Sunday, April 27, 2008

अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर और ब्लाग पर छ्पे की --- ?

सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" पर मदन शर्मा का संस्मरण

उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" ने अपनी आयु के अंतिम द्स वर्ष, राजपुर (देहरादून) में व्यतीत किये। उन दिनों उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध रहा।
मफ्तून साहब ने दिल्ली में 54 वर्ष साप्ताहिक 'रियासत" का शानदार सफलतापूर्वक सम्पादन किया। वे एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'नाकाबिल-ए-फरामोश" और 'जज़बात-ए-मशरिक," भारतीय साहित्य में मील का पत्थर हैं। हज़रत जोश मलीहाबादी और महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, खुशवंत सिंह और अन्य हज़ारों साहित्य प्रेमी उनके प्रशंसक, रियासतों के राजा-महाराजा, उनके नाम से ही जलते थे। उर्दू लेखक कृश्नचन्दर की प्रथम रचना को उन्होंने तब 'रियासत" में प्रकाशित किया था जब कृशनचन्दर कक्षा नौ के विद्यार्थी थे।
देहरादून में, राजपुर बस-स्टाप से बायें हाथ, चौड़ी पक्की सड़क मसूरी के लिए है। बिल्कुल सामने एक पतली-सी चढ़ाई, कदीम राजपुर के लिए खस्ताहाल मकानों से होते हुए, शंहशाही आश्रम की ओर ले जाती है। इन दोनों मार्गों के बीच, एक बाज़ूवाली गली है जो घूमकर पुराने राजपुर के उसी मार्ग से जा मिलती है। इसी गली में कभी, उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह मफ्तून ने अपनी आयु के अंतिम दस वर्ष व्यतीत किये थे। यहाँ वे दो बड़े कमरों, लम्बें बरामदों और खुले आंगन वाले पुराने से मकान में अकेले रहते थे। आयु 80 के ऊपर थी। सीधा खड़ा होने में पूर्णत: असमर्थ। काफी झुककर या घिसट-घिसट कर किचिन या टॉयलेट तक जाते और अपना काम निबटाते। पड़ोस में रहने वाली स्वरूप जी, घर की साफ-सफाई कर जाती, या चाय-वाय की व्यवस्था कर देती। दिल्ली में, धड़ल्ले से छपने और देश-भर में तहलका मचा देने वाला साप्ताहिक 'रियासत" कभी का बंन्द हो चुका था। लेकिन राजपुर वाले इस मकान के दफ्तर में, लम्बी चौड़ी मेंज़ों पर मोटी-मोटी फ़ाइलें, रियासत के सिलसिलावर अंक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, कृश्नचन्दर, सआदत हसनमंटो और अन्य सैकड़ों प्रशंसकों द्धारा लिखे पत्र, अलग-अलग फ़ाइलों में मौजूद हैं। एक जगह खुशवंत सिंह का नाम भी दिखाई पड़ रहा है।
उस मकान में वह अकेले रहते थे। मगर हर रोज मिलने वालों का तांता लगा रहता। यार-दोस्त, प्रशंसक, पत्रकार, मश्वरा लेने वाले। वे एक माने हुए मेहमान नवाज़ थे। मेहमान को हमेशा भगवान का दर्जा दिया करते।
ज्ञानी जैल सिंह उन दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री थे। मफ्तून साहब से मिलने आये थे। बात-चीत हुई। ज्ञानी जी ने कहा-" आप यहाँ उजाड़ में पड़े क्या कर रहे हैं, चंडीगढ़ आजाइये''
""चंडीगढ़ में क्या करूंगा?'' मफ्तून साहब ने पूछा। ज्ञानी जी ने सहज भाव से कहा, "बातें किया करेंगे।'' मफ्तूत साहब छूटते ही बोले, "तुमने मुझे सोर्स ऑफ एन्अरटेनमेंट समझ रखा है?''
दोनों खिलखिला पड़े। उन्हें दो जगह से पेंशन मिल रही थी। पंजाब सरकार से और केंद्र सरकार से भी। इसके अतिरिक्त कितने ही उनके पुराने प्रशंसक थे, जों अब भी उन्हें चेक भेजते रहते थे और उसमें से बहुत को वे जानते तक नहीं थे। वे कहा करते---" इस जमाने में भी आप अगर काबिल हैं और आपका क्रेक्टर है तो लोग आपके पीछे, रूपए की थैलियां लिए घूमेंगे ---''
मैंने अब तक उनके बारे में महज़ सुना था। मिलने का कभी मौका न मिला था। एक दिन इन्द्र कुमार कक्कड, ""1970'' साप्ताहिक के लिये उनका साक्षात्कार लेने गये, तो अपने मोटर साईकिल पर मुझे भी साथ ले गये।
वे लम्बे चौड़े शरीर के खुशमिज़ाज, मगर लाचार से व्यक्ति नज़र आये। बिस्तर पर तकियों के सहारे अध-लेटे हुए वे बातचीत कर रहे थे। बाद में भी वे अकसर ऐसी अवस्था में ही नज़र पड़े।
उन्होंने बारी-बारी, हम दोनों से परिचय प्राप्त किया। मेरे बारे में मालूम कर, कि मैं उपन्यास वगैरा लिखता हूँ, उन्होंने हंसते हुए, लेखकों और कवियों के बारे में दो-तीन लतीफे सुना दिये। मुझे फीका सा पड़ता देख, वे अखबार वालों की ओर पलट पड़े-"यह अखबार वाले, क्रिमनल-क्लास के आदमी होते हैं। और इनमें सबसे बड़ा ऐसा क्रिमनल मैं खुद रहा हूँ'' ऐसा कह वे कहकहा लगा कर हंसने लगे।
अचानक उन्होंने मुझ से पूछा, "आपकी पैदायश कहां की है?'' मैंने जगह का नाम बताया, तो वे चौंक कर बोले, "रियासत मलेरकोटला के। मैं वहां कई बार जा चुका हूँ। मैं जिन दिनों महाराजा की मुलाज़मत में था, कई जरूरी कामों के सिलसिले में, मुझे वहां के नवाब अहमद अली खां से मुलाकात का मौका मिला था। मलेरकोटला अच्छी ज्रगह है। वहां के लोग बेहद मेहनती, ईमानदार मगर कावर्ड क्लास के होते हैं। जिस जगह की मेरी पैदायश है वह जगह अब पाकिस्तान में है। वहां के लोग भी बहुत मेहनती होते हैं। पैसा खूब कमाना जानते हैं। वे अच्छे मेहमानवाज होते हैं। मगर उनमें एक खूबी यह भी है, कि वो दुश्मन को कभी मुआफ़ नहीं करते। बल्कि उसका खून पी जाते हैं।''
फिर वे लेखन की ओर मुडे "---कम लिखो, मगर ऐसा लिखो, जो दूसरों से कुछ अलग और अनूठा हो। उस लिखे की उम्र लम्बी होनी चाहिये। अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर होती हैं। किसी रसाले में छपा, ज्यादा से ज्यादा एक महीने का मगर जो महात्मा तुलसी दास ने लिखा, उसे कई साल हो गये ---''
पंडित खुशदिल ने अपने उर्दू अखबार 'देश सेवक" के माध्यम से मफ्तून साहब की शान में, कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया। मफ्तून साहब को नागवार गुज़रा, क्योंकि उनकी खुशदिल से उनकी पुरानी जान पहचान थी। वे कितनी बार सपरिवार दिल्ली में उनके मेहमान बनकर रहे थे और कितनी बार मफ्तून साहब ने पंडित खुशदिल की माली इमदाद भी की थी। खुशदिल को अपनी गलती का, बाद में एहसास भी हो गया और उसने मफ्तून साहब से मुआफ़ी मांगने की भी कोशिश की थी, मगर मफ्तून साहब की डिक्शनरी में तो मुआफ़ी शब्द मौजूद ही नहीं था। वे मुझे बुला कर कहने लगे, ""मदन जी, आप एक काम कीजिये, देहरादून का जो टॉपमोस्ट एडवोकेट हो, उससे मेरी मुलाकात का टाइम फिक्स कराइये। मैं खुशदिल पर मुकदमा ठोकूंगा और नाली में घुसेड़ दूंगा।''
मैं सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से इन दिनों अखबारी शत्रुओं के पचड़ें मे पड़ना नहीं चाहता था, इसलिये चुप ही रहा।
कुछ दिन बाद, मफ्तून साहब का पत्र मिला ---"-आप छुट्टी के दिन इधर तशरीफ़ लायें। जरूरी मश्वरा करना है ---। दीवान सिंह''
मैं जाकर मिला। इधर-उधर की बातचीत और चाय के बाद उन्होंने पूछा, "आप उर्दू से हिंदी में तर्जुमा कर सकते हैं?'' मैंने कहा, "थोड़ा बहुत कर ही लेता हूँ।''
"थोड़ा-बहुत नहीं, मुझे अच्छा तर्जुमा चाहिये। आप फिलहाल एक आर्टिकल ले जाइये। इसे हिन्दी में कर के मुझे दिखाइये, ताकि मेरी तसल्ली हो जाये।''
मैं उनका लेख उठा लाया और अगले रविवार, अनुवाद सहित राजपुर जा पहुँचा।
""आप इसे पढ़ कर सुनाइये।''
मैंने पढ़कर सुना दिया। सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे और मैं चाय पीकर वापस लौट आया।
तीन दिन बाद उनका पत्र मिला, जिसमें लिखा था- "मेरे ख्याल के मुताबिक आप एक फर्स्ट क्लास ट्रांस्लेटर हैं। आप अगले रविवार को तशरीफ़ लाकर मेरी किताब का पूरा मैटर तर्जुमे के लिये ले जा सकते हैं।''
मैं उनकी किताब का मसौदा लेने राजपुर पहुंचा, तो बोले, "आप एक बात साफ़-साफ़ बताइये, इस किताब के पूरा तर्जुमा करने के लिये कितना मुआवज़ा लेंगे?''
मैंने चकित होकर कहा, "यह आप क्या कह रहे हैं। मेरे लिये तो यह फ़ख्र की बात है, कि मैं आपकी किताब का हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ। वे मुस्करा कर बोले, "यह आप ऊपर-ऊपर से तो नहीं कह रहे?'' मैने उन्हें यकीन दिलाया, कि जो कह रहा हूँ, दिल से ही कह रहा हूँ। मैंने पूरी किताब का अनुवाद किया। इन्द्र कुमार कक्कड़ ने उसे तरतीब दी और डॉ. आर के वर्मा ने पुस्तक प्रकाशित कर दी।
यह पुस्तक, जिस का नाम 'खुशदिल का असली जीवन" था मफ्तून साहब ने लोगों में मुफ्त तकसीम की और उसके माध्यम से देश सेवक के सम्पादक पंडित खुशदिल को सचमुच नाली में घुसेड़ दिया।
उर्दू के मशहूर शायर जनाब जोश मलीहाबादी ने अपनी ज़ब्रदस्त किस्म की किताब 'यादों की बारात" के एक अध्याय में लिखा है --- पूरे हिंदुस्तान में शानदार किस्म की गाली देने वाले तीन व्यक्ति अपना जवाब नहीं रखते। उनमें पहले नम्बर पर फ़िराक गोरखपुरी का नाम आता है। दूसरे नम्बर पर सरदार दीवान सिंह मफ्तून और तीसरे नम्बर पर खुद जोश मलीहाबादी। इनमें पहले और तीसरे नम्बर के महानुभावों से मिलने का मुझे मौका न मिल सका। मगर मफ्तून साहब से, वर्षों तक मिलने और बातचीत करने के नायाब मौके मिले। सिख होने के बावजूद वे हमेशा उर्दू में ही बातचीत किया करते थे। मगर उस बातचीत के दौरान, वे जिन गालियों का अलंकार स्वरूप प्रयोग किया करते, वे ठेठ पंजाबी में होती। उन गालियों का प्रयोग वे बातचीत में इतना उम्दा तरीके से करते, कि सुनने वाला वाह कह उठता।
मफ्तून साहब की भाषा में एक अन्य विशेषता भी थी। वे जिस तरह बोलते थे, उसी तरह लिखते थे। यह दीगर बात है, कि उस लेखन में वे गालियां शामिल न होती थी। उनके द्धारा बोले या लिखे जाने वाले वाक्य, सरल उर्दू में लेकिन लम्बे होते थे। मगर उनमें व्याकरण की अशुद्धि कभी नहीं मिल सकती थी। उनकी सुप्रसिद्ध किताब नाकाबिल-ए-फ़रामोश का हिंदी संस्करण, 'त्रिवेणी" नाम से छपा। इस किताब के छपने से खूब नाम और पैसा मिला। पुस्तक में जो छपा है, वह मफ्तून साहब के संघर्षमय जीवन का 'सच" है, जो पाठकों के लिये एक मशाल का काम करता है।
नाकाबिल-ए-फ़रामोश के उर्दू संस्करण की सभी प्रतियां खप चुकी थी। किंतु 'त्रिवेणी" की काफी प्रतियां अभी मफ्तून साहब के पास मौजूद थी। उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया, कि जो व्यक्ति किताब का डाकव्यय उन्हें मनीआर्डर से भेज देगा, उसे त्रिवेणी की प्रति मुफ्त भेज दी जायेगी। उनका नौकर हर रोज़ किताबों के पैकेट बनाता और पोस्ट आफिस जा कर रजिस्ट्री करा देता। मैंने हैरान होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं। इतनी मंहगी किताब लोगों को मुफ्त भेजे चले जा रहे हैं।''
वे हँस कर बोले,
"अब मैं ज्यादा दिन नहीं चलूंगा। मेरे बाद लोग इन किताबों को फाड़-फाड़ कर, समोसे रख कर खाया करेंगे। इससे अच्छा है, जो इसे पढ़ना चाहे, वे पढ़ लें।''
एक दिन दैनिक 'दूनदपर्ण" के सम्पादक एस. वासु उनसे मिलने आये तो कहने लगे, "अपनी इस किताब की एक जिल्द इस नाचीज को भी इनायत फ़रमाई होती।''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, "दरअसल यह किताब मैंने उन अच्छे लोगों के लिये लिखी है, जो इसे पढ़कर और अच्छा बना सकें। इसीलिये मैंने यह किताब आप को नहीं दी।''
वासु ने चकित होकर पूछा, ""मेरे अंदर आपने क्या कमी पाई?''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, ""कुछ रोज़ पहले, आप रात के बारह बजे मेरे यहां शराब की बोतल हासिल करने की गरज़ से तशरीफ़ लाये थे न? आप यह किताब लेकर क्या करेंगे?''
हिंदी कहानी पत्रिका 'सारिका" में एक कॉलम 'गुस्ताखियाँ"" शीर्षक से छप रहा था, जिसक माध्यम से,, हिंद पॉकेट बुक्स के निदेशक प्रकाश पंडित, अपने छोटे-छोटे व्यंग्य लिख कर जानीमानी हस्तियों पर छींटाकशी किया करते थे। एक बार वह गलती से वे मफ्तून साहब की मेहमान वाज़ी को केन्द्र बना कर बेअदबी कर बैठे। किसी ने सारिका का वह अंक मफ्तून साहब को जा दिखाया। प्रकाश पंडित को मफ्तून साहब अपना अज़ीज मानते थे। सुन कर वह इतना ही बोले, "यह बेचारा अगर काबिल होता, तो किसी की दुकान पर बैठ कर किताबें बेचता नज़र आता।''
मफ्तून साहब उच्च कोटि के सम्पादक और लेखक होने के बावजूद बहुत ही विनम्र थे। वे पहली मुलाकात में जाहिर कर देते थे, कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं है। वे अकसर मज़ाक के मूड में कहते।।। "मैं महज़ इतना पढ़ा हूं, जितना भारत का शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद, यानि पांचवी पास।''
एक दिन उनके पास पंजाबी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहन सिंह आये हुए थे। मुझसे उनका परिचय कराते हुए बोले, "इन्हें पिछले दिनों कोई बड़ी उपाधि मिली है। समझ में नहीं आता, जब इनसे बड़ा बेवकूफ मैं यहां मौजूद था, तो यह उपाधि मुझे क्यों नहीं दी गई।''
मफ्तून साहब के व्यक्तित्व में बला का आकर्षण था। उनके द्धारा कही गई साधारण बातचीत में भी गहरा अर्थ निहित रहता। मैं और इन्द्र कुमार कक्कड़, अकसर रविवार के दिन उनके दर्शन करने जाया करते। उन्हें हर वक्त सैकड़ों लतीफे या किस्से याद रहते, जिनके माध्यम से, स्वयं उनके सम्पर्क आये लोगों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता था। यह सब बयान करने की उनकी शैली इतनी उम्दा थी, कि सुनने वाला घंटों बैठा सुनता रहे और मन न भरे।
एक बार उनके पास एक आदमी, किसी का सिफारिश पत्र लेकर पहुंचा, जिसमें लिखा था, कि इस ज़रूरत मंद आदमी के लिये किसी कामकाज़ का बंदोबस्त कर दिया जाये। मफ्तून साहब ने उस आदमी के लिये रहने और खाने की व्यावस्था कर दी और कहा, "शहर में घंटाघर से थोड़ी दूर मोती बाज़ार है। वहां पर देश सेवक अखबार का दफ्तर है। आपको यह पता करना है कि वहाँ हर रोज़ लगभग कितनी डाक आती है।''
वह आदमी एक सप्ताह के बाद रिर्पोट लेकर पहुंचा और बोला, "क्या खाक डाक वहाँ पर आती है। हफ्ते भर में सिर्फ एक पोस्ट कार्ड आया, जिसमें लिखा था, कि ---
मफ्तून साहब ने टोका, "श्रीमान जी, मैंने आपको सिर्फ यह मालूम करने के लिये भेजा था, कि वहां पर हर रोज़ कितनी डाक आती है, या किसी का खत पढ़ने के लिये। दूसरों के खत पढ़ने वाले लोग यकीन के काबिल नहीं होते। इसलिऐ मुझे अफसोस है, कि मैं आपके लिए किसी काम का बंदोबस्त नहीं कर सकता।''
मेरे पड़ोसी मोहन सिंह प्रेम, मफ्तून साहब के प्रशंसक थे और उनसे मुलाकात के बहुत इच्छुक थे। मैंने उन्हें राजपुर जाकर मफ्तून साहब से मिल आने के लिये कह दिया। कुछ दिन बाद मैं मफ्तून साहब से मिला, तो वे कहने लगे, "आपने मेरे पास किस बेवकूफ को भेज दिया। वह आदमी जितनी देर मेरे पास बैठा रहा, आत्मा-परमात्मा की बातें ही करता रहा। मैंने बेजार होकर कह दिया, सरदार साहब, दिल्ली में आत्माराम एंड संस को तो मैं जानता हूँ, जो किताबें छापते हैं। मगर आपके आत्मा परमात्मा या धर्मात्मा जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं।''
एक दिन कोई अखबार वाला उनके पास आकर हालात का रोना रोने लगा ---"क्या बताऊँ, अखबार तो चल ही नहीं रहा। आप ही कुछ रास्ता बतायें।'' मफ्तून साहब ने कहा, "अखबार चलाने के तीन मकसद होते हैं। मुल्क और कौम की खिदमत करना और रूपया कमाना। आपका क्या मकसद हैं?''
वह आदमी बोला, ""जी मैं तो चार पैसे कमा लेना चाहता हूँ, ताकि दाल रोटी चलती रहे'', मफ्तून साहब बिगड़ कर बोले, "आप अखबार चलाने के बजाय, तीन चार कमसिन और खूबसूरत लड़कियों का बंदोबस्त करके उनसे धंधा कराइये। कुछ ही दिन में आपके पास पैसा ही पैसा होगा। आप अखबार चलाने के लायक नहीं।''
एक दिन मैंने कहा, "देश में भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही चला जा रहा है। आखिर होगा क्या?'' वे सोचने लगे। फिर बोले, "बहुत जल्द वह जमाना आने वाला है कि यही लोग, जो लीडरों के गले में फूलों के हार पहनाते नहीं थकते, इन्हीं लीडरों के लिये बंदूकें लिये, उनका पीछा करते नज़र आयेंगे।''
बातों का सिलसिला चल रहा था। इन्द्र कुमार ने कहा, "सुना है कृश्न चन्दर को आपने ही छापा था सबसे पहले।'' कृश्नचन्दर के बारे में बताने लगे---"वह तब नौंवी क्लास में पढ़ता था। उसने अपने किसी टीचर का नक्शा खींचते हुए तन्ज या व्यंग्य लिखा और मेरे पास भेज दिया। मुझे पसंद आया और रियासत में छाप दिया। उसको पढ़कर कृश्नचन्दर के टीचर और पिता ने भी, उसकी पिटाई कर डाली थी। काफ़ी दिन बाद उसकी एक कहानी मेरे पास आई। मैंने कहानी पढ़ी और तार दिया---'रीच बाई एयर"।
--- वह अगले ही दिन आ पहुँचा। मैंने कहा, "पहले फ्रेश होकर कुछ खा पी ले, फिर बात करेंगे।''
"यह कहानी तुमने लिखी?''
"जी''।
"इसे यहाँ तक पढ़ो।''
कृश्नचन्दर ने कहा, "यह तो वाकई मैं गलत लिख गया।''
"तो ऐसा करो, इसे अपने हाथ से ही ठीक कर दो। मफ्तून साहब के एकांउटेट ने उन्हें हवाई जहाज़ के आने जाने का किराया और डी. ए. वगैरा देकर विदा किया।''
इन्द्र कुमार ने कहा, "सआदत हसन मंटो के बारे में कुछ बताइये?'' बोले- "मंटो मेरा अच्छा दोस्त था। वह जिन दिनों दिल्ली में होता था शाम के वक्त मेरे दफ्तर में आता और देर तक बैठा रहता। मैं काम में लगा रहता और बीच बीच में उससे बात भी कर लेता। वह उठने लगता तो मैं पूछता,-'पियेगा?" वह जाते जाते रूक जाता और कहता, 'पीलूंगा।" मैं फिर काम में लग जाता। वह फिर उठने लगता, तो मैं फिर पूछ लेता, पियेगा? दो तीन बार ऐसा होने पर वह झुझला कर कहता, पिलायेगा भी कि ऐसे ही बनाता रहेगा?--- एक बार वह लगातार मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैंने मुस्कुरा कर पूछा, "मंटो, क्या देख रहे हो।'' वह बोला--- "सरदार तुमने अपने माथे पर जो यह बेंडेज बाँध रखी है इससे तुम्हारी पर्सनैलिटी में चार चांद लग जाते हैं।'' मंटो में एक खास बात थी, कि वह एक नम्बर का गप्पी था। वह अपनी कहानी में जान पहचान वालों या किसी फ़िल्मी हस्ती का असली नाम डाल देता और बाकी पूरी कहानी उसके अपने दिमाग की पैदावार होती थी। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं होती थी। मगर वह लिखता उम्दा था।''
मफ्तून साहब इन्द्र कुमार को सलाह दिया करते--- "मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी, शादी करना। वरना मैं बहुत तरक्की करता। कक्कड़, आप हरगिज़ शादी नहीं करना। आप में काबिलियत है, बहुत तरक्की कर सकते हैं ---''
वे चौरासी के आसपास पहुँच चुके थे। शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चला था। लेकिन अब भी किसी का सहारा लेना स्वीकार न था। उसी तरह घिसट-घिसट कर टॉयलेट या किचिन तक जाते। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कह ही डाला, "ऐसी हालत में आप का परिवार साथ होता, तो बेहतर होता।''
वे मेरी और देखते रहे, फिर बोले, "मेरी बीवी बददिमाग है। उससे हमारी बातचीत बंद है। तीन लड़के हैं। बड़ा लड़का कारोबारी है। खूब पैसे कमाता है। मगर बहुत अकड़बाज है। मैं भी उसका बाप हूं। दूसरा थोड़ा ठीक-ठाक हैं। किसी तरह अपना और बाल बच्चों का गुज़ारा कर लेता है। तीसरा दिमाग से कमज़ोर हैं। मैं कभी कभी उसका माली इमदाद कर दिया करता हँू। मगर उनमें से किसी को भी यहां आने की इज़ाजत नहीं --- दे आर नॉट एलाउडटू एंटर दिस हाऊस।''
वे फिर कहने लगे, "मैंने अपनी जिंदगी में लाखों कमाये। अपने ऊपर खर्च किया। दोस्तों की मदद की। मगर सबसे ज्यादा मेरा रूपया, अखबार पर चलने वाले मुकदमों पर खर्च आ गया, जिस की वजह से दिल्ली में मुझे 'रियासत" का दफ्तर बन्द कर देना पड़ा। हाँ, शादी न करता तो बात कुछ और होती।''
उन्हें महसूस होने लगा था, अब लम्बे सफ़र की तैयारी है। राजपुर बस-स्टैंड के पास शांति की दुकान थी। मफ्तून साहब ने उसे अपने अंतिम संस्कार के लिये कुछ रकम सौंप रखी थी। वे रात को भी दरवाज़ा खुला रख कर सोते। जाने कब बुलावा आ जाये और बेचारे शांति को दरवाज़ा तुड़वाना पड़े। एक बार मैंने कहा, "अगर चोरी हो जाये तो?''
वे हँस कर बोले, "यहां के चोर थर्ड क्लास किस्म के हैं। वे दाल चावल या नमक मिर्च ही चुरा सकते हैं। हाँ, कोई पंजाबी चोर आ गया, तो वह भारी चीज़ उठाने की सोचेगा।''
उनकी बीमारी के बारे में जानकर पंडित खुशदिल भी पता लेने पहुँचे। हालचाल पूछा और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए, मुआफ़ी की गुज़ारिश की। मुआफ़ी शब्द मफ्तून साहब की डिक्शनरी में नहीं था। मगर अंतिम समय मानकर उन्होंने केवल एक शब्द कहा, "अच्छा,''
बाद में मफ्तून साहब ने मुझे बताया, "खुशदिल आया था और मुआफ़ी मांग रहा था। मैंने अच्छा कह दिया। मैं एक बात सोच रहा हूँ, कि खुशदिल या तो महापुरूष है, या उल्लू का पट्ठा।''
कुछ अर्सा पहले उन्होंने अपनी नई किताब का मसौदा और प्रकाशन का व्यय, दिल्ली में अपने मित्र और शायर गोपाल मितल के पास भेजा था। पता नहीं चल सका, वह पुस्तक छपी या नहीं।
बहुत बीमार हो जाने पर महंत इंद्रेश चरण जी ने उन्हें कारोनेशन अस्पताल में दाखिल करा दिया। वहां वे प्राइवेट वार्ड में थे। उन दिनों 'फ्रटियरमेल" के सम्पादक दता साहब ने उनकी बहुत सेवा की और मुआमला नाज़ुक जानकर उन्होंने मफ्तून साहब के बेटे को सूचित कर दिया।
लड़के दिल्ली से आये और उन्हें बेहोशी की हालत में, कार में डाल कर ले गये।
दिल्ली में होश आने पर उन्होंने पूछा, "मैं कहां हूँ?''
"आप अपने परिवार में हैं।''
तभी उन्होंने शरीर त्याग दिया।
मदन शर्मा फ़ोन :-0135-2788210

Thursday, April 24, 2008

चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है

("रेलगाड़ी" सभी वय के लोगों को आकर्षित करती है लेकिन क्या चीज़ है जो इसको विशिष्ट छवि देती है ? यह एक बच्चे की आँखों से अनुभव किया जा सकता है। इंजन की वजह से इसका खिसकना संभव होता है। इस शब्द की वजह से रेल कितनी सरल और सुलभ लगने लगती है। रंगों का जिक्र और हिलने की क्रिया पूरी प्लेटफार्म की हलचल को प्रकाशित करती है। और हाँ, चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है. - राजेश सकलानी )

सौरभ गुप्ता, देहरादून

रेलगाड़ी

छुक्क छुक्क करती रेलगाड़ी आई
अपने पीछे कई डब्बे लाई
पटरी पर यह चलती हरदम
पर इंजन बिना कहीं न खिसके

काला था इंजन, सफेद थे डब्बे
डब्बों में थे रंग-बिरंगे लोग हिलते-डुलते
छुक्क छुक्क जब यह चलती
दूर तक सुनायी देती आवाज इसकी
प्लेटफार्म में धीरे हो जाए
स्टेशन में चाट पकौड़ी खाए
फिर धीरे-धीरे रफ्तार बढाए।

Tuesday, April 22, 2008

क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं

(क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं ?
जी हाँ, नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2008 के अंक में प्रकाशित सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताओं को पढ़ने के बाद अपने को रोक न पाने, पर जब कवि महोदय को फोन लगाया, तो यही कहा था मैंने।
थोड़ा अटपटाने के बाद एक सहज और संतुलित आवाज में ज़वाब मिला, जी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति ही बोल रहा है। फिर तो बातों का सिलसिला था कि बढ़ ही गया। कविता के लिखे जाने की स्थितियों पर बहुत ही सहजता से सुन्दर चन्द ठाकुर ने अपने अनुभवों को बांटा। निश्चित ही नितांत व्यक्तिगत अनुभव कैसे समष्टिगत हो जाता है, इसे हम सुन्दर चन्द ठाकुर की इस कविता में देख सकते हैं। एक ही शीर्षक से प्रकाशित ये दस कवितायें थीं, जिनमें से कुछ को ही यहाँ पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। कविता को पढ़ते हुए जो प्रभाव मुझ पर पड़ा था, वह वैसा ही आप तक पहुंचे, इसके लिए कविताओं के क्रम परिवर्तन की छूट लेते हुए उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।)

सुन्दर चन्द ठाकुर, मो0 0991102826

एक बेरोज़गार की कविताऍं

एक
चांद हमारी ओर बढ़ता रहे
अंधेरा भर ले आगोश

तुम्हारी आँखों में तारों की टिमटिमाहट के सिवाय
सारी दुनिया फ़रेब है

नींद में बने रहे पेड़ों में दुबके पक्षी
मैं किसी की ज़िन्दगी में खलल नहीं बनना चाहता
यह पहाड़ों की रात है
रात जो मुझसे कोई सवाल नहीं करती
इसे बेखुदी की रात बनने दो
सुबह
एक और नाकाम दिन लेकर आएगी।


दो
कोई दोस्त नहीं मेरा
वे बचपन की तरह अतीत में रह गये
मेरे पिता मेरे दोस्त हो सकते हैं
मगर बुरे दिन नहीं होने देते ऐसा

पुश्तैनी घर की नींव हिलने लगी है दीवारों पर दरारें उभर आयी है
रात में उनसे पुरखों का रुदन बहता है
माँ मुझे सीने से लगाती है उसकी हडि्डयों से भी झरता है रुदन

पिता रोते हैं माँ रोती है फोन पर बहनें रोती हैं
कैसा हतभाग्य पुत्र हूँ, असफल भाई
मैं पत्नी की देह में खोजता हूँ शरण
उसके ठंडे स्तन और बेबस होंठ
कायनात जब एक विस्मृति में बदलने को होती है
मुझे सुनायी पड़ती है उसकी सिसकियाँ

पिता मुझे बचाना चाहते हैं माँ मुझे बचाना चाहती है
बहनें मुझे बचाना चाहती हैं धूप हवा और पानी मुझे बचाना चाहते हैं
एक दोस्त की तरह चाँद बचाना चाहता है मुझे
कि हम यूँ ही रातों को घूमते रहें
कितने लोग बचाना चाहते हैं मुझे
यही मेरी ताकत है यही डर है मेरा।


तीन
मैं क्यों चाहूँगा इस तरह मरना
राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पीकर
राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं
राष्ट्रपति मेरी माँ नहीं

वे मुझे बचाने नहीं आयेगें।


चार
मेरे काले घुँघराले बाल सफ़ेद पड़ने लगे हैं
कम हँसता हूँ बहुत कम बोलता हूँ
मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगी है
अकेले में घबरा उठता हूँ बेतरह
मेरे पास फट चुके जूते हैं
फटी देह और आत्मा
सूरज बुझ चुका है
गहराता अँधेरा है आँखों में
गहरा और गहरा और गहरा
और गहरा

मैं आसमान में सितारे की तरह चमकना चाहता हूँ।


पाँच
इस तरह आधी रात
कभी न बैठा था खुले आँगन में
पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनायी पड़ रहा है
मेरी आँखों में आत्मा तक नींद नहीं
देखता हूँ एक टूटा हुआ तारा
कहते हैं उसका दिखना मुरादें पुरी करता है
क्या माँगू इस तारे से
नौकरी!
दुनिया में इससे दुर्लभ कुछ नहीं

मैं पिता के लिए आरोग्य माँगता हूँ
माँ के लिए सीने में थोड़ी ठंडक
बहनों के लिए माँगता हूँ सुखी गृहस्थी
दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा
ओ टूटे तारे
उसे बख्श देना तू
नौकरी!

Sunday, April 20, 2008

जूते बेचने के लिए

सुभाष पंत
मो० 09897254818
( सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। निम्न-मध्यवर्गीय समाज का कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुंचा जा सकता है।
यहां प्रस्तुत कहानी, शीघ्र ही प्रकाशन के लिये तैयार उनके नये संग्रह से ली गयी है. अभी तक सुभाष जी के छ: कथा संग्रह, एक नाटक और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. "पहाड चोर"(उपन्यास) अभी तक प्रकाशित उनकी सबसे अन्तिम रचना हैं जो साहत्यिक जगत में लगातार हलचल मचाये हुए है. )


पुत्र की आत्मा चैतन्य किस्म के उजाले से झकाझक थी, जिसने उसके चेहरे की जिल्द का रंग बदल दिया था। भूरी काई दीवाल से ताजा सफेदी की गई दीवाल में। वह गहरे आत्मविश्वास से लबालब था, जो पैनी कटार की तरह हवा में लपलपा रहा था, जिसके सामने हम जमीन पर चारों खाने चित्त गिरे हुए थे। उसकी बगल में एक ओर राष्ट्रीय बैंक में अफसरनुमा कुछ चीज उसका पिता पशुपतिनाथ आसीन था। वो प्रसन्न था और वैसे ही प्रसन्न था जैसे किसी पिता को अपने बेटे की विलक्षण उपलब्धि पर होना चाहिए। खुशी से उसकी आंखें भरी हुई थीं और गला भरभरा रहा था। लेकिन उसकी अफसरनुमा चीज हड़काई कुतिया की तरह दुम दबाए बैठी थी। वह भौंकना भूल गई थी। पर जैसे ही उसे अपने महान संघर्षों और उपलब्धियों की हुड़क उठती, वैसे ही हड़काई कुतिया की पूंछ सौंटी हो जाती और हवा में लहराने लगती।
उसके संघर्ष सचमुच महान थे और उपलब्धियां चमत्कारी। वह घोर पहाड़ के ऐसे हिस्से में पैदा हुआ था, जहां कोई स्कूल नहीं था, लेकिन वहां एक दरिद्र-सा मंदिर जरुर था। उसके पिता उस मंदिर के पुजारी थे। वे बहुत गरीब थे। और सज्जन भी। पशुपतिनाथ उनकी पांचवीं संतान था। पिता कुण्डलियां बनाने और पढ़ने के माहिर थे। अपने बच्चों की कुंडलिया उन्होंने खुद ही बनाई थी और उनके गलत होने का कोई सवाल ही नहीं था। बच्चों की कुंडलियां पढ़कर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि मेरी पांचवीं संतान पशुपति धर्मपरायण होगा और मेरे बाद इस मंदिर के पुजारी के आसन पर सुशोभित होगा। हालांकि तब पशुपति कुछ सोचने की उम्र से छोटा था, लेकिन पिता की इस भविष्यवाणी से उसकी नींद गायब हो गई। वह क्रांतिकारी किस्म का लड़का था और मंदिर में घंटी बजाना उसे कतई स्वीकार नहीं था। वह मौका देखकर घर से भागकर मौसा के पास शहर आ गया। शहर में आकर उसने बेहद संघर्षं किए और घोर पहाड़ का यह लड़का निरन्तर प्रगति करते हुए बैंक में अफसरनुमा कोई चीज बन गया। वह होशियार और चौकन्ना था। उसने जमीन की खरीद-फरोख्त और दलाल बाजार से काफी पैसा पीटा। अब उसके पास शहर की संभ्रान्त कालोनी में कोठी है। माली है, बागवानी है, ए।सी। है, कम्प्यूटर है, बाइक है, कार है और न जाने क्या क्या है। यह भयानक प्रगति छलांग थी जो घोर पहाड़ के गरीब पुजारी की पांचवीं सन्तान ने मंदिर की छत से एलीट दुनिया में लगाई थी। अपनी इस महान संघर्ष गाथा को, जिसका उत्तरार्ध सफलताओं से भरा हुआ था, सुनाने के लिए वह हमेशा बेचैन रहता।
पुत्र की बगल में दूसरी तरफ अलका बैठी थी। उसकी गर्वीली मां। औसत कद की गुटमुटी, गोरी और चुनौती भरे अहंकार से उपहास-सा उड़ाती आंखों वाली। उसने ढीला-सा जूड़ा किया हुआ था, जो उसकी गोरी गर्दन पर ढुलका हुआ था और उसके बोलने के साथ दिलकश अंदाज में नृत्य करता था। वह बनारसी साड़ी पहने हुए थी, जो शालीन किस्म से सौम्य और आक्रामक ढंग से कीमती थी। लेकिन अट्ठाइस साल पहले जब वह पशुपतिनाथ की दुल्हन बनकर आई थी, जो उन दिनो हमारे पड़ोस में एक कमरे के मकान में विनम्र-सा किराएदार था, तब वह ऐसी नहीं थी। उन दिनो वह किसी स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की हुआ करती थी। सांवली, छड़छड़ी। कसी हुई लेकिन लम्बी चुटिया। आंखों में विस्मय भरी उत्सुकता और सहमा हुआ-सा भय और काजल के डोरे। लेकिन जैसे जैसे उसका पति छलांग मारता गया वैसे वैसे यह सांवली लड़की भी बदलती चली गई। और पशुपति के अफसरनुमा चीज बनने के बाद तो उसे हमारा मौहल्ला, जो उस समय तक उसका मौहल्ला भी था, बहुत वाहियात और घटिया लगने लगा।
''यह रहने लायक जगह नहीं है। पता नहीं लोग ऐसी जगह कैसे रह लेते हैं बहनजी --- मेरा तो यहां दम घुटता है। लोग एक दूसरे की टांग खींचने के अलावा कुछ जानते ही नहीं। और बच्चे? हे भगवान ऐसे आवारा और शरारतती बच्चे तो मैंने कहीं देखे ही नहीं। यहां रह गई तो मेरे बेटे का भविष्य बरबाद हो जाएगा।'' वह बेटे को बांहों के सुरक्षा-घेरे में लेकर कहती। और उसकी पुतलियां किसी अज्ञात भय से थरथराने लगतीं।
उसका डर भावनात्मक नहीं, जायज किस्म का था। मुहल्ले के लड़के वाकई भयानक रूप से आवारा, विलक्षण ढंग के खिलन्दड़ और सचेत किस्म से शिक्षा-विमुख थे। पशुपतिनाथ का सुकुमार उनके खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता था। वे उससे इसलिए भी खार खाते थे कि उन दिनों वह 'स्टैपिंग स्टोन" का पढ़ाकू छात्र था। जाहिर है कि यह मुहल्ले के उस शिक्षा-संस्कार पर घातक हमला था, जिसे बनाने में कई पीढ़ियों ने कुर्बानियां दीं थी और जिसकी रक्षा करना यह पीढ़ी अपना अहोभाग्य मानती थी। इसलिए जब भी लौंडे-लफाड़ों को मौका मिलता, खेल के मैदान में या उससे बाहर कहीं भी, तो वे उसकी कुट्टी काटे बिना न रहते। वह हर दिन पिटकर लौटता और मां के लिए संकट उत्पन्न हो जाता। वह गहराई से महसूस करती कि ऎसी स्थिति में उसके बेटे का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। और वो हो भी रहा था। वह लड़कियों की तरह व्यवहार करने लगा था। लड़के का लड़की में बदलना एक गम्भीर समस्या थी और इसका एकमात्र हल मुहल्ला बदलने में निहित था। आखिर उन्होंने हमारा मुहल्ला छोड़ दिया। एक संभ्रात कालोनी में कोठी बनाली। इस छकड़ा मुहल्ले से नाता तोड़कर वे प्रबुद्ध किस्म के नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का एक शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ मुझे भी मुहल्ला छोड़ने के लिए उकसाते। उनका खयाल था कि मैं एक प्रतिभाशाली आदमी हूं और यह मुहल्ला मेरी प्रतिभा को डस रहा है। लेकिन मैं उनके बहकावे में नहीं आया। दरअसल एक तो मुझमें इसे बदलने की ताकत नहीं थी। दूसरे, अगर मेरे भीतर सचमुच कोई प्रतिभा थी, तो यह मुझे इस मुहल्ले ने ही दी थी। इसके अलावा मुझें इससे प्यार था, क्योंकि यहां बच्चे सचमुच बच्चे थे, जवान; जवान और बूढ़े; सचमुच के बूढ़े। देशज और खांटी। अद्भुत और विस्मयकारी। मुहल्ला कविता बेशक नहीं था, लेकिन इसका हरेक एक दिलचस्प और धड़कती कहानी जरूर था।।।इसलिए मैं मुहल्ला नहीं छोड़ पाया। चूंकि उन्हें सफल और महान बनना था इसलिए वे इस जीवन्त मुहल्ले को छोड़कर नगर की शालीन उदासी से लिपटी सम्भ्रान्त कालोनी में चले गए, जो एक दूसरी भाषा बोलती थी और जहां दूसरी तरह के लोग रहते थे, जो न लड़ना जानते थे और न प्यार करना--- बहरहाल कालोनी में आते ही वे प्रबुद्ध नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ को अपने औहदे की वजह से जरूर कुछ दित हुई। वह बैंक का अफसर जैसा कुछ होने के बावजूद कालोनी की दृष्टि में तुच्छ और हिकारत से देखे जाने वाली चीज था। लेकिन इस उपेक्षा से उसकी रचनात्मक प्रतिभा पल्लवित हो गई और वह अपने गार्डन में घुसकर बेहतरीन फूल और पौष्टिक तरकारियां उगाने लगा। अलका को जरूर यह नई जगह रास आ गई। उसने किट्टी पार्टियों में शामिल हो कर फैशन और घर संवारने के आधुनिक तरीके, भले लोगों में उठने-बैठने का सलीका और कुछ अंग्रेजी के शब्द सीख लिये। बहरहाल मुहल्ले से नाता तोड़ने के बावजूद उन्होने हमारे परिवार से सम्बंध बनाए रखा। वे जब भी मिलते तो बहुत देर तक बतियाते रहते। उनकी बातचीत का एकमात्र विषय बेटा होता। सचमुच उनका बेटा विनम्र, शिष्ट और प्रतिभाशाली था और पढ़ाई में निरन्तर उपलब्धियां हासिल कर रहा था। उसका कद बहुत बड़ा हो गया था और उसके माता-पिता बजते हुए भोपुओं में तब्दील हो गए थे।
वे आज कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रहे थे।
''इधर की याद कैसे आ गई पशुपति जी।।।"" मैंने कहा।
वे सहसा उत्साहित हो गए। ''हमने सोचा यह खबर सबसे पहले आप को ही दी जानी चाहिए।"" अलका ने मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ते हुए कहा, ''आपके बेटे की नौकरी लग गई है।""
''यह तो बहुत अच्छी खबर है। आज के जमाने में नौकरी मिलना तो जंग जीतने के बराबर है।" मैंने कहा।
यह उनकी विनम्रता थी कि वे अपने उस लड़के को हमारा लड़का कह रहे थे, जिसने इस हा-हाकार के युग में नौकरी प्राप्त कर ली थी। मैं उनकी सदाशयता पर मुग्ध था।
''बहुत बहुत बधाई।" मेरी पत्नी ने भी उत्साह जाहिर किया।
''यह सब आपकी दुआ है। नौकरी भी बहुत अच्छी मिली। मल्टी नेशनल में।" अलका ने चहकते हुए कहा।
''वाकई आपके बेटे ने तो कमाल कर दिया।"
''यह दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आम लोगों की धारणा है। मैं कहता हूं कि यह अकूत संभावनाओं से भरी है। यहां कुछ भी पाया जा सकता है। बशर्ते आदमी मेहनत करे और उसमें हौंसला हो। अब मुझे ही देखो।।।"
वे अपने महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी सुनाने के लिए बेताब हो गए, लेकिन उनके बेटे ने, जो अब एमएनसी का मुलाजिम था, उन्हें बीच में ही रोक दिया। ''पापा आप भी।।।"
हालांकि यह बेटे की पंगेबाजी को शालीनता से पचा लेने का अवसर था। यह मौके की नजाकत थी और वक्त की जरूरत भी। लेकिन पशुपति ऐसा नहीं कर पाये। घर की ताजा हरी सब्जियों के नियमित सेवन से लहू में बढ़ी लौह मात्रा, दलाल बाजार से अनाप-शनाप पीटे पैसे की उछाल और चिरयौवन के लिए प्रतिदिन खाए जाने वाले कमांडो कैपसूल से उपजे पौरुष ने उनकी पूंछ सौंटी कर दी और वे तिक्त स्वर में बोले, ''तो क्या तुम्हारी निगाह में मेरे संघर्षों के कोई मानी नही हैंं?"
लड़का मुस्कराया। यह बहुत हौली-सी मुस्कुराहट थी, लेकिन उसके भीतर से ठंडी उपेक्षा का अरूप तीर निकला और शब्दहीन पिता के कलेजे में धंस गया, जिससे वे आहत हो गए और शायद पलटवार करने को सन्नद्ध भी।
मुझे लगा जैसे सहसा सब कुछ अघोषित युद्ध-स्थल में बदल गया है, जिसके एक ओर विनम्र सम्मान के साथ बेटा खड़ा है और दूसरी ओर विशद ममता के साथ पिता है, लेकिन उनके हाथों में नंगे खंजर हैं। युग युगान्तर से आमने-सामने खड़ी दो युयुत्स पीढ़ियां। मैं दुविधा में था और सममझ नहीं पा रहा था कि मेरी मंशा युद्धरत पीढ़ियों में किसे आहत देखने की थी। हमारी पीढ़ी एक थी पर पशुपति मुझ से और उनका बेटा मेरे बेटे से आश्चर्यजनक रूप से सफल था।
वातावरण बेचैन किस्म की चुप्पी से भरा हुआ था। अलका ने बेटे के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कुराहट और पति का तमतमाया चेहरा देखा तो वह उनके बीच एक पुल की तरह फैल गई।
''तुम्हारे पिता की सफलताएं बहुत बड़ी हैं। खासकर तब जब इन्होंने ऐसी जगह से शुरु किया जहां कोई उम्मीद नहीं थी। इनके सिर पर किसी का हाथ नहीं था। इन्होंने सब कुछ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। ट्युशन करके और अखबार बेचकर इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बैंक में नौकर हो गए। वहां भी तरी की और अफसर बने। यह इन्हीं का बूता था कि शहर की सब से शानदार कालोनी में इन्होंने कोठी बनाई। शुरु में हमारी वहां कोई पूछ ही नहीं थी। आईएएस, आईपीएस जैसे बड़े अफसरों, बिजनेसमैंनों, कांट्रेक्टरो, कालाधंधा करने वालों की निगाह में बैंक के एक छोटे से अफसर, क्या कहते हैं उसे 'कैश मूवमैंट आफिसर" की बिसात ही क्या होती है। लेकिन आज ये ही हैं जिनके बिना कालोनी में पत्ता तक नहीं खड़क सकता। कोई भी काम हो चाहे मंदिर बनवाने का या भगवती जागरण का या सड़कों की मरम्मत का या फिर और भी कोई दीगर काम सबसे आगे ये ही रहते हैं। जीवन में एक एक इंच जगह इन्होंने लड़कर हासिल की है। इनके संघर्ष महान हैं और प्रेरणादायक हैं।" उसने कहा और उसका चेहरा आभिजात्य गरिमा से तमतमाने लगा।
''मम्मा, पापा के संघर्षों के प्रति मेरे मन में सम्मान है, लेकिन ये प्रेरणादायक नहीं हैं। सच कहूं तो ये अब इतिहास की चीज हो गए हैं। प्रीमिटिव एण्ड आउट ऑव डेट।" इनकी सक्सेस स्टोरी के आज कतई मायने नहीं हैं।" बेटे कहा।
इस बीच पत्नी ने चाय भी सर्व कर दी। बोन चायना की प्यालियों में। इस परिवार से हमारा आत्मीय सम्बंध था और बेतकल्लुफी से हम इन्हें चाय मगों में पिलाते थे, जिनमें देशजपन था और जिन्हें हमने फुटपाथ से खरीदा था। लेकिन यह बात लड़के के एमएनसी में जाने से पहले की थी। इस समय वह सम्मानित आतंक से भरी हुई थी और फुटपाथ से खरीदे मगों में चाय पिलाना उसे नागवार लगा था। बेटे ने पिता के संघर्षों को परले सिरे से नकार दिया था। और यह सब उसने उत्तेजना में नहीं, बहुत ठंडे स्वर में किया था। नि:संदेह यह एक खतरनाक किस्म की बात थी।
पशुपति चुपचाप चाय सिप करने लगे। लेकिन वे आहत थे। अलका भी, जो स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की से पति के अफसर होने के साथ प्रबुद्ध किस्म की महिला में रूपान्तरित हो चुकी थी, पशोपेश में थी। दरअसल, पत्नी और मां की सामान्य मजबूरी की वजह से दो हिस्सों में बंटकर वह निस्तेज हो गई थी। अब सामान्य शिष्टाचार के कारण मेरा ही दायित्व हो गया था कि मैं सुलह का कोई रास्ता तजबीज करूं।
''क्या तुम सचमुच ऐसा समझते हो कि पिता की संघर्ष-गाथा महत्वहीन हो गई है।"
''जी हां अंकल। यह आज का रोल मॉडल नहीं है। अगर हम इतिहास को थामकर बैठेंगे तो पीछे छूट जाएंगे। अब यह देश पूरी तरह अमीर और गरीब में बंट चुका है। गरीबों के साथ आज कोई भी नहीं है। न व्यवस्था, न धर्म, न न्याय, न बाजार यहां तक कि मीडिया भी नहीं, जो हर जगह पहुंचने का दावा करता है। वह भी उनके बारे में तभी बोलता है, जब वे कोई जुर्म करते हैं, क्योंकि आज बाजार में जुर्म बिकता है। गरीब कितना ही संघर्ष करे वह गरीब ही रहेगा। पापा की तरह संघर्ष करके और उन्हीं की तरह कामर्स में थर्ड क्लास एमए करने के बाद मैं किसी बजाज की दुकान में थान फाड़ रहा होता। इतना ही नहीं फर्स्ट क्लास होने पर भी मेरा भाग्य इस से अलग नहीं होता। संघर्ष के मायने बदल गए हैं और ये तभी कोई परिणाम दे सकते हैं जब आपकी जेब में पैसा हो।"
''लेकिन तुम तो पूरी तरह सफल हो। एमएनसी की नौकरी से बेहतर क्या हो सकता है।"
''हां, क्योंकि पापा की हैसियत मेरे लिए अच्छी शिक्षा खरीदने की थी और उन्होंने ऐसा किया भी --- मुझे शहर के सब से बढ़िया स्कूल में पढ़ाया। टाट-पट्टी के हिन्दी स्कूल में पढ़ाते तो मैं आज घास छील रहा होता। या यह भी संभव है कि मुझ में घास छीलने की काबलियत भी न होती।"
आहत पिता के सीने में हुलास की एक लहर दौड़ गई। बेटा भले ही उनके महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी के प्रति निर्मम है, जो दो पीढ़ियों के सोच का अन्तर है, लेकिन वह उसका कैरियर बनाने के लिए किए उनके प्रयासों के लिए पूरा सम्मान प्रर्दशित कर रहा है। उन्होंने उसके लिए रात-दिन एक कर दिया था। उसे अंग्रेजी माध्यम के सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाते हुए वे आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट गए थे। लेकिन राहत की बात थी कि बेटा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा था। पढ़ने के अलावा तो उसकी कोई और दुनिया ही नहीं थी। उसके दोस्त भी ऐसे ही थे। वे सिर्फ कैरियर की बात करते। दुनिया जहांन से उनका कोई वास्ता ही नहीं था। उनके खयाल से देश में सब ठीक और कुछ ज्यादा ही ठीक चल रहा था। ये बड़े बापों के लायक बेटे थे। देश का उदारवाद उनके और उनके जैसों के लिए ही संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा था।
अलका अब तक पिता-पुत्र के बीच का वह स्पेस तलाद्गा कर चुकी थी जहां से दोनों को संभाला जा सकता था। उसने गर्वीली चमक, जो पति-पुत्र की सफलताओं ने उसके भीतर पैदा की थी, के साथ कहा, ''एकदम ठीक बात है। इन्होंने बेटे को अच्छे स्कूल में ही नहीं पढ़ाया, बल्कि ये उसके साथ पूरी तरह घुल गए थे। इनकी दुनिया भी सिर्फ बेटे में ही सिमटकर रह गई थी। बैंक से लौटते ही ये उसे पढ़ाने बैठ जाते। और पढ़ाने के लिए खुद रात रात भर पढ़ते। मैं कई बार झल्ला जाती कि इम्तहान आपने देना है कि बेटे ने। ये एक जिम्मेदार पिता की तरह जवाब देते, 'क्या बताऊँ? अब बच्चों को पढ़ना भी तो क्या क्या पड़ता है। हमने तो ऐसा कुछ नहीं पढ़ा था। वक्त ही बदल गया है। अगली पीढ़ी को सफल बनाने के लिए पिछली पीढ़ी को भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है।" बाप-बेटे दोनों रात-दिन मेहनत करते और यह अस्सी प्रतिशत नम्बर लाता। ये उसका रिजल्ट देखते और इन्हें निराशा का दौरा पड़ जाता। अस्सी प्रतिशत का बच्चा बाजार में अपनी कोई जगह नहीं बना सकता। फिर बेटे के लिए ट्युशन लगाए गए। भाई साहब इंटर में तो तीन ट्युशन थे हजार हजार के। स्कूल की भारी फीस और स्कूटर-पैट्रोल का खर्च अलग। इसने मेहनत कितनी की इसे तो बयान ही नहीं किया जा सकता। तब कहीं जाकर इसके छियास्सी प्रतिद्गात नम्बर आए।"
''छियास्सी प्रतिशत नम्बर तो सचमुच बहुत होते हैं।" मैंने कहा, ''ही"ज रियली जीनियस।"
''नहीं अंकलजी ये नम्बर बहुत नहीं थे। लेकिन इतने कम भी नहीं थे कि मैं निराश हो कर घुटने टेक देता।" बेटे ने चाय का प्याला, जिसमें से थोड़ी-सी चाय सिप की गई थी, मेज पर रखते हुए कहा, ''मेरे सामने अगला लक्ष्य आईआईटी था। मैंने अपनी सारी ताकत झोंक दी। पूरे साल मेहनत की और कितनी की यह मैं ही जानता हूं। बैस्ट कोचिंग इंसटीट्यूट से कोचिंग ली। लेकिन मैं आईआईटी तो दूर किसी अच्छी जगह मैरिट में नहीं आ सका। यह बहुत निराशा का दौर था और मैं पूरी तरह टूट गया था। मुझ में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि फिर से कम्पीटीशन की तैयारी कर सकूं।"
''मेरा तो भाई साहब दिमाग बिल्कुल खराब हो गया था।" अलका ने कहा, ''आंखों की नींद छिन गई थी। इसके दोस्त जो पढ़ने में इससे मदद लेते थे वे तो अच्छी जगह आ गए थे। ये रह गया था। किसी की नजर लग गई थी इसकी पढ़ाई पे। मैं कहां कहां नहीं भटकी। मंदिरों में शीश नवाया, गुरद्धारों में मत्था टेका, मजारों में शिजदा की, पीर-फकीरों के सामने झोली फैलाई। इन प्रार्थनाओं का असर हुआ भाई साहब और ये कमान संभालने के लिए कमर कसकर खड़े हो गए।"
अलका पशुपति को सहसा हाशिए से खिसकाकर परिदृश्य के केन्द्र में ले आई। ऐसा होते ही पशुपति की आवाज में गम्भीर किस्म का ओज भर गया। ''मैंने इससे कहा तू हिम्मत क्यों हारता है। कम्पीटीशन में न आ पाना दु:ख की बात तो अवश्य है लेकिन तेरे सारे रास्ते बंद नहीं हुए। डोनेशन का रास्ता तो खुला है। कहीं न कहीं तो सीट मिल ही जाएगी। और चार लाख डोनेशन देकर मैंने इसके लिए सीट खरीद ली।"
''चार लाख तो बड़ा अमाउंट होता है पशुपतिजी।।।।खासकर नौकरीपेशा के लिए।"
''भाई साहब छै साल पहले तो यह और भी बड़ा अमाउंट था। सर्विसवाले के पास कहां इतनी ताकत होती है। ये तो साहब आपके आशीर्वाद से शेयर मार्र्केट से रुपया बना रखा था। क्या थ्रिल है शेयर मार्केट भी --- कोई मेहनत नहीं बस दिमाग और स्पैकुलेशन का खेल। मैं तो कहता हूं भाईजान आप भी शेयर मार्केट में लाख-दो लाख डाल दी जिए। मेरे कहने से शेयर खरीदिए। देखिए सालभर में क्या कमाल होता है।"
ये पशुपति की जर्रानवाजी थी कि वे इसे मेरा आशीर्वाद मान रहे हैं, हालांकि मैंने अकसर सट्टा-बाजारी के लिए उन्हें हतोत्साहित किया था। मैं कृतज्ञता से मुस्कराया कि वे मुझे भी दलाल बाजार में किस्मत आजमाने का निमत्रण दे रहे हैं और मेरी सहायता करने को भी तैयार हैं। उनके चंगुल से बचने के लिए मैं उनके पुत्र की ओर मुखातिब हुआ, ''तुम्हारी सफलता के पीछे तुम्हारे पिता खड़े हैं और उन्होंने इस कहावत को गलत सिद्ध कर दिया है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी औरत का हाथ होता है।" लड़का हंसने लगा। ''हां अंकलजी पुरानी सारी बातें अब व्यर्थ होती जा रही हैं। पर पहले आप मेरी बात तो सुन लीजिए।"
''जाहिर है कि मैं सुनना चाहता हूं। शायद मैं उस पर कभी कोई कहानी ही लिख दूं।"
कहानी लिखने के मेरे प्रलोभन को उसने कोई तरजीह नहीं दी। शायद उसके जीवन में कहानी वगैरह का कोई महत्व नहीं रह गया था।
''हां अंकलजी जब मैं डोनेशन से मिली सीट ज्वाइन करने जा रहा था तो मेरा सिर शर्म से झुका हुआ था। मेरे एमएनसी में जाने के सपने पूरी तरह टूट चुके थे। सीट भी सिविल में मिली थी। मेरे नाम के साथ इंजीनियर जरूर जुड़ जाने वाला था। लेकिन भविष्य किसी कंस्ट्रकशन कम्पनी में छै हजार की नौकरी वाले टटपूंजिया नौकर से अधिक कुछ नहीं था। ऐसे इंजीनियरों को तो पुराना और अनुभवी मिस्त्री ही हड़का देता है। लेकिन तभी मेरे मन ने कहा कि असली आदमी तो वह है जो वहां से भी रास्ता निकाल सके, जहां उसके निकलने की संभावना अत्यंत क्षीण हो। बस अंकलजी मैंने उसी समय निर्णय लिया कि मैं अपनी हार को विजय में बदलकर दिखाऊँगा।"
''हां, मनुष्य के भीतर एक मन होता है, जो टूटकर भी कभी नहीं टूटता।" मैंने समर्थन में सिर हिलाया। ''इसके बाद अंकलजी मैंने पढ़ाई में रात-दिन एक कर दिए। मैरिट में आया मैं। यह आश्चर्य की बात थी कि डोनेद्गान का लड़का मैरिट में आए। लेकिन इंजीनियरिंग कॉलेज की क्रेडिटेबिलिटी ऐसी नहीं थी कि उसकी मैरिट का छात्र एमएनसी में लिया जा सके। रास्ता सिर्फ मैनेजमैंट का कोर्स करके निकल सकता था। फिर मैंने कैट क्लीयर किया। लेकिन दुर्भाग्य ने यहां भी मेरा साथ नहीं छोड़ा और मैं पहले दस बी0 स्कूल में नहीं आ सका। अब सिर्फ एक ही रास्ता रह गया था कि मैं किसी एमएनसी के साथ कोई प्र्रोजेक्ट करूं और अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकूं। मैं हर रोज तीस किलोमीटर का सफर करके एमएनसी के ऑफिस में जाता। अपने और स्कूल के नाम की चिट भेजककर सीइओ से मिलने की प्रार्थना करता। और हर दिन मेरी प्रार्थना ठुकरा दी जाती। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और पच्चीस दिन की दौड़ के बाद आखिर सीइओ ने मुझे मिलने का वक्त दे दिया। और अब मैं सीइओ के सामने था। आत्मविश्वास से भरा, शार्प, मुस्कराता और मैगेटिक पर्सनेलिटी का मुश्किल से तीस साल का आदमी, जो सारे एशिया में कम्पनी के प्र्रॉडक्ट्स की सेल्स के लिए जिम्मेवार था। वह घूमने वाली कुर्सी पर बैठा था और उसकी शानदार टेबल पर कुछ फोन और बस एक लैपटॉप था। 'फरमाइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।" कुर्सी की और बैठने का संकेत करते हुए उसने मुस्कराते हुए पूछा। मैंने अपना बायोडाटा उसकी ओर बढाते हुए कहा, 'सर मैं आपके साथ एक प्रोजेक्ट करना चाहता हूं।"
इसी बीच कॉफी आ गई। उसने कॉफी पीते हुए मेरे बायेडाटा पर सरसरी निगाह डाली और फिर मेरी आंखों में आंखे डालते हुए कहा, ''मिस्टर बाजपेई आपके पास सेल्स के बारे में कोई ओरिजीनल आइडिया हो, जिस पर आप प्रोजेक्ट करना चाहते हैं, तो बताएं। लेकिन खयाल रहे कि आपके पास सिर्फ दो मिनट हैं।"
मैंने अपना आइडिया बताया, जो शायद सीइओ को पसन्द आ गया, हालांकि उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था।
''ओके यू कैन प्रोसीड। मीट माई सेक्रेटी मिसेज रामया। शी विल फेसेलिटेट यू फॉर कैरिंगआउट द प्रॉजेक्ट।" उसने कहा, ''अंकलजी यही मेरे जीवन का टर्निंग पाइंट सिद्ध हुआ।"
''वाकई यह दिलचस्प है।" मैंने कहा, ''तुम्हारी हिम्मत सचमुच तारीफ के काबिल है।"
''जी हां अंकलजी यह आज का रोल मॉडल है। मैंने प्रोजक्ट को अपनी सारी ताकत और क्षमता झोंककर पूरा किया। सीइओ को यह प्रोजेक्ट बहुत पसन्द आया। यहां तक तो सब ठीक था। अब सवाल था प्रेजेंटेशन का। एमएनसी के कानफ्रेंस हॉल में गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सामने प्र्रजेंटेशन देने में अच्छे-अच्छे की हालत पतली हो जाती है। यह मेरी अग्निपरीक्षा थी। प्रेजेंटेशन सचमुच बहुत अच्छा रहा। मेरा आत्मविश्वास अपने चरम पर था। क्वेश्चन सैशन में मैंने बहुत कॉन्फीडेंस से सवालों के जवाब दिए। और ये सवाल किसी ऐरे-गैरे के नहीं गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सवाल थे। तालियों की गड़गड़ाहट में जब मुझे पुरस्कार में कम्पनी के प्रॉडक्ट दिए गए तब मुझे यकीन हुआ कि सेल्स सम्बंध मेरी मौलिक अवधारणाओं को मान्यता मिल गई है। दरअसल अंकलजी ये प्रेजेंटशन ही मेरा इंटरव्यू था। इस बात का पता मुझे उस समय हुआ जब मैंनेजमैंट का फाइनल करते ही एमएनसी का अप्वाइटमैंट लैटर मेरे हाथ में आया। जानते हैं अंकलजी यह फोर्टी फारचून कम्पनीज में से एक है, जो हमारे देश के मार्केट में दस हजार का तो जूता ही उतार रही है।"
दस हजार के जूते की बात से मैं लड़खड़ा गया। ''इस गरीब मुल्क में जहां हर साल कपड़ों के अभाव में ठंड से सैकड़ों लोग मर जाते हैं।।।दस हजार का जूता ---" मैंने शंका जाहिर की।
''क्या बात करते हैं अंकलजी, इस देश में पूरे युरोप से भी बड़ा मध्यम वर्ग है। उसकी लालसायें अनन्त हैं और उसके बीच मार्केट की विशद संभावनाएं हैं। वह दस जगह बचत करेगा, या दस जगह बेईमानी से रूपया कमाएगा और एएमएनसी का दस क्या बीस हजार का जूता भी खरीदेगा। जानते हैं न अंकलजी यहां आदमी की औकात वस्तुएं तय करती हैं। भले ही हम अपने को आध्यात्मिक कहते हों, लेकिन स्कूटर, कार, फ्रिज वगैरह की खरीद पे पूजा-पाठ करके प्रसाद हम ही बांटते हैं।" उसने कहा और विजयी भाव से मेरी ओर देखा।
मैं सहसा उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे सका।
वह सफलता के गरूर में था और इस गरूर के साथ ही उसने कहा, ''कम्पनी मुझे अगले महीने ट्रेनिंग के लिए यूएसए भेज रही है। वापस आकर मैं नार्थ इंडिया में कम्पनी की सेल्स देखूंगा।"
मैंने उसकी और देखा तो वह मुझे बहुत भव्य और महान दिखाई दिया, जिसके सामने हम अकिंचन और बौने थे।
मेरे पास सचमुच कोई विकल्प नहीं रह गया था, सिवा इसके कि मैं उसे उसकी विलक्षण सफलता के लिए बधाई दूं।
मैंने ऐसा किया भी। और उसका हाथ थामकर गर्मजोशी से हिलाने लगा।

Friday, April 18, 2008

डॉ0 विजय दीक्षित की कविता


(डॉ0 विजय दीक्षित गोरखपुर में रहते हैं। लखनउ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ''चाणक्य विचार"" में लगातार लिखते हैं। बहुत सहज, सामान्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता को हम उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। यहॉं प्रस्तुत है उनकी कविता, जो ई-डाक द्वारा हमें प्राप्त हुई थी।)

तपन

बहा जा रहा था नदी में घड़ा

तभी एक कच्चे घड़े ने ईर्ष्यालु भाव से पूछा

क्यों इतना इठला रहे हो ?

तैरेते हुए घड़े ने कहा,

मैंने सही थी आग की तपन

चाक से उतरने के बाद

तप कर लाल हुआ था,

मुझे बेचकर भूख मिटाई कुम्हार ने

ठंडा पानी पीकर प्यास बुझाई पथिक ने

मुझमें ही रखा था मक्खन यशोद्धा ने कृष्ण के लिए

अनाज को रखकर बचाया कीड़े-मकौड़ों से गृहस्थ ने

अनाज से भरकर सुहागिन के घर मै ही तो गया था।

अन्तिम यात्रा में भी मैने ही तो निभाया साथ

पर तुम तो डर गये थे तपन से,

कहते हुए घड़ा चला गया बहती धार के साथ

अनंत यात्रा पर

और कच्चा घड़ा डूब गया नदी में

नीचे और नीचे।

डॉ विजय दीक्षित

मो0 । 9415283021

Tuesday, April 15, 2008

गुजरते हुए

विजय गौड

(एक लम्बी कविता। वर्ष 200५ में रुपकुंड की यात्रा के दौरान जिसे यूंही टुकड़ों टुकड़ों में लिखा गया। समुद्र तल से लगभग 16500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है रुपकुंड। वर्षों पहले किसी विभिषका के दौरान बर्फ के नीचे दब गये नर कंकाल जहां आज भी ज्यों के त्यों हैं। रुपकुंड से आगे ज्यूरागली दर्रे से होते हुए घाट पहुंचा जा सकता है। 12 वर्षों के अंतराल पर निकलने वाली 12 सिंगों वाले खाडू बकरे के साथ नंदा देवी की जात-यात्रा सांस्कृतिक यात्रा का मार्ग भी यही है। खाडू को तो यहां से त्रिशूली चोटी की ओर रवाना कर दिया जाता है।)

घाटियों से उठते धुंए
और पंखा झलते पहाड़ों से लय बैठाते,
वाहन में सवार
खिड़की से गर्दन बाहर निकाल
उलटते रहे खट्टापन
बुग्यालों पर पिघल चुकी बर्फ के बाद
हरहराती-फिसलन से बेदखल कर दी गयी
भेड़ बकरियों की मिमियाट को खोजते हुए बढ़ते रहे
जली हुई चट्टानों की ओर
खो चुके रास्तों को खोजना जोखिम से भरा ही था
रुपकुंड की ऊंचाई से भी ऊपर
ज्यूरागली के डरावने पन के पार
शिला-समुद पहुंचना आसान नहीं इतना।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

पहाड़ों की खोह में है रुपकुंड
रुपकुंड में नहीं संवारा जा सकता है रुप
बर्फानी हवाऐं वैसे ही फाड़ देंगी चेहरा
यदि मौसम के गीलेपन को निचोड़ दिया चट्टानों ने,
खाल पर दरारें तो गीलेपन के खौफ से भी न डरेंगीं,
एक उम्र तक पहुंचने से पहले
यूं ही नहीं सिकुड़न बना लेती है घर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

नाम मात्र से आकर्षित होकर
रुपकुंड का रास्ता पकड़ना
खुद को जोखिम में डालना होगा
तह दर तह बिछी हुई बर्फ के नीचे
दबे हुई लाशें अनंतकाल से दोहरा रही हैं,
कटी हुई चट्टानों में रुकने का
जोखिम न उठाना कभी
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

सदियों से उगती रही है
बेदनी बुगयाल में बुग्गी घास,
चरती रही हैं भेड़ें आली और दयारा बुग्याल में भी
रंग बदलती घास ही
चिपक जाती है बदन पर भेड़ों के
जो देती है हमें गर्माहट
और मिटाती है भेड़ चरवाहों की थकावट
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

अतीश, पंजा, मासी-जटा
अनगिनत जड़ी-बूटियों के घर हैं बुग्याल,
कीड़ा-झाड़अ हाल ही में खोजा गया नया खजाना है
जो पहाड़ों के लुटेरों की
भर रहा है जेब
!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बुग्याल के बाद भी
कितनी ही चढ़ाई और उतराई होंगी रुपकुंड तक पहुंचने में
कितने ही दिन रपटीले पहाड़ों पर
ढूंढ कर कोई समतल कहा जा सकने वाला कोना
करेगें विश्राम
पुकारेगें एक दूसरे का नाम,
आवाजों के सौदागर नहीं लगा पायेगें शुल्क,
निशुल्क ही कितने ही दिनों तक सुन सकते हैं
पत्थरों के नीचे से बहते पानी की आवाज
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बुग्यालों पर खरीददार होंगे,
क्या कह रहें हैं जनाब
बिकने के लिए भी तो कुछ नहीं है बुग्यालों में
समय विशेष पर उगने वाली जड़ियां तो
किसी एक टूटी हुई गोठ पर टांग दिये गये
राजकीय चिकित्सालय से
किसी भी तरह की उम्मीद न होने का सहारा भर हैं
फिर ऐसा क्यों हो रहा है हल्ला,
रोपवे खिंच जायेगा वहां
सड़क पहुंच जायेगी
गाड़ियों के काफिलें पहुंचने से इतनी पहले
बेदखल कर दिये गये जानवर
फिर किस लिए ?
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

रुपकुंड के शीष पर चमकती है ज्यूरागली
पाद में फैले हैं बुग्याल;
आली, बेदनी, कुर्मातोली, गिंगातोली
बाहें कटावदार चट्टानों में दुबक कर बैठे
ग्लेशियरों में धंस गयी हैं
चेहरे को भी छुपा लिया है बर्फ ने
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बर्फ में मुंह छुपाये रुपकुंड के चेहरे को जरा संभल कर देखना
मौसम उसकी प्रेमिका है,
कोहरे में ढक देंगें बादल
ओलावृष्टि से क्षत-विक्षत हो जायेगें शरीर
कोई रपटीला ग्लेशियर भी
धकेल सकता है हजारों फुट गहरी खाई में
कार्बन डेटिंग के अलावा
और कोई आकर्षण नहीं रहेगा मानव शरीर का
बर्फ के नीचे दुबका कीड़ा-झाड़
ज्यादा अहमियत रखता है
मुनाफाखोरों के लिए।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

हां जी की नौकरी न जी का घर,
बड़ बड़ाते और आशंकित खतरे से डरे
बढ़ते रहे नरेन्द्र सिंह दानू और देवीदत्त कुनियाल
बगुवावासा में ही छोड़ दो सामान, सर
बिना पिट्ठु के ही रुपकुंड तक पहुंचना आसान नहीं है
ज्यूरागली तो मौत का घर है, सर

क्षरियानाग पर पस्त होने के बाद भी
नहीं रुके
नहीं रुकेगें शिला-समुद्र तक,
हमने ढेरों पहाड़ किये हैं पार

ज्यूरागली का रास्ता नहीं है आसान
पहाड़ों का पहाड़ है ज्यूरागली,
नीचे मुंह खोले बैठा है रुपकुंड

हमारे पिट्ठुओं का वजन
गीले हो चुके सामानों से बढ़ गया है, सर
पर नहीं हटेगें हम पीछे
चलेगें आपके साथ-साथ
बाल-बच्चे दार तो आप भी हैं न सर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

पहाड़ ताकत से नहीं हिम्मत से होते हैं पार
दृढ़ इच्छाशक्ति ही
कंधों पर लदे पिट्ठुओं के भार को हवा कर सकती है,
हवा की अनुपस्थिति में तो उठते ही नहीं पैर
फेफड़ों की धौंकनी तो गुम ही कर देती है आवाज
रपटीले पहाड़ों पर रस्सी क्रे सहारे चढ़ना-उतरना
टंगी हुई हिम्मत को अपने भीतर इक्ट्ठा करना है बस।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बर्फीले ढलान पर नहीं होता कोई पद-चिन्ह,
किसी न किसी को तो उठाना ही पड़ेगा जोखिम आगे बढ़ने का
काटने ही होगें फुट-हॉल पीछे आने वालों के लिए
कमर में बंधी रस्सी के सहारे
आगे बढ़ते हुए फुट-हॉल काटता व्यक्ति
रस्सी पर चलने का करतब दिखाता
नट नजर आता है।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

धीरे-धीरे चलना, सर
तेज चलकर रुक जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है, सर
ऐसे तो एक कैंची भी नहीं कर पायेगें पार
खड़ी चढ़ाई पर चढ़ना तो और भी मुश्किल हो जायेगा

धीरे-धीरे चलना,
सर ऊंचाईयों को ताकते हुए तो दम ही टूट जायेगा,
अपने से मात्र दो फुट आगे ही निगाह रखें, सर
रुक-रुक कर नहीं
ऐसे एक-एक कदम चलें सर

सिर्फ कदमों पर निगाह रखें, सर
सिर्फ अपने कदमों की लय बैठायें, सर
ऊंचाई दर ऊंचाई अपने आप पार हो जायेगीं

देखना ही है तो नीचे छूट गये अपने साथी को देखें, सर
कहीं उसे आपकी मद्द की जरुरत तो नहीं
बेशक थकान कितनी ही भर चुकी हो
बेशक मुश्किल हो रहा हो पांव उठाना,
धीरे-धीरे चलते रहें, सर
लय बैठाने के लिए अभ्यास जरुरी है,
कदम गिन-गिन कर शुरु करें, सर
रुकना ही है तो गिनती पूरी होने पर ही
पल भर को खड़े-खड़े ही रुके, सर
चढ़ाई पर तो बदन आराम मांगता ही है
ठहरिये मत, सर
वैसे भी यूंही
कहीं पर ठहर जाना तो खतरनाक हो ही सकता है, सर

धीरे-धीरे चलें, सर
सिर्फ चलते रहें
एक ही लय में बिना थके
पीठ का बोझ तो वैसे ही हवा हो जायेगा
सिर्फ कमर को थोड़ा झुका लें, सर
सिर नही ।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ढाल पर उतरते हुए तो और भी सचेत रहें, सर
घुटनों पर जोर पड़ता है;
ध्यान हटा नहीं कि रिपटते चले जायेगें

बस वैसे ही चलें, एक-एक कदम
ध्यान रखें सर
पिट्ठु, लाठी या कैमरा
कुछ भी फंस सकता है चट्टान में
एक बार डोल गये तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा, सर
वैसे आप निष्फिकर रहें
मैं आपके साथ हूं
आगे निकल चुके साथियों को,
यदि हम ऐसे ही चलते रहे,
जल्द ही पकड़ लेगें
वे दौड़-दौड़ कर निकले हैं
लम्बा विश्राम जो उनकी जरुरत हो जायेगा
उन्हें वैसे ही थका देगा, सर
उनके पास पहुंच कर भी हम ज्यादा नहीं रुकेगें
बढ़ते ही रहेगें, सर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तम्बाकू न खाओ, सर
बीड़ी भी ठीक नहीं
चढ़ाई में वैसे ही फूल-फूल जाती है सांस
हमारा क्या हमारा तो आना जाना ठहरा
आपका तो कभी-कभी आना ठहरा, सर।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तुम्हारे सिर पर पसीना होगा
अभी चढ़ाई चढ़के आये हो,
टोपी उतारना ठीक नहीं
हमारी तरह साफा बांध लो सर
वरना हवा पकड़ लेगी 'सर"।




अतीश, पंजा, मासी-जटा जड़ी-बूटियों के नाम है
कीड़ा-झाड़ एक विशेष प्रकार की जड़ी। इसमें कीड़े के पेट से ही पौधा बाहर निकलता है। यानी जीव और वनस्पति की एकमय प्रमेय का साक्ष्य भी। इसका तिब्बति नाम है- यारक्षागंगू और अंग्रेजी नाम है- कार्डिसेप

Monday, April 14, 2008

नेपाल में एक राजा रहता था



नेपाल में एक राजा रहता था. नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस आरम्भिक, ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है। 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ती नेपाली जनता को उनकी जीत की खुशी क पैगाम देना चाहता हूं। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है। पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है। भरत प्रसाद उपाध्याय मेरा मित्र है, जो नेपाली मूल का है। चुनाव के बाद नेपाल से मिल रही सूचनाओं में ऐसी ही उम्मीदों के साथ है ढेरों अन्य नेपाली मूल के तमाम भारतीय। अपने जनपद देहरादून के बारे में कहूं तो ऐसे ढेरों लोगों ने ही उसे आकार देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वे भी जो कुछ दिनों पहले तक सूचना तंत्र के द्वारा फैलायी जा रही खबरों, जिनमें नेपाल के जन आंदोलन को आतंकवाद की संज्ञा दी जाती रही, अब उम्मीदों के साथ देख रहे हैं। नेपाल के वर्तमान परिदृश्य पर पिछले दो दिनों से लिखने का मन था, जो कुछ लिखने लगा हूं वह अवांतर कथाओं के साथ विस्तार लेता जा रहा है। उम्मीद है कुछ दिनों में ही पूरा कर पाऊंगा अब। तब तक नेपाल की स्थिति भी काफी साफ हो ही जायेगी।

Friday, April 11, 2008

क्या है मुख्यधारा, कैसा है उसका यथार्थ


अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)


प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।

Wednesday, April 9, 2008

दिनेश चंद्र जोशी की कविता

डांगरी

जब तक साफ सुथरी चमकती रहती है डांगरी
तब तक नहीं लगती असली खानदानी डांगरी,
असली लगती है तभी, जब हो जाती है मैली
चमकते हैं उस पर ग्रीस तेल कालिख के
दागआता है डांगरी के व्यक्तित्व में निखार,
जब मशीन की मरम्मत करता हुआ कारीगर
निकलता हे डांगरी पहना हुआ,
छैल-छबीला, गबरू जवान या चश्मा पहना हुआ
हुआ कोई अनुभवी मिस्त्री ही सही, अचानक प्रकट होता हुआ
मशीन या ट्रक के गर्भ से बाहर
मैली कुचैली धब्बेदार डांगरी पहने हुए
सने हों हाथ ग्रीस या कालिख से और आंखों में
चमक हो, साथ में बत्तीसी निकली हो श्रम के संतोष से, तो
समझ लो सार्थक हो गया डांगरी का व्यक्तित्व।

साफ सुथरी बिना दाग धब्बे की डांगरी
पहनते हैं कई उच्च अधिकारी, प्रबंधक, महाप्रबंधक जब दौरा होता है
कारखाने में किसी विशिष्ट अतिथि मंत्री या प्रधानमंत्री का।
ख्याल आता है, इन सब भद्रजनों को अगर पहना दी जाय
कालिख सनी डांगरी और कर दिया जाय किसी बूढ़े मैकेनिक की
कक्षा में भर्ती, तो कैसा होगा परिदृश्य।
वैसे पहनते रहनी चाहिए डांगरी हर इंसान को जीवन में
एक नहीं कई बार, छूट नहीं मिलनी चाहिए इसकी कवियों,
लेखकों, कलाकारों, मशीहाओं और पंडे पुजारियों बाबाओं को भी।

(दिनेश चंद्र जोशी की इस कविता का पाठ 'संवेदना" की मासिक गोष्ठी में हुआ था। संवेदना, देहरादून के रचनाकारोंे एवं पाठकों का अनौपचारिक मंच है। महीने के पहले रविवार को संवेदना की मासिक गोष्ठियां पिछले 20 वर्षों से अनवरत जारी हैं। 6 अप्रैल 2008 की गोष्ठी में, इस कविता का प्रथम पाठ हुआ। गोष्ठी में पढ़ी गयी अन्य रचनाओं में मदन शर्मा का एक आलेख भी था, जिसमें उन्होंने अपनी पसन्दिदा सौ पुस्ताकों का जिक्र किया। राम भरत पासी ने भी अपनी नयी कविताओं का पाठ किया। सुभाष पंत, डॉ। जितेन्द्र भारती, गुरुदीप खुराना, एस पी सेमवाल, प्रेम साहिल आदि गोष्ठी में उपस्थित थे। )

गुरुदीप खुराना का उपन्यास: उजाले अपने-अपने


मौजूदा समय की पड़ताल करते हुए पूरन चन्द्र जोशी कहते हैं- ''मैंने अपने समय को और उसकी सीमाओं में जिए अपने जीवन को आस्था, अवधारणा और अनुभव के अन्तर्सम्बंध और अन्तर्द्वन्द्व के रूप में महसूस किया है और समझा है, मेरे समय को वैज्ञानिक युग की संज्ञा दी गयी है जिसने हमारे बहिर्जगत में दूरगामी और गम्भीर महत्व के परिवर्तन तो किए हैं, लेकिन हमारे अन्तर्जगत को भी गहराई और विस्तार में उद्वेलित किया और परिवर्तित किया है।"" परिवर्तन की इस दिशा को जानने समझने के लिए गुरुदीप खुराना के रचना संसार की ओर झांके तो सदी के आखरी दशक में शुरू हुए भूमण्डलीकरण की धमक को उनके उपन्यास 'उजाले अपने-अपने" में सुना जा सकता है। इससे पहले प्रकाशित उनके उपन्यास 'बागडोर" ने भी ऐसे ही समय को एक दूसरे कोण से सामने रखा था जिसमें उस नौकरशाही के भ्रष्टतंत्र को निशाना बनाया गया था जो पिछले पचास वर्षों में अपनी जकड़न को मजबूत करती हुई बढ़ी है और आर्थिक नीतियों की दूसरी खेप के रूप में शुरू हुई विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जिसने तार्किकता प्रदान की। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ ही 'उजाले अपने-अपने' की कथा में सुनायी देता है।
इलैक्ट्रानिक्स डिवाईसों से 'ईश्वरीय" तरंगों का प्रक्षेपण और स्टॉक एक्सचेंज रूपी 'ईश्वर" की साक्षात उपस्थिति ने ऐसा दृश्यलोक गढ़ा है जिसने संचार माध्यमों की सामाजिक भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है।
बेशक उपन्यास ऐसे कोनो की ओर ईशारा नहीं करता लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो समय है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के अवचेतन में समय का यह दबाव ही रचना की शक्ल में उभरा है। समय का यह दबाव ही है जो लेखक को प्रेरित और रचनात्मक रूप से क्रियाशील करता है। 'उजाले अपने-अपने" का कथानक घटना के प्रवाह को उस निश्चित समय के भीतर रखने का प्रयास है जिसमें अध्यात्म और योग साधना के दम पर न सिर्फ बाजार पर कब्जा करने की होड़ जारी है बल्कि धर्म का 'वैज्ञानिक" (?) विश्लेषण करते हुए और एक खास वर्ग (मध्य वर्ग) को वैचारिक रूप से इस लपेट में लेते दौर की कार्यवाही का सिलसिला चालू है।
पूरन चन्द्र जोशी को ही आधार बनाकर कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत को 'अध्यात्म प्रधान" और भौतिक जगत को नकारने वाला बताकर इस त्रासदी को और भी गहरा और स्थायी बनाया। अध्यात्म की इस चौधराहट ने जहां धार्मिक पोंगा-पण्डितों के सीने में गुब्बारे फुलाये हैं वहीं भूमण्डलीकरण के आक्रमणों के खिलाफ जन-मानस की लामबंदी में सेंध लगाने का काम भी किया है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया (विशेष तौर पर भारत में) के भीतर स्थानीय पूंजी ने विश्व पूंजी के आक्रमण से तात्कालिक बचाव के रूप में भी ऐसे ही कवच को धारण करना शुरु किया है। आये दिन पैदा हो रहे नये-नये चमत्कारिक बाबाओं का उदय स्थानीय पूंजीपति (देशी) की हताशा और निराशा से उपजी स्थितियों का ही परिणाम है।
भूमण्डलीकरण की प्रक्र्रिया ने जहां एक ओर व्यापक जन समुदाय पर प्रहार किया वहीं सीमित पूंजी की लघु औद्योगिक इकाईयों और देशी पूंजीपति को भी ध्वस्त करना शुरू किया है। जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
दृश्य तरंगों ने इलेक्ट्रानिक्स चकाचौध का ऐसा वातावरण बुना है कि सूचना, पुनरुत्थान और किसी भी तरह की चिन्ता से मुक्त एवं पूंजी की चौपड़ में उलझे समाज की कथायें ही चैनलों पर जगह पा रही है। अट्टहास लगाते राक्षस और अवतारों का दृश्यलोक ईश्वर और धर्म की नयी से नयी परिभाषा गढ़ रहा है। ईश्वर और धर्म की इस आधुनिक परिभाषा का पाठ और उसका निषेध ही 'उजाले अपने-अपने" का मूल कथ्य है जिसे उपन्यास की नायिका शीला अवस्थी के मार्फत भी जाना जा सकता है- ''मतलब यह कि जब हमें कुछ दिखायी नहीं देता तो एक अद्द लाठी की जरुरत महसूस होती है, रास्ता टटोलने को। जो जितना डरा हुआ था, घबराया हुआ है उसे उतनी ही ज्यादा जरुरत महसूस होती है इस सहारे की। हर किसी के ईश्वर की धारणा उसकी जरुरत के मुताबिक बनती।''
आधुनिकता की चकाचौंध में भारतीयता की गंध को खोजता 'उजाले अपने-अपन्ो" का कथानक और उसके पात्र कुतुहल पैदा करते हैं। लेकिन भारतीयता के प्रति उनका रूमानी आकर्षण भी यहां देखने को मिलता ही है। आधुनिकता के रंग में घुली मिली सभ्य-सुशील, पतिव्रता, धर्मिक विश्वासों में रमने वाली पारम्परिक भारतीय नारी की छवी ही शीला अवस्थी के व्यक्तित्व की विशेषता है जो काफी हद तक विवेक को भी भाती है।
बावजूद इसके कि भारतीयता की वह शक्ल जिसे शीला अवस्थी प्रस्तुत करना चाहती है और जिसके लिए लगातार प्रयत्नशील है, कथा नायक विवेक की उससे असहमति है। विवेक के व्यवहार में असहमतियों को जाहिर न कर पाने का ठंडापन जरुर अखरने वाला है लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शीला अवस्थी का व्यक्तित्व, उसका सौन्दर्य और विवेक के प्रति उसका प्यार भी विवेक को कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। हां असहमति को जाहिर न करने का मध्यवर्गीय व्यवहार यहां उसके व्यक्तित्व के कमजोर पक्ष को जरुर उजागर करता है।
आदिल के बेटे के नामकरण वाला प्रसंग हो चाहे स्वंय के विवाह के वक्त पहली बार शीला अवस्थी के साथ घर पहुंचने पर वर-वधु की देहरी पर आरती उतारने और तेल चुहाने की रस्म (बेशक चाहे सादगी से हुई हो) पर विवेक की उससे एक प्रकार की असहमति होते हुए भी वह उसको जाहिर करने कोई जरुरत नहीं समझता। यही वजह है कि जनतांत्रिक-सा दिखने वाला यह प्रेम संबंध जिसमें एक दूसरे की 'स्पेश" में अनाधिकार हस्तक्षेप से बचने का प्रण और उसको निर्वाह करने की ललक, असहमति पर ठंडेपन के कारण बरकरार नहीं रह पाती। शीला अवस्थी का फरमान ''घास पर चलना मना है।"" बावजूद दूसरे की स्पेश में 'एन्क्रोंच" नहीं तो और क्या है? अपनी असहमति को न रख पाने का द्वंद्व ही विवेक को एक प्रकार से आत्म केन्द्रित बनाये देता है, यदि कहीं उसके भीतर का उच्छवास फूटता भी है तो उसमें निराशा और हताशा की अनुगूंज ही सुनायी देती है।
धर्म रूपी 'इन्लाइटमेंट" को बिखेरती शीला अवस्थी की कार्यवाही के विश्लेषण में भी वह अपनी उस समझ तक को नहीं रख पाता जिसको कि वह स्वंय जान रहा होता है- ''आत्म विश्वास की कमी मेन्टल ब्लॉक्स बनाती है- अब चाहे वह गणपति हो या हनुमान या कोई और------" ऐसे ही एकालापों को बड़-बड़ाता विवेक सिंह इस तरह की बहस भी कभी अपनी प्रिया और जीवन संगनी शीला अवस्थी से नहीं कर पाता। ऐसे वक्त पर खिलंदड़ आदिल ही उसका हम सफर होता है- ''यार चलो इन तमाम फिरको और मतों से हटकर एक ऐसी जमात तैयार की जाए जिसमें सिर्फ इंसान हो।"" समाज की मुक्ति धर्म से इतर मनुष्यता की पहचान और उसकी स्थापना पर ही संभव है, जैसे विचार ही विवेक सिंह और आदिल की दोस्ती का कारण है। पर अपने इस विचार को मजबूती के साथ रख पाने में भी वे असमर्थ दिखायी देते हैं।
खास तौर से शीला के सामने तो विवेक एक कमजोर चरित्र ही लगता है जो अपनी सकारात्मकता के बावजूद प्रेरित नहीं कर पाता। शीला अवस्थी विवेक की इस स्थिति से वाकिफ है, तभी तो अपनी बातचीत में वह विवेक को एक सिद्ध पुरुष बनाये हुए है। झूठमूठ की महानता का एक ऐसा आभा मण्डल विवेक सिंह को घ्ोरे हुए है जिसकी धुंध में शीला अवस्थी के कमजोर पक्ष पर उसका कभी ध्यान जा ही नहीं सकता। तमाम आधुनिकता के बावजूद विवेक सिंह की इस चारित्रिक कमजोरी को उसके वर्गीय आधार और पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है।
एंथनी गिडेंस के मार्फत अभय कुमार दुबे ने 'वसुधा" के स्त्री विशेषंाक में पूंजीवादी समाज में प्रेम की तीन श्रैणियों की चर्चा की है। प्रेम की इन तीन श्रैणियों को रुमानी प्रेम, उत्कट प्रेम और इयता केंद्रित प्रेम के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उनके मतानुसार ये तीनों ही रूप आधुनिकता की देन हैं और पूंजीवादी विकास में तरह-तरह की भूमिकाऐं निभाते दिख सकते हैं।
रोमानी प्रेम आजादी की कामना से जुड़ा हुआ है। यहां पूंजी अपने प्रभुत्व के शुरुआती दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का नियामक होते हुए भी प्रेम को डराती है। यहां प्रेम ऐलान करके कहता है कि वह स्थापित संरचनाओं द्वारा आरोपित रिश्तों को मान्यता नहीं देता। ऐसे प्रेम में दोनों पार्टनर एक दूसरे को स्पेशल समझते हैं और यह स्पेशलिटी उसी समय स्थापित हो जाती है जब पहली बार नजरें चार होती हैं। दोनों एक दूसरे के सामने अपना हृदय खोलते चले जाते हैं। दोनों की इयताऍ मिलकर एक हो जाती है। रोमानी प्रेम की यह घटना अपने प्रारम्भ और परिणाम में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग ढंग से घटती है। प्रेम की इस संस्कृति में विशिष्ट किस्म का तीव्र और सार्वभौम रूप उत्कट प्रेम है। इस प्रेम में राज सिंहासन त्याग दिये जाते हैं, वर्ग, जाति की सीमाऐं तोड़ दी जाती है और एक दूसरे को पाने के लिए रेडिकल तरीके अख्तियार करने में भी कोई हिचक दिखायी नहीं देती। रोमानी प्रेम में व्यवस्था विरोध के तत्व होते हैं, पर उत्कट प्रेम व्यवस्था को अपने सामने पूरी तरह से झुका देना चाहता है। वह मरने-मारने पर उतारु रहता है। व्यवस्था इन दोनेां प्रेमों की अस्थिरकारी प्रवृति से चौंकती है।पूंजीवादी समाज लगातार एक तीसरी तरह के प्रेम की तलाश करता रहता है। जिसकी सिफारिश करने से उसे किसी जोखिम का सामना न करना पड़े। यह इयता आधारित प्रेम है। इसमें दोनों पक्ष आगा-पीछा सोच-समझ कर प्रेम में पड़ते हैं। पहली नजर में किसी का किसी को भा जाना प्रेम की शुरुआत कर सकता है, इससे मन में प्रेम का विचार पैदा हो सकता है, लेकिन बुद्धिसंगत कसौटियों पर कसने से यह आकर्षण मस्तिष्क द्वारा खारिज भी कर दिया जाता है। इस प्रेम में प्रेमीजन अपने परिवेश को कोई चुनौती नहीं देना चाहते। वे भविष्य, सामाजिक हैसियत, आर्थिक हैसियत और अपनी इयता की पूरी रक्षा का बंदोबस्त करके प्रेम के मैदान में उतरते हैं। यह प्रेम प्रेम-विवाह 'स्वनियोजित" विवाह में बदल जाता है. जिसमें दोनों पक्षों के परिजन भागीदारी करते हैं।
खास बात यह है कि इस प्रेम में दोनों पक्ष अपनी इयता एक दूसरे के समक्ष उतनी ही प्रकट करते हैं जितनी संबंधों को जारी रहने के लिए जरुरत होती है। दोनों किसी न किसी रूप में अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रखने का निर्णय ले सकते हैं। कुछ-कुछ इस तीसरे तरह के प्रेम के ही दर्शन 'उजाले अपने-अपने" में हो जाते हैं। कुछ-कुछ इसलिए, क्योकि यह प्रेम जिस भू-खण्ड में पनपा है वहां पूंजीवाद उस अवस्था तक पूरी तरह से तक पहुंचा ही नहीं है, जिसके आधार पर गिडेंस ने व्याख्या की है।
चूंकि यह दौर भूमण्डलीकरण का दौर है जिसने आर्थिक मोर्चे पर तो तीसरी दुनिया को तोड़ा ही है साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी घुसपैठ की है। यही वजह है कि इयता आधारित प्रेम की वे सारी शर्ते विवेक और शीला के प्रेम में लागू हो ही नहीं पाती। यानी शाश्वत प्रेम के आग्रह से मुक्त रहने वाला इयता प्रेम 'उजाले अपने-अपने" में शावत्ता के रुप को ही पकड़ने के लिए उत्सुक दिखायी देता है। यही वजह है कि 'मिलन और तलाक" की परिघटना वाला समाज हम यहां नहीं देख पाते बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधों में आरम्भिक दौर का उत्तेजक आकर्षण ठंडेपन के साथ ता उम्र कायम रहता है। साथ ही रुमानियत की जगह असहमतियों को जाहिर न कर पाने वाले ठंडेपन का वातावरण अपने-अपने स्पेश में सुरक्षित बने रहने देने का अहसास देने के लिए कुछ हल्की-फुल्की चुहलबाजी (ह्यूमर) के रूप में दिखायी देता है।
निश्चित तौर पर यह सच है कि वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक मजबूत प्ाक्ष राष्ट्रीयता का उभार हो सकता है। यहां एक बार फिर पूरन चन्द जोशी को ही आधार बना कर कहा जा सकता है- ''औपनिवेशिक युग में स्थानीयता की आशा और राष्ट्रीयता की धारा एक दूसरे की पूरक बन कर उभरी। आज वह एक दूसरे की विरोधी बन कर क्यों उभर रही है। साथ ही स्थानीयता का उभार क्यो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द दे रहा है। विकासमान प्रगतिशील शक्तियों को नहीं।"
इस जवाब को यदि गुरुदीप खुराना के उपन्यास से खोजना चाहे तो पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयता की पहचान के लिए दौड़ते उस वर्ग पर निगाह जाना स्वाभाविक है जिसका प्रतिनिधित्व उपन्यास के पात्र करते हैं। तो पाते है कि गणेश और दैविय बिम्बों में अटका यह वर्ग भारतीयता की उस सीमित परिभाषा से एक हद प्रभावित दिखायी देता है जो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द पहुंचाने वाली है, भारतीयता की वह परिभाषा जो श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता को ही सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखती है, से इस वर्ग का कोइ परिचय दिखायी नहीं देता। विवेक और शीला का व्यक्तित्व भी ऐसी ही पृष्ठभूमि में गढ़ा गया है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दो अलग धराओं का प्रतिनिधित्व करते यह दोनों पात्र कहीं न कहीं एक अन्तर्धारा के साथ हैं। जहां शीला भारतीय संस्कृति को सिर्फ हिन्दू संस्कृति तक सीमित करना चाहती है वही विवेक अपने प्रगतिशील विचार के लिए सचेत रूप से क्रियाशील होने की बजाय नितांत व्यक्तिगत बना रहता है. उसकी निष्क्रियता का आलम यह है कि घर में क्या-क्या तब्दीलियां हो रही हैं इससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं। वह अपने रंगों में ही मस्त रहना चाहता है। विवेक परिणति को अवस्थी सहाब के उस रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जहां अवस्थी सहाब स्वंय और उनकी शौर्य गाथाऐं महफिलों का किस्सा भर है। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय की संगति में रचे गये 'उजाले अपने-अपने" का यह एक पाठ है जबकि इसकी प्रासंगिकता की पड़ताल के लिए इसके अन्य पाठ भी संभव है।

पुस्तक: उजाले अपने अपने
लेखक: गुरुदीप खुराना
प्रकाशक: मेधा प्रकाशन, नई दिल्ली।

Monday, April 7, 2008

हिन्दी फैक्स मशीन

राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए जुटी अधिकारियों की मीटिंग में चिन्ता ज़ाहिर की गयी कि लगातार किये जा रहे प्रयत्नों के बाद भी अभी हिन्दी में पर्याप्त काम नहीं हो पा रहा है। हिन्दी को बढ़ावा दिया ही जाये। le
लेट अस सी, हाऊ वी केन डू दिस।
राजभाषा अधिकारी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा। अधिनस्थ कर्मचारियों का हड़कान करते हुए बोले, हिन्दी में काम करना उतना ही सरल है जितना अंग्रेजी में। तो भी क्या कारण कि ऐसा नहीं हो पा रहा है ? 'क' , 'ख' क्षेत्रों में जहां कि शत प्रतिशत कोरसपोंडेंस हिन्दी में होनी चाहिए वहां भी हमारी ज्यादातर कोरसपोंडेंस अंग्रेजी में ही चल रही हैं। अगले हफ्ते पार्लियामेंट कमेटी का इंस्पेशन है, कुछ करो भाई।
चालाक और होशियार युवा क्लर्क ने अधिकारी को गुस्से में जान, छायी हुई चुप्पी को तोड़ा -
"सर आजकल ज्यादातर कोरसपोंडेंस तो फैक्स से ही हो रही है, पोस्ट लेटर तो न के बराबर ही हैं।"
"तो फिर।" अधिकारी ने ध्यान से सुनने के बाद कहा।
"सर ऑफिस में हिन्दी फैक्स मशीन तो है ही नहीं, फिर कैसे करें ?" युवा क्लर्क बोला.
राजभाषा अधिकारी ने जब समस्या को सभा और सभापति के सामने रखा तो सब चिन्तित नज़र आये। अंत में निर्णय लेते हुए पर्चेस डिविजन के अधिकारी को आर्डर दिया गया आज और अभी टेन्डर करो, हिन्दी फैक्स मशीन के लिए।
क्लर्क अपने साथी कर्मचारियों के साथ मुस्कराता रहा।

आवासिय समस्या का हल है हमारे पास

आप यदि ये माने बैठे हैं कि एक ध्रुविय होती जा रही दुनिया के चलते दुनियाभर की पूंजीवादी लोकतांत्रिक सरकारें कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से परहेज़ करने लगी हैं और जनता की अधारभूत जरुरत । रोटी, कपड़ा और मकान को भी बाज़ार के हवाले छोड़ दे रही हैं तो शायद आप गलती पर हैं। आपकी जानकारी के लिए लीजिए प्रस्तुत है ये खबर झोपड़ियों में चांदनी रात का मजा लेंगे सैलानी

Saturday, April 5, 2008

गरम कपड़ो की गठरी खोल लो

सावन के महीने सा अंधियारा और शरद माह की सी ठंड है आज देहरादून में
यदि आप देहरादून में है - स्वेटर, मॉफलर, जेकेट या कोई भी गरम वस्त्र आपके पास होना ही चाहिए।
होली को बीते एक पखवाड़ा हो चुका है। गालों पर लगा गुलाल, यदि वह सचुमच प्रेम का रहा हो तो उसकी चमक बरकरार रहनी ही है, वरना बनावटी रंगों का पक्कापन तो ठटठा ही बन गया होगा।
इस बार होली पर मौसम था ही बहुत शानदार। धूप खिली हुई थी। बाल्टियों भर पानी से भिगों देने के बाद भी मात्र कुछ मिनटों में ही होलीयारों के भीग चुके वस्त्र सूख जा रहे थे।
होलीयारे भी मस्त कि सूखे रंग से नहीं, भई कुछ गीला हो जाये। देखो तो कैसी धूप खिली है इस बार।
रंगों की थकान मिटाने के लिए गरम पानी की जरुरत शायद ही किसी होलीयारे को पड़ी हो इस बार। घूप से तप रहे पाईपों के भीतर दौड़ रहा पानी भी ठंडी चसक को खो चुका था।
देहरादूनिये कहने लगे थे, इस बार तो लगता है गर्मी जम कर पड़ेगी। जब अभी मार्च ही नहीं बीता और पंखे चलने लगे हैं तो अप्रैल, मई, जून में न जाने क्या होगा।
आशंका कहे या अनुमान। धरे रह गये - आज दोपहर में। जब तह लगाकर, लोहे के बड़े बक्सों के भीतर रख दिये गये गरम वस्त्रों को दुबारा निकालना पड़ गया।
जी हां, यह देहरादून का मौसम है।
होली के अगले दिन जयपुर से कथाकार अरुण कुमार असफल का फोन आया था, 24 मार्च को देहरादून पहुच रहा हॅ। मौसम कैसा है ? ठंड तो नहीं ?
जब छ: सात वर्ष देहरादून में बिताने वाले योगन्द्र आहूजा देहारादूनिये हो गये तो फिर, पिछले लगभग 12 वर्ष देहरादून के साहित्यिक, समाजाजिक माहौल में पूरी तरह से रमा अरुण कैसे देहरादूनिया न होता। अरुण ने अपना नाम असफल न रख होता तो इस वक्त मैं उसे अरुण कुमार देहरादूनिया कहता। देहरादून के मौसम के अचानक से बदलते मिज़ाज़ को उसने नज़दीक से देखा है। उसके ज़ेहन में सवाल यूंही नहीं आया होगा। वरना सूचना तंत्र के विस्तार के बाद किसी भी भूभाग के वर्तमान तापमान को तो कोई भी जान सकता है।
उसके सवाल पर क्या कहता !
चले आओ यार, मस्त है मौसम। दिन तो बहुत ही गरम होने लगे हैं।
ये तो बात दस-एक दिन पहले की है। आज ही सुबह जब फुरसतिया, अनूप शुक्ला जी से बात हो रही थी, लगभग 7.45 पर, तब भी कहां था ऐसा अनुमान कि दिन में गरम कपड़ों की दरकार ही नहीं होगी बल्कि स्कूल जा चुकी बच्ची को ठंड न लग जाये, इस बात की चिन्ता से ग्रसित मां जब स्वेटर निकाल बच्ची के पिता को दौड़ा रही होगी कि जाओ स्वेटर भी ले जाओ और बरसाती भी, नहीं तो बच्ची भीग ही जायेगी और ठंड भी बढ़ रही है। उस वक्त तो आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फैक्ट्री, देहरादून में पिछली ही रात सम्पन्न हुए, निर्माणी के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित उस कवि सम्मेलन की चर्चा होती रही जिसमें देश भर की निर्माणियों से आये कवियों ने ही हिस्सेदारी की। कुछ इधर-उधर की भी बातें हुई। मौसम का तो जिक्र आया ही नहीं। आता भी क्यों ! जब सब कुछ अपनी सामान्य गति से ही हो, तो।
कल शाम यानि 4 अप्रैल को कुछ ठंडक तो थी वातारण में। हल्की बूंदा-बांदी जो हुई थी। पर सुबह मौसम वैसा ठंडा नहीं था और बादल भी वैसे नहीं, जैसे कि दिन खुलने के बाद होते चले गये। लगभग 11 बजे के बाद मौसम ने करवट बदलनी शुरु कर दी थी।
तेज बारिस होने लगी और ठंड लगातार बढ़ती गयी। दोपहर आते आते तो आधी बांहों की कमीज़ पहनना शुरु कर चुके देहरादूनिये भी स्वेटर, जेकेट पहने नज़र आने लगे।
बादलों की गड़गड़ाहट और दमकती बिजली के साथ घिरता जा रहा अंधेरा ठंड को और ज्यादा बढ़ाने लगा। सावन के महीने का सा अंधियारा और शरद रितु की सी ठंड, अप्रैल की धूप पर हावी होने लगा। ऊपर पहाड़ों में कहीं बर्फ भी गिर ही होगी शायद।
तो ऎसा है आज देहरादून का मौसमा
अपनी ही एक छोटी सी कविता, जो वैसे तो किसी और संदर्भ में लिखी गयी पर इस वक्त गुन-गुनाने का मन है:-
बारिस
सब कह रहे हैं
बारिस बंद हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा पानी
पर घर के भीतर तो पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है
आगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
सड़क पर भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिस बंद हो चुकी है।

Thursday, April 3, 2008

आकांक्षाएं


कहानी

० सोना शर्मा

कई वर्ष पूर्व, रमा जी से मेरी भेंट, डा0 राकेश गोयल के क्लीनिक पर हुई थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा में, बेंच पर समीप बैठे हुए, उन्होंने बिना किसी विशेष भूमिका के, अपना संक्षिप्त परिचय दे डाला। अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष के सम्बंध में भी संकेत देने में, उन्हें झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने सहानुभूति प्रकट की और शीघ्र ही दो-एक ट्यूशन दिला देने का आश्वासन दे दिया।

रमा जी से दूसरी भेंट भी राह चलते ही हुई। तब उनके पति भी साथ थे। उन्होंने विद्याचरण से परिचय कराया। संभवत: इस बीच उनकी स्थिति कुछ संभल गई थी। तीन कमरों का मकान उन्होंने दौड़-धूप करके एलाट करा लिया था। चार पांच ट्यूशनें मिल गई थीं और एक प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूल में विद्याचरण की नौकरी लग जाने की भी बात, लगभग निशित हो चुकी थी। दोनों ने साग्रह किसी दिन घर आने के लिये आमन्त्रित किया।

अनुमानत: उनका प्रेम विवाह हुआ था। अनुमान का आधार था, विद्याचरण का उतरप्रदेशीय ब्राहमण तथा रमा जी का बंगालिन होना। रमा जी हिन्दी जानती थी तथा सही उच्चारण में बातचीत भी कर लेती थीं। दोनों में अच्छी निभ रही थीं। दोनों में जीवन से जूझने की शक्ति थी। और अच्छे दिनों की आमद का विशवास भी उनकी आँखों में झलकता था।

विद्याचरण को अंग्रेजी स्कूल में नौकरी मिल गई। किन्तु प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल वाले जिस कड़ाई के साथ विद्यार्थियों से रूपये वसूल करते हैं, उस अनुपात में अपने अध्यापकों को वेतन देने में विश्वास नहीं करते। कुल मिलाकर एक गैर सरकारी मज़दूर से भी कम वेतन, एक अध्यापक को मिल पाता है।

कुछ दिन तो इसी तरह निकल गये, मगर शीघ्र ही भविष्य की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। कल को बच्चे होंगे तो क्या उनकी परवरिश होगी और क्या उनका अपना जीवन स्तर सुधर पायेगा!

काफी सोचने के बाद, उन्होंने एक नर्सरी स्कूल शुरू करने का निणर्य ले लिया। नई जगह की व्यवस्था आसान न थी। इसलिये तीन कमरों के इस मकान का ही, स्कूल के तौर पर उपयोग करना निश्चित हुआ। कमरे ठीक ठाक ही थे। पूरे मकान की पुताई हो गई। दरवाजे खिड़कियों पर नया पेंट। आंगन के झाड़ झंकार को साफ़ कर दिया गया। बरामदे के एक भाग को एनक्लोज़र-सा बनाकर,कार्यालय का रूप दे दिया गया। साइन बोर्ड तैयार होकर आ गया। कुछ बेंच डेस्क टाट अलमारी ब्लैक बोर्ड आदि बहुत कम दाम में एक कबाड़ी से मिल गये।

पढ़ाने के लिये रमा जी थी हीं। विद्याचरण के लिये भी अपने स्कूल से आकर एक दो पीरियड़ ले लेना संभव था। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब तीस बतीस बच्चे आने लगे, तो एक अतिरिक्त अध्यापिका की कमी, बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। इसी संदर्भ में रमा जी ने मुझ से किसी शरीफ और परिश्रमी लड़की का पता बताने के लिये कहा, मैंने हँसकर कहा, "शराफत या शरीफ होने का प्रमाणपत्र तो कोई राजपत्रित अधिकारी ही दे सकता है, एक अच्छी पढ़ी लिखी और मेहनती लड़की मेरी नज़र में है, उसे आप के पास भेज दूंगी।''

चेष्टा मेरे छोटे भाई के मित्र की बहन है। बी0ए0 करने के बाद उसके लिये लड़का खोजते खोजते वह एम0ए0 हो गई। तब तक भी कहीं बात पी न हुई तो उसके घर वालों ने उसे बी0एड में दाखिला करा दिया। बी0एड भी हो गया, किन्तु दुर्भाग्य! इतनी पढ़ी लिखी और नेक स्वभाव लड़की को अब तक न तो वर मिला था और न नौकरी ही! बेचारी दिन भर अपने कमरे में बन्द, न जाने क्या क्या सोचा करतीं। मैंने चेष्टा को रमा जी के पास भेज दिया। उसे नौकरी मिल गई और रमा जी की समस्या का समाधान भी हो गया।

इसी बीच, कुछ विशेष घट गया। चेष्टा मुझ से अकसर बचने का प्रयास करती है। विद्याचरण और रमा जी से दुआसलाम तक बन्द है। जबकि मैंने इन तीनों में से किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।

घटना या दुर्घटना के बाद सर्वप्रथम मैंने विद्याचरण से ही बात की। बड़ी बेचारगी के साथ उसने बताया, ""देखिये बहन जी, मैने तो पहले ही कुमारी चेष्टा से कह दिया था कि हमारा यह छोटा सा स्कूल व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु जनसेवा के उद्धेश्य से खोला गया है। मुहल्ले के गरीब बच्चे पढ़ लिख कर चार पैसे कमाने योग्य हो जायें, यही हमारी कामना है। हमारी सभी बातें या स्कूल के सब नियम कुमारी चेष्टा ने सहर्ष स्वीकार कर लिये थे। मैं मानता हूं कि वह अच्छा पढ़ाती थी और बच्चे भी उससे काफी प्रसन्न थे किन्तु ---

"किन्तु क्या?''

"क्षमा कीजिये, मैं कुछ भी बताने में असमर्थ हूं।''

बहुत पूछने पर भी जब विद्याचरण ने कोई स्पषट कारण न बताया तो मैं रमा जी से मिली। वे भी टाल मटोल सा करती हुई चाय पानी की व्यवस्था में लगीं रही। किन्तु मैं जब देर तक बैठ ही रहा तो बोली, "बात यह है कि जब लोगों को नौकरी की जरूरत होती है, तब तो दूसरों के पांव तक पकड़ने को तैयार हो जाते हैं, मगर नौकरी मिलते ही इनका नखरा आकाश छूने लगता है। सच मानिये, हमने तो यह स्कूल चलाकर मुसीबत ही मोल ले ली। इसमें बचत तो क्या होनी थीं, उल्टे जेब से ही खर्च हो रहा है। यह ठीक है, हम शैक्षणिक योग्यता अनुसार उस लड़की को अधिक वेतन नहीं दे सके। देते भी कहां से? अपने ही बीसियों झंझट है। तब भी किसी तरह खींच ही रहे थे, मगर उसने तो सब किये कराये पर पानी फेर दिया।''""मगर, किया क्या उसने?''
""उसी से पूछिये न।''

मैं खीज गई थी। 'मारो गोली" कह कर भी मैं मामले को गोली न मार सकी और चेषठा को भुला भेजा। वह भी बड़ी कठिनाई से कुछ बताने के लिये सहमत हुई। जो कुछ उससे मालूम हुआ, वह लगभग इस प्रकार था।

अपने एम0ए0बी0एड तक के प्रमाणपत्र लेकर, चेषठा नौकरी के लिये साक्षात्कार मण्डल (पति पत्नी) के समक्ष उपस्थित हुई, तो चकित ही रह गई। दोनों सदस्यों ने एक घंटे तक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रशनों की झड़ी लगाये रखी। गाना, नाचना तबला हारमोनियम, चित्रकारी मे, वह कितनी दक्ष है, इसकी जानकारी भी ली गई। बच्चों को योग्य बनाने हेतु, इन सभी चीज़ों की ज़रूरत थी। चेष्टा प्रशनों के उतर देती जा रही थी और पसीने में भीगती जा रही थी। इतने प्रशन तो अब तक जो लड़के वाले उसे देखने आये, उन्होंने ने भी नहीं पूछे थे। पांच सौ रूपये वेतन सुनकर तो उसका चेहरा ही उतर गया, किन्तु विद्याचरण का आदर्शवादी भाषण सुनकर तथा 'चलो कुछ वक्त कटी ही होगी", सोचकर उसने नौकरी स्वीकार कर ली। वैसे रमा जी ने यह भी कह दिया कि कुछ बच्चे और बढ़ते ही वे वेतन बढ़ा देंगे।

स्कूल में पढ़ाना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होता था। हर रोज़, समय से पूर्व, स्कूल पहुंच कर, घर को स्कूल में परवर्तित करने के लिये चपरासी का कार्य उसे स्वयं ही करना होता। विद्याचरण तो प्रात: सात बजे ही अपनी नौकरी पर चला जाता। रमा जी का स्वास्थ्य, वही आम औरतों की तरह, कभी कमर में दर्द तो कभी सिर में चर। छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाना कम और संभालना अधिक होता। किसी की नाक बह रही है तो किसी को पाखाने की हाजत है। एक दो बार चेद्गठा ने एक और अध्यापिका रख लेने का सुझाव भी दिया किन्तु 'देखेंगे" कह कर रमा जी ने कोई और ही प्रसंग छेड़ दिया।

एक दिन, बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी। विद्याचरण अभी नहीं लौटा था। रमा जी कुछ देर पहले बच्चों से प्राप्त फीस, बैंक में जमा कराने चली गई थीं। तब मौसम साफ था। इसलिये वे छाता भी नहीं ले गईं। मगर मौसम बदलते देर ही कितनी लगती है। विद्याचरण तो लगभग पूरा ही भीग कर घर पहुंचा था। जाती हुई रमा जी यह घर -स्कूल, चेषठा के हवाले विद्याचरण के लौट आने तक के लिये कर गई थीं। उसको कंपकपाते देख चेष्टा ने स्टोव जलाकर चाय के लिये पानी रख दिया। जितनी देर में विद्याचरण ने कपड़े बदले, चाय तैयार थी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।

"आपको देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ी लिखी हैं, हर तरह से ठीक हैं। तब भी।।।खैर मैं कोशिश करूंगा आप के लिये।''

चेष्टा जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी।

"आपके लिये लड़कों की क्या कमी! ऐसा वर खोजकर दूंगा, जो लाखों में एक हो। बिल्कुल आप के योग्य--- आप तो कुछ बोल ही नहीं रही!''

चेष्टा ने तनिक सी दृष्टि उठाकर, विद्याचरण की ओर देखा।

"इस समय भी मेरी नज़र में एक बहुत अच्छा लड़का है। काफी बड़ा अफसर है। मुझे न नहीं करेगा। सुन्दर है, अच्छे घराने से भी है --- बोलिये?''

वह कुछ समीप आ गया था।

चेष्टा थर थर कांप रही थी।

"आपको शायद ठंड लग रही है। एक कप अपने लिये भी बना लेना चाहिये था। कहिये तो मैं बना दूं?''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''

"देखिये, आप को ये बातें मेरे पिता जी से करनी चाहिये।''

"उनसे तो हो ही जायेंगी, पहले आप तो हां करें।''

इस बीच विद्याचरण कितना आगे बढ़ आया था, चेषठा ने इस पर ध्यान ही न दिया था। किन्तु जब विद्याचरण ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "बस आपके हां कहने की देर है।'' तो चेष्टा उछल सी पड़ी।

अब वह डर या सर्दी से नही, बल्कि क्रोध से कांप रही थी।
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''

मालूम नहीं, रमा जी ने 'बात" को कहां तक समझा, या विद्याचरण ने किस प्रकार उन्हें 'असली बात" समझाने का प्रयास किया।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210


ब्लाग पर

(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।

वहीं दूसरी ओर बदलते श्रम संबंधों और अपने पांव पसार रही भ्रष्ट राजनैतिक, सामाजिक ढांचे की बुनावट में फैलती जा रही अप-संसकृति ने जल्द से जल्द पूरे वातावरण में छा जाने की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया है। मात्र दो एक रचनाओं की शुरुआती पूंजी को ही उनके रचना संसार का स्वर देख लेने वाली आलोचना भी ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रही है।

यहॉं प्रस्तुत सोना शर्मा की कहानी उनकी प्राकाशित प्रथम रचना है। उस पर टिप्पणी करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि वे लगातार लिखती रहे और खूब-खूब पढ़े. ताकि जटिल होते जा रहे यथार्थ को समझने में अपने विकास की गति पकड़ सकें।)

कथाकार सुभाष पंत के नये उपन्यास का मुख्य पात्र

''आओ तुम्हे एक कहानी सुनाता हूं।"
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।


ब्लाग पर

अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।