हर व्यक्ति अपने
निजी अनुभव में काव्य संवेदना संपन्न होता है, यही
मनुष्य की मूल प्रकृति है. यही मनुष्यता भी. यह बात सोशल मीडिया के इस दौर में
पुख्ता तौर से उभर कर आई है और रही है. क्योंकि तकनीक इस आमद ने अभिव्यक्ति स्वतंत्रता
को एक हद तक स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाई है. वरना ऐसा कैसे होता कि हम पिछले
कुछ एक वर्षों में बहुत से उम्दा कवियों से परीचित हो पाते. वह भी ऐसे दौर में जब नफरत
को बढ़ाने वाला कारखाना तीनों पारियों में सक्रिय हो. मनोरमा नौटियाल एक ऐसी कवि है जिनकी कविताओं से वास्ता फेसबुक के माध्यम से हुआ है और जब निगाह गईं कुछ देर को ठहर जाना हुआ है. जिज्ञासाओं के शमन में यह जानना सुखद आश्चर्य से भरने वाला है कि वे अभी तक करीबन 70/ 80 से ज्यादा कविताएं लिख चुकी हैं. बेशक कुछ कविताओं में शुरुआती कच्चापन हो लेकिन उनके कथ्य इतने मौलिक और निजी अनुभवों से संपृक्त हैं कि हैरत में पडे बिना नहीं रहा जां सकता. बहुत ही स्थानिक स्मृतियों से समिष्टि को देखने की यह कोशिश हिंदी कविता की सम्भावना पर विश्वास बनाये रखने को आशवस्त करती है. उत्तराखंड के एक छोटे
से क्षेत्र जौंनपुर में भी थत्यूड जैसे अज्ञात नाम वाले इलाके के नजदीक के एक गांव
से आने वाली इन हिंदी कविताओं पर इसलिए भी भरोसा किया जा सकता है कि शिल्प या अन्य
किसी बाहरी आलम्ब के बिना भी ये कविताएं अपने कथ्य के दम पर आपको भीतर तक छेड देने
का हौंसला सम्भाले हैं. बिना शीर्षकों वाली इन कविताओं की एक खास विशेषता है कि जहाँ
वे समाप्त होती हैं वहा पर भी बहुत कुछ अनकहा पाठक को अपनी गिरफ्त में लिये रहता है.
विगौ |
1.
उसने चीखकर बतानी चाही
अपनी बेबसी, कुंठाएँ, खण्डित आशाएँ
आँसुओं में बहाना चाहा
दर्द से निचुड़ा
तिरस्कार से खौफ खाया हुआ दिल
जवाब में सुनना हुआ;
नाटक करती है
नखरैल है बहुत
त्रिया चरित्र दिखाती है
उसकी बातें, चुप्पी, सिसकियाँ-
आहें
सब बेमानी हुईं
उसने शुरू किया
मुस्कुराने का अभिनय
इस तरह जन्म हुआ
दुनिया के रंगमंच पर
एक उम्दा और सफल कलाकार का
2.
उबले तो खो जाता वाष्प होकर
कस्तूरी मृग सा प्यासा
अंतर में ओज लिए
भटकता अनन्त से अनन्त तक
जम जाए तो बन जाता बुत
पड़ा रहता किसी टीले पर
आवारा कुकुर सा
बदन पर पड़ी मिट्टी तक नहीं हटाता
अन्तर्धान हो जाने में माहिर है
माहिर है जड़ हो रहने में
हां अपने मूल स्वभाव में रहता हर वक्त तरल
एक स्त्री मन
डंगीले-कंटीले
धार खालों में
बेख़ौफ़ बहता जाये
उलार की दस्तक पर चेहके
खुशहाली के संदेश सा
राह रोकने को खड़े
किनारों पर पड़े
रुड़खुड़े निरंकुश पत्थरों को भी
भिगोता घिसता तराशता है
पत्थरों के बीच बहकर नहीं होता कठोर
पत्थर नहीं बनता
पानी
ही तो है स्त्री मन
पत्थर हो जाने में उसका यकीन नहीं
3.
अक्सर रह जाती हैं
अंडरएस्टिमेटेड
या ली जाती हैं
फ़ारग्रेंटेड
संसार की सबसे सुन्दर चीजें
जीवन की सबसे कीमती नेमतें
प्रतिफल की आशा किए बिन
पेड़ देते छाया
फूल बिखेरते
बाँटते फल
बंजरों में जीवन उगाती नदियां
गाद ढोती मैला बहाती
बच्चों के करियर की फिक्र में
दरवाजे तक पीछा करती माँ
रोटी का निवाला लेकर
झुंझलाते पिता
घर के कोने में बैठे
उखड़ती-फूलती
साँस से
हर एक का हाल पूछते बूढ़े दादा
धुँधली सुबह से
गहन अंधेरी रात तक
खेतों में पसीना बोते किसान
जीवन की सबसे कीमती नेमतें
अक्सर रह जाती हैं
एंडरएस्टिमेटेड
उपेक्षित
4.
किताबों ने तोड़ दिये आदमी के सैकड़ों भरम
ख़त्म कर दीं बेतुकी निराधार मान्यताएं
जड़ों से उखाड़ दिये पिनपिने रिवाज
खोल दीं पुरानी गाँठों सी बंधी वर्जनाएं
हैरान हूँ वो कौन सी किताब है आखिर
जिसे पढ़कर आदमी आदमी को काटने दौड़ पड़ता है
है कौन सा वो ग्रँथ जो कहे अन्य को छोटा
मैं ही हूँ महान बस इस जिद पर अड़ता है
सच है अगर कि इस सृष्टि का कोई विधाता है
तो मिट जाए हर वो हर्फ़ जो नफ़रतें सिखाता है
कीड़े खाएं उन किताबों को जिनमें हैं इंसान की
बर्बादी के उसूल
जल जाए हर वो कागज जो इंसानियत को जलाता है
5.
बड़ी रौनकें
छोड़ जाती हैं अपने पीछे
लंबी गूंज
भारी भरकम खामोशी
गहरी उदासियां
और
बहुत सारा खालीपन
जश्न से बड़ा होता है
जश्न के बाद का निस्तब्ध सन्नाटा
6.
कोयला होती धरती
निश्चेष्ट पड़ती सृष्टि
अंगार बन तपते बादल जलभरे
नील आकाश हो जाता राख
क्या मिलता है रे सूरज
बरसाकर इतनी आग
कहाँ बैठ कर धूनी रमाता
कौन धाम के दर्शन करता
आचमन करता किस सरोवर में
किस चौखट पर शीश नवाता है
दिन सारा जल-जला
कर
निपट अकेला तू कहाँ चला जाता है
डूबना चाहता हूं मैं उसी में
जिस समंदर में तू अपनी जलन से मुक्ति पाता है
तेरे ही जैसा है मेरा प्रारब्ध
निकट आता जो भी
झुलसता है
जल जाता है
7.
रास्तों पर चलते
कहीं भी आते जाते
वो चलती है सिर झुकाकर
कदमों से पहले
नजर बढाकर
कि पैरों से दब न जाये
कोई अदना सा कीट
कोई नन्ही चींटी
जो ले जा रही हो
खुद से कई गुना ज्यादा वजनदार
अन्न का टुकड़ा
घर और ऑफिस के बीच झूलती
सोचती है अक्सर
कौन जाने
इतना वजन उठाना
चींटी की लाचारी हो
उसके घर की ज़रूरतें
सिर पर रखे भार से ज्यादा भारी हों
8.
रंग रहेंगे सुगन्ध रहेगी
खिलते रहना
खिलखिलाते रहना
जश्न रहेंगे ख़ुशी रहेगी
हँसते रहना
मुस्कुराते रहना
गीत रहेंगे सरगम रहेगी
गाते रहना
गुनगुनाते रहना
उजाले रहेंगे उम्मीद रहेगी
जीते रहना
जिलाते रहना
4 comments:
शानदार कविताएं।पठनीय।
हार्दिक धन्यवाद नवीन जी.
विजय जी के परिचय के अनुरूप मनोरमा जी की कविताएं हैं। इनमे प्रकृति है, स्त्री मन भी है। शिल्प और भाषा भी आकर्षित करती है। मनोरमा जी को बधाई
धन्यवाद योगेश जी.
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