Monday, May 16, 2016

गंवईपन की मिथकीय अवधारणाएं

                               
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, स्‍मृति में जिनके प्रभाव बहुत गहरे जाकर धंस जाते हैं और गाहे-बगाहे वे याद आती ही रहती हैं। खास तौर पर कोई भिन्‍न घटना] दृष्‍टा की पूर्व कल्‍पना में जिसका कोई चित्र न हो, स्‍मृति के किसी कोने में यदि कोई प्रतिछाया हो भी लेकिन वह पहले से भिन्‍न हो। ऐसी घटनाओं की विशेषता होती है कि वे भिन्‍न अनुभवों से समृद्ध कर रही होती हैं। किसी फिल्‍म को देख कर या, साहित्‍य के जरिये भी कितने ही भिन्‍न अनुभावों को संजोना हो जाता है। कहन के नये अंदाज, घटनाओं के सम्मिश्रण और विचार की बुनियाद पर खड़ी ऐसी रचनाएं, जो  हमारे भीतर दर्ज पूर्व अनुभवों के प्रभाव को ही बदल दें, अविस्‍मरणीय रूप से प्रभावकारी हो जाती हैं। इस वक्‍त ऐसी ही तीन कहानियों का जिक्र करना चाहता हूं जिनके गहरे प्रभाव में मैं तब ही से हूं जब उन्‍हें पहली-पहली बार क्रमश: अकार, हंस और कथादेश में पढ़ना हुआ था। ये कहानियां हमारे अनुभव संसार को इस कदर समृद्ध करती हैं कि तय कर पाना ही मुश्किल हो जाता है, आखिर कौन सी कहानी है जिसकी घटना का जो अभी स्‍मृतियों के कोठार से बाहर आ गई। अरूण कुमार असफल की कहानी 'पांच का सिक्‍का' का निनकू कई बार अपने 'टिमकी' से पेट के साथ याद आता है तो वहीं दूसरी ओर पेट में बना दिये गये छेद के जरिये लेट कर फारिग होता, अखिलेश की कहानी 'ग्रहण' का पात्र, राजकुमार भी हर वक्‍त गू से लिसड़ा हुआ ही दिखता रहता है। उदय प्रकाश की 'मोहन दास' के मोहन दास की मासूमियत भी ऐसी है कि 'धूसर सलेटी' रंग के  
सवाल है कि ये कहानियां हमारी रचनात्‍मक दुनिया की अन्‍य रचनाओं की तफसील से भिन्‍न हैं या, उनके बीच ही जगह पाती हैं ? साम्‍य है तो उनके आधार क्‍या हैं और भिन्‍नता है तो उसका स्‍तर क्‍या है एवं उसके संभावित कारण क्‍या हो सकते हैं ? कहानियों के प्रभाव नायकों की शारीरिक विकलांगता एवं भय के रंग में रंगे उनके चेहरों से गहरे हुए हैं या कथ्‍य की बारीकियों, बुनावट और वंचित वर्ग के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता जैसे कारकों में मौजूद हैं ?
डरावने वातावरण में हमेशा घिरे रहना होता है। तीनों ही कहानियों को कई बार पलटते हुए मैं इन कहानियों में आने वाले मोड़ों पर अटकता रहा  हूं। लम्‍बे समय तक मेरी स्‍मृतियों में बनी रहने वाली और बार बार परेशान करने वाली इनकी उपस्थिति के हवाले से कह सकता हूं कि ये तीनों ही कहानियां गहरे पाठकीय प्रभाव की कहानियां हैं, न सिर्फ इनका कथ्‍य बल्कि इनके पात्रों की त्रासदी भी चलचित्र का सा प्रभाव छोड़ती है । कई बार तो यह याद करना भी मुश्किल हो जाता है कि वह जो अपने दुश्‍मनों पर वार करके जंगल के भीतर भाग गया है, मोहन दास था कि राजकुमार । यह याद करना भी मुश्किल है कि चाऊमनी का स्‍वाद निनकू की जीभ पर अटका हुआ था या, राजकुमार ही मास्‍टरों की गालियां और बेंत खाने के बाद भी चाऊमनी के लिए मचल रहा था। मोहन दास के साथ छल करने वालों की टोली ही तो कहीं नाली के अंदर कीच निकाल कर पांच का सिक्‍का ढूंढने का उपक्रम करते निनकू को वहीं डुबोये रखना चाहती थी !! मुर्गी को बेचकर धन उपार्जन करने की योजना बताते राजकुमार के प्रति उमड़ता मां का प्रेम आंसूओं से भरा है या, ''मोर बाबू के धोंदा तो सच्‍चुल के खाली है'', कहते हुए लाड़ लड़ाती मां की आंखें गीली हो जाती हैं, यह याद करना ही मुश्किल है। भारतीय समाज की आधुनिकता में सेंध लगाती गंवईपन की ये कोमल अनुभूतियां उल्‍लेखनीय कहानियों को महतवपूर्ण बना रही हैं। सामाजिक यथार्थ और उसकी जटिलता को समेटते हुए, तीनों कहानियों का संयुक्‍त प्रभाव सम्‍पूर्ण हिन्‍दी कथा साहित्‍य के औप‍न्‍यासिक चित्र को प्रस्‍तुत करने वाला है और गंवई आधुनिक रंग में मिथकीय अवधारणाओं की सूत्रबद्धता के रास्‍ते आगे बढ़ता है। विचार की तरलता यहां गांधी से लेकर सशस्‍त्र इंक्‍लाब का स्‍वर साधती है। दलित संघर्ष के प्रति सकारात्‍मकता भी एक पक्ष के रूप में स्‍पष्‍ट होती है। लेकिन हिन्‍दी की दलित धारा की रचनाओं के बीच रखकर इन पर बात करना ठीक न होगा। क्‍योंकि विचार के स्‍तर पर दया, करूणा का गांधीयन दर्शन यहां कथ्‍य में ही नहीं, अपितु कहानी के नैरेटर के माध्‍यम से विवरणों को भी घटना का हिस्‍सा बना देने वाला है, जिसका कि दलित चेतना हमेशा से ही मुखर विरोध करती रही है। गांधी की साक्षात उपस्थिति में यह पकड़ना भी मुश्किल है कि क्‍या वह मोहन दास का परिवार ही है जिसके जिक्र के साथ गांधी के जीवन के प्रयोगों से भरी आत्‍मकथा से पाठक का परिचय कराया जाता है याकि विपद राम, जिसकी पत्‍नी का नाम कस्‍तूरी बाई है और कस्‍तूरबा गांधी की याद दिलाती है। पता नहीं रसूखदार लोग अपने मातहतों के सामने उदाहरण के तौर पर विपदराम का जिक्र करते हैं या मोहन दास का, और कहते रहते हैं, ''एक तुम हो महाहरामी और तुम्‍हारी बिरादरी में वह है--- गऊ सरीखा।'' खुद की चौधराहट को कायम करती उनकी आवाज दोनों में से न जाने किसको गांधी के नाम से पुकारते हुए हल्‍के व्‍यंग्‍य और हल्‍के आदर के साथ भरी रहती है। ताउम्र की वंचनाएं पात्रों को 'निनकू' ही बनाये रहती है। जीवन की व्‍यवहारिक हलचलों से भरी उम्र में 'राजकुमार' या  'मोहन दास'   सिर्फ नाम भर की संज्ञा ही हो पाते हैं। बल्कि बेरहम जमाना तो नाम को भी छीन लेना चाहता है और मोहन दास को मजबूर होकर कहना ही पड़ता है कि उसका नाम मोहन दास नहीं है।          
सवाल है कि ये कहानियां हमारी रचनात्‍मक दुनिया की अन्‍य रचनाओं की तफसील से भिन्‍न हैं या, उनके बीच ही जगह पाती हैं ? साम्‍य है तो उनके आधार क्‍या हैं और भिन्‍नता है तो उसका स्‍तर क्‍या है एवं उसके संभावित कारण क्‍या हो सकते हैं ? कहानियों के प्रभाव नायकों की शारीरिक विकलांगता एवं भय के रंग में रंगे उनके चेहरों से गहरे हुए हैं या कथ्‍य की बारीकियों, बुनावट और वंचित वर्ग के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता जैसे कारकों में मौजूद हैं ?
संवैधानिक सुधारों की मांग और उसके लिए ही ऊर्जा खपा देने की राष्‍ट्रीय समझ अस्मिता के प्रश्‍न को भी ठीक से व्‍याख्‍यायित कर सकने में अधूरी रही है और सवालों के घेरे में है। संविधान सभा के अध्‍यक्ष और राष्‍ट्रीयता को वर्षों के शोषण उत्‍पीड़न से उबारने की कल्‍पना करने वाले नायक अम्‍बेडकर इस सीमा को जानते थे हुए ही खुद उस संविधान की आलोचना करते हुए दिखते हैं जिसका प्रारूप उनकी अध्‍यक्षता में तैयार हुआ। ऐसे आधे अधूरे संविधान का परित्‍याग करने वालों में वे खुद को पहला मानने वाले हुए। वह भी तब, जबकि शासकीय नियंत्रणकारी भूमिका के अवसरों को दलित वर्ग के हक में करवा पाने में सक्षम होते हुए आरक्षण की एक सीमित स्थिति को हांसिल कर पाये थे। लेकिन देखेंगे कि गंवई आधुनिक स्थितियों ने प्रसफुटित हुई दलित चेतना को भी अम्‍बेडकारवाद के वास्‍तविक निहितार्थ तक पहुंचने में बाधा पहुंचाई और आज भी संषर्घ के मूर्त रूप को रख पाने में उस मध्‍यवर्गीय आधुनिकता से आगे जाती हुई नहीं है, जो पहले से ही गंवईपन में धंसी हुई थी। लोकतंत्र के नाम पर झूठ को फैलाते ठिकानों में ही वह भी शरण पाती हुई है। उम्‍मीद की किरणों का प्रस्‍फुटन मुश्किल हुआ है और दलित मुक्ति के संघर्ष का मूर्त चेहरा भी आकार लेता हुआ दिख नहीं रहा है।
जहां तक हिन्‍दी की अन्‍य कहानियों से साम्‍यता का सवाल है तो स्‍पष्‍ट है कि तीनों ही कहानियां अपने मिजाज में उनका हिस्‍सा बनती हैं। बल्कि लेखकीय कौशल के उच्‍चतम रूप में हिन्‍दी रचना संसार की गंवई आधुनिकता को ही आत्‍मसात करती हैं और गहरे उतरकर समाज का उत्‍खन्‍न करती हैं। पात्रों को जातिगत आधार पर पहचान कराते मोड़ पर खड़ी हिन्‍दी कहानियों की दलित धारा का प्रभाव उनके समसामयिक होने का बोध कराता है और रचनकारों की वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति आश्‍वस्‍त भी करता है। यद्यपि दलित चेतना के मूल स्‍वर के बारिक अंतर के मापदण्‍ड पर, जो दया, करूणा से परहेज करने वाले हैं, कहानियों की सीमा को चिह्नित भी किया जा सकता है। यह बिन्‍दु इसलिए भी चिह्नित किया जाना जरूरी है कि गंवई आधुनिकता की सतत् गति का यह विक्षेप उन नकारात्‍मक प्रवृत्तियों का प्रस्‍थान बिन्‍दु जैसा है जो भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता के लिए भूमिका तैयार कर दे रहा है। कथित विक्षेप का यह बिन्‍दु किन कारणों से जन्‍म लेता है और क्‍यों उसकी गति भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता का हिस्‍सा होने की ओर होती है, यह आलेख उन्‍हीं विक्षेपों को समझने की एक छोटी सी कोशिश है।
स्‍पष्‍ट है कि हमारे साहित्‍य में जगह पाते वंचित वर्ग के व्‍यक्ति की जातिगत पहचान करने में दलित विमर्श की मुख्‍य भूमिका है। हिन्‍दी में दलित धारा के उदय से पहले के पात्रों की जातिगत पहचान करना हमेशा ही मुश्किल है। आजादी से पूर्व के साहित्‍य में तो उसकी उपस्थिति दिख जाती है लेकिन आजादी के बाद जाति विषमता को खत्‍म करने के लिए जातिगत पहचान को न दर्शाने की मुहिम ने हिन्‍दी कहानियों में भी पात्रों को उनकी जातिगत पहचान के साथ दर्शाना उचित नहीं माना। यह बहस का विषय हो सकता है कि जाति विषमता को मिटाने में यह रास्‍ता कितना कारगर हुआ। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि आंदोलन की नेतृत्‍वकारी ताकतों को पहचानने में इस रास्‍ते ने जनता की को‍ई विशेष मद्द नहीं की बल्कि मेहनतकश आवाम के बीच भी एकजुटता की मुक्‍कमल स्थितियों तक पहुंचना संभव नहीं हुआ।  
जरूरी है कि पहले एक सरसरी निगाह उस गंवई आधुनिकता पर डाल ली जाए, जिसके प्रभाव का जिक्र हिन्‍दी के रचना संसार के साथ किया जा रहा है और जिसकी संगति में इन कहानियों को उल्‍लेखनीय माना जाना चाहिए । आलेख के लेखक ने पूर्व में भी हिन्‍दी रचना संसार में व्‍याप्‍त गंवई आधुनिक स्थितियों को देखने-समझने की कोशिश में पाया है कि आधुनिकता का गंवईपन भारतीय समाज की एक विशिष्‍ट प्रवृत्ति के तौर पर रहा है और यह भी कि उसके प्रभाव में ही रचनात्‍मक साहित्‍य की प्रवृत्तियां भी गंवई आधुनिक हुई हैं। एक बार पुन: दोहराना हो तो कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक गुलामी से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए भारतीय समाज में वंचित जन का पक्ष चुनती आधुनिकता और प्रगतिशीलता की लहर  के बावजूद गंवईपन को पूरी तरह से झटक कर दूर नहीं फेंक पायी स्थितियों से निर्मित समाज के प्रभाव हिन्‍दी के रचनात्‍मक संसार पर गहरे तक असरकारी रहे। यथार्थ के इस रूप को रख देने की प्रबल चेष्‍टाएं रचनाओं में हुई । आधुनिकता और पिछड़ापन का सामाजिक साथ हमारी रचनात्‍मक दुनिया का भी अक्‍श गढ़ता रहा। एक दूसरे के प्रति निर्मम होने की जरूरत हमें रचनाएं में भी नहीं हुई और नैतिकता एवं आदर्श के मानदण्‍डों से भरी विसंगति हमारी चारित्रिक विशेषता हुई । गंवई आधुनिक मानदण्‍डों पर खड़ी हमारी रचनात्‍मकता की विशेषता और गुण रहा कि उसने विस्‍तार लेती आधुनिकता को सीधे भिड़ंत से बचाते हुए गंवईपन के लिए दाएं-बाएं से रास्‍ता हमेशा बनाए रखा, जिसके कारण कई बार आधुनिकता का मार्ग बहुत तंग हुआ तो कई बार अपेक्षाकृत थोड़ा खुला नजर आता है।  
गंवई-आधुनिकता की उपरोक्‍त विशेषताएं, जो हिन्‍दी कहानियों में भी जगह पाती रही, संसाधनों पर नियंत्रणकारी शक्ति को ही महत्‍वपूर्ण और श्रैष्‍ठ स्‍वीकारती रही है। उसका पूरा जोर इसी बात पर रहा है कि जैसे भी हो सत्‍ता को हासिल किया जाए और उस पर काबीज रहने की हर जुगत अपनायी जाए । अनजाने में ही नहीं, जान बूझकर भी, व्‍यवहार की गलत समझ के साथ, जन संघर्षों के दमन और साथ ही सामंती अकड़ वाले गंवईपन में शासकीय टोली का हिस्‍सा होती वैचारिकता भी उससे मुक्‍त न रही-  विचार का उजाला ओढ़कर भी उसके ऊपर लगे निर्दोष हिंसा के दागों को मिटाया नहीं जा सकता है। बेहतर सामाजिक स्थिति की व्‍याप्ति के लिए वर्गीय अवधारणा के 'अधिनायकी' विचार को लागू करने के ठस बुद्धिवाद ने न तो तंत्र की वर्गीय फितरत को पूरी तरह से जानना उचित समझा न और नेतृत्‍व को वास्‍तविक वंचित के हाथों सौंपने की स्थितियों को सुनिश्चित होने दिया। मुनाफाखौर चाहत के सामंती मिजाज वाले पिछलग्‍गूपन को स्‍थानिक पूंजी मान लेने वाली गलत समझ भी गंवई आधुनिकता का पार्ट रही जिसके कारण वास्‍तविक मुक्तिदाता और तानशाहा को ही पहचानना मुश्किल हुआ। सामाजिक श्रैष्‍ठता को संसाधनों पर नियंत्रण के हिस्‍से के अनुपात में मान लिया गया। निश्चित तौर पर दुनिया के दूसरे भूगोल में अवस्थित समाजों के विश्‍लेषण पर यह बात सच होते हुए भी भारतीय सामाजिक चरित्र में सच साबित नहीं हो पाई और न आज भी पूरी तरह से कोई स्‍पष्‍ट मार्ग तलाशे हुए है। भारतीय समाज की विशेषता है कि यहां तो जातिगत आधार ही श्रेष्‍ठता की भूमिका रचता रहा है। आज तक के तमाम दुनियावी बदलावों के बावजूद भी वह अपना वजूद कायम किए है। उसका चरित्र चातुवर्णय ढांचे में ही संसाधनों पर काबिज हुआ है।
दिक्‍कत गंवई आधुनिकता में उभरती दलित चेतना के साथ भी रही। सामाजिक जटिलता को समझने, सुलझाने और यथास्थिति को बनाए रखने वाली नियंत्रक शक्तियों से निपटने में उसका रूप भी सीमित ही रहा और सीमित ही दिखाई पड़ता है। सामाजिक बदलाव के संघर्ष में वह भी लुकाव-छिपाव के साथ जैसे तैसे भी सत्‍ता पर काबीज हो जाने वाली राजनीति से संबंध बनाए रखना चाहती है। वर्षों की दासता से मुक्ति की छटपटाहट के लिए तरसती जनता को संघर्ष के लिए प्रेरित करने का कोई मूर्त उसकी प्राथमिकता में भी जगह पाता हुआ, दिखता नहीं। सत्‍ता के क्षेत्रों तक पहुंचने के रास्‍ते के लिए आरक्षण के सिद्धांत को ही सत्‍य मानने वाली समझ के साथ आर्थिक समृद्धि को हासिल कर लेने की चाहत ने उसे भी अपनी लपेट में लिया है। जैसे भी सत्‍ता तक पहुंच जाने की चाहत में ही उसने भी वर्षों की दासता से निजात पाने का रास्‍ता बनाया हुआ है। अवधारणा के स्‍तर पर दलित चेतना का यह रूप प्रत्‍यक्ष ब्रिटिश दौर में ही उभार लेने लगा था। समाज और साहित्‍य की दुनिया में उसके प्रभाव जाति सूचक शब्‍दों के विलोपिकरण के साथ रहे। सामाजिक बदलाव की यह भोली अदा किसी भी तरह के बुनियादी परिवर्तन की पक्षधर नहीं हो पाई। बल्कि नामों के साथ से विलुप्‍त कर दिए गए जाति सूचक शब्‍द की भी खोजी पहचान को भी रोकने में असमर्थ रही।
90 के आस पास साहित्‍य के भीतर उभार लेती दलित चेतना का एक हद तक रूप पूर्वधारणाओं से बदला हुआ नजर आया था। साहित्‍य के स्‍तर पर आधुनिकता की यह थोड़ी व्‍यवहारिक ब्‍यार थी/है। प्रताडि़त पात्र को जातिगत रूप में पहचानने की स्‍पष्‍ट कोशिशें इसके मूल में रही। लेकिन गंवई मिजाज में डूबी मानसिकता ने यहां भी अपना घेरा डाला है। परिणाम स्‍वरूप पात्रों को जाति नाम से पहचाचने की पहलकदमी भर को ही दलित चेतना मान लेने की गलती और दलित साहित्‍य आंदोलन मान लेने की जल्‍दबाज घोषणाएं भी सामने आईं। गंवई आधुनिकता की सीमाओं का परित्‍याग कर भ्रष्‍ट आधुनिकता की ओर बढ़ जाने की चाहत और अवसरों को लपक लेने की जल्‍दबाज कोशिशें यहां भी हावी रही। परिणामस्‍वरूप यह जानने की कोशिश बाधित हुई कि एक दलित व्‍यक्ति के भीतर भी सामाजिक श्रैष्‍ठता का पैमाना क्‍यों सत्‍ता पर पकड़ और आर्थिक मजबूती हासिल करके ही प्राप्‍त किया जाने वाला बना रहता है। जाति के दंश से सम्‍पूर्ण मुक्ति में आड़े रहे इस रास्‍ते की सीमाएं क्‍या हैं और उनसे कैसे निपटा जा सकता है, इस पर विचार करके गंवईपन को चिह्नित करने तक की भी कोई कोशिश नहीं हुई, उस पर निशाना साधना तो दूर की बात थी। संभवत: ऐसी किसी पहल के साथ ही आगे बढ़ती गतिविधियां समाज को अपनी लपेट में लेने की कोशिश करती भ्रष्‍ट आधुनिकता को वक्‍त रहते ही पहचानना आसान हो गया होता। लगातार मध्‍यवर्ग के भीतर किए जा रहे उसके अंकुरण और पौधे से वृक्ष तक की अवस्‍थाओं को वक्‍त रहते ही पहचानना आसान हुआ होता। लड़ाकू चेतना की बजाय प्रतिरोध का भ्रम रचति वह भ्रष्‍ट आधुनिकता जो अतिदावों के साथ हमारी रचनाओं का हिस्‍सा हो जाती है, उसको भी पहचानना तब मुश्किल न हुआ होता और दिनों, महीनों और सालों के हिसाब से विस्‍तार करते वंचित वर्ग के घेरे के बीच भी अवसरों की बारम्‍बारता को क्षैतिज विस्‍तार देने की बजाय विकास के ऊर्ध्‍वाधर स्‍तम्‍भ खड़े करने में मशगूल ढांचें के भीतर जन्‍म लेती शासकीय 'कुलीनता' को हासिल कर लेने वाली चेतना की चीरफाड़ भी संभव हो सकती थी।  
गंवई आधुनिकता की व्‍यापक रूप से पड़ताल की जाये तो देख सकते हैं कि मध्‍यवर्गीय विस्‍तार में अभिजात्‍यपन एक मूल्‍य की तरह स्‍वीकार्य होने के साथ है। यह अभिजात्‍यता पुरातन के प्रति मोह से उपजती है। बेशक वर्तमान को परखने और उसे बेहतर बनाने की चेतना इसका उद्देश्‍य होता हो, लेकिन बेहतरी के मानदण्‍ड यहां पुरातन नैतिक मूल्‍यों और उन्‍हीं आदर्शों में संतुष्‍टी पाना चाहते है जिनके वजह से विद्रोह की स्थितियां जन्‍म लिये होती है। विद्रोह के दौरान नये मूल्‍यों और आदर्शों की चिन्‍ताओं से बेखबर रहना परिस्थितिजन्‍य भी हो सकता है। स्‍पष्‍ट है कि सामाजिक चेतना के ऐसे प्रभावों की संगति में ही रचे जाने वाले साहित्‍य और कला में यह व्‍याप्ति लगातार लगातार मौजूद रहते हुए, बदलाव के बुनियादी परिवर्तनों में अवरोध होती चली जाती है। मसलन छायावादी मूल्‍यों के बरक्‍स प्रगतिवाद से लेकर आगे के कथा साहित्‍य में व्‍यापक रूप से मौजूद अभिजात्‍यता यहां संदर्भ हो सकती है। साठोतरी कथा साहित्‍य इस अभिजात्‍यता का ही प्रतिपक्ष बनता है पर पूरे तरह से प्रहार कर पाने में यहां भी चूक तो रह ही जाती है।
संवैधानिक सुधारों की मांग और उसके लिए ही ऊर्जा खपा देने की राष्‍ट्रीय समझ अस्मिता के प्रश्‍न को भी ठीक से व्‍याख्‍यायित कर सकने में अधूरी रही है और सवालों के घेरे में है। संविधान सभा के अध्‍यक्ष और राष्‍ट्रीयता को वर्षों के शोषण उत्‍पीड़न से उबारने की कल्‍पना करने वाले नायक अम्‍बेडकर इस सीमा को जानते थे हुए ही खुद उस संविधान की आलोचना करते हुए दिखते हैं जिसका प्रारूप उनकी अध्‍यक्षता में तैयार हुआ। ऐसे आधे अधूरे संविधान का परित्‍याग करने वालों में वे खुद को पहला मानने वाले हुए। वह भी तब, जबकि शासकीय नियंत्रणकारी भूमिका के अवसरों को दलित वर्ग के हक में करवा पाने में सक्षम होते हुए आरक्षण की एक सीमित स्थिति को हांसिल कर पाये थे। लेकिन देखेंगे कि गंवई आधुनिक स्थितियों ने प्रसफुटित हुई दलित चेतना को भी अम्‍बेडकारवाद के वास्‍तविक निहितार्थ तक पहुंचने में बाधा पहुंचाई और आज भी संषर्घ के मूर्त रूप को रख पाने में उस मध्‍यवर्गीय आधुनिकता से आगे जाती हुई नहीं है, जो पहले से ही गंवईपन में धंसी हुई थी। लोकतंत्र के नाम पर झूठ को फैलाते ठिकानों में ही वह भी शरण पाती हुई है। उम्‍मीद की किरणों का प्रस्‍फुटन मुश्किल हुआ है और दलित मुक्ति के संघर्ष का मूर्त चेहरा भी आकार लेता हुआ दिख नहीं रहा है।  
यह कहने में हिचक नहीं कि हिन्‍दी की दलित धारा का एक खेमा तो नयी आर्थिक नीतियों के उस निजाम को ही अपना सहोदर मानने के साथ वाचाल है, जिसके मंसूबे तो भारतीय अस्मिता के प्रश्‍न को ही अंधराष्‍ट्रवाद में डूबो देना चाहते हैं। दलित मुक्ति की इस धारा को भारतीय समाज की भ्रष्‍ट आधुनिकता की ओर खिसकते मध्‍यवर्गीय रूझानों के रूप में भी समझा जा सकता है । भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता की विशेषता है कि वह मुक्ति के मिथ को गढ़ने में उन अतार्किक अवधारणाओं का सहारा लिये होती है जिसे दुनिया को समझने की प्रक्रिया में वैज्ञानिक जानकारियों के चरण के रूप में देखा जा सकता है। डार्विन का विकासवाद उत्‍तरजीविता के संघर्ष में उत्‍कृष्ट के बचे रहने की प्राकल्‍पनाओं के साथ 'प्रतियोगितामूलक' पूंजीवाद के दर्शन में ही वैज्ञानिक हुआ जाता है। यह सिद्धांत मारकाट वाली आधुनिकता के उस मिथ को  गढ़ता है,  जो समाज की संरचना को लम्‍पट तबके के पक्ष में तार्किक बनाती है और यह स्‍थापित करती है कि 'सज्‍जन' लोग ही सक्षम लोग है। यहां सज्‍जनता की परिभाषा भी संसाधनों पर नियंत्रण से पैदा हुई चाल-ढाल, बातचीत का चालूपन, वस्‍त्र विन्‍यास में साफ सुथरा दिखना आदि मानक पैमाने होते हैं। देख सकते हैं कि भारतीय शासन- प्रशासन की गतिविधियां अपराध के निधार्रण में ही नहीं, सामान्‍य दिनचर्या में भी वंचित वर्ग के व्‍यक्ति पर कैसे जुल्‍म का फंदा कसती है ।
यद्यपि आर्थिक रूप से वंचित रह गये समूहों को चिह्नित करने में रची गई हिन्‍दी कहानियों की महत्‍वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह साफ देखा जा सकता है कि गंवईपन की स्थितियों में जाति-श्रैष्‍ठ-प्रभुता वाले धर्म-दर्शन से घिरी उनकी आधुनिकता,सहज संतुलन के उस रुख का ही हिस्‍सा रही जिसकी निरन्‍तरता भटकाव वाली थी। वे मध्‍यवर्गीय उभार, जिनका प्रगतिशील झुकाव जहां एक ओर संविधान में वर्णित धमनिरपेक्षता का पक्षधर हुआ तो वहीं दूसरी ओर उसका दक्षिण पंथी रूप साम्‍प्रदायिक हिंसा तक विस्‍तार करता रहा। भारतीय मध्‍यवर्ग के वामपक्ष के होठों के किनारे भी दक्षिणपंथी विचारों  के साथ खुलते रहे। योग से लेकर भोग तक को आधुनिक और 'उसमें हर्ज क्‍या है' वाली समर्थन की शब्‍दावलियों को इक्‍टठा करना आज मुश्किल भी नहीं। आधुनिक तकनीक का उच्‍चतम रूप चाहे तो मित्र यारों की नीजि बातचीतों के दौरान छूट गई ऐसी उच्‍छवासों को भी पकड़ने में सक्षम हो सकता है। धर्म से पूरी तरह विलगाव न बना पायी गंवई आधुनिकता ही उसकी प्राथमिकता का सबब हुई। सरकारी महत्‍व की सी गतिविधियों में उसके सीमित धर्मनिरपेक्ष चरित्र के दर्शन तो किए जा सकते हैं, जबकि न्‍याय की चौहद्दी पर गवाह होती प्रतिज्ञाएं भी उससे मुक्‍त नहीं, पर गैर सरकारी गतिविधियों में तो मृत्‍यू से लेकर जीवन के उल्‍लास, क्षोभ और अन्‍य किसी भी भावों की अभिव्‍यक्ति में भी, यहां तक कि वैज्ञानिक उपलब्धियों की प्रयोगात्‍मक उपलब्धियों के परीक्षण पर भी रीति रिवाजों की कर्मकाण्‍डीय पद्धतियों को खुलेआम सहारा देते उसके 'प्रगतिशील' रूप का वामपंथी संस्‍करण ही भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता का आधार स्‍तम्‍भ है।  
धर्म की व्‍याप्ति निरन्‍तर अति की ओर रही है, जिसके कारण प्रगतिशील मूल्‍य भी पूरी तरह से स्‍थापित नहीं हो पाए और स्‍थानिक विशिष्‍टता के साथ सामाजिक असंतुलन कायम रहा।
गंवईपन के मध्‍यवर्गीय चेहरे को पहचानने की यह कोशिश जो आलेख के माध्‍यम से संभव की जा रही है, लगातार के सामाजिक बदलाव को नकारना नहीं चाहती है, बल्कि बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया के रास्‍ते में आने वाली दिक्‍कतों को समझना चाहती है और इसे नाते यह रखने में भी हिचक नहीं है कि सामाजिक बदलाव की उपरोक्‍त चिह्नित की गई गति को यदि एक बड़ी मुहिम के दौरान आ जाने वाले भटकाव भर मान लिया जाए तो भी कहा सकता है कि ऐसे भटकाव के कारणों के पीछे मुनाफे की हवस वाली मानसिकता में डूबी स्‍थानीय पूंजी के उस चरित्र को पहचाना मुश्किल हुआ जो वैश्चिक पूंजी की दलाली में ही अपने हितों को सुरक्षित मानने के साथ है। परिणाम स्‍पष्‍ट हैं कि भारतीय सामाजिक व्‍यवस्‍था में श्रैष्‍ठता को मजबूत आधार देने वाली जातिगत असमानता पहले निशाने पर नहीं आ सकी और आर्थिक श्रैष्‍ठता को ही ज्‍यों का त्‍यों स्‍वीकार कर लिया गया।
कथाकार उदय प्रकाश की कहानी के पात्र मोहन दास की त्रासदी, 'ग्रहण' के नायक राजकुमार का जीवन और 'पांच का सिक्‍का' के कथानायक निनकू का संघर्ष, हिन्‍दी की अन्‍य कहानियों के उन कथापात्रों से भिन्‍न नहीं जिनकी उत्‍पति संवेदना के गंवई आधुनिकता रूप के साथ साथ दलित धारा कहलाई जाती रही।  यद्यपि घोषित रूप से ये कहानियां 'दलित धारा' की रचनाएं नहीं हैं। लेकिन हिन्‍दी कथा साहित्‍य में पिछले पन्‍द्रह-बीस सालों पहले शुरू हुई उस प्रक्रिया से भिन्‍न नहीं जो पात्रों की पहचान को उनकी जाति से स्‍थापित करते हुए दलित धारा के रूप में स्‍थापित है।
मिथक बनाम मनुष्‍यता के सवाल पर विचार करते हुए दर्शन शास्‍त्री बैरो डनहम  सामाजिक स्थितियों का जिस शब्‍दावली में जिक्र करते हैं, उन शब्‍दों को उधार लेते हुए कहना चाहता हूं कि यथार्थ की अतिव्‍याप्‍ति से मुक्‍त होने की छटपटाहट के रास्‍ते तलाशती रचनात्‍मक दुनिया में हिन्‍दी कहानी अतिव्‍याप्ति और अव्‍याप्ति के दो छोरों पर  डोलती रही है और संतुलन की चाह में पात्रों की भाषा, उनके रूप-लक्षण आदि को असमान्‍य बना देने वाली रचनात्‍मक प्रतिभा की राह के साथ ही मध्‍यवर्गीय आधुनिकता के जिस किनारे पर पहुंच रही है, वहां खड़े होकर स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है कि सामाजिक सवालों पर ढुलमुल व्‍यवहार बरतने वाली उस चालाकी को अपनाने के साथ है, जिसका एक रूप तो खुदगर्ज परिस्थितियों पर बिना सोचे-विचारे, तुरत-फुरत राय देने में वाचाल हो जाता है तो दूसरी ओर निर्णायक स्थितियों पर कुछ भी न कहने वाली खामोशी बरतने की भूमिका वाला होता है। व्‍यवहार की इस असहजता का असर न सिर्फ अतिदावों के साथ पेश आती गद्य भाषा का हिस्‍सा होना चाहता है बल्कि कविताओं में तो उसके असर ज्‍यादा साफ है। मूल्‍यांकन की सीमित दृष्टि वाली आलोचना और उसके प्रभवा से घिरी सम्‍पादकीय अहम भरी टिप्‍पणियां, रचनाओं के उन्‍ही रूपों पर रीझकर साहित्‍य की दुनिया को भी किंचित चमकीला और फिल्‍मी दुनिया सरीख स्‍टार चेहरा बना देना चाहती है। इसीलिए सम्‍पादक, आलोचक और प्रकाशकों की दादागिरी का अराजक माहौल भी हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया पर दबदबा कायम किये है।      
दिलचस्‍प है कि तीनों ही कहानियां अपने अपने विन्‍यास में जहां एक ओर पात्रों को सामान्‍य से मिथक बना दे रही हैं, वहीं जनमानस में के बीच पहले से स्‍थापित मिथकों की संगति में अपने कथ्‍य का विस्‍तार भी करती जाती है। तथ्‍यों और मिथकों की संगति-सम्‍मीश्रण के आनुपातिक क्रम में 'मोहन दास' पहले स्‍थान पर, 'ग्रहण' उसके बाद एवं 'पांच का सिक्‍का' सबसे अंत में रखी जा सकती है। परिस्थितिजन्‍य संवेदना की व्‍युपत्ति की पड़ताल करने पर मिथकों की स्‍थापना के प्रभाव का असर व्‍युत्‍क्रमानुपाति नजर आता है। यानि संवेदना के स्‍तर पर 'पांच का सिक्‍का' की आत्‍मीयता का रूप ज्‍यादा सहज और स्‍वाभाविक नजर आता है एवं 'ग्रहण' और मोहन दास की तुलना में गहरे पाठकीय प्रभाव छोड़ता है। यूं आंकलन का यह तरीका और जाहिर किए जा रहे परिणाम बेशक किसी सिद्ध पद्धति (जो कि वैसे तो है ही नहीं) की निष्‍पति से प्राप्‍त नहीं हैं, लेकिन निरा मनोगत भी इन्‍हें नहीं माना जा सकता। जांचने के लिए किसी सुस्‍पष्‍ट पाठकीय सर्वेक्षण पद्धति को अपनाया जा सकता है। हां, पाठकीय स्‍मृतियों को पूर्व आलोचनाओं की स्‍थानाओं के प्रभाव से पूरी तरह मुक्‍त और निरपेक्ष भी नहीं मानी जा सकता है, तब भी पाठकीय स्‍मृतियों में दर्ज पात्रों के हुलिये से कहानी के पात्रों की छवियों को तलाशा हो जाती है और यह साबित हो ही जाता है कि कहानियों ने अपने पाठक को कितनी ही बार परेशान किया होगा। कहानियों की उपलब्धियों का बक्‍सा ऐसे भी भरा हुआ है।    
तीनों ही कहानियों के ताने बाने में गल्‍प का जो संसार दिखायी देता है, वह उस यथार्थ की उपज माना जा सकता है जिनके प्रभाव रचनाकारों को गल्‍प के रूप में उन्‍हें दर्ज कर देने को मजबूर करते रहे होंगे या, किन्‍ही वास्‍तविक पात्रों की स्‍मृतियां भी कहानी का कारण बनी हों। इस तरह से विचार करें तो व्‍याख्‍या के निम्‍न बिन्‍दु सहज ही प्रकट हो जाते हैं। यथा,
1        रचनाकार पर पृष्‍ठभूमि का मनोवैज्ञानिक प्रभाव  
2             कथा पात्रों की असमान्‍यता, जमाने की चालाकी एवं कथापात्रों का भोलापन
3             गल्‍प का विशेष घटनाक्रम और सत्‍य घटना के अनुभव

तीनों ही कहानियों में दर्ज होता हुआ सामाजिक परिवेश गंवई आधुनिकपन की कस्‍बाई एवं शहरी स्थितियों से भरा है। भाषा एवं भूगोल के विवरण ही नहीं अपितु पाठक के भीतर संवेदना जगाने के लिए चहूं ओर व्‍याप्‍त परिवेश की विशिष्‍टताएं भी चिह्नित की जा सकती है। गुदा विहीन विचित्र पात्र के जीवन को फोकस में रखने के बावजूद 'ग्रहण' में त्रासदी का फोकस राजकुमार के जीवन की बजाय विपदराम की विपदाओं पर केन्‍द्रीत रहता है। गुदाविहीन राजकुमार तो शैशव अवस्था में ही चिकित्‍सकीय उपचार की तात्‍कालिक राहत को प्राप्‍त कर लेता है। पेट में बना दिये गये कृतिम गुहाद्वार के जरिये भले ही मल त्‍याग करते हुए गू से लिसड़ जाना उसकी मजबूरी है लेकिन जीवन की हलचलों का ताना बाना, जो पैदाईश के समय ही बुझ जाने वाला था, उसको पा जाना एक अप्रतिम सा उपहार है।  जबकि सर्वांग सही सलामत होते हुए भी विपदराम की त्रासदी तो ऐसे पुत्र का पिता होने के समय से ही उसकी विपदाओं के घेरे को और बड़ा कर दे रही है। पहले से रची जा चुकी सामाजिक विसंगतियों का संसार उसे कतई परेशान नहीं करता है, स्‍वीकारोक्ति की मानसिक अवस्‍था में वे सारी स्थितियां उसके जीवन के उपक्रम की मुक्ति गाथा का केन्‍द्र बिन्‍दु नहीं बन पाती हैं, सिर्फ कथा की पृष्‍ठभूमि ही बनी रहती हैं। जबकि उसकी छटपटाहटों के केन्‍द्र ब्रिन्‍दु उन कृत्रिम जंजालों में उलझे रहते है जो कभी पुत्र के इलाज के लिए और कभी उसके वि‍वाह की चिन्‍ताओं के साथ किये जाने वाले उपकर्म हैं और वे ही विपदराम को पस्‍त किये हैं। राजकुमार पिता की चिन्‍ताओं का सहारा बनना चाहता है। ईंट के भट्ठे में खटने के बाद जमा की गयी पूंजी के दम पर मुर्गी के अण्‍डे बेचेने का व्‍यवसाय करना चाहता है। पहली बार मुर्गीयां खरीदकर लाता है तो व्‍यवसाय जैसी किसी कल्‍पना का सपना भी न बुन सकने वाली मन-स्थिति में बटुली का घबरा जाना स्‍वाभाविक है, वे उन्‍हीं चिन्‍ताओं की शिकार होती है, हमारा सभ्‍य समाज आर्थिक रूप से विपन्‍न लोगों को जैसे आरोपों से हमेशा जकड़े रहता है- चोर, उचक्‍के। लेकिन मां की आशंकाओं पर पुत्र के द्वारा स्थितियों का साफ करने पर संवेदना के गहरे बिन्‍दु जाग उठते हैं। कहानी के हवाले से ही देखते है,
''माई हम खाने के वास्‍ते मुर्गी नहीं लाए हैं। इनका अण्‍डा बेच-बेचकर हम पैसा जुटाएंगे माई।'' कुछ बात हुई कि राजकुमार की आवाज की सुई फंस गई, वह आगे बोल न पाया।  इस समय उसका चेहरा एक साथ कातर, खिसियाया, पवित्र, दयनीय और सुन्‍दर लग रहा था। उसकी बातें सुनकर बटुली और तेज रोने लगी लेकिन यह दूसरी तरह की रुलाई थी। इस रुलाई की ध्‍वनि, संगीत और भाषा भिन्‍न थी। मां को रोत देखकर राजकुमार दिग्‍भ्रमित सा हो गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या करे। वह कहने लगा, ''माई एक रुपया का एक अण्‍डा बिकता है। रोज दो रुपए की ज्‍यादा कमाई हो जाएगी, यही सोचकर मुर्गीयां खरीदी हैं। पर तू रो रही है...।'' बटुली आंसू पोछकर चुप हो गई, ''मैं रो नहीं रही हूं।'' यह कहकर वह फिर रो पड़ी और पुन: उसी तरह आंसू पोंछकर बोली, ''बड़ा अक़लवाला हो गया है।''     
गंवईपन की इस खूबी को चिह्नित किया जाना जरूरी है कि उसकी मौजूदगी में प्रेम, दया, संवेदना की लहर जागृत करने वाले करूण भाव एक ओर मुख्‍य भूमिका में होते हैं तो वहीं दूसरी ओर उन्‍हीं भावों की उपस्थिति में तर्क और आदर्शों का यथार्थ आधुनिक होना चाहता है। विपदा की मार ही नहीं उसके प्रतिकार में भी तर्क का गंवई आधुनिकपन हमें ऐसे सामाजिक वातावरण के निर्माण के लिए प्रेरित करता रहा जो गुस्‍से और प्रेम के योग से उपजता है। संवेदना की लहर जागृत करने में  'ग्रहण'  कहानी का उपरोक्‍त हिस्‍सा हिन्‍दी कहानी की इसी मूल प्रवृत्ति के साथ है। दुनिया बदलावों के संघर्ष में ऐसे आवेगों की उस भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता जो वर्षों से बदलाव का वातावरण निर्माण करने वाली ताकतों को स्‍पार्क दे देता है, लेकिन बदलाव के वातावरण की पूर्व स्थितियों के नदारद रहने या, बहुत सक्रिय न रहने पर उसके प्रभाव गहरे आवेगों के साथ चरम गुस्‍से या चरम प्रेम के साथ घटती घटनाओं में तब्‍दील हो जाते हैं। गुस्‍से और प्रेम के योग से उपजने वाले भावों के आवेग की तीव्रता का आंकलन करना अंसभव है। असीमित तीव्रता के आवेग से उपजे ऐसे गुस्‍से का चरित्र अस्‍थायित्‍व रंग में रंगा होता है और किसी लम्‍बी लड़ाई का हिस्‍सा नहीं हो पाता है। बहुत छोटे अंतराल के साथ ही गायब हो जाता है। उसकी समाप्ति पर वातारण पहले की सी पस्‍ती में फिर डूबा हुआ होता है। स्थितियां इस कदर सामान्‍य हो जाती हैं कि पूर्व में घट चुकी घटना के अंश भी नहीं तलाशे जा सकते। 'पांच का सिक्‍का' में घटनाओं का वातावरण ज्‍यादा तीव्रता भरा है और ज्‍यादा मासूम भी। चाऊमनी नामक चीज के लिए ललचाने के बाद पांच के सिक्‍के को खर्च चुके निनकू की असलियत पकड़ में आ जाने के बाद माई का गुस्‍सा सातवें आसमान पर है। अपने भीतर के उन भावों की अभिव्‍यक्ति में किया जाने वाला माई का स्‍वांग जारी है। निराशा, पस्‍ती और सामने वाले पर हावी हो जाने  के लिए इनसेफिलटिस की बीमारी की चपेड़ में जान गंवा चुके छोटे बेटे की यादों भरी रूलाई में उसका रोना जारी है। ऐसी विकराल स्थिति में पहुंची माई से कोई नहीं निपट सकता। निनकू भी नहीं। कहानी का मूल हिस्‍सा ही यहां ज्‍यादा सार्थक हो सकता है,
'उधर उसकी माई ने बिलखना शुरू किया और इधर उसके दिल का यह हाल हुआ जैसे अमचक से चिरने के बाद अमिया का एक टुकड़ा यहां गया, एक वहां। जरा माई की चालाकी तो देखो। उसके हलक पर छूरी फेरकर खुद रोने बैठ गई। अब अगर रोना था तो रोने की बारी नि‍नकू की थी। दिन भर में कई बार रोने-रोने को हुई लेकिन माई ने हर बार मौका हथिया लिया। हर चीज की हद होती है। वह कब तक अपने को जब्‍त रखे। ऐसे तन गया जैसे गेहुंअन तनता है और उसी तरह फुंफकारा भी, 'सुन माई...' ।                     
माई की धारोधार रूलाई पर उसका कोई असर नहीं पड़ा तो तैश में आकर उसने माई की ठुड्ढी पकड़ी और अपनी ओर मोड़ा। माई के चेहरे पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत न थी कि बावलों की तरह सिर हिलाती, वह एकबेग रुक जाती। यह तो उसका बदला हुआ तेवर था जिसने माई को स्थिर बनाया था।
'तू पहले बता माई कि फिन बारिस आई कि नाहीं ।', माई जवाब तो तब दे न, जब सवाल का मतलब बूझे।
'तू पहिले बता ... फिनो बारिस आई कि नाहीं ...  आई न।।' लग रहा था कि माई की अक़ल की बत्‍ती अब भी गुल है। लेकिन वह इस कदर हावी था कि माई को गर्दन हिलाकर हामी भरनी पड़ी।
          'तब तो बाढ़ भी अइहे ।... अइहे न ।' माई की गर्दन पहले की भांति 'हां' में हिलती है।
'तो इनसेफिलटिस फिनो नाही फैली का ।। बोल फैली न...।' निनकू इतना खदबदा रहा था कि माई की पल भर की चुप्‍पी भी बर्दाश्‍त न हुई। उसे हिला कर पूछा, 'बोल तू कि फिनो बीमारी फैली कि नाहीं...।'
'फैली रे फैली।।' माई झल्‍ला कर बोली। रोना धोना तो वह कब का भूल चुकी थी। 'तूहे मालूम नइखे कि इनसेफिलेटिस हर सालिहे कत्‍लेआम मचावत है।'
'तब येह दफा बच गए तो काहे आंसू बहावत हउ।।... हम उमर का पट्टा लिखवा के आये हैं का माई ।।' निनकू ने अपनी फ़लसफ़ी झाड़ने के बाद माई की ठुड्ढी छोड़ दी। लेकिन माई इस कदर बुत बनी हुई थी कि उसे लगा कि ठुड्ढी छोड़ी न हो बल्कि ठुड्ढी पर से अपना हाथ हटाया हो। माई की परछाई दीवाल पर पड़ रही थी। ढिबरी की हिलती जोत में माई की परछाई हिल रही थी। माई इस तरह जड़ थी कि उसकी तुलना में निनकू को माई की परछाई में ही ज्‍यादा प्राण नजर आ रहा था। अचानक माई ने जैसे देह धारण किया और वह अकुलाई-बकुलाई सी थी, निनकू को अपनी ओर खींच लिया। निनकू इसके लिए न तो तैयार था और न अनिइच्‍छुक। वह खुद बा खुद माई की ओर खिंचता चला गया। माई ने उसे अपनी छाती से चिपटाया तो उसने ऐसा भी हो जाने दिया- जैसे कोई बेल थोड़ा सहारा मिलते ही अपने आप चढ़ती लिपटती जाती है।'  
कहानियों के उपरोक्‍त हिस्‍से इस बात की ताकीद करते हैं कि संवेदना के प्रबल पक्ष  को स्‍वीकारती हिन्‍दी कहानी सादगी के साथ वंचित वर्ग के प्रति पाठकीय संवेदना जागरण में संलग्‍न रही। 'पांच का सिक्‍का' का उल्‍लेखनीय पक्ष हिन्‍दी कहानी की उसी प्रबल छवी में ही महत्‍वपूर्ण हो जाता है। 'ग्रहण' में संवेदना के जागरण की तीव्रता का आवेग अपेक्षाकृत कमतर है। तुलनात्‍मक स्थिति के परिणाम को परखने के लिए कहानियों की पृष्‍भूमि की पड़ताल की जा सकती है। 'ग्रहण'  की पृष्‍ठभूमि 'पांच का सिक्‍का' से थोड़ा भिन्‍न है।  'पांच का सिक्‍का' का घटनाक्रम ऐसी पृष्‍ठभूमि में घटता है, जहां चाकरी के एवज में मिलने वाले धन के बावजूद भी गंवई अंदाज की बेगारी का वातावरण मौजूद रहता है । जबकि 'ग्रहण' में वह एक ओर कस्‍बाई कथा के तौर पर जोड़ता है तो दूसरी ओर वहां मिथकीय मान्‍यताओं पर यकीन और पिछड़ेपन की कई अन्‍य स्थितियां भी दिखायी पड़ती है। 'मोहन दास' की पृष्‍ठभूमि दोनों ही कथाओं से भिन्‍न नजर आ रही है। शहरीकरण के साथ विस्‍तार करती गई आधुनिकता के वे प्रस्‍थान बिन्‍दु जो समाज के भीतर जड़ जमाती जा रही वैचारिक भ्रष्‍टता का साक्ष्‍य हो सकते हैं, कोई भी पाठक उन्‍हें 'मोहन दास' में खुद छू सकता है। आज की हिन्‍दी कहानी, खास तौर पर युवा कहानी की संज्ञा से नवाजी गयी कहानी, जिस रास्‍ते से भ्रष्‍ट आधुनिकता की ओर बढ़ी है, उसकी पहचान करना भी आसान है-  वैचारिक प्रतिबद्धता के अति दावों के साथ संवेदनात्‍मक जागरण की आवाजें यहां स्‍त्री एवं दलित विमर्श के भी अपने अनोखे पाठ प्रस्‍तुत करते हैं। हर क्षण यौनिक छवियों का साथ होती उनकी भाषा को काव्‍यात्‍मक कहने की आलोचना पर टिप्‍पणी करने का यह वक्‍त नहीं। बल्कि प्रसंगवश जिक्र हो जा रहे स्‍त्री विमुक्ति वाले दर्शन के उस युवा स्‍वर को समझने की कोशिश है, जिसके बारे में आलेख के लेखक की मान्‍यता स्‍पष्‍ट है कि वे भ्रष्‍ट आधुनिकता के संसार में गोते लगाती स्थितियां है ; 'हू...तू...तू...तू'  की आवाजों के स्‍वर में वैचारिकता के अतिदावे की कॉल बेल क्‍यों और कैसे बजायी जाती है, यह समझने की कोशिश भी। आत्‍मीयता से भरे यादगार क्षणों की उपस्थितियों के टुकड़े इधर की ज्‍यादातर कहानियों के एक आवश्‍यक घटक के रूप में दिखाई दिये हैं। विषयगत सीमाओं के चलते अन्‍य कहानियों को तथ्‍य के तौर पर रखने की बजाय मोहन दास से ही एक हिस्‍से को यहां तथ्‍य के तौर पर रखा जा सकता है,
''रात आधी से ज्‍यादा बीत गई थी। टिटहरी और पनकुकरी की आवाज कभी-कभी सुनाई दे जाती। कठिना नदी की नम हवा के भारीपन में कस्‍तूरी की देह से उठने वाली पसीने की गंध ने मोहन दास को चारों ओर से घेर लिया। इस स्‍त्री ने उससे विवाह करते हुए क्‍या सपना देखा था और उसे क्‍या मिला ?  सुबह से लेकर रात तक, हर रोज, बिना नागा, हर सुख-दुख, हारी-बीमारी, भूख-प्‍यास में वह संग खड़ी रही। मोहन दास के मन में कस्‍तूरी के लिए गहरी सहानुभूति और आत्‍मीयता पैदा हुई। वह उसे एकटक निहार रहा था। कस्‍तूरी ने मटका रेत पर टिकाया और खड़ी होकर अपना जूड़ा बांधने लगी। मोहन दास उठके उसके पास आया। कस्‍तूरी चुप थी।
'ए कस्‍तूरी कबड्डी खेलिहे ? मोहन दास ने मुस्‍कराते हुए कहा- 'हू...तू...तू...तू ...।'
उसने कस्‍तूरी की बांह को पकड़ लिया था और उसकी बगलों और पेट में गुदगुदी मचाने लगा था। कस्‍तूरी उससे छूटने के लिए छटपटा रही थी- 'अरे...अरे...। देवदास जाग जई...। का करत हस ? छोड़...मोर ल छोड़ ।...छोड़।' कस्‍तूरी ने देखा कि मोहन दास उसे छोड़ने वाला नहीं तो उसने उसे धक्‍का दिया और छूटते ही कठिना नदी की ओर भागी। वह किसी उल्‍लसित स्‍वतंत्र हिरणी की तरह कुलांचे मार कर नक्षत्रों के धुंधले सलेटी उजाले के नीचे दूर तक फैली नदी के रेत पर दौड़ रही थी।
'आ...आ...आ...। मोर ल छू...तो जानों....। आ....जा ...।' उसकी आवाज हर पल दूर होती जा रही थी और वह हर पल छाया बनती हुई अंधेरे में बिलाती जा रही थी। 
'हू...तू...तू...तू ... तू...तू...तू ...।' कहता हुआ मोहन दास पूरी तेजी से उसकी ओर दौड़ा।
कस्‍तूरी ने और दम लगाया। मोहन दास हर पल उसके करीब आता जा रहा था। उसने अपनी रफ्तार बढ़ाई और कठिना के किनारे-किनारे, पानी में छप-छप करती हुई पूरी जी जान से भागती चली गई। 'आ...आ...आ...। मोर ल छू...तो जानों....।' उसका दम फूलने लगा था। वह हांफने लगी थी। मोहन दास की 'हू...तू...तू...तू ...'  हर पल उसके कान के करीब आती जा रही थी। कस्‍तूरी जानती थी कि अब वह मोहन दास का और छका नहीं पाएगी फिर भी उसने आखिरी जोर लगाया। लेकिन तब तक एक ही उछाल में मोहन दास ने उसे पकड़ लिया। दोनों कठिना के पानी में छपाक से गिर पड़े। 'छोड़...। ए...छोड़...।' वह झगड़ रही थी और मोहन दास के ऊपर पानी उलींच रही थी  लेकिन मोहन दास उसे छोड़ने के बजाय उससे और लिपटता जा रहा था। नदी की नम हवा में दोनों की सांसें एक-दूसरे में समा रही थीं। वह जिस तरह उसकी देह में उंगलियों से गुदगुदी मचा रहा था, उससे कस्‍तूरी के गले से निर्बंध किलकारी और हंसी फूट रही थी। उसका छद्म प्रतिरोध शिथिल पड़ता जा रहा था और वह स्‍वंय भी मोहन दास को दूर धकेलने के दिखावे के बीच उसकी देह से सटती जा रही थी। जैसे लोहे का कोई टुकड़ा किसी चुम्‍बक से सटता है।
मोहन दास ने कठिना के पानी में उसे गिरा लिया और ऊपर सरकते हुए कहा- ''तैं बहुतै निकहा अऊ बहुतै सुंदर हस कस्‍तूरी...। दे मोर करउंदा।' और उसे चूम लिया। वैशाख की उस गर्म रात में दूर आकाश में टिमटिमाते तारों की मद्धिम सलेटर रोशनी में, कठिना नदी के शीतल जल में दो जवान गोंछ या पाढि़न मछलियों की तरह वे दोनों उद्दाम और निर्बंध छपाछप कर रहे थे। बीच-बीच में कस्‍तूरी के कंठ से उठती हंसी और किलकारी के साथ मोहन दास की भारी सांसों से निकलती 'हू...तू...तू...तू ...' रात की निस्‍तबधता को भेद जाती थी।'
क्रमवार तरह से प्रस्‍तुत और टिप्‍पणी के दायरे में आए तीनों ही कहानियों के उपरोक्‍त हिस्‍से पूंजीवादी विकास की विकृतियों की लपेट में फंसे,हिन्‍दी के हमारे रचनात्‍मक संसार की मानसिक बुनावट का भी पता दे देते हैं। इनसे यह भी निष्‍कर्ष निकलता है कि विकास के सकारात्‍मक रूप के शहरीकरण में ही हमारे व्‍यवहार की नफासत वह रूप भी जगह पाता है जो चालाकी और चापलुसी भरा हो जाता है। अक्‍सर इसे ही हम मध्‍यवर्गीय होना स्‍वीकार लेते हैं और उसके साथ ही वंचितों का पक्ष चुनती वैचारिकता में लगातार के क्षरण के साथ होते हैं। परिणमत: उपजने वाली संवेदना का वह गंवईपन भी बरकरार नहीं रह पाता है जिससे उम्‍मीद की जा सकती थी कि वह बेहतर मूल्‍यों की स्‍थापना को अपनाती आधुनिकता को स्‍थापित होने देने में सहायक होगा। संवेदना को उपजाने की लेखकीय कोशिश आधुनिक जीवन शैली की तार्किक प्रणाली के दायरे में स्‍वत: आती रहती है। यानि गंवई आधुनिकता का विकास नकारात्‍मक मूल्‍यों की स्‍थापना की राह पकड़ते हुए भ्रष्‍ट आधुनिकता की स्‍थापना का रास्‍ता तैयार करने लगता है। आधुनिकता और गंवईपन की अवस्थिति को ग्राफिकल दर्शाया जाऐ तो लम्‍बवत कोणीय बिन्‍दुओं की श्रृंखला में दिखायी देगी। जिसके आधार पर यह विश्‍लेषित कर पाना मुश्किल नहीं कि संवेदना को जागृत करने वाले तत्‍वों के प्रभाव की तीव्रता का गिरता ग्राफ आधुनिकता के विकास के व्‍युतक्रमानुपाति क्रम में रहता है। गांव से शहर की ओर विस्‍तार करती पृष्‍ठभूमि के क्रम में गिरती हुई संवेदना 'मोहन दास' को पहले स्‍थान में और 'पांच का सिक्‍का' को अंतिम पायेदान पर रख देती है। यह चर्चा 'मोहन दास' से आगे की हिन्‍दी कहानियों को अपने दायरे में रखने के साथ नहीं, तब भी उपरोक्‍त विश्‍लेषण की रोशनी में पाठक स्‍वंय देख सकते हैं कि उनमें संवेदना के क्षरण की गति ही कितनी युवा है।      
यद्यपि 'मोहन दास' का पाठ इतना इकहरा भी नहीं कि उसे किसी तात्‍कालिक टिप्‍पणी में समेट जा सके। कथा का घटनाक्रम पाठक को द्वंद्व से भर देने वाला है। सबके साथ न्‍याय की सैद्धान्तिक समझ पाठक को मोहन दास के प्रति सह्रदय बनाती है। लेकिन कठोर तरह से तर्क करने पर एक स्थिति ऐसी भी बनती है कि पाठक के भीतर उपजने लगता है कि उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त किसी व्‍यक्ति को क्‍या आज के जमाने में भी व्‍यक्तिगत दस्‍तावेजों की मूल प्रतियों का अर्थ नहीं मालूम होगा, जो बिना किसी ठोस आधार के उन्‍हें किसी सरकारी कार्यालय में यूंही जमा करा देता है । फिर कैसा तो वह कार्यालय, जहां दस्‍तावेजों की प्राप्ति रसीद जैसा भी कोई तंत्र नहीं  और जब चाहे धडल्‍ले से उनका दुरूपयोग होने लगे। घटी हुई किसी सत्‍य घटना की ऐसी स्थितियों को ठीक से जांच कर गल्‍प में पिरोने के लिए जितनी तैयारी की जरूररत होनी चाहिए, उसे दरकिनार करके सिर्फ संवेदना के जागरण भर से प्राप्‍त नहीं किया जा सकता। यह एक लेखक पर आरोप नहीं बल्कि हिन्‍दी के उस मिजाज को समझना है, जो हमारे भीतर गंवईपन के रूप में मौजूद रहकर हमें आधुनिक दिखाये रखना चाहता है; सामाजिक रूप से व्‍यपाप्‍त गैर जनतांत्रिक व्‍यवहार और श्रेष्‍ठताबोध के झूठे मनोभावों के साथ मौजूद रहने वाली अतार्किक निष्‍पतियों तक पहुंचे रहने वाली स्थितियां।
अतिदावों वाली वैचारिकता के छोरों पर खड़ी राजनीति ने माहौल को भ्रष्‍ट आधुनिकता के रंग से रंगा है। दिलचस्‍प है कि भारतीय राजनीति का दक्षिणपक्ष हो चाहे 'वामपक्ष', जनता को ही दोष देने की प्रवृत्ति उनका सबसे पहला दर्शन है। अपने विश्‍लेषण की पुष्‍टी में उनके पास जनता के भीतर व्‍याप्‍त शिथिलताओं भरे तथ्‍यों का अतियथार्थ हमेशा मौजूद रहता है। उनको बार बार सामने रख कर वे बदलाव की किसी चेतना के विकास और प्रेरणा की बजाय जनपस्‍ती, निराशा एवं हताशा के माहौल को ही पसरने देने में सहायक होते हैं। सामाजिक रूप से व्‍याप्‍त गंवई मिजाज को ठीक से न पहचान सकने वाले माहौल और चालाक मंसूबों से भरा हमारे राजनैतिक व्‍यवहार ही रचनाओं में भी अतिदावों वाली वैचारिकता के दो छोरों को बांधता रहा है।
'मोहन दास' कहानी के विवरणों के बताते हैं कि ढेरों ठोकरें खाने के बाद भी बेरोजगारी की मार को झेलते कथा पात्र मोहन दास के पास डाक से पहुंचा नौकरी का प्रस्‍ताव उसके जीवन के बादलाव का एक विचित्र संयोग हो जाता है। नौकरी का प्रस्‍ताव सेवा योजन कार्यालय के मार्फत है। दिलचस्‍प है कि जिस पद के लिए लिखित और मौखिक परीक्षा होनी है वह सुपरवाइजर का पद है। यह विवरण मोहन दास की जगह नौकरी कर रहे बिसनाथ के साथ दर्ज है। बहुत दावे के साथ तो यह नहीं कहा जा सकता कि सुपरवाइजर पद पर नियुक्ति के लिए सेवा योजन से नाम मांगे जाने की प्रक्रिया अपनायी जाती रही या नहीं पर सरकारी महकमे के कायदों के सीमितत अनुभवों में ऐसा इस लेखक ने देखा नहीं और लेखकीय जानकारी को ही सत्‍य मान लिया जाना मजबूरी है। यह भी कि हो सकता है कि कोलमाइन्‍स जैसे उपक्रम में सुपरवाइजर पद के लिए अभ्‍यर्थी को न सिर्फ लिखित एवं मौखिक परीक्षा से गुजरना होता है बल्कि शारीरिक शक्ति की उस दक्षता पर भी खरा उतरना होता हो जिसमें दौड़ना, भागना और शारीरिक क्षमताओं के अन्‍य कायदे भी हो। यूं कहानी कोई सत्‍य घटना नहीं है, वह गल्‍प है और ऐसे मानदण्‍ड उस पर लादने से शायद साहित्‍य के सौन्‍दर्य शास्‍त्रीय मानदण्‍डों की अवहेलना हो जाने का खतरा मौजूद हो पर हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया के मिजाज को समझने के लिए यह रखना मजबूरी है और यह कहने में कोई हिचक नहीं कि ऐसे ही विवरणों के रास्‍ते रचनात्‍मक प्रतिबद्धता को तलाशने की कोशिश भी की जा रही है। सवाल है कि हिन्‍दी कहानी में विवरणों का ऐसा भ्रम जाल क्‍यों है ?
स्‍पष्‍ट है कि वैचारिक प्रतिबद्धता और राजनैतिक व्‍यवहार के गैर तार्किक मिजाज के साथ विस्‍तार करती गंवई आधुनिकता के दोष से मुक्‍त नहीं। तथ्‍यों के उत्‍खनन के बजाय अतिदावों के साथ उसको रखने का चलन गंवई आधुनिकता के उस भ्रूण में ही मौजूद है जो भ्रष्‍ट आधुनिक पौधे के रूप में पनप रहा है। विशलेषण की इस खराब आदत को व्‍यक्तिगत अटेक मानने के कारण संवाद हीनता कायम किये अपने अजीज और करीबी मित्र योगेन्‍द्र आहूजा की कहानियों के हवाले से कहूं तो उनकी कुछ कहानियों में ये लक्षण ज्‍यादा साफ है। 'एक्‍यूरेट पैथोलॉजी', 'खाना' और 'पांच मिनट' उनकी ऐसी कहानियां है। तथ्‍यों के उत्‍खनन में ये कहानियां अचम्भित करने वाली जानकारियों से भरी होते हुए भी उन तथ्‍यों से आंखें मूंदे हुए हैं जिनके उत्‍खनन बदलाव के वास्‍तविक संघर्षों को जानने समझने के जरूरी हो सकते हैं। यह सिर्फ अनावश्‍यक जहमत से से बच निकलना भर नहीं कहा सकता। बल्कि इसे स्रोत उसी गली में पहुंचाते हैं जहां एक ओर बाजारू संस्‍कृति के प्रति लपलपाहट भरा व्‍यवहार और प्रतिरोध की राजनीति के प्रति सैद्धान्तिक समर्थन साथ साथ प्रेमालाप करते हैं।      
  पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, लाख जतन के बाद भी यह जानना एक सामान्‍य व्‍यक्ति के लिए असंभव सा ही है। मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश कर दिया जाता है। कथाकार योगेन्द्र आहुजा के रचना संसार से गुजरने पर हम जान सकते हैं कि उनका रचनात्मक कारखाना बाजार की ऐसी ही भ्रमित करने वाली स्थितियों को उघाड़ने के लिए हमेशा ही तत्पर रहता है। उनकी रचनाओं का कच्चा माल सुनी सुनायी घटनाओं के स्क्रेप की बजाय, विश्‍वसनीय स्रोतों से जानकारी जुटाने का श्रम होता है। 'पांच मिनट' एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेसिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं कुछ दिखने लगता है तो खटाक के साथ खुलते चाकू की आवाज दुनिया को सहम जाने के लिए मजबूर कर देती है और घड़ियों की सुईंयां स्थिर हो जाती हैं। कविता की तरह कहानी में घड़ी का यह बिम्ब बार-बार उभरता है। कविता के लिहाज से यह खूबसूरत बिम्ब है। घड़ी की टिक-टिक से दर्द और दहश्‍त फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघर्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शा चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
कहानी का उपरोक्‍त पक्ष न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता का समर्थन करता है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करता है कि आधुनिक तकनीक के चमत्‍कारों से विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में भी इतने ही सामान्‍य लोगों की भूमिका है। साथ ही एक सामन्य लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे के होनहार बेटे की कहानी कहते हुए योगेन्‍द्र उसे दुनिया के सबसे हुनरमंद आदमी का दर्जा दे देना चाहते हैं। श्रमिक वर्ग के प्रति अपनी पक्षधरता को रखने में वे कतई कोताई नहीं बरतते। दिल्‍ली के नेहरू प्‍लेस में कम्‍यूटरों की यांत्रिकी को आत्‍मसात कर चुके होनहारों को वे अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर लेने तक पहुंचा देते हैं। कहानी के मार्फत हम दुनिया में कायम हो चुके जनतंत्र के यथार्थ से वाकिफ होते हैं। घटनाक्रम की ऐसी अतिरंजना पर बिना कोई सवालिया निशान लगाते हुए कहा जा सकता है कि अतियथार्थ की यह प्रस्‍तुति उस ठोस वस्तुगत यथार्थ से मुंह मोड़ लेती है जो वास्‍तविक राष्ट्रीय चेतना का संवाहक होकर अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना भी स्थापित कर पाए। यहीं से उस गलत तरह की अवधारणा को भी पुष्ट होते हुए देखा जा सकता है जिसके प्रति लेखकीय सहमति नजर आती है-  व्यकितगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की उपस्थिति पर ही सामूहिक संघर्ष अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है।  
अपने निष्‍कर्षों तक पहुंचने के लिए योगेन्‍द्र जिन रास्‍तों से गुजरते हैं, वहां किसी खराब पड़ी हुई घड़ी पर उसके निर्माण के वर्ष तक का जिक्र है। घड़ी का मॉडल नाम मौजूद है- रोलेक्स 6204,। निर्माणकर्ता कम्‍पनी फेवर ल्यूबा और उसके सर्वेसर्वा के नाम, जैफर्सन से पाठक परिचित हो जाता है। लेकिन इतनी सारी जानकारियों से भरी कहानी में खराब घड़ियों को ठीक करने के हुनर का वास्‍तविक चेहरा कहीं नहीं रहता। वह हुनरमंद घड़ी साज आखिर उन्हें कैसे ठीक करता है, इसका पता पूरी कहानी से कहीं नहीं लगता है। घड़ी ठीक हो जाती है पर उसे ठीक किये जाते वक्‍त न तो कोई स्प्रिंग छिटक कर कहीं खो जाता है, जिसे ढूंढने के लिए घड़ी साज को आंखों से खुर्दबीन भी उतारनी पड़ती ही होगी, न  कोई जुवैल जैसा पुर्जा अन्‍य पुर्जे के नीचे जाकर फंस जाता है, जिसे ढेरों मश्‍कत के बाद भी ठीक से पकड़ न पाने के कारण घड़ी साज के भीतर उपजने वाली वह झल्लाहट जिसका वैचारिक उन्‍नयन ही संघर्ष के किसी निर्णायक रूप में सहायक हो, दिखायी देता है। जबकि ऐसी स्थिति में अन्तत: यह निर्णय ले लेने की पीड़ा कि मात्र जरा से काम के लिए किसी घड़ी साज को कब पूरी घड़ी को खोल कर ही उसका पुर्जा-पुर्जा अलग कर देना होता है और फिर हर धूलकणों तक को हटाकर, हर पुर्जे को धो पोंछ कर घड़ी को री-एसेम्बल करना बेगार का काम हो जाता है, दिखता नहीं। बस, वो खराब घड़ी जिसे ठीक करने वाला दुनिया में कोई न मिला उसे कथा पात्र ने ठीक कर दिया है, इतने कहने भर से जब पक्षधरता स्‍थापित हो जाती हो तो फिर क्‍योंकि जाए इतनी मेहनत की एक कहानी लिखने के लिए पूरी घड़ीसाजी सीखनी पड़ जाए। योगेन्‍द्र की इन कहानियों पर विस्‍तार से बात फिर कभी अभी तो सिर्फ एक छोटी सी टिप्‍पणी ही की जा सकती है कि आज अमेरिका एक ऐसे अर्थ को व्यंजित कर रहा है जिससे आतंकित होना न सिर्फ तीसरी दुनिया के नागरिकों की मजबूरी है बल्कि उन अमेरिकियों की भी मजबूरी है जो खुशहाली के झूठ को रचने वाले उसी अमेरिका के सामान्य और दलित शोषित नागरिक है।
योगेन्द्र एक जिम्मेदार लेखक हैं। वे खुद जानते होगें कि यथार्थ के सहज, सरलीकरण को अपने मनोगत कारणों से प्रस्तुत करते हुए भावनात्मक पक्षधरता की कलात्मक अभिव्यक्ति से न तो एक रचनाकार अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर सकता है और न ही जनपक्षधर-उन्नत कला साहित्य का सर्जन कर सकता है। स्पष्ट है कि समाजिक, आर्थिक ढांचे का सतही विश्‍लेषण प्रतिपक्ष को ही मजबूत करता है और यथार्थ से पलायन भी करवाता है। साहित्य ओर यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति इतनी तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृष्टि रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।" वर्तमान दौर की जटिलता, मुनाफे की दृष्टि से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था में इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी की सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से ही उसका क्रूर चेहरा दिख जाये। उसके विश्‍लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्‍यक है। उन मनोगत कारणों की पड़ताल भी जरूरी है जिनकी वजह से हम प्रतिरोध के किसी जरूरीर संघर्ष से न सिर्फ व्‍यवहारिक जीवन में दूरी बनाए रखना चाहते हैं, अपितु अपने लेखन में भी उसके प्रति वास्‍तविक पक्षधरता के लिए पाठक को प्रेरित करने से बचते हैं। यही रचनात्मक ईमानदारी भी है।                
'मोहदन दास' से इतर 'ग्रहण' घटनाक्रम की सहजता में तथ्‍यों के उत्‍खन्‍न की विसंगति के लिए परेशान नहीं करती है। मिथकीय आख्‍यानों की संरचना यहां तार्किक संतुष्टि का कारण बन जाती है। प्रतीकात्‍मक अर्थ छवियों को गढ़ते हुए कहानी जिस बिन्‍दु पर खत्‍म होती है, उसका तार्किक अंत संघर्ष के रास्‍ते में व्‍यापक एकजुटता का स्‍वर होना चाहता है। लेकिन यहां भी एक दिक्‍कत सामने है कि कहानी इस अर्थ को बहुत सीधे सीधे प्रक्षेपित नहीं कर पा रही है। अर्थ छवियों  को रचना के मार्फत आत्‍मसात करना मुश्किल है, यदि पाठक रचनाकार के सामाजिक सरोकारों से परिचित न हो तो। जीवन के दूसरे कार्यव्‍यापार से बनती रचनाकार की सामाजिक छवी और स्‍वंय पाठक के भीतर मौजूद प्रगतिशील चेतना का अभाव भी कहानी को किसी तार्किक अंत तक पहुंचने में बाधा हो सकता है। उल्‍लेखनीय है कि 'पांच का सिक्‍का'  किसी भी तरह के बाहरी तर्कों से अपनी परिणति को प्राप्‍त नहीं होती, अपितु मानवीय संवेदना की सघन उपस्थिति में निनकू के प्रति माई का उमड़ आया प्रेम ही पाठक के भीतर संवेदना के जागरण का सहारा बनता है। गंवई आधुनिक मिजाज की हिन्‍दी कहानी यह ज्‍यादा स्‍वाभाविक गति हो सकती है। लेकिन गंवईपन के ऐसे संवेदनों को कुचलकर विस्‍तार करती गयी आधुनिकता की अनियंत्रित गति, न सिर्फ सामाजिक ताने बाने को तोड़ रही है, बल्कि रचनाकारों को भी अपनी गिरफ्त में लेकर भ्रष्‍ट आधुनिकता की ओर बढ़ने के लाभकारी अवसरों के साथ है। संवेदना के जागरण के लिए विकृत्तियों के विभत्‍सपन या, असमान्‍य मानसिक स्थिति वाले नायकत्‍व औजार नहीं हो सकते। गंवई आधुनिकता का यह प्रगतिशील रूप पूंजीवादी प्रभावों में घर बनाती भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता का ही आरम्भिक चरण है। विकृतियों की उपज के ऐसे नायक पाठक के लिए प्रेरणास्रोत नहीं हो पाते। रचनाएं भी बस माहौल की किसी विशिष्‍टता पर तंज टिप्‍पणी ही कर पाती हैं। यानि आधुनिकता के रास्‍ते आ रही और व्‍याप्‍त हो चुकी ह्रदय हीनता अनचाहे ही आक्रमकता के चक्र को अनवरत जारी रखने वालों की बहुत स्‍पष्‍ट पहचान नहीं करने देती और उसे बेखटके विस्‍तारित होते रहने की स्‍वतंत्रता प्रदान करती रहती है। मासूमियत और निर्दोषपन के भावों से भरा मोहन दास हो और चाहे हाल में प्रदर्शित हुई फिल्‍म 'पी के' तक का विस्‍तार, जिनमें बेशक सीधे तौर पर विकृतियों में जन्‍म लेती स्थितियों वाले भाव नहीं हैं, लेकिन स्‍पष्‍ट प्रेरक तत्‍वों का अभाव यहां भी खटकने वाला है। यह कहने में कोई अस्‍पष्‍टता नहीं कि जिस तरह 'पी के' फिल्‍म के मार्फत धर्म के प्रति आस्‍थावान बने रहने का संदेश दर्शकों को लगातार दिया जाता रहता है, 'मोहन दास' में  भी ठीक उसी तरह अप्रसांगिक हो चुके तंत्र को बचाये रखने की ही वकालत के साथ है।
गंवई आधुनिकता में रंगी कथा-कहानियों के ऐसे निर्दोषपन निरन्‍तर प्रवाहित होती गयी प्रगतिशीलता में ही संभव हुए हैं, जिनका अंतिम लक्ष्‍य अप्रसांगिक होते जा रहे तंत्र को बचाये रखने की वकालत होता रहा है। हमारे दौर की सबसे लोकप्रिय विधा फिल्‍म न सिर्फ इसमें अव्‍वल है बल्कि उसके मंतव्‍य तो हमेशा मनोरंजनकारी ही हैं। नचबलिये नुमा टी वी कार्यक्रमों में जीत हासिल करके पुरस्‍कृत होती स्थितियों में खुशियों के आंसू बिखरती संवेदनाएं भी गंवईपन का सहारा पकड़ते हुए ही भ्रष्‍ट मध्‍यवर्गीय आधुनिकता की ओर बढ़ते जा रहे समाज का ही चित्र है। दर्शकीय मनोभावों को उच्‍छवास में बदलने के लिए नादानी और वैचित्र्य की स्थितियां, मुनाफाखौर चाहत से भिन्‍न नहीं हैं। हिन्‍दी कहानी ने अभी तक गंवई आधुनिकता में रहते हुए भी लोकप्रियता की इस 'ऊंचाई' से यूं अभी दूरी बनायी है और वंचित का पक्षधर होने की कोशिश की है। लेकिन संत्रास भरी स्थितयों से निपटते हुए हार में ही जीत के सपने दिखाती दुर्बल वैचारिकी के साथ कई बार उसके मंतव्‍य भी पूंजीवाद की अनचाही सेवा वाले हो जाते हैं।
क्रूरता के दर्प को नैतिक मूल्‍य बनाकर पेश करती राजनीति, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ढकोसला बना देती है। फासीवादी बढ़त के प्रभाव ऐसी ही प्रव़त्ति में देखे जा सकते हैं। कारणों को सिर्फ पूंजीगत प्रभाव की जड़ता भर से विश्‍लेषित करना, मामले को इस कदर सरलीकृत कर देना है कि वैश्विक भूगोल में व्‍याप्‍त सामाजिक अन्‍तरविरोध दरकिनार हो जाते हैं। पूंजी एक कारक है, इससे इनकार नहीं, लेकिन पूंजी ही एक मात्र कारक है, इससे असहमति है। पूंजी बहुत से भौतिक कारको की उपस्थिति के बीच एक मूर्तवत उपस्थिति ही है।
गंवई आधुनिकता की व्‍यापक रूप से पड़ताल की जाये तो देख सकते हैं कि मध्‍यवर्गीय विस्‍तार में अभिजात्‍यपन एक मूल्‍य की तरह स्‍वीकार्य होने के साथ है। यह अभिजात्‍यता पुरातन के प्रति मोह से उपजती है। बेशक वर्तमान को परखने और उसे बेहतर बनाने की चेतना इसका उद्देश्‍य होता हो, लेकिन बेहतरी के मानदण्‍ड यहां पुरातन नैतिक मूल्‍यों और उन्‍हीं आदर्शों में संतुष्‍टी पाना चाहते है जिनके वजह से विद्रोह की स्थितियां जन्‍म लिये होती है। विद्रोह के दौरान नये मूल्‍यों और आदर्शों की चिन्‍ताओं से बेखबर रहना परिस्थितिजन्‍य भी हो सकता है। स्‍पष्‍ट है कि सामाजिक चेतना के ऐसे प्रभावों की संगति में ही रचे जाने वाले साहित्‍य और कला में यह व्‍याप्ति लगातार लगातार मौजूद रहते हुए, बदलाव के बुनियादी परिवर्तनों में अवरोध होती चली जाती है। मसलन छायावादी मूल्‍यों के बरक्‍स प्रगतिवाद से लेकर आगे के कथा साहित्‍य में व्‍यापक रूप से मौजूद अभिजात्‍यता यहां संदर्भ हो सकती है। साठोतरी कथा साहित्‍य इस अभिजात्‍यता का ही प्रतिपक्ष बनता है पर पूरे तरह से प्रहार कर पाने में यहां भी चूक तो रह ही जाती है। इस दौर के कथा साहित्‍य में अन्‍यों की अपेक्षा कथाकार ज्ञानरंजन की कहानियों में विद्रोह का तीखापन आश्‍वस्‍तकारी रहा। यद्यपि प्रतिरोध की साठोतरी शुद्धता के लिए उनकी कहानियों की सीमायें भी आलोचय दायरे में हैं। अपने समकालीन दौर में ही नहीं, परवर्ती दौर के कथा साहित्‍य मे भी जिसे जनवादी, प्रगतिशील आदि भिन्‍न नामों से पुकारा गया, उनमें भी अभिजात्‍यता के प्रतिकार की वही साठोतरी सीमित स्थितियां बनी। समांतर कहानी आंदोलन के दौर में प्रतिकार के कलात्‍मक रूपों का विकास भी हुआ जिसका प्रभाव एक ओर नैतिकता और आदर्श के साथ ही जनपक्षीय होने के की प्रवृत्ति दिखायी देती है तो दूसरी ओर ठेठ कलावादी रूझानों का रास्‍ता भी साफ हुआ। अभिजात्‍यत संस्‍कारों में दैहिक नग्‍नता भी आदर्श होने लगी। कला और पक्षधरता के वास्‍तविक अंतर को खेमोंबंदी से नहीं जाना जा सकता। सिद्धान्‍त के स्‍तर तक ही नहीं बल्कि व्‍यवहार के स्‍तर पर भी कलावाद को पहचानने की जरूरत है। वरना जनपक्षधरता के नाम पर भी कलावादी व्‍यवहार का हिस्‍सा होती रचनाओं को पहचनना मुश्किल है। हिन्‍दी फिल्‍म जगत का सारा लोकप्रिय ढांचा कलावादी रूझानों की जद में ही फलता-फूलता बाजार है। गटर के भीतर उतरकर मैला ढोने वाले घटनाक्रमों के जरिये पात्रों के प्रति दर्शकीय संवेदना जागृत करना उसी सैद्धान्तिकी की उपज है, जो व्‍यवहार में कलावादी होते हुए भी जनपक्ष के साथ दिखती है। फिल्‍मी हस्तियों का वास्‍तविक जीवन उसका दूसरा पहलू होता है। संवेदना के व्‍यवसाय का यह उच्‍च कलावादी रूप है। इस फिल्‍मी यथार्थ का अनुवाद साहित्‍य की दुनिया (भाषा) में करें तो सामाजिक रूतबेदारी की अतिमहत्‍वाकांक्षा में जन्‍म लेती अभिजात्‍यत-ललक के साथ जन्‍म लेती पुरस्‍कार-लोलुपता मानवता के दुश्‍मनों तक के साथ दोस्‍तानेपन में दिखती है। पुस्‍तकों के विमोचन करती नामवरी गतिविधियों का यथार्थ होने लगता है। हिडन एजेण्‍डों के तहत  जारी आमंत्रणों को स्‍वीकार लेने पर कहर बरसा देने वाली स्थितियां भी चालूपन के साथ होती है। वहां व्‍याख्‍या के सरलीकरण का कलावाद आरोप-प्रत्‍यरोपों को जन्‍म देते हुए तो मौजूद रहता है लेकिन कलावादी रूझानों को सही तरह से पहचानने और उससे दृढ़ निश्‍चय के साथ परहेज करने की अभिजात्‍यता में गंवई संकटों से घिरा नजर आता है।
कहानियों पर बात करने की बजाय, दूसरे सामाजिक मसलों और हिन्‍दी की रचनातमक दुनिया के प्रसंगों को याद करना विषयांतर तो लग सकता है, पर है नहीं। रचनात्‍मक संसार का मानस आए दिन के घटनाक्रमों की पृष्‍ठभूमि में से मुक्‍त नहीं होता। फिर हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया की निर्मिति तो वैसे भी सम्‍पादकों की सक्रियता के साथ ही आंदोलनों वाली हुई है। किसी भी साहित्यिक आंदोलन का उफान और अवसान सम्‍पादक की सक्रिय उपस्थिति तक ही सीमित रहा। यहां तक कि सबसे ज्‍यादा युवा ही सबसे कम समय में बुढ़ा गया। बाकी आंदोलनों की उम्र का अनुमान लगाना या उनकी सीमाओं को पहचानना तो वैसे भी मुश्किल नहीं। दलित धारा की संघर्षशील दलित चेतना का ही विकास अवरूद्ध होता हुआ नहीं है, अपितु स्‍त्रीपन की आजाद ख्‍याली की अवधारणा भी सीमित होती गयी है।
आलोचय कहानियों की ओर लौटते हुए देख सकते हैं कि तीनों ही कहानियों में समकालीन यथार्थ अपने सम्‍पूर्ण वजूद के साथ है। मोहन दास का भोलापन, राजकुमार का पेटहगन रूप और निनकू के टिमकी जैसे पेट की छवियां तो यथार्थ के भी यथार्थ का दस्‍तावेज हो जा रही हैं। अतियथार्थ की ये स्थितियां दलित शोषित समाज के प्रति रचनाकारों की प्रतिबद्धता का एक पक्ष होते हुए भी विचार और व्‍यवहार के असंतुलन को ही दर्शाता है। यथार्थ की निरन्‍तरा में कहानियों के पात्र मिथकीय सीमाओं को छूते तो हैं लेकिन उनकी स्‍वीकार्यता सार्वभौमिक नहीं हो पाती। न तो मोहन दास की त्रासदी पूरी तरह से स्‍थापित हो पाती है और न ही राजकुमार का पेटहगन रूप । हां, अपने निजी दुखों की वजह से वे चौंकाऊ जरूर हैं। यद्यपि 'पांच का सिक्‍का' कहानी का प्रभाव कतई चौकाऊ नहीं लेकिन जमाने की चालाकियों की मार, वर्गीय अन्‍तरविरोध को पूरी तरह से परिभाषित कर सके, उससे पहले ही नि‍नकू का टिमकी जैसा पेट निजी दुख का पहाड़ बन जाता है। विशिष्‍ट पात्रों वाली इन कहानियों से गुजरते हुए कई बार लगता है कि समकालीन स्थितियों के ये मिथकीय पात्र हैं। लेकिन दूसरे ही क्षण वे स्थितियों का अतियथार्थ उन्‍हें निरीह मनुष्‍य में बदल देता है।


यह आलेख अनहद-6 में प्रकाशित है।
गंवई आधुनिकता क‍ी पहचान करते दो अन्‍य आलेख :

1) भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता के पूर्व प्रसंग 

2) गंवर्इ आधुनिकता में सांस लेती हिन्दी कहानी

 


Thursday, March 31, 2016

हिलाये से तो हिलते नहीं अभी


कूदा, हिला जाये ?
वैसे अभी फुरसत नहीं। हिलने में तो यूं भी घोड़े की ही टांग टूट जाती है, फिर आदमी का क्‍या। रहा कूदने का मसला तो गुजरात से कश्‍मीर तक छलांग लगा देना कोई छुपा हुई बात नहीं, विरोधियों तक का हांफना गवाह है। आप क्‍यों उबल रहे हैं, जो अबकी बार हम आपके शहर में न आकर ओल्विया-बोल्विया को निकल गये। अरे भाई जापान गये थे तो पैगाम दिया ही था बुलैट बुलैट। अपनी यादाश्‍त को दुरस्‍त रखिये, बताइये तो कहां कहां हो आये हैं ? सब्र करो, आ ही जायेंगे आपके पास, अभी तो यूं भी वर्ष 2016 है। हमारे सबसे करीबी बाबा तो हर रोज आपके करीब आते जाने की जुगत पर जुगत के साथ। पतंग जली जली जो उड़ रही है, हमारी ही है। भभूत-फभूत ही नहीं जूस-फूस तक के साथ जो भी कारोबार है, किसी बाहरी आदमी के लिए तो नहीं न। अब देखो न करीबी के वास्‍ते ही तो वायु सेवा शुरू करने जा रहे हैं। ऊं भागवत, भागवत। आप अपनी जन्‍म कुएडली बनवाइये। कुण्‍डलिनी जाग्रत करने न लग जायें पर। हमारे गेरुयेपन पर एतराज करने वालों की पांत में आकर साधू साधू चिल्‍लाने की बजाय याद करें रामलीला मैदान की रात जो सूट सलवार पहना था, रंग तो गेरुआ था ही नहीं उसका।

चलो-चलो, हटो-हटो। विद्यालय के छोकरा लोगों की बतकही में क्‍यों भड़क रहे हो। थोड़ा नाजुक सा ख्‍याल रखो कि स्मित मन मुस्‍कान है हम ईरानी ईरानी। समझ लो कि सलेबस, सेमस्‍टर के चक्‍कर में जो पढ़ गये होते तो अकड़ाये रहते खरे खरे।

चलो अब कूद ही लो, हिलाये से हिलते तो नहीं ही हम तुमसे अभी।                            

Sunday, March 27, 2016

अस्पताल के उस कमरे

एक छुअन की याद

योगेंद्र आहूजा 

पिछले कुछ बरसों में कर्इ बार ऐसा हुआ कि वीरेन जी को मिलने देखने अलग अलग अस्पतालों मेें जाना पड़ा, शीशों के पीछे दूर से ही देखकर वापस आना पड़ा । एक अस्पताल में उनके साथ, उनके बेड के करीब काउच पर दो रातें भी बितार्इं । फिर भी मुझे कभी यकीन नहीं हुआ कि वह शख्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है या हो सकता है । इसलिये कि बीमारी के सबसे कठिन क्षणों में, उपचारों के बीच के अंतरालों, मुशिकल शल्यक्रियाओं के बीच की मोहलतों में या एक से दूसरे अस्पताल आते जाते उनसे जो बातें होती थीं उनमें दुनिया जहान के सारे विषय आते थे, लेकिन जिस पर कभी चर्चा नहीं होती थी, वह था - उनकी बीमारी । वे उसकी चर्चा सफार्इ से टाल देते थे या जरा सा कुछ कहतेे थे तो एक ऊबे हुए स्वर में, निर्वैयकितक भाव से ।  मसलन 'हां यार इधर से काट दिया है उन्होंने या गर्दन की पटटी को छूकर - 'कुछ नहीं, जरा सा रेडियेशन से जल गया है । शायद ही किसी ने उनका दर्द से विकृत चेहरा देखा हो, कराहना सुना हो । उनके तार तो हमेशा पूरी कायनात से जुड़े थे । बीमारी बस एक व्यतिक्रम थी, थोडी देर का व्यवधान या 'ब्लैक आउट का एक संक्षिप्त अंतराल जब  रोशनियों कुछ देर के लिये बुझती हैं, मगर फिर जल उठती हैं, पहले से भी उज्जवल और प्रकाशमान । उन्हें बहुत अधिक मिजाजपुर्सी या अतिरिक्त चिंता दर्शाना पसंद न थे । वे साहित्य की दुनिया और असल दुनिया, दोनों के एक एक रग रेशे की खबर रखते थे, बहसों और वार्तालापों और मनोविनोदों में पूरी चेतना के साथ मौजूद रहते थे । इसलिये, वे अब नहीं हैं, यह खबर अभी तक मुझे एक अफवाह  सरीखी लगती है । उस चलती फिरती रौनक या छलकते प्याले का बीमारी और मृत्यु से कोर्इ नाता जोड़ पाना मुझे असंभव जान पड़ता है ।
दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे ।
'इसी दुनिया में के कवि के लिये जो कुछ था, बस यही दुनिया थी, भले ही यह उनके लिये छोटी पड़़ जाती थी । यह अधूरी थी, मनमुताबिक नहीं थी और रोज ब रोज भयावह होती जाती थी - मगर जो कुछ भी था वह यही । उन्हें जैसे सांस लेने को हवा काफी नहीं थी, सूरज, पक्षी, पौधे, पेड़़ और न जाने क्या क्या चीजें उन्हें हरदम पास बुलाती रहती थी । ( एक बार किसी चिडि़याघर से कोर्इ गैंडा भाग गया था और वे बरेली के मित्रों के साथ जीप में बहुत दूर उस जंगल में चले गये थे जहां उसका होना संभावित था । ) उन्हें लोगों से घिरे रहना, इर्द गिर्द मानवीय चेहरों की मौजूदगी पसंद थी और वे भी जैसे पूरे जुटते नहीं थे । मगर किसी दूसरी दुनिया में न उनका यकीन था, न कहीं और जाने की आकांक्षा । चालीस बरसों के लंबे साथ में, स्वाभाविक ही, अनेक बार प्रियजनों की मौतों की खबरें आयीं । ऐसे अवसरों पर मैंने उन्हें विचलित, शोकाकुल यहां तक कि अथाह शोक में डूबे हुए भी देखा( याद आता है कि गोरख पांडेय की मृत्यु की खबर आने पर वे किस कदर गमगीन हुए थे, और इसी तरह उत्तराखंड के पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या पर, अभिनेत्री सिमता पाटिल की मृत्यु पर )  - लेकिन मृत्यु को लेकर दार्शनिक चिंतन करते, फिलासफी में फिसलते कभी नहीं । वे हमेशा मौत के खिलाफ थे और मौत के फलसफों और मृत्योन्मुख  रचनाओं के उससे भी अधिक । सिर्फ स्थूल मृत्यु नहीं बलिक उसके जो भी संभव मायने हो सकते हैं मसलन ठहराव, गतिहीनता, खालीपन, खात्मा, मातम, सूनापन, पराजय, बिछोह, अलविदा । वह शख्स दर्द को भीतर भींचे, हाथों में एक डायरी थामे, आधे कटे चेहरे और रिसते घावों के साथ आखिरी पल तक जनांदोलनों में कवितायें पढ़ता यूं ही नजर नहीं आता था । बेशक वह फासीवाद के विरुद्ध अपनी मुटठी उठाना, प्रतिरोध के स्वरों में अपनी आवाज मिलाना चाहता था । बेशक वह कर्इ दशकों पहले, शुरुआती युवावस्था में अपने आप से किया वादा आखिरी सांस तक निभाना चाहता था - भाषा को रस्से की तरह थामे, दोस्तों केे रास्ते पर चलते जाने का । मगर यह मौत की घूरती आंखों से एक मुठभेड़ भी थी, उनकी निजी लड़ार्इ, जिसमें हर बार मौत को ही मुंह की खानी होती थी । इसलिये उस सर्वदा अपराजेय शख्स का इस दुनिया को अलविदा कह जाना मुझे घोर अतार्किक जान पड़ता है । उसे स्वीकार कर पाने के लिये मेरे पास कोर्इ तार्किक तसल्ली नहीं, न कोर्इ दार्शनिक दिलासा  । 

वे चार दशकों पहले के दिन थे । वे बरेली के उस कालेज में पढ़़ाते थे जहां मैं नैनीताल जिले के छोटे से कस्बे काशीपुर से आगे पढ़ने के लिये आया था । वे हिंदी विभाग में थे और मैं विज्ञान का विधार्थी था । ये दोनों विभाग एक दूसरे के लिये जैसे परग्रही थे, प्रकाश वर्षो की दूरी पर । लैबोरेटरी के सन्नाटे और सिर चकरा देने वाली गंधों के बीच उनके नाम का जिक्र कभी कभी चला आता था । कभी मैं भी मानविकी विभागों का एक खामोश चक्कर लगा आता था, यूं ही निरुददेश्य । उन दिनों एक ही कालेज में होने के बावजूद उनसे कभी भेंट नहीं हुर्इ । मैं उन्हें सिर्फ दूर दूर से देखा करता था । वे आपातकाल के सहमे हुए दिन थे । याद आता है कि कालेज के मेन हाल में कोर्इ साहित्यिक कार्यक्रम था । भीतर एक इंतजार करती, कसमसाती  हुर्इ भीड़ थी और मैं बाहर गलियारे में टहल रहा था । एक स्कूटर आकर रुकता है । वीरेन जी तेजी में हैं, मशहूर लेखक मटियानी जी के साथ भीतर जाते हुए ।  सीढि़यों पर उनके सैंडिल में कुछ उलझा, वे क्षणांश के लिये लड़खड़ाये । मैं पास ही खड़ा था, संकोच में सिमटा हुआ । मैं उस घड़ी आगे बढ़़कर उस हाथ को थामना चाहता था जिसे आगे चलकर असंख्य बार मुझे थामना था, भरोसा और दिलासे देने थे । लेकिन चूक गया, बस यूं ही खड़ा रहा । कर्इ सालों के बाद दोस्ती होने पर एक बार यह घटना उन्हें बतार्इ । हर 'टच अपने भीतर इतनी संभावनायें लिये होता है, उन्होंने कहा । हर छुअन कोर्इ दरवाजा खोल सकती है । क्या पता कि वह टच होते होते रह न जाता तो हमारी दोस्ती को इतने सालों का नुकसान न होता । 

उसके बाद न जाने कितने कुंओं की मुंडेरों पर साथ साथ बैठे, कितनी स़ड़कें नापीं । समुद्र तटों तक जाने वाली सड़कें, और धूल धक्कड़ से भरी और कबि्रस्तानों के करीब से गुजरने वाली उजाड़, सब प्रकार की । आलमगीरीगंज की सड़कों पर बेपनाह धूल हुआ करती थी और सिविल लाइंस की अभिव्यंजनावादी चित्रों सरीखी थीं, नीलवर्णी, नयनाभिराम । वह मेरे लिये एक अनखोजा, अनजाना, रोमांचक अनंत था । विचारधारा, मनुष्य, दुनिया, इंसान की जददोजहद, कवितायें और महान रचनायें और ख्ुाद अपना आप - जितना जानना संभव था, उसी दौरान, उनकी सोहबत मेें ही जाना । उसी दौरान विचार स्पष्ट और एनेलिसिस धारदार हुए । दुनिया और समाज की पोलें खुलीं, रहस्य उजागर हुए, मायने प्रकट हुए । वीरेन जी की सर्वाधिक प्रिय जगह सड़कें थीं और वे खुद को एक गरबीला सड़क छाप कहते थे । उनकी सड़क सीरीज की कवितायें इलाहाबाद की सड़कों के बारे में हैं लेकिन संभवत: सबसे अधिक वे बरेली की ही सड़कों पर दोहरायी गयीं । उन पर चलते हुए उन्होंने न जाने कितनी बार कहा होगा कि अपनी जमीन यही है, वे उसे छोड़कर कभी नहीं जाने वाले, या वहां से कहीं भी जाना वहीं वापस आने के लिये होगा । वहां की हर सड़क का मन में एक अलग संस्मरण है । 

बरेली कालेज के दिनों की दशकों पुरानी उस अनहुर्इ छुअन की याद से एक दूसरी छुअन की याद उभर आयी है । वे राकलैंड अस्पताल में थे । अगले दिन उनका एक आपरेशन होना था । उनका फोन आया । वे चाहते थे कि मैं वह रात अस्पताल के कमरे में उनके साथ बिताऊं । 'साथ में कुछ लेते आना यार, सुनाना यह भी कहा उन्होंने । कवि होने के नाते उनका ज्यादा राब्ता, स्वाभाविक रूप से, कविता की दुनिया से था । उनके लिये मुझे गल्प और गध के संवाददाता का रोल निभाना होता था । हमारे बीच का यह एक स्थायी मजाक था, एक नकली बहस ... मैं उन्हें छेडने के लिये कहता था कि रही होगी कभी कविता अग्रगामी विधा, लेकिन अब वह पिछड़ गयी है । इस वक्त का असल प्रातिनिधिक कृतित्व गध में लिखा जा रहा है, गध में ही मुमकिन है । कविता काल कवलित हो चुकी या कहानी के पीछे पीछे चलती है, लड़खड़ाती हुर्इ । 'क्षुधा के राज्य में पृथ्वी गधमय है बांग्ला कवि सुकांत का यह वाक्य हमारी बातचीत में आता था । वीरेन जी कहते थे कि यह वाक्य स्वयं अपने में एक कविता का अंश है, और मानवीय अभिव्यकित का सर्वश्रेेष्ठ रूप, कुछ भी कहो, कविता ही है, वही हर लफज की कीमत पहचानना सिखाती है, और, कि तुम लोग लफजों की कितनी बरबादी करते हो ।

दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे । बाद में उन्होंने मुझसे एक सहज शरीर-वैज्ञानिक जिज्ञासा प्रकट की - अच्छा, इस नली में इंजेक्शन से थोड़ी शराब डाली जाये तो  ?

बिस्तर के करीब बेंच पर बैठकर मैंने धीमे धीमे ब्राजील के लेखक जोआओ गाउमरास रोजा की बहुप्रशंसित, बहुअनुवादित कहानी पढ़ी जिसका शीर्षक था  - नदी का तीसरा किनारा । वे कंबल ओढ़कर लेटे थे, ध्यानमग्न सुनते हुए ।  वह उन्हें बहुत भावसिक्त करने वाली कहानी लगी लेकिन हमारी छदम बहस के संदर्भ में  उन्होंने कहा कि उस कहानी के सारे मायने तो वाक्यों के बीच हैं । उस पर खुद कविता का एक भारी कर्ज है । रात्रि काफी बीतने पर, अस्पताल के सन्नाटे में मैंने उन्हें जो दूसरी कहानी सुनार्इ वह पोलेंड के लेखक फि्रजेश कारिंथी की थी । वे खुद एक डाक्टर थे और कहानी भी अस्पताल की पृष्ठभूमि पर थी । इतने वर्षो के बाद उस रात्रि को याद करते हुए मुझे यह कुछ अतिरिक्त रूप से मानीखेज लग रहा है । एक अस्पताल में एक डाक्टर लेखक की कहानी का पढ़ा जाना, अस्पताल की पृष्ठभूमि पर ।

एक आपरेशन के तुरंत बाद एक बहुत सम्मान्य सीनियर सर्जन के दो सहायक, जो जूनियर डाक्टर हैं, दस्ताने उतारने के बाद हाथ धो रहे हैं । प्रथम सहायक वयदा गुस्से में उबल रहा है । 'जहन्नुम में जायें । उसका चेहरा लाल हो रहा है । 'डांट सुनने को मैं ही एक रह गया हूं । मैं कोर्इ बच्चा नहीं हूं । वे दोनों उस सर्जन को कोस रहे हैं जिसने आपरेशन के दौरान उन्हें छोटी छोटी गलतियों पर कस कर लताड़ लगार्इ है, मरीज के सामने ही जो बेहोश नहीं था । 'उसका असिस्टेंट होने का गौरव मेरे लिये दो कौड़ी का है । अब मुझ पर चिल्लाया तो ...। इसी दौरान प्रोफेसर सर्जन अचानक कमरे में चले आये थे । उन्होंने उनका चिल्लाना सुन लिया है मगर अनजान बनकर वे कहते हैं -  अच्छा भाइयो, आज का काम खत्म हुआ । 

दोनों की जान में जान आती है । मुंह से खून के छींटे धोते हुए सर्जन दर्र्द से कराहता है । दोनों सहायक दौड़ते हैं । 'ओह यह मुझे चैन न लेने देगा । इसका इंतजाम करना ही होगा । वह कहता है । सहायक हक्के बक्के खड़े हैं। 

'मुंह बाये क्या खड़े हो ? जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं कि मुझे हर्निया है । काम करते वक्त जब मैं दर्द के मारे दांत भींचता हूं और तुम छिप छिप कर हंसते हो तो तुम समझते हो कि मैं जानता नहीं ? 

वीरेन जी आंखें मेरे चेहरे पर टिकाये ध्यानमग्न सुन रहे हैं ।

आने वाले कुछ दिन छुटिटयों के हैं । सर्जन के मन में जैसे उसी क्षण विचार आया हो, वह तय करता है कि क्यों न तत्काल उसका आपरेशन कराकर छुटटी पायी जाये । उसकी स्फूर्ति का असर सहायकों पर भी होता है । वे सुझाव देते हैं कि फलाने सर्जन को बुलाया जाये । 'दिमाग ठिकाने है ? प्रोफेसर भयंकर चेहरा बनाकर कहता है । 'भला किसी अन्य प्रोफेसर की मजाल जो मेरे पेट में पंजा घुसेड़े ? आपरेशन थियेटर तैयार होता है । वही सहायक आपरेशन करेंगे । बस चिमटियां, औजार, रुर्इ पकड़ाने के लिये एक नर्स और रहेगी । चीरा लगाने के लिये स्थानीय रूप से सुन्न करना काफी है । इत्तफाक से वे सुबह नाश्ता गोल कर गये थेे इसलिये जुलाब देने की भी जरूरत नहीं । एक बड़ा सा शीशा लैंप के ऊपर तिरछा लटकाया जायेगा कि प्रोफेसर सारा तमाशा साफ साफ देखते रहेें । 

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।
वीरेन जी उठकर बैठ जाना चाहते हैं । नर्स भागी हुर्इ आती है । वह टूटी फूटी हिंदी में कुछ कहती है और उन्हें फिर लेटने को बाध्य कर सिरहाना और नलियां ठीक करती है । उसके जाने के बाद वीरेन जी कहते हैं, चिटखनी लगा दो । 

इसके बाद कहानी में उस आपरेशन का विस्तार से विवरण है ।  दोनों जूनियर सहायक डरे सहमे हैं और प्रोफेेसर उन्हें हर बात पर डांटता है - रोशनी का फोकस, चीरे की पोजीशन और लंबार्इ, चिमटियां रखने की जगह ।  उनका चेहरा अपमान के मारे काला पड़ जाता है । आपरेशन चल रहा है और वह उन्हें गालियों से नवाज रहा है । 'कसार्इ, साले, नालायक । वे घबराये हुए, गलतियों पर गलतियां करते हैं । माथे पर पसीना झलमला रहा है । जख्म बहते जा रहे हैं, उनसे धागे निकल रहे हैं । 'धन्य हो, जनाब सर्जन । अब क्या करना होगा ? बता दूं तो बड़ा अच्छा हो, क्यों ? लेकिन अपनी प्रतिष्ठा की जिस सर्जन को इतनी चिंता हो, उसे पता होना चाहिये । मैं कौन हूं ? मैं तो इस वक्त असहाय मरीज हूं । अपनी मुकित का इंतजाम खुद ही करो । 

वीरेन जी के चेहरे से जाहिर है कि कहानी का एक एक लफज दिल को चीरता चल रहा है । एक कामिक कथा होने का भ्रम देने वाली यह कहानी जब अवाक कर देने वाले बेहद मानवीय और हृदयस्पर्शी अंत पर पहुंचती है, उनका चेहरा उत्तेजना से आरक्त है । उनकी आंखें चमकने लगी थीं । 'यह मुझे फोटो स्टेट चाहिये यार ।  यहां के सारे डाक्टरों और नर्सो को दूंगा । उन्होंने कहा । 

अस्पताल के उस कमरे में न कोर्इ बीमारी थी न अंत की दूर दूर तक कोर्इ आहट । वहां दवाइयों की गंध थी मगर हमारे लिये उस रात अस्पताल का वह कमरा जैसे 'बहारों का जवाब था । ओह काश मुझे अंदाजा होता कि . . .
कुछ देर में वीरेन जी सो गये । वे हल्की सर्दियों के दिन थे । पास के काउच पर लेटे मुझे भी न जाने कब नींद आ गयी । वह ऊषाकाल रहा होगा जब आप गहरी नींद में होते हुए भी जागृत होते हैं । मैंने महसूस किया गरमार्इ का एक सुखद घेरा पैरों की तरफ से उठता, मुझे ढ़कता हुआ । कोर्इ मुझे कंबल ओढ़ा रहा था । वह जो भी था, उसका नर्स होना तो नामुमकिन था क्यों कि रात को सोते वक्त कमरे का दरवाजा मैंने ही बंद किया था । नींद में ही अवचेतन ने हर हरकत, छोटी से छोटी चीज दर्ज की । किस तरह वीरेन जी ने मुझे कंबल ओढ़ाने के लिये अपने हाथ से वह सुर्इ सावधानी से अलग की होगी । ग्लूकोज वाला स्टैंड परे खिसकाया होगा । बिस्तर से उतर कर कुछ कदम चल कर मुझ तक आये होंगे ।

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।  

Monday, March 21, 2016

वह तो एक नन्हा कैक्टस है, जड़े जिसकी हैं सबसे लम्बी

क्‍या कभी लौटा लेकर दिशा मैदान जा‍ती स्‍त्री का चित्र बनाया है किसी चित्रकार ने ? हिन्‍दी की दुनिया में ऐसे प्रश्‍न अल्‍पना मिश्र की कहानी में उठे हैं।
ऐसे प्रश्‍नों की गहराईयों में उतरे तो कहा जा सकता है कि ये प्रश्‍न स्‍त्री को मनुष्‍य मानने और तमाम मानवीय कार्यव्‍यापार के बीच उसकी उपस्थिति को दर्ज करने के आग्रह हैं। नील कमल की कविता ‘’कितना बड़ा है स्‍त्री की देह का भूगोल’ ऐसे ही प्रश्‍न को अपने अंदाज में उठाती है। पहाड़, पठार, नदी, रेगिस्‍तान, भौगोलिक विन्‍यास की ऊंचाईयों वाले उभार, या झील सी गहराइयों वाली नमी के ऐसे यथार्थ हैं जिनकी उपस्थितियों का असर भूगोल विशेष के भीतर निवास करने वाले व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन उन प्रभावों को नापने का कोई यंत्र शायद मौजूद नहीं। यदि ऐसा कोई यंत्र हो भी तो क्‍या अनुमान किया जा सकता है कि लैंगिक अनुपात का ऐसा कोई ब्‍यौरा प्राथमिकता में शामिल होगा, जिसमें स्‍त्री मन की आद्रता, तापमान और रोज के हिसाब से टूटती आपादओं के असर में क्षत विक्षत होती उसकी देह के आंकड़े होंगे ? यह सवाल निश्चित ही उन स्थितियों को याद करते हुए जहां स्‍त्री जीवन को इस इस स्‍तर पर न समझने की तथ्‍यता मौजूद है। पृथ्‍वी की ऊंचाईयों वाले उभारों, या झील की गहराइयों वाली नमी पर तैरने वाले भावों से भरी काव्‍य अभिव्‍यक्तियों के बरक्‍स नील की कविता सीधे-सीधे सवाल करती है- बताओ लिखी क्‍यों नहीं गई कोई महान  कविता/ अब तक उसकी एडि़यों की फटी बिवाइयों पर।‘’
विज्ञान के अध्‍येता नील कमल के यहां सीली हुई दीवार को सफेद धूप सा  खिला देने वाला भीगा हुआ चूना नरेश सक्‍सेना की कविता के क‍लीदार चूने से थोड़ा अलग रंग दे देता है। उसकी खास वजह है कि शुद्ध तकनीकी गतिविधियों को कहन के अंदाज में शामिल करके शुरू होती नील की कविता बस शुरूआती इशारों के साथ ही तुरन्‍त आत्‍मीय दुनिया में प्रवेश कर जाना चाहती है। सामाजिक विसंगतियों की घिचर-पिचर में अट कर रास्‍तों को तलाशने की मंशा संजोये रहती है। लेकिन कई बार प्रार्थना के ये स्‍वर भाषा के उस सीमान्‍त पर होते हैं जहां इच्‍छायें बहुत वाचाल हो जाना चाहती हैं। वे जरूरी सवाल जिन्‍हें हर भाषा की कविता ने अपने अपने तरह से उठाने  की अनेकों कोशिशें की हैं, लेकिन तब भी जिन्‍हें अंतिम मुकाम तक पहुंची हुई दुनिया का हिस्‍सा होने के लिए बार बार दर्ज किया जाना जरूरी है, अच्‍छी बात है कि नील की कविताओं के भी विषय है लेकिन उनका स्‍वर कहीं कहीं थोड़ा वाचाल है। यह आरोप नहीं बल्कि एक इशारा है, इसलिये कि नील कमल के यहां कविता के बीज अपनी धरती पर उगने की संभावना रखते हैं। सलाह के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें जो काव्‍य-स्‍पेश तो कम क्रियेट कर रही हो और बयान ज्‍यादा हो जाना चाहती हों, उनसे बचा जाना चाहिए। यहां कविता में आ रही दुनिया और उन जरूरी मुद्दों से नाइतिफाकी न देखी जाये, क्‍योंकि जरूरी मुद्दों की तरह उन्‍हें पहले ही चिह्नित किया जा चुका है। स्‍पष्‍ट है कि उन जरूरी सवालों से टकराते हुए ही नया बिमब विधान रचते हुए किसी भी तरह की पुरनावृत्ति से बचा ही जाना चाहिये। फिर वह चाहे खुद की हो या अन्‍य प्रभावों की हो।  
रोमन लिपि के पच्‍चीसवें वर्ण का एक बिम्‍ब गुलेल से बन जाता है। तनी हुई विजयी प्रत्‍यंचा की धारों पर पांव बढ़ते जाते हैं। इस छवी के साथ एक उत्‍सुकता जागने लगती है। लेकिन निशाने पर  गोपियों की मटकी है। पके हुए आम के फल हैं। जबकि प्रत्‍यंचा के तनाव पर सारा आकाश आ सकता था। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद तब इस खबर का कोई मायने नहीं रह जाता कि अपने निर्दोषपन की छवी में भी गुलेल बेहद खतरनाक हथियार है। रचना की प्रक्रिया को जानने की कोई मुक्‍कमल एवं वस्‍तुनिष्‍ठ  पद्धति होती तो जिस वक्‍त गुलेल एक बिम्‍ब के रूप में कवि के भीतर अटक गयी होगी, उसे जाना जा सकता था, कि उसके निशाने कहां सधे थे। कविता की अंतिम पंक्तियों में उसको खतरनाक बताने वाली खबर अनायास तो नहीं ही होगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि उभरे हुए बिम्‍ब और कविता के उसके दर्ज होने में जरूर कहीं ऐसा अंतराल है जो कवि की पकड़ से शायद छूट रहा है। इस बात को तो कवि स्‍वंय जांच सकता है। यदि यह सत्‍य है तो कहा जा  सकता है कि कविता को लिखे जाने से पहले उस वक्‍त का इंतजार किया जाना था जहां फिर से वही स्थितियां और मन:स्थिति कवि की अभिव्‍यक्ति का सहारा बनना चाह रही होती। सामाजिक, सांस्‍कृतिक ओर मानसिक स्थितियों की ऐसी छवियां जो एक समय में कोंध कर कहीं लुक गयी हों, एक कवि को उन्‍हें पकड़ने के लिए फिर से इंतजार करना चाहिये। नील कमल की बहुत सी कविताओं में वह इंतजार न करना खल रहा है। जबकि नील की कविताओं का बिम्‍ब विधान अनूठे होने की हद तक मौलिक है। ‘पेड़ पर आधा अमरूद’, ‘पेड़ो के कपड़े बदलने का समय’, ‘‍स्‍त्री देह का भूगोल’, ‘ईश्‍वर के बारे में’ आदि ऐसी कवितायें है जिनमें नील जिन अवधारणाओं के साथ हैं, वे आशान्वित करती हैं। उनके सहारे कहा जा सकता है – हे ईश्‍वर ! तुम रहो अपने स्‍वर्ग में, तुम्‍हारा यहां कोई काम नहीं। मुसीबतों में फंसे होने पर सिर्फ ‘आह’ भर का नाम नहीं होना चाहिये ईश्‍वर। यहां-  पिता नाम है, इस पृथ्‍वी पर/दो पैरों पर चलते ईश्‍वर का। ईश्‍वर के बारे में रची गयी अवधारणाओं का यह ऐसा पाठ हे जो मुसिबत की हर कुंजी को अपने पास रखने वाली ताकत को ईश्‍वर के रूप में पहचान रही है।
भावुक मासूमियत से इतर नील कमल की कविताओं का मिजाज उसी तरह से तार्किक है जैसे कवि नरेश सक्‍सेना के यहां दिखायी देता है। वहां बहुत सी ऐसी धारणायें ध्‍वस्‍त होती हैं जो अतार्किक तरह से स्‍थापित होना चाहती है। सबसे गहरी जड़ो वाला पौधा  न तो बूढ़ा बरगद है न पीपल, बल्कि वह तो एक नन्‍हा कैक्‍टस है जिसकी जड़ें धरती में उस गहराई तक उतरती हैं, पानी की बूंद होने की संभावाना जहां मौजूद हो। धरती की अपनी सतह पर के सूखे के विरूद्ध हार कर पस्‍त नहीं हो जाना चाहती। कई कवितायें इतनी सहज होकर सामने आती हैं कि हैरान कर देती। जीवन के जाहिल गणित को सुलझाने में नील की कवितायें न भूलने  वाली कवितायें हैं। अपनी पंक्तियों को वे सह्रदय पाठक के भीतर जिन्‍दा किये रहती है। दो को पहाड़ा दोहराने के लिए उन्‍हें ताउम्र भी याद रखा जा सकता है।    
- विजय गौड़

Friday, March 18, 2016

मेरी, तेरी, सबकी मां की जय हो भारत

विजय गौड़

 
भारत माता की जय, तू-तू, मैं-मैं की हदों को पार कर रही है। यहां तू-तू, मैं-मैं को मुहावरे की तरह ही देखें। वैसे भी मैं राष्‍ट्रद्रोही नहीं हूं। राष्‍ट्रदोह का सार्टिफिकेट बांटने वालों से अपील है कि वे अपनी सील-मुहर को अभी थैले से बाहर न निकाले और घ्‍यान से पढ़ें।

अब देखिये न एक तरफ वे महाशय जिद ठाने बैठे हैं कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, दूसरी ओर माता के सच्‍चे पुत्र हैं, जो यूं तो अक्‍सर ही मां का नाम भूल जाते हैं, और वक्‍त बेवक्‍त के हिसाब से कुछ भी पुकार लेते हैं, जिद्द ठाने हैं कि भारत माता की जय तो बुलवा कर ही रहेगें। देखिये मैं राष्‍्ट्रदोही पुकार दिये जाने का खौफ खाये बगैर बता देना चाहता हूं कि कभी किसी क्रिकेटकर, किसी विराटरू या मोनी-जॉनियों के कलात्‍मक अंदाजों पर, खासतौर पर उस वक्‍त जब वे भारतीय जनता के करोड़ो रूपयों के कजर्दार किसी शराब के व्‍यापारी की खरीद पर बनायी गयी एक टीम हों या अन्‍यथा भी, जब वे विरोधी टीम के धुर्रे उड़ा रहे हों और उनका मालिक व्‍यपारी चीयर्स गर्ल्‍स की कमर में हाथ डालकर यम यम करता हो, तो औपनिवेशिक पहचान कराती भाषा में गूंजने वाले नाम के साथ माता को याद करते हुए लगाया जाने वाला जयकारा भी उनकी दमित इच्‍छाओं का यम यम हो जाता है। एक बात ओर है कि संसद, कानून और जब चाहे तब बेखौफ सरहदों के आर-पार निकल जाने वाले और सब तरफ से विजय पाये व्‍यापारी के राष्‍ट्रद्रोह को भी यदाकदा पहचान लेने वाले चैनलों के एंकर भी तू-तू, मैं-मैं को हवा देने में कम नहीं।

मजेदार है कि कितने ही चैनेलों के एंकर भी गले की नसें फुलाफुलाकर उस टोपीबाज को बिल्‍कुल सामने-सामने देशद्रोही और जाने क्‍या क्‍या बोल रहे हैं, मुकदद्दमें का डर दिखा रहे है, लेकिन वह तब भी भरत माता की जय न बोलने की जिद्द पर अड़ा बैठा है और अपने ही धर्म के एक सांसद के भावनात्‍मक इजहार तक को धत्‍ता बताकर कभी जय हिन्‍द तो कभी इंक्‍लाब जिंदाबाद ही कहे जा रहा है। भारत माता की जय का तर्जुमा करके मंद मंद मुस्‍कराते हुए वह और भी चिढ़ाऊ कार्रवाई करने में माहिर है। उसके अंदाज पर तो नसें फुलाकर बोलने वाले एंकरों से प्रभावित और देश प्रेम के क्रोध से उबल रहे भले मानुस भी कभी-कभी सारे मामले को खुद ही नूरा कुश्‍ती के रूप में देख सकते हैं।

खैर हमें इस चिन्‍ता में नहीं घुलना है और न ही तू-तू, मैं-मैं करने वालों के झांसे में आकर कभी राष्‍ट्रवाद का सार्टिफिकेट बांटने वालों के साथ होना है और न ही हर सेकैण्‍ड के हिसाब से बांटे जा रहे उन सार्टिफिकेटों को फाड़ने में जुटे नूरा कुश्‍ती लड़ते हुए मुस्‍कराने वालों के साथ होना है। खतरा तो दोनों ही ओर है। निश्चित ही है। वैश्विक पूंजी से दोनों का ही प्रेम इतना अनूठा है कि अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से दोनों ही जनता की एक मुश्‍त गाढ़ी कमाई के पैसे को वैश्विक पूंजी द्वारा बाजार में उतारी हुई मशीनों पर लुटा देना चाहते हैं। उनकी जरूरत को पूरा करने के लिए सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड की दर से सार्टिफिकेट बांटेगी और फाड़ने वाली प्रति सैकेण्‍ड की दर से उन्‍हें फाड़ती जायेगी1 खबरों की तलाश में जुटे चैनलों को विकास के आंकड़े पर सुबह से शाम तक मजमा-ए-बहस जुटाना आसान होगा। वे बता पायेगें कि आज सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड चार सार्टिफिकेट की दर से कुल तीस हजार सार्टिफिकेट ही बांट पायी जबकि सार्टिफिकेट फाड़ने वाली मशीन ने प्रति सैकेण्‍ड पांच सार्टिफिकेट की दर से सारे के सारे सार्टिफिकेट कुल समय से दो घंटे पहले ही फाड़ दिये। तय मानिये मजमा-ए-बहस के निर्णय आंकड़ो को इस तरह से परिभाषित करने में साहयक रहेंगे कि गठित समीक्षा कमेटी सिफारिशें दे पाये कि मशीन की कार्यक्षमताओं को परिमार्जित करना आवश्‍यक है। अत: एफ डी आई का प्रतिशत 51 कर दिया जा रहा है।

मित्रों बहुत हुई तू-तू, मैं-मैं।

यह बताइये कि आपकी भाषा में मां को क्‍या कहते हैं ?
मैं तो गढ़वाल का रहने वाला हूं, मेरी मातृभाषा में तो ‘ब्‍वै‘ बोला जाता है।
कल एक मित्र बोले कि उनकी भाषा में ‘दइया’, ‘महतारी’, ‘माई’, तीनों ही शब्‍द प्रचलित हैं।
वैसे मेरा दोस्‍त पाटिल तो ‘आई’ ही बोलता है।
आपको सच बताऊ गढ़वाल के पड़ोस में ही कुमाऊ है वहां ‘ईजा’ बोला जाता है।
आपकी मातृभाषा में क्‍या बोलते हैं ? जो भी बोलते हों बोलिये उस मां की भी जय।

 

Sunday, March 13, 2016

सांस्‍कृतिक आयोजनों का ‘राष्‍ट्रवादी’ चेहरा


बंगला दलित धारा के कवि कालीपद मणि की कविता का यह स्‍वर व्‍यापक दलित, शोषित समाज को दायरे में रखकर लिखी जाने वाली किसी भी भाषा की कविताओं के ज्‍यादा करीब है। यही वजह है कि वैश्विक स्‍तर पर इस देश को सिर्फ अध्‍यात्‍मवादी नजरिये से सिरमौर होते देखने की चाह रखने वाले सांस्‍कृतिक आयोजनों के ‘राष्‍ट्रवादी’ विचार से यह सीधे मुठभेड़ कर रही है। शिक्षा व्‍यवस्‍था का वह ढकोसला भी यहां तार तार हो रहा, जिसका यूं तो आमजन के जीवन को संवारने में वैसे भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं, पर जिसकी उपस्थिति से यदा कदा की कोई संभावना जन्‍म ले जाती है। तय जानिये यदा कदा की वे संभावनायें भी उनकी आंखों की किरकिरी है, मुनाफे की सोच के चलते जो, उन सरकारी विद्यालयों को भी पूरी तरह बंद कर देना चाहते हैं। उनकी साजिशों का खेल ही ‘सांस्‍कृतिक’ होता हुआ आर्ट ऑफ लीविंग है।

कालीपद मणि 

अनुवाद – कुसुम बॉंठिया 


प्रश्‍न का तीर-इस्‍पात

   
एक शिशु कंठ सुबह शाम
फुटपाथ पर तैरता रहता है
छ: रुपया किलो, बाबू, ताजा खीरे
खत्‍म हो गये तो पछताओगे।
खींच-खींच कर लगाए रट्टा
ठीक जैसे बचपन की पाठशाला में  
पढ़ाई की रटंत
एक कौड़ी पा गंडा
दो कौड़ी आध गंडा।

कुछ देर खड़ा रहता हूं उसके पास
नंगे बदन, पैबन्‍द लगी बेहद बदरंग पैंट
पास ही उकड़ू बैठी उसकी माँ
पके बालों में जूं तलाशती हुई।
अचानक ही उससे पूछ बैठा
लड़का स्‍कूल क्‍यों नहीं जाता ?
बुढि़या फुफकार उठी निष्‍फल आक्रोश से
प्रश्‍न के तीर से इस्‍पात छिटक रहा था
गिरस्‍ती फिर कइसे चलाऊँगी
बताइए आप ?
क्‍यों, बोलते क्‍यों नई ?
उत्‍तरहीन पृथ्‍वी
मुँह पर ताला जड़े
निर्वाक् चलती जा रही है।
शिशुकंठ की रट्टा बंधी पुकार सुनाई दे रही है
छ: रुपया किलो बाबू ताजा-ताजा खीरे।

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!



Friday, March 11, 2016

अभिव्यक्ति का झूला

“शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।“ एडुआर्डो गैलियानो का यह वक्तव्य डा. अनिल के महत्‍वपूर्ण अनुवाद के साथ पहल-102 में प्रकाशित है।
 
इस ब्लाग को सजाने संवारने और जारी रखने में जिन साथियों की महत्वतपूर्ण भूमिका है, कथाकार दिनेश चंद्र जोशी उनमें से एक है।
 
जोशी जी, भले भले बने रहने वाली उस मध्य वर्गीय मानसिकता के निश्छल और ईमानदार व्य।वहार बरतने वाले प्रतिनिधि हैं, जो हमेशा चालाकी भरा व्यवहार करती है और लेखन में विचार के निषेध की हिमायती होती है। पक्षधरता के सवाल पर जिसके यहां लेखकीय कर्म के दायरे से बाहर रहते हुए रचनाकार को राजनीति से परहेज करना सिखाया जाता है और रचना को अभिव्यक्ति के झूले में बैठा कर झुलाया जाता है, इस बात पर आत्म मुगध होते हुए  कि चलो एक रचना तो लिखी गयी। जोशी जी का ताजा व्यंग्य लेख इसकी स्पष्ट मिसाल है।
 
असहमति के बावजूद लेख को टिप्‍पणी के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्पष्‍ट है कि ब्लाग की विश्ववसनीयता कायम रहे। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत हो सके, एवं ऐसे गैर वैचारिक दृष्टिकोण बहस के दायरे में आयें, जो अनर्गल प्रचारों से निर्मित होते हुए गैर राजनैतिक बने रहने का ढकोसला फैलाये रखना चाहते हैं लेकिन जाने, या अनजाने तरह से उस राजनीति को ही पोषित करने में सहायक होते हैं, जिसके लिए ‘लोकतंत्र’ एक शब्द मात्र होता है- जिसका लगातार जाप भर किया जाना है, ताकि अलोकतांत्रिकता को कायम रखा जा सके।

वि.गौ.

व्यंग्य लेख

                                 वाह कन्हैया, आह कन्हैया

         दिनेश चन्‍द्र जोशी
          9411382560
 
एक कन्हैया द्वापर युग में पैदा हुए थे, दूसरे आज के साइबर युग में प्रकट हुए है। द्वापर वाले कन्हैया गोपियों के साथ रास नचाते थे, ये नये वाले जे.एन.यू की गोपियों के साथ विचारधारा रूपी प्रेमवर्षा में स्नान करते हैं। ये बौद्धिकता की वंशी बजा कर जे.एन.यू के ग्वाल बालों को सम्मोहित करते हैं, देश उनके लिये कागज में बना नक्सा भर है, जिसको रबर से मिटा कर बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य है, ''देश से नहीं, देश में आजादी,''  उनका नारा है, ''आजादी, आजादी'', मुह खोलने की आजादी, मन जो कहे उसे उड़ेलने की आजादी। क्योंकि उनका मन अभिव्‍यक्ति के लिये छटपटाता रहता है, इसी छटपटाहट के तहत उनकी संगत कुछ देश द्रोही किस्म के ग्वाल बालों से हो गई थी। वे आजादी के मामले में इससे दो हाथ और आगे थे, वे नारे लगा रहे थे, देश के टुकड़े टुकड़े कर देंगे, मुटिठयां उछाल रहे थे, हुंकारा भर रहे थे, आग उगल रहे थे, कन्हैया भी उनके झांसे में फंस गये, उस भीड़ में प्रकट नजर आये, नैतिक समर्थन देने को उत्सुक से। टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वाले भूमिगत हो गये।   छात्रसंघ के अघ्यक्ष होने के नाते  कन्हैया धर लिये गये। हवालात में, सुनते हैं, कन्हैया की ठुकाई भी हुई। उनका मोरमुकुट बंशी वंशी सब तोड़ दी गई होगी, जाहिर सी बात है। उन पर राजद्राोह का आरोप लगाया गया। कन्हैया की गिरफ्तारी पर बवाल मच गया। सारे जे.एन.यू के ब्रजमंडल सहित वामदल,पुष्पकमल दहलवादी विफर पड़े। देशभक्ति  की भाावुकता को संघियो का षडयन्त्र बताया, तर्क,विचार, ज्ञान,शोध आजादी के अडडे की श्रेष्ठता को बदनाम करने की साजिश बताया। सेक्युलरवादियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोये। राहुल बाबा की बैठे बिठाये मौज हो गई। नितीश बोले, ये मथुरा वाला नहीं ,हमारे  बेगूसराय वाला कन्हैया है, इसको हिन्दूवादी तंग कर रहे हैं, अलबत्‍ता लालू जी के गोल मटोल ढोल से कुछ मौलिक किस्म का प्रहसन नहीं झरा। दक्षिणपंथियों ने देशभक्ति की विशाल रैली निकाली, तिरंगे फहराये, केशरिया लहराये, कहा, बन्द कर देने चाहिये देशद्रोह के जे..एन.यू जैसे अडडे, जहां पर शराब, ड्रग्स, कंडोम बहुतायत में पाये जाते हैं। ऊपर से देश के टुक्ड़े टुकड़े करने के नारे भी लगाये जाते हैं। आंतकवादी इनके आदर्श हैं, हाफिज सईद इनका सरगना है, इन सबको पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिये। मीडिया की बहार हो गई, देशभक्ति व देश द्रोह की परिभाषायें खंगाली गई,कानूनी टीपें खोजी गई। इन विषयों के वक्ता प्रवक्ताओं की दुकानें चैनलों पर जम कर चलने लगी। भगत सिंह, गोलवलकर, गांधी, गोडसे सब लपेटे में लिये गये। कुछ ने सोनियां को महान देशभक्त बताया। उधर हनुमनथप्पा सियाचीन में बफ्र्र के नीचे दबे कराहते रहे, इधर जे.एन.यू के मुकितकामी, देशभक्ति को छदम अवधारणा ठहराने का तर्क गढ़ते रहे।  कन्हैया को कोर्ट में पेश किया गया, वहां काले कोट वालों ने उन पर लात घूंसे जड़ने की चेष्टा की, कुछ इस अभियान में सफल भी हुए,कुछ निराश जो देशभक्ति का कर्ज नहीं चुका पाये। बड़ा विलोमहर्षक –दृश्य था, जनता भौचक्की रह गई, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर देशभक्ति होती क्या चीज है, तिरंगा फहराना या काले झंडे दिखना। जनता बिचारी को खुद अपनी देशभक्ति पर शक होने लगा। इधर कन्हैया को जमानत भी मिल गई, वे हवालात से हीरो बन कर लौटे, उनका इन्टरव्यू लेने को मीडिया में होड़ मच गई है।  कन्हैया ने जे.एन.यू के ग्वालबालों को भाषण दिया,उनको देशभक्ति की व्याख्या समझाई, वे काले जैकिट के भीतर सफेद टी शर्ट में सलमान खान वाले अंदाज में नमूदार हुए। जे.एन.यू की गोपियां उसकी रोमानिटक बौद्धिकता पर फिदा हुई। कन्हैया ने अपनी मां की गरीबी का हवाला दिया। उसने स्वयं को विधार्थी व बच्चा भी कहा, इस बच्चे ने फिर राजनीतिक भाषण दिया,उसका भाषण सुन कर तीसियों साल वामपंथ में खपा चुके बूढ़े कुंठित हुए। कन्हैया ने कहा, हमें मुक्ति चाहिये, गरीबी से, बेरोजगारी से, साम्प्रदायिकता से, सामन्तवाद से मुक्ति। हमें छदम देशभक्ति से मुक्ति चाहिये, असहिष्णुता से मुक्ति। मुक्ति का पाठ पढ़ाता कन्हैया, बच्चे से एक घाघ नेता में तब्दील नजर आया। उसकी नेतागिरी से प्रभावित हो कर सीताराम येचूरी ने उसको अपना चुनाव प्रचारक घोषित कर दिया,बंगाल के चुनाव हेतु। केजरीवाल उसके मुक्ति पाठ से प्रेरित होकर कहने लगे,हमें भी मुक्ति चाये,राज्यपाल जंग से। उसका मुक्ति पाठ इतना प्रभावशाली था कि उस पाठ ने कइयों को अपनी जद में ले लिया। स्त्रियां पतियों से मुक्ति चाहने लगीं,कर्मचारी बास से, बच्चे अभिभाावकों से, कांग्रेसी सोनियां राहुल से, विपक्षी मोदी सरकार से मुक्ति चाहने लगे,सत्‍ताधारी सहिष्णुता के ठेकेदारों से। गीतकार आधुनिक कविता से मुक्ति चाहने लगे, कहानीकार,लम्बी कहानी लाबी से। कन्हैया का मुक्ति पाठ वायरल हो गया। कन्हैया का देशद्रोह सफल हो गया, हालांकि उसकी मुक्ति व स्वच्छन्दता का राग कइयों के गले नहीं उतर रहा है,वे उसकी ठुकाई तैयार बैठे है, उसके सिर पर इनाम घोषित हो चुका है, ये उसको कंस बना कर छोड़ेंगे।
 

Friday, February 19, 2016

खाकी निक्कर

सुनील कैंथोला
 
खुर्शीद, मास्टर का दूसरे नंबर का बेटा है. बड़ा वहीद और छोटा मुस्तकीम. मुस्तकीम से पहले एक लड़की है, जिसका नाम मुझे याद नहीं. ये सारे बच्चे चोराहे के उसी खोके में पैदा हुए जिसके एक हिस्से में मास्टर अपनी नाई की दुकान चलाता था. मास्टर अब नहीं है, उसकी मौत उस ज़माने में हुई जब दारू के नाम पर टिंचरी दवाई की दुकानों में खुलेआम बिका करी थी. मास्टर के अनेक किस्से हैं जैसे कि वो आँखों की कोई दवा मुफ्त बांटा करता था. या कि उसका खोका बेरोजगारों को छुपकर बीडी पीने की निशुल्क आड़ प्रदान किया करता था. पर छोड़ो, ये किस्सा मास्टर के बारे में नहीं बल्कि खुर्शीद और उसकी खाकी निक्कर के बारे में है.

मास्टर जैसा भी रहा हो, पर उसने अपने बच्चों को स्कूल जाने और पढने से रोका नहीं. ये अलग बात है कि वो जायदा पढ़े नहीं, पर थोडा बहुत विद्यार्थी जीवन सभी बच्चों के  हिस्से आया.  स्कूली दिनों में हिन्दू-सिख बच्चों की संगत में रहते हुए खुर्शीद को अपना नाम अटपटा लगने लगा. फिर किशोरावस्था में कदम रखते हुए जब उसने कैंची और उस्तरा संभाला  तब उसने खुर्शीद के खुरदुरेपन को दूर करने की ठान ली. उन्ही दिनों वो मेरे संपर्क में आया था. तब मास्टर सेमी रिटायरमेंट मोड में था और दुकान अब वहीद और खुर्शीद चलाने लगे थे. छोटा  मुस्तकीम अभी भी स्कूल जा रहा था और उनकी बहिन छोटी उम्र में ब्याही जा चुकी थी. जब से खुर्शीद दुकान में बैठने लगा तब से वहां उसके हम उम्र हमेशा ही भिनभिनाते रहते थे.  जाहिर है कि उसके दोस्त शत -प्रतिशत हिन्दू और सिख परिवारों से थे. दिलचस्प बात ये है कि उसका कोई भी दोस्त उसे खुर्शीद के नाम से नहीं बुलाता था. सब उसे अज्जु कहते थे. पूछने पर उसने बताया कि अज्जु नाम उसी ने रखा है क्योंकि खुर्शीद बड़ा अटपटा और खुरदरा सा है. अज्जु हंसमुख और हाजिर जवाब था. दुकान पर अब वेटिंग लिस्ट भी लगने लगी थी. लोग नंबर लगा कर बगल की चाय की दुकानों में बैठ जाते और उनकी बारी  आने पर अज्जु उन्हें बुला लेता. कभी कोई शेव के लिए जल्दी मचाता तो अज्जु बोल देता ‘अभी तो टाइम लगेगा भाई जी, जल्दी है तो बनी बनाई ले लो’.

धीरे धीरे अज्जु और उसकी मित्र मण्डली की गतिविधियाँ  मुहल्ले की गलियों से बाहर बड़े मैदानों तक होने लगी. वे क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने मातावाला बाग़ जाने लगे. अपने दोस्तों की ही तरह अज्जु सब कुछ करना चाहता था. दुकान पर अब ब्रूसली का पोस्टर लग चूका था. अज्जु को कराटे भी सीखनी थी और बॉडी बिल्डिंग में भी हाथ अजमाना था. चूंकि दूकान देर रात तक चलती थी इसलिये अज्जु अब सुबह मातावाला बाग जाने लगा. निरंतर पसरते देहरादून में अब मातावाला बाग ही ऐसी जगह बची थी जहाँ अलग अलग मुहल्लों की कई टीमे एक साथ क्रिकेट खेल सकती थी. लोग जोगिंग कर सकते थे, शादियों के सीजन से पहले ब्रास बैंड वाले प्रैक्टिस कर सकते थे. अखाडा चलता था, शाखा लगती थी. मातावाला बाग का यह  मजमा पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता था. अज्जु और उसकी टोली को यह सब भाने लगा और मातावाला बाग उनके रूटीन का हिस्सा बनने लगा.
मातावाला बाग में पिछले कोई दो एक बरस से शाखा लगने लगी थी जिसमें अधिकांशतः जनसंघ के ज़माने के बुजुर्ग और युवावस्था खर्च कर चुके वरिष्ठ कार्यकर्ता ही शिरकत करते थे. रंगरूटों का अच्छा अभाव था. उस समय तक हालाँकि इंटों की एक किश्त अयोध्या भेजी जा चुकी थी पर रामभक्तों की जमात से संघी उत्पादन की प्रक्रिया कमोबेश धीमी ही थी. अज्जु और उसके साथियों की टोली के लिये शाखा की प्रक्रिया कोतुहल का विषय होती और वे दूर से खड़े होकर उनके कर्मकांड को देखते. इसी फेर में शाखा संचालक की नज़र इस टोली पर पड़ गयी और मेल-मिलाप बढ़ने लगा. अज्जु, अब अज्जु जी बनने की दिशा में बढ़ने लगे. इसी दौर में अज्जु ने अपनी टेंशन मुझ से साझा की.  हुआ यूँ कि अपनी पूरी मण्डली के साथ अज्जु मियां ने भी शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया. सुबह की नींद सब से प्यारी होती है. जिसने अल सुबह बिस्तर का मोह छोड़ दिया उसने समझो पहली लड़ाई तो जीत ही ली. पर हर कोई कहाँ उठ पता है. इसलिये शाखा के सयाने नये रंगरूटों के घर घर जा कर उन्हें उठाते है ‘पांडे जी उठ जाईये, शाखा का समय हो चूका है’. अज्जु को शाखा का ऐसा नशा लगा कि उसकी नींद ही गायब हो गयी. अपनी टोली के अन्य साथियों को उठाने की साथ साथ वह शाखा संचालक के दरवाज़े पर भी पहुँच जाता. पहले एक-दो दिन तो झंडा-डंडा भी उसी ने ढोया. पर  इसी बीच बात खुल गयी कि अज्जु उस बिरादरी का नहीं है जिसके लिये ये आयोजन होता है. अज्जु को किनारे कर के उसकी टोली से बात की गयी की भईया इसे मत लाओ. पर टोली कहाँ मानती और किसी की भी समझ में ये नहीं आया की अज्जु को लाने से मना क्यों किया जा रहा है. एक तरफ नए रंगरूटों को खोने का डर तो दूसरी तरफ अज्जु को भीतर लाने की समस्या,  कुछ दिन इसी तरह बीत गए और अज्जु शाखा में हिस्सा लेता रहा.

फिर शाखा संचालक की तरफ से निर्णय सुनाया गया कि जो भी शाखा में नियमित होना चाहता है उसे शाखा की ड्रेस पहन  कर आना पड़ेगा. विशेष रूप से खाकी निक्कर तो सिलवानी ही पड़ेगी. अज्जु की टोली के सभी सदस्यों ने सहमती दे दी और उनके परिवार ने भी हाँ बोल दिया. इस बीच अज्जु ने होमवर्क किया तो पता चला की कम से कम सत्तर रूपये का खर्चा है. कुछ पैसे उसने जोड़ लिये थे और बाकि का जुगाड़ कर रहा था. इसी सिलसिले में अज्जु ने मुझ से ये बात साझा की थी. चूंकि मैं शेव और कटिंग अज्जु से ही करवाता था तो वह मुझे टटोलना चाह रहा था कि क्या में कुछ पैसे एडवांस में दे पाऊंगा जो की बाद में एडजस्ट हो जायेंगे. क्या गज़ब का उत्साह था अज्जु में, इतने दिनों में उसे  नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ पूरी कंठस्थ हो गयी थी. टोली अब भी साथ जाती थी पर अज्जु  शाखा में भाग न लेकर आस-पास उछल –कूद करता और सभी साथ-साथ वापस आ जाते. मैंने उसे कितने पैसे दिए ये याद नहीं, पर दिए जरूर थे. अज्जु का मिशन  ‘खाकी निक्कर’ कायम था. निक्कर सिलवाने को दी जा चुकी थी. जब कोतुहलवश पुछा तो उस ने मुझे यही बताया था.

अब हुआ यूं कि निक्कर की डिलीवरी होने से पहले बाबरी मस्जिद दहा दी गयी और आर. एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. इस घटना के दो-चार दिन बाद मैं शेव करवाने अज्जु की दुकान पर गया तो पाया की वह बहुत उत्तेजित है. कारण पूछने पर उस ने बताया कि उसकी निक्कर कल मिल गयी थी. इसलिए वो आज सुबह उसे पहन कर महेंद्र जी के घर गया था जगाने के लिये. उसने आवाज लगाई तो महेंद्र जी ने डांट कर भगा दिया की कोई शाखा वाखा नहीं लगेगी. जाओ यहाँ से, हल्ला मत करो. फिर मैं मातावाला बाग चला गया. वहां शाखा के सभी लोग आये थे पर मेरे सिवाय निक्कर किसी ने भी नहीं पहनी थी. वहां उन लोगों ने मुझे फिर पकड़ लिया ओर धमकाया कि ये निक्कर मत पहन वर्ना पुलिस पकड़ लेगी. अज्जु का मेरे से एक ही सवाल था कि 'भाई जी इतने मुश्किल से पैसे जमा कर के निक्कर सिलवाई है, मेरी निक्कर है, बताओ मैं इसे क्यों नहीं पहन सकता'.

बरस, 1992 से 2016 के बीच कितना समय बीत गया है पर अज्जु का सवाल मेरे जेहन में कभी कभार उठता ही   रहता है.  वहीद और छोटा मुस्तकीम अभी भी भंडारी बाग के चोराहे पर उसी खोके से अपनी दुकान चला रहे हैं जहाँ वे पैदा हुए थे. अज्जु उनसे अलग हो चूका है.  उसे आखरी बार अनुराग नर्सरी के तिराहे पर एक तिरपाल  के नीचे हजामत बनाते देखा था. वो मुझे खुर्शीद लगा, उसमें अज्जु जैसा कुछ भी नहीं था.

Monday, January 11, 2016

यह कैसी सांस्‍कृतिक होड़ है

तकनीक पर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त डाल कर मुनाफे की हवस से गाल फुलाने वाले बाजार ने विकास के मानदण्‍ड के लिए जो पैमाने खड़े किये हैं, उसने वैयक्तिक स्‍वतंत्रता तक को अपना ग्रास बना लिया है। मनुष्‍यता के हक के किसी भी विचार को शिकस्‍त देने के लिए उसने ऐसे सांस्‍कृतिक अभियान की रचना की है, हमारे मध्‍यवर्ग मूल्‍य भी उसके आगोश में खुद ब खुद समाते जा रहे हैं। विभ्रम फैलाते उसके मंसूबों को पहचानना इसलिए मुश्किल हुआ है। सौन्‍दर्य प्रतियोगिताओं का फैलता संसार उसकी ऐसे ही षडयंत्रों की सांस्‍कृतिक गतिवि‍धि है। देख सकते हैं पिछले कई सालों से दुनिया भर के तमाम पिछड़े इलाकों में उसकी घुसपैठ ने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का आक्रमण सा किया है। ऐसे ही एक अाक्रमण के प्रति पत्रकार जगमोहन रौतेला की चिन्‍ताएं देहरादून से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका युगवाणी के जनवरी 2016 के पृष्‍ठों पर दिखायी दी है जिसे यहां इस उम्‍मीद के साथ पुन: प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि बाजारू संस्‍कृति के आक्रमणकारी व्‍यवहार पर एक राय बनाने में मद्द मिले।
- वि.गौ.          

*** जगमोहन रौतेला 


महिलाओं को बाजार का हिस्सा बनाने का एक दूसरा षडयंत्र है तरह- तरह की सौंदर्य प्रतियोगितायें . वैसे ये प्रतियोगितायें सालों से होती आ रही हैं , लेकिन पहले इसमें मध्यवर्ग की महिलायें ( लड़कियॉ ) हिस्सा नहीं लेती थी . फैशनपरस्त परिवार की लड़कियॉ ही इसमें हिस्सेदारी किया करती थी . पिछले कुछ दशकों से जब से बाजारवाद ने मध्यवर्ग को भी अपनी चपेट में लेना शुरु किया तब से इस वर्ग की लड़कियों में भी " सुन्दर " दिखने की चाह जाग उठी है . सुन्दर दिखाने की यही चाहत उसे देश और विदेश में सौन्दर्य के नाम पर होने वाली कथित प्रतियोगिताओं की ओर भी आकर्षित कर रही है . यही आकर्षण मध़्यवर्ग की लड़कियों को इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने को " उत्तेजनापूर्ण " तरीके से प्रेरित करता है . बाजारवाद के इस अतिवाद भरे दौर में जब से 1990 के दशक में ऐशवर्या राय को " मिस वर्ड " और सुष्मिता सेन को " मिस यूनिवर्स " बनाया गया तो तब से भारत के मध्यवर्ग में अपनी लड़कियों को सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भेजने की एक अलग तरह की होड़ सी मची है . कुछ इसी तरह की होड़ राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में जबरन दिखायी जा रही है . यहॉ के अधिकतर शहर उच्च जीवन शैली वाले न होकर कस्बाई संस्कृति वाले ही हैं . इसके बाद भी कुछ लोग जबरन देहरादून जैसे कथित आधुनिक शहर में सौन्दर्य प्रतियोगितायें करवाते रहते हैं . इसकी चपेट में अब हल्द्वानी को लिया जाने लगा है . कुछ साल पहले देहरादून की निहारिका सिंह ने भी कोई अनजान सी सौन्दर्य की प्रतियोगिता जीत (?) ली थी . उसके बाद वह जब देहरादून आयी तो उसने एक लम्बा - चौड़ा बयान अखबारों को दिया कि उत्तराखण्ड की हर लड़की निहारिका सिंह बन सकती है . कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली निहारिका सिंह अब कहॉ है और क्या कर रही है ? शायद ही आम लोगों को पता हो ? निहारिका आज जहॉ भी हो लेकिन उत्तराखण्ड में सौन्दर्य का बाजार तलाशने वाले कुछ चंट - चालाक लोगों के मंशूबे अवश्य ही फलीभूत हुये हैं . ऐसे ही लोगों ने कोटद्वार निवासी उर्वशी रौतेला के पिछले दिनों मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया कि वे उत्तराखंड की गरीमा , देश की प्रतीक और भविष्य की उम्मीद हैं . मीडिया और इस तरह की तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ कर अपना व्यवसायिक हित साधने वाला कार्पाेरेट ऐसा वातावरण बना रहे थे कि मानो उर्वशी समाज के हित में कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रही हो और वह वहॉ से कथित तौर पर जीतकर लौटी तो उत्तराखण्ड और देश की शान में चार चॉद लग जायेंगे . प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिये लास वेगास जाने से पहले उर्वशी ने देहरादून और कोटद्वार का दौरा भी किया और जगह-जगह लोगों से अपने पक्ष में वोट देने की अपील भी की . उसने अनेक देवताओं के थानों में मत्था टेककर अपने लिये आशीर्वाद तक मॉगा . बाजारवाद की हिमायती हमारी सरकार के मुखिया हरीश रावत ने भी लोगों से उर्वशी के पक्ष में वोट देने की अपील कर डाली .पर जब 21 दिसम्बर 2015 को लास वेगास में उर्वशी के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसने अपनी भड़ास आयोजकों पर यह कह कर निकाली कि उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे जानबूझकर हराया गया . अतिरेक में वह यह तक कह गयी कि मेरे राज्य उत्तराखण्ड व देश से मुझे ज्यादा समर्थन ( वोट ) नहीं मिला . जिसकी वजह से मैं हार गयी . मतलब ये कि उर्वशी अपनी तथाकथित हार का ठीकरा दूसरों के सिर ऐसे फोड़ रही थी मानो उसे न जीताकर देश और उत्तराखण्ड ने एक भयानक गलती कर दी हो . वास्तव में सौन्दर्य के नाम पर आयोजित की जाने वाली इस तरह की प्रतियोगितायें पुरुषों द्वारा सार्वजनिक रुप से नारी के शरीर को सौन्दर्य के नाम पर कामुकता भरी नजरों से देखने के सिवा और कुछ नहीं हैं . ऐसा नहीं है तो क्यों उसे एक तरह से निरावरण होकर अपने शरीर का कथित सौन्दर्य पुरुषों को दिखाना पड़ता है ? और उसके कथित सौन्दर्य को परखने के पैमाने में शरीर के हर अंग को मापदंड क्यों बनाया जाता है ? सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? यदि यही सच है तो फिर ये प्रतियोगितायें सौन्दर्य के नाम पर पुरुषों की कामुक नजरों का " ठंडा " करने के सिवा और कुछ नहीं हैं . तब ऐसी स्थिति में हमें किसी निहारिका सिंह या किसी उर्वशी के इस तरह की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर कतई नहीं इतराना चाहिये . ये लोग हमारे समाज की महिलाओं के लिये कतई आदर्श नहीं हो सकते हैं , वह इसलिये भी कि ऐसी कथित प्रतियोगितायें महिला को एक " भोग की वस्तु " के अलावा और कुछ समझने के लिये तैयार नहीं हैं . और ऐसी सोच को बढ़ावा देने से महिलाओं का मान नहीं अपमान ही होता है . **