भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पिछले दिनों शुरू हुई बहस अभी थमी नहीं है। अलिखित कानूनी स्वीकार्यता का दर्जा पा चुका भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में है। न्याय की चौहद्दी के भीतर घुसते हुए, अनाप-शनाप रूप से लिखे एम.आर.पी मूल्यों पर माल को खरीदते हुए, बड़े-बड़े होर्डिंग टांगकर सेल सेल के हल्ला मचाऊ तरीके से माल को बेचते हुए, और भी न जाने कितने ही दूसरे रूपों में भ्रष्टताभरी कार्यवाहियों की स्वीकारोक्ति चारों ओर है। कानून के किसी दायरे में उसे समेटने की कोई भी कोशिश उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के लिए, जो बहुत जोर शोर से भ्रष्टाचार की मुखालफ़त करने को खड़ी है, नाक भौं सिकोड़ने वाली है। भ्रष्टाचार कोई नैतिक व्यवहार का मामला नहीं एक राजनैतिक षड़्यंत्र है। बिना राजनैतिक सवाल उठाये उससे मुक्कमिल तौर पर टकराया नहीं जा सकता। लोकपाल विधेयक हो चाहे कोई भी दूसरा कानून जब तक उसके दायरे में ऎसे सवाल समेटने की कोशिश नहीं होती है तो तय है जीवन को दूभर बना देने वाला घटनाक्रम और ज्यादा चुस्त और आक्रामक होगा। मेहनतकश आवाम की आवाज के दिन, मई दिवस के अवसर पर लिखा यह गीत जिसे अभी अभी मेरे मित्र अशोक कुमार पाण्डे ने लिखने के तुरन्त बाद सिर्फ पढ़ने को भेजा था, ऎसे ही सवालों को उठा रहा है। लड़ने की ललक के साथ और कामयाबी की उम्मीदों से भरी आवाज में ऎसे सवालों को उठाने की कोशिश करने के लिए गीत की पंक्ति को दोहरायें- पूछो /सवाल पूछो /न चुप रहो /अब सवाल पूछो |
पूछो
सवाल पूछो
न चुप रहो
अब सवाल पूछो
ये पूछो भूख आज भी है बस्तियों में क्यूं बसी?
ये पूछो कर रहे किसान किस लिए यूं खुदकशी
ये पूछो क्या हुए वो वादे रोज़गार के सभी?
ये क्या हुआ कि जिंदगी बाज़ार में यूं बिक रही.
बहुत हुआ
बहुत सहा
न अब सहो ये बेबसी
पूछो...
ये पूछो सारे मुल्क में आग सी है क्यूं लगी?
ये पूछो जाति-धर्म की दीवार क्यूं नहीं गिरी?
ये पूछो खून पी रहा क्यूं आदमी का आदमी?
ये क्या हुआ सिमट गयी क्यूं महलों ही में चांदनी?
कहाँ है वो
कौन है
कि जिसने लूट ली खुशी
पूछो
जो आग सीने में लगी वो कब तलाक दबाओगे
न गर मिला जवाब फिर भी सच तो जान जाओगे
जागोगे खुद जो नींद से तो औरों को जगाओगे
चलो हमारे साथ तनहा कुछ भी कर न पाओगे
कठिन तो
राह है बहुत
पर रौशनी भी है यहीं
5 comments:
बहुत सार्थक रचना ..बस सवाल ही पूछते रह जाते हैं
सुन्दर कविता है! आशावादी मन!
कठिन तो
राह है बहुत
पर रौशनी भी है यहीं
...प्रशनो को ...का मतलब जो सोचने पर विवश कर दे ऐसी ही सच्ची बातो से रूबरू करती अशोक जी की जबरदस्त पक्तियां ....इन में उन प्रशनो को को उजागर किया गया है जहाँ इन्सान का ओढा नकाब आपने आप उतर जाता है ...जिसको आज का इन्सान उठाना नहीं चाहता है ....इसी कविता में अंत में फिर से सकारत्मक सन्देश भी की इस समज की बुरायिओं को इसी समज में रहा कर इन्सान को मिटाना होगा ........सुन्दर विश्लेश शब्द दर शब्द ...बहुत बधाई अशोक जी को और विजय जी को धनवाद की आप ने एक सार्थक रचना और बात को आपने शब्दों में सन्देश दे कर शेयर किया है ....शुक्रिया ...निर्मल पानेरी
पूछो और जवाब लेकर ही छोड़ो !
blog dekha. rasshmi
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