Wednesday, September 2, 2015

भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता के पूर्व प्रसंग

यह आलेख इलाहाबाद से भाइ्र संतोष चतुर्वेदी के सम्‍पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका अनहद में प्रकाशित हुआ है। हिन्‍दी कहानियों के जरिये समाज में व्‍याप्‍त ओर कला साहितय को प्रभावित करती गंवई आधुनिक प्रवृत्तियों को समझने की कोशिश की यह दूसरी कड़ी है। इससे पूव्र एक आलेख हिन्‍दी चेतना में प्रकाशित हुआ। यहां क्लिक करके उसे पढ़ा जा सकता है। इस कड़ी का तीसरा आलेख कथाकार उदय प्रकाश की कहानी 'मोहन दास', अखिलेश की 'ग्रहण' और अरूण कुमार असफल की कहानी 'पांच का सिक्‍का' को आधार बना कर लिखा जा रहा है। अनहद के अगले अंक में उसको पढ़ा जा सकेगा। आगामी आलेख की योजना संभवत: कथाकार अल्‍पना मिश्रा, नवीन नैथानी और कुमार अम्‍बुज की कहानियां से गुजरते हुए गंवइ आधुनिक समय के साथ विकसित होती भाषा को समझने की कोशिश के तौर पर रहेगी। पाठकों की बेबाक राय के बिना मेरे लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। अत: विनम्र निवेदन है कि निसंकोच अपनी राय जरूर दें और मुझे इस विषय को समझने का मार्ग सुझाएं। 

विजय गौड़


इस वक्त तीन ऐसे कथाकरों के संग्रहों के साथ हूं, जिनको पिछले कुछ समये से प्रचलन में आयी संज्ञा 'युवा कहानीकार और उनकी रचनाओं को 'युवा कहानी' कहा जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के चरणबद्ध इतिहास में निर्धारित हुए आधुनिक काल के भीतर जारी साहितियक आंदोलनों की इस सबसे नयी संज्ञा वाले आंदोलन की विशेषतायें क्या हैं ? किन रचनाओं को इसमें अटा हुआ माने जाये ? ऐसे कोर्इ स्पष्ट मानदण्ड तो मेरे देखे में नहीं है। इसीलिए रचनाओं को अलग अलग आंदाेंलनों के साथ पहचानना मेरे लिए हमेशा मुशिकल रहा है। हां, सबसे नयी संज्ञा 'युवा कहानी आंदोलन से मेरा परिचय आधुनिक काल के साहितियक इतिहास में गिनाये गये अन्य कहानी आंदोलनों की तरह ही हुआ। आंदोलन विशेष के साथ रचनाकारों के नाम गिनाऊ आलोचनाओं ने ही कथाकारों के नामें से भी परिचित कराया है। यदि रचनाओं के साथ रचनाकार का नाम न हो और रचना पहले से  संज्ञान में भी न हो तो मैंने हमेशा महसूस किया है कि अमुक रचना को किस आंदोलन के से देखा जाये, यह तय करने में मैंने हमेशा परेशानी महसूस की है। जहां तक मेरा अनुमान है, यह समस्या मुझ अकेले की ही नहीं है बल्कि बहुत से दूसरे लोगों की भी हो सकती है। सबसे ज्यादा तो उस आलोचना की होनी चाहिए जो आंदोलन की प्रवृत्तिजन्य विशेषताओं में रचना की व्याख्या करना चाहेगी।

मेरा मानना है कि रचनाओं की प्रवृत्ति, उसमें व्यक्त होते दौर विशेष की सामाजिक चेतना से पहचानी जा सकती है। उससे भिन्न उसका कोर्इ अस्तित्व हो नहीं सकता। इस तरह से देखें तो हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल जिस सामाजिकी में विकसित हुआ, उसकी प्रवृत्तियां भी रचनाओं में साथ साथ मौजूद रही। विधागत भिन्नताओं में भी उन्हें खोजना मुशिकल नहीं। हां, यह जरूर है कि कथा साहित्य के जरिये उसको पहचानना ज्यादा आसान है। बहुत धीमी गति से बदलती सामाजिकी आजादी के आदाेंलन से आज तक एक सतत प्रवाह में रही है।  जिक्र किये जा रहे संग्रहों की रचनाओं की  पृष्ठभूमि हाल ही में गुजर गये और साथ-साथ गुजर रहे समय वाली है। सवाल है कि क्या है वह रोजमर्रा का जीवन ? क्या है उसकी सामाजिकी ? और कैसे चरणबद्ध तरह से वह लगातार विकास करती रही ? साथ ही, रचनाओं में उसके ज्यों का त्यों आ जाने के मायने क्या है ?

संदर्भित कथा संग्रहों की रचनाओं की समकालीन प्रवृतित को जानने के लिए वैश्विक स्तर पर होने वाले बदलावों के प्रभाव में असरकारी रही स्थानिकता को समझना जरूरी है। देख सकते हैं कि इस बिन्दु से गुजरते ही बहुत कुछ साफ दिखायी देने लगता है और हिन्दी कथा साहित्य की प्रवृत्ति का इतिहास भी खुद ब खुद तार्किक परिणति पाने लगता है। यूं भी उसके लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जारी आजादी के संघर्ष के साथ ही हम अपने समय की आधुनिकता को पहचानते रहे हैं। वही समय, जब प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही वैशिवक पूंजी ने यह भली भांति जान-समझ लिया था कि शुरू हो चुके दुनियावी बदलावों के माहौल में प्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों को कायम रखना अब संभव नहीं। परिणामत:, अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों की विश्व व्यवस्था को विस्तार देने के लिए नये प्रारूपों के मायाजाल तैयार करना उसकी प्राथमिकता हो गया और द्वितिय विश्वयुद्ध के अंत के साथ ही वह अपने प्रत्यक्ष शासन वाले औपनिवेशिक चेहरे से किनारा करने का रास्ता तलाशने लगी। अपने प्रति नरम रुख रखने वाले स्थानीय नेतृत्व को इक्टठा करके सरकार बनाने की लेने की प्रक्रिया तक वह प्रत्यक्ष दिखायी देती है लेकिन सत्ता की बागडोर बनवा दी गयी स्थानिक सरकारों के हवाले कर देने के बाद से उसके प्रत्यक्ष रूप को देखना तो उन क्षणों में भी संभव नहीं हुआ जब आधुनिक से आधुनिक हथियारों से सुसज्जित उसकी सेनायें देश विशेष की सीमाओं के भीतर घुस कर आदिम हवलावरों की तरह आक्रामक होती रही हैं। स्थानीय नेतृत्व के सहयोग से बनवा दी गयी सरकारोंं के मुख्य घटक उसके तय किये गये उसे खेमे से रहे जिन्हें उसने काफी हद तक अपने मंसूबो के करीब पाया। सामान्य जन का एक सीमित धड़ा, जो औपनिवेशिकता के प्रति तीखा नहीं था, और जनभागीदारी के चलते अप्रसांगिक हो चुके प्रभुवर्ग लोग उसे इसके लिए सबसे अनुकूल नजर आये। अप्रसांगिक हो चुके प्रभु वर्गं के लिए भी यह एक स्वर्णिम अवसर था, कि पुन: अपनी पूर्व सिथति को प्राप्त कर सके और शासन की बागडोर को अपने हाथ में ले ले। जैसे भी हो, जल्द से जल्द वह सत्ता हस्तातंरण की प्रक्रिया को निपटवा लेना चाहता था। खूनी जंग भरा बंटवारा तक उसके मंसूबों को रोक नहीं सकता था। चोला बदलकर सत्ता हासिल करने की उसकी रणनीति वैशिवक पूंजी के ऐसे मंसूबों को भी साधती थी जिसके जरिये तख्ता पलट कर आवाम का राज कायम करने वाली सिथतियाें से बेखौफ हुआ जा सकता था। सामान्य जन का वह सीमित धड़ा तो सामाजिक पिछड़ेपन से निपटना चाहता था और औपनिवेशिक शासन की उन खूबियों का कायल था जो सामाजिक बदलाव की उसकी कार्रवाइयों का पक्षधर ही थी। भारतीय मध्यवर्ग का यह सबसे आधुनिक चेहरा था और यकीनन ज्ञान विज्ञान के साथ विस्तार लेती आधुनिकता के प्रभाव में राष्ट्रवादी होते हुए भी शासन के स्तर पर किसी बड़े बदलाव के प्रति बहुत मुखर नहीं होना चाहता रहा।  और देखते देखते, जनतंत्र का छदम फैलाती शासन व्यवस्थाओं ने पांव पसारने शुरू किये।

शोषण का चक्र चलाती शासन व्यवस्था के खिलाफ शुरू हो चुकी शोषितों की जंग और जंग में विजय की स्थितियों से निपटने के लिए वैशिवक पूंजी कल्याणकारी राज्यों की अवधारणा वाले अर्थतंत्र के साथ समाने आ रही थी। अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियंत्रण को पूरी तरह से कायम करने में उसे वह माडल ज्यादा असरकारी दिख रहा था। तीसरी दुनिया के प्रभु वर्ग को भी ऐसे ही शासन प्रसाशन वाले माडल के नुस्खे दिये गये। अपने हितों की सुरक्षा के लिए भी प्रभु वर्ग को माडल भा रहा था। जनता के एक छोटे हिस्से को थोड़ी सुविधा जनक स्थिति में आने के अवसरों को मुहैया कराते हुए सामाजिक विभेद की गहरी खार्इ को खोदना उसके लिए आसान था। आजादी का झूठ रचती ये ऐसी स्थितियां थी जो राष्ट्रवाद का विभ्रम भी फैलाने लगी और झूठी राष्ट्रवादी ताकतों को भी आवाम के बीच घुसपैठ करने का मौका देने लगी और खतरनाक मंसूबों के साथ समाज को बांटने असरकारी होने लगीं। आवाम के लिए ऐसी स्थितियों में राष्ट्रवादी उभार के सच और झूठ को पहचानना मुश्किल भी रहा। और बाजार के विस्तार और उसके लिए ही अपना सर्वोच्च न्यौछावर कर देने वाले झूठे नायकों को ही जननायक नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाला प्रभुवर्ग झूठे राष्ट्रवाद को ही वास्तविक राष्ट्रवाद के रूप में प्रचारित करने में सफल होता रहा।

विकासक्रम की इस समूची प्रक्रिया में प्रभु वर्ग पूरी तरह सामंती मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध था लेकिन आधुनिकता चेतना के साथ गठजोड़ करना उसकी मजबूरी थी। निर्णायक भूमिका में होने के कारण पुरातन चेतना ने न सिर्फ आधुनिक मूल्यबोध की गति को अवरूद्ध करना शुरू किया बल्कि किसी भी नये विचार की स्वीकारोक्ति को उन पिछड़ी मान्यताओं की नैतिकता के आधार पर ही प्राथमिक मानने की सिथति पैदा की। कानून लिखी हुर्इ किताब होने लगा और उसके लागू होने की स्थितियां सीट पर बैठे व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करने लगी। चैराहे पर खड़े सिपाही की सीटी की आवाज या उसका उठा हुआ हाथ ही वह निर्देश हो गया जिस पर सवाल उठाना तक भी राष्ट्रद्रोह करार दिया जा सकता था और दिया भी जाने लगा। आधुनिक होने की चाह रखते हुए भी पिछड़े मूल्यबोध को ही पैमाना मानकर हमेशा किलशने, कलपने वाली इन स्थितियों ने एक ऐसे मध्यवर्ग को जन्म दिया जो दिखते हुए तो आधुनिक होना चाहता था लेकिन गंवर्इ पिछड़ेपन से भी उसे ऐसा परहेज न रहा कि उसके विरूद्ध निर्णायक संघर्ष ही छेड़ दे। साहित्य के भीतर उसकी सीमायें, संवेदनाओं का जागरण करने के बावजूद, निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष न चुन पा रहे पात्रों के रूप में जगह पाने लगी। एक ओर आधुनिक मूल्य चेतना और दूसरी ओर पुरातनपंथी सांस्कृतिक मूल्य, आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये जाने लगे। ऐसे ही मंसूबों की कामयाबी के लिए उस शिक्षा पद्धति को ही आधुनिक कहकर स्वीकार्य बनाया जाने लगा, जो नये किस्म के गुरूकुलों वाली थी। सांस्कृतिक निर्माण की इस पूरी प्रक्रिया ने समाज को इस कदर 'गंवर्इ आधुनिक बनाये रखा कि आधुनिकता के वास्तविक मायने क्या हो सकते हैं, लगातार विकसित होता मध्यवर्ग उसके कोर्इ ठोस पैमाने तय करने में अक्षम हुआ। प्रवृत्तियों के आधार पर रचनाओं को विश्लेषित न कर पाने की आलोचना ने ऐसे आधुनिक काल को ही भिन्न भिन्न साहितियक आंदोलनों वाली संज्ञाओं से विभूषित करने में ही अपने होने को सार्थकता दी। जबकि रचनाओं को समाज की मूल प्रवृतित के संग साथ 'गंवर्इ आधुनिकता से परिभाषित करना ज्याद तार्किक हो सकता था। मनोगत आधार पर व्याख्याओं की ये स्थिति सिर्फ साहित्य के क्षेत्र का ही मसला नहीं रही बलिक आजादी के बाद विकसित होते गये भारतीय समाज की ऐसी प्रवृत्ति के रूप में दिखायी देता है जिसने ज्ञान-विज्ञान से लेकर जीवन के कार्यव्यापार के हर क्षेत्र को गंवर्इ-आधुनिक बनाये रखने में कोर्इ कसर नहीं छोड़ी। झूठ, मक्कारी, धोखेबाजी, दलाली जैसी गतिविधियां सार्वजनिक मंचों पर सम्मान की हकदार होने लगी। किसी भी गैर तार्किक और भ्रष्ट सिथति पर आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए भी भिन्न स्थिति में खुद वैसा ही व्यवहार करती गंवर्इ मानसिक बुनावट वाले समाज का ताना बाना विस्तार लेता रहा। वैशिवक पूंजी की चमक और जटिल होते जा रहे सामाजिक ढांचे के बीच आधुनिकता के नाम पर में ऐसे आदर्श भी निशाने पर रखे जाने लगे, जो सांझी विरासत की सामाजिक जिम्मेदारियों से भरे थे। सहयोग, ममत्व और संवेदनाओं भरे व्यवहार को पिछड़ा समझा जाने लगा। लगातार की इन स्थितियों के चलते गंवर्इ आधुनिकपन में डूबी मध्यवर्गीय मानसिकता बहुत आधुनिक दिखने की चाह में सहमति और असहमति को स्पष्ट रखने से परहेज करते हुए भले भले का पाठ होने लगी।

देख सकते हैं कि कथा साहित्य के भीतर मौजूद यह सत्तता ही वह ताना बाना बुनती रही जिन्हें भिन्न भिन्न संज्ञाओं वाले साहितियक आंदोलनों से पहचानने की कोशिश की गयी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आंदोलनं विशेष की खास-खास प्रवृतितयों को चिहिनत करना जरूरी नहीं समझा गया।

जिक्र की जा रही तीनों किताबों की रचनायें न सिर्फ रचनाकारों की पृष्ठभूमि वाले भौगोलिक स्थिति के कारण जुदा है बलिक संवेदना के स्तर पर भी भिन्न सामाजिक रिश्तों के साथ हैं। जहां एक में पहाड़ी जनमानस की तकलीफें हैं तो बाकी दो में मैदानी क्षेत्रों का कस्बार्इ समाज और कुछ कुछ शहराती क्षेत्रों का घटनाक्रम। पहाड़ के भूगोल पर दिनेश कर्नाकटक का कथा संग्रह ''पहाड़ में सन्नाटा। कस्बार्इ जनसमाज पर केनिद्रत कथानकों वाली विमल चन्द्र पाण्डेय की किताब ''उत्तर प्रदेश की खिड़की जिसमें मैंदानी क्षेत्रों के गांव की झलक भी दिखती ही रहती है और दीपक श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ''सत्तार्इस साल की सांवली लड़की जो अपनी कथाओं में कस्बे से शहर की ओर प्रसार करते जीवन की झलक लिये है। तीनों ही किताबों को पढ़ने के बाद एकाएक जो कहते बन पड़ रहा है वह यही कि उपरोक्त चिहिनत की गयी गंवर्इ-आधुनिकता भौगोलिक पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं रहती बलिक संवेदनात्मक दायरे की सरहदों तक विस्तार किये होती है। एक और बात- गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन को छांटने में जुटी वैशिवक पूंजी के प्रभाव भी एक ही तरह से असर डालते हैं। हिन्दी साहित्य की पड़ताल में भारतीय राज्य का राजनैतिक नक्शा बेशक उसका वास्तविक भूगोल हो पर संवेदना के स्तर वह उन वैश्विक दूरियों तक मौजूद हो सकती है जहां-जहां आधुनिकता का चरण सामंती मिजाज से गठजोड़ करने के कारण जनतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में ही रुकावट होता चला गया। इन तीनों ही किताबों में जो बात प्रमुखता से दिखायी देती है वह यही कि यथार्थ को सृजित करने के लिए कहानियों के कथानक- सामाजिक बुनावट, अर्थतंत्र, राजनीति और संस्कृति जैसे ढेरों अन्य संदर्भो से एक साथ टकराना चाहते हैं। लेकिन टकराहट की गड़गड़ाहट में झांकता उनका गवंर्इपन उस मध्यवर्गीय आधुनिकता की लपक वाला है जो 'भ्रष्ट आधुनिकता के पूर्व प्रसंगों के रंग में रंगा दिखता है। वही भ्रष्ट आधुनिकता जो खुद के करेक्ट होने का क्लेम ज्यादा करती है लेकिन व्यवहार में आक्रामक शकितयों के पैमाने को ही सर्वोच्च मानते हुए वैसा ही माहौल रच देना चाहती है।

गंवर्इ आधुनिकपन और भ्रष्ट आधुनिकता के अन्र्तर्विरोधों को पहचाने बगैर इन्हें व्याख्यायित करना संभव नहीं। विमल चंद्र पाण्डेय की ज्यादातर कहानियां तय निष्कर्षों की कहानियां हैं। शिल्पविधान के रचनात्मक कौशल के बावजूद उनकी बुनावट के बिखराव में कथा के अन्यत्र फैलते जाने का सिलसिला लगातार बना रहता है। एक ही कहानी में बहुत कुछ कह देने की आतुरता 'उत्तर प्रदेश की खिड़की और 'सातवां कुंआ' में ज्यादा साफ तौर पर दिखती है। दिनेश कर्नाटक की कहानी 'काली कुमाऊ का शेरदा भी वैसे ही व्यामोह में फंसी हुर्इ है। 'सातवां कुंआ की बुनावट जिस फ्रेम के साथ की गयी है, स्वाभाविक है दुनिया को तान लेने की गुंजार्इश उसमें है। लेकिन कहानी का फोकस बिन्दु डगमगाता रहता है। गोल-गोल घूम कर फिर फिर प्रस्थान बिन्दु की ओर लौटना लेखक की मजबूरी होता रहता है। यहां सवाल उस फ्रेम का नहीं है जिसका इस्तेमाल विमल चन्द्र पाण्डे ने किया है बलिक उसके मोह की गिरफत में होने की मन:सिथति का है जो इधर युवा कहलायी जा रही कहानियों में ज्यादा प्रमुखता से नजर आता है। 'पहल-97 में सबसे ताजा प्रकाशित मनोज रूपड़ा की लम्बी कहानी 'आग और राख के बीच को यहां प्रसंगवश देख सकते हैं। युवा कहलायी जा रही इन कहानियों में मध्यवर्गीय आधुनिकता की उस पदचाप को साफ सुना जा सकता जो गंवर्इ आधुनिकता से त्रस्त तो है लेकिन उससे मुकित के रास्ते को ठहर कर तलाशने की बजाय हड़बड़ाहट भरी तीव्रता में है। 'वागर्थ अक्टूबर 2014 के अंक में प्रकाशित जितेन ठाकुर कहानी 'एक अण्डे का स्वागत गान का उल्लेख इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि पारम्परिक शिल्प और अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, चमकदार भाषा और शिल्प के नये पन के लिए छटपटाती युवा कहानियां जिसके बिना अधुरी हैं,  अपनी दिशा का मूल्यांकन करा सकती है।

सामाजिक अन्र्तर्विरोधों की टकराहट को पकड़ने की कोशिशों में इन कहानियों का कहानीपन कर्इ बार औपन्यासिक विस्तार की उन हलचलों तक चला जा रहा है, जहां कहानी का शास्त्रीय ढांत्रा टूटने लगता है। यानी कहानियाें में एक केन्द्रीय कथा को बचाये रखना रचनाकार के लिए मुशिकल हो जाने वाला सा भी दिख रहा है। गौर किया जा सकता है कि इधर ऐसी कहानियों को सिर्फ 'कहानी की संज्ञा से उच्चारित करने के बजाय 'लम्बी कहानी कहा जाने लगा है। यह समझने की जरूरत है कि हिन्द कहानी में आ रहे इन बदलावों के कारण क्या हो सकते हैं ? क्या इसे नये मूल्य बोध का तलाशने में स्वंय जगह बना ले रहे शिल्प के रूप में देखा जा सकता है ? कहानी के भीतर अक्सर बहुत सी अवांतर कथाऐं दिखायी दे रही हैं। कथाकार बार बार उस कथा बिन्दु की ओर लौटता रहता है जो कहानी की केन्दीय संवेदना होती है। वैसे भिन्न संवेदनों को संजोयी अवांतर कथायें अक्सर ऐसे व्यवधान भी उत्पन्न कर दे रही हैं जिनकी भूल भूलैया में न सिर्फ पाठक खो जाने को मजबूर है बल्कि देख सकते हैं कि लेखक भी उन गलियों में ही भटक चुका होता है। भटकाव के कारणों को रचनात्मक कौशल की सीमा भी माना जा सकता है या, ऐसा भी जान पड़ता है कि वे कहानियां शायद रचनाकरों के भीतर पूर्व में ही आकार ले चुके अंत की कहानियां हैं और चलन में लम्बी कहानी कहलाये जाने भर के लिए ही असंगत अवांतर कथाओं के साथ हैं।

असंगति का विन्यास बहुधा इधर की कहानियों के शीर्षकों में भी उभरता है। यह असंगति कर्इ बार बहुत ही अतार्किक हो जाती है तो कर्इ बार उनके अर्थों का दायरा इतना विस्तृत होता है कि बहुत सीधी-सीधी और सहज कहानी को उसके शीर्षक से ध्वनित होते अर्थ के लिए पाठक को उसके एक से ज्यादा पाठ करने को भी विवश हो जाना होता है। यहां उन कहानियों का उल्लेख यदि न भी किया जाये जो एक समय मेंं 'कथादेश के 'गहरे पानी पैठ शीर्षक के अन्तरगत प्रकाशित होती रहीं तो भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 'लघुत्तम समापवर्तक के शीर्षक पर बात की ही जा सकती है। यह एक महत्वपूर्ण कहानी है। विकास की अफरातफरी में आधुनिकता को बाधित करती गंवर्इ स्थितियों को बहुत साफ तरह से रखने में सक्षम है। इस कहानी के जरिये उन स्थितियों को भी पकड़ पाना सहज हो रहा है जो श्रम को हेय मानने वाली मानसिकता के रूप में आधुनिक होना चाहती रही और जिसने समाज में गंवर्इ आधुनिकपन की स्थितियों को विस्तार दिया। आधुनिकता के नाम पर संवेदनहीन होते जाते समय की अवश्यम्भाविता का माहौल रचा। यह कहानी, प्रेम और संवेदना के लघुगणक को तलाशने की कोशिश करती है और गंवर्इ आधुनिकता में विस्तार ले चुकी समाजिकता के कारणं उपेक्षित हो जा रहे सोनू जैसे पात्रों के सपनों, उनकी इच्छाओं का साथ देने का पाठ हो जाना चाहती है। घर परिवार के बड़ों की हिकारत के कारण हिंसा की मानसिकता की गिरफत में होता जा रहा सोनू अभी भी प्रेम की झिड़कियों भरी प्रताड़ना को पहचान पा रहा है, ऐसे विश्वास जगाती यह कहानी उन सामाजिक खतरों की ओर भी इशारा कर रही है जो समाज मेंं निरूददेश्य जारी हिंसा के बीज बोने वाली होती है। प्रसंगवश यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी ''कितने युद्ध'' का पात्र गोपाल भी याद आ रहा है जो सामाजिक प्रताड़ना के कारण हिंसक होते जाने की उस पराकाष्ठा में पहुंच जाता है कि जीवन के संघर्ष में आत्मीय आधारों के सहारे आगे बढ़ने वाली मां को भी लांछित कर आरोपित करने लगता है। लेकिन जीवन की घमासान के लगातार सम्पर्कों से मिलने वाले अनुभव में वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पात्र की तरह मीठी झिड़क को मचल रहा होता है। लघुत्तम समापवर्तक का पात्र सोनू प्रेम की झिड़कियां देती दादी को प्रताडि़त करते दूसरे पात्रों की तरह नहीं देखता बलिक ऐसे ही क्षणों में ममतामयी दादी के असली रूप को पा रहा होता है। इस तरह से देखे तो दीपक श्रीवास्तव की कहानी लघुत्तम समापवर्तक का शीर्षक तार्किक संगति में ही रहता है लेकिन गणित में इस्तेमाल होने वाले इस पद से अनभिज्ञ पाठक के लिए, बहुत ढूंढ कर लाये गये, ऐसे शीर्षक कहानी की निरर्थकता को ही रख रहे होते हैं। लघुत्तम समापवर्तक गणित का पद है। दो और दो से अधिक संख्याओं का लघुत्तम खण्ड। लेकिन यह सवाल तो उभरता ही है कि कहानी के पाठक के लिए गणित के इस पेचीदे पद भरे शीर्षक में क्यों उलझा दिया जा रहा है ? गंवर्इ आधुनिकता के रंग में रंगी मध्यवर्गीय मानसिकता, चलन की विचित्रता के साथ होती है। इधर की कहानियों में यह बहुतायत से देखी जा सकती है। विशिष्टता के दायरे में हो जाने की यह चाह हमारे दौर की उस सच्चार्इ से भी रूबरू करवाता है जो गंवर्इ आधुनिकता में विकसित होती जा रही उस भ्रष्ट आधुनिकता के प्रभाव का होना साबित करती है जिसकी जकड़बंदी एक हद तक सामाजिक रूप से सचेत समूहों को भी अपनी लपेट में लिये है। अपने असरकारी प्रभाव में वह मुनाफाखौर पूंजी के प्रति मध्यवर्गीय आकर्षण के होने से उपजते है। चौंकाऊपन को ही सौन्दर्य का मानक मानते हुए मुनाफाखौर संस्कृति को सैद्धानितक आधार देती मध्यवर्गीय आधुनिकता उत्पादों की ब्राण्डीय किस्म को ही गुणवत्ता की कसौटी मानने वाली होती है। यह समझ पाना मुशिकल नहीं कि चौंकाऊपन के रंग में रंगा मध्यवर्ग ही सामाजिक बदलाव के वास्तविक संघर्षों के रास्ते में बाधा बना है और आधुनिकता की किसी सकारात्मक धारा की बजाय भ्रष्टता की ओर बढ़ता हुआ है। 'पहाड़ में सन्नाटा दिनेश कर्नाटक की किताब की शीर्षक कथा भी है। शीर्षक की अनुगूंज ऐसी कि पाठक के भीतर बहुत से सवाल पैदा करती है। लेकिन एक खबर की सनसनी की तरह कहानी अपने शीर्षक से बिल्कुल जुदा दिखायी देती है। शीर्षक की अनुगूंज से पैदा होते प्रश्न अनुतरित ही रह जा रहे हैं। देख सकते है कि शीर्षकों की स्वतंत्र सत्ता भी रचनाओं की प्रवृतित के तौर पर दिखायी दे रही है।

गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन से मुक्ति का मध्यवर्गीय आधुनिकता वाला रास्ता सिद्धान्त और व्यवहार की असंगतता से उपजने वाली वैचारिकता और बदलावों के अतिवादी दावों में शरण पाता है एवं वित्तीय पूंजी के चालाक मंसूबों के पक्ष को ही मजबूत होने के अवसर देता है। अतिदावों की छवियां शिल्प और भाषा की विशिष्टता में ही नहीं, अपितु वाचाल होने की हद तक वैचारिक प्रदर्शनों के रूप में होती हैं। वैचारिक संकट की ऐसी ही सिथतियों को हर उस जगह देखा जा सकता है जहां खुद को पाक साफ मानने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता न सिर्फ अपने से ऊपर और नीचे के ऊध्र्वाधर वर्गीय आधार पर निशाना साधती हुर्इ होती है बल्कि क्षेतीज में फैले हुए अपने ही वर्ग के सदस्यों तक को भी भ्रष्ट माने हुए होती है। ऐसा उन मनोगत कारणो की वजह से भी होता कि जिनमें व्यकितवादी प्रवृतितयाें की पराकाष्ठा अहंकार की हदों तक होती हैं। सामाजिक अन्तर्विरोधों को पूरी तरह से समझने में वे चूकती ही नहीं रहती बलिक ऐसे विभ्रम में होती हैं कि भ्रष्टता के मूल कारणों को समझना उसके लिए हमेशा मुशिकल होता है। अपनी सबसे उन्नत चेतना में वे विरोध के ऐसे ऐसे 'लोकप्रिय अंदाजों वाले प्रयोग करती है कि मुनाफाखौर बाजार की चालाकियों के शिकार मीडिया के लिए विरोध का इवेंट हो जाती है। वही मीडिया जो तटस्थ रह कर सूचनाओं को प्रेषित करने की बजाय टी आर पी को बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा पूंजी जुटा लेने की मानसिकता से ग्रसित है। उसकी चालाक कोशिशों का नतीजा है कि किसी भी तरह की अनैतिकता और भ्रष्ट स्थिति पर साधे जाने वाले विरोध के निशाने ही मखौल बना दिये जा रहे हैं। गैर जनतांत्रिक गंवर्इ आधुनिकता की वैचारिकी में ही ऐसी स्थितियां विस्तार करती मध्यवर्गीय आधुनिकता का आदर्श बन कर चारों ओर व्याप्त होती जा रही हैं। हिन्दी कथा साहित्य में भी दिखायी देती इस प्रवृत्ति, उसके विस्तार एवं स्वीकारोकित को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सामाजिक प्रतिबद्धता की बजाय व्यकितगत कौशल को चमकाने के असर ने हिन्दी के रचनात्मक जगत पर अपने प्रभाव बढ़ाने शुरू किये हैं।

प्रगतिशील पक्षधरता और इंक्लाबी पक्षधरता गंवर्इ आधुनिकता के दो पक्ष रहे हैं लेकिन हिन्दी भाषायी चेतना में इन्हें दो भिन्न पक्ष मानने की बजाय प्रगतिशील पक्षधरता के साथ ही परिभाषित किया जाता रहा। उसका मुख्य कारण हिन्दी क्षेत्र में पूरी तरह से गायब रही इंक्लाबी राजनीति का असर है। जबकि अन्य भाषायी क्षेत्रों में यदा कदा की उपसिथतियों के बावजूद बदलाव के स्वर में उसके महत्व को स्वीकारने की सिथति भी बनी रही। यही वजह है उन स्थितियों के गहरे प्रभाव अमुक भाषायी साहित्य की प्रगतिशीलता को इंक्लाबी पक्ष में जांचने वाले भी रहे। मारठी में दलित पैंथर का दौर उल्लेखनीय है जिसने अन्य भाषाओं के साहित्य में भी दलित अनुगूंज को स्थापित होने में मदद की। इंक्लाबी पक्षधरता को धारण करते हुए गंवर्इ आधुनिकता अपने गंवर्इपन से मुक्त हो सकती थी लेकिन उस तरह के राजनैतिक आंदोलन की अनुपसिथति और वैशिवक पूंजी की बढ़ती हुर्इ पहुंच के साथ विस्तार लेती भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता में उसका मिथ्या इंक्लाबी रूप ज्यादा बिकाऊ होने वाला हुआ और उसकी उपस्थिति को एक मूल्य मान लेने वाले भाषायी चौंकाऊपन में नक्सल, माओ, जंगल, आदिवासी, दलित आदि शब्दावली के साथ कथा को संयोजित कर ले जाना नये पन का परिचायक हुआ है। विमल चंद्र पाण्डे की कहानी 'उत्तर प्रदेश की खिड़की यहां उस दायरे में देखी जा सकती है। युवा कहलायी जाने वाली कर्इ अन्य रचनाओं में प्रवृत्तिजन्य इस उपस्थिति की पुष्टी के लिए इधर आयी बहुत सी कहानियां और कविताऐं भी संदर्भ हो सकती हैं। तत्काल याद आ रही चन्दन पाण्डे की कहानी 'भूलना और 'पहल-82 एवं 'जलसा के एक अंक में प्रकाशित देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं को संदर्भ के रूप में देख सकते हैं। वैसे 'भूलना में चौंकाऊपन की बजाय इंक्लाबी राजनीति से जुड़ाव की मासूमियत का अंदाज उसे यादगार कहानी बनाता है। वैशिवक पूंजी के प्रभाव में विस्तार लेती भ्रष्ट आधुनिक चेतना संवदेन के उन क्षेत्रों से भली भांति परिचित होती है जो किसी भी नये उत्पाद को विशिष्ट पहचान देने में सहायक हो सकते हैं। समाज की उन नब्जों पर हाथ रखकर ही मुसिबतों से राहत दिलाने के नाम पर वह उपभोगतावाद को मथती रहती है और अपने उत्पाद के इस्तेमाल करने वाले के भीतर विशिष्ट हो जाने का सा भाव पल्लवित करती रहती है। उसके द्वारा मूल्य और आदर्श के झूठे खेल रचना अपनी उस चालाकी को छुपा ले जाने के लिए जरूरी होता है जो उसके मूल मंतव्यों को छुपा ले जाने में सहायक होता है। 'उत्तर प्रदेश की खिड़की की अन्तरकथा को खोलने पर पाया जा सकता है कि वह दो मुंहेपन की प्रवृत्ति, सामाजिकी और राजनीति के पक्ष में नहीं है, उन्हें तात्कालिक निशाने पर रखती है लेकिन परिदृश्य के सम्पूर्ण विभ्रम पर तीखेपन के साथ प्रहार करने की बजाय लुत्फ लेते हुए अंदाज में कथानक का विस्तार करती है। बदलाव का इंक्लाबी संघर्ष मजबूत और निरंकुश शासन व्यवस्था के होते हुए लम्बे समय तक कैसे अपनी उपसिथति को बनाये रखने वाला रहा, पाठक को उसकी वास्तविक पड़ताल करने तक को प्रेरित करने की बजाय वह अपने प्रिय पात्र उदभ्रांत की गिरफतारी के विवरणों से उसके होने को ही संदेह के घेरे में ला देती है। समझी जाने वाली बात है कि मनोगत आग्रहों से किसी राजनीति का न तो समर्थन संभव है न ही विरोध। जरूरी है कि रचनाओं में भी ऐसी घटनाओं की वस्तुपरक उपसिथति हो क्योंकि वर्तमान दौर का बिका हुआ मीडिया तो पहले ही अपनी प्राथमिकता मुनाफे के साथ तय किये है और रिपोर्टिंग के स्तर पर भी एक निशिचत पक्ष को ही रखने में माहिर है। पाठक मीडिया केे मिथ्या प्रचार के प्रभाव से पैदा होते आग्रहों से मुक्त होकर किसी राजनैतिक दिशा को ठीक तरह से समझे, लेखकीय चिन्ता के दायरे ऐसे भी तय होने चाहिए। यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी 'मुमताज के बहाने टिप्पणी करना मुझे समीचीन लग रहा है जो साम्प्रदायिकता पर केन्द्रीत कथा है। चंद प्रचलित मुहावारों वाले संवादों के जरिये दिनेश कर्नाटक साम्प्रदायिकता विरोध की ऐसी कहानी रच रहे हैं जो ऐसे सहृदय मंसूबों के साथ है जिसमें साम्प्रदायिकता की उन्मादी लहर के उभरने के कारणों को नहीं तलाशा जा सकता।

सामाजिक रूप से बढ़ते अन्याय, असमानता, गैरबराबरी, जातीय उन्मांद और साम्प्रदायिक सिथतियों की प्रवतितयाें के यदि वर्गीय विश्लेषण किये जायें तो पायेगें कि आधुनिक हलचलों के साथ अपनी संततियों को आगे बढ़ता हुआ देखने की चाह संजोया भारतीय मध्यवर्ग जहां एक ओर उसे घुड़सवारी, तैराकी, नौकाचालन, आधुनिक से आधुनिक मशीन का परिचालन करने सकने की दक्षता से वाकिफ करने और व्यकितत्व विकास की प्रक्रिया वाली दूसरी बहुत सी शिक्षा देना चाहता रहा वहीं ठेठ पारम्परिक गुरूकलों के उस वातावरण को बनाये रखने का हिमायती हुआ जो अपने विचारों, इच्छाओं और सपनों को स्वतंत्र रूप से रखने की छूट भी नहीं देना चाहता है। द्विचितेपन के गंवर्इ आधुनिक माहौल ने न सिर्फ हिंसा और बलात्कारी स्थितियों को बढ़ाया है बलिक जमाने भर को बड़े पैमाने पर मानसिक रुग्णता में डूबते जाने को मजबूर किया है। 'काली कविता के कारनामे, विमल चंद्र पाण्‍डेय की कहानी इसलिए उल्लेखनीय है मानसिक रूगणता के खिलाफ मुखर होता स्त्री स्वर आश्वस्त करने वाला है। झूठे मानदण्ड खड़े करती शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाते आश्वस्ती के स्वरों का असर साफ दिखता है। ढेठे जननायको के कारनामों प्रश्न उठाती चेतना कहानी में शुरू से अंत तक दिखायी देती है। बानगी के लिए एक पूछा गया प्रश्न और दिया गया जवाब उल्लेखनीय है,

''बेटा भारतीय कि्रकेट टीम का कप्तान कौन है ?
''पता नहीं सर कोर्इ होगा, इसका हमारे पाठयक्रम से क्या मतलब है ?

गंवर्इ आधुनिकता हमेशा अपने गंवर्इपन की यादों के साथ ही आधुनिक होना चाहती है। अपने समय की ऐतिहासिक विसंगतियों पर वह बहुत आलोचनात्मक होने से बचती है बल्कि कालांतर के किसी समय को ही वर्तमान पर चस्पा किये रहती है और निष्कर्षों में बनावटी हो जाती है। लड़की के विवाह के प्रसंग पर केनिद्रत एक कहानी दीपक श्रीवास्तव की है- 'सतार्इस साल की सांवली लड़की और एक इसी शीर्षक से अभी हाल ही में 'पाखी में प्रकाशित हुर्इ हरीचरण प्रकाश की कहानी है। इक्क्सवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित होते हुए भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 1990 के आसपास के समय बाहर नहीं निकलती। अवांतर कथाओं की अनंत गलियों से गुजरती रहती है और अन्तत: स्त्री विमर्श के उस सीमित पाठ से आगे नहीं बढ़ पाती जो आर्थिक स्वतंत्रता में ही स्त्री विमुकित को देख रही है। हरीचरण प्रकाश की कहानी का पाठ थोड़ा भिन्न है। हालांकि हरीचरण प्रकाश जिस पाठ के साथ आते हैं वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पाठ की तरह एक सीमित सामाजिक सिथति है तब भी देख सकते हैं कि वहां गंवर्इ आधुनिकता की फलांग लैंगिक असमानता को लांघ जाने की कोशिशों के साथ है। ऐसे ही विषय पर एक अन्य कहानी विमल चंद्र पाण्डेय की है- 'खून भरी मांग। विमल जाति और धर्म की खाइयों में धंसी समाज व्यवस्था के भीतर उतर कर कथा को रचते हैं। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुरार्इ पर आधारित यह कहानी उस सार्वभौमिक यथार्थ की कहानी है जो गंवर्इ आधुनिकता के निशाने पर हमेशा से रहा है। गंवर्इ आधुनिकपन की ऐसी मिसालों को पकड़ने के लिए तीनों ही कथाकारों की कर्इ कहानियों की पृष्ठभूमियां उल्लेखनीय है। आधुनिकता की वास्तविक बयार में विकसित होता जन समाज कैसे अपने गंवर्इपन से मुक्त हो चुका होता है, दिनेश कर्नाटक की कहानी 'खाइयां के ड्राइवर से होने वाली बातचीत उसका पता देती है। कहानी का वह आखिरी संवाद जिसमें एक ऐसी सूत्रात्मकता है कि जीवन की कैसी भी जड़ताओं को ठीक से विश्लेषित करने का रास्ता दिखा रही है!

'' ड्राइवर होने के नाते ये मेरा अनुभव हुआ कि मशीन आदमी को धोखा कम ही देती है। आदमी खुद ही धोखा खा जा जाता है और अपनी गलती को छुपाने के लिए बात किस्मत पर डाल देता है।

दिनेश कर्नाटक की कहानियों के विषय की केन्द्रीयता पहाड़ी युवाओं के भीतर मचलती सतरंगी दुनिया के आकर्षण को भी अपने में समेटती है। वालीवुड के बीच खुद की सिथति को देखने वाले शंकर जैसे पात्र फिल्मी दुनिया के सच को जीवन की कथा बनाना चाहते हैं लेकिन उन मजबूत किवाड़ों को खोलने में अक्षम है जो अवसरों के फर्श से चमचमाते कमरे के रूप में बंद पड़े होते हैं। कुंठा, हताशा में डूब जाने को मजबूर करती स्थितियां उन्हें उसी जीवन में वापिस लौटने को मजबूर करती है जिससे निकल भागने को वे हर वक्त मचलते रहते हैं। मध्य वर्गीय आधुनिकता ने पिछड़ी पृष्ठभूमि के हार खाये युवाओं के भीतर ऐसी कुंठाओं को जन्म दिया ह,ै जिसमें खुद की सिथतियों पर सहानुभूति से भरी कोर्इ आवाज भी उन्हें तंज लगती है। तिलमिलाहट में वे अपने करीबी के प्रति भी नफरत से भरे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर उच्श्रंृखल किस्म का वातावरण का निर्माण करती युवा चेतना को ही नये युग की शुरूआत माना जाता रहा।

आधुनिकता के प्रतीक निर्मिति की भव्यताओं में शहरीपन का सबब हुए हैं। 'बड़े लोगों का पार्क, विशिष्ट जीवन शैली के रूप में उभरा है जिसने आम जनमानस की सार्वजनिकता पर हमला किया है। प्रतिरोध का गंवर्इपन क्यों जगह न पाये फिर ? ऐसे ही प्रतिरोधों को आकार देती दीपक श्रीवास्तव की कहानी भ्रष्ट आधुनिकता के साथ बढ़ते वर्गीय विभाजन को रखने में कोतार्इ नहीं बरतती है। प्रतिरोधों के जनवादी, प्रगतिशील सामान्तरी और दलित अंदाज का उत्कृष्ट नमुना कहानी को यादगार बनाता है। यह देखना दिलचस्प है कि जश्न का झूठ उस गंवर्इ आधुनिकता को ही मुखरित करता है जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का रास्ता पकड़ती है। दीपक श्रीवास्तव कहानी 'पिशाचों की उर्वशी हो चाहे 'प्रेम का उपरांत दोनों ही कहानियों के संकेत स्पष्ट हैं कि भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता पद और प्रतिष्ठा की सार्वजनिक भूमिकाओं में बेहद शालीन और सभ्य दिखायी दे रही हो पर अपने एकांत में वे बेहद वाहियात होती हैं। दलाल मानसिकता में विकसित होती यह आधुनिकता मूल रूप से लम्पट होने की प्रवृतित के साथ होती है। 'प्रेम के उपरांत कहानी ये संकेत भी कर रही है कि गैर उत्पादक गतिविधियों के दम पर बाजार के उतार चढ़ाव को ही प्रमुख मानने वाली कुशलता के अर्जन के बावजूद भी बाजार की चालाकियों से लड़ना आसान नहीं। साम्राज्यवादी मूल्यों का अटटाहास प्रतिरोध की बजाय स्थितियों से पलायन को ही प्रमुख मान लेने के साथ है।

यूं पीडि़त का पक्ष बनते हुए ही गंवर्इ आधुनिकता का आलोक साहित्य और कलाओं में प्रगतिशीलता के दायरे तय करता रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नैतिक रूप से वंचित का पक्षधर होते हुए भी गंवर्इ आधुनिकता वैचारिक विभ्रम को पूरी तरह से चिहिनत न कर पाने की सीमा के साथ होती है और वैचारिक शुद्धता की मांग करते हुए भी बदलाव के निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष नहीं चुन पाती। कारणों की तलाश समाज के विस्तृत अध्ययन के सर्वेक्षण और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक दायरे में तलाशे जा सकते हैं। साहित्य के भीतर उसकी उपसिथति को रचनाओं की पृष्ठभूमि, पात्रों के सृजन, भाषायी और शिल्पगत कौशल और प्रबल रूप से मौजूद रचनात्मक हस्तक्षेप के अध्ययन से पाया जा सकता है।
                    

Saturday, August 22, 2015

क्या ऐसे प्यार किया

अनेक चर्चित कविता संकलनों के रचयिता टोनी हॉगलैंड ने 2003 में "द चेंज" शीर्षक से एक कविता लिख कर सेरेना विलियम्स के "बड़े ,काले और किसी धौंस में न आने वाले शरीर" पर कटाक्ष कर के अश्वेत समुदाय की प्रचुर आलोचना झेली। एक दशक से ज्यादा समय से अविजित टेनिस किंवदंती सेरेना विलियम्स को खेल और ग्लैमर के लिए जाना जाता रहा है पर बहुत कम लोगों को खबर है कि 2008 में उन्होंने एक प्रेम कविता भी लिखी और अपने आधिकारिक वेबसाइट पर लोगों को पढ़ने के लिए प्रस्तुत  भी की। ज़ाहिर है, कविता और प्रेम दोनों किसी ख़ास वर्ग की बपौती नहीं हैं ………  

क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि बात बात में आने लगे रुलाई?
क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी जाये मौत भी?
ऐसा जो नहीं किया
तो कैसे रह पाओगी उसके साथ साथ ?

क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो खरा निर्विकार है
क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो इतना भरोसा पैदा कर दे
अपने आप पर
अपनी शक्ति पर
अपनी समझ पर ?

कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके हाथ सौंप दो अपने जीवन की पतवार ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके ऊपर न सिर्फ़ मचल मचल आये दिल
बल्कि फूट फूट आये उनपर प्यार की धार
खुल जाये जिनके सामने सारी गाँठें
और बन जाओ एकदम उन्मुक्त ?

कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि छाया की तरह ख़्वाहिश होने लगे उसके साथ की पल पल ?
कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि उसके लिए नामुमकिन हो जाये कुछ भी इनकार कर देना
भीख , उधारी से लेकर चोरी तक सबकुछ
खाना पकाओ, पहिये साफ़ करो .... सब कुछ ?

 
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि घर से बाहर निकलो और चिल्ला चिल्ला कर
इसकी बाबत सुना डालो सारी दुनिया को ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि विस्मृत हो जाये मन से अच्छा बुरा
दूसरे सबने जो कहा अबतक … सब कुछ ?
चाहत यह कि बस थामे रहे तुम्हें प्रिय हर पल
और डाँट भी लगाये जब जब हो जाये कोई गलती
पर इज्ज़त और अपनेपन से?
वह प्यार से तुम्हें सँभाल लेगा बड़ा बन कर
जितना ही गहरा जायेगा प्यार में

प्यार बड़ा  है प्रबल
प्यार में है बहुत जोर
और  जब मिल जाये प्रिय कोई ऐसा
कर नहीं सकता कोई बाल बाँका
खुल कर प्यार करो तोड़ कर सारी सीमायें
वैसे ही जैसे गाड़ी करती हो स्टार्ट पहली पहली बार
फिर प्यार भी जी जान से करेगा हिफ़ाज़त तुम्हारी।  
                                ( प्रस्तुति : यादवेन्द्र )
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Sunday, August 16, 2015

कहानी पाठ

ब‍हुत दिनों बाद एक ऐसी कहानी पढ़ने को मिली जिसे जोर जोर से उव्‍वारित करके पढ़ने का मन हुआ। यह कहानी के कथ्‍य की खूबी थी या उसका शिल्‍प ही ऐसा था कि उसे उच्‍चारित करके पढ़ने का मन होने लगा, इस बहस में नहीं पढ़ना चाहता। लीजिए आप भी सुनिए।

  

Friday, July 31, 2015

अनजाना फासीवाद


लोकतंत्र का मतलब इतना ही नहीं कि किसी भी संस्‍था के हर फैसले को किसी भी कीमत पर उचित ही मान लिया जाए। वैधानिक ढांचे के कायदे से चलती संस्थाओं की कार्यशैली और निर्णय भी। उन पर स्‍वतंत्र राय न रख पाने की स्थितियां पैदा कर देना तो नागरिक दायरे को तंग कर देना है। स्‍वतंत्र राय तो जरूरी नागरिक कर्तव्‍य है, जो वास्‍तविक लोकतंत्र के फलक को विस्‍तार देती है। सहमति और असहमति की आवाज को समान जगह और समान अर्थों में परिभाषित करने से ही लोकतंत्र का वास्‍तविक चेहरा आकार ले सकता है। ऐसे लोगों का सम्‍मान किया जाना चाहिए जो बिना धैर्य खोये भी असहमति के स्‍वर को सुनने का शऊर रखते हैं। सम्‍मान उनका भी होना चाहिए जो बेलाग तरह से नागरिक कर्तव्‍य को निभाने में अग्रणी होते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को वास्‍तविक ऊंचाईयों तक पहुंचाने में ऐसी दृढ़ताएं महत्‍वपूर्ण साबित होती हैं।
आदरणीय कलाम साहब, भूतपूर्व राष्‍ट्रपति की लोकप्रियता को कोई दाग नहीं लगा सकता। उनका घोर विरोधी भी नहीं। वे सादगी पसंद, भारत के ऐसे राष्‍ट्रपति थे, टी वी पर जिन्‍हें कई बार स्‍कूली बच्‍चों के बीच देख मन प्रफुल्लित हो जाता था। अन्‍य मौकों पर भी उनकी सहजता, सरलता की ऐसी तस्‍वीरें देखते हुए उनके प्रति आदर उमड़ता था, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक सच्‍चे नागरिक का तेज नजर आता था। वे विज्ञान के अध्‍येता थे, वैज्ञानिक थे, यह कोई छुपा हुआ तथ्‍य नहीं। लेकिन उनके वैज्ञानिकपन को अनुसंधान के शास्‍त्रीय पक्ष के साथ पहचान करती आवाज पर हिंसक हो जाना,  लोकतंत्र का मखौल बना देना है। सहमति के संतुलन की ऐसी आवाज से असहमति रखना लोकतंत्र की खासियत हो सकता है, वाजिब भी है। लेकिन हिंसक हो जाना तो अनजाने में ही हो चाहे, फासीवादी मूल्‍यों का ही समर्थन है।
न्‍याय के विभिन्‍न रूपों में फांसी सबसे बर्बर अंदाज है, यह कहना भी लोकतंत्र का पक्ष चुनना है और वैश्विक दृष्टि का पक्षधर होना है। अंधराष्‍ट्रवादी निगाहें यहां भी विरोध के फासीवादी चेहरे में नजर आती हैं।
आश्‍वस्ति की स्थिति हो सकती है कि खुद के भीतर उभार ले रहे फासीवाद को पहचानना शुरू हो और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के स्‍वस्‍थ लोकतंत्र की दिशा निश्चित हो।     
-- विजय गौड  

Thursday, July 30, 2015

प्रतिरोध का गीत


अभी हाल में अमेरिकी अदालत में एक दिलचस्प मामला आया जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कम्पनी पीबॉडी इनर्जी कॉर्प ने अपने खिलाफ़ दायर मुक़दमे को ख़ारिज करने से ज्यादा जोर इस बात पर लगाया कि तहरीर में उद्धृत करीब 45 साल पुराने एक गीत की पंक्तियाँ हटा दी जायें।यह तहरीर दो पर्यावरण ऐक्टिविस्ट लेस्ली ग्लूस्ट्रॉम (चित्र) और थॉमस एस्प्रे ने दो साल पहले कम्पनी के विरोध में प्रदर्शन करने पर की गयी अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती देते हुए दी थी। इन याचिकाकर्ताओं ने अपनी तहरीर की शुरुआत लोकगायक जॉन प्राइन(चित्र) के 1971 के अत्यंत लोकप्रिय गीत "पैराडाइज़" की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों से की है जिसमें पीबॉडी द्वारा स्ट्रिप माइनिंग के जरिये पैराडाइज़ नामक शहर(इसको "स्वर्ग" के प्रतीक के रूप में भी लिया जा सकता है) के उजड़ने की बात कही गयी है। यह गीत पर्यावरण ऐक्टिविस्ट आज भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाते हैं।
--यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294
पीबॉडी के कोयला खनन और नागरिकों द्वारा उसके विरोध का इतिहास बहुत पुराना है जब समय समय पर खनन करने की उसकी स्ट्रिप तकनीक और उस से पर्यावरण को होने वाले विनाश का जबरदस्त विरोध किया गया। इसी विरोध को 1971 में डाकिया से लोकगायक बने जॉन प्राइन ने ने शब्द और स्वर दिये - प्राइन का बचपन का बड़ा हिस्सा ग्रीन नदी के किनारे बसे पैराडाइज़ शहर में बीता और कोयला खनन के चलते उसके उजड़ते चले जाने को उन्होंने नज़दीक से देखा है।सत्तर के दशक में इस शहर का अस्तित्व धरती पर से मिट गया जब पूरी ज़मीन खनन को समर्पित कर दी गयी। उस समय भी पीबॉडी कम्पनी जॉन प्राइन के गीत की लोकप्रियता से घबरा गयी थी और उसने "फैक्ट्स वर्सेस प्राइन" शीर्षक से पुस्तिका छाप कर बाँटी थी जिसमें धौंस जमाते हुए कहा गया कि "संभवतः हमने ही उस गीत की रिकॉर्डिंग के लिए बिजली मुहैय्या करायी जो हमारे ऊपर पैराडाइज़ को खुरच कर उजाड़ डालने का आरोप लगा रहा था।" अब 44 साल बाद पीबॉडी एकबार फ़िर इस गीत से भयभीत हो रहा है - गीत में बयान किये तथ्यों की आँच साढ़े चार दशकों बाद भी जनता को सड़कों पर आने को प्रेरित कर रही है। कम्पनी ने कोर्ट से गुज़ारिश की है कि "याचिकाकर्ता गीत के माध्यम से पीबॉडी को बदनाम करने के साथ साथ पूरी इनर्जी इंडस्ट्री पर हमले कर रहे हैं....वे बेतुकी , असत्य , अनावश्यक और भड़काने वाली बात कर रहे हैं।" पीबॉडी कंपनी ने अपनी गतिविधियों के प्रति बढ़ते जनप्रतिरोध देखते हुए 2013 शेयरधारकों बैठक अपने मुख्यालय सेंट लुइस में न करके नार्थ व्योमिंग के एक कॉलेज में आयोजित की जहाँ प्रदर्शन कर रहे हुए याचिकाकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था।आंदोलनकर्ताओं का आरोप था कि कम्पनी पर्यावरण का विनाश करने के साथ साथ अपनी एक सहायक कंपनी दिवालिया घोषित कर के अपने करीब 25 हज़ार कामगारों को पेंशन और स्वास्थ्य बीमा के लाभों से वंचित करने का षड्यंत्र रच रही है।




  -- जॉन प्राइन


पैराडाइज़ 
         
जब मैं छोटा था मेरा परिवार जाता था
वेस्टर्न केंटुकी 
मेरे माँ पिता वहीँ पैदा हुए थे 
बाबा आदम के ज़माने का एक पिछड़ा शहर है वहाँ 
वह अक्सर याद आता है .... बार बार 
इतनी बार कि मेरी स्मृतियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। 



(कोरस)

अब तुम्हारे डैडी लेकर नहीं जायेंगे 
तुमको मुहलेनबर्ग काउंटी 
वहीँ जहाँ नीचे उतरो तो बहती है 
ग्रीन नदी 
और पहले बसता था पैराडाइज़ शहर ....
माफ़ करना बेटे… बहुत देर कर दी तुमने भी 
मिस्टर पीबॉडी का कोयला कब का 
ले जा चुका उसको तो अपने साथ खुरच कर। 

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कोयला कम्पनी दुनिया का सबसे बड़ा बेलचा लेकर आयी 
और उजाड़ डाले सभी पेड़ पौधे 
सारी धरती नंगी कर दी खुरच खुरच के 
पहले कोयला निकाला और घुसते चले गये 
धरती जहाँ ख़तम हो जाती है अंदर पाताल तक 
और दुनिया भर में  पीटते रहे ढिंढोरा
कि कर रहे हैं विकास पिछड़े आदमी का। 



(कोरस)


मैं जब मरुँ मेरी राख बिखेर देना 
ग्रीन नदी के ऊपर 
और दुआ है कि मेरी रूह जाकर टिक जाये 
रोचेस्टर डैम के ऊपर 
ऐसे मैं स्वर्ग के आधे रस्ते तो पहुँच ही जाऊँगा 
और मिल लूँगा इंतज़ार करते पैराडाइज़ से 
वहाँ से मेरा गाँव बहुत पास है 
महज़ पाँच मील दूर।   




 अनुवाद- यादवेन्द्र

Saturday, July 25, 2015

हमारा आस पास

यादवेन्‍द्र


शाम से गहरे सदमे में हूूं,समझ नहीं आ रहा इस से कैसे निकलूँ । देर तक सिर खुजलाने के बाद लगा उसके बारे में लिख देना शायद कुछ राहत दे।

मुझे किसी व्यक्ति या समाज की आंतरिक गतिकी और गुत्थियों को समझने के लिये गम्भीर अकादमिक निबन्ध पढ़ने से ज्यादा ज़रूरी और मुफ़ीद लगता है उसके कला साहित्य की पड़ताल करना। पर हिंदी के अतिरिक्त सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने की अपनी गम्भीर सीमा है । भारत की हिन्दीतर भाषाएँ हों या विदेशी भाषाएँ, इनके बारे में अंग्रेज़ी में उपलब्ध सामग्री मेरा आधार है।

आज शाम बड़े परिश्रम से ढूँढ कर मैंने ग्रीस के बड़े लेखकों की दो कहानियाँ पढ़ीं।दोनों रचनाएँ सात आठ साल से आर्थिक बदहाली से जूझ रहे ग्रीक समाज की भरोसे की कमी से जूझती आत्मा की हृदय विदारक पीड़ा का बयान करती हैं।एक कहानी डांवा डोल भविष्य से घबराये हुए पड़ोसी नौजवान की ऊँची इमारत से छलाँग लगा देने के दृश्य से लगभग विक्षिप्त हो जाने वाली स्त्री की अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है,दूसरी कहानी आर्थिक संकट के कारण बगैर कोई नोटिस दिए नौकरी से बाहर कर दिए गए एक कामगार की भावनात्मक अनिश्चितता का जिस ढंग से ब्यौरा प्रस्तुत करती है वह कोल्ड ब्लडेड मर्डर सरीखा झटका देती है। उसके बाद जाने किसका नम्बर आ जाये,इस आशंका का रूप इतना मुखर है कि पाठक को लगने लगता है कहीं कल उसका इस्तीफ़ा न ले लिया जाये।

मैंने पिछले महीने मेडिकल साइंस के एक प्रतिष्ठित जर्नल में छपे अध्ययन के बारे में पढ़ा कि 2011-2012 के दो सालों में ग्रीस में आत्महत्या की दर में 35फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।बेरोज़गारी ऐसी कि हर चौथा व्यक्ति काम से बाहर है।ऐसे समाज को विद्वानों से ज्यादा अंतरंगता के साथ लेखक कवि कलाकार समझ सकते हैं,और उनके तज़ुर्बे संकट के समय हमें उबरने में मदद कर सकते हैं।मानव समाज इसी साझेपन से चलता और विकसित होता है।

Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Friday, July 10, 2015

वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए

अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्‍यवस्‍थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्‍य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्‍दी साहित्‍य में कविता कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्‍यवस्‍थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्‍य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्‍द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्‍यवस्‍थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्‍तक आलोचना पर केन्‍द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करत है। 

हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्‍वपूर्ण स्‍वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्‍तक समीक्षाओं पर केन्‍द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्‍पादन में प्रकाशित हुआ है। 
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्‍त आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत: डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्‍टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्‍ता से डाक व्‍यवस्‍था को क्‍या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्‍हें पढ़ने ही नहीं बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99 मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का जिक्र मैं क्‍यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ रहा हूं।
अपनी दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्‍यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्‍त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्‍दी की पत्रिकाएं में ऐसे पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो  मेरे इस सुबह के वक्‍त पर डाका डालने में अभी तक अव्‍वल मानी जा सकती हैं। समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती हैपहल के 100 वे अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्‍यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों की सूचनाओं में उसका पढ़ जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने ही मैं उसके कई सारे पृष्‍ठों के स्‍वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41 ने मेरे उस वक्‍त पर आजकल कब्‍जा किया हुआ है।
यहां एक अन्‍य बात, जो प्रासंगिक जान पड़ रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्‍ताव पर बात की, ''भाई क्‍या संयुक्‍त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्‍वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्‍मृतियों में पहली पारी वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्‍थगित हो जाने का वक्‍त मेरे लिए स्‍तब्‍धकारी था। क्‍योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्‍दी पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्‍वरूप एवं मिजाज थोड़ा भिन्‍न है और जरूरी है।  कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके दबाव से मुक्‍त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्‍वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्‍कतें हैं कहा नहीं जा सकता कि क्‍या ऐसा संभव होगा भी या नहीं अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्‍छाशक्ति में भी छुपे हो सकते हैं और वास्‍तविक भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।   
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का जिक्र हो जाना स्‍वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना, किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी अकार के 40वें अंक ने दस्‍तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्‍त ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार में बदले हुए स्‍वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था। बल्कि उस वक्‍त यदि कुछ कह देने की जल्‍दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की संभावनाओं पर टिप्‍पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही। 

बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्‍द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्‍य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्‍द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्‍त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्‍मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्‍त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्‍पी से प्रकाशित ई एम एस आत्‍मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्‍न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है। 

अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्‍य की चयन वाली पुस्‍तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्‍त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्‍यवस्‍थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्‍यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्‍दी साहित्‍य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्‍थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्‍वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्‍ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्‍कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्‍मीद है भविष्‍य का अकार कैमरून की तात्‍कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्‍दी साहित्‍य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्‍थायी रोशनी वाली आकृति हो।

पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।    

      विजय गौड़     

Thursday, June 25, 2015

प्रेम, प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार


हमारे द्वारा पुकारे जाने वाले नाम प्रीति को स्‍वीकारते हुए भी हमारी साथी प्रमोद कुमारी ने अब प्रमोद के अहमदपुर के नाम से लिखना तय किया है। अहमदपुर उनके प्रिय भूगोल का नाम है। प्रीति का वर्तमान भूगोल यद्यपि देहरादून है। डॉ शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित ओर संवाद प्रकाशन से प्रकाशित उपन्‍यास जब व्हेल पलायन करते हैं की समीक्षा प्रीति द्वारा की गयी है। रचनात्‍मक सहयोग के लिए प्रीति का आभार ।
वि गौ
 
प्रमोद के अहमदपुर 

प्रेम की ताकत पशु को भी मनुष्य बना सकती है। प्रेम की ताकत को दुनिया भर की आदिम जनजातियां भी सभ्यता का प्रकाश फैलने से पहले ही पहचान चुकी थीं जो उनकी दंतकथाआें में आज भी देखने को मिलता है। एेसी ही प्रेम की ताकत की कथा है यह उपन्यास। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मनुष्यता का इतिहास सदियों से संजोई गई एेसी ही दंतकथाआें में परतदर परत दर्ज हैजो बुद्ध की तरह प्रेम और करुणा से मनुष्य के मनुष्य हो जाने में विश्वास करती हैं। इन्हीं जीवन मूल्यों में रचा बसा प्रेम प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार है उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं।' 
ऐसे समय में जब समूचा विश्व हिंसा से ग्रस्त हो। दुनिया के ताकतवर देश अपनी वस्तुआें के लिए बाजार पैदा करने के लिए अपने से कमजोर देशों पर अपने मूल्य लादने में जुटें हो और संकीर्णता व सनक के मारे कुछ लोग अपने ही इतिहास को नष्ट करने में जुटे होंसिर्फ इसलिए दूसरों की हत्या कर देते हों कि वे उनके जैसे नहीं दिखते। एेसे में डॉ. शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का प्रकाशन एकसुखद अनुभूति देता है। यह उपन्यास बताता है कि प्रेम की ताकत से ही मनुष्यता आज तक जीवित है। दरअसल प्रेम ही मनुष्य की जीवन शक्ति है। प्रेम उसके सभी क्रियाकलापों का केंद्र बिंदु है। जब भी मनुष्य इस सत्य को भुला देता है या उससे दूर हो जाता हैमानवता का खून बहने लगता है। 
जब व्हेल पलायन करते हैं साइबेरिया की अल्पसंख्यक चुकची जनजाति की अद्भुत कलात्मक दंत कथाआें व लोक विश्वासों पर आधारित उपन्यास है। वह दंतकथा जो साइबेरिया के चुकची कबीले के लोग ठिठुरती ध्रुवीय रातों में यारंगा (रेनडियर की खाल के तंबू) के भीतर चरबी के दीयों की हल्की रोशनी में न जाने कितनी सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सुनाते आ रहे हैं। चुकची जनजाति के लोगों का भोलासा विश्वास है कि वे व्हेलों के वंशज हैं। इस जनजाति के पहले लेखक यूरी रित्ख्यू की इस पुस्तक का ईव मैनिंग द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 19७7 में सोवियत लिटरेचर में प्रकाशित हुआ था। यह लघु उपन्यास या कहें आधुनिक दंत कथा मौखिक कथा कहने का एक बहुत ही सुंदर नमूना है। व्हेलों और इंसानों के बीच के रिश्तों की कवितामयी कहानी कहता यह लघु उपन्यास उन लोगों के लिए भी अहम है जो पुराने लोगों की कथाआें को हंसी में उड़ा देते हैं और मनुष्य के अनुभवजन्य ज्ञान की उपेक्षा कर मुनाफे और लालच के मारे अपने ही पर्यावरण का विनाश करते हैं।
मनुष्य के ह्वेल में बदल जाने और व्हेल के मनुष्य में बदल जाने की यह कथा मौजूदा दौर के एक चुकची व्यक्ति द्वारा आधुनिक संदर्भों में फिर से कही गई दंतकथा है। जो एक कथा वाचक की तरह अपनी लोक कथा को अपने समय के संदर्भ में पेश करता है। यह उपन्यास इस तरह से विकास के आधुनिक पश्चिमी विचार की भी तीखी मानवीय आलोचना करता है। यह दंतकथा मौजूदा लालच और मुनाफे की व्यवस्था पर भी प्रहार करती है और बिना किसी घोषणा के बताती है कि प्रकृति से मनुष्य का तादात्म्य कितना जरूरी है और यदि मनुष्य के हृदय में प्रेम न हो तो प्रकृति से तादात्म्य भी असंभव है। यूरी रित्ख्यू ने भी अपनी मूल भूमिका में लिखा है''जब एक पुस्तक लिखी जाती है तो कभी कभी वह एेसे पहलुआें और विशेषताआें को प्रदर्शित कर बैठती हैजिस पर लिखते समय लेखक ने सोचा तक न हो। मैं इस पुस्तक में कुछ एेसा ही पाता हूं।'' डॉ. शोभाराम शर्मा ने इस उपन्यास को अंग्रेजी से  हिंदी में प्रस्तुत किया है। पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें उपन्यास की यूरी रित्ख्यू की मूल भूमिका के साथसाथ यूरी रित्ख्यू के दो लेख स्वर लहरी के संगसंग और सदियों की छलांग भी शामिल हैंजो उपन्यास लिखे जाने की पृष्ठभूमि समझने में पाठक की मदद करते हैं। अनुवादक की भूमिका और परिशिष्ट में उनके द्वारा दिया गया यूरी रित्ख्यू का साहित्यिक परिचय स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए लोक विश्वासों व दंतकथाआें पर आधारित एेसी कृतियां कितनी जरूरी हैं। अनुवादक डॉ. शोभाराम शर्मा ने भी अपनी भूमिका में लिखा है—''यदि हमारे लेखक भी अपने लोक साहित्य और दंतकथाआें की बहुमूल्य थाती का उपयोग कर एेसी निर्दोष कलाकृतियां प्रस्तुत कर सकें तो कितना अच्छा हो।''

जब व्हेल पलायन करते हैं : मूल लेखक यूरी रित्ख्यू
अनुवाद : डॉ. शोभाराम शर्मा
संवाद प्रकाशन, आई-499 शास्त्रीनगर मेरठ-250004 (उ.प्र.)
संवाद प्रकाशन, ए-4, ईडन रोज,वृन्दावन एवरशाइन सिटी वसई रोड (पूर्व)
ठाणे (महाराष्ट्र.) पिन-401208

Thursday, June 11, 2015

घुसपैठियों से सावधान


प्रिय मित्र यादवेन्‍द्र जी से मुखातिब होते हुए

हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं-  किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्‍हें  ज्‍यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्‍हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए । ताकि उनके पक्ष और विपक्ष को दुनिया दूरगामी अर्थों तक ले सके और उनकी राय से व्‍युत्‍पन्न होती नैतिकता, आदर्श को विक्षेपित किया जाना संभव न हो पाये। पर ऐसा अक्सर देखने में आता नहीं। खास तौर पर तब जब प्रतिरोध के किसी मसले को  शासक वर्ग द्वारा भिन्‍न अंदाज में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ऐसे खास समय में प्रतिरोध का हमारा तरीका कई बार इतना वाचाल हो जाता है कि खुद हमारे अपने ही मानदण्‍डों को संतुष्‍ट 0कर पाना असंभव हो जाता है । कई बार ऐसा इस वजह से भी होता है कि शासकीय चालाकियों को पूरी तरह से पकड़ पाना हमारे लिए मुश्किल होता है और उसका लाभ उठाकर शासक वर्ग के घुसपैठिये भी प्रतिरोध का नकाब पहनकर अपनी भूमिका को बदल चुके होते हैं ताकि हमारे हमेशा के वास्‍तविक प्रतिरोध को अप्रसांगिक कर सके । उस वक्‍त उनके प्रतिरोध की आवाज इतनी ऊंची होती है कि एकबारगी वे हमें जनता के पक्षधर नजर आते हैं जो हमारे ही मन के प्रिय भावों को प्रकट करने में साथ दे रहे होते है। उनकी इस भूमिका पर हम उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते बल्कि उनके ही नारों, उनके ही तर्कों के साथ खुद प्रतिरोध में जुट जाते हैं। लेकिन एक दिन जब वे पाला बदलकर फिर से अपने पूर्व रंग में होते हें तो पाते हैं कि उनके अधुरे तर्कों के कारण और उनके ही पीछे पीछे डोलने के कारण हम खुद ही अप्रसांगिक हो चुके हैं।

घुसपैठियों के तर्कों में बहने की बजाय हमें प्रतिरोध की अपनी भूमिका को स्पष्ट रखते हुए  निशाना ठीक से साधना आना चाहिए। मैगी के समर्थन में आ रहे विचारों के मद्देनजर बात न भी की जाये तो ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के समय को देखिये जब एक वैश्विक पूंजी के विरोध में किया जा रहा हमारा प्रतिरोध हमें अप्रसांगिक बना दे रहा था । हम लादेन के पक्षधर नहीं हो सकते पर अनायास वैसा दिख रहे थे। हाना मखमलबॉफ की फिल्‍म एक बार फिर याद आ रही है