Wednesday, September 14, 2011

ससुरी आत्मा के खिलाफ चेतावनी

मेरी बहन डा.मधु मगध विश्वविद्यालय के एक कालेज में मनोविज्ञान पढ़ाती है और आजकल भारतीय समाज विज्ञान अनुसन्धान परिषद् (आई.सी.एस.एस.आर.)की फेलोशिप पर भारतीय मध्य वर्ग की सोच और बर्ताव पर एक शोधपूर्ण सर्वेक्षण कर रही है.उस से अबतक के प्रारंभिक नतीजों ( प्रश्नावली और सीधा साक्षात्कार) पर बात करते हुए बड़ी दिलचस्प बात सामने आयी कि जब हम अपने बारे में बताते हैं तो खुद को दूध के धुले और गऊ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर जब उन्हीं मुद्दों की पृष्ठ भूमि में आस पास के तात्कालिक समाज की सोच और बर्ताव के बारे में पूछ जाता है तो हमें वहाँ सिर्फ और सिर्फ गन्दगी और अँधेरा दिखाई देता है...अभी इस सर्वेक्षण के नतीजे अंतिम और निर्णायक स्तर तक नहीं पहुंचे हैं पर समाज के चेहरे पर कुछ रौशनी तो जरुर पड़ती है.इसी सन्दर्भ में बात करते हुए मैंने उसको हाल में प्रकाशित हिंदी के रचनात्मक साहित्य से कुछ उदाहरण दिए जिसमें समाज के बहुमत बर्ताव और अल्पमत बर्ताव और उनको रेखांकित किये जाने के औचित्य पर सवाल उठे.यहाँ प्रस्तुत टिप्पणी उसी चर्चा का हिस्सा है.
-यादवेन्द्र

Sunday, September 11, 2011

योजनाओं के आंकड़े झूठ के पुलिंदे होते हैं


                                                                                       
   यदि गौर से देखें तो पाएंगे कि दुनिया छोटी-बड़ी सत्ताओं का एक संजाल है। परिवार से लेकर दे्श और दुनिया के स्तर तक अनेक सत्ताएं ही सत्ताएं हैं। परिवार से ही शुरू कीजिए- मुखिया की परिवार के सदस्यों पर , पति की पत्नी पर ,सास की बहू पर  ,माता-पिता की बच्चों पर  , जेठानी की देवरानी पर ,हर बड़े की अपने से छोटे पर सत्ता । परिवार से बाहर आ जाइए- गुरु की शिष्य पर ,पुरोहित की जजमान पर ,ताकतवर की कमजोर पर, अधिक जानकार की कम जानकार पर , पढ़े-लिखे की अनपढ़ पर , खूबसूरत की बदसूरत पर , बड़ी जाति वाले की छोटी जाति वाले पर , अधिक पैसे वाले की कम पैसे वाले पर  ,बहुसंख्यक की अल्पसंख्यक पर  ,शहर की गांव पर  ,बड़े देश की छोटे दे्श पर सत्ता। कहां तक जिक्र किया जाय इन सत्ता-तंतुओं का ? अंत हो तब ना ?  हर एक की कोशिश रहती है कि पदसोपान क्रम में उससे नीचे का व्यक्ति या संस्था उसकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करे। थोड़ी भी ढील ऊपर वाले को बरदा्श्त  नहीं होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी सत्ता को बनाए-बचाए रखने की कोशिश में लगा है। होड़ सी दिखाई देती है सत्ता हासिल करने की---बड़ी से बड़ी फिर उससे बड़ी ---कोई अंत नहीं इस होड़ का भी। सारे संघर्ष सत्ता के लिए ही हैं। राजनीतिक सत्ता इसके केंद्र में है। इन छोटी-छोटी सत्ताओं का चरित्र राजनीतिक सत्ता के चरित्र पर निर्भर करता है। राजनीतिक सत्ता अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इन छोटी-छोटी सत्ताओं और उसके लिए होने वाले संघर्षों को बनाए रखना चाहती है। हर-एक व्यक्ति अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए झूठ ,छल-प्रपंच ,दिखावे का सहारा  लेता है।

युवा कवि बुद्धिलाल पाल ने अपने  सद्य प्रकाच्चित कविता संग्रह  राजा की दुनिया में सत्ता के इस संजाल के बारीक तंतुओं और गठजोड़ों को पकड़ने की बहुत अच्छी कोशिश की है। राजा को उन्होंने प्रतीक बनाया है। उसके बहाने सत्ता के पूरे चरित्र को उघाड़ा है। इस संग्रह की कविताओं में राजा की क्रूरता ,छल-छद्म और पाखंड तथा प्रजा के सीधेपन और विवशता की अभिव्यक्ति है। यहां राजा के मंतव्य को बताने के बहाने सत्ता के मंतव्य को बताया गया है। इन कविताओं में राजा केवल एक व्यक्ति या संस्था के रूप में नहीं बल्कि एक मानसिकता के रूप में आया है-वह हर जगह होता है /परंतु दिखाई नहीं देता---राजा /अदृश्य है ,निराकार है /घट-घट में बसा है। वास्तव में राजा हम सबके भीतर होता है। हम सब छोटी-छोटी " रियासतों" के राजा हैं। वह "रियासत" सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक ,धार्मिक ,बौद्धिक ,शारीरिक आदि किसी भी तरह की हो सकती है। यह हमारी प्रवृत्तियों  और व्यवहार में दिखाई देती है जो जाने अनजाने अभिव्यक्त होती रहती हैं। यह बात कवि पाल इस रूप में व्यक्त करते हैं- कबिलाई युद्धों में/कबीले के सरदार /राजा होते हैं /जातियों में उनके सामंत/राजा होते हैं /धर्मों में उनके महानायक /राजा होते हैं।   
 
हर कोई अपनी सत्ता चाहता है। प्रत्येक दूसरे की सत्ता का तो विरोध करता है पर अपनी सत्ता को येनकेन प्रकारेण बनाए रखना चाहता है। क्षाम-दाम-दंड-भेद की नीति का सहारा लेता है। अपनी सत्ता को जायज ठहराने के लिए गलत-सही तर्क गढ़ा करता है। गलत-सही तर्कों से अपना मायाजाल बुनता है। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य बना डालता है। बुद्धिलाल पाल सत्ता के इस "मायाजाल" को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं-सत्ता का यह जादू सीधे-सीधे समझ में नहीं आता है। निखालिस आंखों से नहीं दिखाई देता है। उसका प्रभाव ही दिखाई देता है उसकी चाल नहीं। जनता के हित के नाम पर की जाने वाली मगरमच्छी नौटंकी ही हमें दिखाई देती है। उसके छल-प्रपंच इस नौटंकी के पीछे-छुप जाते हैं। इसमें राजा अकेला नहीं उसके साथ उसका पूरा वर्ग मौजूद रहता है। कबीले के सरदार ,जातियों के सामंत ,धर्मों के महानायक ,दरबारी , खैरख्वाह , नुमाइंदे ,व्यापारी ,पूंजीपति , रसूख वाले ,मौलवी ,पंडित आदि इसमें सभी शामिल हैं। सत्ता के मद से कोई अछूता नहीं है, इसके चलते ही जनता का सेवक कहलाने वाला -प्रशासन का /एक अदना सा प्यादा /मदमस्त होकर /हाथी जैसा चलता है/अपने को भारी-भरकम/पहाड़ जैसा/बाकी को तुच्छ समझता है। यह सत्ता का ही खेल तो है जिसके चलते -मर्द औरत को दोयम दर्जे की नागरिकता देता है। सवर्ण ,दलित को घ्रणा की नजरों से देखता है अमीर ,गरीब का शोषण करता है। कवि पाल का यह कहना बहुत युक्तिसंगत है कि दुनिया को सुंदर बनाना है तो इन सारी सत्ताओं के नाक में "नकेल" जरूरी है।

 कवि बिल्कुल सही कहता है कि शासक जो भी करता है केवल अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए। उसके पीछे उसकी जनकल्याण की भावना नहीं होती है। भले वह लोककल्याणकारी होने का ढोंग करते रहे। वह जानता है जनता का "असंतो्ष" कैसे दबाया जाता है , कैसे उसकी कंडिशनिंग की जाती है-दारू वालों को दारू/ भीख वालों को भीख/निकम्मे ज्ञानवादियों को दान/अपने सूबेदारों को /सूबे दान में देता है / कभी-कभी जरूरतमंदों को/सहयोग करता चतुर ठग-सा/ इस तरह/जनता की अकूत प्रतिरोध क्षमता को /अपने बस्तों में लपेटकर रखता है---राजा के पास /दिव्य दृष्टि होती है ----इस दिव्य दृष्टि से उसे पता चल जाता है कि कहां-कौन से जनांदोलन होने वाले हैं -उनको कुचलने के लिए /उसके पास पहले से ही /रूपरेखा तैयार रहती है। राजा अपने निहित स्वार्थों के लिए हमेशा चौकन्ना रहता है पर जनता के कल्याण की बात जहां आती हैं वहां आंखों में पट्टी बांध लेता है।उसके दरबारी इसमें उसके हमराही होते हैं। वह कानून-न्याय-समानता की बातें तो खूब करता है पर वह केवल दिखावा मात्र होती हैं। "राजा का न्याय' केवल ढोंग है - मुकुट यानि / अत्याचार का लाइसेंस / लाइसेंस यानि / भोग-विलास और सुविधा/ सुविधा यानि राजा/ ---व्यभिचार यानि / राजा का न्याय। 

जनता राजा की कृपा को सबसे बड़ा ईनाम और उसकी रक्षा को अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझती है। कवि का प्रश्न जायज है कि जनता राजा के हर दुख में शामिल रहती है -राजा के प्रति निष्ठा /जनता के खून में बहती है /पर क्या राजा भी कभी / जनता के लिए ऐसा ही होता है? राजा जनता को अपनी "जागीर" समझता है। उसको कोई मतलब नहीं जनता किस स्थिति में हैं । उसको तो अपनी और अपने ऐशो-आराम की पड़ी रहती है-राजा का भला /दरिद्रता से क्या वास्ता ।
 
कवि के लिए जनता का मतलब उस वर्ग से है -जिसने कभी /कोई सुख नहीं भोगा /नून ,तेल ,लकड़ी के लिए/भागती रही ,भागती रही /खटती रही उम्र भर /कोल्हू के बैल की तरह ---उनकी आंखें /मृत्यु देवता के दर्शन तक /रोटी में ,लंगोटी में /छप्पर में टंगी रही। जो सत्ता की संस्कृति से  संचालित हो यह कहती है ---मैं हारकर गया हर बार/ ईश्वर की चौखट पर /आखिरकार मुझे तो / यही बताया गया था / ईश्वर ही सब कुछ है। वह ---ईश्वर की मीमांसा में /बसी हुई जनता /ईश्वर की मीमांसा में /गढ़ी हुई जनता यानी /राजा के बाड़े में / राजा की जनता ---हैं । राजा की दृ्ष्टिमें जनता की क्या हैसियत होती है इस कविता में आई एक पंक्ति " राजा के बाड़े में"  बता देती है। ईश्वर की मीमांसा से यह जनता पशु (निरीहता के अर्थ में ) बना दी जाती है जिसका अपना कोई विवेक नहीं रह जाता है। दरअसल राजा जनता को अपने अधीन रखने के लिए केवल हिंसा या बल प्रयोग ही नहीं बल्कि यह तो अंतिम उपाय होता है ,वह वैचारिक प्रभुत्व के द्वारा ऐसा करता है। द्राासक वर्ग के अपने विचार होते हैं जो उसके अपने वर्ग हितों के अनुरूप होते हैं और उनकी सेवा करते हैं। एक लंबी प्रक्रिया में यही विचार शासित वर्ग के विचार बन जाते हैं। वह शासक वर्ग की मूल्य-मान्यताओं को स्वीकार करने लग जाते हैं और उन्हीं के अनुसार ढल जाते हैं। इस कविता में गहरा इतिहासबोध  दिखाई देता है। कवि इतिहास को पूरी द्वंद्वात्मकता एवं वैज्ञानिकता से देखता है। सत्ता ही हमेच्चा जनता की किस्मत लिखती है कवि इस ऐतिहासिक सत्य को अच्छी तरह जानता-समझता है। जो हमेशा उसका तरह-तरह से शोषण करता रहा वही "विधाता" बना उसके भाग्य का। उसके ऐशो-आराम , शानो-शौकत ,भोग-विलास का स्रोत बनी जनता ---पूरा इतिहास इसकी गवाही देता है । आज भी यह सिलसिला जारी है। "आदमी -आदमी में फर्क होता है।' यह किसी ईश्वर ने नहीं बल्कि राजा ने ही कहा।
 
कैसी विडंबना है कि  राज्य की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता है वह तो उसका कर्त्तव्य माना जाता है इस बात को बुद्धिलाल पाल ने बहुत सुंदर तरीके से प्रतीकात्मक रूप में कहा है - वे हथियार /हथियार नहीं माने जाते / राजा का सौंदर्य बढ़ाने वाले /आभूषण माने जाते हैं। ऐसा साबित किया जाता है जैसे राजा इसी के लिए बना है- और जनता /राजा के इसी रूप पर मुग्ध होती है। यहां जनता की मानसिकता पर भी अच्छा व्यंग्य है।
 
ये कविताएं राजा (सत्ता) की विशिषताओं को दो टूक द्राब्दों में बताती हैं- राजा वर्चस्ववादी संस्कृति का पोषक होता है---राजा अदृश्य होकर /वार करने की कला में /माहिर होता है---राजा की कूटनीति /जनता को छलना /राजा का यश फैलाना होती है---राजा का मंतव्य /जनता के उबलते खून को ठंडा करना होता है/ और उसी खून से अपने महल/ रंगमहल बनाना होता है। ---राजा /अपनी प्रतिस्थापना के बाद हर बरस / डेढ़ बित्ता /और बढ़ जाता है। ----राजा की /योजनाओं के आंकड़े /झूठ के पुलिंदे होते हैं/उनकी योजनाओं के लाभ/जरूरत मंदों में कम /अपनों में ही रेवड़ी की तरह बांटते हैं---आखिर राजा /राजा होता है !उसे सब छूट है ---राजा के राज्य में /गुंडों की भी /खास जगह होती है/ वह भी सम्मानित होता है/बेहद सम्मानित ---जरूरत पड़ने पर /मित्र ,सगे संबंधियों की / बलि भी स्वीकार कर लेते हैं---राजा धनबल ,बाहुबल से /सराबोर होता है/ कूटनीति उसके चरित्र में होती है---उसकी मर्जी ही /उसकी जाति ,उसका धर्म --- उसका हर आदेश/ईश्वर का आदेश होता है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राजनैतिक सत्ता को बैधता प्रदान करने के लिए ही राजा के आदे्श को ईश्वर के आदेश के रूप में स्थापित किया जाता है। ताकि जनता उसका विरोध ना करे। उसे सहर्ष स्वीकार कर ले। राजा का दैवीय स्वरूप होना ही उसे सारी मनमानी करने की छूट प्रदान करता है। दु:ख ने ईश्वर को जन्म दिया और राजनैतिक सत्ता ने उसका इस्तेमाल अपनी ताकत को बढ़ाने और बचाने के लिए किया। इस बात को बुद्धिलाल पाल बहुत सहज रूप से बता देते हैं। धार्मिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता एक दूसरे को कैसे मदद पहुंचाती हैं इस बात को ये कविताएं बखूबी व्यक्त करती हैं। सत्ता किस तरह की चालाकी करती है उसकी ओर कवि पाठकों का ध्यान खींचता है-जाति और धर्म की /ये सब बंदिशें /ये सब जरूरतें /जनता के लिए हैं/जनता ही भोगे--- हम तो उलझे हैं /मल्लाशाह जाति ,धर्म /वर्ण में ही/हिंदी-उर्दू ,तमिल में ही। और सत्ता अपना विस्तार करती चली जाती है। सत्ता द्वारा -डर दिखाकर /दिग्भ्रमित किया जाता है/डर की राजनीति /खूब फलती-फूलती है। जनता को धार्मिकता के नाम पर अंधा कर दिया जाता है  उसके विवेक का हरण कर दिया जाता है। उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह भी शासक वर्ग की भाषा और शिल्प में बातें करने लगती है- अंधे ,अंधों की बात मानते हैं /चमत्कार पर विश्वास करते हैं--- और अन्तत: /शैतान के भक्त हो जाते हैं।  इसके बावजूद भी राजा चाहे कितना ही -ओढ़ता है लिबास /सादगी का  ---पर उसका दर्प छुप नहीं पाता है। राजा भी अच्छा कहलाना चाहता है इसलिए सादगी का लिबास ओढ़ता है -फिर भी / उसकी सादगी में /उसका अक्खड़पन/उसका दर्प ही  झलकता है । राजा के द्राौक भी अलग होते हैं। भाषा भी अलग ताकि वह यह दिखा सके कि वह जनता से विशिष्ट है।
 
राजा की दुनिया को रचने-बनाने वाला केवल एक राजा नहीं है बल्कि वे सारे "देवता" हैं जिन्हें " इंद्रलोक के / वैभवशाली सुख के लिए" एक इंद्र को बनाया रखना जरूरी लगता रहा है। यहां सत्ता का वर्गीय स्वरूप सामने आता है। वर्ग हितों की रक्षा के लिए "राजा" को बनाए रखा गया है।  यदि उसके खिलाफ लड़ना है तो वर्गीय एक जुटता से ही संभव होगा। अन्यथा उसका "अभेद्य" किला नहीं भेदा जा सकता है। कवि शासक वर्ग की आकांक्षाओं को भी पहचानता है और उनकी षड्यंत्रों को भी ,सत्ता के बिचौलियों को भी। उसके "तब और अब" को भी। पहले भी राज्य का खजाना राजा के ऐशो-आराम में उड़ता था आज भी।

कवि राजा और राक्षस में समानता देखता है और अंतर सिर्फ इतना कि - राक्षस के सींग/दिखाई देते हैं /राजा के नहीं । कवि का दिल अवसाद से भर जाता है जब राजा के दरबारियों में एक और दरबारी बढ़ जाता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक का ध्यान बरबस मौजूदा लोकतंत्र की ओर खिंच जाता है। इनसे एक स्वर बिना कहे ही निकलता है कि आज के तथाकथित लोककल्याणकारी राज्य भी इसके अपवाद नहीं हैं। कविताओं में से यदि राजा शब्द को हटा दें तो सारी की सारी कविताएं आज की राजनीतिक व्यवस्था और उसके कर्त्ताधर्ताओं पर सटीक बैठती हैं। ये कविताएं उस आधुनिक राजतंत्र का कि्स्सा कहती हैं जो लोकतंत्र नामधारी है। इन कविताओं के माध्यम से कवि हमें इस बात का अहसास दिलाता है कि नाम बदलने से चरित्र नहीं बदल जाता है। कवि राजतंत्र के बहाने आज के पूंजीवादी लोकतंत्र पर चोट करता है और राजतंत्र से उसकी समानता स्थापित करता है। आज भले कहने के लिए लोकतंत्र हो गया हो पर चरित्र में राजतंत्र ही है। इस तरह ये कविताएं लोकतंत्र की सीमाओं की ओर भी ध्यान खींचती हैं। युवा कवि-आलोचक बसंत त्रिपाठी ने ब्लर्व में सही लिखा है - "" बुद्धिलाल पाल ने आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा की उपस्थिति और उसकी निर्मिति को व्यापक संदर्भ में देखा है। कबीलाई युद्धों से लेकर सामंती समाज ,पूंजीवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजतंत्र की मनोरचना के तमाम रूप इन कविताओं में उपस्थित हैं ।''
 
ये कविताएं समाज में मौजूद शासक और शासित वर्ग की जीवन-परिस्थितियों का कम शब्दों में सटीक चित्रण करती हैं। यह यथार्थ है कि शासित वर्ग जीवन पर्यंत रोटी-कपड़ा-मकान के लिए खटता रहता है और शासक वर्ग सोने-चाघ्दी से लदता है। इन कविताओं के संदर्भ में  कवि-कथाकार अनवर सुहेल अपनी पत्रिका "संकेत" में लिखते हैं कि बुद्धिलाल पाल की कविताएं राजाओं की मानसिकता और प्रजा की बेचारगी बयान करती है---उनकी कविताएं आकार में छोटी हैं लेकिन घाव बड़े गम्भीर करती हैं। ---वे छोटी कविताओं के सिद्धहस्त कवि हैं। --- व्यंग्योक्तियां ही उनकी कविताओं की ताकत है।
 
वास्तव में इस संग्रह की कविताएं छोटी-छोटी अवश्य हैं पर अपने में गहरे निहितार्थों को अपने छुपाए हुए जीवन का सार प्रस्तुत करती हैं। अपने आप में अलग तरह की कविताएं हैं। वे छोटे-छोटे उदाहरणों से जीवन की बड़ी-बड़ी बातों को बहुत सहजता से व्यक्त कर देते हैं। उनकी दृ्ष्टि में कहीं भ्रम नहीं दिखाई देता है। वे सब कुछ  बिल्कुल साफ-साफ देखते हैं। पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ देखते हैं। समय की नब्ज को बहुत अच्छी तरह पकड़ते हैं। उसकी धड़कनों को गिनने में किसी तरह की गलती नहीं करते । जो कवि जीवन को जितनी गहराई से समझता है वह अपनी बात को उतने ही कम द्राब्दों में कह पाता है। यह खासियत हमें बुद्धिलाल पाल में दिखाई देती है।
 
समीक्ष्य संग्रह में साम्राज्यवाद और बाजारवाद के प्रभाव को व्यक्त करती कविताएं भी हैं। " नया राजा" कविता अमेरिका पर अच्छा व्यंग्य है। उनका राजा केवल देश तक सीमित नहीं है- देखो ,वो देखो /आंधी की तरह धूल उड़ाता /चला आ रहा है वह / बम धमाकों के साथ /मानवाधिकारों की दुहाई देता /हम सबका हमारी पूरी दुनिया का/नया राजा। आज की बाजारवादी व्यवस्था में आदमी की हैसियत कितनी रह गई है उस पर भी वे अपनी बात कहते हैं- उनकी नजरों में / हम सिर्फ बाजार /जैसे वस्तु से /वस्तु की तुलना । बाजार हमारे जीवन में कैसे घुस आया इस उनका कहना बहुत सटीक है- वे हमारे घर /हमारे जीवन में / सगे संबंधी /शुभचिंतक बनकर आए। इस तरह आकर कैसे वे हमारे मालिक बन जाते हैं। आज बाजार पूरी तरह आदमी को अपने अनुसार चला रहा है। व्यक्ति की पसंद-नापसंद को तय कर रहा है। हमें किस वस्तु की आवच्च्यकता है इस बात को बाजार निर्धारित कर रहा है। हमारा हृदय परिवर्तन कर  रहा है। हम अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने में असमर्थ होते जा रहे हैं। बाजार की चका-चौंध हमें विवेकशून्य किए जा रही है। इस बात को हम रोज-रोज के अनुभवों से समझ सकते हैं। हमारी इस मनोदशा को ये कविताएं बहुत अच्छी तरह व्यंजित करती हैं। बाजार की भी एक सत्ता है।
 
शिल्प की दृष्टि से इन कविताओं को देखा जाय तो कहना होगा कि  ये सहज-संप्रेषणीय कविताएं हैं । कवि की बात भाषा के चक्कर में कहीं भी नहीं फंसती है। बुद्धिलाल भाषा को सहूलियत से बरतने वाले कवि हैं । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए भाषा को उलटने-पलटने या घुमाने-फिराने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वे भा्षा के पेंच को बेतरह कसते नहीं है । वे जानते हैं ऐसा करने का मतलब है बात की चूड़ी मर जाना। इन कविताओं को अलग तरह से पढ़ने की जरूरत है उस मनोदशा तक पहुंचने की जरूरत है जहां से ये कविताएं पैदा हुई हैं। एक लंबी कविता की तरह है यह संग्रह एकदम नया प्रयोग है। इस संदर्भ में वरिष्ठ कवि और 'समावर्तन' पत्रिका के संपादक निरंजन श्रोत्रिय उनकी कविता पर सटीक टिप्पणी करते हैं-वे कविता में शब्दों की स्फीति ,बयानबाजी और विश्लेषण को तरजीह न देकर चीजों को दो-टूक डिफाइन करते हैं। '' यह सही भी है क्योंकि कविता का उद्देश्य वाक चातुर्य दिखाना नहीं बल्कि संवेदना का विस्तार करना तथा अपने समय और समाज के प्रति दायित्वपूर्ण दृ्ष्टि विकसित करना होता है। यह काम कवि बुद्धिलाल पाल की कविताएं बखूबी करती हैं क्योंकि वे हमेशा जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले कवि हैं। वे लोक के नाम पर होने वाले षड्यंत्रों को खूब समझते हैं और अपने तरीके से  उसका प्रतिरोध करते हैं। इन्हें सच्चे लोकतंत्र की चाह की कविताओं के रूप में देखा जाना चाहिए।
   - महेश चंद्र पुनेठा   

राजा की दुनिया (कविता संग्रह) बुद्धिलाल पाल 
प्रकाशक : यश पब्लिकेशन 1/10753 सुभाष पार्क ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली -32
मूल्य - 160 रु0

  

Wednesday, September 7, 2011

उदार-अंधराष्ट्रवाद

मैं भी अन्ना 

गलियां बोलीं मैं भी अन्ना, कूचा बोला मैं भी अन्ना!
सचमुच देश समूचा बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
भ्रष्ट तंत्र का मारा बोला, महंगाई से हारा बोला!
बेबस और बेचार बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
साधु बोला मैं भी अन्ना, योगी बोला मैं भी अन्ना!
रोगी बोला, भोगी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
गायक बोला मैं भी अन्ना, नायक बोला मैं भी अन्ना
दंगों का खलनायक बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
कर्मनिश्ठ कर्मचारी बोला, लेखपाल पटवारी बोला!
घूसखोर अधिकारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
मुंबई बोली मैं भी अन्ना, दिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
डमरु बजा मदारी बोला, नेता खद्दरधारी बोला!
जमाखोर व्यापारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
दायां बोला मैं भी अन्ना, बायां बोला मैं भी अन्ना!
खाया-पीया अघाया बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
निर्धन जन की तंगी बोली, जनता भूखी-नंगी बोली!
हीरोइन अधनंगी बोली, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
नफरत बोली मैं भी अन्ना, प्यार बोला मैं भी अन्ना!
हंसकर भ्रष्टाचार बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

-अरुण आदित्य

 

संघर्ष के स्वरूप की उदारता के बावजूद बहस से परे राष्ट्रवादी दिखने की जिद उदार-अंधराष्ट्रवाद  ही कही जा सकती है। आप मैसेज कर सकते हैं, मिस्ड कॉल कर सकते हैं, जूलूस निकाल सकते हैं, कैण्डल मार्च कर सकते हैं, बत्ती बुझा सकते हैं, गीत गा सकते हैं, सोसल साइटों पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रियायें दर्ज कर सकते हैं, न हो तो मौन रह सकते हैं लेकिन मुद्दे पर सहमत होते हुए भी कुछ इतर करने की छूट नहीं ले सकते कि कुछ सुलगते हुए सवाल उठ खड़े हों। न सिर्फ समाज विरोधी बल्कि राष्ट्रविरोधी का तमगा पहनना चाहते हों तो आपका कुछ नहीं किया जा सकता। बदलाव के संघर्ष के उदार-अंधराष्ट्रवादी ऐजण्डे का अनुपालन उसके तय कायदों में ही संभव है। उदार-अंधराष्ट्रवाद  की विशेषता है कि कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  के निहित कायदों से सहमति के बावजूद यह उससे अपने संबंधों को बचाकर चलता है। न सिर्फ वे जिनसे कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  को खुली असहमति होती है बल्कि किसी भी तरह की दूसरी गतिविधियां यहां छूट के दायरे में रहती हैं। आप व्यापार कर सकते हैं, बिकनी पहनकर फैशन शो में उतर सकते हैं, मैदान में खेलने की बजाय विज्ञापनों में छे जड़ते हुए दर्शकों को कूल कूल कर सकते हैं, खुद को प्रोजेक्ट करने वाली सामाजिक गतिविधियों के नाम पर विदेशी या देशी धन पर गैर-सरकारी बने रह सकते हैं, ओहदेदार पद पर होने के कारण जो कुछ सीमित दायरे में भी जनहित संभव हो उससे बचते हुए जी हुजूरी की व्यवस्था को बनाये रखने में सहयोगी हो सकते हैं, अन्य भी-चाहे वह बदलाव के ऐजण्डे से मेल न खाती कोई भी गतिविधी हो, स्वतंत्र रूप से जारी रख सकते हैं। यूं क्षेत्र, जाति, धर्म, रूप, रंग और लिंगभेद जैसे गैर प्रगतिशील विचार इसके दायरे से बाहर हैं लेकिन इन पर यकीन करना आपकी निजि स्वतंत्रता बना रह सकता है। आधुनिकतम तकनीक के प्रति उदार-अंधराष्ट्रवाद  का कोई निषेध नहीं जो कि उसका उजला पक्ष भी कहा जा सकता है। लेकिन तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ उसके तय ऐजण्डे के प्रचार प्रसार में हो, इस बात पर उसका विशेष जोर होता है। बल्कि ज्यादा मारक तरीके से उसके प्रयोग की संभावनाओं की तलाश इसके उद्देश्यों में शामिल माना जा सकता है। उदार-अंधराष्ट्रवाद की एक और विशेषता है कि गैर-जनतांत्रिक होते हुए भी जनतंत्र में पारदर्शिता की बात बहुत जोर-शोर से करता है। प्रगतिशील मूल्यों के प्रति सहमति के भाव के बावजूद गैर प्रगतिशील विचारों की व्याप्ति के लिए उदार-अंधराष्ट्रवाद को हमेशा जनता के किसी बेहद धड़कते हुए मुद्दे की दरकार रहती है। अपनी चोरजेब के अर्थतंत्र के लेखे-जोखे को ज्यादा पारदर्शी बनाने की उसकी कोशिशें, तरह-तरह के छल-छद्म से छली जाती जनता के पढ़े लिखे तबके को प्रभावित करने के लिए, लोकप्रिय छवी की तलाश में होती हैं और लोकप्रिय छवी के इर्द-गिर्द लामबंदी की कार्रवाइयों में उसके नेतृत्व का अहम हिस्सा खुद की छवियों को ज्यादा से ज्यादा संवारने की कोशिश में जुटा होता है। 
भारतीय मध्यवर्ग की त्रासद कथा का जनलोकपाल उदार-अंधराष्ट्रवाद की ज्वलंत मिसाल है। 
ऐसे ही एक बड़ी बहस को बहुत खूबसूरत ढंग से कवि अरूण कुमार आदित्य न कविता के अंदाज में बयां किया है। 
-विजय गौड़



Friday, September 2, 2011

रैणीदास का जनेऊ

गाथाओं, किंवदतियों, लोककथाओं और मिथों में छुपे उत्तराखण्ड के इतिहास को जिस तरह से उदघाटित किया जाना चाहिए, अभी वह पूरी तरह से संभव नहीं हो पाया है। इधर हुई कुछ कोशिशों के बावजूद उसके किये जाने की ढेरों संभावनाओं मौजूद हैं। उत्तराखण्ड के इतिहास को केन्द्र में रखकर रचनात्मक साहित्य सृजन में जुटे डॉक्टर शोभाराम शर्मा की कोशिशें इस मायने में उल्लेखनीय है। प्रस्तुत है ऎसे ही विषय पर लिखी उनकी ताजा कहानी।
वि.गौ

डा शोभाराम शर्मा

उस साल मौसम के बिगड़े मिजाज ने कुछ ऐसा रंग दिखाया कि भुखमरी की नौबत आ गई। चौमास के आखिरी दिनों पानी इतना बरसा कि तैयार फसल चौपट हो गई। और इधर मौसम ने फिर ऐसी करवट बदली कि पूरा जाड़ा बिना बरसे ही बीत गया, रबी की फसल भी सूखे की भेंट चढ़ गई। जाड़ों भर कड़ाके की कोरी ठण्ड ने जीना मुहाल कर दिया था। अलाव के सहारे दिन भी कटने मुश्किल हो गए थे। और एक दिन जब आंख खुली तो खुली की खुली रह गयी। खेत, खलिहान, बाटे । घाटे, पेड़-पौधे और छत आंगन सब के सब जैसे किसी सफेद चादर से ढ़क गए थे। अजीब नजारा था। आंखे हरियाली देखने को तरस गयी। पहले बर्फवारी का भ्रम हुआ लेकिन जल्दी ही टूट भी गया। आसमान तो साफ था तो फिर बर्फ कैसे? सचमुच वह पाला ही था और कुदरत का वह करिश्मा बड़े बूढों ने भी पहली बार देखा था। पिघल तो गया एक ही दिन में लेकिन अपने पीछे पत्ते पेड़ों की टहनियां तक झुलसा गया। अनाज के अभाव में उन दिनों लोग जाड़ों की जिन सब्जियों से जैसे-तैसे काम चला रहे थे, पाले ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और तो और सकिन और बिच्छूघास जैसी जंगली वनस्पतियां भी झुलसकर रह गयी।
कुदरत की मार तो इलाके भर के लोग झेल ही रहे थे, लेकिन गांव के एक छोर पर बसे औजी (वादक और दर्जी) परिवारों की हालत सबसे पतली थी। आरम्भ में कोई एक औजी परिवार ही वहां आकर बसा होगा। सवर्ण परिवारों से मिलने वाले डडवार (हर फसल पर मिलने वाला अनाज) से उसकी गुजर-बसर हो जाती होगी। उसी एक परिवार के अब पांच-छह परिवार हो गये थे। हालांकि सवर्ण परिवार भी कुछ बढ़ गये थे लेकिन इतने नहीं कि सारे औजी परिवारों का गुजारा हो सके। ऐसे में तीन-चार बच्चों के बाद एक और बच्चे का आगमन परिवार को खुशी देने की जगह दुखी ही तो करता । कड़ाके की ठण्ड और ओढ़ने-बिछाने को एकाध चीथड़ा भी नहीं। ऊपर से अशौच की चिंता। प्रसूता को उस सीलनभरी कोठरी में जहां एक कोने में बकरी और बांझ गाय बंधी थी दूसरे कोने में गोबर और मेंगनी के बीच बच्चे को जन्म देना पड़ा। और वही दिन था, जिस दिन धरती पाले का सफेद कफन ओढ़े मुर्दे की तरह अकड़ी पड़ी थी। पराल के बिस्तर पर तड़पते पूरा एक दिन और एक रात बीत गए लेकिन प्रसव नहीं हो पाया, मरणान्तक प्रसव-पीड़ा सुयरि (दाई) जिसके प्रयास से प्रसूता और नवजात दोनों की जान बच गयी। लेकिन खून जमा देने वाली ठण्ड के कारण जिस टैणी(मांस पेशियों में होने वाली जकड़न) का अनुभव प्रसूता को हो रहा था, उससे बचने का प्रयास करना जारी था। पराल के बिस्तर के पास ही चार पत्थर रखकर अंगीठी बना दी गयी। प्रसूता के लिए जिस गिजा की जरूरत थी, उसे जुटा नहीं पाए तो चुनमण्डी (मंडुवे के आटे का फीका तरल पेय) से ही काम चलाना पड़ा। पेट चल गया तो प्रसूता की जान पर बन आई। कहीं से मांग मूंग कर सेर-आध सेर-चावलों का जुगाड़ बिठाया और तब कहीं माण्ड पी-पीकर उसकी जान बच पाई।

Tuesday, August 23, 2011

मेहरबानी करके हमारा कोयला न खरीदिये




           जान गोर्डन आस्ट्रेलिया के एक युवा पर्यावरण रक्षक कार्यकर्ता हैं जो इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग पढ़ कर कुछ वर्षों तक खनन कंपनियों में काम करने के बाद इस बात से बेहद आहत हुए की खनिज सम्पदा के दोहन के नाम पर देख के पर्यावरण की अपूरणीय क्षति की जा रही है.इसके बाद उन्होंने आस्ट्रेलिया के पर्यावरण रक्षण के लोक चेतना जागृत करने वाले समूहों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया.पिछले वर्ष उनका लिखा और संगीत बद्ध किया हुआ आस्ट्रेलिया- दुनिया की वेश्या प्रतिरोध गीत बेहद चर्चित और विवादास्पद हुआ...यहाँ तक की आस्ट्रेलिया के अनेक रेडियो स्टेशनों ने इसके प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बात कोर्ट तक जा पहुंची.इस साल के शुरू में इसी अभियान के प्रचार के लिए गोर्डन भारत भी आए थे.
सुदूर आस्ट्रेलिया के इस अभियान के पीछे के तमाम कारण अपनी पूरी कुरूपता और बेशर्मी के साथ आज के इस भारत में भी यहाँ वहाँ मौजूद हैं.इसी लिए मुझे यह अपने पाठकों के साथ साझा करने का मन हुआ.
यहाँ प्रस्तुत है उनके उसी गीत का अनुवाद: प्रस्तुति: यादवेन्द्र
आस्ट्रेलिया-- दुनिया की वेश्या 
                                        ---- जान गोर्डन 

आस्ट्रेलिया जैसे हो कोई ख़ासमख़ास वेश्या 
दरवाजे खोले प्रशस्त... बुलाती है खनिकों को 
धड़धड़ा कर चले आओ अंदर 
खोद डालो जितना चाहे बड़ा गड्ढा 
फिर आयेंगे आत्मा को भी ढ़ो कर ले जाने वाले लोग
और समंदर के रास्ते रवाना कर देंगे यहाँ वहाँ... 
ऐसे जहाजों को लाइन लगाये हुए  दूर दूर तक
मैं देख रहा हूँ, ऐ लड़की....

आस्ट्रेलिया...दुनिया की वेश्या
किसी सड़क छाप उदास लड़की की मानिंद
आती हुई दौलत को मना कर नहीं सकती
तुम उन्हें करने देती हो हजार मनमानी
और छिन्न भिन्न करने देती हो अपनी आत्मा को भी
समंदर के रास्ते वे भेजते रहते हैं जो चाहें
तुम तो ये भी नहीं जानती
कि किस किस जगह पहुँचाई  गई  तुम्हारी दौलत .

(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील  लगता है 
बहुत कोशिश के बाद भी बे मजा...
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
आओ चलो मेरे साथ
हम चलेंगे सागर पार
तब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कैसे धधक धधक कर 
जल रहा है तुम्हारा यह काला सोना...

आस्ट्रेलिया किसी चीनी छिनाल  की तरह बन गया है... 
वे तुम्हारा मखौल उड़ा रहे हैं, ऐ लड़की 
पहले वे चुरा ले गए तुम्हारी  आत्मा
फिर उड़ाते हैं अब तुम्हारा ही माखौल 
तुम्हारे  नेता..उनकी तो  रीढ़ ही नहीं है
वे बनाये रखते हैं लोगों को मूढ़
और आदम जमाने की पार्टी लाइन पर चलते जाते हैं
बिलकुल लकीर के फकीर बने हुए..

 
(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील लगता है 
कि मैं इसको राष्ट्रीय अभिशाप कहता हूँ 
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
मुझे दिखाई देता  है मौसम का तेजी से बदलना
मुझे दिखाई देते हैं धरती पर छाये विनाश के काले बादल 
इतने सब कुछ के बावजूद
कैसे तुम करती रहती हो यह सब सहज
मैं समझ नहीं पाता ...
कैसे और क्यों कर करती रहती  हो यह सब?
 
(मुख्य गायक)
आस्ट्रेलिया..आओ हम मिलकर नाचें गएँ आनंद मनाएं
क्योंकि हम आजाद और जवान मुल्क हैं
और प्रकृति ने हमारी धरती  को बला की
खूबसूरती, दौलत और नायाबी बख्शी है. 



Sunday, August 21, 2011

आजादी के मायने

साहित्य और यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृषिट रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।"
हावर्ड फास्ट का उपरोक्त कथन लेखकीय दृषिटकोण की पड़ताल करते हुए कुछ जरूरी सवाल उठाता है लेकिन आजादी की कल्पनाओं में डूबी देश की उस महान जनता के सपनों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, जो 1947 के आरमिभक दौर में आजादी के तात्कालिक स्वरूप को स्पष्ट तरह से पूरा देख पाने में बेशक असमर्थ रही। बलिक एक लम्बे समय तक इस छदम में जीने को मजबूर रही कि सत्ता से बि्रटिश  हटा दिये गए हैं और देश आजाद हो चुका है। आजादी उसके लिए एक खबर की तरह आर्इ थी। व्यवहार में उसे परखे बगैर कोर्इ सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे भी खबर के बारे में कहा जा सकता है कि वह घटना का एकांगी पाठ होती है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी जिसकी तटस्थता, तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी, समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है। देख सकते हैं कि बहुधा व्यवस्था की पेाषकता ही उसका उददेश्य होती है।

तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है
अपने इरादों में नेक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से बंधी जनता की समझदारी में आजादी, अवधारणा नहीं बलिक व्यवहार का प्रसंग रहा है और होना भी चाहिए ही। तकनीक के विकास और उसके सांझा उपयोग की कामना हमेशा ही उसके लिए आजादी का अर्थ गढ़ते रहे है। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुकित, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है। रोजी-रोजगार और दुनिया के नक्शे में अपनी राष्ट्रीयता को चमकते देखना उसकी चेतना का पोषक तत्व रहा है। संसाधनों का समूचित उपयोग और प्राकृतिक सहजता में सांस लेना, काल्पनिक नहीं बलिक वह आधारभूत सिथति हैं, जनतांत्रिकता के मायने जिसके बिना अधूरे हो जाते हैं। जीवन की प्राण वायु का एक मात्र तत्व भी कहा जाये तो अतिश्योकित नहीं। देख सकते हैं कि नियम कायदे कानून के औपनिवेशिक माडल पर देशी सामंतो और मध्यवर्ग के स्थानापन मात्र की प्रक्रिया ही आजादी कहलायी जाती रही। परिणमत: एक खास वर्ग के लिए, जिसमें नौकरी पेशा सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका भी समा जाता है, और रोजी रोजगार से वंचित एक बड़े वर्ग के लिए, आजादी के मायने एक ही नहीं रहे हैं। नियम कायदों के अनुपालन के लिए जुटी खाकी वर्दियों का डंडा भी वर्गीय आधारों से संचालित है। जनतंत्र के झूठे ढोल के बेसुरेपन में कितने ही राडिया प्रकरण, बोफोर्स घोटाले, हर्षद मेहता कांड और हाल-हाल में बहुत शौर करते 2-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी घोटाले, कौन बनेगा करोड़पति नामक धुन के साथ मद मस्त रहे हैं। खेती बाड़ी और दूसरे लघु उधोगों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाले राक म्यूजिकों ने जो समा बांधा है, देश का युवा वर्ग उसकी उत्तेजक धुनों में ज्यादा चालू होने के नुस्खे सीखने के साथ है। प्रतिगामी विचारों को यूरोपिय और पाश्चात्य संस्कृति के साथ फ्यूजन करने वाले, धार्मिक उन्मांद को भड़का कर, सत्ता की अदल बदल में ही अपनी चाल का इंतजार करते रहे हैं। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ मंदिरों के गर्भ ग्रहों में वर्षों से छुपा कर रखे गये धन पर इठला रहा है। आर्थिक जटिलताओं के ताने बाने में औपनिवेशिक और आन्तरिक औपनिवेशिक अवस्थाओं ने मुनाफे की दृषिट से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था के पेचोखम को अनेकों घुमावदार मोड़ दिये हैं। यह आजादी के अभी तक के दौर की ऐसी कथा-व्यथा है जिसमें व्यवस्था का मौजूदा ढांचा आजादी के वर्गीय आधार वाला साबित हो रहा है।   

अवधारणा के स्तर पर नियम कायदों की लम्बी फेहरिस्त में समानता बंधुत्व और छोटे-बड़े के भेद-भाव के बावजूद व्यवहार में उनके अनुपालन न करने वाली सरकारी मशीनरी के कारणों की पड़ताल बिना सामाजिकी को पूरी तरह से जाने और जनतंत्र को सिर्फ ढोल की तरह पीटते रहने से संभव नहीं है। सिद्धान्तत: ताकत का राज खत्म हो चुका है लेकिन व्यवहार में उसकी उपसिथति से इंकार नहीं किया जा सकता है। जनतंत्र का ढोल पीटते स्वरों की कर्कशता को देखना हो तो सुरक्षा की दृषिट से जुटी वर्दियों के बेसुरे और कर्कश स्वरों में कहीं भी सुनी और देखी जा सकती है। भ्रष्टाचार की बहती सरिता में डूबे बगैर हक हकूकों की बात कितनी बेमानी है, योजनाओं के कार्यानवयन में जुटे अंदाजों को परख कर इसे जाना जा सकता है। जनता की धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका सामान्य वर्ग का नौकरी पेशा कर्मचारी भी कैसे आम जन पर कहर बनता है, इसे सिविल सोसाइटीनुमा आंदालनों के जरिये न तो पूरी तरह से जाना जा सकता है और न ही उससे निपटने का कोर्इ मुक्कमल रास्ता ढूंढा जा सकता है। आजादी की वर्षगांठ का पर्व ऐसे सवालों से टकराये बिना नहीं मनाया जा सकता। रस्म अदायगियों की कार्यवाहियों में आजादी का कर्मकांड तो संभव है लेकिन आजादी के वास्तविक मायनों तक पहुंचना संभव नहीं। मुनाफे की दृषिट से संचालित व्यवस्था के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को आजादी मानने की समझ को अब मासूमियत कहना भी ठीक नहीं।

1947 के बाद विकसित हुए औधोगिक ढांचे ने उत्पादन के केन्द्रों को शहरी क्षेत्रों में स्थापित कर विकास के चंद टापुओं का निर्माण किया है। कृषि आधारित उधोगों की अनदेखी के चलते विकास का जो माडल खड़ा हुआ है वह शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग के लिए ही अनुकूल साबित हुआ। यधपि उसकी भी अपनी एक सीमा रही है। दलाली और ठेकेदारी उसके प्रतिउत्पाद के रूप में सामने हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का बढ़ता घनत्व उसका दीर्घ कालीन परिणाम है, जो न सिर्फ पारिसिथतिकी असंतुलन को जन्म दे रहा है बलिक अविकसित रह गये एक बड़े भारत में निवास कर रही जनता को जो निराश और पस्त करता है। प्रतिरोध की आवाजों को जातीय और क्षेत्रीय पहचान के आंदोलनों की ओर धकेलने की राजनीति का सहयोगी हो जाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूचना प्रौधोगिकी का बढ़ता तंत्र ऐसी ही राजनीति का प्रस्तोता हुआ है। मुनाफे की संस्कृति उसकी प्राथमिकता में रही है और इस अंधी दौड़ में अव्वल आ जाने की चाह में घटनायें सिर्फ खबरों का हिस्सा हो रही हैं। खबरों का कोलाहल मचाते हुए मूल मुददे को एक ओर कर देने की चालाकियां स्पष्ट दिखायी देने के बावजूद भी उस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना जनता के हाथ में नहीं है। बलिक एक बड़े हिस्से के बीच यह सवाल बार-बार बेचैन करने वाला है कि क्या नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते हुए व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव लाया जा सकता है ? उत्तराखण्ड राज्य की मांग के सवाल पर सामाजिक चिंतक पूरन चंद जोशी के विश्लेषण को दोहराना यहां ज्यादा न्यायोचित लग रहा है जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं, ''....हमें यह  स्पष्ट रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भारत का पिछले पाच दशकों का विकास स्थानीयता के विघटनकारी विकास क्रम ने क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर भयंकर असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। जिसका विस्फोट हम आज देश के कर्इ भागों में देख रहे हैं। इस असंतोष और आक्रोश का मूल हमारे विकास क्रम की विकृतियों और हमारे विकास दर्शन और कार्यक्रम की अपूर्णता में है, इस कटु सत्य को न कभी हमारा शासक वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करता है, न मुख्यधारा के आर्थिक और सामाजिक चिन्तक और विचारक।

देश के तमाम क्षेत्रों में किसान और ज़मीन के सवाल खड़े हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर वैशिवक पूंजी की पैरोकारी ने जो अफरा तफरी मचायी है, उसने जनतंत्र को लूट तंत्र में बदल दिया है। नंदीग्राम का मामला अभी कोर्इ बहुत पुरानी बात नहीं। उड़ीसा में पास्को परियोजना के दुष्प्रभावों के विरुद्ध आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर गोली-बारी की घटना एकदम ताजा ही है। गुजरात में कच्छ का समुद्र तट, मैसूर की परियोजना, हरियाणा में रिलायंस परियोजना और गाजियाबाद का मामला तो बहुत ही ताजा है। ढेरों उदाहरण हैं जो कहीं से भी देश के तमाम नागरिकों को आजाद देश का नागरिक होने के सबूत नहीं छोड़ रहे हैं। हां एक खास वर्ग की आजादी को यहां भले तरह से देखा जा सकता है। बलिक प्रतिरोध की बहुत धीमी सी पदचाप पर भी हिंसक आक्रमणों की छूट वाली उस वर्ग की आजादी का नजारा तो कुछ और ही है। उसके पक्ष में ही तमाम प्रचार तंत्र माहौल बनाना चाहता है। सरकारी अमला उसके हितों के लिए ही कानूनों की किताब हुआ जाता है। जनतांत्रिकता का तकाजा है कि कानून के अनुपालन में सीट पर बैठे व्यकित की कलम से निकला कोर्इ भी वाक्य कानून है। किसी एक ही मसले पर लागू होते कानूनों की भिन्नता सीट पर बैठे व्यकित की समझदारी ही नहीं बलिक आग्रहों का भी नतीजा है। भिन्नताओं का आलम यह है कि हर बेसहारा व्यकित के लिए अपने पक्ष को सही साबित करने की लम्बी कानूनी प्रक्रिया का थकाऊपन झुनझुना हुआ जा रहा है। सूचना के अधिकार अधिनियमों या कितने ही लोकपाल अधिनियमों के आजाने पर भी जो वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित करने में अधूरा ही रह जाने वाला है। जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह उसी वैशिवक पूंजी के इशारों पर होता हुआ है जो मुनाफे की अंधी दौड़ में इस कदर फंसती नजर आ रही है कि आज अपने संकटों से उबरने के लिए सैन्य बलों के प्रयोग के अलावा कोर्इ दूसरा विकल्प जिसके पास शेष न बचा है। उसका अमेरिकीपन अहंकार की काली करतूत के रूप में तीसरी दुनिया के नागरिकों पर कहर बन रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद ऐसे ही अमेरिका को रोल माडल की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। सारा परिदृष्य इस कदर धुंधला गया है कि विरोध और समर्थन की अवसरवादी कार्रवार्इयां, किसी भी जन पक्षधर मुददे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है और आजादी के एक वर्गीय, धार्मिक एवं जातीय रूप को सामने रखा है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशसित में, बड़े-बड़े विस्थापनों को जन्म देने वाली नीतियों के पैरोकार डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं। आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर, उसी अमेरीकी आदर्शों स्वीकार्यता को भी ऐसी ही अवधारणाओं से बल मिल रहा है और आतंक की परिभाषा अपना आकार गढ़ रही है। संपूर्ण गरीब पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निशिचत ही चालक कोशिश है कि विदेशी धन संपदा से लदे फदे अप्रवासियों का झुंड आयेगा और देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगा।

झूठे जनतंत्र की दुहार्इ देते विश्व बाजार का सच आज की वास्तविकता है जो घरेलू उधोगों और उनके विकास में संलग्न बाजार को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है। उसके इशारों पर दौड़ती किसी भी व्यवस्था को आज आजाद व्यवस्था मानना, मुगालते में रहना ही है। आजादी का जश्न मनाते हुए सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से उसके क्रूर चेहरे को नहीं देखा जा सकता। तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने के लिए लगातार आक्रामक होती विश्व पूंजी की गति इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी एक सिथति से उसके सच तक पहुंच सके। उसके विश्लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है कि कहीं अपने मनोगत कारण की वजह से, उसे मुक्कमल तौर पर रखने में, वे आड़े तो नहीं आ रही। देशी बाजार का मनमाना पन भी कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं। यह सोचने वाली बात है कि तमाम चौकसियों के लिए सीना फुलाने वाली व्यवस्था क्यों उत्पादों के मूल्य निर्धारण की कोर्इ तार्किक पद्धति लागू नहीं करना चाहती। मनमाने एम आर पी मूल्यों के अंकन की छूट क्या एक खास वर्ग को उपभोक्ता सामानों में भी अघोषित सबसीडी की व्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए (?), जबकि किसानों और आम जनों को सबसीडी के सवाल पर यही वर्ग सबसे ज्यादा नाक भौं सिकोड़ने वाला है। दो पेन्ट खरीदने पर दो शर्ट मुफ्त बांटते इस बाजार की आर्थिकी क्या है ? यह सवाल आजादी के दायरे से बाहर का सवाल नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कारीगर और नौकरीपेशा आम कर्मचारियों को उपभोक्ता मानकर निर्धारित उत्पादकता लक्ष्यों के बाद के अतिरिक्त उत्पादन की मार्जिनल कास्ट का लाभ एक खास वर्ग को देता यह बाजार आजादी के वास्तविकता को ज्यादा क्रूरता से प्रस्तुत करता है। उत्पाद को खरीदने की स्वतंत्रता भी अधिकाधिक पूंजी वालों के लिए ही अवसर के रूप में है। ऐसे मसले पर आजादी जैसे शब्द को उचारना भी मखौल जैसा ही हो जाता है। 
 
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र हुआ है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गुण़वत्ता को जांचने की आजादी की भी जरूरत को नजर अंदाज कर दिया जा रहा है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, छुपाने के लिए नयी से नयी तकनीक की कोटिंग के प्रयोगों को चमकीली गुलामी ही कहा जा सकता है।

इस चमकीली गुलामी के असर से बचना भी आजादी को बचाने का ही सवाल है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औधोगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर किया है। बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक उसने ढीला किया है। लेकिन दलित आमजन की मुकित के लिए वैशिवक पूंजी की दुहार्इ देने का औचित्य दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन या दूसरे चेतना आंदोलन की राह फिर भी नहीं बन पा रहा है। स्त्री विमुकित का स्वप्न भी आजादी की चमकीली तस्वीर में जकड़बंदी के ज्यादा क्रूरतम रूप का पर्याय हुआ है। चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लेना उस असलियत से मुंह मोड़ लेना है जिसमें निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ लिया जाता है।
1947 से आज तक का भारतीय समय जिन कायदे कानूनों की व्यवस्था में पोषित और विकसित हुआ है, उसके विशलेषण को दुनिया के दूसरे मुल्कों से निरपेक्ष मानकर मूल्यांकन किया जाये तो ही आजादी के वास्तविक अर्थों तक पहुंचा जा सकता है। देख सकते हैं कि आजाद भारत में भी 1947 से पहले के सामंती शोषण और उसकी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका है। बलिक उसी वजह से विश्व पूंजी का पिछलग्गू बनने को ही एक मात्र रास्ता स्वीकार करने की मानसिकता को आधार मिला है और संवैधानिक स्वीकार्यता के बावजूद समाजवाद सिर्फ सपना ही बना हुआ है।  

-विजय गौड़

Saturday, August 13, 2011

सतह के नीचे' की हलचल

   - महेश चंद्र पुनेठा   09411707470
  कविता आसपास के जीवन की जिंदा रची तस्वीर है। जीवन में भावों की यथासिथति को जो तोड़े वह जीवंत कविता है। कविता एक जीवन-साधना है। निरंतर साधना से ही कवित्व अर्जित किया जा सकता है।कवि का परिवेश और उसका अध्यवसाय उसके कवि व्यकितत्व का विकास करता है। इसे पूरी तन्मयता और सावधानी से करना होता है। इसके लिए किसान-सा धैर्य और विश्वास जरूरी होता है। यह बात सही है जिस प्रकार अपने परिवेश और मिटटी को समझे बिना सफल खेती नहीं हो सकती उसी प्रकार अपनी परपंरा के जीवन तत्वों की पहचान , अपनी धरती ,अपने लोग , अपने परिवेश व जातीयता से जुड़ाव और अपने युग के अंतर्विरोधों को समझे बिना एक बड़ी रचना संभव नहीं है।.एक बड़ा कवि अपनी काव्य संवेदना में  जीवन,प्रकृति और विशाल संसार की समग्रता तथा प्रचुरता को आत्मसात करते हुए अपनी ऐतिहासिक परिसिथतियों के साथ जातीयता  तथा परंपरा का गहरा बोध व उसे विकसित करने की इच्छा रखता है। उसमें  भाषा को विकास के छोर तक ले जाने की बेचैनी और विश्वदृषिट तथा संकल्प की दृढ़ता होती है।यथार्थ को गहरार्इ तक पकड़ने के लिए सामान्य जन की भाषा को अपनाना होता है।  भाषा कि्रयाशील मनुष्य से सीखनी पड़ती है। उसकी संगत करनी पड़ती है। उसे बोलते व व्यवहार करते हुए देखना होता है। इस साधना के लिए पूरा जीवन समर्पित करना पड़ता है। कवि को त्रिआयामी संघर्ष करना होता है -पहला , वर्ग चेतन समाज में अपने वर्ग शत्रु से। दूसरा, समाज में व्याप्त विसंगतियों ,विडंबनाओं और तीखे अंतर्विरोधों से । तीसरा , अपने अंदर के अंतर्विरोधों से । पाँचों इंदि्रयों से अनुभव  ग्रहण करने पड़ते हैं जिसके लिए उसके भीतर एक भूख  होनी चाहिए। एक कवि को यह सब करना पड़ता है। अगर वह अपने समय की नब्ज को समझना चाहता है तो इंदि्रयों को खुला और चौकन्ना छोड़े । चेतना को सदा बुद्धि संगत बनाए । संवेदना का सदा पुनर्गठन करे । अनुभवों का बड़ा संसार ही रच लेना काफी नहीं है -बलिक हर अनुभव को एहसास बना के उसके कण को फोड़ पाना यह भी कवि को करना होता है।बहुत दमदार एहसास पाने को आदमी के करीब आना जरूरी है। ऐसा आदमी जो कि्रयाशील है। कवि को हर समय बड़े अनुशासन में जीना पड़ता है। जीना चाहिए। जीवन में और रचना कर्म करते समय। सृजन कर्म न तो बंधन समझ कर न थोपी हुर्इ शर्त समझ कर करना चाहिए।
  कवि जो कुछ भी मनुष्य जाति को देता है वह पूरी तरह बोधगम्य हो। रमणीय भी हो। वह हमारी इंदि्रयों को असर दे सके। वह हमें उददीप्त कर सके। वह प्रतिफल प्रीतिकर लगे। यह सब हमारे मन को उदवेलित करके भी हमें मन के संतुलन बनाए रखने में मदद करे। हम आतंरिक शांति का अनुभव करें। एक बार को लगे कि हम अपनी सीमाओं से ऊपर उठ रहे हैं। यानी हम ने मनुष्यता की उच्चभाव भूमि पा ली है। हमारी चेतना को उन्नत और विकसित करे। कवि को चाहिए वह अपनी संवेदना को सघनतर बनाकर उसका पुनर्गठन करे। तभी वस्तुगत सिथतियों का यथार्थपरक चित्रण हो पाएगा। एक कवि को पहले अयस्क उत्खनित करना पड़ता है । फिर जीवन की धधकती भटटी में उसे तपाना पड़ता है। यह प्रकि्रया खनिज को पकाने से भी ज्यादा लंबी और कठिन है। कष्टदायक भी। कवि को मनुष्य रूप में भी बहुत कुछ खो देना पड़ता है। यह ऐसा तप है जिसकी कोर्इ समय सीमा नहीं है। कवि का सारा खनिजदल प्रत्यक्ष ज्ञान से ही अर्जित नहीं होता । उस ज्ञान का तीन-चौथार्इ ज्ञान उसे परोक्ष अनुभव से भी अर्जित होता हर्ै यानी सुनकर ,पढ़कर ,जानकर ,समझ कर। अपने इतिहास और अपनी प्राचीन संस्कृति से। उस ज्ञान के बिना प्रत्यक्ष ज्ञान अधूरा और अधकचरा है। कवि को अपनी इंदि्रया सजग रखने -बहुत ही सहज ,सकि्रय तथा निसर्गोन्मुखी जीवन जीना ही बेहतर है।  
     कविता और कवि कर्म के संदर्भ में उक्त बातें कविवर विजेंद्र की सध प्रकाशित डायरी  सतह से नीचे ' को पढ़ने के बाद सार रूप में निकलती हैं। ये बातें केवल किसी उपदेश या दर्शन के रूप में नहीं कही गर्इ हैं बलिक विजेंद्र जी ने स्वयं अपने जीवन में इन्हें पोषित किया है। अपने कवि को बचाए रखने के लिए वे खुद से और समाज से निरंतर संघर्ष करते रहे हैं जो आज भी जारी है। उनकी डायरी के पन्नों में इस बात को देखा-समझा जा सकता है। यहाँ कविता ,कवि कर्म ,सौंदर्यशास्त्र ,काव्य भाषा , कवि की तैयारी तथा उसके सामाजिक दायित्व आदि के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। कवि के रूझान ,रूचियों ,चिंताओं और आस्वाद का पता चलता है। उनका व्यकितत्व सामने आता है। कवि की प्रतिबद्धता एवं सरोकारों का पता चलता है। भाषा को लेकर डायरी में बहुत सारी बातें कही गर्इ हैं। यहाँ भाषा के संकट , भाषा के गठन , भाषा के सीखने ,काव्य भाषा की ताकत को लेकर महत्वपूर्ण बातें आर्इ हैं। उनकी निगाह में भाषा मनुष्य जाति की सबसे अच्छी और सबसे ऊँची रचनात्मक उपलबिध है। यह हमारे सांस्कृतिक उन्नयन में सदा सहायक है। लेकिन हम अपनी भाषा से कितना प्यार करते हैं-यह कहने से नहीं वरन उसे रचने ,समृद्ध करने से -बलिक उसे हर वक्त जीवन देने से व्यक्त करना चाहिए । भाषा का उपयोग हम सिर्फ परस्पर संवाद को ही नहीं करते बलिक उससे हम यथासिथति की जड़ता भी तोड़ते हैं। लेकिन यह जड़ता हम निर्जीव भाषा से नहीं तोड़ सकते। इसके लिए बहुत जीवंत ,वेगवान और रचनाशील भाषा चाहिए । ऐसी भाषा संघर्ष धर्मिता से आती है। .....श्रमिक ,खेतीहर ,मजदूर ,छोटे किसान , कारीगर ,मिस्त्री ,लुहार ,बुनकर ,बढ़र्इ मोची ,पत्थर तोड़ा और रात-दिन शहर की सफार्इ में लगे इंसान ही इसके रचियता है। .....श्रमवान लोगों की भाषा में तेज और तप दोनों घुले-मिले रहते हैं।
 भाषा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वे आगे कहते हैं कि इस तरह के कवि भी होते हैं जो जनता के हितों को झुठलाने के लिए दिग्भ्रम फैलाते रहते हैं । वह यथार्थ को एक चमकदार भाषा और शब्दों के खेल से ढक देते हैं। उसे विकृत करते हैं। ......भाषा का इस्तेमाल कवि वैसे ही करता है जैसे किसान अपने बीजों को उर्वर धरती में बोकर इंतजार करता है। दरअसल सबसे कठिन काम है आम आदमी की भाषा में जीवन के औदात्य और उसकी संशिलष्टता को बड़ी सहजता से कविता में रच पाना। .....जो लेखक -वे चाहे किसी भाषा के हों जीवन और प्रकृति से दूर रहते हैं -वे एक अनुदित भाषा लिखने के अभ्यासी बन जाते हैं। भाषा के प्रति विजेंद्र जी का यह दृषिटकोण सबसे अलग और विशिष्ट है। यह व्यावहारिक ,वैज्ञानिक एवं जनपक्षीय दृषिटकोण है।साथ ही कवि को लोक से जोड़ने वाला है। इससे रचना में ताजगी और जीवंतता का संचार होता है।  वे अपनी कविताओं में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह उनके द्वारा लोक के संपर्क से खुद अर्जित भाषा है ,जिसमें उनकी अपनी लय और भंगिमा है। जो भाषा के प्रति उनके इस दृषिटकोण को प्रमाणिक साबित करती है। 
   डायरी, किसी कवि की रचना प्रकि्रया को जानने का सबसे उपयुक्त माध्यम है । कोर्इ रचना जो पाठक तक पहुचती है वह उससे पहले किन-किन पड़ावों से होकर गुजरती है ?इसका पता चलता है। वस्तु के अंतर्वस्तु बनने की पूरी प्रकि्रया की जानकारी मिलती है। मुकितबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात करते हैं उन तीन क्षणों का पता चलता है। रचना से कम रोचक नहीं होती है उसकी रचना प्रकि्रया और उससे गुजरना । इससे रचना की तैयारी ,उसकी पूर्व पीठिका ,रचनाकार की बेचैनी और उसके आत्मसंघर्ष का पता चलता है। एक रचना को पूरी तरह समझने के लिए यह जरूरी भी है। कविता की रचना-प्रकि्रया ही नहीं कवि बनने की प्रकि्रया का भी पता चलता है। कवि संवेदना के रचे जाने के  स्तरों का भी पता चलता है। प्रस्तुत कृति कवि विजेंद्र के संदर्भ में इन सारी बातों को जानने का अवसर प्रदान करती है। पाठक को पता चलता है कि  विेजेंद्र जी ने निरंतर साधना से अपने कवित्व को अर्जित किया है। वे हमारे समय के विलक्षण चिंतक हैं । तथ्यों की गहरार्इ में जाकर अपने पूरे तर्कों के साथ उन्हें विश्लेषित करते हैं। जीवन के प्रति रागात्मकता के साथ-साथ विचार के प्रति सजगता एवं सतर्कता ने उनके कवि को जिंदा रखा है। माक्र्सवाद में उनकी आस्था आज भी दृढ़ बनी हुर्इ है। इस विचारधारा के प्रति वे कहीं भी सशंकित नहीं दिखते हैं।जबकि उनके तमाम साथी विचारधारा से दूर जा चुके हैं । कुछ यदि जुड़े भी हैं तो केवल नाममात्र के लिए।  माक्र्सवाद में गहरी आस्था के बावजूद  वे मानते हैं- केवल विचारधारा से चिपक कर -उसका ढोल पीटकर ही कुछ नहीं हो सकता । उसके लिए बेहतर आचरण ,उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजगता और सहज मानवीय गुण भी चाहिए । वामपंथी युवक -चाहे वे राजनीति में हों या साहित्य में -ज्यादातर आचरण से हमें अपनी तरफ आकर्षित नहीं करते । उन्होंने विरासत में बड़े जीवन मूल्यों को हासिल न कर शार्टकट तिकड़मों पर ज्यादा ध्यान दिया है। ......दरअसल कोर्इ भी विचारधारा जीवन के बड़े संकल्प का रचनामूलक अनुशासन है। दूसरे ,प्रतिबद्ध शब्द का अर्थ साहित्य में  बधना' नहीं वरन किसी दर्शन से संबद्ध होना है। उससे लगाव-जुड़ाव होना है। .....प्रतिबद्धता एक दिशा ही तो है। जहाँ दिशा नहीं वहाँ अराजकता होती है। या फिर हताशा।.....हम अनेक विचारों या विचारधाराओं में किसी एक को चुनते हैं। जो हम चुनते हैं जरूरी नहीं कि दूसरों को वह स्वीकार्य हो -तो फिर सच्ची विचारधारा कौनसी है?इसके लिए वाद-विवाद जरूरी है। यह एक वैचारिक संघर्ष है जो बराबर चलता  रहना चाहिए जब तक हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुचें। 
   प्रस्तुत कृति में यत्र-तत्र वैचारिक सूत्र फैले हैं जो पाठक को समृद्ध करते हैं। बीच-बीच में कविताएं भी हैं यह डायरी लेखन का विजेंद्र जी का अपना निराला अंदाज है। बीच-बीच में कविताओं का आना गध की एकरसता को भंग करने में  सफल रहा है वैसे डायरी इतनी रोचक है कि कहीं भी एकरसता का भान कम ही होता है। एक कथा सी रोचकता इसमें निहित है। हाँ ,इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि जिसने उनका समग्र साहित्य पढ़ा हो उसे यहाँ कुछ बातों का दुहराव लगेगा। मुझे लगता है यह दोहराव स्वाभाविक भी है क्योंकि विजेंद्र जी कविता ,कवि-कर्म तथा एक मनुष्य के लिए जिन बातों को जरूरी मानते हैं उन्हें वे बार-बार उलिलखित करते हैं। उनके प्रति उनका विशेष आग्रह रहता है। उनके लिए लेखन रचनाकार कहलाने मात्र का माध्यम नहीं है बलिक मनुष्यता को बचाए रखने का औजार है।
  विजेंद्र जी डायरी के गध को अपने लिए कविता का अनिवार्य 'वर्कशाप जैसा मानता है। एक तरह का रियाज। कविता रचे जाने के बाद जो बेचैनी बच जाती है उसकी रचनात्मक अभिव्यकित।  कवि को जो कुछ स्पंदित करता रहा वह सभी है इस डायरी में है ।
   इस कृति में  प्रकृति के विविध रंग विखरे हैंं। वे प्रकृति की बारीक से बारीक कि्रयाओं को भी अपनी कविताओं की तरह यहाँ भी दर्ज करते हैं । पाँचों इंदि्रयों से प्रकृति का रसास्वादन करते हैं।प्रकृति के रूप ,रंग ,गंध , स्वाद को कवि ने नजदीक से अनुभव कर व्यक्त किया है। राजस्थान के घना और भरतपुर अंचल की प्रकृति इस डायरी में भरपूर आयी है। फाग उमड़ने ,सूर्योदय जैसे दृश्यों का चित्रण बहुत सुदंर तरीके से हुआ है। वे डायरी में एक जगह लिखते भी हैं - मैं अपने यहाँ की धरती से गहरा परिचय कराने की गरज से यहाँ खड़ा हू। इस डायरी में आए प्रकृति के सूक्ष्म चित्रों और उसकी विस्तृत परिचय से समझा जा सकता है कि विजेंद्र जी को प्रकृति से कितनी रागात्मकता है। वह अपने आसपास की एक-एक वनस्पति , जीव-जंतु ,फूल-फल आदि की जैसी जानकारी रखते हैं वैसी जानकारी केवल किसान ही रख सकता है। कभी-कभी उनकी जानकारी चमत्कृत करती है कि एक कलम चलाने तक सीमित व जीवनभर अध्यापकी करने वाले व्यकित को इतनी गहरी जानकारी! किसी किसान से कम नहीं है यह । उनकी यह विशेषता नए और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले हम जैसे कवि-रचनाकारों को सीखने को प्रेरित करती है।  न केवल प्रकृति बलिक अपने आसपास श्रम करने वालों की गतिविधियों को भी वे बहुत बारीकी से चित्रित करते हैं। उनके आसपास के  अनेक चरित्र यहाँ आए हैं जिनका जीवंत चित्रण हुआ है। लगता है जैसे किसी कविता की पंकित पढ़ रहे हाें। उन्होंने ,अपनी आँखों से देखे हैं अपने आसपास के फूल ,पेड़ ,लताएं , घास ,मिटटी , लोगों की कि्रयाएं ,उनकी आकृतियाँ ,कीचड़-गडढे ,नहर , भरा हुआ पानी , फूलते कासों की लंबी-लंबी कतारें .....और छोटी सी लोहे की सिल्ली से बनती पतली सरिया । सूघी है यहा के फूलों की खुशबू ,मछुआरों के बदन से आती मछरियांद ' और किसान ,हलवाहों ,पत्थरतोड़ाओं और लावों के जिस्म से आती पसीने की  खटियाद'। गढि़या लुहार , खलासी , गैंगमैन , मिस्त्री ,मोची ,डाकिया जैसे अनेकों छोटे-मोटे श्रम करने वालाें को वे भूलते नहीं हैं। इनका केवल नामोल्लेख ही नहीं बलिक उनके जीवन की कि्रयाओं , भावनाओं ,संवेगों ,संघर्षों का भी वर्णन किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि वे इन लोगों को कितनी सम्मान की नजर से देखते हैं तथा जीवन में उनके महत्व को कितनी शिददत से महसूस करते हैं। इससे पता चलता है कि विजेंद्र जी अपने जन और जमीन से कितनी गहरार्इ से जुड़े हैं। यही अपेक्षा वे दूसरे कवियों से भी किया करते हैं । नए रचनाकारों को लिखे पत्रों में वे हमेशा उनको अपने जन और समाज को पहचानने की सीख देते रहते हैं। विजेंद्र जी अपने आसपास को जानने के लिए सचेत रूप से प्रयास करते हैं। कविता की तरह रूपक और बिंबों का प्रयोग यहाँ दिखार्इ देता है। वैचारिक सूत्र हर जगह हैं। इस डायरी से विजेंद्र की कवि विजेंद्र में बदलने की पूरी प्रकि्रया का पता चलता है। पता चलता है उन्होंने इसके लिए कितनी सचेत तैयारी की है।
   विजेंद्र जी , मजदूर-किसानों के सामने अपने काम को छोटा मानते हैं । उनके काम को अधिक मान देते हैं। हमेशा उनसे सीखने का प्रयास करते हैं। किसान के भीतर एक विश्वास तथा धैर्य होता है तूफान , वर्षा ,आँधी ,सूखा ,बाढ़ ,शीत और अन्य व्याधियाँ सहते हुए भी खेती करना नहीं छोड़ता हैं । उनकी कविताओं में श्रम करने वालों के प्रति जो सम्मान और प्रेम हमें दिखार्इ देता है वह यहाँ और अधिक खुलकर सामने आता है। एक सच्चा कवि ही गरीबी ,भूख ,उत्पीड़न , शोषण को देख इतना संवेदनशील हो सकता है। अपने अभिजात्यपन को लेकर उनके मन में जो अपराधबोध है , वे मनोभाव भी इस डायरी में दर्ज हुए हैं। कवि की बेचैनी-तड़फ-अंतर्मन की पीड़ा डायरी में शुरू से अंत तक महसूस की जा सकती  है । यही है जिसने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया है। उनकी पीड़ा-बेचैनी को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरल नहीं है एक कवि होना ।कवि के मन को समझने के लिए यह डायरी महत्वपूर्ण है।
   इसमें कवि की आत्मस्वीकृतियाँ भी हैं और पति-पत्नी के बीच का प्रेम भी । लगभग आधी सदी के वैवाहिक जीवन के बाद भी पति-पत्नी के बीच जो प्रेम यहाँ दिखार्इ देता है वह मनमोह लेने वाला है और दुर्लभ है।इस डायरी में विजेंद्र जी के केवल कवि रूप के ही नहीं बलिक एक पिता ,एक पति ,एक अध्यापक  रूप के दर्शन भी होते हैं। इन सारे दायित्वों को विजेंद्र पूरी र्इमानदारी से निभाते हैें। अत: एक रचनाकार के रूप में ही नहीं बलिक एक इंसान के रूप में भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।   
    कविवर विजेंद्र रूढि़यों को तोड़ने वाले कवि हैं । यहाँ भी विधा के रूप में उन्होंने यह रूढि़ तोड़ी है परम्परागत रूप में उनकी यह रचना डायरी नहीं लगती है। उनकी डायरी में नितांत निजी स्तर पर घटित घटनाओं और तत्संबंधी बौद्धिक-भावनात्मक प्रतिकि्रयाओं का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। यह बोझिल रोजनामचा नहीं है। यह जीवन और जगत के प्रति अनुराग पैदा करने तथा जीवन में भावों की यथासिथति को तोड़ने वाली कृति है, जिसमें कविताएं भी हैं संस्मरण भी ,यात्रा वृतांत भी ,पत्र भी ,आलेख भी और टिप्पणिया भी। कुछ पृष्ठ  तो  साहित्य और समाज पर टिप्पणियों सा आस्वाद प्रदान करते हैं। कहीं-कहीं उन्होंने विभिन्न साहितियकों द्वारा उनके नाम लिखे गए पत्रों को भी शामिल किया है। उनकी डायरी में जीवन-सार जगह-जगह उदघाटित होता है। जीवन-वर्णन ही नहीं जीवन-निष्कर्ष भी हमको मिलते हैं जो पाठक को एक नया आलोक प्रदान करते हैं। जीवन-वर्णन के दौरान विजेंद्र जी कब अचानक बाहर से भीतर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है। उनकी भीतर-बाहर की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। इसके चलते कभी-कभी डायरी की क्रमबद्धता भी बाधित होती है।ऐसा ही कविता संबंधी बातों पर भी होता है। जीवन-प्रसंगों की बातें करते-करते अचानक कविता और कवि कर्म पर बातें शुरू हो जाती है।  प्रकृति के प्रतीकों से कविता की गहरी से गहरी बातों को समझा देते हैं। इससे लगता है कि उनके लिए कविता जीवन से और कवि-कर्म जीवन-कर्म से अलग नहीं हैं । दोनों एक-दूसरे में गुँथे हैं। इसलिए तो वे कवि को उसके व्यकित से अलग करके नहीं देख पाते ।
       डायरी में उन्होंने अपने दोस्तों से मुलाकात के विवरण भी दिए हैं । इस दृषिट से दिल्ली की डायरी' बहुत रोचक है। दिल्ली के तमाम रचनाकारों तथा साहित्य के माहौल के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। साहित्य के लोग एक दूसरे से कैसी र्इष्र्या और द्वेष रखते हैं इसका भी खुलासा होता  है। यह डायरी साहित्य की राजनीति का चिटठा खोलती है। इस रूप में विजेंद्र जी के पूरे कालखंड को जानने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराती है। त्रिलोचन , शमशेर , विष्णु चंद्र शर्मा ,रामकुमार कृषक ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,भगवत रावत , जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा ,नरेश सक्सेना ,विश्वंभर नाथ उपाध्याय ,वाचस्पति मोहन श्रोत्रिय , नंद भारद्वाज , नंद चतुर्वेदी , अशोक वाजपेयी ,कर्ण सिंह चौहान ,मैनेजर पांडेय , रमेश उपाध्याय , अरूण कमल ,सुधीश पचौरी ,उदय प्रकाश , एकांत श्रीवास्तव सहित तामम आलोचकों और कवियों के बारे में लेखक की बेबाक राय पता चलती है। यहाँ उनकी बेवाक टिप्पणियाँ विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।जिसके बारे में जो लगा उसे उन्होंने बिल्कुल साफ-साफ लिखा है। उसमें यह नहीं देखा कि वह उनके कितने करीब या दूर है। इस बात की परवाह नहीं कि कौन इस बात से खुश होगा और कौन नाराज। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में दिखार्इ देता है। इसी साफगोर्इ के चलते वे आज अलग-थलग हैं। उनके इस स्वभाव ने उनके अनेक दुश्मन खड़े किए हैं। इस डायरी को पढ़े जाने के बाद बहुत सारे और  लोग उनसे नाराज हो जाएंगे। पर उन्हें इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है । उन्हें तो केवल सच्चे लोग चाहिए। वे कहते हैं - जो जीवन और रचना को समर्पित हैं -सरल-सहज जन चाहे कितने ही सामान्य क्यों न हों -मैं उनके लिए नतमस्तक हू।  एक ऐसे दौर में जबकि साहितियक जगत में सहिष्णुता छीजती जा रही है। व्यकितगत आलोचना तो छोडि़ए रचना की सीमाओं की ओर संकेत मात्र भी किसी को सहन नहीं होता है। युवा से युवा रचनाकार तक अपनी आलोचना सुनने को तैयार न हों। थोड़ी सी बात पर भड़क उठते हों तब  विजेंद्र जी का इस तरह अपने समकालीनों को लेकर बेवाक और दो टूक राय व्यक्त करना साहित्य के प्रति विश्वास बढ़ाता है। उनकी यह डायरी उनके साहस  के लिए विशेष रूप से जानी जाएगी। यहाँ तक कि उन्होंने खुद को भी नहीं छोड़ा है। यह बहुत बड़ी बात है। बहुत कम होते हैं जो अपनी निर्मम आलोचना कर पाते हों।इसे एक कवि की र्इमानदारी ही कहा जा सकता है कि कवि इतनी निर्ममता से अपने आप को कटघरे में खड़ा कर देता हैै। अपनी स्वयं की आलोचना इस डायरी को एक अतिरिक्त गरिमा प्रदान करती है। युग समाज ,व्यकित तथा साहित्य के प्रति लेखक की गहरी प्रगतिशील निष्ठा और आकांक्षा को सूचित करती है।  इससे उनके लिखे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। 
   यहाँ प्रकाशकों की बेर्इमानी और उनके साथ शिखरस्थ साहित्यकारों का गठजोड़ भी सामने आया है। बड़े-बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक कितने कूढ़मगज और मूर्ख हैं पता चलता है- प्रकाशक की निगाह में एक अच्छा लेखक वह है जिसकी किताब एक मुश्त खरीदी जाए ,जो खरीद करवा सके ,वह उसे सबसे बड़ा लेखक .....उसका कूड़ा भी छापने को बड़े-बड़े प्रकाशक तैयार हो जाते हैं। विजेंद्र जी की यह बात बिल्कुल सही है। बड़े-बड़े प्रकाशनों की पुस्तक सूची उठाकर देख लीजिए उसमें आपको ऐसे-ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके बारे में एक लेखक के रूप में आपने कभी सुना भी नहीं होगा। उनकी पहचान एक लेखक की बजाय बड़े मंत्री या अधिकारी के रूप में अधिक होती है। साहित्य की जिस दुनिया को हम साफ-सुथरी दुनिया मानते आए हैं वहाँ भी कितनी गंदगी व्याप्त है इसमें देखा जा सकता है-  साहित्य के हालात से मन क्षुब्ध रहा। इधर बड़े-बड़े अफसरों ने साहित्य पर एकाधिकार जमाने के प्रयत्न किए हैं। धन की ताकत से वे अनेक लेखकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं।.....साहित्य अब कोर्इ पवित्र चीज नहीं रह गर्इ है। साहित्य में कामयाबी के लिए शार्टकट अपनाए जा रहे हैं। तिकड़में और जोड़-तोड़ हमारी आचार संहिता का हिस्सा बन गया है। नैतिक आचरण की बात पर लोग हसते हैं।.....साहित्य का हाल बुरा है । उस पर भी भ्रष्ट राजनीति और पूजीवाद की विकृतियाँ हावी है। ''   एक बात और यहाँ केवल कवि की रचना-प्रकि्रया ही नहीं बलिक किसी रचना के छपने की स्वीकृति तथा संपादक की सकारात्मक टिप्पणी से पैदा हुर्इ खुशी भी है। रचना का बनना , स्वीकृत होना ,छपना तथा पाठकों की प्रतिकि्रया पाना एक रचनाकार को कितना सुख प्रदान करती है ,इस भाव को यहाँ महसूस किया जा सकता है। यहाँ पता चलता है कि यह सुख केवल नए रचनाकार को ही नहीं बलिक वरिष्ठों को भी समान रूप से प्रफुलिलत करता है। सृजन का आनंद नि:संदेह अदभुत होता है। 
    यह कृति कविता और इंसान के रिश्तों को बताती ही नहीं बलिक मजबूत भी करती है तथा एक सच्चे इंसान की पहचान भी उजागर करती है।समाज में गिरते मूल्यों की चर्चा भी यहाँ मिलती है। कवि का संकल्प भी यहा व्यक्त हुआ है। यह कृति एक नए कवि के लिए जरूरी मार्गनिर्देशिका जैसी है । कुल मिलाकर इस डायरी में सीखने-समझने और अपने संवेदनात्मक ज्ञान के विवेक सम्मत पुनर्गठन के लिए बहुत कुछ है। ब्लर्ब में लिखी यह बात सही है , किसी भी रचनाकार या सामान्य पाठक को यह डायरी रूचिकर लगेगी। एक बार प्रारंभ करने के बाद शायद व इसे उपन्यास की तरह पढ़ना चाहेगा।''इसमें कोर्इ दो राय नहीं डायरी बाँधने वाली है। जैसा कि विजेंद्र जी स्वयं कहते हैं यह डायरी त्रिविध संवाद है। अपने से ,अपने समय से तथा अपने सुधी पाठकों से। इसमें कोर्इ संदेह नहीं ।  जहाँ तक डायरी के लिखने का कारण है उसके बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, गध हमें जूझने का यकीन देता है। बिना जूझे न जीवन है और न कददावर रचना। डायरी उसी सिलसिले में शुरू की।बाद में वह मेरी कविता की पूरक .....एक बेहतरीन रुहानी  दोस्त ।'' कविवर विजेंद्र 1968 से अटूट रूप से डायरी लिख रहे हैं । अभी तक दो हजार से अधिक पृष्ठों में फैली उनकी डायरी में से कुछ पृष्ठ तीन पुस्तकों के रूप में आ चुकी हैं। पहली  कवि की अंतर्यात्रा  दूसरी ' धरती के अदृश्य दृश्य ' तथा तीसरी  सतह से नीचे'। आशा की जानी चाहिए कि आगे यह सिलसिला जारी रहेगा ।

सतह के नीचे ( डायरी) : विजेंद्र । प्रकाशक - वाड.मय प्रकाशन इ-776/7 लालकोठी योजना ,जयपुर-15
 मूल्य- तीन सौ रुपए

Tuesday, August 9, 2011

जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे

       1920 में कैथरीन जीन मेरी रुस्का के नाम से जनमी उद्जेरू नूनुक्कल ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के अधिकारों के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता,कवि कलाकार थीं.तेरह वर्ष की उमर में उन्होंने स्कूल त्याग दिया और घरेलू नौकरानी का काम भी किया.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आस्ट्रेलियन सेना में भरती हो गयीं,यहीं इन्होने टाइपिंग सीखी और लेखन की ओर प्रवृत्त हुईं.पर यहाँ रहते हुए उन्होंने जातिगत और रंग भेद के कटु अनुभव किये.बाद में आस्ट्रेलिया की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं पर वहाँ भी भेदभाव की संस्कृति देख निराश हुयीं.1964 में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ जो आस्ट्रेलिया में किसी मूल निवासी कवि की पहली प्रकाशित पुस्तक थी.इसको घनघोर सफलता मिली तो अनेक स्थापित आलोचकों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि ये कवितायेँ उनकी नहीं बल्कि किसी और की लिखी हुई हैं.बाद में उनके अनेक संकलन प्रकाशित हुए...देश विदेश के प्रतिष्ठित सम्मान,पुरस्कार और अलंकरण उन्हें मिले.उनपर फिल्म भी बनी और उनको केंद्र में रख कर नाटक भी लिखे गए.मूल निवासियों को गोरे देश वासियों के बराबर संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई में वे शीर्ष भूमिका निभाती रहीं. आस्ट्रेलिया के दो सौ साला समारोह में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अलंकरण देश में मूल निवासियों की दुर्दशा पर विरोध दर्ज कराने के लिए लौटा दिया.आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों की अस्मिता की राष्ट्रीय प्रतीक उद्जेरू नूनुक्कल ने 1993 में अंतिम साँसें लीं. 

प्रस्तुति:: यादवेन्द्र
तोहफा
                                        -उद्जेरू नूनुक्कल

"मैं तुम्हारे लिए लेकर आऊंगा ढेर सारा प्यार"...जवान प्रेमी ने कहा...
"साथ में तुम्हारी उदास आँखों में
भर दूंगा मैं ख़ुशी की रौशनी का सैलाब...
सफ़ेद हड्डियों से बना पेंडेंट लाऊंगा तुम्हारे लिए
और उल्लसित तोते के पंख लाऊंगा
कि उनसे सजा सको तुम अपनी लटें ."

पर वह थी कि सिर्फ अपना सिर हिलाकर रह गयी.

"तुम्हारी गोद में ले आऊंगा मैं एक नवजात"...उसने आगे कहा...
"जो बनेगा अपने कुनबे का सरदार
और बारिश का आह्वान करने वाला मशहूर गुणी
मैं ऐसे गीत रचूंगा कि तुम उनसे हो जाओगी नाशमुक्त
जिन्हें अथक सारा कुनबा
गाता रहेगा अनंत काल तक."

वह थी कि फिर भी नहीं रीझी.

"मैं इस टापू पर सिर्फ तुम्हारे लिए
ले आऊंगा शीतल चांदनी की नीरवता
और चुरा चुरा कर इकठ्ठा करूँगा दुनिया भर के परिंदों की कूक
जन्नत में जगमग करने वाले सितारे तोड़ लाऊंगा
और हीरों की चमक वाला इन्द्रधनुष
ला कर रख दूंगा तुम्हारी हथेली पर."

"इतने सब की दरकार नहीं"...उसके होंठ हिले...
"तुम बस ला दो मेरे लिए पेड़ों की जड़ों में पैदा नरम नरम कंद."

तब और अब

अपने सपनों में मैं सुनती हूँ अपने कबीले की आवाज
कैसे हँसते हैं वे जब करते हैं शिकार..या तैरते हुए नदी में
पर यह स्वप्न ध्वस्त कर देती है धक्के मारकर तेजी से बीच में पहुँचती
दनदनाती हुई कार,धकेलती हुई ट्राम और फुफकारती हुई ट्रेन.
अब मुझे दिखते नहीं हैं कबीले के बूढ़े बुजुर्ग
जब मैं अकेले निकलती हूँ शहर की सड़कों पर.

मैंने देखी वो फैक्ट्री
जो दिन रात उगलती रहती है काला धुंआ
लील गयी है वह उस स्मृतियों में बसे पार्क को भी
जहाँ कभी कबीले की स्त्रियों ने खोदे थे गड्ढे शकरकंद के लिए:
जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे
अब वहाँ पसरा हुआ है रेल का यार्ड
और जहाँ हमारे ज़माने में हम लड़कियों को
ललकारा जाता था नाचने और नाटक करने को
अब वहाँ ढेर सारे आफिस हैं ...निओन लाइटों से पटे हुए
बैंक हैं..दुकानें हैं..इश्तहारी बोर्ड लगे हुए हैं..
ट्रैफिक और व्यापार से भरा पूरा शहर.

अब न तो वूमेरा* हैं , न ही बूमरैंग*
न खिलंदड़ी के साधन , न पुराने तौर तरीके.
तब हम प्रकृति की संतानें थे
न घड़ियाँ थीं न ही भागता ही रहने वाला भीड़ भक्कड़.
अब मुझे सभ्य बना दिया गया है,गोरों के ढब में काम करने लगी हूँ
खास तरह का ड्रेस पहनती हूँ..जूतियाँ चमक दमक वाली
"कितनी खुश नसीब है , देखो तो अच्छी सी नौकरी है ".
इस से बेहतर तो तब था जब
मेरे पास ले दे के एक ही पिद्दी सा बैग हुआ करता था
कितने अच्छे थे वे दिन जब
मेरे पास कुछ नहीं था सिवाय ख़ुशी के.

* आदिवासी आस्ट्रेलियन लोगों का देसी हथियार

Sunday, July 31, 2011

वैकल्पिक ऊर्जा

पंडित नेहरु के प्रिय पात्र डा. होमी भाभा के साथ मतभेद का कारण देश के प्रखर वैज्ञानिक चिन्तक,गणितज्ञ,समाजशास्त्री और इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसांबी का टी.आई.एफ.आर में रहते हुए भारत के सन्दर्भ में परमाणु ऊर्जा की तुलना में सौर ऊर्जा को श्रेष्ठ ठहराने का मुखर और घोषित तर्क था.और इसी विश्वास के चलते उन्हें भाभा ने अपने संस्थान से हटा दिया.

कोसांबी के उठाये मुद्दों पर बाद में भी शासन द्वारा अक्सर सवालों को यथासंभव दबाया गया और ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की अनदेखी की गयी.आज देश में गहराते ऊर्जा संकट, पर्यावरण बचाने की मुहिम और अमेरिका की पिछलग्गू बनाने वाली परमाणु नीति की बाबत जन्मदिन (31 जुलाई)पर आदर पूर्वक कोसांबी का स्मरण करते हुए उनके कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं:
"एक औसत दिन में भारत के सौ वर्ग मीटर भूभाग पर सूरज लगभग 600 किलो वाट आवर ऊष्मा उपलब्ध करता है.यह करीब 160 पौंड उच्च श्रेणी के कोयले के या फिर 16 गैलन पेट्रोल के समतुल्य होता है.इस तथ्य को ध्यानमें रखते हुए मेरा पक्का विश्वास है कि हमें लगभग निः शुल्क उपलब्ध होने वाली सौर ऊर्जा का भरपूर दोहन करना चाहिए...दोनों स्थितियों में: हम परमाणु ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो भी...नहीं बढ़ते हैं तब भी. "

"सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा फायदा विकेंद्रीकरण है.इतने बड़े देश को इकलौते राष्ट्रीय ग्रिड से बिजली पहुँचाना बहुत मुश्किल काम है, वह भी तब जब उत्पादन स्रोत अलग अलग (ताप और जल, मुख्यतः).सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रिड हो या न हो आप स्थानीय तौर पर विद्युत् आपूर्ति कर सकते हैं.भारत कि भौगोलिक विशेषता को देखते हुए यहाँ वहाँ फैले लघु उद्योगों और गाँवों के लिए सौर ऊर्जा सबसे ज्यादा मुफीद बैठती है.यदि आप शुरुआती तौर पर भरी पूंजी निवेश और नौकर शाही के शिकंजे में फंसे बिना समाजवाद कि दिशा में अग्रसर होना चाहते हैं तो सौर ऊर्जा से ज्यादा कारगर और कोई साधन नहीं हो सकता."

"अनुसन्धान सिर्फ कुछ पेपर लिख देने, अपने प्रिय पात्रों को देश विदेश के कांफ्रेंसों में भेज देने और ऊँघते हुए राजनेताओं को पट्टी पढ़ा कर देश के कर दाताओं के करोड़ों रु. रिसर्च अनुदान के तौर पर जुटा लेने भर से नहीं होता...हमारे अनुसन्धान को वास्तविकताओं के धरातल पर भी खरा उतरना पड़ेगा."

"परमाणु ऊर्जा का पूरा मामला बेहद व्ययसाध्य है.जो लोग यह दलील देते हैं कि यह ताप और जल विद्युत् परियोजनाओं के समकक्ष ही है वे बड़ी चालाकी से यह सच्चाई छुपा जाते हैं कि परमाणु परियोजना के प्रारंभिक खर्चे कहीं किसी और मद में समाहित कर दिए जाते हैं."

"परमाणु ऊर्जा एक ऐसा खतरा है जिसकी विभीषिका आज की पीढ़ी को तो झेलनी ही पड़ेगी...बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ियों को भी झेलनी होगी."

"सिर्फ अवसरवादी और तीसरे दर्जे के वैज्ञानिक ही परमाणु ऊर्जा पर अपना समय और ऊर्जा खर्च करते हैं."


प्रस्तुति: यादवेन्द्र

Saturday, July 30, 2011

तकनीकी अभियान

इस महीने की 15 तारीख को छोड़े गए भारत के नए संचार  उपग्रह जी सैट-12  की सुर्खियाँ मुंबई बम धमाकों के कारण नहीं बन पायीं ...पर  आत्म निर्भरता की इस तकनीकी मिसाल का एक पहलू रोमांच और गौरव पैदा करता है.इस अभियान को सही ढंग से स्थापित करने की महती जिम्म्मेदारी अंतरिक्ष  वैज्ञानिकों की जिस टीम को दी गयी है उसमें सबसे अग्रणी भूमिका तीन महिला वैज्ञानिकों की है: प्रोजेक्ट डाइरेक्टर टी के अनुराधा, मिशन डाइरेक्टर प्रमोधा हेगड़े और आपरेशंस डाइरेक्टर के.एस.अनुराधा (चित्र संलग्न). उपग्रह छोड़े जाने के बाद उसको  सुरक्षित अपेक्षित ऊंचाई तक पहुँचाना और सही तरीके से स्थापित कर के सौंपे गए दायित्वों को सुचारू रूप से आरंभ करवाना इस वैज्ञानिक दल के कन्धों पर हैं...इस काम में करीब डेढ़ से दो महीने का समय लगता है.अब तक के विवरण बताते हैं कि जिन सुयोग्य कन्धों पर इसरो  के शीर्ष नेतृत्व ने  यह दायित्व सौंपा था,वे विशाल देश की अपेक्षाओं पर बिलकुल खरे उतरे हैं.
सक्षम और सुयोग्य स्त्री शक्ति को सलाम.............
 
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Sunday, July 17, 2011

अलकनन्दा घाटी का मूर्ति शिल्प

उत्तराखण्ड के गांवों की वीरानी, तकलीफ देने वाली है। जो लोग वहां खपने के लिए छूट गए हैं उनकी कोई खबर लेने वाला नहीं है। जो खत्म हो चुके हैं उनका कोई ब्यौरा हमारे पास नहीं है। आर्थिक कारणों के अतिरिक्त सवर्णों की खराब सोच के कारण हमारे शिल्पकारों, मूर्तिकारों और संगीतकारों को खत्म होना पड़ा। सवर्णों के लिए ये कार्य हेय है और इनके सक्रिय लोग निम्न कोटि के वासी हैं। कभी ये ध्यान ही नहीं गया कि यहां के मन्दिरों में सुन्दर मूर्तिशिल्प किसने बनाए? हमारे घरों की तिबारियों पर गढ़े गए लकड़ी के सुन्दर शिल्पों का निर्माण करने वाले आखिर हैं कहां ? लेकिन पहाड़ों में घुमकड़ी करने वाले कला रसिक नन्द किशोर हटवाल की मुलाकात आशा लाल से होती है। आशा लाल खांटी मजदूर है। वैसे ही दिखते हैं विनम्र और अबोध। घरों की खोली बनाने में वे निपुण हैं लेकिन अपने उजड़ते गांवों में इसकी जरूरत ही नहीं रही। बहुत संकोच के साथ वे बताते हैं वे मूर्तिशिल्पी हैं और पहाड़ के स्थानीय पत्थरों पर वे देवी देवताओं के शिल्प उकेरते हैं। वे जानते और मानते नहीं कि वे कलाकार हैं। जिला चमोली के छिनका नामक स्थान के सामने पाखे पर उनका गांव है। मूर्तिशिल्प कोई लेने वाला नहीं इसलिए बनाते भी नहीं हैं। पहले कभी पारम्परिक खरीददार रहे होंगे। आज के समय की मार्केटिंग उन्हें नहीं आती, इसलिए सड़क पर मजदूरी करते हैं।
वे शौक के लिए तो मूर्ति बना नहीं सकते। लगभग एक-फुट ऊंची मूर्ति बनाने में लगभग 15 दिन लगते हैं। पहले पहाड़ की ऊंचाई पर उपयुक्त जगह पर पत्थर को छांटना पड़ता है। फिर भारी पत्थर को ढो कर अपने गांव तक लाना पड़ता है। इतने समय तक बच्चों का पेट कौन भरेगा। सो काम बिल्कुल खत्म है। वे लगभग सत्तर-बह्त्तर वर्ष की आयु के हैं। उनके साथ इस दुर्लभ कला का भी अन्त होना हुआ।
किसी तरह लगभग दस मूर्तियां उनसे आग्रह कर बनवाई गईं। उनमें कलाकार का अहंकार नहीं है, ये कार्य वे मजदूर की तरह ही करते हैं। उनके मूर्तिशिल्पों की अलग पहचान है। उनका खुरदरापन और स्थानिकता देश के किसी भी दूसरे भाग की मूर्तियों से भिन्न है। स्थानिक देवी-देवता के अलावा वे भगवान बदरीनाथ की मूर्ति बनाते हैं। बहुत सम्भव है उनके पूर्वजों ने ही बदरीनाथ देवता की मूर्ति का सृजन किया होगा।
जांच पड़ताल करने पर कुछ और मूर्ति शिल्पियों की जानकारी भी मिली। छिनका के अनुसुया लाल और पंगनों के बसन्तू लाल के नाम उल्लेखनीय हैं। चमोली जिले में दस या बारह इस तरह के कलाकार हैं। ठीक से शोध करने पर उत्तरकाशी से बागेश्वर तक ऐसे अनेकों गुणी कलाकारों का जरूर पता लग सकता है। साहित्यकार नन्द किशोर हटवाल ने इस दिशा में पहल की है।
चारों धाम की यात्रा करने वाले लाखों लोगों को वैसे भी अपने उत्तराखण्ड में यादगार के लिए कोई चीज खरीदने को नहीं मिलती है।

-राजेश सकलानी

यदि ग्राहक मौजूद हों तो मूर्तिशिल्प की उपलब्धता  संभव हो सकती है। एक ठीक ठाक आकार का शिल्प (लगभग १ फ़ुट लम्बा और८ इंच चौड़ा) मेहनताने की कीमत रू २५०० से ३००० के बीच उपलब्ध हो सकता है।

Wednesday, July 13, 2011

शीशे के पार

 कई घंटों  लम्बी न रुकने वाली बरसात के एक दिन मैंने बेडरूम के रोशनदान के शीशे के पार  परिंदों का एक जोड़ा सिमटा सुरक्षित बैठा हुआ देखा...सार्थक साथ की जरुरत और इस से मिलने वाली सुरक्षा और सुकून की शिद्दत से समझ  आई...उस दृश्य को मोबाईल के कैमरे में कैद कर के आपके  पास भेज रहा हूँ...मुझे लगता है यह अपने आपमें एक सार्थक कविता है.                 -यादवेंद्र
                                                

Sunday, July 10, 2011

किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का

   धर की युवा कविता में हमें अतिवाद के दो छोर दिखाई देते हैं कुछ कवियों में शिल्प के प्रति अतिरिक्त सतर्कता है तो कुछ में घोर लापरवाही । अतिरिक्त सजगता के चलते जहां कविता गरिष्ठ एवं अबोधगम्य हुई है तो घोर लापरवाही के चलते लद्धड़ गद्य। अतिरिक्त सजगता का आलम यह है कि पता ही नहीं चलता है कि आखिर कवि कहना क्या चाह रहा है । दरवाजे से भारी सांगल मुहावरा इन कविताओं पर चरितार्थ होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कथ्य शिल्प के लिए नहीं होता है बल्कि कथ्य के लिए शिल्प होता है। ये कविताएं शिल्प के बोझ तले दम तोड़ती हुई लगती हैं। दूसरी ओर शिल्प के प्रति घोर लापरवाही के बीच यह ढूंढना मुश्किल हो जाता है कि अमुक कविता में वह कौनसी बात है जो उसे कविता बनाती है या गद्य से अलगाती हैं। ये दोनों ही स्थितियां  कविता के लिए अच्छी नहीं हैं । दोनों ही पाठक को कविता से दूर करती हैं । बहुत कम युवा कवि हैं जो इन दोनों के बीच का रास्ता अख्तियार करते हुए संतुलन बनाकर चलते हों। अशोक कुमार पांडेय इनमें से ही एक हैं । अशोक की कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। वह जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं।उनकी भा्षा काव्यात्मक है लेकिन उसमें उलझाव नहीं है। उनकी कविताएं पाठक को कवि के मंतव्य तक पहुंचाती हैं। जहां से पाठक को आगे की राह साफ-साफ दिखाई देती है।  यह विशेषता मुझे उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत लगती है। अच्छी बात है अशोक अपनी कविताओं में अतिरिक्त पच्चीकारी नहीं करते। उनकी अनुभव सम्पन्नता एवं साफ दृष्टि के फलस्वरूप उनकी कविता संप्रेषणीय है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं। उनकी कविताएं अपने इरादों में राजनैतिक होते हुए भी राजनैतिक लगती नहीं हैं। कहीं कोई जार्गन नहीं है। 
    
विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी कविताओं में कहीं भी विचारधारा हावी होती हुई नजर नहीं आती है जबकि उनकी विचारधारा ने ही उनकी कविताओं को एक धार प्रदान की है। विचार को अपने अनुभवों के साथ इस तरह गूंथते हैं कि उसे अलगाना संभव नहीं है। कहीं से लगता नहीं कि किसी विचार को साबित करने के लिए कविता लिखी गई है , बल्कि इंद्रियबोध सबकुछ कह जाता है। प्रतिबद्धता के मामले में न कहीं कोई समझौता करते हैं और न कोई भ्रम बुनते हैं। जनता का पक्ष उनका अपना पक्ष है । जनता के सुख-दु:ख उनके अपने सुख-दु:ख हैं। उनकी कविताएं अपने समय और समाज की तमाम त्रासदियों-विसंगतियों -विडंबनाओं - अंतर्विरोधों -समस्याओं पर प्रश्न खड़े करती है तथा उन पर गहरी चोट करती हैं। यही चोट है जो पाठक के भीतर  यथास्थिति को बदलने की बेचैनी और छटपटाहट पैदा कर जाती है। यहीं पर कविता अपना कार्यभार पूरा करती है। प्रगति्शील-सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी का प्रभाव इन कविताओं में देखा जा सकता है। ये कविताएं "फाइलों में टिप्पणियों" की तरह लिखी जा रही ढेर सारी कविताओं से अलग हैं। विश्वास को किसी " बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन' होने से बचाने के लिए प्रतिबद्ध कविताएं हैं। अशोक  कविता को जीवन-यथार्थ के नजदीक ले जाते हैं हमारे रोजमर्रा के जीवन को कविता की अंतर्वस्तुु में तब्दील कर देते हैं। अपने पास-पड़ोस के जीवन में कवि की तरह नहीं बल्कि एक " पड़ोसी ' की तरह हस्तक्षेप करते हैं। जीवन में हाच्चिए में खड़े लोग इनकी कविता के केंद्र में चले आते हैं। ये लोग यहाघ् प्रतिरोध की मुद्रा में खड़े दिखते हैं। जीवन की उष्ण ,अनगढ़ तेजोमय दीप्ति के साथ सक्रिय जीवन की उपस्थिति इन कविताओं में दिखाई देती है।  

शोक उस दौर से कविता लिख रहे हैं जो विश्व व्यवस्था में सोवियत ढंग के ढहने तथा नई आर्थिक नीतियों के लागू होने का दौर था। पर उनकी कविताओं से मेरा परिचय उनकी कविता की दूसरी पारी से हुआ जो 2004 के आस-पास से शुरू हुई। उनकी कविताओं की वैचारिक परिपक्वता ,स्पष्टता एवं प्रतिबद्धता ने पहले-पहल उनकी ओर मेरा ध्यान खींचा। आम जन-जीवन पर वै्श्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के प्रभाव को अपनी कविता के माध्यम से जितने साफ-सुथरे ढंग से अच्चोक समझते एवं व्यक्त करते हैं युवा कवियों में उतना अन्य बहुत कम कर पाते हैं। उनकी कविताओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मैं निरंतर पढ़ता रहा हूं। एक साथ पढ़ने का अवसर इसी वर्षा  शिल्पायन से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह  लगभग अनामंत्रित में मिला । इसमें 48 कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं में जीवन की विविधता दिखाई देती है। इनमें जहां एक ओर वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण के प्रभाव की कविताएं है तो दूसरी ओर प्रेम की कोमल एवं सघन अनुभूति की भी। "प्रका्श की गति से तेज हजार हाथियों के बल वाला बाजार" और उसके "अंधेरों के खौफनाक विस्तार के खिलाफ" लड़ते हुए मजदूर-किसान उनकी कविताओं में हैं।  " वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर"' हैं तो चाय बेचता अब्दुल और जगन की अम्मा भी। छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा के जंगलों में अपनी जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ते आदिवासी हैं तो अपनी आजादी के लिए लड़ती कच्च्मीरी जनता भी।गुजरात में साम्प्रदायिक कल्तेआम के बाद सहमे-सहमे मुस्लिमों और पिछले बारह साल से अनशन कर रही इरोम शर्मिला ,अहमदाबाद की नाट्यकर्मी फरीदा ,सींखचों के पीछे कैद सीमा आजाद को भी वे भूले नहीं हैं। स्त्रियों पर  उनकी अनेक कविताएं हैं जो हमें स्त्री संसार की अनेक विडंबनाओं एवं मनोभावों  से परिचित कराती हैं। सामाजिक रूढ़ियां ,विवाह संस्था की सीमाएं और ऑनर किलिंग भी कवि की चिंता की परिधि में हैं। इस तरह ये कविताए अपने चारों ओर के जीवन से संलाप करती हैं।
  
शोक कुमार पाण्डेय की कविताएं अपने समय तथा समाज से मुटभेड़ करती कविताएं हैं। समय की आहटों को कवि बहुत तीव्रता से सुनता और कविता में दर्ज करता है । समय की आंक उनके भीतर गहरे तक है।समाज में व्याप्त  शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार से पैदा बेचैनी और उसके प्रति पैदा आक्रोश से शुरू होता है उनकी कविताओं का सिलसिला और उसके प्रतिपक्ष तक जाता है।  यह एक ऐसा समय है जिसमें एक युवा के सारे सपने एक अदद नौकरी पाने तक सिमट के रह जा रहे हैं जबकि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी और नौकरी जिंदगी की मजबूरी बन गई । बहादुरी किसी विवशता का परिणाम ।" एक सैनिक की मौत"  कविता में यह भाव सटीक रूप से व्यक्त हुआ है। निजीकरण के कारण आज सेना ,पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के अलावा नौकरी अन्यत्र रह नहीं गई है। यहां भी इसलिए है क्योंकि यह शासक वर्ग की जरूरत है। इन्हीं के बल पर तो हमारे दलाल शासक जनता के संसाधनों पर कब्जा जमाकर उन्हें बेदखल करने में लगे हुए हैं। इन्हीं के रहते हथियारों का व्यापार फल-फूल रहा है। इन नौकरियों रहते हुए जहां गरीब युवा भरती की भगदड़ में बच जाता है तो बारूदी सुरंगों में फघ्सकर मारा जाता है और " शहीद" हो जाता है । यह शहीद होना भी इसलिए नहीं कि वास्तव में दे्श के सामने कोई खतरा पैदा हो गया हो बल्कि किसी बहुरा्ष्ट्रीय कंपनी जो युद्ध का सामान बनाती है को लाभ पहुंचाने के लिए । दो देशों के बीच युद्ध किसी तीसरे के लाभ के लिए प्रायोजित होता है। इस युद्ध में शहीद होते हैं गरीब के बेटे। अशोक की यह कविता इस पूरे षड्यंत्र को पहचानती और हम सबको उससे सचेत करती है। वे पाते हैं कि इन्हीं के कारण जलियांवाला बाग फैलते-फैलते हिंदुस्तान बन गया है और देश इन दिनों बेहद मु्श्किल में है । पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक अपने संसाधनों के हक-हकूक की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को जंगली और बर्बर तथा उनकी चीत्कार को अरण्यरोदन साबित करने में लगे हैं। यह सब सुनियोजित तरीके से हो रहा है। जंगल की शांति को अशांति में बदला जा रहा है। आदिवासियों का पिछड़ा ,असभ्य और असंस्कृत कहा जा रहा है । उनकी भाषा-संस्कृति को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। विकास के नाम पर उन्हें उनके घरों से खदेड़ा जा रहा है। जो इससे इनकार कर रहे हैं उन्हें अपराधी व राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है। इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्का" इस पूरे परिदृश्य को हमारे सामने गहराई से उदघाटित करती है। पूंजी परस्त शासक वर्ग की मानसिकता के  ताने-बाने को पूरा खोलकर पाठक के सामने ले आती है- उन्हें बेहद अफसोस / विगत के उच्छिष्टों से / असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए / मनु्ष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर / थोड़ी दया ,थोड़ी घ्रणा और थोड़े संताप के साथ/ आदिवासी कहते उन्हें / उनके हंसने के लिए नहीं कोई बिंब /रोने के लिए शब्द एक पथरीला-अरण्यरोदन। इस वर्ग द्वारा इनकी हमे्शा कैसी उपेक्षा की गई इन पंक्तियों में बहुत अच्छी तरह व्यक्त हुआ है- हर पुस्तक से बहिश्क्रत उनके नायक /राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति / साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की /पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुंडा/किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का / जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिंधू-कान्हू। इस उपेक्षा और शोषण के खिलाफ यदि कोई आवाज उठाता है तो वह अपराधी और राष्ट्रद्रोही घोषित कर  कुचल दिया जाता है- हर तरफ एक परिचित सा शोर / अपराधी वे जिनके हाथों में हथियार/अप्रासंगिक वे अब तक बची जिनकी कलमों में धार/वे दे्शद्रोही इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज/कुचल दिए जाएंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ। आदिवासियों का शोषण-उत्पीड़न हो या फिर किसानों की आत्महत्या कवि भली भांति जानता है कि इसके पीछे कौनसी ताकतें काम कर रही हैं-पूरी की पूरी फौज थी जादूगरों की /चली आई थी सात संमुदर पार से / शीशे-सी चमकती नई-नवेली सड़कों से / सरपट सवार दिग्विजयी रथों पर / हमारा सबसे ईमानदार नायक था सारथी। ऐसे में कवि का यह कहना बहुत प्रीतिकर लगता है - सदियों के विषपायी थे हम/वि्ष नहीं मार सकता था हमें। जनता का पक्षधर और उसकी ताकत पर वि्श्वास रखने वाला कवि ही इतने विश्वास और दृढ़ता से यह बात कह सकता है। 

क सच्चा संवेदनशील कवि कभी भी आधी दुनिया की उपेक्षा नहीं कर सकता है।  इन कविताओं का सबसे सघन एवं आत्मीय स्वर स्त्री विषयक है । संग्रह में सबसे अधिक कविताएं स्त्रियों से संबंधित हैं।वहां प्रेम भी है स्त्री विमर्श भी और पुरू्ष प्रधान सामंती मानसिकता पर करारी चोट भी । गहरी आत्मीयता के साथ बौद्धिक परिपक्वता भी। माघ् -पत्नी-बेटी -प्रेमिका के माध्यम से वे स्त्रियों की स्थिति पर अपनी बात बहुत तर्कपूर्ण ढंग से कह जाते हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए पता चलता है कि अपने व्यक्तिगत एवं पारिवारिक संबंधों के प्रति संवेदन्शील और ईमानदार व्यक्ति ही बाहरी दुनिया के प्रति सच्चे रूप में संवेदनशील हो सकता है। " उदासी माघ् का सबसे पुराना जेवर है---तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका---माघ् के चेहरे पर तो / कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान--- '' अलग-अलग कविताओं ये पंक्तियां साबित करती हैं कि कवि स्त्री की पीड़ा को कितनी गहराई महसूस करता है।
   
वंश-परम्परा का आगे बढ़ना पुत्र से ही माना जाता है । इस बात को औरतें भी मानती हैं। उन्हें अपना नाम वश-वृक्ष में कहीं नहीं आने पर दु:ख नहीं होता है , दु:ख होता है तो इस बात पर कि अगली पीढ़ी में वंश-वृक्ष को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है । कवि इसको तोड़ना चाहता है और धरती को एक नाम देना चाहता है । अर्थात लड़की को वंश-वृक्ष का वाहक बनाना चाहता है। सारा परिवार दु:खी है " कि मुझ पर रुक जाएगा खानदानी शजरा "' लेकिन कवि अपनी बेटी से पूरी दृढ़ता से कहता है - कि विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा वह शजरा / वह तो शुरू होगा मेरे बाद / तुमसे ! ये शब्द जहां रूढियों का खंडन करते है वहीं स्त्री को समानता का दर्जा प्रदान करते हैं।कवि को लगता है पुरानी पीढ़ी को बदलना कठिन है इसलिए वह नई पीढ़ी से इसकी शुरूआत करना चाहता है।भ्रूण हत्या के इस दौर में कवि का यह संकल्प मामूली नहीं है। यह सामंती मूल्य का प्रतिकार है। इन कविताओं में नारी के प्रति कवि के मन का सम्मान भी प्रकट होता है। वही व्यक्ति स्त्री को धरती का नाम दे सकता है जो सचमुच उसका सम्मान करता हो। वही अपने भीतर औरत को टटोलना चाहता है ,उसकी भाषा में बात करना चाहता है उससे , उसी की तरह स्पर्श करना चाहता है उसे। अशोक यहां अपनी माघ् के दु:खों को याद करते हुए  स्त्री मात्र के दुख को स्वर देते हैं। कवि को चूल्हा याद आता है तो याद आ जाती है माघ् की -चिढ़-गुस्सा -उकताहट -आंसू  / इतना कुछ आता है याद चूल्हे के साथ / कि उस सोंधे स्वाद से / मितलाने लगता है जी--- ये चिढ़ ,गुस्सा ,उकताहट ,आंसू केवल कवि की माघ् के नहीं हैं बल्कि पूरी स्त्री जाति के हैं जो कल्पों से चूल्हे-चौखट तक सीमित है। यहां चूल्हे की याद से जी मितलाना इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना है जिसने स्त्री के जीवन को नरक बना दिया ।  " माघ् की डिग्रियां"' कविता में अपने परिवार के प्रति  औरत का समर्पण दिखाया गया है । बालिकाओं के रास्ते में आने वाली कठिनाइयां भी यहां दर्ज हैं। कैसी विडंबना है यह एक स्त्री जीवन की कि पढ़ने-लिखने के बाद भी किसी स्त्री के आंखों में जो स्वप्न चमकता है वह है - मंगलसूत्र की चमक और सोहन की खनक का। ऐसा क्यों होता है ? यह कविता उस ओर सोचने के लिए प्रेरित करती है। इसकी जड़ बहुत दूर तक जाती है । आखिर क्यों होता है ऐसा कि किसी लड़की की डिग्रियाघ् ही दब जाती हैं चटख पीली साड़ी के नीचे ? घर परिवार के लिए उसको ही क्यों करने पड़ते हैं अपने सपने कुर्बान ?अशोक  कामकाजी महिलाओं  के दोहरे बोझ को भी गहराई से समझते हैं। उनकी जीवनचर्या को लेकर " काम पर कांता" बेहद खूबसूरत कविता है। कांत के बहाने कामकाजी महिलाओं की घर-बाहर की परिस्थितियों को बारीकी से चित्रित किया गया है । इन महिलाओं की दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरू हो जाती है और रात ग्यारह बजे तक चलती रहती है। ये शारीरिक-मानसिक रूप से इतने अधिक थक जाती हैं कि कभी स्वर्गिक सुख की तरह लगने वाली प्रेम की सबसे घनीभूत क्रीड़ा भी रस्म अदायगी में बदल जाती है। सकून भरी जिंदगी उनके लिए नींद में आने वाले स्वप्नों की तरह हो जाती है। अक्सर यह कहा जाता है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर औरत अपने जीवन को अपने तरीक से जीने के लिए स्वतंत्र होती है। क्या यह सही है ? यह कविता उस ओर सोचने को आमंत्रित करती है। 
 
संग्रह की पहली कविता है - सबसे बुरे दिन । इस कविता में वर्तमान के बारे में बताते हुए भविष्य की क्रूरता की ओर संकेत किया गया है । कवि का मानना है कि अभाव की अपेक्षा अकेलापन अधिक बुरा है । अकेलेपन में चाहे कितनी ही सुख-सुविधाएं हो वे सब तुच्छ हैं - बुरे होंगे वे दिन /अगर रहना पड़ा/सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला । नई अर्थव्यवस्था यही कर रहीं है -व्यक्ति को सुख-सुविधा तो दे रही है लेकिन उससे उसका संग-साथ ,उसका सुकून ,उसकी स्वाभाविकता ,उसकी उमंग छीन ले रही है। उसे अकेला कर दे रही है। यहाघ् कवि का सामूहिकता के प्रति आग्रह सामने आता है। कवि जिन बुरे  दिनों के आने की आशंका व्यक्त कर रहा है दरअसल वे आ चुके हैं । आज "विश्वास किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के विज्ञापन" की तरह हो गया है और "खुशी घर का कोई नया सामान" जो चंद दिनों में ही पुरानी और फीकी पड़ जा रही है। समझौता आज के आदमी की आदत बन गई है। नि:संदेह ये सबसे बुरे दिन हैं। 
 
दारीकरण के दौर में जीवन बदलता जा रहा है न चाहते हुए भी व्यक्ति बाजारवाद के गिरफ्त में फंसता जा रहा है।बाजार हमारे आंखों में रंगीन सपनों की फसलें रोप रहा है। जो जरूरी भी नहीं है उसे भी हमारी जरूरत बना रहा है। बाजार में सतरंगे प्लास्टिकों में पैक सामान हमारे गुणवत्ता पूर्ण उत्पाद को बाहर कर दे रहा है। ये सारी प्रक्रिया चुपके-चुपके होती जा रही है किसी को कुछ पता तक नहीं चल रहा है । लोगों के संभलने तक बाजार अपना काम कर ले जा रहा है। छोटे-छोटे धंधे करने वाले लोग उजड़ते जा रहे हैं। सतरंगे पैकों में बंद चीजें न केवल कुटीर उद्योग-धंधों को निगल रही हैं बल्कि उन आत्मीय संबंधों को भी निगल गई हैं जो क्रेता-विक्रेता के बीच होता था वो ऐसा संबंध नहीं था जो किसी लाभ-हानि के आधार पर बनता-बिगड़ता हो।खून के रिश्तों की तरह था वह।   " कहां होगी जगन की अम्मा" इसी व्यथा की अभिव्यक्ति है। बेटी के लिए अंकल चिप्स खरीदते हुए कवि की चिंता फूटती है- क्या कर रहे होंगे आजकल / मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ ? श्रम करने वाले हाथों की चिंता केवल जन सरोकारों से लैस कवि को ही हो सकती है।
   शोक की कविताओं में यत्र-तत्र व्यंग्य भी मिलता है। यह और बात है कहीं-कहीं यह व्यंग्य पूरी तरह उभर नहीं पाया है जैसे " किस्सा उस कमबख्त औरत का' कविता में। " वे चुप हैं' सत्ता से नाभिनालबद्ध बुद्धिजीवियों पर करारा व्यंग्य है । अच्चोक चुप्पी को जिंदा आदमी के लिए खतरा मानते हैं । इस कविता में एक ओर सत्ता तो दूसरी ओर उससे नजदीकियां गांठकर लाभ लेने वाले लोगों के चरित्र को उघाड़ा गया है।"एक पुरस्कार समारोह से लौटकर", " अच्छे आदमी " भी अच्छी व्यंग्य कविता है। 
   
वि का मानना है कि इस दुनिया में न प्रकृति का सौंदर्य बचा न शब्दों का वैभव और न भावों की गहराई । " दे जाना चाहता हूं" कविता ऊब और उदासी भरी इस दुनिया का एक सच बयान करती है - खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न/ और न बंदूकें/ बस बिखरी हैं यहां-वहां / नीली पड़ चुकी लाशें / सच मानो / इस सपनीले बाजार में / नहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारी - जिसे हम अपनी अगली पीढ़ी को दे सकें - नहीं बचा किसी शब्द में इतना सच /नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र। इस सब के बावजूद कवि की सद्भावना है - बस/ समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में / जितना बचा है संघर्षों का उजाला / समेट लेना चाहता हूं अपनी कविता में । और इसे ही कवि उम्मीद की तरह नई पीढ़ी को देना चाहता है। यह बहुत बड़ी बात है कि कवि संघर्षों में ही उजाला देख रहा है और यही है जो चारों ओर फैले तमाम तरह के अंधकारों का अंत करेंगे। संघर्ष पर विश्वास अंतत: जनता की शक्ति पर वि्श्वास है। जनता का कवि ही जनता की शक्ति और उसके संघर्षों पर इतना विश्वास रख सकता है।
  
शोक कुमार पाण्डेय की  कविताओं में उदासी-निराशा बहुत आती है। उनके लिए यह दुनिया ऊब और उदासी भरी हुई है जहां उदासी मां का गहना है ---,जिसके पास चटख पीली लेकिन उदास साड़ी है ,--- उदास हैं दादी ,चाची ,बुआ ,मौसी ---,चूल्हा लीपते हुए गाया करती है बुआ गीतों की उदास धुनें ,--- उदास कंधों पर सांसों को जनाजे की तरह ढो रहे हैं साम्प्रदायिकता के दंश से डसे  गुजरात के मुसलमान ,--- बारुद की भभकती गंध में लिपटे काले कपोत नि:शब्द -निस्पंद -निराश हैं,--- लौटा है अभी-अभी आज के अंतिम दरवाजे से /समेटे बीस जवान वर्षों की आहुति उदास आंखों में ,--- सदियों से उदास कदमों से असमाप्त विस्थापन भोग रहे आदिवासी ------यहां दफ्तर भी हैं जहां थके हुए पंखे बिखेरते हैं घ्ब और उदासी पर यह उदासी-निराशा इस अर्थ में नहीं कि सब खत्म हो गया है ,अब कुछ नहीं हो सकता है ,भगवान ही मालिक है इसका ,बल्कि इस अर्थ में कि इससे बाहर निकलने की आवश्यकता है । यह जितनी जल्दी हो सके इसको बदल देने की तीव्र लालसा पैदा करती है। संघर्ष इसका एकमात्र उपाय है। अंधेरे पक्ष को उदघाटित करने के पीछे कवि की उजाले की आकांक्षा छुपी है। वे अपनी कविता के माध्यम से बीजना चाहते हैं विश्वास उन हृदयों में जो बेचैन हैं ,हताश हैं ,निरा्श हैं जिनके सपने झुलसाए हैं लेकिन जिंदा हैं तथा जो संघर्षरत हैं। वे भर देना चाहते हैं आंखों में उमंग ,स्वरों में लय ,परों में उड़ान । " उम्मीद" और " विश्वास ' कवि के प्रिय शब्द हैं । कवि की दृढ़ आस्था है कि पार किए जा सकते हैं इनके सहारे गहन अंधकार ,दु:ख और अभावों के अनंतमहासागर । कवि खुद से ही शुरू करना चाहता है संघर्षों का सिलसिला गाता हुआ मुक्तिगान और तोड़ देना चाहता है सारे बंधनों को। वह कहता है - लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खामोश/लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं / लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़ बिन / लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक। यह पंक्तियां जीवन तथा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने वाला कवि ही लिख सकता है। 
  
स सब के अतिरिक्त अशोक की कविताओं में कहीं मां का संवलाया चेहरा दिपदिपाता है तो कहीं पसीने की गुस्साइन गंध कहीं जेठ के जलते सीने पर अंधड़ सा भागता " बुधिया" जो - पार कर लेना चाहता है /दु:ख के बजबजाते नाले / अभावों से उफनते महासागर /दर्द के अनगिनत पठार । " बुधिया" उस सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि है जो वर्गीय व्यवस्था में हमेशा से शोषण का शिकार होता आ रहा है ,जिनसे सपने सदियों से रूठे हैं ,भूख जिनकी नियति है-जहां बच्चों को नहीं होती सुविधा /अठारह सालों तक /नाबालिग बने रहने की । जो कभी नहीं आते " अच्छे आदमी ' की श्रेणी में क्योंकि - अच्छे आदमी के /कपड़ों पर नहीं होता कोई दाग/ घर होता है सुंदर सा / पत्नी-सु्शील-बेटा मेधावी -बेटी गृहकार्य में दक्ष!--- संतोष एक पवित्र शब्द होता है जिनके शब्दको्श का जो चुपचाप नजरें झुकाए गुजर जाते हैं बाजार से/ जिन्होंने दूर ही रखा जीभ को स्वाद से पैरों को पंख से/आंखों को ख्वाब से। यही लोग हैं जिनकी आवाज को अपना स्वर देती है अशोक की कविताएं। इसी तरह के लोगों पर एक कविता है " उधार मांगने वाले लोग" जो उधार मांगने वालों की विवशता को व्यक्त करती है , उन हाथों की दास्तान को जो दूसरों के आगे पसरने को विवश हैं- मरे व नर मरने के पहले बार-बार/ झुका उनका सिर / और मुंह को लग गई आदत छुपने की / लजाई उनकी आंखें और इतना लजाई / कि ढीठ हो गई । यह कविता उन कारणों की ओर भी संकेत करती है कि आदमी अपना स्वाभिमान क्यों और कैसे खोते हैं ? ये कारण कहीं न कहीं व्यवस्थागत हैं - जान ही न हो शरीर में / तो कब तक तना रहे सिर ? / भूख के आगे /बिसात ही क्या कहानियों की ।
    
शोक की कविताएं पढ़ते हुए कहीं पाश ,कहीं धूमिल ,कहीं मुक्तिबोध तो कहीं नागार्जुन याद हो आते हैं । यह अच्छी बात है कि एक जनवादी कवि में उसकी पूरी परम्परा बोल उठती है और विस्तार पाती है । इस आधार पर  यह कहना होगा कि कवि दायित्व के प्रति सजग तथा मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित इस युवा कवि में अपार संभावना दिखाई देती हैं। वे सामंतवादी-साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विकल्पों को खारिज करते हुए नया वैज्ञानिक , जनपक्षीय और श्रमपक्षीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं।

- महेश चंद पुनेठा