Monday, December 7, 2009

एक विरासत का अन्त




हिम आहुजा
(लेखक एक शोधकर्ता हैं जो आजकल टौंस घाटी, जिला उत्तरकाशी में कार्यरत हैं)

माधो सिंह भण्डारी को कौन नहीं जानता? वीरता की मिसाल, उनका नाम पूरे गढ़वाल में जाना जाता है। किन्तु दले सिंह जड़यान इतने भाग्यशाली नहीं। अपितु वीर सही, रवांई क्षेत्र में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। उनकी वीरता के कारनामे जानता है। यही सत्य है उस क्षेत्र के अनेक राजपूत वीरों की कथाओं के लिए - जैसे दले सिंह का बेटा जीतू जड़यान, नागदेऊ फन्दाटा, बहादर सिंह और कर्ण महाराज के रांगड़ वज़ीर।

इन्हीं लोगों की वीरता के किस्सों से बना है इस पूरे क्षेत्र का इतिहास। आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यही एकमात्र तरीका है अपने पूर्वजों को याद रखने और उन्हें इज्जत देने का। परन्तु बुली दास के बिना, हरकी दून क्षेत्र के देऊरा गाँव से एक साधारण गरीब बाजगी, ये किस्से और इतिहास कब के लुप्त हो जाते।

बुली दास का ज्ञान पीढ़ियों पीछे जाकर रोमांचक, अविश्वसनीय घटनायें ढूँढ लाता था। उन घटनाओं को जिनसे पिछले सैकड़ों साल में इस क्षेत्र का भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास निर्मित हुआ।

उदाहरण के तौर पर हिमांचल के बुशेहर और यहां की टौंस घाटी के लोगों के बीच चरागाह विवाद, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही राजपूत खानदानों के बीच की दुश्मनी, एवं अनेक ऐसी कथायें, घटनायें जिन्होंने सिर्फ इस क्षेत्र का इतिहास ही नहीं दर्ज किया अपितु जो लिपिबद्ध इतिहास एवं दस्तावेजों से प्रमाणित भी हुआ।

बाजगी जिन्हें बेड़ा, बादी, औजी, ढ़ाकी आदि नामों से भी जाना जाता है, उत्तराखण्ड के परम्परागत गायक वादक हैं। इनका मुख्य कार्य हर अवसर पर गाँव में गाना और बजाना है। चाहे वे जन्म के गीत हों या मृत्यु के, शादी-ब्याह के, ऋतुओं के, मेलों के और देवता के उत्सवों के, बिना बाजगी के वे सम्पन्न नहीं हो सकते। वे 'मौखिक परम्परा' के भी संवर्धक हैं जिनसे समुदाय की सामुहिक स्मृति जिन्दा रहती है।

मुझे याद है जब मैं पहली बार 2005 में उनके घर गया, तो वे हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ। विलियम सैक्स को एक 'पंवाड़ा' (वीरता की गाथा) सुनाने में तल्लीन थे। उनका ज्ञान और असर ऐसा था कि डॉ। विलियम ने उन्हें दस साल तक लगातार वृत्तचित्रित किया और उनका रिश्ता एक खूबसूरत दोस्ती में बदल गया।

इस दशहरे, टौंस घाटी की यात्रा पर, मैं बुली दास से मिला। परन्तु इस बार एक कमजोर, निढ़ाल और संक्रमण से जूझते बुली दास ने बिस्तर से मेरा अभिवादन किया। मैं उनके लिए कुछ दवाईयाँ लेकर आया था। हम हमेशा की तरह बैठे और पुरानी कथाओं में खो गये। उनकी आवाज कमजोर थी परन्तु हिम्मत मज़बूत थी। उन्होंने गाना गाने की कोशिश की परन्तु थोड़ी देर बाद ही वे रुक गये और मुझे विस्तार से कहानी रुप में सुनाने लगे।

उनकी सेहत के बारे में चिन्तित, डॉ। विलियम उनका परीक्षण करवाने उन्हें रोहड़ू ले गये। वहाँ पता चला कि उन्हें दमा है। सब प्रकार की दवाईयाँ लेकर वे लौट आये, इस आश्वासन के साथ कि बीमारी मिल जाने पर ईलाज भी शीघ्र हो जायेगा।

आज, सिर्फ दस दिन बाद ही, 62 साल की उम्र में, बुली दास नहीं रहे। वो 'जीवित परम्परा' चली गई। पीछे छोड़ गई वो खनकती हुई हंसी जो मेरे कानों में आज भी गूँज रही है, वो सालों के अनुबद्ध और संग्रहित गाने, गाथायें, कथायें जो सिर्फ उनके समुदाय ही नहीं, अपितु आने वाली कई पीढ़ियों के काम आयेंगें और एक तीखे दर्द का एहसास जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा।

हमारे चारों ओर ऐसी कई 'जीवित परम्परायें' हैं जो हमेशा के लिए खो जाने के कगार पर हैं। उत्तराखण्ड की हर वादी में ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदाय की 'मौखिक परम्पराओं' को सुरक्षित और जीवित रखने में समर्पित कर दिया। यह उन्हें सिर्फ दक्ष ढ़ोल वादक और गायक के रुप में ही अमूल्य नहीं बनाता अपितु उस 'निरन्तरता' का संग्रहणी बनाता है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। टिहरी रियासत से मिलने वाले प्रश्रय का खो जाना और लोगों का परम्परागत गीतों और ढ़ोलों के बजाय डी।जे। और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में जादा रुचि लेना- इन सबके कारण इनका जीवनयापन एवं समुची परम्परा ही खतरे में है। यही समय है जब सरकार को जागकर प्रदेश की संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को पहचानना चाहिए एवं इस परम्परा को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिएं।

1 comment:

Anonymous said...

Himanshu Bhai,

Jo hamari virasat ko sadiyon se yaad rakhte aa rahe hain, unko yaad karne ke liye bahut dhnayavad.

Anup