कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
जब चारों ओर उथल-पुथल मची हो। दिग्भ्रम की सी स्थिति हो, संकट- मौत की ओर धकेलने वाली स्थितियों भर का ही नहीं, निर्मम तरह से किये जाने वाले वार और तड़फडते जिस्म के साथ पाश्विक हिंसा का डर फैलाते हुए भी खड़ा हो,
मनुष्य विरोधि
ताकतें आक्रमकता का ताण्डव रचते हुए लगातार ताकतवर होती जा रही हों, तो ऐसे में
मित्र और शत्रु की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। हो सकता है, वह आपका मित्र ही
हो जिसने खुद की जान बचाने के लिए कोई ऐसी हरकत कर दी हो जिससे आपकी जान सासत में
पड़ गयी। या, शत्रु ही हो, चाहता हो कि आप मुसिबत में फंस जाएं, लेकिन उसके रचे
गये प्रपंच ने आपको पहले से थोड़ा लाभ की स्थिति में पहुंचाने में मदद कर दी हो।
ऐसे में दोस्त और दुश्मन की पहचान कैसे करेंग। क्या इसे वैज्ञानिक समझदारी कही
जाएगी कि आप प्राप्त परिणाम के आधार पर मित्र और शत्रु की पहचान कर लें ? यह विज्ञान
की यांत्रिक परिभाषा ही होगी जिसके आधार पर तर्क रखा जाएगा कि प्रयोगों से प्राप्त
परिणामों की सत्यतता की बारम्बारता से ही कोई व्यवहार सिद्धांत हो जाता है।
धर्म को लेकर
सवाल खड़े हो तो न जाने कितने समान वैचारिक मित्र भी ऐसे ही यांत्रिकता के साथ भिन्न
राय रखते हैं। यहांवहां से, जाने कहां कहां से कितने ही हवाले गिनाते हुए धर्म को
एक पद्धति और जनता की आंकांक्षाओं को सहारा- देने , यह वालभी कहते हुए कि चाहे
झूठा ही सही, जैसी बातें करने लगते हैं।
आपकी स्मृतियां
इन स्थितियों से उबरने का रास्ता सुझा रही हैं। जिदद की हद तक अपने तर्क के पक्ष
में खड़े रहने वाला आपका बौद्धिक साहस हिम्मत बंधाता है। आपकी स्मृति के हवाले
से ही कह सकता हूं कि ऐसे में जरूरी हो जाता है कि खूब तेज आवाजों में बोला जाए-
जो भी बोलना हो। कहीं ऐसा न हो कि कानाफूसी आपको संदिग्ध बना दे। तेज आवाजों में
रखा गया आपका पक्ष बेशक आपके भीतर के अन्तरविरोधों को भी छुपने न दे। लेकिन तहजीब
की मध्यवर्गीय शालीनता का दिखावा करना छोड़ दे।
आपने यदि विरोध
को उस दिन तहजीब की मध्यवर्गीय शालीनता में रखा होता तो आपके भीतर की आग से कैसे
तो राजेन्द्र यादव भी वाकिफ हो पाते! हिंदी में दलित साहित्य की संज्ञा तो तब थी
ही नहीं और आप अपनी कविताओं के पक्ष में वैसे ही तर्क दे रहे थे, जो स्थापित नहीं
था। आपमें खुद के भीतर को रख देने का जो बौद्धिक साहस था, उसके कारण ही न सिर्फ
राजेन्द्र यादव बल्कि हिन्दी की दुनिया जान पायी थी अम्बेडकर सिर्फ एक संविधान
निर्माता नहीं बल्कि एक ज्योतिपुंज है इस देश के दलित शोषितों के लिए ।
उस रोज ‘हंस’
संपादक राजेन्द्र यादव अचानक से देहरादून पहुंचे थे। गिररिराज किशोर, प्रियंवद और
राजेन्द्र यादव के लिए बिना पहले से की गई व्यवस्था के बावजूद रात भर की शरण के
नाम जुटा ली गयी यमुना कालोनी गेस्ट हाऊस की शाम थी। इस किस्से को यदि किस्से
को वास्तविक रूप से बुनने वाला और सचमुच का किस्सागो, नवीन ही यदि कहे तो मेरा
पक्का यकीन है कि अंधियारी शाम, नहीं जाति और धर्म को एक पद्धति मानने वाली धूल
से फैलता अंधकार, कम से कम उन लोगों को जरूर ही बाहर निकलने में मददगार होगा जो
बदलाव की बात करना शौक के तौर पर नहीं, जरूरी कार्रवाई के रूप में देखते हैं। वरना
हकीकत तो यह है कि देहरादून में किसका परिचय था राजेन्द्र यादव से, प्रियंवद से
या गिरिराज जी से ही। अवधेश और नवीन ही तो थे उस गोष्ठी के सूत्रधार।
अजीब अहमकों का
शहर है यूं भी देहरादून, जिन्हें अवसरों की ताक में डोलते हुए कोई नहीं पाएगा। इस
शहर के बाशिंदें की पहचान का एक सिरा इस मिजाज से भी पकड़ा जा सकता है कि अवसर के
होते हुए भी संकोची बना दिखेगा। अतिमहत्वाकांक्षा तो दूर की बात महत्वाकांक्षा
की डालों पर भी झूला डालने से बचेगा। बिना बड़बोलेपन के खामोशी से अपने में जुटा
रहेगा। लेकिन भूल न करे कि यहां बाशिंदा मतलब इतना भर नहीं कि जो देहरादून में ही रहता
हो। जी नहीं, देहरादून में रहने वाले तो बहुत से हैं लगातार के ‘खबरी’। ऐसे समझे
कि जैसे जयपुर में रहते हुए भी अरूण कुमार ‘असफल’ देहरादून का बाशिंदा ही बना रहा।
ये न मानिये कि मैं यह बात इसलिए कह रहा कि अरूण चूंकि जयपुर से लौटकर दुबारा से
देहरादून में रहने लगा है और अब सचमुच का बाशिंदा हो गया है। लौटकर तो जबलपुर से आप
भी आए थे देहरादून पर मैं ही नहीं दूसरे साथी भी बता सकते हैं कि आप अपना देहरादून
खो कर ही लौटे थे। हां, फिर से बांशिदा हो जाने के कारण उम्मीद बनने लगी थी कि आप
अपना देहरादून पा लेंगे। लेकिन उसका वक्त
ही नहीं मिला आपको। कोई यह भी कह सकता है
कि अरूण तो गोरखपुर का मूल बाशिंदा है, फिर उसके भीर तो है वह गोरखपुर की विशेषता ही
हुई। इस बात से मेरी असहमति नहीं कि गोरखपुर में भी देहरादूनिये रहते हों। किसी
दूसरे शहर में भी हो सकते हैं। अभी यदि आप दिल्ली में हो तो राजेश सेमवाल से मिल
लें। जान जाएंगे की गजब की सौम्यता के बावजूद एक गुस्ताख किस्म की अकड़ है
बंदें में। लिजलिजापन तो कोसों दूर की बात। लम्बे समय से दिल्ली में रहने वाले
सुरेश उनियाल या हमेशा बाहर ही बाहर रहे मनमोहन चडढा से पूछें कि आप कहां के
बाशिंदे हैं जनाब। गनीमत समझिये कि उनक जवाब में कोई गुस्ताख खामोशी भरी आवाज न
सुननी पड़ जाए आपको। बस उसी गुस्ताख आवाज में उस दिन आड़े हाथों ले लिया था आपने
‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव को।
मेरी सीमा है कि
मैं उस पूरे प्रकरण को उतनी वास्तविकता में न रख पाऊं, क्योंकि पता नहीं इस बीच
मैं भी अपने भीतर कितना बचा पाया हूं दून को। बल्कि मैं ही क्यों देहरादून में
रहने वाले हमारे दूसरे साथी भी क्या उसे बचा पा रहे हैं या नहीं। पर यकीन के साथ
कोई भी कह सकता है कि नवीन के भीतर तो वह हमेशा ही बचा हुआ है। दरअसल देहरादून की
बदलती आबोहवा में वह तो अब भी श्सौरी का बाशिंदा है न। यह कथा कहने का सुपात्र वही
है। मैं उम्मीद करूंगा कि पिछले कुछ दिनों से उसके शरीर में जो थकान बसती जा रही
है, उसे मोहलत दे ताकि वह उस किस्से को कह पाए, वरना मुझे तो कहनी ही होगी। मैं
तो आपसे सीधे मुखातिब जो हूं इस वक्त।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-12-2017) को "पढ़े-लिखे मुहताज़" (चर्चा अंक-2805) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक शहर, उसके मिजाज और वहां के रचनाकारों को यूं जानना भी जरूरी ही नहीं सुखद भी है। नहीं तो अति महत्वकांक्षाओं के सुरूर में कहां बचा रह पाता है तेवर और अक्खड़पन, बल्कि बहुधा तो रचनात्मकता तक साथ छोड़ जाती है। अच्छा लगा पढ़कर।
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