हिन्दी दलितधारा अपने से पूर्व के साहित्य और इतर रचनाओं पर, ब्राहमणवादी और समांती सरोकार से गुंजित होने का आरोप लगाती है, क्या उसे पूरी तरह से झुठलाया जा सकता है ? हिन्दी का एक महत्वपूर्ण कवि शब्द की महिमा के बखान में, बेशक गप ही मारे चाहे, जब एक गरीब की बेटी को नग्न करके उसको अर्थों तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता हो और उस घटना को अपनी स्मृति के दम पर ज्यों का त्यों रखने वाला हिन्दी का एक महत्वपूर्ण लेखक जो शिक्षाविद्ध भी हो, बिना विचलित हुए लिखता हो तो फिर क्या कहा जा सकता है ? क्या उस पत्रिका को सवालों के घेरे से बाहर रखा जा सकता है (?) जिसमें यह आलेख बिना किसी सम्पादकीय टिप्पणी के प्रकाशित होता है।
प्रस्तुत है कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित उस आलेख ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) का वह आपत्तिजनक अंश जिस पर कवि राजेश सकलानी ने सवाल उठाया है। कवि राजेश सकलानी की टिप्पणी पाठकों की सुविधा के लिए यहां पुनः प्रस्तुत है:
प्रस्तुत है कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित उस आलेख ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) का वह आपत्तिजनक अंश जिस पर कवि राजेश सकलानी ने सवाल उठाया है। कवि राजेश सकलानी की टिप्पणी पाठकों की सुविधा के लिए यहां पुनः प्रस्तुत है:
लेखक महोदय आपने शर्म कर दी
लेखक सिर्फ एक माध्यम है। लेखन मूलत: एक सामुदायिक-नैतिक क्रिया है। यह गहरी जिम्मेदारी की माँग करता है। शब्द मानव अस्मिता के प्रतिफल होते हैं। शब्द-चर्चा को शोध माना जाता है। थोड़ा सा खिलावाड़ भी सहज माना जा सकता है। लेकिन प्रतिष्ठित कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह त्रिलोचन पर लिखे अपने संस्मरण में "जोबन" शब्द पर लिखते हुए गरीब दलित महिला के सम्मान की चिंदि्या उड़ा देते हैं। आधार शिला पत्रिका के त्रिलोचन केन्द्रित अंक मेंप्रकाशित आलेख "एक विरोधाभास त्रिलोचन " में वर्णित घटना सच है या नहीं लेकिन त्रिलोचन के पिता से लेकर आज तक की सामन्ती सड़ांध का पता जरूर लग जाता है। लेखक ने जिस गैर-जिम्मेदारी से एक घृणित प्रकरण को लिखा है वह सदमे में डालने वाला है। त्रिलोचन पर केन्द्रित इस विशेषांक में विद्वान कवि त्रिलोचन और जाने-माने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। भर्त्सना के सिवाय कुछ नहीं सूझता है। पीड़ित बहन का हम दिल से समर्थन करते हैं।-राजेश सकलानी
एक विरोधाभास त्रिलोचन
अब्दुल बिस्मिल्लाह
शब्द का अर्थ बोध से खुलता है, प्रत्यक्ष अनुभव से खुलता है, यह बात संभवत: त्रिलोचन जी के मन में तभी से बैठ गई थी जब वे अपने गांव चिरानी पट्टी में रहते थे और किशोर वय के थे। एक बार उन्होंने एक रोचक किस्सा सुनाया। (किस्सा कितना सच है, कहा नहीं जा सकता)। बोले, मुझे सुने-सुनाए लोकगीतों को गुनगुनाने में मज़ा आता था। एक दिन हुआ क्या, कि मैं एक लोकगीत गुनगुनाता हुआ खेतों की तरफ से घ्ार आ रहा था। उस गीत में एक शब्द 'जोबना" बार-बार आता था। घ्ार के बाहर का दृश्य यह था कि पिताजी (शायद) तखत पर बैठे थे। थोड़ी दूर पर ण्क किशोर वय की लड़की खड़ी थी। शायद वह हरवाहे की बेटी थी और कुछ मांगने आई थी। मलकिन का इंतजार कर रही थी। पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, जोबना क्या होता है, जानते हो ? (प्रश्न अवधी में था) मैं पहले तो चुप, फिर बोला, नहीं। पिताजी उठे, आगे बढ़े और लड़की के ब्लाउज़ को चर्र से फाड़ दिया। बोले, देख लो यह होता है जोबना। मेरी तो घिघ्घी बंध गई और मैं भाग खड़ा हुआ। तब से इस शब्द का इस्तेमाल करने से डरने लगा हूं। मुझे ध्यान नहीं कि त्रिलोचन जी ने अपनी रचनाओं में इस शब्द का इस्तेमाल किया है अथवा नहीं। और किया है तो कब, कहां और कैसे ? मगर त्रिलोचन जी की इस बात में बहुत दम है कि अर्थ तो बोध से ही खुलता है।
5 comments:
सही है अर्थ तो बोध से ही खुलता है!!
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
यह घटना यदि सच हो भी तो ( यह शंका अब्दुल जी की ही है) तो भी इसका वर्णन सिर्फ़ और सिर्फ़ सामंती सडांध के घृणित प्रदर्शन के लिये ही किया जा सकता है।
अगर त्रिलोचन को उदाहरण देने के लिये यही मिला और अब्दुल को याद करने के लिये भी यही तो यह उनके मनोमस्तिष्क में बसी सामंती प्रवृति का द्योतक ही है। मैं राजेश सकलानी की टिप्पणी से सहमत हूं और इसकी शत-शत निंदा करता हूं।
sahi hai bodh arth se hi khulta hai.
Trilochan ji ne sach likha hai.
kalaakaar ke har praamaaNik anubhav ke peechhe jaane kitanee hee aisee vichalit karane waalee ghaTanaa hotee hai.
यह स्थिति का सरलीकरण है, यह केखक का दायित्व है कि वह समाज की सडांध को भी सामने लाये. कॄपया इस दॄष्टि से भी देखें.
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