लेखक का फिक्स्ड डिपॉज़िट
सुभाष पंत की कहानी "घोड़ा" पढ़ने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करती है भले ही उसमें कुछ अतिशयोक्तियाँ भी लगें .... मैं देर तक चेखव की मशहूर कहानी "डेथ ऑफ़ ए क्लर्क" के बारे में सोचता रहा। आदमी को आदमी न बना कर बोझ ढ़ोने वाला घोड़ा बना देने वाली व्यवस्था का अत्यंत क्रूर और दमनकारी चेहरा चमगादड़ों के झुण्ड की मानिंद पाठक के आसपास चेहरे पर ठोकर मारते महसूस होते हैं। संक्षेप में कहें तो ऑफिस में काम करने वाले एक मामूली मुलाजिम की कहानी है यह जो अफ़सर के बच्चे के लिए और कुछ नहीं महज़ पीठ पर सवारी कराने वाला घोड़ा है - और कोई उसको मनोरंजन समझता है तो कोई उसकी ड्यूटी। सुभाष जी ने बात करते हुए इस कहानी को जन्म देने वाली घटना सुनायी - उनकी नौकरी के शुरूआती दिनों की बात है जब वे रेल के फ़र्स्ट क्लास कूपे में धनबाद से देहरादून की यात्रा पर थे और उनकी नीचे वाली बर्थ थी ,ऊपर कोई राजनैतिक नेता धनबाद में सवार हुआ।नेता के साथ एक अटेंडेंट भी था। नेता ने पंत जी को बताया कि वह चुनाव के लिए टिकट लेने आया था और बहुत थका हुआ है। जब ऊपर चढ़ने की बारी आयी तो अटेंडेंट बाकायदा घोड़े जैसा झुका,नेता ने उसकी पीठ पर एक गमछा बिछाया और जूता पहने उसपर चढ़ के ऊपर की बर्थ पर पहुँच गया। अटेंडेंट ने फिर खड़े होकर फीता खोल कर उसके जूते उतारे ,सिर से लगाया और नीचे रखा। जैसे ही नेता के खर्राटे सुनाई देने शुरू हुए वह वही गमछा बिछा कर फ़र्श पर लेट गया - भयंकर सर्दी के दिन थे और पंत जी ने उसको अपनी गर्म चद्दर देनी चाही पर उसने विनम्रता से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि शरीर को गर्मी मिलते ही नींद आ जायेगी - मालिक रात में जब भी जागेगा उसको सोता देखेगा तो आग बबूला हो जायेगा ,और उसकी जान भी ले सकता है।इस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला।
ऐसी ही एक और घटना उन्होंने देहरादून की सुनायी जब उनके घर में नई फ़र्श बनाने का काम चल रहा था - वैसे ही सर्दियों के दिन थे और दफ़्तर से लौटने के बाद उन्होंने देखा एक बिहारी मज़दूर सिर्फ़ बनियान पहने हुए ओवरटाइम में फ़र्श की घिसाई का काम कर रहा है। पंत जी ने पत्नी को कहा कि इसको चाय दे दो,बेचारे के बदन में थोड़ी गर्मी आ जायेगी। जब बार आग्रह करने पर उसने चाय नहीं ली तो पत्नी ने बताया दिन में कई बार मैंने उससे चाय के लिए कहा पर हर बार उसने मना कर दिया। जब उस मज़दूर से पंतजी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि चाय पीने की तलब उसको थी पर यह सोच कर बार बार वह इनकार कर रहा था कि कहीं चाय की आदत न पड़ जाए - वह इस तरह की दिहाड़ी मज़दूरी में चाय पीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।
मैंने जब पंतजी से इन दोनों घटनाओं पर कहानियाँ लिखने के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता और दृढ़ता से जवाब दिया कि ये मेरे जीवन का "फिक्स्ड डिपॉज़िट" है जिसको मैंने सोच रखा है काम चलाने के लिए कभी तुड़ाऊँगा नहीं ..... और हमेशा ये घटनाएँ मुझे दिये की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी और यह बताती रहेंगी कि मुझे किनके बारे में और किनके लिए लिखना है।
यादवेन्द्र
लेखक अनुवादकपूर्व निदेशक,के.भ.अ. संस्थान,रुड़की
2 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
अति मार्मिक और हृदय विदारक, सदा से समाज में धनी और निर्धन के बीच गहरी खाई है, जो बढ़ती जा रही है
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