Tuesday, January 30, 2024

हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल है अलीक


 “अ ली क” कोलकाता से निकलने वाली एक अनियतकालीन पत्रिका है, जिसका संपादन कवि नील कमल करते हैं। हाल ही में इस पत्रिका का चौथा अंक जनवरी 2024 प्रकाशित हुआ है। अभी तक के अंकों को देखने पर यह कविता केंद्रित दिखायी देती है। अलीक का अंक 3 और सद्य प्रकाशित अंक 4 के साथ‌-साथ जीवन के एक छोटे से अंतराल में कवि नील कमल से रहे साक्षात सम्पर्क के हवाले से यह कह सकता हूं कि एक अच्छी कविता की तलाश नील कमल क शगल है। वे हमेशा ऐसी कविताओं के पास जाते हुए होते हैं जहां उन्हें एक खास तरह की निश्छलता दिखाई दे। और उस निश्छलता के दायरे में सिर्फ कविता ही नहीं, कवि का निजी जीवन भी हो। उस निश्छलता की परख वे नैतिकता और आदर्शों के स्तर पर करते हैं, विचाराधारा की बारीकी में नहीं। बल्कि थोड़ा और खुलासा हो तो कहा जा सकता है कि सृजन के उद्देश्यों में दुनिया की खुशहाली की वह संगति जिसको वस्तुनिष्ठता के साथ जांचा परखा जा सके। हालांकि आज के इस समय में जब नैतिकता और आदर्श ज्यादा वाचालता के साथ सिर्फ थोड़ा विश्वसनीय दिखने भर की कार्रवाई हुए जा रहे हैं, नील कमल की कोशिशों के परिणाम किस रूप में दिखेंगे, उन्हें वक्त के साथ ही देखना सम्भव हो सकेगा। फिर भी एक अच्छी कविता को तलाशने की उनकी कोशिश पर भरोसा किया जा सकता है। क्योंकि वे कविता को ही नहीं एक कवि को भी खरेपन के अपने पैमानों से तैयार बक्से में संजो लेते हैं। अलीक वह बक्सा ही नील कमल के भीतर एक अच्छी कविता को सामने लाने का एक जूनून है। यह जूनून ही उन्हें न सिर्फ अलीक निकालने को मजबूर करता है बल्कि कविताओं की आलोचना के रूप में प्रकाशित उनकी पुस्तक गद्य वद्य कुछ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

हिंदी साहित्य की दुनिया से प्रेम करते हुए भी यदा कदा घटने वाली और दिख जाने वाली अंतर्विरोधी घटनाएं नील कमल को क्षुब्ध किये रहती हैं। उन स्थितियों से पार पाने वे लिए वे एक अच्छी कविता तक पहुंच जाने में सुकून महसूस करते हैं। इस जमाने में जब सम्पत्ति को जहां तहां से समेट लेने का पागलपन हावी हो रहा हो, अपने सुकून के लिए नील अपनी  मासिक आमद के एक हिस्से से कभी किताबे छपते हैं तो कभी पत्रिका। निजी स्रोतों से गैरव्यवसायिक ढंग का काम करने वाले लोगों को यदि तलाशा जाये तो हिंदी का नील कमल वहां ज्यादा मजबूती से खड़ा नजर आएगा। अलीक क यह अंक उन्हें अपनी जमीन को और सख्त बनाए रखने की राह दिखा रहा है। इसमें प्रकाशित कविताएं और आलोचनात्मक आलेख उल्लेखनीय है।  

अलीक के इस अंक में चार युवा कवियों की कविताएं हैं- प्रियदर्शी मातृशरण, उमा भगत, ललन चतुर्वेदी और पल्लवी मुखर्जी। प्रियदर्शी मातृशरण और उमा भगत की कविताओं से मुझे पहली बार अलीक-4 से ही परिचित होने का अवसर मिल रहा है। यह अच्छी बात है कि कवि प्रियदर्शी मातृशरण की कविता खुशामदी होने से ऐतराज करते हुए अपने होने के साथ रहना चाहती है लेकिन एक लोचा है कि खुशामद कराती सत्ता का बिम्ब वहां किसी “पुराने” कवि की आकृति पर अटका हुआ है। एक बार प्रियदर्शी मातृशरण की इस बात को मान ही लिया जाए कि “पुराने” कवि की स्वाद- कलिकाएं किसी उससे भी “पुराने” कवि के पद-तल में वास करती हों और यह भी कि जितना पीछे जाएं वह बेशक उतना ही पुराने कवि की इच्छाओं वाले तैल-चित्र नजर आएं तो भी नवाचार और मौलिकता का तकाजा तब ही माकूल है जब सत्ता की ट्रू पिक्चर बनती हो। निश्चित ही कवि प्रियदर्शी मातृशरण उस ट्रू पिक्चर को आकार देना जानते हैं वरना लोभियों के गांव से गुजरना गंवारा ना करते।

अपने समय को परिभाषित करना कला साहित्य का मुख्य विषय रहा है। लेकिन इस तरह परिभाषित करते रहने में एक बात यह भी दिखायी देती रही कि हर रचना में एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने से पूर्व का यथावत आ गया और इसीलिए नये एवम मौलिक होने की कोशिश में वह उसी तर्ज के साथ आगे बढने लगा। यानि समय को परिभाषित करने की एक नयी पहल से आगे नहीं चला। इस तरह देखें तो कला साहित्य ने अपने को कुछ ऐसी सीमाओं में कैद करा लिया जिसको नैतिक और आदर्श से सम्पृक्त सामजिकी के सौंदर्य में जांचने परखना भी एक संकाय हो गया। प्रफुल्ल कोलख्यान का आलेख एक संकाय से आगे बढकर सिविल सोसाइटी को नहीं देख पा रहा है।    

 

“अ ली क” को सिर्फ एक पत्रिका भर नहीं कहा जा सकता है। दरअसल यह लीक से हट कर की जाने वाली एक ऐसी कार्रवाई है जिसके केंद्र में हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल हमेशा मुख्य रहता है। विचार के स्तर पर एक प्रतिबद्ध नागरिक चेतना इस पत्रिका की सामाग्री का मुख्य लक्षण है।         

Monday, January 1, 2024

स्त्री के भय

  

वर्ष 2024 की शुरुआत कथाकार विद्या सिंह की कहानी "स्त्री मन के आवर्त" के साथ करते हुए यह सांझा करना अच्छा लग रहा है कि यदि रचनाकारों का समुचित सहयोग मिलता रहा तो इस पूरे वर्ष स्त्री मन के आवर्त को हर दृष्टिकोण से रखने की कोशिश की जाएगी। यानी वर्ष 2024 को हम "स्त्री मन" शीर्षक के साथ देखना चाहते हैं।


प्रस्तुत कहानी पर अलग से कोई टिप्पणी करने की बजाय कहानी आए कुछ सूत्रात्मक संदेशों, सवालों को यहां रखना ही पर्याप्त लग रहा है। 

"पुरुष आकृति में न जाने कौन सा रसायन मिला होता है कि सामने पड़ते ही आँखें अपने आप झुक जाती हैं।"


"स्त्री को हर समय कितने भय से गुज़रना पड़ता है इस पर भी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। हर उम्र की स्त्री के अलग-अलग प्रकार के भय।"


स्त्री मन के आवर्त्त 

डॉ. विद्या सिंह 


डॉ. डिमरी के कमरे में जाने का इरादा बाँध कर निकले मेरे कदम दरवाजे पर ही ठिठक गए। अभी-अभी मैंने अपने कमरे को ताला लगा कर चाभी पर्स के हवाले की थी। अब मैं उस खिड़की पर हूं जो कोरिडोर में खुलती है। खिड़की का परदा खिसक गया है, अतः गरदन ज़रा सी टेढ़ी कर झांकने पर भीतर का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा है। कुर्सी पर बैठे-बैठे वह लगातार आगे-पीछे पेंडुलम की तरह हिल रहे हैं। लगता है नहाने धोने के बाद किसी देवी-देवता का पाठ कर रहे हैं। कल इतना ध्यान नहीं गया था किन्तु आज देख रही हूँ उनका सिर पीछे से काफ़ी गंजा है। उनका बायाँ गाल मेरी नज़रों के घेरे में है। वह इतना मोटा दिख रहा है जैसे गाल में कुछ दबा रखा हो, या कुछ चुभला रहे हों। हो सकता है उनके गालों की बनावट ही ऐसी हो, दूसरा गाल भी ऐसा ही हो। कल तो ऐसा कुछ भी नहीं लगा था लेकिन भरपूर नज़रों से देखा भी तो नहीं था। पुरुष आकृति में न जाने कौन सा रसायन मिला होता है कि सामने पड़ते ही आँखें अपने आप झुक जाती हैं। 

सुबह के आठ बजे हैं। अगल-बगल के सभी कमरे शान्त पड़े हैं, लगता नहीं है इनमें कोई है। डॉ. डिमरी ने बताया था होटल में कमरे तो कई लोगों ने लिए हैं लेकिन इस अवसर का उपयोग वे शहर के अपने मित्रों-रिश्तेदारों से मिलने में कर रहे हैं ।

मैं योगाभ्यास और प्राणायाम के बाद नहा धो कर नाश्ते पर जाने के लिए तैयार हो गई थी। सोचा डॉ. डिमरी से पूछ लूँ वह भी चलें, लेकिन उनकी कल की बातें याद कर उनके साथ जाने को दिल नहीं किया। अकेली चली जाती तो भी न मालूम वह क्या सोचते! इसीलिए रिसेप्शन पर पूछना बेहतर विकल्प लगा कि नाश्ता कमरे में आ सकता है क्या ? मैनेज़र ने असमर्थता ज़ाहिर कर दी फ़िर तो नीचे जाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा। डॉ. डिमरी के फोन के बाद कोई औचित्य नहीं बनता कि अकेली जाऊँ। साथ जाना ही ठीक रहेगा। इसीलिए उनके आने तक यहीं गैलरी में इन्तज़ार कर लूंगी।

इस बार फ़िर ‘हिन्दी-उर्दू अवार्ड कमिटी का अधिवेशन लखनऊ में है। पिछले कई सालों से डॉ. जोशी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आग्रह कर रहे थे लेकिन मेरी गृहस्थी मेरे पैरों में बेड़ियों की तरह पड़ी हुई है। मेरी रसोई मेरे जीवन का कितना बड़ा हिस्सा हज़म कर जाती है, कभी सोचती हूँ तो कोफ़्त होती है। दो बच्चों की परवरिश, नौकरी, रिश्ते-नाते हर समय चुनौती बन कर सामने खड़े होते हैं। बड़ी मुश्किल से पति को मना पाई थी। यह पहला मौका है जब मैं अकेली, पति और बच्चों के बिना, घर से निकली हूँ। पति और बच्चे स्टेशन पर छोड़ने आए थे। सोचा था बच्चियाँ रोएँगी लेकिन पति ने न जाने कौन सी पट्टी पढ़ाई कि दोनों खुशी खुशी ‘बाय मम्मी‘ करने लगीं। मेरा मन उमड़ने लगा था लेकिन मैंने अपने मन को थाम लिया। आँखें छलछला आईं पर जबरन होठों पर हँसी लाने की कोशिश की और जवाब में मैंने भी हाथ हिला दिया।

कल नियत समय से काफ़ी देर से ट्रेन लखनऊ पहुँची थी। होटल पहुँचते-पहुँचते नौ बज गए थे। मैं हड़बड़ाई सी रिसेप्शन पर पहुँची और अधिवेशन में शामिल होने की बात बताई।

‘‘आपका नाम मैडम?‘‘

‘‘डॉ. सुनीता‘‘ मैंने डाॅक्टर पर थोड़ा ज़ोर डालते हुए कहा ताकि मेरे व्यक्तित्व का उस पर कुछ रौब पड़े।

रिसेप्शनिस्ट ने मेज़ के दराज से सूचीपत्र निकाला और एक नाम के आगे रुक गया। मैं उसके चेहरे के बदलते भावों को बड़े गौर से देख रही थी। उसके माथे का तनाव समाप्त हो चुका था और ‘रूम नंबर 106‘ बोलते हुए उसने एक कार्डनुमा चाभी पकड़ा दी। मेरे चेहरे पर उभरे असमंजस को भाँप कर उसने मेरे साथ एक लड़का भेज दिया। ‘मैडम को कमरे तक छोड़ आओ।‘ लड़का मेरा सामान ले कर आगे-आगे और मैं उसके पीछे-पीछे। उसके बिना माँगे ही मैंने चाभी उसे दे दी। उसने कार्ड एक स्लाॅट में डाला और एक आवाज़ हुई, लड़के ने तभी हैंडिल घुमा दिया। मैं ध्यान से उसे दरवाजा खोलते देखती रही। मुझे उस समय अपने पति पर झुंझलाहट हुई थी। ‘हटो तुम्हारे वश का कुछ नहीं है‘ कह कर कुछ भी नया काम सीखने ही नहीं देते। आज कल ताले भी कैसे-कैसे आने लगे हैं?

 डॉ. डिमरी ने ‘ऊँ‘ का उच्चारण करते हुए अंगड़ाई ली हैै। लगता है उनका अनुष्ठान संपन्न हो गया है। मैं फिर उसी हिस्से से देख रही हूँ। वह अलमारी की ओर बढ़ रहे हैं शायद शर्ट पहनने जा रहे हैं, अभी तक तो बनियान में ही थे। मैं रेलिंग की ओर चली जाती हूँ। डॉ. डिमरी मुझे इस तरह अपने कमरे में झाँकते हुए देख लें तो मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे!

कल के सेमीनार में डॉ. जोशी के अलावा मेरे लिए सभी चेहरे अपरिचित थे। मेरे पहुँचने तक पहला सत्र प्रारंभ हो चुका था। मैं चुपचाप एक खाली सीट पर बैठ गई थी। ग्यारह बजे बिस्कुट के साथ चाय मेज पर ही आ गई थी। एक बजे लंच के अवकाश में मैं डॉ. जोशी से मिली। उन्होंने मेरा परिचय अपने साथ के सज्जन से कराया,‘‘इनसे मिलिए, डॉ. डिमरी आपके प्रदेश से ही आए हैं।‘‘ सौजन्य में हम दोनों के हाथ जुड़े और मैं भोजन की मेज़ की ओर बढ़ गई। मेरी नज़रें किसी महिला प्रतिभागी को ढूँढ़ रही थीं, जिसके साथ सहज़ता से बातें कर सकूं। सेमीनार में महिलाएँ बहुत कम थीं मालूम हुआ जो हैं, वे भी लोकल हैं।

होटल वापस आने वालों में हम सिर्फ़ दो थे, मैं और डॉ. डिमरी।

 ‘‘नवम्बर की शाम कितनी छोटी होती है। देखिए अभी छह बजे हैं और चारों ओर अँधेरा पसर गया।‘‘ मेरे दिमाग में पहले से ही उधेड़ बुन चल रही थी, डॉ. डिमरी का वाक्य बहुत दूर से आता हुआ प्रतीत हुआ। होटल के लाउंज में घुसते ही मेरा दिल बैठने लगा। आस-पास कोई बसावट भी नहीं है। होटल शहर के एक छोर पर हाइवे के किनारे बना हुआ है। मेरा मन आशंकाओं से घिर गया।

अब देख रही हूँ इस समय सड़क पर गाड़ियाँ खूब चल रही हैं किन्तु कल तो लगा था कैसी भुतहा जगह पर रुकवा दिया डॉ. जोशी ने। 

हम रिसेप्शन पर पहुँचे तो देखा लड़का अपनी सीट पर बैठा-बैठा ऊँघ रहा था। ‘यह मैंने अपने आप को कहाँ फँसा दिया‘, मेरे भीतर से आवाज़ उठी थी। सीढ़ियाँ चढ़ते समय मुझे अपने दिल की धड़कन साफ़ सुनाई दे रही थी। मेरे पीछे डॉ. डिमरी थे। सीढ़ी पर चढ़ने से पहले हमारी अच्छी खासी बहस हो गई थी। मैं चाहती वह आगे चलें मैं निश्चिन्त भाव से उनके पीछे हो लूँ किन्तु उनकी ज़िद ‘आप महिला हैं पहले आप।‘ कहना चाहती थी महिला हूँ तभी तो आपको आगे चलने को कह रही हूँ। असल में वह मेरे भीतर की उस आशंका से अनभिज्ञ थे जो एक पुरुष के सान्निध्य में स्वयं उपजी थी। स्त्री होने के नाते हर समय चैकन्नी रहना पड़ता है। भीतर से बेतरह परेशान, बाहर से शान्त और संयत दिखने की हरचंद कोशिश में लगी, मुझे डर पत्ते की भाँति हिला रहा था। सीढ़ियाँ खत्म हुईं। लगभग पन्द्रह कदम दाहिने चलने पर कमरा नंबर एक सौ छह आ गया। यहाँ से गैलरी थोड़ी मुड़ गई है। अगला कमरा एक सौ आठ है जो डॉ. डिमरी को मिला है।

मैं दरवाजे पर रुक गई, वह आगे बढ़ गए थे। इस बीच मौसम के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की बातचीत हमारे बीच नहीं हुई थी।

कमरे के भीतर आते ही मैंने दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी। बाथरूम की खिड़की, दरवाजे की चटकनी, लाइट सब जाँचने-परखने के बाद मैं आश्वस्त हुई। पति ने आगाह किया था बाथरूम विशेष रूप से जाँच लेना। स्नान करती स्त्री बड़ी आकर्षक दिखती है, कहीं से कोई तुम्हारी फोटो न ले रहा हो। मैंने हँस कर उनकी बात को हलके में लेने का भ्रम पैदा किया था किन्तु एक डर तो छिप ही गया था। स्त्री को हर समय कितने भय से गुज़रना पड़ता है इस पर भी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। हर उम्र की स्त्री के अलग-अलग प्रकार के भय।

साड़ी बदल कर सूट पहनने और गुनगुने पानी से पैर धोने के बाद बड़ी राहत मिली। बाथरूम में झक सफेद तौलिया फर्श पर बिछी देख एकबारगी पैर पोंछने का दिल न हुआ किन्तु मन ने टोका। ‘यह तुम्हारे घर की तौलिया थोड़े ही है कि तुम्हें धोनी पड़ेगी। यहाँ तो बिन्दास हो कर इस्तेमाल करो।‘

मैंने टी.वी. स्टार्ट कर दिया रिमोट हाथ में ले कर चैनेल बदलने के लिए बटन ढूँढ़ने लगी थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। मेरे पेट में बगूला सा उठा, शरीर में थरथराहट हुई किन्तु सारी हिम्मत गले में जुटा कर मैंने दृढ़ता से पूछा ‘कौन है?‘

‘‘मैं हूँ डिमरी खाने के लिए नीचे नहीं चलेंगी?‘‘ मेरी उछलती साँसों को मानो एक आधार मिल गया। ‘‘ चलूँगी मैंने मन और बेमन के बीच सन्तुलन बनाते हुए कहा। जेहन में सन्नाटे में सीढ़ियाँ दुबारा कौंध गईं।

इस बार फ़िर वही ‘पहले आप‘ ‘पहले आप‘ की लखनवी नफ़ासत वाला खेल खेला गया और अन्ततः मुझे ही आगे बढ़ना पड़ा। दो एक बार मैंने उन्हें सर कह कर संबोधित किया तो उन्होंने टोक दिया, ‘‘सर मत कहिए, डिमरी कहिए।‘‘ मुझे ‘डाॅक्टर साहब‘ कहना बेहतर विकल्प लगा। इस पर उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई।

खाना खा कर जब हम लौटे तो मुझे आश्चर्य में डालते हुए वह स्वयं आगे चलने लगे। मैं उन्हें पीछे से सीढ़ियाँ चढ़ते देख रही थी। उनका कमर का हिस्सा काफ़ी भारी लग रहा था।

मेरे कमरे के दरवाजे पर पहुँच कर वह ठिठक गए,‘‘अब आप क्या करेंगी?‘‘

‘‘अब थोड़ा पढ़ कर सोऊँगी।‘‘

‘‘क्या पढ़ेंगी?‘‘

‘‘कुछ विशेष नहीं, कल जो आलेख पढ़ना है, वही थोड़ा देखूँगी। ट्रेन में ढंग से नींद भी नहीं आई थी तो थोड़ी थकान भी है।‘‘

‘‘इसी उम्र में थकान?‘‘ डॉ. डिमरी हँसे। ‘‘अभी तो आप पैंतीस की भी नहीं होंगी।‘‘

‘‘हूँ क्यों नहीं, मैं चालीस की होने वाली हूँ।‘‘

‘‘अभी आप मुझसे बहुत छोटी हैं।‘‘ मेरे कन्धे पर उन्होंने एक धौल मारा जिससे मैं एकदम अचकचा गई। इतनी छूट लेने की इज़ाज़त इन्हें किसने दी?

इस बीच मैं कमरे का ताला खोल चुकी थी लेकिन असमंजस में दरवाजे पर ही खड़ी थी।

‘‘भीतर आने को नहीं कहेंगी?‘‘

‘‘हाँ हाँ आइए‘‘ सौजन्य वश मेरे मँुह से निकल गया।

मैं अभी सोफे से पत्रिका, तौलिया हटा कर उनके बैठने के लिए जगह बनाने ही लगी थी कि वह पैर लटका कर पलँग पर बैठ गए थे और अब अपने जूते उतार रहे थे। देखते-देखते वह लिहाफ़ पैरों पर डाल कर, पलँग के सिरहाने रखे तकिए का टेक लगा कर अधलेटे से हो गए और टी.वी. का रिमोट हाथ में ले कर चैनल बदलने लगे।

‘‘आप पहली बार यहाँ आई हैं इसीलिए सेमीनार को इतनी गंभीरता से ले रही हैं। बिल्कुल फ़िक्र मत कीजिए, पूरा पत्र पढ़ने के लिए समय नहीं मिलेगा। हाँ डॉ. जोशी से कह कर अपना आलेख सुबह के सत्र में पढ़ लीजिएगा दोपहर बाद शहर घूमने निकलेंगे।‘‘

मेरे भीतर गुस्से का ज्वार उमड़ रहा था, कैसा आदमी है? ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान।‘ इस बीच दरवाजा अपने आप भिड़ गया था। बन्द कमरे में पराए पुरुष के होने का एहसास मुझे चैन नहीं लेने दे रहा था। मां की नसीहत ‘‘सगे भाई के साथ भी एकान्त में चैकन्नी रहा करो। किसी का कोई भरोसा नहीं है कब उसके भीतर का जानवर बाहर आ जाए।‘‘ कानों में बज रही थी। भीतर से मैं अपने आप को हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार कर रही थी। मैंने शाॅल उठाई और पैरों पर डाल कर सोफे पर बैठ गई। ‘‘आप भी आ जाइए, डबल बेड का लिहाफ़ है काफ़ी लंबा-चैड़ा है।‘‘

डॉ. डिमरी की बात का मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

मैं दोपहर से ले कर अब तक उनके साथ हुई बातचीत का एक-एक संवाद दोहराने लगी। मुझे अपने मुँह से निकला एक भी ऐसा वाक्य याद नहीं आ रहा था जिससे मेरे ऐसी-वैसी स्त्री होने की गुंजाइश बनी हो। अब मेरा ध्यान कमरे में फैली गंध पर गया। हो सकता है उन्होंने भोजन से पहले पी हो और अब उसी का सुरूर उन पर तारी हो। सुना था शराब पिए हुए आदमी की ताकत क्षीण हो जाती है अतः थोड़ी निश्चिंत हुई।

‘‘किस तरह की चीज़ें पढ़ना पसन्द करती हैं आप?‘‘ टी.वी. की आवाज धीमी कर वह मुझसे मुखातिब थे।

‘‘जी...कुछ भी , वैसे कहानियाँ पढ़ना ज्यादा पसन्द है।‘‘

‘‘मंटो की ‘खोल दो‘ कहानी के बारे में आप की क्या राय है?‘‘

‘‘काफी़ पहले पढ़ी थी। अब कुछ याद नहीं है।‘‘

‘‘याद नहीं है या आप भी उसे अश्लील समझती हैं। कमलेश्वर की ‘ठंडा गोश्त‘ क्या उम्दा कहानी है! साहित्य में श्लील-अश्लील का विभाजन मुझे बहुत गलत लगता है।‘‘

‘‘दर असल मुझे बहुत खुला चित्रण पसन्द नहीं है। वही बात शालीन तरीके से भी कही जा सकती है।‘‘

‘‘क्यों? सेक्स के प्रति आप इतनी आग्रहशील क्यों हैं? वह भी एक सामान्य भाव है। हम सेक्स को हव्वा क्यों बना देते हैं? यह बात मेरे समझ में नहीं आती।‘‘

अपने भीतर उग आए डर को नकारती हुई किसी भी स्थिति से दो चार होने के लिए मैं अपने भीतर नाखून उगाने लगी थी। कहीं पढ़ा था महिलाओं को पर्स में पिसी मिर्च रखनी चाहिए। काश मैंने भी रखा होता! क्या जाने उसकी नौबत आ ही जाए।

‘‘यह क्या है? कभी जल गई थीं क्या डॉ. सुनीता?‘‘डॉ. डिमरी ने मेरी कलाई में उस जगह उंगली गड़ा दी जहाँ जन्म से ही काला लक्षण है।

‘‘नहीं यह तो जन्मजात है।‘‘.....क्यों इस आदमी को झेले जा रही हो? क्यों नहीं सीधे-साीधे कह पातीं आप अपने कमरे में जाएँ प्लीज़। मेरे भीतर से सुन्नी बोल रही थी लेकिन डॉ. सुनीता ऐसा कैसे कह सकती थी? डॉ. डिमरी क्या सोचते ‘रह गई घरेलू की घरेलू। ऐसी पढ़ाई का क्या लाभ?‘

मेरा घर का नाम सुन्नी है। मैं बचपन से बहुत साफ़ बोलने वाली हूं। किन्तु नौकरी करके जाना कि सुन्नी किसी को कुछ भी बोल सकती है, डॉ. सुनीता नहीं। अपना बहुत कुछ छिपाना भी पड़ता है।

‘‘काॅफ़ी पिएँगी डॉ. सुनीता? नीचे से काॅफी मंगाई जाए।‘‘ और बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए वह साइड टेबुल पर रखे फोन से रिसेप्शन का नंबर डायल करने लगे थे।

‘‘आप की लव मैरेज़ है या अरेंज्ड?‘‘रिसीवर सेट पर रख कर वह फिर अपनी पुरानी मुद्रा में आ गए थे।

‘‘अरेंज़्ड है।‘‘

‘‘मेरी भी अरेंज़्ड है।‘‘ उन्होंने लंबी साँस खींची,‘‘वैसे आप लोगों में ट्यूनिंग तो है न?‘‘

‘‘मतलब?‘‘ प्रश्न का आशय मैं समझ गई थी फ़िर भी अनजान बनते हुए पूछा।

‘‘मतलब आपके पति आपकी भावनाओं को समझते हैं न?‘‘

‘‘जी हाँ कोई परेशानी नहीं है।‘‘

‘‘आपको अकेले सेमीनार के लिए भेज दिया इसी से मालूम पड़ता है बड़े प्रोग्रेसिव हैं।‘‘

अब मैं निरुत्तर थी। अपने पति के बारे में बन आई उनकी धारणा मैं ध्वस्त नहीं करना चाहती थी। कितनी मुश्किल से मैं उनको राजी कर सकी थी, यह क्या जानें!

‘‘एक मेरी श्रीमती जी हैं किताबें उन्हें कूड़ा नज़र आती हैं।‘‘

‘‘वह क्यों?‘‘

‘‘पढ़ी लिखी जो नहीं हैं। छोटी उम्र की शादी का खामियाज़ा भुगत रहा हूँ। समझने वाला पार्टनर मिल जाए तो ज़िंदगी सँवर जाती है वरना.....‘‘.आगे बोलने की बजाय उन्होंने हाथ नकारात्मक मुद्रा में हिलाए।

‘जी हाँ वह तो है‘ मैंने उनकी बात का समर्थन किया।

लड़का काॅफी दे कर जा चुका था। ‘काॅफी पी कर नींद नहीं आएगी‘ मैं कहना चाहती थी, किन्तु चुपचाप मग हाथ में पकड़ लिया।

डॉ. जोशी काॅफी मग हाथ में पकड़े अपने भीतर डूबे हुए थे। शब्द किसी दूसरे लोक से आते लग रहे थे। ‘‘विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है डॉ. सुनीता। कहने को हम स्त्री-पुरुष हैं लेकिन हमारा वैचारिक स्तर समान है। हम एक साथ एक बिस्तर पर रात बिता दें तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। पत्नी के सामने मैं किसी महिला मित्र से बात भी नहीं कर सकता। इतनी शंकालु है वह! आप का आत्मविश्वास मुझे पसन्द आया थैंक यू डॉ. सुनीता।‘‘

काॅफ़ी मग साइड टेबुल पर रख कर वह पैर लटका कर बैठ गए थे और जूता पहनने लगे थे। उनके जाते ही दरवाजे की कुंडी चढ़ा कर मैं धम्म से बिस्तर पर लेट गई। उनकी उपस्थिति की असहजता से मैं अभी तक आक्रान्त थी। लाइट बुझाए बिना मैं सोने का उपक्रम करने लगी।

सोचा था खूब देर तक सोऊँगी किन्तु पाँच बजे फ़ोन की घंटी बजी तो उठना ही पड़ा। फ़ोन डॅा़ डिमरी का था। मैंने अत्यन्त अप्रसन्नता में ‘हॅलो‘ कहा। ‘‘मुझे माफ़ करना डॉ. सुनीता मुझे कल तुम्हारे कमरे में पी कर नहीं आना चाहिए था। मैंने तुमसे क्या बकवास की मुझे कुछ याद नहीं है। साथ नाश्ते पर चलोगी तो समझूँगा तुमने मुझे क्षमादान दे दिया।‘‘

‘‘गुड माॅर्निंग कैसी हैं आप?‘‘ 

ख्यालों में खोई मैं डॉ. डिमरी की आवाज़ से चैंक गई हूं। वह कब मेरे पीछे आ कर खड़े हो गए जान ही नहीं पाई।

‘‘मैं अच्छी हूँ सर।‘‘

‘‘फिर सर।‘‘

‘‘कहने दीजिए सर इसमें सहूलियत है।‘‘ मेरे भीतर की सुन्नी खुश हो रही थी। चल ‘सर‘ ‘अंकल‘ एक ही बात है।  



77 प्रकाशविहार, धरमपुर, देहरादून

9897937292

Sunday, December 24, 2023

मैं तेनु फिर मिलागीं

 


चित्रकार इमरोज इस दुनिया को कुछ ही दिन पहले अलविदा कह गए। 

बिना किसी किंतु परंतु के यह सर्व व्याप्त है कि इमरोज को  अमृता प्रीतम के साथी के रूप में जानने वालों के दिलों में इमरोज अपने जीवन काल में ही एक मिथ की तरह स्थापित हो चुके थे। अमृता और इमरोज के दोस्ताने की दास्तान रही ही इतनी खूबसूरत जिसे अपनी आत्मकथा  रसीदी टिकट में खुद अमृता ने दर्ज किया है। 

पिछले दिनों अमृता की आत्मकथा रसीदी टिकट के छोटे छोटे अंश और उनके ही कविता संग्रह कागज और केनवास से चुनी हुई कविताओं से तैयार एक कोलाज “आजाद रूह "  से साक्षात्कार करने का अवसर राजपुर रोड स्थित वेली ऑफ वर्ल्ड में हुआ था। दरअसल उस दास्तान का अंदाज था ही इतना अनूठा कि स्मृतियों में अमिट हो गया। वह एक एकल अभिनय था शर्मिष्ठा का। अमृता प्रीतम की स्मृति की वह यादगार शाम थी - 4 नवम्बर 2023।  

इस बार शर्मिष्ठा ने इमरोज की स्मृति को एक दूसरे अंदाज में रखा है- कविता के रूप में। यह कविता उसी “आजाद रूह " का अपने तरह से विस्तार है जो एक कलाकार, कवि के भीतर छुपी बैठी अमृता प्रीतम को सामने लाने की कोशिश है। 

शर्मिष्ठा अपने मिजाज में मूलत: एक रचनाकार हैं। अंग्रेजी में लिखती हैं। एक उपन्यास प्रकाशित है- Endless longings, journey of a kashmiri girl, कविताओं एक संकलन Resurrection प्रकाशित है और अगले संग्रह के प्रकाशन की तैयारियां लगभग अंतिम मुकाम पर है। 




एक बार, तेरे इर्द-गिर्द घूम कर ही,

मैने पूरी दुनियाभर का फेरा लिया था!

और आज, इस दुनियाभर के, हर फेरे से, 

रिहा हो कर,

मै, हमारी, दुनिया का, हो गया हूं।

 

मेरी बरकते, मेरी कायनात, मेरी रंग-रेज,

तुझसे, मै हर पल, मिलता रहा हूं ।

कभी केनवास की लकीर मेंं, तो कभी,

सर्दी की धूप मे या फिर बहुत ही,

पुरानी सी किताबों की, खुश्क खुशबू में।

 

तुम्ही ने कहा था, एक यकीन के साथ,

'मैं तेनु फिर मिलागीं'

मैंं, उसी यकीन से, तुमसे,

रोज मिलता रहता हूं,  तुम्हें पाता रहता हूं।

तुम्हारे होने के एहसास सेजीता रहा हूं।

 

सुनो, एक लंबे और नये, सफर पर जाने से पहले,

मैने सब संभाल के रखा है-

तुम्हारी हर नज्म, तुम्हारी हर किताब,

तुम्हारी हर कलम, तुम्हारी खाली सिगरेट की डिब्बी भी।

मेरे केनवास मे 'तुम्हारी हर तस्वीर'

रंगों में लिपटी तुम्हारी हर नज्म, महफूज है।

तुम्हारी बेफिक्री, तुम्हारी आजाद रूह को,

मैने पलंग पर बिछाई, चादर की सिलवटो मे ही,

बसने दिया है।

एक खाली प्याला और साथ मेंं, एक भरा कप,

आज तक, मेज पर ही सजा रखा है।

 

तुझे पता है भी, इस दुनिया ने,

मुझे तेरे नाम से जोड़कर,

किस किस तरह से, सजा रखा है?

कोई अमृता का इमरोज कहता है,

तो कोई कागज और केनवास कहता है।

और, मैंं, तेरा 'इम', यह सब सुन, बस मुस्करा देता हूं।

 

अब, मैं भी, तुमसे फिर मिलने निकला हूंं,

खुद को खुद से, रिहा कर चला हूं।

तेरा घर, एक जादू का घर, बहुत,

बडा-सा होगा, कायनात के हर कण से।

मैंं, खुद के सिवा और क्या, लेकर आऊ?

 

तू उसी बेफिक्री से, खड़ी होकर

कायनात के हर कण मे, हाजिर होकर,

मेरे आने की चाह मेंं, मेरा इंतजार कर रही है।

देख, मैंं, इसलिए, एकदम रीता होकर,  आया हूं-

तुझसे ही, जरूर मिलने के लिए,

फिर एक बार तेरा, 'इम' 'इमरोज' और 'आज' होने के लिए।


Monday, December 11, 2023

कामकाजी महिला की दुविधा और उसके दर्द

देहरादून के रचनात्मक जगत पर और महिला रचनाकरों पर जब भी बात की जाएगी तो कथाकार कुसुम चतुर्वेदी और शशिप्रभा शास्त्री का जिक्र किये बगैर बात नहीं की जा सकती। यह संयोग ही कहा जा सकता है कि दोनों ही रचनाकार महादेवी कन्या (पी जी) कॉलेज में अध्यापनरत रहीं। उन्हीं कुसुम चतुर्वेदी को याद करते हुए आज हमारे सम्मुख हैं कथाकार विद्या सिंह। कुसुम जी की शोधा छात्रा रहते हुए विद्या सिंह जी को न सिर्फ उनके निजी जीवन से साक्षात्कार करने का मौका मिला, अपितु उनकी रचनाओं को भी करीब से देखने का सुयोग प्राप्त हुआ। उनका यह संस्मरण इस बात का गवाह है जिसे उन्होंने हमारे आग्रह पर कुसुम की रचनाओं से गुजरते हुए बहुत ही आत्मीय तरह से लिखा है।



स्मृतियों की परिधि में डॉ. कुसुम चतुर्वेदी

 विद्या सिंह 

सुप्रसिद्ध कहानी लेखिका डॅा. कुसुम चतुर्वेदी, जिन्हें मैं हर प्रकार की औपचारिकता को दर किनार करते हुए ‘दीदी‘ संज्ञा से संबोधित करती रही हूँ, से प्रथम परिचय प्राप्त करने के सुयोग की पृष्ठभूमि में डॉ. पंजाबी लाल शर्मा, तत्कालीन विभागाध्यक्ष हिन्दी, डी. ए. वी. पी. जी. कॉलेज का वह पत्र था, जो उन्होंने मुझे शोधछात्रा के रूप में, अपने निर्देशन में लेने का अनुरोध करते हुए डा.चतुर्वेदी को लिखा था। उस समय मेरी दूसरी बेटी कोख मे पल रही थी। ’’उनके साथ आप अधिक सहजता अनुभव करेंगी‘‘ डॉ. शर्मा के शब्द थे।

    आशंकित भाव से गेट के भीतर घुसते ही संभावित कुत्ते का भय, हरे भरे वृक्षों के बीच, सुन्दर लॉन से सुसज्जित बंगला, कुल मिला कर एक अभिजात्यपूर्ण वातावरण का असर तो था ही, डॉ. चतुर्वेदी ने पत्र पढ़कर मुझे हतोत्साहित करते हुए जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, मेरे लिए वह अकल्पनीय थी। ज्ञात नहीं वह अपने वक्तव्य में कितनी गंभीर थीं, किंतु मैने उनके शब्दों को यथावत् ग्रहण किया। ’’अरे! दो-तीन बच्चे पैदा करो और पैर पसार कर सोओ। क्या रखा है पी-एच.डी. में?‘‘ आई. डी. पी. एल. ऋषिकिेश से मेरे बार-बार चक्कर लगाने पर संभवतः उन्हें मेरे निर्णय की गंभीरता का बोध हुआ और वह काम कराने को सहमत हुईं। मेरी सिफ़ारिश उनके पति श्री एस. सी. चतुर्वेदी ने भी की, जो मुझे डी. ए. वी. कॉलेज में एम. ए. अंग्रजी की कक्षा में पढ़ा चुके थे।

     दीदी से निरन्तर मुलाकातों के क्रम में उनकी कहानियों पर भी बातें होतीं। मैं अब समझ सकती हूॅ कि वह मेरी मौखिक समीक्षा से बहुत आश्वस्त नहीं होती थीं। उनकी रचना के बहुत से पक्ष मेरी समझ की परिधि में समाने से रह जाते, जिन पर वह प्रतिक्रिया जानना चाहतीं। यह बात सन् 1980 की है जब साहित्य को समझने की तमीज भी मेरे भीतर पैदा नहीं हुई थी। शोधछात्रा के रूप में दीदी से जो मेरा जुड़ाव हुआ, मेरे प्रति बरती गई उनकी उदारता वश, वह उत्तरोत्तर अधिक आत्मीय होता गया और आगे चल कर विभागीय,पारिवारिक एवं अध्ययन-अध्यापन के स्तरों पर निरंतर बना रहा। एम.के.पी. पी.जी. कॉलेज में प्राध्यापिका के रूप में मेरे चयन में उनकी अविस्मरणीय भूमिका थी। विभाग की वरिष्ठ प्राध्यापिका डॉ. उषा माथुर यूजीसी के किसी प्रोजेक्ट के तहत दीर्घ अवकाश लेकर दिल्ली चली गई थीं। दीदी का पोस्टकार्ड मुझे प्राप्त हुआ कि 'यदि तुम पढ़ाने आ सकती हो, तो आ जाओ। यहां अवकाश कालीन रिक्ति है।  बाद में हो सकता है यह पूर्णकालिक भी हो जाए।'

 ऋषिकेश से नौकरी छूटने के बाद मैंने पी-एच.डी. की और अब मैं  इंटर के बच्चों को अंग्रेजी की ट्यूशन देती थी। पत्र पाकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं देहरादून आई, मुश्किल से दो कक्षाएं लेनी होती थीं। मैं खा- पीकर 10:30 बजे आई.डी.पी.एल. से निकलती थी और 12:30 तक देहरादून पहुंच जाती थी। 3:30 बजे फ्री हो जाती थी और फिर वापस 5:15 से 5:30 तक आईपीएल पहुंच जाती थी। एक डेढ़ साल मैंने इस व्यवस्था में पढ़ाया कि पूर्णकालिक शिक्षक की रिक्ति निकली मुझे पूर्णकालिक नौकरी प्राप्त हो गई। इन सबके पीछे मेरे सिर पर दीदी का वरदहस्त था।

     उनके साथ महाविद्यालय में काम करते हुए, उन्हें बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। भाषा पर उनकी अद्भुत पकड़ थी और शब्दों के हेर-फेर से चमत्कार पैदा कर देना उनका हुनर । अपनी वैदुष्यपूर्ण टिप्पणियों से वह मेरे शोधकार्य को स्तरीयता प्रदान करतीं, अनावश्यक मीन-मेख कभी नहीं निकालतीं।  वह भीतर-बाहर एक जैसी थीं। मैं उनके जीवन के अन्यान्य मोड़ों की प्रत्यक्षदर्शी रही हूॅ और इन सभी सन्दर्भों में उनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। कहते हैं मन और आत्मा की स्वच्छता व विशदता तन को स्वास्थ्य देती है,सुघड़ता देती है। दीदी के लिए यह कथन सर्वांश रूप में सत्य है।

          प्रसाद जी की पंक्तियों का सहारा लूं तो ‘हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लंबी काया उन्मुक्त‘ द्वारा उनके आकार- प्रकार का चित्रण किया जा सकता है। किन्तु अपने पति के सुदर्शन व्यक्तित्व के सम्मुख वह हमेशा स्वयं को दूसरे पायदान पर रखती थीं। यह उनकी निरभिमानता का प्रमाण है। प्रायः उनकी कहानियां पढ़ते हुए,  उनसे बातें करने और बातें करते हुए, कहानियां पढ़ने का भ्रम होता था। साहित्य व्यक्तित्व का प्रतिफलन होता है, यह कथन उनके लेखन के संदर्भ में एकदम सटीक बैठता है। परम्परा और आधुनिकता की संक्रान्ति के मध्य उभरती मूल्यचेतना से संपन्न जिस स्त्री को उन्होंने अपने लेखन के केन्द्र में स्थापित किया है, उससे उनकी वैचारिक समानता प्रकट होती है।

         अपने निर्णय के मामले में वह किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के उपरांत शोध के लिए उनकी इकलौती बेटी नीरजा अमेरिका जाने वाली थी। टिकट और वीसा, सब कुछ हो चुका था। इसी बीच चतुर्वेदी सर का देहांत हो गया। बहुत से‌ निकट के लोगों ने उन्हें समझाया कि बेटी को बाहर न जाने दें किंतु उन्होंने अपने विवेक से काम किया और बेटी के मार्ग में कोई बाधा नहीं डाली। बाद में बेटी ने वहीं अमेरिका में नौकरी ज्वाइन कर ली और उसने विवाह भी नहीं किया। उसके विवाह की लालसा उनके दिल में ही रह गई।

     पहले शोधछात्रा और बाद में उन्हीं के विभाग में एक शिक्षिका के रूप में  उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला। एक प्रसंग मैं कभी नहीं भूल पाती और याद आने पर अधरों पर मुस्कान अपने आप फैल जाती है। डिपार्टमेंट में मधु शर्मा मैडम की बेटी का विवाह था; मैं ऋषिकेश से आई थी। वैवाहिक आयोजन से लौटने में रात हो गई और वापस ऋषिकेश जाने की कोई सूरत नहीं रह गई थी। अतः मैं दीदी के घर पर रुक गई। उन्होंने ओढ़ने के लिए मुझे एक रजाई, जो मेरे हिसाब से बहुत पतली थी,दी। रात में बहुत ठंड लगी किंतु संकोच वश मैंने उन्हें नहीं जगाया। सुबह उठने पर उन्होंने पूछा रात में तुम्हें गर्मी तो नहीं लगी? मैंने कहा, "नहीं दीदी, गर्मी बिल्कुल नहीं लगी।" जब मैं आई.डी.पी.एल. पहुंची तो हीटर ऑन करके तलवों में तेल लगा ,कर मैंने अपने को खूब सेंका।

                        उन दिनों उनकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में। खूब प्रकाशित हो रही थीं। उनकी कहानियां परिवार में घटने वाली उन छोटी- छोटी बातों को पूरे विवरण के साथ प्रस्तुत करती हैं,जो महत्त्वपूर्ण तो हैं, किन्तु उनकी ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। उत्तरकालीन जीवन के तीसरे पड़ाव पर नितान्त अकेली रह गई स्त्री की पीड़ा को उन्होंने अत्यन्त संवेदना पूर्वक उकेरा है। आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना ही सुखी जीवन की अनिवार्यता नहीं है। अच्छा वेतन पाने वाली अनेक ऐसी स्त्रियों के चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं जो घरेलू औरतों के प्रति इर्ष्यालु हो उठती हैं किंतु उनकी‌अधिकांश कहानियों की स्त्री अत्यन्त संवेदनशील और अस्तित्व के प्रति सजग है। पति- पत्नी के बीच उभरते द्वन्द्व, अपने-अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के लिए संघर्ष  करते हुए पति- पत्नी के जीवन में व्याप्त तनाव, पति के साथ एकरस और ऊब भरी जिन्दगी बिताने की नियति को नकार कर स्वच्छन्द जीवन-यापन करने का साहस आदि भावों को व्यक्त करती हुई उनकी अनेक कहानियां देखी जा सकती हैं। जीवन की विविध स्थितियों में घुटन भरी जिन्दगी जीती स्त्री उस अपरिचित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति से भर उठती है, जो उसके व्यक्तित्व को सम्मान देता है। सम्बंधहीन कहानी की नायिका सुनन्दा का पति उसके लेखन को बिल्कुल महत्त्व नहीं देता, ऐसे में वह उस पराए व्यक्ति को बहुत अपना समझती है, जो उसके लेखन की कद्र करता है।उसकी मृत्यु उसे व्यक्तिगत हानि महसूस होती है।         

संवेदनशील रचनाकार की दृष्टि समाज में उपेक्षित उन समस्त वंचितों की ओर जाती है, जिनकी सहायता में कोई आगे नहीं आता।दीदी की कहानियां इस सच्चाई का साक्ष्य हैं। इसके अतिरिक्त आपकी कहानियां समाज में व्याप्त उन तमाम विडंबनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं, जो घुन की तरह समाज को खोखला कर रही हैं। पब्लिक स्कूलों में चल रहे शिक्षा के व्यवसाय को प्रदर्शित करती कहानी ‘उपनिवेश' शिक्षक शिक्षिकाओं के शोषण का अत्यन्त बारीकी से विवरण प्रस्तुत करती है।

            कितने ही लोग भविष्य की चिन्ता मे वर्तमान को नारकीय बना लेते हैं। ‘यक्ष’ एक ऐसेे दंपति की कहानी है, जिसका पुरुष पात्र प्रकाश अत्यन्त कंजूस है। वह पूरा जीवन पैसे जोड़ने के फेर में अभावग्रस्त होकर बिता देता है और अन्त में सब कुछ छोड़ स्वर्ग सिधार जाता है। पत्नी को पति द्वारा बरती गई कंजूसी के स्मरण से क्षोभ होता है और वह उन पैसों को अपने ऊपर भी व्यय नहीं कर पाती। मानव मनोविज्ञान की गहरी सूझबूझ के साथ रची गई ये कहानियां पाठक पर सीधा प्रभाव डालती हैं।

            स्त्री किसी भी उम्र की हो अपने सौन्दर्य के प्रति की गई उपेक्षा उसे सहन नहीं होती।’अनदेखे बंधन‘ की इन्द्रा को, पति द्वारा बरती गई लापरवाही, अपने प्रति सजग बना देती है। वह अपने सौन्दर्य को लेकर पर्याप्त चिन्तित हो जाती  है। वह अपना सौन्दर्य पारिवारिक मित्र अजीत के उपर आजमाना चाहती है। चाय लेकर अजीत के कमरे में जाते हुए यह निश्चय करती है कि वह अजीत के मन में अपने प्रति आकर्षण पैदा करेगी, किन्तु उसका विवेक उसे ऐसा करने से रोक देता है। नारी मनोविज्ञान  की समझ से युक्त कहानियों में स्त्री के अनेक रूपों का चित्रण हुआ है। कामकाजी महिला की दुविधा उसके दर्द और विवशता उनकी कहानियों में व्याप्त हैं। कहीं अपने बच्चे को बहन को गोद देने की विवशता का चित्र है तो कहीं अपने गरीब भाई- भाभी के लिए भरेपूरे ससुराल में कष्ट पाती स्त्री का चित्र है। उनकी कहानियां जीवन की अनेक स्थितियों में घिरी हुई स्त्री के मन में चल रहे द्वन्द्व को वाणी देती हैं।

दीदी की कहानियों के शीर्षक पर बात न की जाए तो चर्चा अधूरी रह जाएगी। अपनी कहानियों के शीर्षर्कों का चुनाव उन्होंने काफ़ी सोच समझ कर किया है।प्रायः शीर्षक प्रतीकात्मक हैं, कहानी के भीतर छिपे मर्म की ओर संकेत करते हुए। ‘तीसरा यात्री’, ‘एकलव्य’, ‘कुबेर के प्रतिद्वन्द्वी’,‘उपनिवेश’ आदि अनेक शीर्षक उदाहरण स्वरूप देखे जा सकते हैं।

आज वह पार्थिव रूप में भले हमारे बीच नहीं हैं पर अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सदैव हमारे मध्य बनी रहेंगी।


Tuesday, November 7, 2023

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर

 

किसी शहर की बनावट को जानने के लिए वहां  की गलियां और चौराहों से गुजरना जरूरी है। लेकिन समय की दौड़ में यदि वे गलियां और चौरस्ते गायब हो गए हो तो क्या किया जाये। देहरादून के चौरस्ते तो पिक्चर हॉलों से गुजरते थे, वहीं उस दौर का युवा धड‌कता था। लेकिन पुरानी इमारतों को मॉल में बदल दिये जाने वाले इस दौर में वह देहरादून अपनी  शक्ल  बदल चुका है। हमारे  प्रिय  लेखक और देहरादून को हर क्षण अपने भीतर जिंदा रखने वाले शख्स कथाकार  सूरज प्र्काश की  कलम का शुक्रिया कि वह उस देहरादून  का चित्र दिखा पाने में सक्षम है जो आज विलुप्त हो चुका है। आइये  पढ‌ते  हैं, देहरादू के सिनेमा  हॉल पर लिखा उनका संस्मरण । 
विगौ


बचपन का बाइस्कोप

सूरज प्रकाश



याद आता है कि बचपन में और किशोरावस्था में हमने देहरादून के सिनेमाघरों में खटमलों से घमासान करते हुए कितनी फ़िल्में देखी झेली हैं। कितना रोमांचकारी अनुभव होता था तब फिल्म देखना। सिर्फ हम बच्चों के लिए ही नहीं, परिवार के सभी सदस्यों के लिए, अकेले रहने वाले नौकरीपेशा लोगों के लिए और हर उम्र के लोगों के घर से बाहर निकल कर मनोरंजन की तलाश करने वाले लोगों के लिए सिनेमा हॉल तब बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। फिल्म देखना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। अगर परिवार के साथ या बाहर से आये मेहमानों के साथ रविवार या छुट्टी के दिन फिल्म देखने का प्रोग्राम बनता तो बाकायदा घर में उत्सव का माहौल बन जाता। एक या दो दिन पहले से किसी को भेज कर फर्स्ट क्लास या बाल्कनी के टिकट मंगवाये जाते, खूब तैयार हो कर और पूरे मनोयोग के साथ फिल्म देखने के लिए घर से निकलते। छुट्टी के दिन या रविवार के दिन अचानक फिल्म देखने का प्रोगाम बन जाने से या तो हाउस फुल का बोर्ड देख कर या तो निराश होना पड़ता या ब्लैक में टिकट खरीदने पड़ते। 
सन 70 से 80 के दशक तक देहरादून शहर में ये सिनेमाघर थे। जैसे भी थे, हमारे जीवन के जरूरी अंग थे।
1. लक्ष्मी टॉकीज - गाँधी रोड,  2. फिल्मिस्तान टॉकीज - पुरानी सब्जी मंडी, मोती बाजार, 3. दिग्विजय सिनेमा – घंटाघर, 4. कैपरी सिनेमा - चकराता रोड, 5. नटराज सिनेमा - चकराता रोड, 6. प्रभात टॉकीज - चकराता रोड, 7. कृष्णा पैलेस सिनेमा - चकराता रोड, 8. न्यू एम्पायर सिनेमा - राज पुर रोड, 9 . ओरिएंट सिनेमा – एस्ले हॉल, 10. छाया दीप सिनेमा - राज पुर रोड, 11. पायल सिनेमा - राज पुर रोड, 12.  ओडियन सिनेमा - राज पुर रोड, 13. विक्ट्री सिनेमा – क्लेमेंटटाउन, 14. गैरीजन हॉल सिनेमा - मॉल रोड, गढ़ी कैंट, 15. न्यू राज कमल सिनेमा- गढ़ी कैंट, 16. खेत्रपाल प्रेक्षागृह - इंडियन मिलिट्री अकादमी (आईएमए)।, 17. कनक सिनेमा - परेड ग्राउंड के समीप। 

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर। 1860 से 1868 के बीच माल रोड पर मसूरी बाजार (जो कि अब लाइब्रेरी बाजार है) के पास इलीसमेयर हाउस में नाटकों का मंचन शुरू किया गया। ये सिलसिला 1935 तक चला, इसी बरस से यहां बाइस्कोप दिखाया जाने लगा। बाद में फिर यही इलीसमेयर हाउस मैजेस्टिक सिनेमा हॉल बना।
इनके अलावा उन दिनों उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की ओर से ऐसी खुली जगह पर, जहां तीन चार सौ आदमी आराम से जमीन पर बैठ सकें, फोल्डिंग स्क्रीन लगा कर फिल्में दिखाने का प्रचलन था। फिल्म से पहले प्रचार पसार के लिए डॉक्यूमेंट्री फिल्में दिखायी जातीं और उसके बाद फिल्म शुरू होती। तब हर पंद्रह बीस मिनट बाद जब प्रोजेक्टर पर रील बदली जाती तो वह पांच सात मिनट का अंतराल भी खराब लगता। फिल्में आम तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट होतीं। पता नहीं हम बच्चों को कैसे खबर मिल जाती कि फलां जगह पर आज फिल्म दिखायी जा रही है, हम सब पहुंच जाते। फिल्म कितनी समझ में आयी, इससे कोई मतलब नहीं होता था, देखना महत्वपूर्ण होता था।
       दिगविजय टाकीज पहले प्रकाश टाकीज़ हुआ करता था। यह किसी गुप्ता परिवार का था। मालिक अय्याश थे। सिनेमा का दिवाला पिट गया। फिर इसे.जुब्बल के राजा.ने खरीद लिया। रिनोवेट किया और इसका नाम बदलकर दिगविजय टाकीज़.हो गया।
 नटराज का नाम पहले चीनिया हुआ करता था और उससे पहले हाउसफुल और उससे भी पहले हॉलीवुड। यूनिवर्सल पेट्रोल पंप के बगल स्थित न्यू एम्पायर सिनेमा के प्रथम तल के लकड़ी के फर्श पर देहरादून शहर के समृद्ध व्यक्ति व उनके परिवार स्केटिंग का आनंद लेते थे, इस विशालकाय हॉल को "रिंक" के नाम से भी जाना जाता था। न्यू एंपायर में सबसे अधिक सीटें थीं और वहां पर बाल्कनी के अलावा फैमिली केबिन भी बने हुए थे। वहां सबसे ज्यादा सीटें होने के कारण कभी भी टिकट मिल जाया करती थीं। 

कैप्री व ओडियन सिनेमाघरों में केवल नवीनतम अंग्रेजी फिल्में  ही प्रदर्शित होती थीं, बाद में प्रभात टॉकीज में भी सुबह के शो में अंग्रेजी फिल्में दिखाने का चलन आरम्भ हुआ जिसे कुछ समय अन्य सिनेमाघरों ने भी अपनाया।
इनमें से फिल्मिस्तान में परिवारों की महिलाएं सिनेमा देखने कम जाती थीं क्योंकि वहाँ पर बी ग्रेड की मार धाड़ वाली फिल्में और दारा सिंह टाइप की फ़िल्में ही ज्यादा लगती थी और थिएटर भी बहुत अच्छा नहीं था। वैसे तो सारे थिएटर ही अच्छे नहीं थे लेकिन जो थे, उन्हीं में गुज़ारा करना पड़ता था। महिलाओं के लिए और सपरिवार फिल्में देखने के लिए ओरिएंट सबसे अधिक अच्छा माना जाता था। एक तो लोकेशन के कारण और दूसरे अच्छी फिल्मों के कारण। 
आज इनमें से अधिकांश सिनेमा हॉल बंद हो चुके हैं और उनकी जगह मल्टीप्लेक्स खुल गये हैं जहां मल्टी स्क्रीन होते हैं या पूरे शहर में जगह जगह पर उग आये नये मॉल्स में मल्टी स्क्रीन नयी पीढ़ी के सिनेमा देखने के नये ठिकाने हैं। लेकिन तब के सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर हमारे जीवन की और तब के अबोध सपनों की जरूरी जगहें हुआ करती थीं। याद आता है कि ये मिलने जुलने के सबसे महफूज ठिकाने होते थे। कई परिवारों के लड़के लड़कियों के रिश्ते तय करने के लिए परिवारों की पहली मुलाकात के लिए सिनेमा हॉल ही पसंद करते थे। परिवारों के लिए रविवार के दोपहर के शो सबसे मुफीद माने जाते थे।
आइएमए में खेत्रपाल थियेटर में केवल सेना के अफसरों और उनके परिवारों के लिए ही सिनेमा प्रदर्शित की जाती थी। वहां गैर सैनिकों का प्रवेश वर्जित था।
वक्त बदला, नयी पीढ़ी आयी, उसकी पसंद बदली। कभी शहर की शान माने जाने वाले लक्ष्मी टॉकीज, फिल्मिस्तान टॉकीज, कैप्री सिनेमा, ओडियन सिनेमा शॉपिंग काम्प्लेक्स में बदल दिए गए।  कनक, कृष्णा पैलेस और दिग्विजय सिनेमा भी अब फिल्में नहीं दिखाते। कुछ पुराने सिनेमा हॉल आज भी मौजूद हैं लेकिन ज्यादातर का वजूद ख़त्म हो चुका है।
चकराता रोड पर वर्ष 1947 में प्रभात सिनेमा की शुरुआत टीसी नागलिया ने की थी। उनके निधन के बाद उनके पुत्र दीपक नागलिया ने वर्षों तक इसका संचालन किया। 1977 में इसकी मरम्मत की गयी, जिसके बाद यहां सीटों की संख्या 500 से बढ़ाकर 1000 की गयी। साथ ही दीपक समय-समय पर आने वाली लेटेस्ट टेक्नोलॉजी को भी अपनाते रहे, जिससे दर्शकों को फिल्म देखने में आनंद आए। 
1948 में इस सिनेमाघर में पहली फिल्म बारह दिन दिखाई गयी थी जबकि फिल्म बागी-3 दर्शकों को आखिरी बार मार्च 2020 में दिखाई गयी। कभी हर दिन हॉल में चार शो दिखाए जाते थे। प्रभात सिनेमा हॉल में कुल 105120 शो दिखाए गए।
समय के साथ थिएटरों की साज सज्जा, सुविधाओं और रूप रंग में आए बदलावों और मल्टीप्लेक्स के बढ़ते चलन के साथ न केवल प्रभात से, बल्कि सभी सिंगल स्क्रीन और दशकों पुराने सिनेमा हॉलों से दर्शक दूर होते चले गए। हालांकि प्रभात थियेटर के मालिक नागलिया परिवार के सदस्य वहां पर अन्य कमर्शियल गतिविधियां शुरू करना चाहते थे लेकिन सरकार की तरफ से अनुमति नहीं मिली अंत: उन्हें ये सिनेमा हॉल बंद करने का फैसला लेना पड़ा।

बताते हैं कि नागलिया जी के कपूर परिवार से अच्छे रिश्ते थे। कपूर खानदान की फिल्में अनिवार्य रूप से वहीं रिलीज होती थीं। नागलिया परिवार ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, करिश्मा कपूर और करीना कपूर के लोकल गार्जियन भी रहे। पहली बार ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी यहां 25 हफ्ते तक चली थी। 
पहले इसी बरस 30 मार्च को ऋषि कपूर की इसी सुपरहिट फिल्म बॉबी के प्रदर्शन के साथ हॉल को बंद करने की योजना थी। ये अंतिम भव्य शो होता लेकिन अब बिना फिल्म चले ही प्रभात टॉकीज बंद कर दिया गया।
72 बरसों तक देहरादून की तीन पीढ़ियों को बेहतरीन सिनेमा का एहसास कराने वाला यह हॉल अब अतीत की बात हो गयी है। हॉल के संचालकों ने इस इमारत की जगह काम्प्लेक्स बनाने का निर्णय लिया है। दीपक नागलिया के बेटे तुषार नागलिया बताते हैं कि उन्होंने देहरादून में ओपन एयर सिनेमा की शुरुआत की है। दून स्कूल से पढ़े तुषार ने ओपन एयर थिएटर कॉन्सेप्ट लॉन्च किया है।
चकराता रोड स्थित नटराज की शुरुआत वर्ष 1950 में हुई थी। इस सिनेमाघर के वर्तमान मालिक भीम मुंजाल बताते हैं कि इसका निर्माण नेपाल मूल के किसी रसूखदार ने कराया था। शुरुआती दिनों में इस सिनेमाघर का नाम नटराज नहीं था, बल्कि इसे हॉलीवुड सिनेमा के नाम से जाना जाता था। उस दौर में पूरे देहरादून में सिर्फ चार सिनेमाघर हुआ करते थे। इनमें नटराज भी शामिल था। सिनेमाघरों की संख्या कम होने और सुविधाएं अच्छी होने के चलते सबसे ज्यादा भीड़ नटराज में ही होती थी। इसके चलते यहां अधिकांश शो हाउसफुल रहते थे। देहरादून के सबसे पुराने सिनेमा हॉल होने के कारण इसके तत्कालीन मालिक ने इस सिनेमाघर का नाम ही हॉलीवुड सिनेमा से बदलकर हाउसफुल रख दिया। इस सिनेमाघर के निर्माणकर्ता ने कुछ समय बाद इसे उद्योगपति दर्शनलाल डावर को बेच दिया था। वर्ष 1980 में उद्योगपति डावर से यह सिनेमाघर वर्तमान मालिक भीम मुंजाल के पिता चमनलाल मुंजाल ने खरीद लिया। उन्होंने ही इस सिनेमाघर का नाम नटराज रखा। 
उन्हीं दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूटिंग के लिए नया नियम बना दिया गया। जिसके तहत नई फिल्म उन्हीं सिनेमाघरों को दी जानी थी, जिनमें कम से कम 800 व्यक्तियों के बैठने की क्षमता हो। उस वक्त तक नटराज की क्षमता 500 सीट की थी। ऐसे में उन्होंने हॉल को 908 सीट की क्षमता का किया। पसंदीदा सिनेमाघरों में शुमार ‘नटराज’ को अब आधुनिक समय के हिसाब से नए कलेवर में तैयार किया गया है। लॉक डाउन में बंद होने के करीब एक वर्ष बाद अभी हाल ही में यह सिनेमाघर दोबारा दर्शकों के लिए खुला। 
मुझे याद आता है मैंने पहली फ़िल्म 1961 में दिग्विजय ने संपूर्ण रामायण देखी थी। उस समय टिकट 50 आठ आने का था। बाद में बहुत लंबे अरसे तक सभी थिएटरों में आगे की क्लास में टिकट एक रुपया 10 पैसे, फर्स्ट क्लास के टिकट ₹2.25 और बाल्कनी के टिकट ₹3.50 हुआ करते थे। फर्स्ट क्लास में विद्यार्थियों को आइडेंटिटी कार्ड पर 20% की छूट मिल जाया करती थी और ये आइडेंटिटी कार्ड इंटरवल में वापिस मिलते थे। परिवार वाले या अकेली महिलाएं बाल्कनी या फर्स्ट क्लास में ही फिल्म देखते थे।
तब हम गाँधी स्कूल में पढ़ते थे और फर्स्ट डे फर्स्ट शो का शौक बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को सिनेमा हॉल की तरफ खींच ले जाया करता था लेकिन हमारे प्रिंसिपल चंद्र किरण गुप्ता भी कम नहीं थे। वे सभी कक्षाओं के हाजिरी रजिस्टर चेक करते कि शुक्रवार को कौन कौन सी क्लास में कौन कौन से विद्यार्थी नहीं हैं। तब वे वाइस प्रिन्सिपल सिंघल को साथ ले कर टार्च ले कर नयी फिल्म वाले एक एक पिक्चर हॉल में विद्यार्थियों को ढूंढने निकल जाते और पकड़े जाने पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाता। अगले दिन प्रार्थना सभा में उनकी पेशी होती, और  ₹10 जुर्माना देने पर ही दोबारा एडमिशन होता। ये उनकी या स्कूल की कमाई का एक अच्छा जरिया था।
मैंने दूसरी फ़िल्म लक्ष्मी थिएटर में 1963 में जय मुखर्जी और आशा पारेख की फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ देखी थी। इस फिल्म का नशा कई दिन तक नहीं उतरा था। लक्ष्मी थिएटर के पास ही दिल्ली जाने वाली बसों का अड्डा हुआ करता था और तब देहरादून से दिल्ली जाने वाली बस का किराया छह रुपये चार आने होता था।
उस उम्र में फ़िल्म देखना एक बहुत बड़ा शगल हुआ करता था। हमें जब पता चलता कि सिनेमा हॉल में बाहर लगी शीशे की विंडोज़ में आने वाली फ़िल्म के फोटो लग गए हैं तो हम सब दोस्त बाकायदा फोटो देखने के लिए प्रोग्राम बना कर जाते और बहुत हसरत से उन पुरानी और कई शहरों की यात्रा करके आयी फोटो देखा करते थे। फ़िल्म देखना एक बहुत रोमांचक अनुभव होता था। 
सबसे पहले तो कई कई दिन इसी बात में बीत जाते थे कि फिल्म देखने का जुगाड़ कैसे बिठाया जाये। उन दिनों ढेरों ढेर फिल्मी पत्रिकाएं आती थीं जिनमें फिल्म की कहानी और गीतों के बोल हम पहले से पढ़ चुके होते थे। ये रंगीन फिल्मी पत्रिकाएं हमारे लिए फिल्मों से पहला परिचय कराती थीं। 
पहला शो बारह बजे का होता था और उसमें लड़कों और युवा लोगों के ही हुजूम नजर आते थे। लगभग 30% टिकट तो पहले ही ब्लैकियों के पास पहुँच जाते थे और ₹1.10 की टिकट मिलने के लिए खिड़की में एक हाथ घुसाने भर की जगह अपना अपना हाथ घुसेड़ने के लिए जो मारामारी मचती, शरीफ आदमी की तो टिकट लेने की हिम्मत ही नहीं होती थी। उस क्लास में सीटों के नंबर नहीं होते थे। टिकट मिल जाना मतलब आधा किल्ला फतह। सिर्फ प्रभात टॉकीज में ही एक रुपये दस पैसे की टिकट की खिड़की के आगे रेलिंग थी। एक बार रेलिंग में घुस गये तो टिकट मिलने की उम्मीद रहती थी। महिलाओं के लिए अलग लाइन होती। इस क्लास के टिकटों की एडवांस बुकिंग नहीं होती थी1 
हम बच्चे जब फ़िल्म देखकर आते तो कई कई दिनों तक उन दोस्तों को फिल्मों की कहानी सुनाते रहते जिन्होंने फ़िल्म नहीं देखी होती थी और हम अगले कई दिनों तक फ़िल्म के नशे से बाहर नहीं आए होते थे।
फिल्म देखने के लिए घर से 3 घंटे के लिए निकलने के लिए हमें दो बड़े बड़े संकट पार करने होते थे। फिल्म देखने से लिए सबसे पहले हमें ₹1.10 का इंतजाम करना सबसे मुश्किल होता था। पैसे आम तौर पर हमारे पास नहीं होते थे और दूसरे घर से फ़िल्म देखने जाने की अनुमति नहीं मिला करती थी। छुप कर फ़िल्म देखनी होती थी। पढ़ाई के बहाने या किसी दोस्त के घर जाने के बहाने या घर का कोई काम करने के बहाने। अगर ये दोनों संकट पार हो जायें तो फिल्म देखना एक लॉटरी लगने जैसा होता था।
दूसरा संकट होता था कि अगर घर से छुप कर फ़िल्म देख रहे हैं तो 3 घंटे के लिए घर से बाहर निकलने का बहाना कैसे लगाया जाए। कोई भी फ़िल्म तब 3 घंटे से कम की नहीं होती थी। हर सिनेमा हॉल में चार शो होते थे - 12:00 बजे 3:00 बजे 6:00 बजे और 9:00 बजे। परिवार के लोग या महिलाएं आमतौर पर दोपहर का शो देखना पसंद करती थीं। उसके लिए टिकट पहले से मंगा लिए जाते थे।
हम बच्चों ने 3 घंटे गायब होने के दो तरीके ढूंढ लिए थे। पहले ये तरीका था कि इंटरवल में भागकर घर आकर चेहरा दिखाना और फिर दुबारा गायब हो जाना और दूसरा तरीका हमारा नायाब तरीका था - इंटरवल से पहले एक दोस्त फ़िल्म देखता था और इंटरवल के बाद दूसरा दोस्त उसी टिकट पर फ़िल्म देखता। ये रिले रेस जैसा होता था। दूसरा दोस्त अगले दिन इंटरवल से पहले फ़िल्म देखता था। यही क्रम बाद में बदल कर दोहराया जाता। हालांकि इस तरीके से फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाता लेकिन क्या करते। इंटरवल के बाद की फिल्म पहले फ़िल्म देखने पर सिर पैर समझ न आता। लेकिन छुप कर फ़िल्म देखी जाए इसके लिए हम हर तरह के जुगाड़ लगाते रहते। 
देखी गयी फ़िल्म के नशे से कई कई दिन तक हम बाहर नहीं आ पाते थे। उन दिनों घंटाघर के पास एक दुकान हुआ करती थी - पंजाब रेडियो। उसका एक कर्मचारी टांगें में बैठकर पूरे शहर में लाउड स्पीकर पर फ़िल्म के बारे में प्रचार करता। वह अकेला शख्स शहर में होने वाली हर ईवेंट का प्रचार करता। फिल्म हो, पैवेलियन ग्राउंड में फुटबाल मैच हो, या नामी ईनामी या नूरा कुश्तियां हों, एनाउंसमेंट वही करता था। वह टांगे में बैठा पूरे शहर का चक्कर लगाता और पिक्चर के पैम्पलेट हवा में उछालता जिन्हें सब बच्चे लपकते। उन पैम्पलेट को लूटना भी अपने आप में एक शगल हुआ करता था। वह आदमी लगभग अनपढ़ था लेकिन उसकी आवाज बहुत मीठी थी और उसके शब्द फिल्म और सिनेमा घर के नाम के अलावा लगभग वही रहा करते थे। वह कहता - फिल्मिस्तान के सुनहरे पर पर्दे पर देखिए हँसी मजाक, मार धाड़ और नाच गानों से भरपूर दारा सिंह की फ़िल्म जंगी लुटेरा या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। सुनहरी परदे पर उसके हमेशा के शब्द होते।
तब शहर भर में फिल्मों के पोस्टर लगाने का, चिपकाने का एक नायाब तरीका हुआ करता था। जब फ़िल्म के पोस्टर चिपकाए जाते तो चिपकाते समय पोस्टर को फाड़कर चिपकाया जाता ताकि कोई उन्हें उतार कर न ले जाये। शहर में पोस्टर लगने का मतलब ही फ़िल्म के आने की पूर्व घोषणा हुआ करती थी।
अब तो याद भी नहीं आता कि तब कितनी फ़िल्में कितने थिएटरों में कितने तरीकों से देखीं। लेकिन उस वक्त हमें मार धाड़ और हँसी मजाक की फ़िल्में देखना ज्यादा अच्छा लगता था चाहे जौहर महमूद इन गोवा हो या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। हमारे बड़े भाई को हॉरर फ़िल्में या जासूसी फ़िल्में देखने का शौक था। हमारा कोई ऐसा शौक नहीं था। 

हमारे घर के सामने रहने वाले नंदू के पिता का ढाबा था जो मंगलवार को बंद रहता था। नंदू थोड़े थोड़़े करके रोजाना कुछ पैसे चुराता और मंगलवार को बिला नागा चार फिल्मों के चार शो देखता। वह सुबह ग्यारह बजे सज धज कर निकल जाता और को आखिरी शो देख कर ही लौटता। बस फिल्म होनी चाहिये। कोई भी हो। 
एक और बात याद आती है कि उस समय चौराहों की दुकानों के ऊपर फिल्मों के बड़े बड़े होर्डिग लगाए जाते थे और इसके बदले में दुकानदार को फ़िल्म के आखिरी दिन दो टिकट आधे कीमत पर दिए जाते थे। हमारे मौसा जी की चाय की दुकान दिलाराम बाजार में थी और उनके दुकान के ऊपर लक्ष्मी टॉकीज का होर्डिग लगाया जाता था। जब फ़िल्म का आखिरी दिन होता तो नयी फिल्म का होर्डिग लगाते समय उन्हें दो पास मिलते। मौसी का लड़का अक्सर हमारे घर आता और बताता कि नाइट शो की दो टिकट हैं। उसके साथ किसी न किसी भाई को आधी कीमत पर फ़िल्म देखने के लिए अक्सर घर से अनुमति मिल जाती। फ़िल्म बेशक घटिया होती लेकिन मुख्य मकसद तो फ़िल्म देखना होता था, घटिया या अच्छे होने का प्रमाणपत्र देना नहीं।
अंग्रेजी फ़िल्म देखना 1968 में शुरू हुआ। हमारा क्लास फैलो था शशि मोहन पंछी जिसने हमें अंग्रेजी फिल्मों और इस तरह के तौर तरीकों की तरफ आकर्षित किया। बेशक अंग्रेजी हमें बिल्कुल समझ में नहीं आती थी, वह अंग्रेजी अब भी समझ में नहीं आती लेकिन फिल्म देखने का रोमांच बहुत बड़ा हुआ करता था। 1968 में हाई स्कूल में परीक्षाओं के दिनों में जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म गोल्डफिंगर लगी थी। गणित के पेपर से एक दिन पहले सामूहिक पढ़ाई के नाम पर ये फिल्म देखी गयी थी। हम रोमांच से भर गये थे। अभी 2 दिन ही बीते थे और हम उसके नशे से बाहर ही नहीं आ पाए थे। आखिरी पेपर ड्राइंग का था और शशि ने बताया कि फ़िल्म में कुछ और दृश्य जोड़े गए हैं इसलिए फ़िल्म उतरने से पहले एक बार दुबारा देखनी चाहिए और हमने ड्राइंग के पेपर से पहले गोल्डफिंगर दुबारा देखी थी। बाद में तो अंग्रेजी फिल्में देखने का सिलसिला बनता चला गया।
अंग्रेजी फिल्में अक्सर एडल्ट होतीं और 18 बरस की उम्र से कम के लड़कों को टिकट नहीं मिलते थे। शायद 1970 के आसपास की बात है। 18 का होते ही एडल्ट फिल्म देखने का मन हुआ। दोस्तों के साथ दोपहर के शो में ब्लो हाट ब्लो कोल्ड देखी। ओडियन से बाहर निकले ही थे कि पिता के एक मित्र ने देख लिया। तय था कि वे हमसे पहले पहुंच कर पिता से शिकायत करते। वही हुआ। घर पहुंचे तो वे इंतजार कर रहे थे। पिता जी ने देखते ही पूछा – कहां से आ रहे हो। बताया – फिल्म देख कर। अगला सवाल था – कौन सी? बता दिया – ओडियन में ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड लगी है। वही देखी। पिता जी ने अपने मित्र की तरफ देखा और कंधे उचकाये – बेटा सच बोल रहा है। अब किस बात पर डांटूं।
परिवार के लोग आमतौर पर फर्स्ट क्लास में ₹2.25 का टिकट लेकर फ़िल्म देखते थे। हम लड़कों के लिए तो एक रुपया दस पैसे जुटाना ही मुश्किल होता था। पिक्चर का इंटरवल कितनी देर चलेगा यह इस बात पर निर्भर करता था कि जब तक कैंटीन के सारे चाय और समोसे नहीं बिक गए हैं पिक्चर शुरू नहीं की जाएगी। आमतौर पर पिछले शो की बची हुई चाय थोड़ी सी चीनी डालकर गरम करके दूसरे शो में पिलायी जाती। समोसे कभी ताजे होते कभी पिछले शो के बचे हुए भी।
फर्स्ट डे फर्स्ट शो में और नाइट शो में दर्शकों की क्लास आमतौर पर अलग हुआ करती थी। दिन भर के थके हुए लोग रात को फ़िल्म देखना पसंद करते थे। कॉलेज के लड़कों की पसंद फर्स्ट शो हुआ करती थी। 
कई बार ऐसा भी होता कि कोई फ़िल्म घटी दरों पर दिखाई जा रही होती यानी टिकट साठ पैसे। हम इतने पैसे भी न जुटा पाते और कई बार ऐसा भी होता कि फ़िल्म उतर जाती और हम फिल्म देखने से रह जाते। 
तब खटमल सभी सिनेमा हॉलों में होते थे। आगे की सीटों पर रैक्सीन नहीं होती थी लेकिन फर्स्ट क्लास में सीटें थोड़ी आरामदायक और रेक्सीन वाली होती थीं। तब बाल्कनी में फ़िल्म देखना तो शायद कभी नसीब नहीं हुआ होगा। जब कुछ पैसे होने लगे तो फर्स्ट क्लास में टिकट लेना आसान हो जाता था क्योंकि ₹2.25 की टिकट एक रुपये अस्सी पैसे में मिल जाती थी और ₹1.10 की जनता क्लास की तुलना में पीछे फर्स्ट क्लास में बैठकर फ़िल्म देखना किसी अय्याशी से कम नहीं होता था।
मुझे 1971 के आसपास की एक घटना याद आती है। नटराज में तब दस्तक फिल्म लगी थी। दोपहर का शो था। तब एक बात हुआ करती थी कि अगर इंटरवल से पहले लाइट चली गयी है और बहुत देर तक लाइट वापस ना आयी तो उसी टिकट पर अगले दिन फिल्म देखने का मौका मिल जाता था लेकिन इंटरवल के बाद अगर लाइट गयी है तो उसके लिए कोई रिफंड नहीं दिया जाता था। उन दिनों बड़ी मंडी के पास एक डॉक्टर हुआ करता था जिसकी चिढ़ थी - हो गया। लोग उसके क्लिनिक के आगे से आते जाते उसे चिढ़ाते - हो गया। बदले में वे सारे काम छोड़ कर अपने क्लिनिक से बाहर निकलकर माँ बहन की गालियां दिया करते। तब तक कोई और आदमी हो गया की पुकार करके आगे निकल जाता और गलियों का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाता। वे मरीज को इंजेक्शन भी लगा रहे होते तो उसे रोक कर बाहर आ कर गालियां जरूर देते। 
तो बात चल रही थी नटराज में दस्तक देखने की। अचानक लाइट चली गयी। तब अंधेरे में किसी ने यूं ही ज़ोर से कह दिया - हो गया। तब उसे मालूम नहीं था कि डॉक्टर हो गया भी थिएटर में मौजूद हैं। डॉक्टर साहब ने गालियां देनी शुरू कर दीं - तेरी माँ का हो गया, तेरी बहन का हो गया, कोई और हो तो उसे भी ले आ, उसका भी कर दूं। अब तो सबको पता चल गया कि डॉक्टर साहब सिनेमा हॉल में हैं तो दोनों तरफ से धुआंधार मुकाबला शुरू हो गया और गालियों की जो बरसात शुरू हुई,  लोग भूल गए कि इस समय लाइट गयी हुई है और पिक्चर रुकी हुई है। अब वहां पर दूसरी ही जीवंत फ़िल्म चलने लगी थी।
फिल्म देखने से जुड़़ा एक और रोचक लेकिन अप्रिय सा किस्सा याद आ रहा है उस वक्त का। हम बचपन में जहां पर मच्छी बाजार में रहते थे, पास में ही खटीकों और कसाइयों की मांस मछली बेचने की कई दुकानें थीं। वहीं पर गफूरा नाम का आदमी था जिसकी गंदी निगाह जवान होते किशोरों पर होती। सबको पता था कि उसकी नीयत क्या है। दुकान बंद करने के बाद वह रात को सैर के लिए निकलता और किसी न किसी लड़के को फुसला कर दूध जलेबी खिलाने ले जाता। हम सब बच्चे जानते थे कि दूध जलेबी का मजा लेने के बाद बहाने से खिसकना कैसे है। वह तब नये लड़के की तलाश में रहता। उसका अगला कदम होता फिल्म दिखाना। वह लड़के को ही पैसे देता कि फर्स्ट क्लास के दो टिकट ले आये। वह खुद हॉल में अपनी सीट पर बाद में पहुंचता। 
सभी लड़कों को ये पता था कि वह फिल्म क्यों दिखा रहा है और अंधेरे में क्या करेगा और खुद उन्हें क्या करना है। सीनियर लड़के सब बता चुके होते। जिस भी लड़के को वह फिल्म दिखाने ले जाता, वह लड़का किसी न किसी बहाने से बाहर आता, अपनी टिकट उसी दाम पर या कम दाम पर किसी को बेचता और घर आ जाता। बाद में अंधेरे में उस लड़के की जगह कोई और आदमी पहुंचता। 
आप कल्पना कर सकते हैं कि अंधेरे में उसके बाद क्या होता होगा।
बाद में पता चला था कि गफूरे ने कई बार दूध जलेबी का लालच दे कर नंगी घूमने वाली एक पागल औरत के साथ दुष्कर्म किया था और बाद में वह पगली औरत गर्भवती हो गयी थी।

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