री शासन के सुरक्षा तंत्र में करीब पन्द्रह लाख सैनिक हैं और करोड़ों की राशि खर्च कर के सिर्फ एक काम के लिए ही प्रशिक्षित किया जाता है – देश की जनता को घुटने टेकने के लिए डराते धमकाते रहना. 
मैं हजारों मिस्री युवाओं के काफिले में शामिल हो गया – देश के अलग अलग हिस्सों से आये इन नौजवानों के बीच एक ही बात सामान्य थी कि वे सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए भरपूर बहादुरी और दृढ संकल्प से भरे हुए थे.इनमें अधिकतर विश्वविद्यालय के छात्र हैं जिनके सामने पढ़ लिख कर सामने आने वाले भविष्य का कोई स्पष्ट खाका नहीं है.रोजगार की उन्हें उम्मीद नहीं दिखाई देती इसलिए शादी को लेकर भी उनके मन में गहरी निराशा का भाव है.उनके ह्रदय में इस अन्याय के मद्देनजर क्रोध की जैसी आवारा चिंगारी उठ रही है उसपर काबू पाना अब किसी के बस की बात नहीं.

इन क्रांतिकारियों के क्रियाकलापों से मैं जीवनपर्यंत अभिभूत रहूँगा.सभा के दौरान इन सब ने जो कुछ भी कहा उनमें गहरी राजनैतिक समझ और आजादी के वास्ते जान हथेली पर लेकर निर्भीकतापूर्वक आगे कदम बढ़ाने का जज्बा स्पष्ट देखा जा सकता है.आंदोलनकारियों ने मुझसे सभा को संबोधित करने के लिए कहा – हांलाकि मैं इस से पहले भी सैकड़ों दफा जनसभाओं में बोल चुका हूँ पर इस बार बिलकुल अनूठी अनुभूति हुई.मैं करीब तीस हजार प्रदर्शनकारियों से मुखातिब था जो समझौते जैसी कोई बात सुनने को बिलकुल तैयार नहीं थे और बीच बीच में नारे लगा कर इसको जतलाते भी जाते थे : होस्नी मुबारक मुर्दाबाद और आवाज दे रही है अवाम,उखाड़ फेंको बर्बर निज़ाम

जब कोई व्यक्ति प्यार में गहरे ढंग से डूब जाता है तो वह पुराना इंसान नहीं रहता बल्कि बेहतर इंसान बन जाता
है. क्रांति भी प्यार जैसी ही क्रिया है.इसमें जो कोई भी हिस्सा लेता है वह बखूबी जनता है कि पहले वो कैसा इंसान था और आन्दोलन ने उसको किस तरह प्रभावित किया और बदल डाला.क्रांति के बाद वही व्यक्ति अलग ढंग से सोचने और बर्ताव करने लगता है.जैसे हम मिस्रवासी ही हैं जो अपने दैनिक जीवन में अब ज्यादा गरिमा महसूस करने लगे हैं और हमें अब कोई भी बात भयाक्रांत नहीं करती.

मैंने उन्हें बताया कि उनकी उपलब्धियों पर मुझे फख्र है और अब दमन के शासन का अंत आसन्न है.अब हमें
कोई भय नहीं – न तो गोलियों का और न ही हथकड़ियों का, क्योंकि हमारी सामूहिक ताकत के मुकाबले उनकी खूंखार ताकत अब कहीं टिकने वाली नहीं.उनके पास दमन के वास्ते दुनिया के सबसे नृशंस हथियार हैं पर हमारे पास उनसे ज्यादा शक्तिशाली साधन हैं – हमारी हिम्मत और आजादी का संकल्प.होस्नी मुबारक तमाम निरंकुश तानाशाहों की तरह अपने अंत से पहले के स्वाभाविक चरणों से गुजर रहा है—पहले अकड़ भरा इनकार,उसके बाद नेस्तनाबूद कर देने की धौंसपट्टी और फिर विरोधियों को शांत करने के लिए मामूली सी रियायतों की घोषणा.अब उसके लिए एक ही रास्ता खुला है—अपना सूटकेस पैक करे और हवाई अड्डे का रास्ता नापे.यह सुनकर आंदोलन कारी एकदम जोश से भर गए और समवेत स्वर में बोल पड़े – हमने जिस आंदोलन की शुरुआत की है उसको तार्किक परिणति तक पहुंचाए बगैर हम चैन की सांस लेने वाले नहीं.

आन्दोलनकारी खूब पक्के इरादों वाले नौजवान हैं.उनके सामने बोलते वक्त जब भी मैंने मुबारक के लिये
राष्ट्रपति संबोधन का इस्तेमाल किया,वे गुस्से से उखड़ पड़े( ये लेख लिखे जाते समय तक होस्नी
मुबारक ने सत्ता छोड़ी नहीं थी). उसके लिए वे सिर्फ मुबारक या अधिक से अधिक पूर्व राष्ट्रपति
जैसा संबोधन सुनना चाहते हैं.

मेरे साथ एक मित्र स्पैनिश पत्रकार भी हैं जिन्होंने पूर्वी यूरोप के कई देशों के स्वतंत्रता संग्रामों को निकट
से देखा है.वे बताते हैं कि मेरा इतने सालों का तजुर्बा यही बतलाता है कि जब इतना बड़ा जनसमूह
जानमाल की परवाह किये बिना इतने पक्के इरादों के साथ सड़कों पर उमड़ पड़े तो सत्ता परिवर्तन
सिर्फ थोड़े वक्त की बात रह जाता है.

मिस्री जनता आखिर इतने संकल्प के साथ कैसी खड़ी हो गयी ? इस सवाल का जवाब इस शासन के अपने
चरित्र में छुपा हुआ है.दमनकारी शासन लोगों से उनकी आजादी छीन सकता है पर बदले में उन्हें जीवन के सर्व
सुलभ साधन आसानी से मुहैय्या करा सकता है.जनतांत्रिक शासन भले ही गरीबी का निराकरण न कर पाए पर
जनता को आजादी और गरिमा तो प्रदान कर ही सकता है.मिस्री शासन ने लोगों को सभी चीजों से वंचित कर दिया

– यहाँ तक कि आजादी और गरिमा से भी—दैनिक जरुरत की वस्तुओं की उपलब्धता की तो बात ही मत करिये.यहाँ इकठ्ठा हुए हजारों हजार मिस्री लोग उन्हीं वंचितों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

हैरत में डाल देने वाली सच्चाई है कि ट्यूनीशिया से बरसों पहले मिस्र में राजनैतिक सुधारों की मांग उठाई
जाने लगी थी पर ट्यूनीशिया में जो कुछ घटित हुआ उसने मिस्र में एक उत्प्रेरक का काम किया.अब
लोगों के सामने यह उदाहरण था कि कोई तानाशाह चाहे कितनी बड़ी फ़ौज खड़ी कर ले जनता के
व्यापक विद्रोह के सामने वह फ़ौज तानाशाह की जीवन भर की गारंटी नहीं दे सकती.इस देश में तो
स्थितियाँ ट्यूनीशिया से भी ज्यादा बदतर हैं – हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी के बोझ तले दम
तोड़ रहा है और यहाँ की क्रांति का अनुसरण कर सकते हैं—वैसे ही इश्तिहार काहिरा की सड़कों पर भी देखने को मिल रहे हैं.अब तो आजादी की मांग की यह आवाज यमन तक जा पहुंची है.

यहाँ के सत्ता प्रतिष्ठान को अब यह समझ आने लगा है कि उनके तमाम इंतज़ाम प्रदर्शनों को रोकने में
कामयाब नहीं हो पा रहे हैं.फेसबुक के जरिये प्रदर्शन आयोजित करने की बात सही है क्योंकि इसकी प्रामाणिकता और निष्पक्षता पर लोगों का भरोसा है.जब सरकार ने इनपर पाबंदी लगाने की कोशिश की तो जनता ज्यादा सयानी साबित हुई.सुरक्षा बलों की दिनों दिन बढती जा रही हिंसा के बावजूद जनता बगावत के लिए उठ खड़ी हुई है.इतिहास गवाह है कि एक हद लाँघ जाने के बाद सामान्य पुलिसकर्मी भी अपने लोगों पर फायरिंग करने का हुक्म मानने से इनकार कर देता है.

मैंने चोरी छिपे बाहर लाया गया एक गोपनीय सरकारी फरमान देखा है जिसमें मिस्री टेलीविजन के अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि वे खोज खोज कर वैसी औरतों की तस्वीरें दिखाएँ जो भयभीत हों और अपनी सुरक्षा के लिए तानाशाही उस से भी ज्यादा समय से कुंडली मार कर बैठी हुई है.हम पडोसी देश
मुबारक की गुहार लगाती हों.

पुलिस को ठेंगा दिखा कर बगावत का रास्ता पकड़ने वाले अधिकांश लोग सामान्य देशवासी हैं.एक नौजवान
आन्दोलनकारी ने अपना अनुभव मुझे सुनाया कि परसों वह पुलिस की मार से बच कर भागते हुए देर रात एक
रिहायशी इलाके में घुस गया और एक दरवाजे के सामने खड़े होकर घंटी बजाने लगा.साठ साल के एक बुजुर्ग ने जब दरवाजा खोला तो जाहिर है उनके चेहरे पर बदहवासी का भाव था.नौजवान ने पुलिस से छिपने के लिए अंदर आने की इजाजत माँगी,बुजुर्ग ने उसका आइडेंटीटी कार्ड देखा फिर अंदर आने के लिए कहा.फिर अपनी युवा बेटी को सोते से जगाया और उसके लिए कुछ खाने को बनाने को कहा.रात में ही तीनों ने साथ मिल कर चाय पी और इस तरह से घुलमिल कर बातें करने लगे जैसे बरसों की पहचान हो.सुबह जब पुलिस का आतंक थोडा कम हुआ तो उस बुजुर्ग ने नौजवान को मुख्य सड़क तक साथ जाकर पहुँचाया,एक टैक्सी रोकी और उसको गंतव्य तक जाने के लिए पैसे देने लगे.नौजवान ने पैसे लेने से मना कर दिया और उनको शुक्रिया अदा किया.इसपर बुजुर्ग ने कहा कि शुक्रिया तो बेटे मुझे तुम्हारा अदा करना चाहिए कि अपने जान की बाजी लगा कर तुमलोग मुझ जैसे तमाम मिस्र वासियों को इन आततायियों से बचा रहे हो.

हमें यह अनूठा अवसर मिला है जब हम इतिहास के बारे में पढ़ ही नहीं रहे हैं बल्कि इतिहास के अंदर साँस भी ले रहे हैं. कुछ इसी तरह मिस्री बसंत का आगाज हुआ.


क्रांति का यह पल बेहद रोमांचक और अनुभवों को समृद्ध करने वाला था.लाखों लोग अपने अपने घरों से निकल कर सड़कों पर आ गए थे,उनके जोश को देख कर मैं भी उनमें शामिल हो गया.मैंने पूरे 18 दिन उनके साथ बिताये और इस अद्भुत तजुर्बे ने मुझे कई नयी चीजें लिखने की प्रेरणा दी-- अब मुझमें कई नयी कहानियाँ लिखने की स्फूर्ति है.मुझे आदमीयत पर भरोसा मजबूत करने वाले अनेक पलों की नायाब सौगात मिली-- यह मेरे जीवन का शानदार दौर रहा.और यह सिर्फ मेरा ही अनुभव नहीं है बल्कि अनेक लेखक और कलाकार इन अनुभूतियों को मेरे साथ साझा करते हैं.
     मुझे बहुत अरसे से यह लगता रहा है कि मिस्र में क्रांति अवश्यम्भावी और आसन्न है और अपने पिछले कई इंटरव्यू   में जब मैंने ये बातें कहीं तो कई लोगों को इसका यकीन नहीं हुआ.2007 में न्यूयार्क टाइम्स  को दिए एक इंटरव्यू में मैंने साफ़ साफ़ कहा था कि मिस्र एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा हुआ है--इस अचानक होने वाले बदलाव से हम सब चौंक जायेंगे.
     इस क्रांति का सर्वश्रेष्ठ पक्ष ये रहा कि विभिन्न तबके के लोगों की अद्भुत एकता और अखंडता दिखाई दी... धैर्य और सहिष्णुता ...हर किसी ने आपको सहज भाव से स्वीकार किया.चाहे बुरकानशीं स्त्री हो या आधुनिक युवती...अमीर हो या गरीब...मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम...सब ने.एक उदाहरण देता हूँ: तहरीर चौक पर सेना खाने पीने का सामान नहीं ले जाने दे रही थी पर हमें मालूम था कि इसमें कस्र अल नील  कि तरफ एक गेट है जहाँ से खाने का सामान यहाँ तक लाया जा सकता है.चौक पर तैनात सैनिक भी हमें दिखा दिखा कर निर्देश दे रहे थे कि खाना अंदर लाना है तो उस गेट की ओर जाओ.
       मैंने यहाँ डटे हुए ऐसे लोगों को देखा जो देखने से फटेहाल गरीब लगते  थे पर हमारे लिए ऐसे लोग भी अपने साथ झोलियों में भर के तीन चार सौ संद्विच लेकर आये--उनकी शक्ल सूरत और पहनावा देख कर जाहिर था कि इसकी कीमत चुकाने में उन्हें जरुर मुश्किल आई होगी.कई साधन संपन्न लोग भी थे जो क्रांति को अपना पूरा समर्थन दे रहे थे,पर उन तंग हाल लोगों का जज्बा देख कर प्रेरणादायक हैरानी होती है. हमें वहाँ बैठे हुए पता ही नहीं लग पाता था कि आन्दोलनकारियों को खाने पीने का समान कैसे और कहाँ से मिल जाता है.
    वहाँ मौजूद सभी लोग बेहद अनुशासित थे -- संघर्ष करने वालों से लेकर उनको रोकने वाले सुरक्षा कर्मियों तक.जब मुबारक सरकार ने गुंडों मवालियों को ट्रकों में भर कर वहाँ मारकाट करने के लिए छुट्टा छोड़ दिया तो तो आन्दोलन कर्मी नौजवानों ने सामूहिक तौर पर उनका जम कर मुकाबला किया-- इनमें सभी व्यवसायों के लोग शामिल थे.थोड़े समय में सब कुछ व्यवस्थित हो गया.वहाँ सिगरेट पीना माना है-- मुझे जब इसकी  तलब लगी तो मैंने एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली पर तभी वहाँ एकत्र समूह में से किसी की आवाज आई कि जनाब,आप यहाँ सिगरेट नहीं पी सकते...एक रात का वाकया है,करीब दो बजे थे.मैंने सिगरेट का एक खाली पाकेट वहीँ फेंक दिया,तभी एक सत्तर साल की बुजुर्ग महिला  मेरे पास आयी और मुझसे बोली: मैं तुम्हारी बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ बेटे और मैंने तुम्हारी एक एक किताब पढ़ी हुई है...पर ये सिगरेट का डिब्बा यहाँ से उठा लो , ऐसा करना ठीक नहीं...हम यहाँ मिलजुल कर एक नए मिस्र का निर्माण करने के लिए इकठ्ठा हुए हैं..इस नए मुल्क को खूब सुन्दर और साफ़ सुथरा होना चाहिए....इसी लिए मैं बार बार ये कहता हूँ की तहरीर चौक पर जो सब कुछ घटा वह अविस्मरणीय था...एक सुखद स्वप्न के साकार होने जैसा.


Thursday, March 3, 2011

खिलखिलाने दो उसे सरे बाजार

मौज लेना एक चालू मुहावरा है। फिर उसके साइड इफ़ेक्ट पर बात करना ? ली गई मौज को मस्ती मान लिया जाए तो मौज बहार आ जाए। मौज का यथार्थ थोड़ा ज्यादा शालीन और कम औपचारिक होते हुए दोस्तानेपन का सबब बने।
हमारे घर के पास रहने वाला वह लड़का जो बोलते हुए हकलाता था, अल्टी नाम था उसका, सब उससे मौज लेते थे। वह भी कम न था। हकला-हकला कर गाली देते हुए पीछे भागता और मौज लेने को आतुर भीड़ से दूसरे की भी मौज लिवाने में कोई कसर न छोड़ता। हालांकि, नहीं जानता था कि उसके हुनर में ही वह ताकत है जो हर एक को मौज लेने का अवसर देती है और माहौल को कुछ ज्यादा आत्मीय बनाती है। डॉक्टर 'होगया’ भी ऐसे ही हुनर का मास्टर, उपन्यास 'फाँस’ का एक पात्र है। प्रस्तुत है उपन्यास का एक छोटा-सा अंश।


         रात के अंधेरे को परे धकेल, खुल चुकी सुबह का वह ऐसा समय था, जब अलसाई हुई दुनिया के मुँह पर पानी की छपाक मारता वह बाजार, जो कस्बे को शहर में तब्दील करने की ओर था, आँखें धो चुका था। रेहड़ी वाले मण्डी से उठाए माल को झल्लियों और माल ढुलाई के लिए लगी गाड़ियों पर लदवा रहे थे। ज्यादातर सब्जी वाले लद चुकी रेहड़ियों को धकेलते हुए अपने-अपने ठिकानों को निकल चुके थे। ठिकानों पर पहुँच चुकी रेहड़ी वाले रेहडियों पर सब्जियां सजाने लगे थे। फल वालों का माल अभी झल्लियों में झूलता चला आ रहा था। टमाटर वाला पेटियों को खोल-खोलकर एक-एक टमाटर उठाता, झाड़न से साफ करता और बहुत ही तल्लीनता से मीनार दर मीनार चढ़ाता जा रहा था। गारे मिट्टी की दीवारों को चिनने वाला कोई कारीगर देखता तो जरूर ही ठिठ्कता। ईर्ष्या करना भी चाहता तो टमाटर के रंग और उनकी चमकती सतह पर टिकी निगाहें उसे उल्लास से भर देती। वह फल वाला, जो पहले सब्जी का काम करता था और अब पफल बेचने लगा था, अपनी पूर्व आदत के साथ अब भी तड़के ही माल उठाने मण्डी पहुँच जाता। उन फल वालों की तरह उसने अपनी आदत बदली नहीं थी, सब्जी वालों के निकल जाने के बाद जो मण्डी पहुँचते और इस तरह देर से मण्डी पहुँचने में अपनी शान समझते। टमाटर वाले की तरह उसके हाथ भी पफलों को झाड़ने-पोंछने में व्यस्त थे। सँतरों को झाड़न से पोंछ-पोंछकर रेहड़ी पर सजाते हुए, चमकते छिलों को देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो रहा था। केले के गुच्छे अभी रेहड़ी के किनारे ही रखे थे, बहुत जल्द ही वह उन्हें धागे से लटका देने वाला था। रेहड़ी पर उठायी हुई छप्पर में लगाई गईं खपच्चियाँ उसने पहले से ही केलों के लिए निर्धरित की हुई थी। सेब की पेटी को उसने अभी तोड़ा नहीं था।
आलू-प्याज वाले ने आलू और प्याज के बोरों का खुला मुँह अपनी ओर को रख, उन्हें ज्यों का त्यों बिछाकर अपना ठिया जमा लिया था। गंदे नाले का वह किनारा, लम्बे समय से टूटी पुलिया के कारण जो पैदल चलने वालों के लिए कुछ खतरनाक हो गया था, उसका ठिया था। बगल में ही खड़ी रेहड़ी से एक कप चाय और साथ में बेकरी का बना पंखा, जो मुँह में जाते ही किरच-किरच करता, उसने खरीदा और सुबह का नाश्ता करने लगा। पुलिया के ठीक सामने, दूसरी ओर, सड़क के किनारे वाली कपड़ों की दुकान का मालिक शॅटर को मत्था टेकने के बाद ताला खोल चुका था और बादलों की गड़-गड़ाहट-सी आवाज करते शॅटर को उसने ऊपर उठा दिया था। दुकान के अन्दर धूप-बत्ती कर और गल्ले को हाथ जोड़ने की कार्रवाई अभी उसे जल्द से निपटानी थी और ग्राहक के इंतजार में मुस्तैदी से बैठ जाना था। बगल की दुकान में बर्तन वाला धूप-बत्ती करने के बाद आतुरता से बोहनी हो जाने का इंतजार कर रहा था। दूसरे दुकानदार भी व्याकुलता से बोहनी का ही इंतजार कर रहे थे।

- बिना हील-हुज्जत वाला ही ग्राहक आए---हे भगवान!

केले वाला मन ही मन कल सुबह-सुबह ही आ गए उस ग्राहक की याद को अपने मन से मिटा नहीं पाया था, जिसने बोहनी के वक्त ही तू-तू, मैं-मैं कर देने को मजबूर कर दिया था और जिसका असर दिन भर की बिक्री पर पड़ा, ऐसा वह माने बैठा था।

- हे भगवान कहीं आज पिफर ऐसा न हो जाए!

लेकिन डॉक्टर 'होगया" की उपस्थिति में उस ग्राहक की स्मृतियां उसके भीतर बची रहने वाली नहीं थी। अपने क्लीनिक की ओर आते डॉक्टर को देख वह बीते दिन के वाकये को एकदम से भूल चुका था और जोर से चिल्लाया -        

- होगया--- होगया---।

डॉक्टर उसी की ओर देख रहा है, यह ताड़ते ही उसने भरसक कोशिश की चुप होने की लेकिन एक क्षण को उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया। शब्द मुँह से छूट चुके थे। डॉक्टर की निगाह से वह अपने को छुपाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहा। क्लीनिक में भी अभी ठीक से न पहँुचा डॉक्टर 'होगया’ केले वाले की हरकत से बुरी तरह चिढ़ गया था। उसके मुँह से दना-दन गालियां फूटने लगी। केले वाला आगे-आगे और डॉक्टर उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। डॉक्टर की पकड़ में आने से बचने के लिए केले वाला बित्ती भर चुका था। अब डॉक्टर होगया के लिए उसको पकड़ना आसान नहीं था। कहाँ पचास पार कर चुका डॉक्टर और कहाँ उसकी आधी उमर का वह उदंड। डॉक्टर की साँस उखड़ने लगी थी। वह एक ही जगह पर खड़े होकर उखड़ती साँसों से गालियां बकने लगा,

- ओ तेरी माँ का हो गया---साले हरामी तेरा हो गया।

डॉक्टर को रुका हुआ देख, बचकर भाग रहा वह केले वाला भी रुक गया और वहीं से खड़े होकर डॉक्टर को चिढ़ाने लगा। दूर से खड़े होकर अपने को चिढ़ाते उस हरामी का क्या करे ?, डॉक्टर की समझ नहीं आ रहा था। तभी कोई दूसरा चिल्लाया,

- होगयाह्णह्णह्ण--- होगयाह्णह्णह्ण---।

डॉक्टर नीचे झुका हुआ था और पाँव से चप्पल निकाल रहा था। परेशान था कि कैसे निपटे इन हरामियों से। निगाहें उसी पर टिकी थी, जो अब भी दूर से खड़ा होकर तरह-तरह की हरकत करते हुए चिढ़ाये जा रहा था। डॉक्टर अचानक उस ओर को घूमा जिधर से दूसरी आवाज आई थी और बिना देखे ही उसने चप्पल उस ओर को दे मारी। चप्पल सीधे उस झल्ली वाले के लगी, जो सिर पर रखी केलों की झल्ली को नीचे उतार रहा था। चारों ओर से हँसी का फव्वारा छूट गया। सड़क के आर पार के रेहड़ी वालों के साथ-साथ, बिना ग्राहकों के खाली बैठे दुकानदार भी खिल-खिलाने लगे और शुरु हो चुके तमाशे में शामिल हो गए। मुश्किलों से ही जिनके चेहरे पर हँसी की कोई रेखा खिंचती हो, ऐसे लोगों के लिए भी मुस्कराये बिना चुप रहना संभव न रहा। झल्ली वाला, चप्पल जिसके बेवजह पड़ी थी, खुद भी खिल-खिला रहा था,

-क्या ---'होगया’--- डॉक्टर साहिब --- यूं ही बिना देखे ही हमको बजा दिये ?

बेवजह ही एक निर्दोष को चप्पल मार देने पर डॉक्टर को अपनी गलती पर माफी माँगनी चाहिए, ऐसा सोचने वाले अजनबियों के लिए तो पूरा मामला ही पेचिदा हो गया कि डॉक्टर तो उल्टा झल्ली वाले को भी गालियां सुना रहा है।

- हरामखोर अभी देखता  तुझे --- साले तेरे नहीं होता है क्या ?
  
झल्ली वाला और भी खिल-खिलाकर हँसने लगा। उसके इस तरह खिल-खिलाने से खिसियाया हुआ डॉक्टर पिफर से गालियां बकने लगा। ''होगया--- होगया" की आवाजें अब हर तरफ से आ रही थीं। डॉक्टर कभी एक ओर को मुँह कर गाली देता तो कभी दूसरी ओर। उछल-उछल कर गाली देते हुए उसकी साँस फूलने लगी थी। चप्पल उठाने के लिए झल्ली वाले की ओर दौड़ ही रहा था कि तभी न जाने कहाँ से तुफैल दौड़ता हुआ आया और 'होगया" चिल्लाते हुए उसने चप्पल पर जोर से किक जमा दी। चप्पल हवा में उछलकर उस ओर जा गिरी जिधर बित्ती भरकर दौड़ने वाला, खड़ा होकर सुस्ता रहा था। वह आश्वस्त था कि अब तो डॉक्टर उसकी बजाए तुफैल से निपटना चाहेगा। तुफैल की हरकत पर डॉक्टर पूरी तरह से झल्ला भी गया,

- अबे रुक साले कटवे के--- तेरी माँ का होगा मादरचो---। हरामखोर अभी तो तू भी पूरी तरह से नी हुआ---।

दूसरे पाँव की चप्पल उतार कर उसने उस ओर उछाली, जिधर तुफैल दौड़ रहा था। पिद्दी-सा तुफैल तेजी से दौड़कर सड़क के पार निकल चुका था। अबकी बार केले की ठेली के बगल में बैठा वह कुत्ता चपेट में था, खुजलीदार शरीर पर उड़ चुके बालों की वजह से जो मरगिल्ला-सा दिखायी देता था। चप्पल उसके न जाने किस अंग पर लगी कि जोर से किकियाने लगा। कुत्ते की कॉय-कॉय और डॉक्टर की गालियों से पूरा माहौल ही तमाशे में बदल गया। चिढ़ाने वालों के पीछे-पीछे, सड़क के इधर-उधर दौड़ता डॉक्टर हँसी का पात्र हो चुका था। आस-पास के दुकानदार भी दुकानों से बाहर निकल, दौड़-दौड़ कर गाली देते डॉक्टर से मजा ले रहे थे। जानते थे कि डॉक्टर को कुछ भी कहना, खुद को भी गालियों का शिकार बना लेना है तो भी वे ऐसा करने से बाज न आ रहे थे। हँसी की उठती स्वर लहरियां नौकरों को भी दुकान में आए ग्राहकों से निबटने की बजाय कुछ देर लुत्फ उठा लेने की छूट दे रही थी। महावर क्लाथ हाऊस का सेल्समैन, जिसे क्षण भर भी कभी खाली बैठने की छूट न होती, गज में पँफसाये कपड़े को हाथ में पकड़े हुए, गद्दी से बाहर को लटक कर तमाशे का मजा लूटने लगा। सामने बैठी ग्राहक के द्वारा चुन लिये गए कपड़े को उसने पूरा नाप लिया था और काटकर बस अलग ही करना था। ग्राहक भी हँसे बिना न रह पा रहा थी।



Tuesday, March 1, 2011

बीबीसी रेडियो


शमशेर सिंह बिष्ट

गिरदा के अचानक जाने के बाद सुबह-शाम स्थानीय से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श का जो सिलसिला टेलीफोन पर बात करने का होता था, वह खत्म हो गया। कई दिनों तक आदतन हाथ टेलीफोन में 05942-23XX30  पर चला जाता था। तब झटके से ख्याल आता कि अब तो इस टेलीफोन पर गिरदा से कभी बात हो ही नहीं पायेगी।

ऐसा ही एक जर्बदस्त धक्का तब लगा, जब मालूम पड़ा कि 27 मार्च, 11 बीबीसी बन्द होने वाला है। तब फिर सुबह 6.30 बजे आदतन हाथ ट्रांजिस्टर पर बीबीसी लगाने के लिये जायेगा, लेकिन फिर एकाएक ध्यान आ जायेगा कि इस रेडियो से तो बीबीसी ने हमेशा के लिए बोलना बंद कर दिया है। गिरदा व बीबीसी में अन्तर इतना ही है कि गिरदा ने अचानक बोलना बंद किया, जबकि बीबीसी बाकायदा घोषणा कर अपनी आवाज बंद करने जा रहा है। गिरदा के साथ जहाँ 35 वर्ष का सम्बन्ध रहा, वहीं बीबीसी के साथ 50 वर्ष पुराना।

तब आठवीं कक्षा में अल्मोड़ा इण्टर कालेज में बढ़ता था। सुबह प्रार्थना के बाद प्रधानाचार्य नीलाम्बर जोशी का वक्तव्य होता था, जिसमें वे दुनिया भर की घटनाओं का विवरण भी देते थे। हमें आश्चर्य होता कि अखबार तो दिल्ली से दूसरे दिन पहुँचते हैं, जोशी जी कैसे एक दिन पहले ही खबरें बता देते हैं। मैंने हिम्मत करके एक दिन जोशी जी से पूछ ही लिया, तो उन्होंने बताया कि वे नियमित रूप से बीबीसी सुनते हैं। उन दिनों हमारे मोहल्ले, पल्टन बाजार में सिर्फ बचीलाल जी के पास ही रेडियो था, जिसे वे सुबह आठ बजे आकाशवाणी के समाचारों के लिए ही चालू करते थे।

मोहल्ले के सभी इच्छुक लोगों के साथ मैं भी वहाँ होता। जब नवीं कक्षा में गया तो ‘काकू’ के नाम से जाने जाने वाले एक सीआईडी इन्सपेक्टर रिटायर होकर हमारे मोहल्ले में आ गये। उनके पास एक रेडियो था, जिसके पीछे एक बड़ी बैट्री लगती थी। वे शाम को बीबीसी सुनते थे। मैं नियमित रूप से उनके घर जाने लगा। जब बड़े भाई साहब की शादी हुई तब उन्हें दहेज में एक ट्रांजिस्टर मिला। मुझे सुबह-शाम, दोनों समय बीबीसी सुनने की सुविधा मिल गई। बी.ए. में मैं सबसे पीछे की बेंच पर बैठता था।

एक दिन राजनीति विज्ञान की कक्षा में पूछा गया कि भारत में किन-किन राज्यों में विधान परिषद है ? सिर्फ मेरा ही जवाब सही निकला, क्योंकि दो दिन पहले ही बीबीसी से मालूम हुआ था कि पं. बंगाल में विधान परिषद समाप्त कर दी गई है। सन् 1972 में अल्मोड़ा छात्र संघ के चुनाव की जनरल गैदरिंग के दिन मुझे भाषण करना था। मेरे शुभचिन्तक मुझे बता रहे थे कि तुम्हें यह कहना चाहिए, वह कहना चाहिये। लेकिन उन्हीं दिनों भारत के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली थी। मैंने बीबीसी से प्राप्त जानकारी के आधार पर अपना पूरा भाषण इसी पर केन्द्रित कर दिया। नतीजन मुझे 92 प्रतिशत मत मिले थे। लोगों को उन दिनों यह भ्रम होने लगा था कि मै बहुत अध्ययन करता हूँ।

मुझे हर विषय का ज्ञान है। लेकिन बात सिर्फ इतनी थी कि मैं बीबीसी का नियमित श्रोता था। बीबीसी के नियमित श्रोता, गिरदा के रूम पार्टनर रहे राजा के अंतिम दिनों का एक दृश्य याद आता है। तब वह जंगल के बीच एक अंधेरे कमरे में रहता था। नीम अंधेरे में एक दिया टिमटिमाता होता और बीबीसी की आवाज उस जंगल को गुंजायमान करती। जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके कमरे से सबसे मूल्यवान चीज रेडियो ही निकला था। एक बार जब बीबीसी की टीम कुमाऊँ दौरे पर आई थी। एक दिन राजा ने कहीं से मुझे टेलीफोन किया कि वह टीम अल्मोड़ा पहुँच गई है। रामदत्त त्रिपाठी किसी पान की दुकान से बोल रहे हैं। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि वे अल्मोड़ा में नहीं, नैनीताल की किसी पान की दुकान से बोल रहे हैं। राजा को बहुत निराशा हुई।

हमारा जनान्दोलनों का एक साथी बसन्त खनी आजकल धौलादेवी के अपने गाँव में बकरी चराता है। वहाँ बिजली नही है। फिर भी वह नियमित रूप से बीबीसी सुनता है। उसकी जानकारी विश्वविद्यालय के किसी प्रवक्ता से अधिक है। अल्मोड़ा में ऐसे सैकड़ों श्रोता मिल जायेंगे। बीबीसी सिर्फ समाचार ही नही देता बल्कि व्यक्तित्व का भी निर्माण करता है। जब कभी नैनीताल गया, तो राजीव के बड़े भाई ‘मालिक साब’ से बीबीसी के समाचार मालूम हो जाते हैं। बाएँ से खड़े हुए--गोपाल भनोट, पुरुषोत्तम लाल पाहवा, रत्नाकर भारतीय, मार्क टली, गौरीशंकर जोशी, आले हसन. बाएँ से बैठे हुए--हिमांशु कुमार, सुषमा दत्ता, ओंकारनाथ श्रीवास्तव बीबीसी को लोग क्यों पंसद करते है ? सच यह है कि बीबीसी प्रामाणिकता के साथ और तत्काल खबरें प्रसारित करता है। कभी दबाव या पक्षपात उसके प्रसारण में नहीं देखा गया। उसका विश्लेषण अद्भुत है।

रेडियों की सुई घुमाते हुए बीबीसी ढूँढने में कठिनाई नही होती, क्योंकि उसके वाचकों का समाचार प्रस्तुत करने का तरीका निराला है। मेरे कई वामपंथी मित्र एक पूँजीवादी देश का प्रसारण होने के कारण बीबीसी पर वाम विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता। भारत के माओवादियो की खबरें जितनी निष्पक्षता से बीबीसी देता है, उतना भारत का कोई प्रचार माध्यम नहीं देता। आज तो भारत का लगभग पूरा मीडिया कारपोरेट क्षेत्र का गुलाम बन गया है। ऐसे में बीबीसी का बंद होना निश्चित रूप से लोकतंत्र पर आघात है, क्योंकि लोकतंत्र में सबसे बड़ा लाभ ही बोलने की आजादी है। बीबीसी विज्ञापनों का गुलाम नहीं है, भले ही उसे ब्रिटिश सरकार के विदेश विभाग की मदद मिलती हो। इसी के चलते उसकी विश्वसनीयता बनी हुई थी। ब्रिटेन को तो लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, तो क्यों फिर ब्रिटेन सरकार बीबीसी का प्रसारण बंद कर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर रेडियों पर कुठाराघात कर रही है ? जबकि आज भी भारत में करोड़ों लोग बीबीसी सुनते हैं।

भारत के आकाशवाणी से यह आशा कभी नहीं की जा सकती। निजी क्षेत्र में भी कोई ऐसा संस्थान नहीं है जो इसकी पूर्ति कर सके। आज 13 फरवरी को फैज अहमद फैज की 100वीं जयन्ती मनाई जा रही है। आकाशवाणी से सुबह के समाचार में एक शब्द भी फैज के बारे में नहीं था। लेकिन बीबीसी ने फैज के बारे में ही नहीं बताया, बल्कि उनकी पुत्री का इन्टरव्यू भी श्रोताओ को सुनवाया। 12 फरवरी को मिश्र में सम्पन्न रक्तक्रांति के दिन प्रतिदिन का हाल और सारा राजनैतिक विश्लेषण बीबीसी ने प्रस्तुत किया। लगता है, बीबीसी पर भी कारपोरेट सेक्टर का दबाव बढ़ता जा रहा है। भूमण्डलीकरण के इस युग में लोकतंत्र से बड़ा बाजार हो गया है।

भारत भी एक बड़ा बाजार है। इसलिये आशंका है कि रेडियो का खात्मा कहीं मोबाइल का बाजार को बढ़ाने के लिये तो नही किया जा रहा है, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट पर तो बीबीसी चलता रहेगा। परन्तु रेडियो से बीबीसी का जाना एक युग का अन्त होगा। मेरे पास आज जो रेडियो है, वह बीबीसी के लिये ही रखा है। तब मेरा रेडियो से नाता ही समाप्त हो जायेगा।


नैनीताल समाचार से साभार

Friday, February 25, 2011



 1964 में काहिरा में जनमी फातिमा नउत (
Fatima Naut) मिस्र की आधुनिक पीढ़ी की लोकप्रिय कवि हैं.पेशे से वे प्रशिक्षित वास्तुकार हैं और साहित्य रचना के साथ साथ अपना पेशेगत काम भी करती हैं.उनकी अपनी कविताओं के संकलन के अलावा समालोचना और विश्व की अन्य भाषाओँ से अनूदित रचनाओं की करीब एक दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.अंग्रेजी और चीनी के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.एक अनियत कालीन साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी करती हैं.
जब मैं देवी बनूँगी
                                                         -- फातिमा नउत

मैं उतार डालूंगी दुनिया के फटे पुराने बदरंग कपड़े
झाड़पोंछ करुँगी नक़्शे का
और इतिहास की पांडुलिपियाँ उठा कर फेंक दूँगी कूड़ेदान में
साथ में अक्षांश और देशांतर की रेखाएं
और देशों को बाँटने वाली सीमारेखाएं भी
पर्वत झरने
और सोना,पेट्रोल,जलवायु और बादल..सब कुछ...
इन सबको मैं फिर से न्यायोचित ढंग से वितरित करुँगी
मैं पंखों से बने अपने झाड़न को हौले हौले
फिराउंगी अस्त व्यस्त थके चेहरों के ऊपर
जिससे सफ़ेद,साँवले और पीले पड़े हुए चेहरे
पिघल कर खुबानी के रंग के निखर जाएँ.
मैं देसी बोलियों से बीन बीन कर
एकत्र करुँगी भाषाएँ और कहावतें
और इनको अपनी कटोरी में रख के पिघला दूँगी
जिस से निर्मित कर सकूँ श्वेत धवल एक अदद शब्दकोश
प्रेत छायाओं और क्रोधपूर्ण शब्दों से जो होगा पूर्णतया मुक्त.

अपने राज सिंहासन पर बैठने से पहले
मैं हिलाडुला कर ठीक करुँगी सूरज की दिशा
साथ साथ भूमध्य रेखा को भी खिसकाउंगी
वर्षा तंत्र को भी संगत और दुरुस्त करुँगी.
ये सब कर के जब मैं काटूँगी फीता
तो मेरे तमाम भक्त करतल ध्वनि से स्वागत करेंगे
स्पार्टकस, गोर्की, गुएवारा भी...

ख़ुशी से झूमते हुए मैं हकलाती हुई घोषणा करुँगी :
अब से सृष्टि के वास्तुशिल्प का काम मेरा है
तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो इस से पहले
मुझे पलभर को पीछे मुड़ कर देखना होगा धरती पर
और दुनिया को वापिस उस ढब से ही सजाना धजाना होगा
जैसे हुआ करती थी कभी ये पहले.

यह अनुवाद मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस कविता के अंग्रेजी अनुवाद: कीस निजलांद, पर आधारित है
प्रस्तुति:  यादवेन्द्र  

Sunday, February 20, 2011

यह कल्पनालोक नहीं

सृजन के संकट की कहानियां


लंबे समय बाद सुरेश उनियाल का नया कहानी संग्रह आया है। संग्रह में 'क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" सहित कुल 13 कहानियां तथा 15 छोटी कहानियां हैं। ये कहानियां सुरेश उनियाल की कथायात्रा में एक नए मोड़ से परिचित कराती हैं। इनमें सुरेश की मूल प्रवृत्ति फैंटेसी ने बोध-कथा के साथ मिलकर एक नई शक्ल अख्तियार की है।
पिछले संग्रहों - विशेषकर 'यह कल्पनालोक नहीं" - में कल्पनाशीलता ठोस तार्किकता की जमीन पर खड़ी होकर विज्ञान कथाओं की शक्ल में सामने आई है। यहां यह कल्पनाशीलता मनुष्य के अस्तित्व और मानवीयता की पड़ताल करती दिखाई पड़ती है। संग्रह की शीर्षक कहानी  "क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" इस बात को पुष्ट करती है। आदित्य सहगल कल्पनाशील बुद्धिजीवी है जो दिल के ऊपर दिमाग को तरजीह देता है। एक रोज वह इस प्रद्गन से दो-चार होता है कि यदि मनुष्यों के मस्तिष्क की रेटिंग की जाए तो कैसा रहे।
''अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की मुलाकात हो तो पांच अरब ब्यक्तियों से एक-एक बार मिलने में ही नौ हज़ार पांच सौ तेरह वर्ष लग जाएंगे।" इस तरह के गणित से गुजरते हुए आदित्य सहगल अंतत: इस नतीजे पर पहुंचता है कि ''यह रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की जगह अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।" यह कहानी किसी प्रचलित रूप में कहीं से भी कहानी नहीं लगती। एक शांत जिरह, खुद से उलझते कुछ सवालों को सुलझाने का सिलसिला और एक सहज बातचीत।।। जैसे आप किसी टी हाउस में कुछ बहस कर रहे हैं और फिर एक खूबसूरत फैसले पर पहुंचते हैं कि ''अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।"
सृजनशील व्यक्तित्व कभी न कभी रचनात्मकता के संकट से टकराते जरूर हैं। फेलिनी की फिल्म "एट एंड हाफ" तो सृजनात्मकता के संकट से टकराने की संभवत: श्रेष्ठतम प्रस्तुति है। सुरेश उनियाल के इस कहानी संग्रह की बहुत सी कहानियां इस प्रद्गन से टकराती दिखलाई पड़ती हैं। "कहानी की खोज में लेखक" और ''भागे हुए नायक से एक संवाद" ऐसी ही कहानियां हैं। कहानी से उसका नायक गायब हो जाता है। वह लेखक से जिरह करता है कि ''जिस तरह से मैं बोलता हूं, उस तरह से तू लिख।"" लेखक नहीं मानता, कहानी पूरी नहीं होती। फेंटेसी सुरेश की कहानियों का मूलतव है और अपने से पूर्व तथा बाद की तमाम पीढ़ियों के लेखको से अलग वह अभी तक  फेंटैसी को साथ लिये चल रहे हैं। उनसे पहले और उनके बाद की पीढ़ियों ने फेंटेसी का थोड़ा-बहुत इस्तेमाल किया और छोड़ दिया। सुरेश फेंटेसी के विभिन्न स्वरूपों से प्रयोग करने में नहीं हिचकते। यह वैसा ही है जैसे कोई कलाकार किसी खास माध्यम की विभिन्न संरचनाओं में ताउम्र डूबा रहता है। लेकिन सुरेश संरचनावादी भी नहीं हैं। कलावादी तो खैर कहीं से भी नहीं हैं।
वे बहुत साधारण तरीके से कहानी कहते हैं। लगभग बतकही के अंदाज में। भाषा की जादूगरी से भरसक बचने की कोशिश करते हुए और संवादों की नाटकीयता को एकदम खारिज करते हुए।
इस सादेपन में एक तरफ तो वह 'खोह" जैसा असाधारण दार्शनिक आख्यान रच सके हैं और दूसरी तरफ 'उसके हाथ की रेखाएं" जैसा अद्भुत बोर्खेज़ियन गल्प साध सके हैं। इन दो कहानियां पर खास तौर से बात की जानी चाहिए।
'खोह" मूलत: एक फेंटैसी है जो किसी खोह के रास्ते गुम हो चुके पिता की तलाद्गा में निकले पुत्र के यात्रा वृतांत की शक्ल में कही गई है। जॉन हिल्टन की 'लॉस्ट होराइज़न" और हेनरी राइडर हैगार्ड की 'शी" जैसी अति स्मरणीय रचनाओं की याद दिलाती 'खोह" ठेठ भारतीय संदर्भों में कही गई जीवन और मृत्यु के शाश्वत द्वंद्व की कथा है। पिता जिस स्थान पर है, वहां पुत्र एक लामा के सहयोग से मार्ग खोजकर पहुंचता है और विस्मित होता है कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। स्वर्ग मरने के बाद नहीं मिलता बल्कि वह जैविक क्षरण को रोकने की विशुद्ध पर्यावरणीय युक्ति है जहां शरीर की मरती और पैदा होती कोशिकाओं का संतुलन बना हुआ है। वहां भोग है किंतु जन्म नहीं है। जन्म नहीं है इसलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का उपक्रम भी नहीं है।
'' यहां जनसंख्या न घटती है और न बढ़ती है। यहां न मौत होती है और न जन्म। यहां जो लोग हैं, हमेशा से वहीं थे और हमेशा वही रहेंगे। कभी कभी सदियों में हम-तुम जैसे एक-दो लोग आते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता।"
'रोज वही-वही लोग, वही-वही शक्लें, वही-वही जगहें, एक जैसी दिनचर्या, मुझे तो कल्पना से ही ऊब होने लगी थी।"
'ऊब क्यों होगी? यही तो जिंदगी है। यहां हम जिंदगी को पूरी तरह से जीते है। इसी सुख की कल्पना तो तुम लोग अपने लोक में करते हो।"
मेरे मुंह से निकल गया, 'नहीं, यह जिंदगी नहीं, मौत है।"
"उसके हाथ की रेखाएं" एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। यहां एक ऐसे पात्र से साक्षात्कार होता है जो लोगों के हाथ की रेखाएं गायब कर देता है। यह काफ्काई  खोज नहीं है बल्कि एक सहज प्रेक्षण है कि कहानी का नायक एक रोज पाता है कि उसके हाथ की एक रेखा गायब हो गई है। फिर दफ्तर के चपरासी की मदद से एक ऐसे आदमी के पास पहुंचता है जो हाथ की रेखाएं ठीक किया करता है।
अकसर साहित्यिक बातचीत में एक बात का जिक्र बड़े अफसोस के साथ किया जाता है कि हिंदी में कोई बोर्खेज़ जैसा लेखक नहीं है। बोर्खेज़ तो सदियों के अंतराल में कभी कहीं हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानियों का जो प्रभाव है, इस तरह का प्रभाव देखना हो तो यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए।
'किताब" को विज्ञान कथाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। मुझे याद है कि मैंने जब 'यह कल्पनालोक नहीं" पढ़ा था तो मुझे यह बात खटकी थी कि संग्रह में सिर्फ तीन ही विज्ञान कथाएं थीं। इस संग्रह में मात्र एक है। शायद किसी लेखक से यह पूछना उचित नहीं होगा कि अमुक किस्म की रचना क्यों नहीं की और अमुक किस्म की रचना ही क्यों की!
हालांकि इस संग्रह की काफी कहानियों में विज्ञान कथाओं के दोनों तव - कल्पनाशीलता और घ्ानघ्ाोर तार्किकता - पूरी तरह से मौजूद हैं, अब यह अलग बात है कि लेखक ने इन दोनों चीजों से कुछ दूसरी तरह की कहानियां रची हैं।
कुछ कहानियां जीवन के बहुत साधारण अनुभवों को लेकर भी लिखी गई हैं। 'बिल्ली का बच्चा", 'बड़े बाबू", 'सॉरी अंकल" और 'चेन" ऐसी ही कहानियां हैं। 'बड़े बाबू" और 'चेन" दांम्पत्य जीवन की कश-म-कश से निकली कहानियां हैं। 'इनसान का ज़हर" एक आधुनिक बोधकथा के रूप में पढ़ी जा सकती है जहां नदी में स्नान करते साधु द्वारा डूबते बिच्छू को बचाने की दंद्गाभरी कथा को बिच्छू के दृष्टिकोण से दुबारा कहा गया है।
'एक नए किस्से का जन्म" पहाड़ के परिवेद्गा पर बनते और टूटते किस्सों के भीतर छिपी विडंबना का मिथकीय बयान है।
इसके अतिरिक्त इस संग्रह में 15 छोटी कहानियां हैं, जिन पर अलग से चर्चा की आवद्गयकता नहीं है। हां, 'विश्व की अंतिम लघुकथा" लिख सकने का साहस हम जैसे पाठकों को एक साथ विस्मित, आनंदित और आतंकित कर देता है। सृष्टि के आरंभ पर दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं से लेकर आधुनिक विचारकों ने कुछ न कुछ लिखा है। सृष्टि के अंत का दृद्गय एक वैज्ञानिक संभावना बनकर सुदूर भविष्य की अनिश्चितता में डालकर हम आश्वस्त हो जाते हैं। उस अंत पर कलम उठाने को एक बड़ा लेखकीय दुस्साहस की कहा जाएगा। सुरेश उनियाल के यहां यह साहस हैं।

                                                            
 
                                                                                                          - नवीन कुमार नैथानी
क्या सोचने लगे ।।।
प्रकाशक : भावना प्रका्शन, दिल्ली-91
मूल्य : 200 रुपए
पृष्ठ संख्या : 144

Tuesday, February 15, 2011

अन्तर्विरोध: कभी कभार



                                  

 ''कभी-कभार"" के ''नियमित"" पाठक जानते होगें कि यह कालम कवि-आलोचक अशोक बाजपेयी लिखते हैं। यह कॉलम का अन्तर्विरोध हो सकता है कि शीर्षक के बावजूद नियमित है। पर रचनाकार और उसके अन्तर्विरोधों के सवाल पर की गई बातचीत में शायद कोई अन्तर्विरोध न हो, क्योंकि वह तो एक सैद्धाान्तिकी को रखने की युक्ति भी दिखाई दे रहा है- अन्तर्विरोध सृजनात्मक समृद्धि और उपलब्धि का आधार हो सकते हैं। जो बिल्कुल सीधा-सपाट है, जिसमें कोई अन्तर्विरोध है ही नहीं वह कुछ सच्चा और टिकाऊ रच सकता है इस पर संदेह किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लेखक भी सबकी तरह अंतत: मिट्टी के माधव ही होते है, देवता या दिव्यपुरुष नहीं। देवता और दिव्यपुरुष नहीं, साधारण और अन्तर्विरोधों से भरे लोग ही साहित्य रचते हैं। बेहद मासूमियत से भरी इस टिप्पणी से असहमति का मतलब यह कतई नहीं कि देश-दुनिया की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ समकालीन ज्वलन्त मसलों पर एक सचेत रचनाकार की टिप्पणियों से भरे कॉलम का मखौल उड़ाया जा रहा है।
19 दिसम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित यह टिप्पणी अनायास याद नहीं आ रही है जिसमें रचना के मूल्यंाकन पर बात की गई है- अन्तर्विरोध। टिप्पणी स्पष्ट तौर पर रचना और रचनाकार के आदर्शों को जुदा-जुदा मान उसे सहज स्वीकार्य मानने की वकालत करती है। मार्फत अपने एक मित्र के कवि अशोक बाजपेयी ने रचना के मूल्यांकन में रचनाकार के निजी जीवन के सवाल को उठाया और जवाब में तर्क देते हुए भौतिक जीवन में इतिहास हो चुके रचनाकारों के मूल्यांकन के लिए अपनायी जा रही पद्धति का हवाला दिया है। यानी एक ऐसा तर्क जो आगे किसी भी तरह की बात को रखने की छूट देने की बजाय मुंह को खुलने से पहले ही दबोच लेना चाहता है। एक जनतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने का उपकर्म इस अलग होता है क्या ? या खुद के मनोगत आग्रहों की पुष्टि के लिए कहना पड़ रहा है, ''आधुनिकों समकालीनों के बारे में तो ऐसे आचरण की जानकारी हमें हो सकती है, पर प्राचीनों के बारे में ऐसी जानकारी बहुत कम और अधिकतर अप्रमाणिक होगी।"  यहां प्रश्न है कि क्या जब हम प्राचीनों के बारे में बिना किसी जानकारी के रचनाओं का मूल्यांकन करने के लिए मजबूर है तो आधुनिकों समकालीनों के बारे में अन्य किसी जानकारी के प्रति आंखें बंद किए रहे ? और आधुनिकों समकालीनों को सिर्फ और सिर्फ झूठे आदर्शों पर ज्ञान बघ्ाारते हुए सुनते, देखते और पढ़ते रहें ? या, फिर समकालीन यथार्थ का सही मूल्यांकन करते हुए आदर्शों से स्वंय मुंह मोड़ लेने वाले रचनाकार के द्वारा रचना में किसी भी आदर्श को गढ़ने की उसकी मंशाओं के मंतव्य तक पहुँचने की पद्धति को अपनाए ? हाल ही में प्राकशित हुए चिनुचा अचीबी के अनुदित उपन्यास  ''खोया हुआ चैन"" को पढ़ते हुए याद आ गई उपरोक्त टिप्पणी इस लिए अनायास नहीं कही जा सकती, क्यों कि आदर्शों और नैतिकताओं पर दृढ़ उपन्यास के पात्र के जीवन में आ गई फिसलन को समझने की कोशिश करना चाहता रहा। उपरोक्त उपन्यास नैतिकता और आदर्श के लिए पुरजोर तरह से हिमायत और व्यवहार में उसे लागू करने के लिए प्रतिबद्ध पात्र के भ्रष्ट और अनैतिकता की हद गिर जाने का आख्यान है। समझना चाहता हूँ कि आदर्शों के टूटने के साथ ही व्यवाहारिक गड़बड़ियां एक मनुष्य को यूंही घेर लेती होंगी या फिर उसे सिर्फ एक उपन्यास की कथा भर ही माना जाए। कवि आलोचक अशोक बाजपेयी की टिप्पणी तो उपन्यास को समझने का द्वार नहीं खोल रही है।    

- विजय गौड़

Monday, February 14, 2011

I am a painter, I want to become an artist

 

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Saturday, February 12, 2011

मगर आवाज बुलन्द



समाचार हैं कि कर्ज के बोझ से दबे और खराब फसल की मार को झेल रहे एक गांव के 25 किसानों ने सामूहिक आत्महत्या की। नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद सुदूर अपने पहाड़ी गांव की ओर लौटते पांच नव युवक दुघर््ाटना के शिकार हुए- तीन ने घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया बाकी दो की हालत भी गम्भीर है। ये समाचार हैं जो अखबार और इलेक्टानिक्स माध्यम में कितने ही दोहरावों के साथ बार-बार सुनने पड़ रहे हैं। इनकी अनुगूंज बेहद निर्मम तरह से समाज को असंवेदनशील बनाती जा रही है। ऐसी ही न जाने कितनी ही खबरें हैं जिनको सुनते हुए सिर्फ उनके घटित होने की सूचनाएं सूचनाक्रांति के नाम पर तुरत-फुरत में पूरी दुनिया तक फैल जा रही हैं। उनके विस्तार करते जाने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि किसी एक घटना को पूरी तरह से जानने से पहले ही किसी प्रतियोगी परीक्षा का पर्चा हाथ में आ चुका होता है और सवालों के जवाब दे रहा विद्यार्थी चकर खा जाता है कि पूछे गए प्रश्न में वह किस घटना पर टिक लगाए जबकि सारे के सारे उत्तर उसे एक से ही दिख रहे हैं। किसी भी घटना को घटना भर रहने देने की चालाकियों वाला तंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हल्ला भी जो सबसे ज्यादा पीट रहा है, घटना के अगल-बगल की जगहों तक भी झांकने की छूट नहीं देना चाहता है। अगल-बगल की जिस जगह को छुपाने की कोशिशें जारी हैं, कविता उन जगहों का उदघाटित करने का एक कलात्मक औजार हैं- पाठक के सामने स्पेश क्रियेट करता कोई भी वाक्य इसीलिए एक सुन्दर कविता हो जाता है। यानी यथार्थ के विभ्रम को तोड़ने वाला औजार। लेकिन सिर्फ कला ही कला हो तो विभ्रम के और गहरे होने की आशंका अपने आप पैदा हो जाती है। नागार्जुन की कविताओं का कलात्मक सौन्दर्य उस परिभाषा के भीतर है जो पर्याप्त रूप से पाठक को किसी भी घटना के आर-पार देखने का मौका देता है। रोजमर्रा की घटती घटनाओं को काव्यात्मक रूप से दर्ज करते हुए वे ऐतिहासिक साक्ष्यों के रूप में भी एक धरोहर हैं। यह इतिफाक नहीं कि किसी एक कविता को उर्द्वत कर इस बात को पुष्ट किया जाये। नागार्जुन के यहां तो कविता का मतलब ही किसी समय विशेष के बीच उनकी उपस्थिति है। उनकी कविताओं में वे खबरें ही उस काव्य संवेदना का विस्तार करती हैं जिसे हल्ला मचाऊ तरह से लगातार दोहराते हुए यह सूचना तंत्र सामाजिक असंवेदनशीलता का ताना बाना बुन रहा है। नागार्जुन की कविताएं न सिर्फ हालात से परिचित कराती हैं बल्कि उनके पीछे के सत्य को भी उदघाटित करती हैं। उनका मनोविज्ञान कोई पीपली लाइव नहीं बल्कि बदलती सामाजिक संरचना के पर्तों को भी उतार रहा होता है। उनकी आवाज में आजादी के लगभग 60 साला गान को सुनना एक जरूरी चेतावनी भी है। वे उस तराने के उस छदृम का खिचड़ी विपल्व हैं जो एमरजेंसी के रू में प्रकट हुआ है। प्रतिरोध की बहुत बहुत कोशिशों के साथ-साथ वे वास्तविक जनतंत्र के लिए लगातार जारी एक सचेत प्रयास हैं। वे स्वंय कहते हैं-
अपने खेत में हल चला रहा हूं
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएं ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
नागार्जुन की रचनाओं पर बात करते हुए क्या समकालीन कविताओं का विश्लेषण किया जा सकता है ? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के वे सभी चित्र जिनकी उपस्थिति से नागार्जुन की कविता कुछ विशिष्ट हो जाती है, समकालीन कविता में भी मौजूद हैं पर उनका चौकाऊपन अखरने वाला है। भय, आशंका, खुशी और जीवन के दूसरे राग-रंग जिन्हें बहुत ही सतही तरह से बयान होते हुए अखबारी खबरों में भी देखा जा सकता है, समकालीन कविता के भी केन्द्र में हैं। बेशक समकालीन कविताओं ने अपने को अखबारूपन वाली असंवेदनशीलता से बचाय रखा है लेकिन एक शालीन किस्म की संवेदनशीलता उसे नीरस बना रही है। नागार्जुन की कविताओं ने उस शालीन किस्म की संवेदनशीलता से भरी चुप्पी से अपने को अलग रखा है। अमानवीयपन की मुखालफत में गुस्से का इजहार करते हुए भी समकालीन कविता का परिदुश्य कुछ गुडी-गुडी सा ही है। उनमें शिल्प की तराश एक दिखायी देती हुई कोशिश है। हाल ही में प्रकाशित परिकथा का युवा कविता विशेषांक हो चाहे जलसा नाम की पत्रिका का अंक। दोनों से ही गुजरने के बाद भी समकालीन यथार्थ का वैसा सम्पूर्ण चित्र जैसा नागार्जुन की कविताओं को पढ़ने के बाद दिखायी देने लगता है, दिखता नहीं। यथार्थ के प्रस्तुतिकरण में समकालीन कविताएं  दावा करती हुई है लेकिन उनकी विसंगति यही है कि बहुत ही सीमित और एकांगी हैं और एक रचनाकार की वैचारिक सीमाओं की चौहदी उनमें कुछ सीमित शब्दों की पुनरावृत्ति से दिखायी देने लगती है। झारखण्ड के जंगल, रेड कॉरिडोर, दास कैपिटल, नक्सल, जैसी शब्दावलियों से भरा उनका वैचारिक मुहावरा कुछ फेशनफरस्त सा नजर आता है। शिल्प के सौष्ठव में अतिश्य रूप्ा से सचेत स्थितियां उनमें देखी जा सकती हैं। नागार्जुन की कविताएं शिल्प और किसी मुहावरें की मोहताज दिखयी नहीं देती बल्कि चौंकाऊ किस्म की कलाबाजी के खिलाफ वे मोर्चा बांधते हुए-

मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

अपने ही तरह का खिलंदडपन नागार्जुन की कविताओं में व्यंग्योक्ति पैदा करता है, उत्साह और उल्लास बिखेरता है। उनमें दर्ज होते सामान्य से सामान्य विवरण भी काव्ययुक्ति बन जाते हैं-
2,50 (दो पचास) पे मुर्गे ने दी बांग
दड़बे में हैं बंद
मगर आवाज बुलन्द।
जेल की सीखचों के पीछे से लिखी गई एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कविता में नेवले के बच्चे के कार्यकलाप और उससे इर्द-गिर्द जुटती गतिविधियों का आख्यान अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध का अनूठा ढंग है।  
उनकी कविता को उस माहभ्रम के दौर की कविता भी कहा जा सकता है जिसने आजादी के सपनों को बिखरते देखा है। आजादी के बिल्कुल शुरूआती दिनों की स्थितियों के प्रभाव, उनके भीतर जिस आशंका को व्यक्त करते रहे, वे अनायास नहीं थे। 'गीले पांक की दुनिया गयी है छोड़" 1948 में लिखी कविता है। बाढ़ का दृश्य और रात दिन के जल-प्रलय के बीच पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाले घ्ार में भी आशंकाओं के घटाटोप घिरते जाते हैं। पाल खोलकर दुनिया की खोज में निकलने वाले नाविकों की एतिहासिक गाथा में आकार लेता घाट का विस्तार पहले पहल बहुत सामान्य-सा विवरण नजर आता है लेकिन अगली ही पंक्तियों में वह उतने ही सीमित अर्थों में नहीं रहने पाता -
पांच दिन बीते हटने लग गयी बस बाढ़
लौटकर आ जाएगा फिर क्या वही आषाढ़ ?
मलाहों के प्रतीक बदलते अर्थों के साथ हैं और गीले पांक की दुनिया को छोड़ती नदी के घाट पर फिर से संभावनाओं की दुनिया आकार लेने लगती है।
इसी दौर के आस-पास की एक और कविता है, 'बरफ पड़ी है’, प्राकृतिक दृश्यों की प्रतीकात्मकता से भरी नागार्जुन की ये ऐसी कविताएं हैं जिनमें उस  नागार्जुन को बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है जो भविष्य में घटनाओं को बहुत सीधे-सीधे बयान करने की अपनी उस त्वरा के साथ है जिनमें गैर जरूरी से लगते वे विषय जो सुरूचिपूर्ण और सांस्कृतिक होना भी नहीं चाहते, कविता का हिस्सा होने लगते हैं। आम मध्यर्गीय मानसिकता की यदि पड़ताल करें तो पाएंगे कि समाजिक बुनावट कितनी जड़ताओं के साथ है। न सिर्फ दूसरे का बोलना हमें अखरता है बल्कि खुद के मनोभावों को भी पूरी तरह से व्यक्त करने की छूट हम देना चाहते हैं। मध्यवर्गीय मानसिकता में असहमति के मायने सार्वजनिक(कॉमन) किस्म की टिप्पणी में ही मौजूद रहते हैं। हमारा रचनाजगत ढेरों फड़फड़ाते पन्नों से भरी रचनाओं के साथ है। मूर्त रूप में व्यवाहर की बानगी इतनी उलझाऊ है कि कई बार किसी असहमत स्थिति पर बात करते हुए वैसे ही स्थितियों के रचियता की हामी पर हम मंद-मंद मुस्कराते हुए होते हैं। नागार्जुन इस तरह की चिरौरी से न सिर्फ बचना चाहते हैं बल्कि वास्तविक जनतंत्र की उन स्थितियों को देखना चाहते हैं जहां असहमति का उबाल भी उतनी तीव्रता के साथ प्रकट किया जा सके जितना प्रकटीकरण प्रेम की सघनता का किया जा सकता है। नागार्जुन की यह काव्यशैली ही उनकी जीवनशैली बनने लगती है-
खोलकर बन्धन, मिटाकर नियति के आलेख
लिया मैंने मुक्तिपथ को देख
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूं क्यों पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा है शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मै न इसको समझता निस्सार।
आजादी की छदृमताल का प्रस्फुटित यथार्थ एमरजेन्सी के रूप में प्रकट होते ही नागार्जुन को बहुत दबे-छुपे तरह से अपनी बात कहने की बजाय मुखर प्रतिरोध की भाषा की ओर बढ़ने के लिए मजबूर करने लगता है। परीस्थितियों को पूरी तरह से जान समझकर वे व्यंग्य करने लगते हैं- गूंगा रहोगे/गुड़ मिलेगा। कोई ऐसी घटना जिसे कविता के रूप में दर्ज किए जाने की कोशिश साहित्य के तय मानदण्डों की परीधि से बाहर दिखाई दे रही हो, नागार्जुन के यहां एक मुमल कविता के रूप में दिखाई देने लगती है। समाज के ढेरों विषयों से भरा उनका रचना संसार इसीलिए एक ऐसे पाठक को भी जिसका साहित्य से कोई गहरा वास्ता नहीं होता, अपने प्रभाव से घोर लेता है और साहित्यिक मानदण्डों की तय दुनिया में आई हलचल उसे ताजगी से भर देती है। अपने आस-पास के बहुत करीबी विषय को कविता में देख उसका मन साहित्य के प्रति एक अनुराग से भर उठता है। नागार्जुन के यहां विषय की विविधता न सिर्फ स्थितियों को व्याख्यायित करने में सहायक है बल्कि व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रख कर लिखी बहुत सी कविताएं राजनैतिक बयान के रूप में भी मौजूद हैं। नागार्जुन की कविताओं की चिह्नित की जाने वाली इस विशिष्टता को व्याख्यायित करने के लिए सामाजिक ढांचे की उस जटिलता को खंगालने की जरूरत है जो अपने सामंतीपन के बावजूद पूंजीवाद के लाभ हानी वाले सिद्वांतों के साथ है-जनतंत्र का भोंडापन इसी मानसिकता का मूर्त रूप है। असहमति के बावजूद गूंगा बना रहना इसकी प्रवृत्ति है। रचनाकारों के बीच इस प्रवृत्ति को सिर्फ और सिर्फ कला का पक्षधर होते हुए देखा जा सकता है। सामाजिक विश्लेषण में इसे उस मध्यवर्गीय मानसिकता के रूप में चिहि्नत किया जा सकता है जो विशिष्टताबोध की मानसिकता से घिरा रहता है। रचनाजगत में यह विशिष्टताबोध आलोचना के औजारों को शैलीगत रूप में ही पकड़ने की कोशिश करता है। साहित्य की वर्तमान दुनिया में, खास तौर पर हिन्दी साहित्य में, यह प्रवृत्ति बहुत तेजी के साथ फैलती जा रही है। बहुत मेधावी और हर क्षण सोचते विचारते रहने वाले रचनाकारों के शिल्पगत प्रयोगों के नाम पर रची जा रही ऐसी रचनाएं, बेशक उनका मंतव्य मनुष्यता के बचाव में ही हो, जनतंत्र की आधी-अधूरी स्थितियों को भी खत्म कर देने वाली ताकतों का समर्थन कर रही हैं। ऐसी रचनाओं के ढेरों पाठ उस मध्यवर्गीय व्यवाहार का ही रचनात्मक रूप्ा हैं जिसमें असहमति को दर्ज करने की बजाय भले-भले बने रहने की मानसिकता विस्तार पाती है। नागार्जुन के यहां स्थितियां बिल्कुल उलट हैं- मुंहफट होने की हद तक प्रतिरोध का उनका स्वर बहुत तीखा है। नागार्जुन का प्रतिरोध भी मूर्त है और उनका प्रेम भी मूर्त। वे जिस क्षण किसी कार्रवाई के समर्थन में उस वक्त उस कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाते व्यक्ति का यशगान करते हुए हैं लेकिन दूसरे ही क्षण यदि किसी विपरीत परिस्थिति में उसी व्यक्ति को पाते हैं तो तुरन्त लताड़ लगाते हुए हैं। समर्थन और विरोध की ऐसी किसी भी स्थिति में आमजन के जीवन के कष्ट उनकी प्राथमिताओं को तय करते हैं। समर्थन और विरोध करने का यह साहस बिना वास्तविक जनतंत्र का हिमायती हुए हासिल नहीं किया जा सकता है। नागार्जुन की कविताएं हर क्षण एक जनतांत्रिक दुनिया को रचने के कोशिश है। उनका मूल स्वर नागार्जुन की कविता पंक्तियों से ही व्यक्त किया जा सकता है-
बड़ा ही मादक होता है 'यथास्थिति" का शहद
बड़ी ही मीठी होती है 'गतानुगतिकता" की संजीवनी।
शताब्दी समारोह की उत्सवधर्मिता नागार्जुन की कविताओं में अटती नहीं है। वे ऐसे किसी भी जलसे के विरूद्ध स्थितियों के सहज-सामान्य अवस्था की पक्षधर है। किसी भी तरह की विशिष्टता पर वे व्यंग्य करती हुई है। यह अपने में अजीब बात है कि दूसरे अन्य रचनाकारों के शताब्दी समारोह के साथ नागार्जुन जन्मशती के बहाने हम उन पर भी बात कर रहे हैं। दरअसल नागार्जुन की कविताओं पर बात करते हुए जरूरी हो जाता है कि आस-पास की सामाजिक आर्थिक स्थिति और उन स्थितियों के बीच रचे जा रहे रचनात्मक साहित्य पर भी बात हो। तय है कि आस-पास की स्थिति इस कदर गैर जनतांत्रिक है कि न्याय के नाम पर भी आस्थाओं का पलड़ा भारी होता जा रहा है और फैसलों की कसौटी माहौल की नब्ज मात्र हो जा रही है। इस तरह के सवाल उठाना कि तथ्यों के आधार पर निर्णय हों और तब भी माहौल समान्य बना रहे, बेईमानी हो जा रहे हैं। ऐसी गैर जनतांत्रिक स्थितियों के बीच रचे जा रहे साहित्य पर यह जिम्मेदारी स्वत: हो जाती है कि उसका स्वर पहले से कुछ अधिक तीखा हो- सवाल है कि वह पहला स्वर क्या है ? यकीनन यदि वह नागार्जुन की स्वरलहरियों से उठती आंतरा है तो भाषा-शिल्प और बिम्बों, प्रतीकों के नये से नये प्रयोग प्रतिरोध को तीखा बनाने के औजार ही हो सकते हैं, रचनाकार की विशिष्टता को प्रदर्शित करने के यंत्र नहीं।        
 

   विजय गौड़

यह आलेख प्रिय मित्र अशोक कुमार पाण्डेय के आदेश पर लिखा गया था। युवा संवाद नाम की पत्रिका का वह अंक जिसका सम्पादन अशोक भाई ने किया, उसमें इस आलेख को भी शामिल किया गया ।


Saturday, February 5, 2011

जनता की मर्ज़ी

अबुल कासिम अल शब्बी १९१९ में जन्मे ट्यूनीशिया के मशहूर आधुनिक  कवि थे जिनको दुनिया की अन्य भाषाओँ में व्याप्त आधुनिक प्रवृत्तियों को अपने साहित्य में लेने  का श्रेय  दिया जाता है.अल्पायु में महज २५ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया ...जिस  जन आन्दोलन की आँधी में  वहां की सत्ता तिनके की तरह उड़ गयी उसमें वहां के युवा वर्ग ने शब्बी की कविताओं को खूब याद किया.यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कविताओं के कुछ नमूने: 
 
जनता की मर्ज़ी
 
यदि जनता समर्पित है जीवन के प्रति
तो भाग्य उनका बाल बाँका भी नहीं कर सकता
रात उसे ले  नहीं सकती अपने आगोश में
और जंजीरें एक झटके में
टूटनी ही टूटनी हैं.
 
 
जीवन के लिए प्यार
नहीं है जिसके दिल में
उड़ जाएगा हवा में कुहासे की मानिंद  
जीवन के उजाले से बेपरवाह रहने वालों के
ढूंढे कहीं मिलेंगे नहीं नामो निशान.
 
ऊपर वाले ने चुपके से
बतलाया मुझे ये सत्य
पहाड़ों पर बेताब होती रहीं आंधियाँ
घाटियों में और दरख्तों के नीचे भी:
"एक बार निर्बंध होकर  बह निकलने पर
रूकती नहीं मैं किसी के रोके
मंजिल तक पहुंचे बगैर...
जो कोई ठिठकता  है लाँघने से पहाड़
छोटे छोटे गड्ढों में
सड़ता रह जाता है जीवन भर."
 
 
 
 
 
 
 
 
दुनिया भर के दरिंदों से
 
अबे ओ अन्यायी दरिन्दे
अँधेरे को प्यार करने वाले
जीवन के दुश्मन...
मासूम लोगों के जख्मों का मज़ाक  मत उड़ा
तुम्हारी हथेलियाँ सनी हुई हैं
उनके खून से
तुम खंड खंड करते रहे हो
उनके जीवन का सौंदर्य
और बोते रहे हो दुखों के बीज
उनकी धरती पर...
ठहरो, बसंत के विस्तृत  आकाश में
चमकती रौशनी से मुगालते में मत आओ... 
देखो बढ़ा आ रहा है
काले गड़गड़ाते  बादलों के झुण्ड के साथ ही
अंधड़ों का सैलाब तुम्हारी ओर...
क्षितिज पर देखो
संभलना.. इस भभूके के अंदर
ढँकी होगी दहकती हुई आग.
अब तक हमारे लिए बोते रहे हो कांटे
लो अब काटो  तुम भी जख्मों की फसल 
तुमने कलम  किये जाने कितनों के सिर
और साथ में कुचले उम्मीदों के फूल
तुमने सींचे उनके खेत
लहू और आंसुओं से...
अब  यही रक्तिम नदी अपने साथ
बहा ले जाएगी तुम्हें
और ख़ाक हो जाओगे तुम जल कर
इसी धधकते तूफान में.
 
                                                                प्रस्तुति:  यादवेन्द्र ,           मो. 9411100294

Sunday, January 30, 2011

मेले ठेले से अलग


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जतिन दास को सुनने का सुख
                                
यदि किसी से पूछा जाये कि बाईस जनवरी सन दो हजार ग्यारह को जयपुर में कला एवम संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण घटना क्या थी तो वह तपाक से बोलेगा - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल! 23 जनवरी को प्रकाशित जयपुर के सारे अखबार भी यही कह रहे थे। शायद जयपुर के चित्रकारों को भी यह बात मालूम न हो ( यदि मालूम रहती तो वे वहॉ उपस्थित रहते ही?) कि लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जयपुर के सांस्कृतिक स्थल जवाहर कला केन्द्र ( जेकेके) के रंगायन सभागार में विश्वविख्यात कलाकार जतिन दास का ' ट्रेडिशन एण्ड कंटम्परेरी इंडियन आर्टस" पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है, वह भी हिन्दी में। खुद मुझे भी कहॉ मालूम थी यह बात। हॉ कुछ दिन पहले ( जब लिटरेचर फेस्टिवल का तामझाम शुरू न हुआ था) अखबारों में पढ़ा था कि जेकेके में  21 जनवरी से जतिनदास के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है और मैंने तय किया हुआ था कि रविवार दिनॉक 23 जनवरी को लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल को सुनकर वहीं से जेकेके निकल जाऊंगा परन्तु अपर्णा को नीयत ताड़ते देर न लगी और कहा कि मैं निकल जाऊंगा तो वह अकेली रह जायेगी। लिहाजा आज ही (22 जनवरी ) जवाहर कला केन्द्र चलो। तब हम लोग उस दिन शाम को जवाहर कला केन्द्र पहुंचे। लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से हमेशा खचाखच भरा रहने वाला जेकेके का कॉफी हाऊस उस दिन खाली खाली-सा था। हॉ जेकेके के रॅगायन सभागार के सामने कुछ लोग अवश्य खड़े थे। ऐसा तभी होता है जब वहॉ या तो नाटक होने वाला हो या कोई पुरानी क्लासिक फिल्म प्रदर्शित की जाने वाली हो। जिस बात की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पॉ कर दी जाती है। मैंने उत्सुकतापूर्ण नोटिसबोर्ड को देखा तो उससे भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण सूचना चस्पॉ थी " जतिन दास का व्याख्यान , शाम 5:30 पर रंगायन सभागार में'। जतिन दास की कलाकृतियों को देखना तथा दोनों अलग अलग अनुभव है। जतिन दास ही क्या, किसी भी कलाकार को सुनना दुर्लभ ही होता है। हम जगह पर कब्जा करने के उद्देश्य से सभागर में भागे तो यह देख कर दंग रह गये कि सभागार मुश्किल से बीस लोग थे और जतिनदास जी उपस्थित लोगों से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। हमें देखते बोले- आईये आईये बैठ जाईये। पता नहीं जतिन दास को क्या महसूस हो रहा हो पर इतने कम लोगों को देख कर मुझे बहुत कोफ़्त हो रही थी। जयपुर में आये दिन चित्रों की प्रदर्शनियॉ लगती है जिससे पता चलता है कि यह शहर छोटे बड़े चित्रकारों से अटा पड़ा होगा। तो क्या उन्हे इतने बड़े चित्रकार को सुनने का समय नहीं है? या जरूरत नहीं है? आयोजको ने सफाई भी दी कि उन्होने सारे अखबारों को सूचना दी थी पर किसी ने छापी नहीं थी ( क्योकि उस दिन सभी स्थानीय दैनिक, लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत कर रहे जावेद अख्तर और गुलजार आदि के खबरो से भरे पड़े थे) आयोजकों ने यह भी बताया कि उन्होने सारे स्कूल कालेजों कों सूचित कर दिया था क्योंकि यह व्याख्यान कला के विद्यार्थियों के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। पर जो कुछ भी हो, यह हमारा सौभाग्य था कि इतने कम लोगों के बावजूद जतिन दास ने अपना व्याख्यान गर्मजोशी से दिया।
जतिन दास के व्याख्यान में उनकी मुख्य चिन्ता कला के एकेडिमिक प्रशिक्षण को लेकर थी। उन्होने कहा कि कला सर्वव्यापी है जबकि विद्यालयों में इसे दायरे में बॉधना सिखाया जाता है और कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिये गैलरियों में जगह निर्धारित कर दिया गया है। प्रशिक्षुओं को लोक कलाओं की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है। शुरूआत में ही एक्र्रेलिक थमा दिया जाता है जबकि प्रारॅभ में उसे पारंपरिक कलाओं को पारंपरिक तरीके से करने का अभ्यास करना चाहिये। कला के विकास के लिये साधना आवश्यक है जबकि लोग विद्यालय से निकलने के बाद बाजार में घूमने लगतें हैं और अपने काम का मूल्यॉकन उसके दाम से करने लगतें हैं।उन्होने दुख व्यक्त किया कि कला की अन्य विधाओं जैसे साहित्य संगीत का मूल्यॉकन उसके सौन्दर्य शास्त्र के हिसाब से होता है जबकि चित्रकला में उसी चित्र को श्रेष्ठ मानने का रिवाज़ हो गया है जिसकी बोली ज्यादा लगती है। यह स्थिति कला के लिये अत्यन्त घातक है। उन्होने कहा कि आजकल कला के क्षेत्र विलगाव की भी घातक प्रवृत्ति देखी जा रही है । साहित्य के लोग चित्रकला की बात नहीं करतें हैं चित्रकार साहित्य नहीं पढ़ता। संगीत वालो की अपनी अलग दुनिया होती है। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। कई चित्रकार अच्छे कवि भी थे और कई कवि अच्छे चित्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रभ्पति भवन की जिसने आर्किटेक्टिंग की थी वह आर्किटेक्ट नहीं, बल्कि एक चित्रकार था। जतिन दास ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कटाक्ष करते हुये कहा कि मेले के हो हल्ले के बीच कवि अपना कविता पाठ करता है वह किसी काम का? जबकि कविता पाठ के लिये एक अलग माहौल चाहिये होता है। जतिन दास ने कला सीखने वालों को एक मूलमन्त्र बताया ' लर्न- अनलर्न-क्रियेट"। अर्थात पहले सीखो, फिर जितना सीखा है वह भूल जाओ और अपना सृजन करो।जतिन दास का व्याख्यान लगभग आधा घन्टा चला। उसके बाद उन्होने अपने चित्रों का स्लाईड शो किया तथा सभागार में उपस्थित लोगो से विनोदपूर्ण शैली में अनौपचारिक बातचीत भी करते रहे। स्लाईड शो के बीच उनके मुंह से वाह वाह निकल जा रहा था तो एक ने विनोदपूर्ण तरीके से उन्हे टोका तो उन्होने जवाब दिया कि जब बनाई थी तब उतनी अच्छी नहीं लग रही थी, अब लग रही है तो तारीफ कर रहा हूं। उन्होने एक और मजेदार बताई कि वे एक बढ़िया कुक भी हैं। एक कलाकर कोई भी काम करेगा तो पूरे मनोयोग से करेगा। इसलिये ज्यादातर कलाकार खाना भी बढ़िया बनातें हैं।
दुर्भाग्य से इतनी महत्वपूर्ण कलात्मक गतिविधि की रिपोर्टिगं के लिये आयोजको द्वारा निमिंत्रत किये जाने के बावजूद एक भी पत्रकार सभागार में उपस्थित न था। मुझे सन्तोष इस बात का है कि हाल ही में खरीदे गये अपने सस्ते साधरण हैडींकैम से मैंने व्याख्यान की शतप्रतिशत रिकार्डिगं कर ली है। यह ऐसी अमूल्य निधि है जिसे सबको बॉट कर खुशी होगी। इस हैडींकैम का भविष्य में इससे बेहतर इस्तेमाल शायद ही हो। पर धन्यवाद की पात्र तो पत्नी अपर्णा ही रहेगी जिसने उस दिन जवाहर कला केन्द्र जाने का हठ किया था।

-------- अरूण कुमार 'असफल, जयपुर,
09461202365] arunasafal@rediffmail.com

Wednesday, January 26, 2011

शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा

1982 में तेहरान में कला प्रेमी माता पिता के परिवार में जन्मे सालेह आरा वैसे  तो कृषि विज्ञान  पढ़े हुए हैं पर अंग्रेजी और फारसी में अपना ब्लॉग चलते हैं और फोटोग्राफी का शौक रखते हैं. अपने ब्लॉग पर उन्होंने 2005 में एक अफ़्रीकी बच्चे की ( नाम  नहीं ) लिखी और प्रशंसित कविता उद्धृत की है. इस मासूम कविता में ऊपर से देखने पर निर्दोष  सा कौतुक लग सकता है पर बहुतायद श्वेत समुदाय के बीच अपने शरीर के गहरे रंग के कारण अनेक स्तरों पर वंचना और प्रताड़ना  झेलने की पीड़ा की भरपूर उपस्थिति महसूस की जा सकती है.साथी पाठकों को इस दुर्लभ एहसास के साथ जोड़ने का लोभ मुझसे संवरण नहीं हुआ इसलिए कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :
 
शरीर का गाढ़ा रंग
 
जब मेरा जन्म हुआ तो काला था मैं
बड़ा होने पर भी काला ही रहा
धूप में घूमते हुए मैं काला बना रहा
डर से कांपते हुए भी काले रंग ने पीछा नहीं छोड़ा
बीमार हुआ तो भी काला
मरूँगा भी तो मैं काला ही मरूँगा.
और तुम गोरे लोग
जन्म के समय गुलाबी होते हो
बड़े होकर सफेदी लिए हुए
धूप में निकलते हो तो सुर्ख लाल
सर्दी में ठिठुर के पड़ जाते हो नीले
डर की थरथर पीला रंग डालती है तुम्हें
बीमार हुए तो रंग होने लगता है हरा
और जब मरने का समय आता है
तो तुम्हारे शरीर का रंग गहरा भूरा दिखने लगता है...
इस सब के बाद भी
तुम लोग
मुझे कहते हो
कि शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा. 
 
                                   प्रस्तुति : यादवेन्द्र 

Tuesday, January 4, 2011

आजाद परिंदों के सामने भारी भरकम वृक्षों की कतारें भी बे-मायना होती हुई दिखाई देती हैं

अब्बास कैरोस्तामी आधुनिक इरान के सबसे बड़े फ़िल्मकार माने जाते हैं...इरानी शासन की अजीबो गरीब और बेहद रुढ़िवादी सांप्रदायिक सोच के कारण अन्य इरानी फिल्मकारों की तरह उन्हें भी फिल्म निर्माण में गंभीर कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है.यही कारण हैं कि कई बार ऐसा लगने लगता है कि उनके लिए भविष्य में कोई फिल्म देश के अंदर बनाना मुश्किल होगा.उनका रचनात्मक मन ऐसे उदास मौकों पर  कला के अन्य पक्षों ...जैसे फोटोग्राफी , पेंटिंग और कविता की ओर मुखातिब होता है...यहाँ प्रस्तुत हैं अब्बास के चार फोटोग्राफ जिनमें चाहे घनघोर बरसात हो या भारी हिमपात...अपना सिर उठाये आजाद परिंदों के सामने भारी भरकम वृक्षों की कतारें भी बे-मायना होती हुई दिखाई देती हैं:     
  आगे जल्दी ही अब्बास की फिल्मों,पेंटिंग्स और कविता पर पोस्ट लगायी जाएगी.
 
                                                                                                                
 
चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र