तांग्जे में गेंहू, मूली, शलजम और गोभी की खेती हो रही है। गांव लगभग खाली खाली से हैं। ज्यादातर गांव वाले डोक्सा में हैं। जवान लड़के पार्टी को तला्शते या तो दारचा, मनाली में भटक रहे हैं या फिर पदुम और लामायुरू में। कोई घोड़ों पर रारू से डिपो का माल गांव गांव तक पहुचाने में जुटा है। जांसकर में पैदा होने वाला ज्यादातर अनाज छंग बनाने में इस्तेमाल हो जाता है। अर्क यानी देशी शराब भी बनायी जाती है। तांग्जे में एक प्राइमरी स्कूल भी है जिसमें तीन कमरे हैं। स्कूल की आज छुट्टी है। सुनते हैं मास्टर अपने इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ है। स्कूल के नजदीक ही कारगियाक नदी पर लकड़ी का एक नया पुल बना है। नदी के दूसरे पार से कुरू और त्रेस्ता जाने का यह नया रास्ता है। हमें तांग्जे में छोड़ नाम्बगिल अपने घर कारगियाक गांव जाएगा जो यहां से घोड़े पर चढ़ कर जाने में सिर्फ दो घन्टे का रास्ता है। घर में किस किस चीज की जरूस्त है वह सब लकर लौटना है उसे।
हमें पुरनै जाना है। कुरू, त्रेस्ता होते हुए याल के नीचे से ही मलिंग वाली धार पर होते हुए। परनै पर चढ़ाई और उतराई ज्यादा है। इससे अच्छा तो कारगियाक नदी को नीचे ही बने कच्चे पुल से पार कर निकलने में ठीक रहेगा। सर्प छू के किनारे बसा पुरनै गांव जांसकर घाटी का महत्वपूर्ण गांव है। यूं मात्र तीन घर ही हैं इस गांव में पुख्ताल गोम्पा जाने के लिए पुरनै पहुचंना होगा। यहीं से सर्प छू के किनारे किनारे लगभग 7 किमी आगे नदी के दूसरे ओर है पुख्ताल गोम्पा। पुरनै से पुख्ताल जाते हुए लगभग 1 किमी दूर खनकसर गांव है जिसमें एक ही घर है। जांसकर घाटी में पुरनै पदुम से इधर के सभी गांवों में महत्वपूर्ण स्थान रखता ह। खेती बाड़ी उन्नत अवस्था में है। दुकानें हैं। दुकनों में बजता संगीत है। सैलानियों के रूकने के लिए कमरा और बिस्तर भी है। नहीं तो टैन्ट लगाने के लिए गांव वालों ने खेत खाली छोड़े हुए हैं। जिस पर 35 रू कैम्पिंग चार्ज की दर से पर टैन्ट का किराया लेते हैं पुरनै वाले।
पुख्ताल से आती सर्प छू यहां कारगियाक नदी से मिल रही । यहां से फिर पहली वाली दिशा में ही कारगियाक नदी के किनारे किनारे चलते हूए हम पदूम पहुंचेंगे। पदुम में कारगियाक नदी जांसकर नदी में मिल जाएगी। जांसकर बढ़ेगी आगे और लेह के नजदीक कैलाश मानसरोवर से आती सिन्धु नदी में मिल जाएगी। पुरनै से रारू तक लगभग पांच सात किमी तक कई गांव हैं नदी के दोनों ओर। रारू तक बस रोड़ कट चुकी हैं कभी कभार जीप या ट्रक पदुम से रारू आते है।
रारू से पदुम लगभग 20 किमी होगा। पदुम में बौद्ध, मुस्लिम - दोनों धर्मों के लोग रहते हैं। जांसकर के प्रति विदेशियों का आकर्षण सहज रूप् से देखा जा सकता है। जुलाई, अगस्त, सितम्बर में विदेशी यात्रियों का मानो सैलाब सा उमड़ता है। अपनी इस यात्रा के दौरान लगभग 35-40 टीमें हमें विदेशियों की जगह जगह मिली। यूं व्यक्तियों की संख्या लगभग दो सौ के आस पास होगी। इससे कहीं अधिक विदेशी अभी और आने हैं। या आ चुके होंगे।
कुछ हैं जो बस रूट तक ही आते हैं। विदेशियों का यह आकर्षण लेह लद्दाख को देखने का है या ---?
दरअसल जब हम रारू में पहुंचे तो वहां एक स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम चल रहा था। विदेशी मेहमानों के साथ साथ वहीं जम्मू कश्मीर के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। पूछने पर मालूम चला कि अमुक स्कूल जर्मनी की शाम्बला कम्पनी द्वारा खोला गया है। जिसका देख रेख का जिम्मा भी कम्पनी के ही पास है। ऐसा ही एक स्कूल पदुम में फ्रांस की कम्पनी ने खोला है। पदुम में जम्मू कश्मीर के गेस्ट हाउस में रूकना हुआ। यहीं पर दो लामाओं से भेंट हुई जो किसी विदेशी महिला को खोज रहे थे। उन्हीं से मालूम हुआ वह महिला गोम्पाओं के लिए कुछ आर्थिक मदद देने वाली है। यहां विदेशियों के साथ स्थानीय लोगों या लामाओं को यूही घूमते देखा जा सकता है। वे लोग विदेशियों के साथ अक्सर विदेशि भाषा में ही बातें करते भी सुने जा सकते हैं। यहां पदुम में ही नहीं बल्कि जांसकर घाटी में जो देखने में आया वह यह कि जांसकरी व्यक्ति जितनी आसानी से Hurry up, Come here, Get up या ऐसे ही छोटे वाक्य आसानी से समझ लेते हैं वैसे तसे किसी और भारतीय भाषा के बारे में जानते तक नहीं। उत्तराखण्ड के तमाम पहाड़ों में और देश भर के भीतर जिस तरह से NGO के मार्फत विदेशी मुद्रा इस देश में पहुंच रही है, यहां तो उससे भी आगे का रूप् देखने में आया । जर्मन, फ्रांस, इंग्लैण्ड से सीधा सैलानी के रूप में विदेशी यहां अपने रूपये के साथ पहुंच रहा है और उस पर नियंत्रण भी रख रहा है।
बस से कारगिल और लेह आते लददाख के सुखे पहाड़ मुझे फिर आकर्षित कर रहे हैं। नाम्बगिल दोरजे की वो आंखें जिनमें भीतर ही भीतर हमसे बिछुड़ने पर छलक रहा था पानी याद आ रहा है। आखिर ऐसा क्या था जो इन 10-11 दिनों में नाम्बगिल को हमारे इतना करीब ले आया। नाम्बगिल ने जब हमें पदुम में छोड़ा तो उसकी आंखों में बेचैनी साफ दिखायी दे रही थी। हमें गेस्ट हाउस में छोड़ वह पदुम बाजार की ओर निकल गया था। बाद में लौटकर उसने बताया कि कल वह रारू चला जायेगा, वहां से डिपो का माल कारगियाक तक छोड़ने के लिए बुक हो गये हैं उसके घोड़े।
समाप्त
4 comments:
ऊऊऊओफ्फ्फ्फ्फ्फ!थक गया. मुझे एक प्याली चग्ति का दो. इतना तुम घूमते रहे विजय भाई, और मुझे खबर तक नहीं. सच मुच ईर्ष्या हो रही है तुम से.
और नीचे वह चौड़ा राजपथ दिख रहा है उस का इंजीनीयर मेरा दोस्त ईश्वर था! कमाल है!
बेहतर...रोचक यात्रा विवरण...
अभी सैलानी कोटि का लद्दाख शत्रा कर लौटे हैं वहॉं ये संस्मरण याद आया तो आकर फिर से इसे पढ़ा... शानदार...पुन: आभार
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