(भाषा के सवाल पर तेलगु कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की लिखित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई जिसको यहां प्रस्तुत करते हुए पाठकों से अनुरोध है कि नवीन नैथानी द्वारा छुए गये बिन्दु, हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप और बाजार की भूमिका पर अपनी विस्तृत राय के साथ उपस्थित हों। यदि संभव हो तो मेल करें। mail i d : vggaurvijay@gmail.com आपकी महत्वपूर्ण राय को पाठकों तक पहुंचाने में हमें प्रसन्नता होगी।
नवीन नैथानी पेशे से भौतिक विज्ञान के व्याख्याता हैं। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में पढ़ाते हैं। उनकी कहानियों का अपना एक पाठक वर्ग है। उनके लेखन की विश्वसनियता के चिन्ह को रमाकांत स्मृति सम्मान और कथा सम्मान के रूप में पाठक देख सकते हैं।)
नवीन नैथानी, 09411139155 -
भाषा के विभिन्न स्वरूपों में जन भाषा और राजभाषा की स्पष्ट विभाजक रेखा इतिहास में हम देख सकते हैं। राजभाषा मूलत: सत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए एक अभेद्य दुर्ग के रुप में गढ़ी गयी। व्याकरण की नियमबद्ध निर्मितियों में अभिव्यक्तिको बांधने की कोशिश को आप क्या कहेंगें ?
व्हां संवेदना के लिए स्थान नहीं है, जो सुनना है उसके विशेष अर्थ पर जोर है और जो अप्रिय है उसे व्याकरण निषिद्ध घोषित करते आये हैं। जन भाषा में कुछ भी अस्वीकार्य नहीं है, राजभाषा (इसे व्याकरणनिष्ठ भाषा भी पढ़े) में जनता द्वारा बहुत कुछ कहा गया दोषपूर्ण संरचना के खाते में डाल दिया जायेगा।
बहरहाल, वर्चस्व की इस लड़ाई को हम कानून की भाषा के रुप में सबसे सही तरीके से जान सकते हैं। अदालतों की भाषा एक विशेष कौशल की मांग करती है जो सिर्फ वकीलों के पास होता है। आप अपनी पूंजी उनके हवाले कीजिए और उनसे कानून की भाषा लीजिए। यह न्याय के इतिहास पर दृष्टि डालने के लिए एक सही प्रस्थान बिन्दु हो सकता है। बीसवीं शताब्दी का प्रख्यात दार्शनिक वाइट्जैस्टीन जब भाषा (उसका आशय निश्चित रूप से इसी भाषिक व्याकरण की तरफ है) की सीमाओं की तरफ संकेत करता है तो वह मनुष्य की अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर शंका नहीं उठा रहा है, वह अभिव्यक्ति की असंख्य संभावनाओं को ही चिन्हित कर रहा है, जो दुर्भाग्य से, व्याकरण की परिधि के बाहर है।
इस भाषिक वर्चस्व का एक अन्य उदाहरण हम बाजार की भाषा के रूप में देखते हैं। जन भाषा को किसी रणभेरी की जरुरत नहीं। लेकिन बाजार की भाषा को है। वह व्याकरण (सत्ता) और जन भाषा के बीच अपने संघ्ार्ष से एक नयी ही भाषा रचने के प्रयास में दिखायी पड़ता है। दरअसल यह निर्माण की नहीं बल्कि सत्ता के वर्चस्व की प्रक्रिया है।
पुस्तकों के प्रकाशन को ही लें। यह एक जाना माना तथ्य है कि हिन्दी अब भारतीय संदर्भ में एक बाजार-भाषा में तबदील हो चुकी है। बांग्ला, मराठी, मलयालम जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य जिस तरह से उन भाषा-भाषियों के बीच खरीदा जाता रहा है, हिन्दी का साहित्य उनके पासंग में भी नहीं है। इधर कुछ वर्षों से हिन्दी में बड़े प्रकाशन गृहों से अंग्रेजी के उपन्यासों के अनुवाद अच्छी खासी तादाद में छप रहे हैं। क्या यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी है ? इस प्रश्न का जवाब, मुझे उम्मीद है, मेरी शंकाओं को दूर करने में सहायक ही होगा।
1 comment:
जरूर है की अब हिन्दी का साहित्य ओर दूसरे माध्यमो जैसे की नेट पर भी उपलब्ध है ...खास तौर से मुख्य कवियों ओर शायरों की रचनाये ओर उन्ही की बिक्री शायद सबसे ज्यादा रही है इसलिए फर्क पड़ा हो वैसे हिन्दी का प्रबुद्ध पतःक वर्ग हमेशा से एक खास तबका रहा है ओर वो रहेगा....हाँ शायद अन्य भाषायो को वहा जितना पढ़ा जाता है यहाँ नही.......
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