यह एक स्वीकृत सत्य है कि नाटक एक्टर का माध्यम है तो फिल्म डाइरेक्टर
का। लेकिन फिल्म एवं नाटकों की दुनिया का यथार्थ जो तस्वीर बनाता रहा है, वह तस्वीर
कुछ भिन्न प्रभाव छोड़ती रही है। इधर यह भिन्नता कुछ ज्यादा चमकीली हुई है।
हिन्दी नाटकों की दुनिया में यह रौशनी कई बार तडि़त की सी चौंध बिखेरती हुई है।
नाटकों की दुनिया में उभरते सिद्धांत और व्यवहार के ये अन्तर्विरोध कोलकाता में
आयोजित हुए राष्ट्रीय नाटय महोत्सव ‘जश्न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों में
भी दिखायी देते रहे।
‘जश्न-ए-रंग’
कोलकाता की नाट्य संस्था लिटिल थेस्पियन के प्रयासों का सातवां क्रम था। पिछले
कुछ वर्षों से लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा आयोजित होने वाले ऐसे जलशों में देश
भर की कई नाट्य मण्डलियां कोलकाता पहुंचती रही हैं। इस बार, 3 नवम्बर से 8 नवम्बर
2017 तक आयोजित हुए इस नाट्य उत्सव में लिटिल थेस्पियन के अलावा जम्मू से ‘एमेच्योर
थियेटर ग्रुप’, इलाहाबाद से ‘बैक स्टेज’, नई दिल्ली से ‘पीपुल्स थियेटर’ एवं
बेगुसराय से ‘आशीर्वाद रंगमण्डल‘ नाट्य दलों की उपस्थिति रही। इस उत्सव की
विशेषता थी कि नाटकों के साथ रंग के अन्य प्रयोग जैसे किस्सा कहानी, नुक्कड़
एवं कहानी पाठ जैसी अन्य गतिविधियां उत्सव का मंच बनी। कोलकाता के बाशिंदे एवं
गुजराती भाषा के कलाकार- दिलीप दवे एवं दिनेश वडेरा, मॉरिसस के कलाकार- लीलाश्री,
शावीन, शाबरीन एवं वोमेश, पटना से दिनकर एवं बहुत से अन्य कलाकारों ने इस तरह की
गतिविधियों से 6 दिन तक चले इस उत्सव को यादगार बनाने की पहलकदमी में अपनी भूमिका
निभायी। 6 दिवसीय इस आयोजन में एक नाटकों के विकास में अखबारों एवं शिक्षण संस्थानों
की भूमिका पर भी विचार विमर्श हुआ। प्रबंधन के कौशल के पेशेवराना अंदाज के कारण भी
लिटिल थेस्पियन का यह एक महत्वपूर्ण आयोजन कहा जा सकता है। हर दिन के कार्यक्रम
की जानाकारी को फोन एवं एसएमएस के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाने और सीधे सम्पर्क
बनाये रखने वाले लिटिल थेस्पियन के युवा कार्यताओं की भूमिका इस मायने में उल्लेखनीय
रही। ध्यान रहे कि लिटिल थेस्पियन, कोलकाता शौकिया रंगकर्मियों की संस्था है जो
अपने सीमित साधनों से बांगला भाषी कोलकाता में लगातार हिन्दी नाटकों का पक्ष
प्रस्तुत करती रहती है।
नाट्य समारोह के दौरान मंचित हुए नाटकों पर अलग अलग बात करने की बजाय एक लय
में बहती उस समानता को देखें जो हिंदी नाटकों का वर्तमान हो रही है तो मन में यह सवाल
बार--बार उठ रहा कि कलाकारों के माध्यम नाटक
में सिद्धांत और व्यवहार का यह अन्तर्विरोध क्यों उभर रहा है कि प्रमुखता
निर्देशन को ही मिलती जा रही है और कलाकार हाशिए में होता जा रहा है ?
सवाल के जवाब को ‘जश्न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों की मूर्तता में
तलाशते हुए देखा जा सकता है कि तकनीक के विकास ने नाटय निर्देशकों को सहूलियत दी
है कि वे दृश्य जिन्हें पहले कभी मंचित कर पाना मुश्किल था, आज उन्हें भी मंचित
करना आसान हुआ है। इस तरह से देखें तो यह सुखद स्थिति होनी चाहिए थी, लेकिन कुछ ही
मामलों में ऐसे सुखद क्षणों के बावजूद इसने अभिनेता की स्वतंत्रता का ही हनन किया
है। उन्नत तकनीक के प्रयोग से रचे जा रहे दृश्यबंधों ने निर्देशक को तो स्थापित
करने में भूमिका निभायी है लेकिन प्रयुक्त तकनीक से सामंजस्य बैठाने की चिंता
में ही उलझे अभिनेता को अपने पात्र में कन्स्ट्रेट होकर अभिनय करने की स्वतंतत्रा
में बाधाएं भी खड़ी की है। परिणमत: निर्देशकों के व्यवहार में एक अजीब तरह की अराजकता
के साथ अतिमहत्वकांक्षा ने भी जन्म लिया है। ‘जश्ने-ए-रंग’ के तीसरे दिन मंचित
हुए ‘एमेच्योर थियेटर ग्रुप’, जम्मू के नाटक ‘द चेयर्स’ के बाद चचिर्ति निर्देशक
मुश्ताक काक का यह कहना इस बात का गवाह है। जब वे कहते हैं, ‘’चीयर्स एक एब्सर्ड
नाटक है और मैं हमेशा ऐसे ही नाटकों की तलाश में रहता हूं। हां, मेरे ये कलाकार
जरूर मुझे हमेशा टोकते हैं कि कभी इनसे हटकर भी करूं। लेकिन मुझे तो यही पसंद हैं।‘’
इस वक्तव्य के साथ आत्मश्लाघा से भरी मुश्ताक काक की हंसी की आवाज भी सुनायी
देती है। यूं कलाकारों के अभिनय के लिहाज से यह खूबसूरत प्रस्तुति थी।
‘द चेयर्स’ फ्रांसिसी नाटककार यूजिन ने लगभग पचास के दशक में लिखा है। नाटक की
कथा एक निर्जन द्वीप में एकाकी जीवन बिताते एक बूढ़े दम्पति की है। एकाकीपन ने
जिन्हें एक सामान्य मनुष्य भी नहीं रहने दिया है। समाज की वास्तविकता से कटे होने
के कारण वे कुछ कुछ पगलेट तरह के असमान्य व्यवहार में जीने को मजबूर हैं। यूजिन जिस वक्त इस नाटक को लिखा, उस
वक्त का फ्रांसीसी साहित्य अस्तितवादी के दर्शन के पक्षधर ज्या पॉल सात्र से
प्रभावित है। अस्तित्ववाद के साथ अपने वर्तमान को अमूर्तता में देखने का वह दौर
द्वितीय विश्वयुद्ध की निराशा और पस्ती में मनुष्य के जीवन को ही उददेश्य
विहीन एवं निर्थक मानता रहा है। अस्तित्ववादी एवं अमूर्तता के पक्षधर मानते रहे
हैं कि विश्व की अमूर्तता (जटिलता) का कोई तार्किक हल नहीं। आज जब दुनिया की
जटिलताएं उतनी अमूर्त नहीं रह गई हैं, ‘द चेयर्स’ का मंचन करते हुए आत्मगौरव से
भरे रहने का कारण समझ नहीं आता। इसे विशिष्टताबोध से भरे निर्देशक को कसने वाली
अतिमहत्वाकांक्षा क्यों न माना जाए ? यद्यपि यह नाटक निर्देशक की उपरोक्त
वर्णित प्रश्नांकिकता के बावजूद तकनीक के अतिश्य प्रयोग के बोझ से न दबी होने के
कारण कलाकारों को अभिनय करने की पूर्ण स्वतंत्रता देती हुई थी। नाटक के दोनों ही
कलाकारों ने उस अवसर को भरसक ही उपयोग किया। फिर भी अपने निर्देशक के उपरोक्त वक्तव्य
पर उनके चेहरे पर भी एक थका देने वाली मुस्कान ही बिखरती रही। यह नाटक की समाप्ति
पर मंच पर घट रही एक ऐसी वास्तविकता का नाटक था जिसकी अनुगूंज अतिमहत्वाकांक्षा की डोर के सहारे उड़ायी जाने वाली पतंग की सरसराहट में मंचन
के सफल प्रयोग को कलाकारों की सामूहिकता में देखने की बजाय निर्देशक को प्राथमिक
बना दे रही थी।
यह देखना दिलचस्प है कि नाटकों में विकसित तकनीकी के जिन प्रयोगों ने निर्देशकों
को महत्वपूर्ण बनाया हैं, फिल्मों की दुनिया में वही तकनीक कलाकारों की भूमिका को
ही महत्वपूर्ण रूप से स्थापित करने में सहायक हुई है। कलाकार की सुक्ष्म से
सुक्ष्म अभिव्यक्ति को उभारने में वही मददगार है। जिसके प्रयोग में जबकि
निर्देशक की निगाहें ही प्रमुख एवं निर्णायक होती हैं। नाटक हो चाहे फिल्म, दर्शकों
से सीधे मुखतिब होने का अवसर तो कलाकार के पास ही रहता है। यही वजह है कि प्रयोग
की जा रही तकनीक का सीधा प्रभाव भी कलाकार की अदाकारी पर ही पड़ता है। इलाहाबाद की
नाट्य संस्था ‘बैक स्टेज’ प्रवीण शेखर के निर्देशन में भुवनेश्वर की कहानी
‘भेडि़ये’ का नाटय रूप ‘खारू का किस्सा’ मंचित करती है। दृश्य गंभीर है और
कलाकार भरसक प्रयासों के साथ अभिनय करता है। भेडि़यों के हमले से खुद की जान बचाने
के लिए बाप और बेटे के पास हथियारों का जखीरा खत्म हो चुका है। भेडि़ये हैं कि
झुण्ड के रूप में दौड़ते चले आ रहे हैं। गाड़ी को खींचते बैल सरपट दौड़ते चले जा
रहे हैं लेकिन भेडि़यों को पछाड़ना मुश्किल है। गाड़ी में तीन नटनियां भी सवार है
जिसके कारण गाड़ी का बोझ खींचना बैलों के मुश्किल होता जा रहा है। बाप और बेटे तय
करके एक नटनियां को भेडि़यों के शिकार के तौर पर गाड़ी से धकेल देना चाहते हैं
लेकिन अपनी इस योजना का दर्शकों तक पहुंचाने के लिए खारू को गाड़ी से उतरकर मंच के
अग्रभाग में आकर संवाद अदायगी करनी है और पाते हैं कि उस कारूणिक दृश्य में कुछ
दर्शक है कि जोर जोर से हंस रहे हैं। ऐसा अगली नटनियाओं को फेंकते वक्त भी होता
है और फिर वही हंसी पहले से ज्यादा तीव्र होकर सुनायी देती है। बैल खोल दिये जाने
हैं ताकि भेडि़यों के झुण्ड से निपटा सके। लेकिन अभिनय की सारगर्भित अदायगी के
बावजूद दर्शक हंस रहे हैं। बेट की सलामती के लिए बाप खुद भेडि़यों से मुठभेड़ करने
के लिए गाड़ी से छलांग लगा देने की स्थिति में है और हंसने वाले दर्शक अब भी दृश्य
की कारूणिकता के साथ नहीं हो पा रहे हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ जबकि कलाकारों
के हाव भाव, उनकी मुद्रा, उनकी आवाजों के उतार चढ़ाव तो उस दहशत को बयां करने में
कतई कमतर नहीं थे। इसे सिर्फ यह कहकर हवा नहीं किया जा सकता कि वे वैसे ही वर्ग के
दर्शक थे जिन्हें दूसरों की परेशानी में ही लुत्फ उठाने की आदत होती है। ऐसा
निश्चित सत्य है कि आज समाज का एक वर्ग इस विकृत मानसिकता से भी ग्रसित है, पूंजी
की चकाचौंध में जिसके भीतर अमानवीयता ही हावी है। लेकिन नाटक के दौरान ऐसे घटने के
कारण बिल्कुल साफ थे कि जब कलाकार को संवाद अदायगी करनी होती थी, उस वक्त उसे
नाटक में घट रहे घटनाक्रम वाली जगह से हटना जरूरी हो रहा था। खारू दौड़कर गाड़ी से
नीचे उतरता, संवाद अदा करता और फिर गाड़ी में चढ़ जाता। क्योंकि गाड़ी रूपी तकनीक
को मंच पर होना जरूरी है, बेशक चाहे कलाकार के उस पर चढ़ने और उतरने के दौरान
दर्शक मंचित हो रहे घटनाक्रम से बाहर निकल जाए, निर्देशक को इसकी चिंता नहीं।
निर्देशक की चिंता में तो दृश्य की सजीवता गाड़ी की उपस्थिति से ही हो रही है। उस
सेट को डिजाइन करने में ही तो वह अपने निर्देशक को स्थापित होता हुआ देख रहा है। ‘खारू
का किस्सा‘ फिर भी एक बेहतर प्रस्तुति कही जा सकती है। हां नाटक की स्क्रिप्ट
में यदि अंत को नाटक वास्तविक अंत पर ही संपादित कर दिया जाए तो। क्योंकि खारू
के किस्से का अंत हो जाने के बाद भी जारी रहने वाली उपदेशात्मकता नाटक के पूरे
प्रभाव को ही लील जा रही थी।
कुछ कुछ वही स्थितियां जो खारू के किस्से में सेट के कारण दिखायी दी, अमित रौशन के निर्देशन में मंचित हुए बेगूसराय की संस्था के नाटक ‘दो औरतें’ में भी दिखती है। नाटक में नैरेटर की भूमिका निभा रही अदाकारा को बीच मंच पर दोनों ओर लटक रही दो बड़ी बड़ी चावीनुमा औरतों से मुखातिब होना है। चावियों को औरत में बदलने के लिए कभी उसे उन्हें साथ में झूल रहे दो लम्बे लम्बे लाल दुपटटों से ढकना है कभी उन दुपटों के सहारे उसे स्कूटर की सवारी करनी है और कभी उन्हें अपने ईर्द गिर्द लपेटते हुए दर्द की आहें भरते हुए संवाद अदायगी करनी है। साथ ही बदलते हुए भावों के साथ बहुत तेज आवाज में गूंज रहे पार्श्व संगीत से पार पाते हुए भी अपनी आवाज दर्शकों तक पहुंचानी है। मंच के बीच एक लम्बा ब्लाक रखा है। ज्यादा असहजता समझे तो उस पर जाकर खड़ी हो जाए और संवाद अदा करे। इन स्थितियों में कवि नवेन्दु की कविता ‘नमक’ की पंक्तियां याद आ जाना स्वाभाविक है- खाने में जो भी स्वाद था, सब नमक की वजह से था। नाटक में तकनीक भी नमक की तरह से इस्तेमाल हो तो प्रस्तुति निखर उठती है लेकिन अधिकता पूरा मजा ही किरकिरा कर देती है। रंगकर्मी अजहर आलम के निर्देशन में मंचित हुए लिटिल थेस्पियन के नाटक ‘रूहे’ में तो भारी भरकम सेट पर चीख चीख कर संवाद अदा करते बूढे की दयनीयता का जिक्र करना ठीक ही नहीं लग रहा। संवाद अदायगी पर तंज कसते देहरादून थियेटर के दादा अशोक चक्रवर्ती की कही बातें याद आती हैं कि एक खाली डिब्बा लो, उसमें पत्थर भरो और जोर जोर से हिलाओ तो वे भी आवाज करते हैं। संवाद अदायगी खाली डिब्बे में भरे पत्थरों की आवाज नहीं हो सकती।
मुश्किल है दिल्ली की संस्था ‘पीपुल्स थिेयेटर’ के नाटक ‘अर्थ’ पर बात करना
जिसका निर्देशन निलय राय ने किया। क्योंकि वहां तो कलाकारों को तमाम तरह के ड्रील
करने थे और ड्रील करते करते ही संवाद अदा करने थे। अब वे ड्रील का अभ्यास किए
होंगे कि अपने पात्र में डूबे होंगे। एक दूसरों की पीठ पर, कंधों पर चढ़कर जबकि
कभी उनके पांव लड़खड़ाने को होते और कभी पूरा शरीर ही झूल कर लटक आने को हो रहा
होता। तिस पर अतिमहत्वाकांक्षा में डूबा निर्देशक इतिहास कथा के उस कथानक के
तार्किकता पर भी नहीं सोचता कि क्या चाणक्य की हत्या हो जाने और मौर्य वंश का
विनाश हो जाने से ही बौद्ध धर्म कैसे अचानक उदित हो गया। बस सभी कलाकारों को गोल
घेरे में बुद्धम शरणम गच्छामी उच्चारना है।
2 comments:
समीक्षा तो अच्छी है। कुछ मुद्दों पर बहस की गुंजाइश बनती है।
बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
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