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Wednesday, August 11, 2010

पत्रकार वार्ता

देहरादून

नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में महिला रचाकारों के रचनाकर्म पर की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में आयोजित पत्रकार वार्ता में देहरादून के विभिन्न सामजिक साहित्यिक संगठनों के बीच स्पष्ट एकता दिखायी दी। महिला समाख्या, जागो रे अभियान, उत्तराखंड महिला मंच, संवेदना, दिशा सामाजिक संगठन, वाइज, प्रगतिशील महिला मंच की प्रतिनिधियों ने सामूहिक तौर पर पत्रकारवार्ता को संबोधित किया। साक्षात्कार में की गई टिप्पणी की निंदा करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और साहित्यकार विभूतिनारायण राय के इस्तीफे की मांग शिक्षा मंत्री से की गई। वार्ता में शामिल महिला संगठनों का मानना था कि विभूतिनारायण राय की ओर से की गई टिप्पणी उनकी कुत्सित मानसिकता को दिखाती है। पत्रकार वार्ता को संबोधित करने वालों में गीता गैरोला, कमला पंत, मनमोहन चड्ढा, पदमा गुप्ता आदि मुख्य रहे। देहरादून के अन्य साहित्यकार और सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के बहुत से कार्यकर्ता इस अवसर पर उपस्थित रहे।

Sunday, August 8, 2010

विवादित साक्षात्कार की हलचल

गोष्ठी की रिपोर्ट को दर्ज करने की सूचना पर इस ब्लाग के सहभागी लेखक राजेश सकलानी ने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित एक संस्मरण ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) के उस अंश को दुबारा याद करना चाहा है जिसमें एक जिम्मेदार लेखक गरीब की बेटी को नग्न करके शब्द के अर्थ तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता है। जबकि लेखक एक शिक्षाविद्ध भी है।


साहित्य की समकालीन दुनिया की खबरों की हलचल का प्रभाव इतना गहरा था कि खराब मौसम के बावजूद 8 अगस्त 2010 को आयोजित संवेदना की मासिक रचनागोष्ठी बेहद हंगामेदार रही। कथाकार सुभाष पंत, डॉ जितेन्द्र भारती, कुसुम भट्ट, मदन शर्मा, दिनेश चन्द्र जोशी, के अलावा फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा और दर्शन लाल कपूर गोष्ठी में उपस्थित थे। अगस्त माह की यह गोष्ठी बिना किसी रचनापाठ के कथाकार और कुलपति विभूति नारायण राय के उस साक्षाकत्कार पर केन्द्रित रही जो नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है और विवाद के केन्द्र में है। महिला समाख्या की कार्यकर्ता गीता गैरोला के उस पत्र को आधार बनाकर बातचीत शुरू हुई जिसमें उन्होंने संवेदना के सदस्यों से अपील की है कि महिला रचनाकारों के बारे में अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी के विरोध में 10 अगस्त को आयोजित होने वाली प्रेस कान्फ्रेन्स में, अपनी सहमति के साथ उपस्थित हों। साक्षात्कार का सामूहिक पाठ किया गया और उस पर विस्तृत बहस के बाद गोष्ठी में उपस्थित सभी रचनाकारों ने अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी पर विरोध जताते हुए प्रेस कांफ्रेंस में संवेदना की भागीदारी की सहमति जतायी। 




जयपुर
प्रेमचंद जयंती समारोह-2010
राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को ‘कथा दर्शन’ और ‘कथा सरिता’ कार्यक्रमों के माध्‍यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्‍यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्‍त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्‍म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्‍मों के प्रदर्शन से हुई। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’, ‘ज्‍योति’ और ‘हज्‍ज-ए-अकबर’ फिल्‍में दिखाई गईं।
रविवार 01 अगस्‍त, 2010 को वरिष्‍ठ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित ने प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का अत्‍यंत प्रभावशाली पाठ किया। कथाकार राम कुमार सिंह ने ‘शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते’ कहानी का पाठ किया। कहानी पाठ की शृंखलमें प्रदेश के युवतम कथाकार राजपाल सिंह शेखावत ने ‘नुगरे’ कहानी का पाठ किया| उर्दू अफसानानिगार आदिल रज़ा मंसूरी ने अपनी कहानी ‘गंदी औरत’ का पाठ किया। सुप्रसिद्व युवा कहानीकार अरुण कुमार असफल ने अपनी कहानी ‘क ख ग’ का पाठ किया। मनीषा कुलश्रोष्‍ठ की अनुपस्थिति में सुपरिचित कलाकार सीमा विजय ने उनकी कहानी ‘स्‍वांग’ का प्रभावी पाठ किया। अध्‍यक्षता करते हुए जितेंद्र भाटिया ने पढ़ी गई कहानियों की चर्चा करते हुए समकालीन रचनाशीलता को रेखांकित करते हुए कहा कि इधर लिखी  जा रही कहानियों ने हिंदी कहानी के भविष्‍य को लेकर बहुत आशाएं जगाईं हैं। सत्र के समापन में उन्‍होंने अपनी नई कहानी ‘ख्‍वाब एक दीवाने का’ का पाठ किया।
‘कथा सरिता’ के दूसरे सत्र का आरंभ वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में युवा कहानीकार दिनेश चारण के कहानी पाठ से हुआ। इसके बाद लक्ष्‍मी शर्मा ने ‘मोक्ष’ कहानी का पाठ किया। युवा कवि कथाकार दुष्‍यंत ने ‘उल्‍टी वाकी धार’ कहानी का पाठ किया। चर्चित कथाकार चरण सिंह पथिक ने ‘यात्रा’ कहानी का पाठ किया।
प्रस्‍तुति : फारुक आफरीदी

Wednesday, February 10, 2010

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता की परम्परा

उत्तराखण्ड के समाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में युगवाणी उत्तराखण्ड की एक मासिक पत्रिका ही नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का एक ऐतिहासिक सच भी है। अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्र की स्थापना टिहरी राजशाही के विरोध में जन्में आंदोलन का एक रूप था। उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों के साथ अपनी प्रतिबद्धता की परम्परा को युगवाणी ने बखूबी निभाने का प्रयास किया है। युगवाणी के संस्थापक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती पर एक कार्यक्रम का आयेाजन किया जा रहा है जिसमें पत्रकारिता की नयी चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जाएगा। 13 फरवरी 2010 को युगवाणी द्वारा देहरादून में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, समर भण्डारी, शेखर पाठक, राजेन्द्र धस्माना, शमशेर बिष्ट, राजीव लोचन शाह के साथ साथ कई लेखक पत्रकार हिस्सेदारी कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि कार्यक्रम उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टिहरी राज्य आन्दोलन, नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन, विश्व विद्यालय के लिए आन्दोलन, बाँध विरोधी आन्दोलन, बाँध विस्थापितों के हितों व उनके जनतान्त्रिक अधिकारों को समर्पित आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं, पूर्व सम्पादकों, पत्राकारों और बुद्धिजीवियों की विरासत को भी अच्छे से स्थापित करेगा साथ ही उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की प्रवृतियों और स्मृतियों का ब्यौरा भी संजो सकेगा।

हमारे समय में आचार्य जी

संजय कोठियाल

आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती मनाने का विचार अचानक ही नहीं आया। उनके समय के टीन की छत वाले युगवाणी के दफ्रतर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिर के ऊपर लकड़ी की कड़ियाँ अभी भी मौजूद हैं। एक ट्रेडल प्रेस जरूर अब यहाँ नहीं है, लेकिन मशीन मैन की जगह कभी खुद अखबार की छपाई करते, अखबार के बण्डल को कन्धों पर रखकर पोस्ट ऑफिस ले जाते हुए और सम्पादक की कुर्सी पर बैठकर सुदूर पहाड़ी गाँवों से मिलने आये लोगों से ध्यान पूर्वक हाल-समाचार लेते हुए आचार्य जी अपनी व्यक्तित्व की पूरी आभा के साथ यहाँ बराबर मौजूद लगते हैं। छोटे-बड़े सभी उम्र के लोगों के साथ वे सामान लगाव से मिलते थे, लेकिन उनसे बात करते समय खुद-ब-खुद एक जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता था। बातें अर्थपूर्ण होनी चाहिए और शब्दों का उच्चारण ठीक होना चाहिए। देश की राजनीति की हलचलें उद्वेलित कर रही हैं या विभिन्न जनपदों में आन्दोलन की खबरें आ रही हैं। कहने-सुनने की बेचैनी के लिए सोचने-विचारने वाले लोग दस बाई दस के आचार्य जी के कार्यालय में जरूर आना चाहते हैं।
50 वर्षों से ज्यादा समय तक उन्होंने युगवाणी को गम्भीरता, सादगी और परिवर्तन की जन आकाँक्षाओं का केन्द्र बनाया था। वर्ष 1999 में उनके देहावसान के बाद आचार्य जी की कुर्सी की महत्ता का बोध हुआ। यह भी कि बड़े संघर्ष सरल जीवन और सरल विचारों से सम्भव होते हैं। अपने लोक और परिवेश से एकता और हर तरह की संकीर्णता से स्वाभाविक विरोध उनकी वैचारिकी का आधार था। टिहरी की राजशाही से मुक्ति संघर्ष को गति देने के लिए स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पान्थरी और स्व। श्री तेजराम भट्ट के साथ मिलकर अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्रा की स्थापना की थी। बाद के वर्षों में चुनौतियों की विकट शक्लें थी। पहाड़ों में सड़कों, स्कूल-कॉलेजों और अन्य विकास कार्यों के लिए अपनी चुनी हुई सरकारों से जद्दोजहद करना था। सामन्ती प्रवृतियों और निहित स्वार्थों से संघर्ष करना था।
आज के दौर में देश में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों पर जनता का भरोसा नष्ट हो चुका है। उत्तरदायित्व विहीन पूँजी हमारे जीवन को संचालित कर रही है। सूचना और संचार माध्यमों पर कारपोरेट जगत ने कब्ज़ा कर लिया है और हमारे सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन को छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें तेज हो रही हैं। छोटे क्षेत्राीय प्रकाशन केन्द्रों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। हमें इस बात से ताकत मिलती है कि उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय एकजुटता व्यापक राष्ट्रहितों के साथ तारतम्यता बनाते हुए विकसित हुई है। समय विनोद (1868), अल्मोड़ा अखबार(1871), गढ़वाल समाचार (1902), गढ़वाली (1905), पुरुषार्थ (1907), विशाल कीर्ति(1907), क्षत्रिय वीर (1922), तरुण कुमाऊँ (1923), गढ़देश (1926), शक्ति (1928), स्वाधीन प्रजा (1930), कर्मभूमि (1938) के बाद युगवाणी (1947) इस परम्परा को जिम्मेदारी के साथ निभाने को यत्नशील हैं।
"जनधारा" आचार्य जी की सीख व प्रेरणा है। नमन्
                                       
                                                                           

Saturday, January 2, 2010

उम्मीदों भरी एक शुरुआत

देहरादून

एक समय में उत्तराखण्ड ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी जन पक्षधर नुक्कड़ नाटकों की स्थापना के लिए सचेत देहरादून की नाट्य संस्था दृष्टि ने एक लम्बी खामोशी के बाद नये साल के पहले दिन जिस तरह से अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2010 देहरादून के रंग आंदोलन में एक हिलौर लाने वाला हो सकता है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान देहरादून के उन तमाम रंग कर्मियों को, जो एक समय तक नुक्कड़ नाटकों से परहेज करते रहे, सड़क पर उतारते हुए जो भूमिका दृष्टि ने उस वक्त निभाई थी, वह आज इतिहास हो चुकी है।

नब्बे के दशक में मंचीय नाटकों से हटकर दादा अशोक चक्रवर्ती, अरुण विक्रम राणा, कुलदीप मधववाल और विजय शर्मा जैसे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों ने दृष्टि की शुरुआत की थी। वह समय हिन्दी नाटकों में नुड़ नाटकों का शुरूआती दौर था। रंगकर्मी सफदर हाशमी और दर्शक के रुप में मौजूद कामरेड राम बहादुर की सहादत के दिन को नुक्क्ड़ नाटक दिवस के रुप में मनाने के लिए दृष्टि ने जन नाट्य मंच, दिल्ली, शमशूल इस्लाम और उनके साथी, बिहार के कई नाट्य ग्रुप, नैनीताल के नाट्य ग्रुप युवमंच जैसे दूसरे प्रतिबद्ध नाट्य ग्रुपों के साथ एक संवाद कायम किया और अपने सहोदर संगठनों के साथ लगातार मिलकर नुक्कड़ नाटकों की रंग यात्रा को एक मुकाम तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाई। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के उस संयुक्त संघर्ष के दौरान कई कारणों से विभ्रम की स्थितियों के चलते और राज्य निर्माण के बाद जो स्थितियां दिखाई दी, दृष्टि के साथियों को एक गहरी चुप्पी में ले जाने वाली रही। उस लम्बी चुप्पी की छाया को देहरादून के रंगमंच पर देखा भी जाता रहा। 1 जनवरी के दिन अपने बैनर और कविता पोस्टरों के साथ गांधी पार्क पहुंचे दृष्टि के साथियों ने जिस तरह से अपनी भूमिका को फिर से पहचाना है उससे देहरादून के रंग-आंदोलन में एक बहुत से गहरे उठती हलचल को हर कोई महसूस कर सकता था। सुबह 11 बजे से शुरू हुई पोस्टर प्रदर्शनी को देखने के लिए शहर के कई रंगकर्मी, साहित्यकार और नाटकों के वे दर्शक जो दृष्टि को उसके मिजाज से जानते रहे, दिन भर गांधी पार्क में मौजूद रहे। इप्टा, मसूरी के साथियों ने दृष्टि के मंच पर जनगीत और नाटक की प्रस्तुति दी। 
नुक्कड़ नाटक दिवस के अवसर पर अपने बैनर पोस्टरों के साथ पहुंचे धरातल नाट्य संस्था और ज्ञान विज्ञान जत्थे के साथियों ने भी कविता पोस्टर प्रदर्शनी, जनगीत और अपने नाटकों की प्रस्तुति से गांधी पार्क में हलचल मचाए रखी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए धरातल संस्था ने अपने छ दिवसीय, पोस्टर, जनगीत और नुड़ नाटक अभियान की शुरूआत गांधी पार्क से ही की। इस अवसर पर डा। अतुल शर्मा द्वारा लिखित जनगीत ''बादशाह गश्त पर है"" का एक एकल अभियन युक्त पाठ रंगकर्मी पवन नारायण रावत द्वारा किया गया। ज्ञान विज्ञान समिति के सतीद्गा धौलाखण्डी ने भी अपने युवा साथियों के साथ एकल गीत नाटिका का मंचन किया।
दृष्टि, धरातल और ज्ञान विज्ञान समिति की हलचल भरी इस उपस्थिति को लम्बे समय से बेचैनी भरी कसमसाहट को महसूस करते रंगकर्मी, दर्शक और सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन को उम्मीदों भरी निगाहों से सराहने वाले आखिर एक नई शुरुआत के रुप में ही देख रहे हैं।
ऐसा वहां मौजूद डा। जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रेम साहिल, डा। अतुल शर्मा, अरविन्द शेखर, जयंति सिजवाल, रंजना शर्मा, रेवा नन्द भट्ट, रमेश डोबरियाल, जगदीश बाबला, रेखा शर्मा, कमला पंत, बी बी थापा, जगदीश कुकरेती और दूसरे कई जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ-साथ दर्शकों के रुप में मौजूद लोगों की उपस्थिति से जाना जा सकता है।  

Monday, July 20, 2009

महिला समाख्या एवं साहित्य अकादमी के कार्यक्रम


18 एवं 19 जुलाई 2009 देहरादून के हिसाब से साहित्यक, सामाजिक रूप से हलचलों भरे रहे। एक ओर महिला समाख्या, उत्तराखण्ड एवं चेतना आंदोलन के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित सम्मेलन जिसमे शिक्षा का अधिकार बिल जो कि लोकसभा में पारित होना है पर समझदारी बनाने तथा बिल के जनपक्षीय पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया तो वहीं दूसरी ओर साहित्य अकादमी दिल्ली की उस महती योजना का पहला आयोजन- रचना पाठ।
शिक्षा विद्ध अनिल सदगोपाल,


गांधीवादी और जनपक्षीय पहलुओं पर अपनी स्पष्ट राय रखने वाले डा ब्रहमदेव शर्मा, इतिहासविद्ध शेखर पाठक के अलावा नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन शाह, पी.सी.तिवारी, शमशेर सिंह बिष्ट के साथ-साथ कई अन्य सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनो में हिस्सेदारी करने वाले कार्यकर्ताओं ने शिक्षा के सवाल पर विचार विमर्श किया। कुछ ऐसे सवाल जो इस दौरान उठे और जिन पर सहमति और असहमति की एक स्थिति बनती है उस बाबत विस्तार से लिखे जाने का मन है, उम्मीद कर सकते है कि जल्द ही उसे लिखा जाएगा।


वहीं दूसरी ओर 19 जुलाई के एक दिवसीय कार्यक्रम में साहित्य अकादमी दिल्ली के द्वारा आयोजित रचना पाठ के चार सत्र एक अनुभव के रूप में दर्ज हुए। दो सत्र कविताओं पर थे जिसमें विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, लीलाधर जगूड़ी, शेरसिंह बिष्ट, देवसिंह पोखरिया, दिनेश कुमार शुक्ल, शंभु बादल, बुद्धिनाथ मिश्र, माधव कौशिक, हरिश्चंद्र पांडेय, रति सक्सेना, हेमन्त कुकरेती, रमेश प्रजापति, यतीन्द्र मिश्र के साथ-साथ मैंने भी अपनी कविताओं का पाठ किया।

कहानी के सत्रों में विद्यासागर नौटियाल, बटरोही, सुभाष पंत, मंजुला राणा, अल्पना मिश्र, ओम प्रकाश वाल्मिकि एवं जितेन ठाकुर ने अपनी-अपनी कहानियों के पाठ किए।

वे कविताएं जिनका मैंने पाठ किया, उनकी रिकार्डिंग प्रस्तुत है जो कि कार्यक्रम के दौरान नहीं हुई है, अलबत्ता उन्हें अलग से रिकार्ड कर यहां प्रस्तुत किया है।




डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें।

Saturday, May 16, 2009

नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई

मैं उनके पीछे-पीछे, वे मेरे आगे, दौड़ते रहे। एक को तब पकड़ पाया जब धुंए के बादलों ने उसके भीतर सीलन उतारनी शुरू कर दी और सांसों की धौंकनी उसकी दौड़ने की ताकत को छीनने लगी। दूसरे को पकड़ने का आज कोई मतलब नहीं। आदमखोर समय जिसके भीतर उगते चीड़ के पेड़ से लीसे को निचोड़ता जा रहा है। पत्तियों के पुआल का इस्तेमाल कौन करेगा? मेरी स्मृतियों की दीवार पर जिस तरह 'संध्या छाया' आज भी धुंधला नहीं हुआ दूसरों की स्मृतियों में भी शायद उसी तरह दर्ज होगा 'अन्धा भोज'।
दरअसल दादा की स्मृतियां मेरे जहन में दो रूपों में मौजूद रही हैं। एक थोड़ा ढीला-ढाला चेहरा, समय जिस पर अपनी स्याही पोतते हुए, जिसे बुढापे की ओर धकेल रहा है-राम प्रसाद 'अनुज' और दूसरा, जमाने की चिड़चिड़ाहट जिसके चेहरे पर अपना अक्श छोड़ती गयी, अपनी पैनी आंखों को गोल-गोल घुमाते हुए दूसरे के सीने में छेदकर घुसने वाला- अशोक चक्रवर्ती।
मैंने जब नाटक करना शुरू किया दादा गली-गली, चौराहों-चौराहों और नु्क्कड़ों पर ''नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई'' गाता फिरता था। मंचों पर होने वाले नाटक जिसके उत्साह को निचोड़ने लगे थे और 'वातायन’ नाट्य संस्था, जो देहरादून के नाट्य आंदोलन में एक चमकता किला था, दादा उसकी स्थापना से ही साथ था। पर उस चमकते किले की दीवारें दादा के भीतर घुटन पैदा करने लगी थी। नाटक को जनता तक ले जाने का जोश बन्द थियेटर से गली, सड़क और चौराहों पर भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच नाटक करने के लिए उसे बेचैन करने लगा। मैं उस वक्त युगान्तर नाट्य संस्था में नाटक करने लगा था। यह बात 1984-85 के आस-पास की है। युगान्तर मेरा घर है इसे मैंने हमेशा महसूस किया। इसीलिए युगान्तर की कोई भी प्रस्तुति मुझे घर में होने वाले, किसी भी पारम्परिक कार्य में, असहमति के बावजूद, उपस्थित होने को मजबूर करती रही। दादा का व्यक्तित्व किस्से कहानियों के रूप में ही 'नेहरू युवक केन्द्र" की दीवारों और 'फाईव-स्टार’ के फट्टों से सुना था। दादा के साथ नाटक करने की इच्छा मुझे भी 'दृष्टि' तक खींच ले गई। पर दादा उस वक्त दृष्टि छोड़ चुका था। लेकिन दादा रब तक दृष्टि छोड चुका था । दादा के दृष्टि छोड़ने के पीछे क्या कारण रहे, ठीक से नहीं कह सकता। दृष्टि में नाटक करते हुए ही मैं मंचीय नाटक और नुक्कड़ नाटक के भेद को समझ पाया।
मंचीय नाटकों में जहां दर्शकों को जुगाड़ने में ही सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है, वहीं नुक्कड नाट्कों में दर्शकों के पास जाकर ही नाटक करने का अनुभव दृष्टि में ही हासिल हुआ। सच कहूं तो जीवन-दृष्टि, चाहे वो जैसी भी बनी, दृष्टि में ही काम करते हुए पाई। इराक-अमेरिकी युद्ध और दुनिया के तत्कालीन बदलते चेहरे की तस्वीर को दृष्टि ने अपने एक नाटक में प्रस्तुत किया था। वह दौर नई आर्थिक और औद्योगिक नीतियों का आरम्भिक दौर था।
दुनिया के पैमाने पर पेरोस्त्रोइका और ग्लास्तनोत के बाद, बेशक छद्म ही सही, समाजवादी रूस का विखण्डन हो चुका था। बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक दुनिया का चेहरा और दुनिया पर धौंस पट्टी का चालू होने वाला समाज, जैसे विषय को, दृष्टि ने कलात्मक ढंग से नाटक में दिखाया गया था। कला और विचार का ऐसा संयोजन मैंने कभी किसी भी अन्य नाटक में न देखा था। न ही मंचीय नाटकों में और न ही नुक्कड़ नाटकों में। मेरे ही नहीं बल्कि उस नाटक के सैंकड़ों दर्शको के जहन में आज भी उसकी तस्वीर ताजा होगी ही।
अफसोस, दृष्टि अपनी इस आदत से कि नाटकों की स्क्रिप्ट को संभाले कौन? हमेशा ग्रसित रहा और एक महत्वपूर्ण नाटक को सिर्फ स्मृतियों में ही छोड़ गया। दादा उस वक्त दृष्टि में नहीं था। अरूण विक्रम राणा ही सबसे वरिष्ठ साथी थे। दृष्टि का जनपक्षीय स्वरूप और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के नाटकों का असर मुझ पर होने लगा था और उसी के चलते दादा के कहने पर भी मैं 'स्पंदन' में उनके साथ नाटक नहीं कर पाया। उस वक्त दृष्टि के जनपक्षीय नाटकों का असर मुझे भी मंचीय नाटकों से दूर कर रहा था। दादा चाहते थे मैं उनके साथ काम करूं पर वे मंचीय नाटक में व्यस्त थे। उस वक्त दादा के साथ काम न करने के बावजूद उनके साथ काम करने की इच्छा फिर भी बनी रही। 'वातायन' के नाटक 'हत्यारे', जिसका निर्देशन दादा कर रहे थे, में काम करने की इच्छा चमकदार किले की दीवारों को छूने में सहायक हुई। यह अलग वाकया है कि दादा जिस पात्र की भूमिका मुझ से करवाना चाहते रहे उसे करने के लिए किलेदारों के कानून अर्हताओं की मांग करते थे। बेशक उसका पालन उसी भूमिका को करने वाले दूसरे उस साथी जिसे ढूंढ कर लाया गया, पर लागू नहीं हुआ। फिर भी दादा के साथ उस नाटक में काम करने का अवसर नहीं गंवाया हांलाकि उसमें काम करने को कुछ ज्यादा नहीं रह गया था। पर दादा की खौफनाक आंखें कुछ ही देर पहले उन्हीं के द्वारा बताए गए किस्से के कारण उदासी के रंग में डूबने लगी थीं। दादा के साथ काम करने का आकर्षण और बढ़ता गया।
राज्य आंदोलन के दौर में जब पुलिस ज्यादितयों की आक्रमकता चालू थी, सांस्कृतिक मोर्चे का गठन दून रंग कर्मियों की सार्थक कार्रवाई थी। मोर्चे के नेतृत्व के सवाल को दादा का व्यक्तित्व ही हल कर सकता था। शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद दादा ने मोर्चे का नेतृत्व संभाला। एक समय तक अपने दृष्टि के दो एक साथियों के साथ ही गली, चौराहों और नुक्कड़ों पर नाटक करने वाला दादा देहरादून के अधिकांश रंग कर्मियों को सड़कों पर ले जा सकने में कामयाब रहा। प्रभात फेरी में जनगीत और नाटक के लिए दर्शकों को इक्ट्ठा करते रंगकर्मी, दादा के साथ -साथ "नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई" गाने लगे। यह पहला अवसर था जब देहरादून के अधिकांशत: रंगकर्मियों ने जनता से अपने को सीधे जोड़ा। लेकिन आंदोलन की जो चेतना उस वक्त राज्य-आंदोलन को निर्धारित कर रही थी, मोर्चा उसमें पूरी तरह से हस्तक्षेप नहीं कर पाया बल्कि अंततः उसी का शिकार होने लगा। शारीरिक अस्वस्थता ने भले ही दादा के शरीर को कमजोर किया था पर विचार के स्वर पर उसे डिगा नहीं पाया था और दादा ही नहीं अधिकांश लोग मोर्चे से उदासीन होते चले गए। कुछ चुप बैठ गए और कुछ दूसरी तरहों से आंदोलन में सक्रियता बनाए रखते रहे। आंदोलन के उस दौर में पूरे सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल से मेरा भी मोह भंग होने लगा था। एक लम्बे समय तक किसी भी तरह की कोई गतिविधि मुझे आकर्षित न कर पायी। टिप-टॉप जो कभी बैठकों का अड्डा होता था, उससे दूर रहने लगे। कभी-कभार पहुंचना हो जाता तो सिगरेट सूतता दादा मिल जाता। वरना दादा से मिलना होली वाले दिन ही संभव होता। होली के दिन, जो मेरे आत्मीय मित्र थे उनसे मिलना नहीं छोड़ा आज भी। दादा भी मेरे उन आत्मीयों में से था- होली के दिन जिसकी दाढ़ी पर गुलाल मल कर मैं अपने होने को उनके साथ दर्ज कर पाता था।
यूं घटनाओं के तौर पर ऐसा मेरे पास कुछ नहीं है जो दादा की स्मृतियों को रख सकूं। ऐसे ही एक होली का किस्सा है दूसरे मित्रों की तरह दादा भी तहमत बांधकर रंग से पुता होने के बावजूद भी मेरा इंतजार कर रहा था। कथाकार जितेन ठाकुर के घर से निकलता हुआ मैं दादा के पास पहुंचा। रंग खेलकर गले मिलना तो एक औपचारिकता होती, असली मकसद तो मिलना ही रहता। सो औपचारिकता निभाने के बाद गपियाते हुए दादा ने बताया था कि वे 'नान्दनिक' से नाटक कर रहे हैं, "तुम्हें भी उसमें काम करना है।" बिना किसी भूमिका के मुझे आदेश मिला था।
दादा के साथ काम करना वर्षों की साध थी, बस मैंने हामी भर दी। यह भी नहीं पूछा कौन सा नाटक है, किसका लिखा है। वह बंग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद था- नोइशे भोज ( अंधा भोज) इस तरह वर्षों से दबी इच्छा ने मुझे साहित्य और साहित्यकारों से मोहभंग की उस स्थिति से ही बाहर नहीं निकाला, जिसका जिक्र कभी वक्त पड़ने पर करूंगा, बल्कि मैंने दादा के अन्तिम नाटक 'अन्धा भोज' में काम भी किया। उस समय तक दादा गले के कैंसर के ऑपरेशन के बाद दादा शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था लेकिन रिहर्सल के दौरान भीतर कुलबुलाती सिगरेट की लत फिर भी उसको बेचैन करने लगती थी। जैसे ही दादा सिगरेट सुलगाता भाई प्रदीप घिल्डियाल और हरीश भट्ट की भंगिमाएं तन जाती। कमजोर होते जा रहे दादा की सेहत के लिए सिगरेट पीना ठीक नहीं था। लेकिन जब लत बेचैनी की हदों को पार करने लगती तो इस बात पर छूट मिलती कि एक सिगरेट प्रदीप भाई भी पिएगा। कभी कभार ही सिगरेट पीने वाले प्रदीप घिल्डियाल इस तरह से डिब्बे में रखी सिगरेट की संख्या को जल्द से जल्द कम कर रहे होते। अंधा भोज के तीन प्रदर्शन हुए उसके बाद दादा शारीरिक रूप से इतना कमजोर हो गया कि फिर कोई नाटक करना उसके लिए संभव ही नहीं रहा।

देहरादून रंगमंच में दादा के बाद छा गए उस शून्य को भरने की कोई सार्थक कोशिश फिर न सफल न हो पाई। विश्व रंगमंच दिवस के अवसरों पर सरकारी अनुदानों से आयेजित होने वाले समारोह भी उसे आज तक न भर पाए। दादा मुझे आज क्यों यादा आया, समझ नहीं पा रहा हूं। यूंही ब्लाग-पोस्ट लिखने को तो मैं हरगिज उन्हें याद नहीं कर रहा हूं। दून रंगमंच में फैलता शून्य टूटे और गति आए, कुछ ऐसा ही भाव मन में है। हां, सत्ताधारियों की बदलती हुई टोपियां उस गति का कारक न हो, बस। वरिष्ठ साथियों के सकारात्मक हस्तक्षेप उसे निर्घारित कर पाएं तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें हेकड़ीबाजों की हेकड़ी के प्रदर्शन के बजाय जन-पक्षधर संस्कृति का विकास संभव होगा, ऐसी उम्मीद करता हूं।

--विजय गौड

जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह निकालना चाहते हैं। एक ऐसी पत्रिका जिसमें साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श जैसा कुछ हो और जो एक सार्थक हस्तक्षेप करने में सहायक हो। देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को भी इसके माध्यम से पकड़ने और दर्ज करने की कोशिश भी जारी है। पिछले दिनों नवीन नैथानी के एक आलेख पर देहरादून के एक ऐसे साथी की टिप्पणी प्राप्त हुई जोसामाजीक आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहे हैं। सुनील कैंथोला । सुनील भाई ने अपनी टिप्पणी के मार्फत देहरादून के कुछ चरित्रों को याद किया था। एक ऐसे ही चरित्र, नाटककार अशोक चक्रवर्ती को यहां याद किया गया है। सुनील कैंथोला की टिप्पणी बाक्स में दर्ज है।



अभी कुछ दिन पहले नवीन से मुलाकात हुई तो उसने अवधेश और हरजीत का जिक्र किया, मेरे पास अवधेश की हस्तलिखित गीत की कॉपी और स्कैच हैं, आरिजनल गजेन्द्र वर्मा के पास हैं। ये गीत उत्तराखण्ड आंदोलन में बहुत लोकप्रिय था और सुरेन्द्र भण्डारी के नाटक में इस्तेमाल हुआ था। कहो तो यहां इस ब्लोग में पोस्ट कर दूं !

मैंने कुछ और लोगों के बारे में भी लिखने का जिक्र किया था, जैसे 'दादा" दीपक भट्टाचार्य। "डिलाइट" के पार हिमालयन आर्म्स के सामने एक पुराना रोड़ रोलर खड़ा है, इसे देहरादून नगरपालिका ने सहारनपुर के कबाड़ियों को 60 हजार में बेच दिया था, दादा नगरपालिका में था। उसको जब पता चला तो हम लोगों को "टिपटाप" से धमकाते हुए एक डेलीगेशन के रूप में नगरपालिका ले गया, नीलामी रुकवाने के लिए, कहता था कि ये वर्ल्ड-वॉर-1 के पीरियड की टैक्नोलॉजी है, कल देहरादून के बच्चों को डेमोस्ट्रेशन करने के काम आएगा! आंदोलन के समय जहां भी दिखता, बोलता- "हां बे ! खण्ड खण्ड उत्तराखण्ड!!" फिर सलाह देता और चाय पेलता ! वो पहला आदमी था जो अपना ब्रीफकेश साइकिल के कैरियर पर बांध कर चलता था, एक बार पूछा कि इसमें रखते क्या हो तो बोला कि स्वरोजगार लोन की अप्लीकेशन हैं जो मैं प्रोसेस करता हूं। कमाल का आदमी था ! घूस खा भी लेता तो कौन सी बड़ी बात हो जाती, पर वो पक्का ईमानदार किस्म का इंसान था। वो शायद होमगार्ड में भी काम कर चुका था। हर चौराहे पर होमगार्ड वालों को धमकाना नहीं भूलता था। अफसोस कि जिस संगठन के लिए उसने दशकों काम किया वो उसके सामने बिखर गया, मेरा आशय ’वातायन’ से है!

और भी बहुत से लोग हैं कि जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। जैसे दूसरे दादा, शायद वो पहले हो, याने अशोक चक्रवर्ती ! एक सज्जन और थे, गुणा नन्द 'पथिक", फिर अपना टिपटाप को फोटोग्राफर अरविन्द शर्मा जो फोटोग्राफी छोड़ अवधेश-हरजीत के मोहपाश में फंस गया था, नवीन की तरह ! एक बार हरजीत ने अरविन्द को मसूरी में कवि सम्मेलन का न्योता दिलवा दिया, इन्वीटेशन (invitation) मिलने के बाद अरविन्द ने फोटोग्राफी कुछ दिन के लिए पॉज मोड (pause mode) में डाल दी, कुछ उधार भी उठा लिया कि मसूरी की पेमेंट के बाद चुका देंगे। वहां, मसूरी में कवि सम्मेलन देर से शुरू हुआ, तब तक अरविन्द भाई काफी लगा चुके थे ओर इंतजार करते-करते रिसेप्शन (reception) में ही सो गए, उधर कवि सम्मेलन शुरू होकर खत्म भी हो गया, पर अरविन्द हैं कि बाहर गढ़वाल मण्डल के रिसेप्शन (reception) के सोफे पर खर्रांटे मार रहे हैं। फिर पेमेंट का टाइम आया तो हरजीत को ध्यान आया कि अरे हमारे साथ तो कविवर अरविन्द भी आए हैं, ढूंढ कर बुलाया, पर पेमेंट देने वालों का कहना था कि जब कवि ने कविता पढ़ी नहीं तो पेमेंट कैसा ? खैर वहीं खड़े-खड़े पेमेंट के वाऊचर पर साइन करते हुए अरविन्द ने कविता सुना डाली। उसने एक उपन्यास भी लिखने की कोशिश की थी जिसे हम फेंटा कह कर बुलाते थे, यानी एक छोटे खुले पन्नों वाला उपन्यास जिसको पढ़ना शुरू करो, अगर फिर भी मजा ना आए तो एक बार फिर---

- सुनील कैंथोला

Wednesday, April 8, 2009

इस शहर मे कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे(२)

बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती!


नवीन नैथानी

मेरी तरह जो तूने अगर देखना हो सब
मेरी तरह ही खुद को बदलने की बात कर

हरजीत का यह शे’र उसके मिजाज को तो बताता ही है बल्कि देहरादून की फ़ितरत को भी बहुत कुछ बयान करता है.दोहराव के लिये मित्रों से क्षमा मांगते हुए कहना पड़ रहा है कि कमबख्त यह शहर ही कुछ ऎसा है , कि इसकी कानाफूसियों में लोगों की कमज़र्फियों , बदकारियों , मक्कारियों ऒर गुनाहों की फुसफुसाहटें जगह नहीं पातीं बल्कि वहां आगत रचनाओं की संभावनायें टटोली जाती हैं.

यहां मैं उन लम्हों को आपके साथ बांटना चाहूंगा जहां अवधेश ऒर हरजीत शहर का अनुसंधान करते थे. कुछ शामों का जिक्र होगा, कुछ उनींदी सुबहों के बयां होंगे,चन्द दुपहरों की तपिश में सुलगते हुए मॊन का निःशब्द पाठ होगा.मित्रों के बीच घटित होती हुई स्वप्न सी किसी दुनिया की रचना-प्रक्रिया का अहेतुक साक्षात्कार होगा, ऒर हां! मानव-मन को जानने समझने कोई व्याकुल छटपटाह्ट होगी.

देहरादून से मसूरी जाते हुए तब राजपुर से गुजरना ही होता था.प्रसिद्ध शायर दीवान सिंह ’मफ़्तून’ पर लिखे लाजवाब संस्मरण में मदन शर्मा राजपुर का जिक्र इस ब्लोग में पहले भी कर चुके हैं. योगेंद्र आहूजा भी राजपुर की बाल्कनी को यहीं याद कर चुके हैं. अब मसूरी जाते हुए राजपुर जाना जरूरी नहीं रह गया है. पहले ही रास्ता कट जाता है. यह जगह डाइवर्जन कहलाती है. यह नाम मुझे बहुत प्रतीकात्मक लगताहै. इस जगह से लोग बहुत तेजी से गुजर जाते हैं - मसूरी की तरफ. जिनमें तेजी नहीं होती वे राजपुर की तरफ चले जाते हैं. आजकल एक दूसरा शब्द भी प्रचलन में आ गया है-बाईपास. इस शब्द में किसी जगह से कतरा कर निकल जाने का भाव है. डाइवर्जन में आपके पास चुनाव की स्वतंत्रता होती है.
इस डाइवर्जन पर एक बार शेखर जोशी मिल गये थे-अनायास.यह १९८९ या ९० की बात है. मेरे साथ अवधेश ऒर हरजीत थे. हम राजपुर से लॊट रहे थे-पैदल. वे मेरे साहित्याचार के शुरुआती दिन थे-उन दिनों में प्रथम प्रेम की सी मादकता , उल्लास ऒर पागलपन सब एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए जाते थे. वह शायद जून या सितंबर की कोई शाम थी.यह देहरादून में ही संभव है कि आप जून ऒर सितंबर की शाम में फ़र्क महसूस नहीं कर सकें. जून में भी अक्सर इस तरह का मॊसम हो जाता कि आप टिप-टोप में बैठे हैं( यह उन दिनों का मशहूर साहित्यिक अड्डा था, इस रेस्त्रां के मालिक श्री प्रदीप गुप्ता बडे़ शान्त भाव से लेखकों को झेलने का माद्दा रखते हैं. अब नये वक्त की मज़बूरियां उस जगह पर नये उत्पाद खपा रही हैं . इस पर कभी विस्तार से बातें होंगी.) तो अचानक बादल चले आये!
"राजपुर का मॊसम हो गया"हरजीत कह जाता ऒर लोग समझ जाते कि अब हम तीन आदमी चुपचाप वहां से खिसक लेंगे. राजेश सकलानी के अन्दर अद्भुत प्रेक्षण -क्षमता है. उन क्षणों के बारे में राजेश ने मुझसे कई बार आंखों के ईशारे के बारे में कहा है. तीन जोडी़ आंखें आपस में ईशारे करती हुईं ; चेहरे पर कोई जुम्बिश नहीं, थोडी़ पलकें झुकीं , जरा पुतलियां हिलीं और कार्य-क्रम तय हो गया.
सितंबर में तो वैसे भी बादल रहते हैं.तो यह ठीक- ठीक याद नहीं पड़ रहा कि वह बादल कौन से थे ? हां, डाइवर्जन पर शेखर जोशी का मिलना याद है. डाइवर्जन के पास एक ठेले पर हम भुट्टा खोज रहे थे-शायद वह सितंबर की ही शाम थी कि सामने से शेखर जोशी हमारे पास चले आये. इससे पूर्व मैं उनसे IIT कानपुर मे मिला था- गिरिराजजी ने वहां एक कार्य-क्रम करवाया था. IIT समवाय और रचनात्मक लेखन केंद्र के बैनर तले. यह संगमन श्रंखला की शुरुआत से पहले की बात है. वहां एक सत्र की अघ्यक्षता शेखर जोशी
और राजेंद्र यादव कर रहे थे और आपका खाबिन्द वहां जोश में बहुत कुछ कह गया था जिसकी ध्वनी कुछ यूं निकलती थी कि संपादकों को साहित्य के प्रवाह में बाधा नहीं डालनी चाहिये. विचार-धारा के नाम पर चल रही बहसों पर भी कुछ सवाल उठाये थे. संदर्भ उन दिनों चल रही बहस "सेक्स और जनवाद" का था. तो डाइवर्जन में हम जब भुट्टा ढूंढ रहे थे अचानक शेखर जोशी सामने दिखायी दिये. मैं उन्हें पहचान नहीं पाया. एक नये लेखक के लिये यह बात कल्पनातीत थी कि इतने बडे़ कथाकार बीच सड़क पर इस आत्मीयता से मिल सकते हैं. हरजीत ऒर अवधेश भी उनसे पहले नहीं मिले थे. शेखर जोशी उन दिनों अक्सर देहरादून आते जाते रहते थे. उस शाम उनसे बहुत देर तक बातें होती रहीं. अवधेश अक्सर इस तरह के अवसरों पर नहीं बोलता था और मेरे लिये तो बस शेखर जोशी के साथ होना ही बहुत था.हरजीत ही ज्यादातर बातें करता रहा. घण्टाघर के पास लोकल बस -स्टैण्ड में हमने जोशी जी को विदा किया.
यहां डाइवर्जन से घण्टाघर तक का सफ़र किस तरह तय किया गया, यह बात महत्वपूर्ण है. हमने शायद बस ली थी फिर आधे रास्ते में उतर लिये थे.बारिश से बचने की कु्छ कोशिशें थीं
और शहर की तारीफ में कहे गये हरजीत के कुछ शे’र थे.यह याद नहीं कि हरजीत ने उस शाम क्या सुनाया था लेकिन राजपुर की ऊंचाईयों से देहरादून का जिक्र वह अक्सर करता था-
नक़्शे सा बिछ गया है, हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं, कहीं अपना घर मिले

राजपुर के ऊपर -शहन शाही आश्रम नाम की जगह है. उस जगह तक पहुंचने से पहले मुझे उसका नाम आकर्षित करता था. इस नाम में एक जादू है. शुरू -शुरू में मुझे शहन शाही की शाही धज नहीं दिखायी पड़ती थी बल्कि एक शहनाई मैं वहां सुना करता था. तो जब पहली बार शहनशाही आश्रम देखा तो अच्छा नहीं लगा. मुझे वह एक वीरान जगह दिखायी पडी़ थी. वह हरजीत और अवधेश से मुलाकात से कुछ वर्ष पूर्व की बात है. तब मैं लोकल बस में बैठ जाता था और आखिरी पडा़व का टिकट लेकर कुछ नयी जगहों के बीच से गुजर जाता था. उन दिनों लोकल बस बहुत कम जगहों के लिये जाती थीं और बहुत कम संख्या में. लिहाजा , उसी बस से वापस लौटना मेरी मजबूरी होती थी.यह वक्त काटने का शगल तो नहीं था पर अनदेखी जगहों को जानने की भूख जरूर थी.इस जानने की शुरूआत जगहों के नाम से ही होती थी.
उन जगहों के नामों मे अद्भुत आकर्षण होता है. देखने या जानने - बूझने से पहले ही एक छवि बस जाती है.
(कुछ नाम जो इस वक्त याद आ रहे हैं,लगे हाथ उन्हें भी दर्ज करता चलूं; हर्षिल-गंगोत्री
और उत्तरकाशी के बीच एक जगह. मंडल-गोपेश्वर से आगे चौपता जाते हुए एक प्यारी सी ठांव. अल्मोडा से कौसानी जाते हुए एक जगह आती है: रन-मन . बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती! यह तो अनाम है. जाति-बोधक संञा से काम चला लिया गया है.
"अरे! यह गधेरा है"
"कौन सा गधेरा ?"
"मच्छी-ताल का गधेरा."
"मच्छी-ताल कहां है?"
"आप जहां खडे़ हैं,जरा बांई बाजू की तरफ देखिये. एक रास्ता ऊपर चढ रहा है. वहीं है मच्छी - ताल"
गधेरे का अपना नाम नहीं है.अपनी पहचान नहीं है. प्यास बुझती नहीं. ऐसे में मिल जाता है कोई रेडा़ खाला. एक बरसाती कुनदिका! जब भरकर आती है तो बडी़ चट्टानें टूट - टूट जाती हैं, वहां पिसे हुए पत्थरों का पाट है- रेडा़ फ़कत. रेडा़ खाला.
कभी- कभी कोई खूबसूरत नाम भी मिल जाता है. गंगा की सहायक नदियों में मिलने वाली बहुत सी जलधाराओं के नाम जानने की बडी़ ईच्छा हरजीत के मन में थी. जब मैं ग्वालदम के पास तलवाडी़ रहा तो पिण्डर का सौन्दर्य मुझे बहुत आकर्षित करता रहा. वहां थराली के पास प्राणमति नाम की एक नदी पिंडर में जा मिलती है.)
हम तो शहनशाही की बात कर रहे थे! हरजीत के साथ मैंने शहनशाही आश्रम के आस-पास साल के वृक्षों का जादू जाना.
"यह जीवन जादू हुआ जाता है!"

यह अवधेश की एक कविता की पंक्ति है. इस जादू को हमने जिया. शुरुआत टिप-टाप से हुई थी. वह एक बादल भरी दुपहरी थी.बादल अचानक चले आये थे-ठेठ देहरादूनी मिजाज की तरह! हरजीत की आंखें चमक उठीं.
"राजपुर का मौसम बन गया है" हम तीनों चुपके से सरक लिये. सिटी-बस में बैठे
और राजपुर पहुंच कर सामान हासिल किया. उस दिन हरजीत का झोला साथ नहीं था! (यह होता नहीं था. कोई आठ वर्ष मैंने हरजीत के साथ गुजारे हैं, इतने बरसों में कोई दो या तीन मौके आये होंगे जब वह बिना थैले के निकला होगा. उस थैले में क्या नहीं होता था!)
अब गिलास की समस्या आयी. हम साल - वन में थे ऒर बादल बरस रहे थे.
मित्रों! अवधेश ऒर हरजीत के साथ उस दुपहरी को शाम में तब्दील किया साल के पत्तों ने. हमने पत्तों का दोना बनाया, थोडा़ आबे-हयात मिलाया ऒर साल वृक्षों की छतनार शाखों से टपकती बूंदों की अंजुरियां दोने में छलका दीं. इस मामले में हरजीत पूरा उस्ताद था. अब किस्से को जरा आराम कर लेने दीजिए.तब तक हरजीत का यह शे’र साथ लिये जायें
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह,शेख,वाहिद,जाहिद हैं हम-प्याला

Monday, March 23, 2009

इस शहर में कभी हरजीत ऒर अवधेश रहते थे

ब्लाग को जब शुरू किया, मालूम नहीं था कि सही में इसके मायने क्या है ? धीरे-धीरे अन्य मित्रों के ब्लोगों को देखते और जानते-समझते हुए तय करते चले गए कि एक पत्रिका की तरह भी इसे चलाया जा सकता है। जैसे तैसे लगभग एक वर्ष का समय बिता दिया। इस बीच बहुतकुछ जानने समझने का मौका मिला। मालूम नहीं कि पत्रिका का स्वरूप दे भी पाए या नहीं।
पत्रिका की तरह ही क्यों चलाया जाए?
इसके पीछे यह विचार भी काम कर रहा था, जो अक्सर अपने देहरादून के लिखने पढने वाले सभी साथियों के भीतर रहा कि देहरादून से कोई पत्रिका निकलनी चाहिए पर पत्रिका को निकालने के लिए जुटाए जाने वाले धन को इक्टठा करने में जिस तरह के समझोते करने होते हैं उस तरह का मानस कोई भी नहीं रखता था। आर्थिक मदद के लिए कहां और किसके पास जाएंगे- बस यही सोच कर हमेशा चुप्पी बनी रही और ऎसी स्थितियों के चलते जिसे तोड पाना तो कभी संभव हुआ और ही हो पाने की संभावना है। यह अलग बात है कि इधर पत्रिका निकालना तो एक पेशा भी हुआ है।
तो पत्रिका का स्वरूप बना रहे इसकी कोशिश जारी है। इस एक साल में यदि कुछ कर पाए हैं तो कह सकते हैं कि देहरादून के साहित्यिक, सामाजिक माहौल को पकडने की एक कोशिश जरूर की है और इसमें बहुत से साथियों का सहयोग भी मिला है। खास तौर पर मदन शर्मा, सुरेश उनियाल, जितेन ठाकुर और भाई नवीन नैथानी का। जिन्होंने अपने संस्मरणात्मक आलेखों से इसे एक हद तक संभव बनाया है। तो आज फ़िर से प्रस्तुत है ऎसा ही एक संस्मरण।



नवीन नैथानी



राजेश सकलानी ने एक रोज कहा था कि उसकी बहुत इच्छा है कि देहरादून को याद करते हुए इस पंक्ति का उपयोग किया जाये-
इस शहर में कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे दरअसल ,यह पूरी श्रंखला देहरादून पर ही केन्द्रित है.कोशिश है कि इस बहाने देहरादून की कुछ छवियां एक जगह पर आ सकें. यह भी कि एक व्यक्ति के बीच से शहर किस तरह गुजरता है? एक शहर को हम कैसे देख सकते हैं?दो ही तरीके हैं. पहला ऒर शायद आसान तरीका है कि हम शहर के बाशिन्दों को याद करें.बाशिन्दों से शहर है.अलबत्ता कुछ शहर हम जानते हैं- उनके नाम जानते हैं,उनमें रहने वालों को नहीं जानते.राजेश सकलानी की ही एक कविता है जिसमें कुछ शहरों के नाम आये हैं. होशंगाबाद है, इन्दॊर है ऒर शायद एक आध शहर ऒर हैं.कुछ शहरों को हम इतिहास की वजह से जानते हैं.
(इतिहास ऒर शहर की काव्यात्मक पराकाष्ठा श्रीकान्त वर्मा के मगध में देखी जा सकती है ) कुछ शहर जो अब सिर्फ़ इतिहास में मिलते हैं , हमें अपने नाम के साथ आकर्षित करते हैं .उनका आकर्षण उनके नाम में होता है या फ़िर उन भग्नावशेषों में जो सदियों से उनकी छाती पर सवार होकर उनके नाम का सब सत्व अपने आस-पास की आबो-हवा में खेंच लेते हैं .वे इतिहास के शहर होते हैं ऒर वर्तमान को शायद वे एक दयनीय दृष्टि से देखते होंगे.उस दृष्टि में थोडी़ सी दया, थोडा़ सा उपहास ,जरा सी करूणा ऒर किंचित यातना का भाव छिपा रहता है.आप किसी ऐसे शहर की कल्पना कीजिए जहां लोग नहीं खण्डहर रहते हैं ऒर बेहद भीड़ उनके आस-पास दिखायी पड़्ती है-अतीत के अनदेखे वैभव से आक्रान्त लोग एक भागते ऒर हांफते समय के बीच थोडा़ सुकून तलाश करते हुए नजर आते हैं.ये इतिहास के शहर हैं.इन शहरों में लोग नहीं रहते,इनमें सैलानी आते हैं.यहां चुल्हे नहीं जलते,यहां खाना बिकता है.
कुछ शहरों को हम उनकी चमक - दमक के कारण जानते हैं.ये प्रायः उद्योगों के घर होते हैं.उद्योग धीरे-धीरे शहर के बाहर की तरफ सरकने लगते हैं. शहर कुछ ऒर ही किस्म की आबो- हवा में सांस लेने लगता है.शहर के आस - पास की हरियाली कुछ - कुछ कम होते हुए बिल्कुल नहीं के स्तर पर पहुंच जाती है.शहर के बीचो - बीच लकदक घास का मैदान हो सकता है,हरियाली मिल सकती है- आदमी नहीं मिलता.वह शहर की फैलती हुई परिधी पर सिकुड़ते हुए फैलता जाता है.
कुछ शहर हम उनके बाशिन्दों की वजह से जानते हैं.मुझे याद आता है एक बार मैं ट्रेन से शायद लखनऊ जा रहा था.शाहजहां पुर से गुजरते हुए ध्यान आया ,"अरे! यह तो हृदयेश का शहर है.!"
सुबह का वक्त था पर उजास अभी नहीं हुआ था. कोई मुझे जागता हुआ नहीं मिला.ट्रेन शाहजहांपुर से आगे निकल गयी तो यही लगता रहा कि अभी अभी हृदयेश के शहर से होकर गुजर गया हूं , बस उनसे मिलना रह गया. आज तक उनसे नहीं मिला हूं पर लगता है उन्हें बहुत करीब से जानता हूं क्योंकि उनके शहर शाहजहांपुर से होकर गुजर चुका हूं.
अदब से जुडे़ बहुत से लोग देहरादून को अवधेश ऒर हरजीत के शहर के रूप में जानते हैं.अवधेश ऒर हरजीत का देहरादून वह नहीं है जो दिखाई देता है. वह देहरादून थोडा़ सा कुहासे में ढका है - सूरज ढलने के आस - पास जागना शुरू करता है , दिये की बाती जलने पर अंगडा़ई लेता है ऒर जब घरों में बत्तियां गुल हो जाती हैं तो शहर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बतकही करता है... कभी थोडा़ फुसफुसाते हुए, कभी लम्बी खामोशी में ऒर कभी किसी नयी धुन में जिसे सिर्फ देहरादून में ही रह जाना है.
वे धुनें प्रायः उन गीतों की होती थीं जिन्हें अभी गाया जाना था . वहां सुर होते थे ऒर लय हवाऒं में कहीं आस-पास उतरा रही होती. यह तो जरा शब्दों की कुछ आपसी कहा-सुनी ही थी जो वे गाये नहीं गये. कभी उन धुनों में कोई पुराना नग़्मा अपनी हदों के बाहर जाने को अकुला रहा होता. कभी एक सार्वभॊमिक ऒर सार्वकालिक गीत की प्रतीक्षा होती जहां मनुष्य होने की करूणा को धीरे-धीरे प्रकृति के समक्ष एक चुनॊती बन कर खडा़ हो जाना था.
शहर ये धुनें सुनता था - कभी बगल से गुजरते यात्री के कानों से जिन्हें बहुत जल्दी घर पहुंचते ही रजाई की तपिश याद आ रही होती . कभी रास्ता भूल चुके किसी बाशिन्दे की उम्मीदों में वहां घर का रास्ता याद आने लगता.कभी - कभी ये धुनें कोई चॊकीदार सुन लेता.

"कहां से आये हो?"
"घर से"
"कहां जाना है?"
"घर"
"घर कहां है?"
"बगल में."
ऒर शहर चुप हो जाता.हरजीत ऒर अवधेश के देहरादून पर आगे बात करेंगे. फिलहाल अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां(देहरादून के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं कि अवधेश ने गीत लिखे हैं ऒर उनमें भी बहुत कम लोगों ने अवधेश के कण्ठ से उन्हें सुना है)

है अंधेरा यहां ऒर अंधेरा वहां ,फिर भी ढूंढूंगा मैं रॊशनी के निशां
है धुंए में शहर या शहर मे धुआं, आप कहते जिसे रॊशनी के निशां


Friday, March 13, 2009

सरग-दिद्दा

देहरादून की वे छवियां जो कथाकार नवीन नैथानी के भीतर दर्ज हैं, पहले भी उनके लिखे संस्मरणों से हम जान पाए हैं। कवि रमेशमिश्र सिद्धेश , सुखबीर विश्वकर्मा को उन्होंने अपने पिछले आलेखों में याद किया। इस बार वे एक ऐसे रचनाकार को याद कर रहे हैं। जो आज भी रचना रत है।

नवीन नैथानी

तो इस शहर देहरादून की फ़ितरत का दिलचस्प बयान करते हुए कभी धुरन्धर देहरादूनिये श्री सुभाष पन्त ने एक किंवदन्ती का का जिक्र करते हुए लिखा था- सवेरे की सैर करते हुए एक साहब अपनी छ्डी़ पार्क की बैंच में भूल गये. अगली सुबह वे जब पार्क में पहुंचे तो छडी़ उसी बैंच में मिल गयी.हां,अब उसमें कोंपलें निकल आयी थीं.
यह किस्सा तो लगभग सॊ साल से ज्यादा पुराना होगा, पर देहरादून का मिजाज बहुत ज्यादा नहीं बदला है.नये राज्य की राजधानी की किंचित अश्लील भूमिका निभाने ऒर नव धन-कुबेरों के प्रदर्शन-प्रिय कुत्सित आचरण के बावजूद शहर अब भी संभावना है.यहां की हवा बहुत ज्यादा नहीं बदली है.पुराने साहबों की छडी़ में जीवन के अंकुर खिलाने वाली हवा में अभी संवेदना को बचाने की तासीर नष्ट नहीं हुई है. यहां साहित्य की गतिविधियां अनॊपचारिक रूप में अधिक दिखायी पड़्ती हैं.पिछली कडी़ में कविजी का जिक्र हो चुका है. इस बार आपको श्री चारू-चंद्र चंदोला जी से मिलवाते हैं.
अनुप्रास की छटा से सुसज्जित चंदोला जी का नामकरण प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत द्वारा किया गया था.यह अलग बात है कि चंदोला जी की कविता अनुप्रास से सायास बचती है .
न्द हो गया है, मॊसम का ढक्कन बद्रीनाथ के कपाट की तरह लिखने वाले चारू-चंद्र चंदोला की कविताऒं में साफ़-गोई, बात कहने की उत्कट बेचैनी लगभग अन छुए बिम्बों के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.चंदोलाजी से पहली बार मैं १९८७ मेंअप्रैल या मई के महिने की किसी तपती दुपहरी में मिला था.वे साहित्यकारों से मेरे संपर्क के शुरुआती दिन थे. अतुल शर्मा के साथ अंक देहरादून से नाम की हस्तलिखित पत्रिका के प्रकाशन की योजना लेकर चंदोलाजी के सामने उपस्थित हुए थे.उन दिनों वे अमर उजाला या जागरण के साथ जुडे़ हुए थे. तब अखबारों के आक्रामक फ़ैलाव के दिन आने में थोडा़ वक्त था.दून-दर्पण , हिमाचल-टाईम्स , जैसे स्थानीय अखबारों की पूछ थी ऒर कव्य-गोष्ठियों की रपट अच्छी-खासी जगह घेर लिया करती थी. फालतू लाईन की कुछ टेढी़ गलियों से होते हुए चंदोलाजी के यहां पहुंचे .उनकी वाणी में एक खास किस्म की गुरुता ने ध्यान आकर्षित किया था. यह अभी भी उनके साथ चली आ रही है. वे जब कविता पढ़्ते हैं तो शब्दों का ही पाठ नहीं करते -उनकी वाणी में सरस्वती वर्णों की निरंतर धारा में प्रवाहित होती है.वे प्रायः शब्दों का उच्चारण नहीं करते , अक्षरों का घोष शब्दों की महिमा में निःसृत होता है.उनके काव्य-पाठ की शैली निराली है. पहाडी़ आदमी का हिन्दी उच्चारण उनके यहां एक विशेष नाद ले आया है.
बाईस वर्षों में चंदोलाजी के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता.उनके सामने लगता है समय ठहर गया है.उनकी कविता भी लगभग समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई दिखलायी पड़्ती है.चंदोलाजी नेपथ्य के कवि हैं.वे हालांकि मंचस्थ होते हुए बहुत बार दिखायी पड़ जाते हैं किन्तु मंच पर उनकी धज कविता के साथ ही बन पड़्ती है. वे प्रायः भाषण देते हुए भी देखे जाते हैं.बाईस वर्ष पूर्व उनकी उपस्थिति हम लोगों के लिये बहुत जरूरी थी.इस श्रंखला के शुरू में जिक्र किया जा चुका है कि मंचीय कविता के विरोध में हम लोगों का प्रयास गंभीर कवि-कर्म को जनता के बीच ले जाने की चिन्ता में ज्यादा रहता था ऒर हमें अध्यक्षता करने के लिये सम्मानित बुजुर्गों की आवश्यकता रहती थी.सिद्धेश जी सहज उपलब्ध हो जाते थे. कविजी के कुछ आग्रह रहा करते थे .चंदोलाजी से स्वीकृति मिलना सहज नहीं था.अतुल शर्मा के पास यह गुण बहुत प्रचुर मात्रा में हुआ करता था.इन बाईस वर्षों में तो इसमें ऒर सुधार ही आया होगा.अतुल के साथ सबसे बडी़ खूबी यह रही आयी है कि वह दोनों जगह आसानी से संतरण कर जाता है. अतुल के सॊजन्य से मुझे मंचों की गतिविधियों को नजदीक से देखने का अवसर भी मिला.लेकिन वह एक अलग ही किस्सा है ऒर उसे बयान करने से ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है.
हां , तो चंदोलाजी का ज्यादा समय पत्रकारिता ने ले लिया है. लेकिन फिर भी वे काफी समय से युगवाणी में सरग-दिद्दा के नाम से चुटिले लेख लिखते रहे हैं.हिन्दी ऒर गढ़्वाली के फ़्यूजन से युक्त उनकी भाषा ने जो मुहावरा गढा़ है उस पर अभी चर्चा नहीं हुई है. हालांकि गढ़्वाल विश्वविद्यालय में उनकी कविताएं पढा़यी जाती हैं किन्तु उनकी सृजनात्मकता का अभी सही मूल्यांकन होना बाकी है.
चंदोलाजी के साथ समय बिताना अपने में एक रोचक अनुभव है. उनके पास संस्मरणों का खजाना भरा पडा़ है. युगवाणी में बहुत सारा समय उनके सान्निध्य मे बिताने का अवसर मिला है. अपने परिवार की जन्म-कुण्डली के बहुत से ग्रहों-नक्षत्रॊं का पता मुझे चंदोलाजी के श्रीमुख से ही मिला.लीलाधर जगूडी़ ऒर मंगलेश डबराल की आरंभिक रचनाओं की जानकारी चंदोला जी कुछ इस तरह देते हैं जैसे कल की ही कोई घट्ना बता रहे हों.देहरादून के केन्द्र-स्थल में होने के कारण ,ऒर अपनी प्रकृति के चलते भी ,युगवाणी एक महत्वपूर्ण मिलन-स्थल बन चुका है जहां बाहर से आने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित विचारक ,लेखक ऒर कवि अक्सर पधारते रहते हैं.चंदोला जी को मैने बहुत कम अपने केबिन से बाहर निकलते देखा है.कितना भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हो चंदोलाजी अगर केबिन में बैठे हों तो बाहर नहीं निकलेंगे.आप घण्टे - भर आगन्तुक से बतियाएंगे , नयी जानकारियों से भर जायेंगे ऒर आगन्तुक के जाने पर अपने को समृद्ध समझने लगेंगे.तभी चारू-भाई (उन्हें युगवाणी में इसी नाम से जाना जाता है) अपने केबिन से बाहर आयेंगे.सिगरेट सुलगायेंगे(अब वे सिगरेट पीते हैं या नहीं ,मुझे ठीक जानकारी नहीं है -काफी समय से मैने उन्हें युगवाणी में नहीं देखा है)थोडी़ देर मॊन में कुछ ढूंढेंगे ऒर जिन महानुभाव के प्रभाव में हम गद्गगद भाव में विभोर हुए जा रहे थे उनका प्रशस्तिवाचन शुरू हो जायेगा.व्यक्तित्व-विश्लेषण की इतनी निस्संग तटस्थता अन्यत्र दुर्लभ है.
समय के बीहडों में भटक कर गुम हो चुकी स्मृतियों को बटोर लाने का साहस
तो जैसे चंदोलाजी में भरा ही है,अगली पीढि़यों तक उन्हें पहुंचाने की चेष्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट आभा प्रदान करती है.
उनकी कवितायें उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार हैं.







प्रस्तुत है कवि चारु चन्द्र चंदोला की कविताएं-

चारु चन्द्र चंदोला

और

पूछती है लकड़ी की अल्मारी
क्या स्टील के भी पेड़ होते हैं ?

थोड़ी ही देर में
आ जाती है स्टील की अल्मारी
और, चली जाती है लकड़ी की वह अल्मारी
वर्षों तक
हीरे/मोती और सोने के गहने
सूंघने के बाद।

पूछते हैं कौवे
चर्चा है, स्टील के भी होने लगे हैं पेड़
बदलना तो नहीं पड़ेगा
हमें अपना बसेरा ?

अदृश्य हो जाते हैं पेड़
और, फोड़े जाने लगते हैं श्रीफल
श्रीपुत्रों के बसेरों के लिए।


खेत और पेट

मुझे मालूम है
वर्षा हो रही है
यह भी मालूम है
पेट और खेत का सम्बन्ध
अच्छा रहेगा

यह मालूम नहीं है
किस खेत का
कौन-सा अन्न
मेरी थाली में आकर
जाएगा मेरे पेट में

यह भी मालूम नहीं है
कितने पेटों में
नहीं पहुंच पाएगा
इस बार की
पैदावार का अंश

मुझे मालूम है
फिर भी आएगा
मेरे द्वार पर
कोई भूखा पेट

आएगी चिड़िया भी
अपने बच्चों के साथ

मुझे नहीं मालूम है
किनकी संख्या अधिक है
पेटों की
या खेतों की ?

Monday, March 2, 2009

तुम कहां के बाशिंदे हो

देहरादून के लिए य़ह खबर है कि मुम्बई में रहने वाला देहरादूनिया सूरज प्रकाश ६ मार्च को अपने शहर देहरादून में पहुंच रहा है। खबर इसलिए कि एक लम्बे अरसे बाद, वर्ष २००५ के बाद, जब पिछले दिनों वे देहरादून आ रहे थे तो एक आकस्मिकता की लपेट में देहरादून आने की बजाय उन्हें दिल्ली ही रूक जाना पडा और देहरादून में उनके आने की सूचना प्राप्त हुए मित्र बेचैनी से उनकी राह तकते रहे। अपनी जीवटता के दम पर सूरज ने उस कठीन समय का मुकाबला किया है।
कथाकार नवीन नैथानी उसी देहरादून के बाशिंदो का जिक्र करते हुए, जिसका बाशिंदा हमारा मित्र सूरज भी है, अपने लेखन के उन शुरूआती दिनों को जिक्र फ़िर से बिलकुल अलग अनुभवों के साथ कर रहे हैं। देहारादून के चरित्र को व्याख्यायित करने की नवीन यह कोशिश प्रशंसनिय है, जो आगे भी जारी रहनी है।


नवीन नैथानी

देहरादून की फितरत का पता इसके बाशिन्दों से लगता है. वे जव शहर से बाहर जाते हैं तो शहर को भूल नहीं पाते. पता नहीं, दूसरे शहरों में रहने वाले लेखक अपने शहर को किस तरह से देख्रते हैं.सुरेश उनियाल , मनमोहन चड्ढा ऒर सूरज प्रकाश देहरादून से बाहर रहते हैं लेकिन लगता नहीं कि वे देहरादून में नहीं रहते . हां, पिछली किस्त में मैंने सिद्धेशजी का जिक्र किया था. उस त्रयी के अन्य महानुभावों पर बात करना एक तरह से शहर के उन दिनों को फिर से जीने की तरह है.
कविजी (सुखबीर विश्वकर्मा ) वेनगार्ड में काम करते थे- वे उस अखबार में हिन्दी संपादक थे. वह एक विलक्षण अखबार था.द्विभाषी. अंग्रेजी ऒर हिन्दी में. तीन पन्ने अंग्रेजी में होते थे ऒर एक पन्ना हिन्दी में .हिन्दी का पन्ना पूरी तरह साहित्यिक होता था. अक्सर कवितायें छपती थीं.साहित्यकारों के साक्षात्कार होते ऒर गोष्ठियों की रपट होती.कविजी हिन्दी पन्ने के तो घोषित सम्पादक थे ही, अंग्रेजी की सामग्री भी जुटाते थे-अधिकतर STATESMAN की कतरने वे रामप्रसादजी को पकडा़ देते.रामप्रसाद एक माहिर कम्पोजिटर थे.लैटर-प्रेस के वे दिन बहुत जादुई लगते हैं.सीसे के ढले हुए अक्षर,स्याही की गन्ध ऒर ट्रेडल-मशीन की आवाज!शाम की नीम-रोशनी में पढे़ जाने का इन्तजार करता हुआ ताजा छपा पन्ना रामप्रसाद के हाथों में होता.कविजी प्रूफ फ़ाईनल करें तो फ़र्मा छपे ऒर रामप्रसाद घर जायें.रामप्रसाद में असीम धैर्य था.सब कविजी की आदतों के साथ होना जानते थे-खासतॊर पर तब, जब उनके पास साहित्यकार बैठे हों.
अखबार के मालिक जीत साहब अपना पोर्टेबल टाइप राइटर लिये शाम चार बजे के आसपास वेन गार्ड के दफ्तर में आते थे .कोई खास रपट टाइप करते ऒर संपादकीय लिख कर कविजी के हवाले कर देते . हमने उन्हें ज्यादा देर वेन गार्ड के दफ्तर में नहीं देखा. कविजी प्रूफ देखते, खबरें दुरूस्त करते ऒर शहर की सरगोशियों को कान दिये रहते. वे वेनगार्ड के दफ्तर में बैठे-बैठे शहर की साहित्यिक - सांस्कॄतिक गतिविधियों की खबर रखते थे. एक जमाने में वेन गार्ड लेखकों की एक किस्म की नर्सरी के रूप में जाना जाता था. मैंने पुराने लोगों से सुना है कि वहां अच्छा खासा जमावडा़ हुआ करता था. हां, अवधेश के साथ कई मर्तबा शाम की बैठक में शामिल होने का मॊका जरूर मिला.
वेनगार्ड में संभवतः विजय गॊड़ ने ओमप्रकाश वाल्मीकि का साक्षात्कार लिया था जो हिन्दी में दलित-विमर्श से बहुत पहले की घटना है.उन्हीं दिनों की बात है-रतिनाथ योगेश्वर ऒर जय प्रकाश ’नवेन्दु’ ने देहरादून के युवा कवियों की कविताओं का संग्रह निकाला ’इन दिनों’ नाम से. उस संग्रह की समीक्षा खाकसार ने की ऒर कविजी की प्रशंसा में कुछ टिप्प्णी की थी जिसका भाव कुछ युं था कि कविजी ने बेहद ठण्डेपन के साथ अपनी बात कही है.काफी दिनों के बाद कविजी से शाम के वक्त घंण्टाघर में अचानक भेंट हो गय़ी. उन्होंने नाराजगी जाहिर की-सुखबीर विश्व्कर्मा ठण्डा कवि है!तुमने मुझे ठण्डा कवि कैसे बता दिया.
हिन्दी में दलित विमर्श की गूंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। - कागज का नक्शाभर नहीं है देहरा दून

उनके पास पत्रिकाएं बहुत आती थीं. तमाम जगह वे छ्पे ऒर गर्व से इस बात को कहा करते थे कि वे जितनी जगह छ्पे हैं, उतनी जगह कोई दूसरा कवि नहीं छपा होगा.उनके पास मिलने वालों की अक्सर भीड़ लगी रहती थी.शुरु-शुरु में मुझे ताज्जुब होता था कि अवधेश कवि जी के पास बैठ कैसे जाता है! उनके दफ्तर के सामने कनाट प्लेस का ठेका था (देहरादून में एक कनाट प्लेस भी है).तो मैं इसके पीछे ठेके की मॊजूदगी कोसबसे बड़ा कारण समझता था. य्ह एक कारण था पर सबसे बड़ा कारण नहीं था. कविजी के व्यक्तित्व में एक सहजता थी. निर्भीकता भी-अपनी बात पर अड़ गये तो फिर आप उन्हें समझा नहीं पायेंगे.एक बार से.रा.यात्री उनके कब्जे में पड़ गये. यह १९९०में मई-जून की कोई शाम थी. अवधेश मेरे साथ था.हरजीत संभवतः नहीं था.किसी बात पर कविजी उलझ पडे़.यात्रीजी ने हाथ जोड़ लिये. यात्रीजी का एक वाक्य मुझे अक्सर याद आ जाता है-ऐसा नशा-खाऊ आदमी मैंने नहीं देखा.
खैर, कविजी नशा-खाऊ तो नहीं थे. बाद के वर्षों में एक तरह की कुण्ठा उनमें घर कर गयी थी. वे अपना कविता संग्रह राष्ट्रपति को भेंट करने जब दिल्ली गये तो मेहमानों की फेहरिस्त में अवधेश का नाम जुड़्वाना नहीं भूले. अवधेश दिल्ली गया कि नहीं ,यह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा.
कविजी के व्यक्तित्व के बहुत से पहलू मुझे जितेन ठाकुर से पता चले. जितेन अपने साहित्यिक सफर की शुरूआती वर्जिश में वेनगार्ड के पास काफी टहला किये.
मृत्यु-पर्यंत कविजी कवि - कर्म में लिप्त रहे.हरिद्वार में कवि-सम्मेलन था. लॊटते हुए जीप पलट गयी. हरजीत गम्भीर रूप से घायल हुआ. कविजी दुर्घटना -स्थल पर ही हत-प्राण रह गये.

Thursday, February 26, 2009

भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था

नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। देहरादून में रह्ते हैं। सौरी उनकी कल्पनाओं में आकार लेती एक ऎसी जगह है, जहां के बाशिंदे अपनी जमीन से बेइंतहा प्यार करते हैं। हाल ही में उनकी कहानियों की किताब प्रकाशित हुई है "सौरी की कहानियां" पुस्तक के ब्लर्ब पर प्रकाशित उनकी कहानियों का परिचय कुछ इस प्रकार है-
लोक आख्यानों-उपाख्यानों एवं किंवदंतियों को समकालीन कहानी में दर्ज करने वाले रचनाकरों की संख्या कम है। नवीन कुमार नैथानी लम्बे अरसे से पहाडी अंचल की लोककथाओं को समकालीन कहानी का कलेवर प्रदान करने वाले ऎसे ही विरल रचनाकार हैं यह कहना भी कि ये लोक कथाएं सचमुच किसी अंचल विशेष- सौरी की हैं या कहानीकार की कपोलकल्पित रचनाएं मात्र: उतनी ही अस्पष्ट हैं जितनी कि ऎसी रचनाओं का भूगोल-इतिहास। पारस कहानी का नैरेटर इस पर कुछ-कुछ प्रकाश डालता है- 'भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था और तथ्य उसी के इर्द-गिर्द खडे होकर सौरी को आकार देते रहे, सौरी के बाशिंदे अपने होने फ़कत को सौरी की जमीन से जोडते रहे। उस जमीन में सिर्फ़ किस्से पैदा होते थे और कहानियां उस फ़सल का महज एक उत्पाद थीं। सौरी के बाशिंदे अपने किस्सों में अपना इतिहास समेटते रहे और इतिहास को किस्सों की छणभंगूरता में नष्ट करते रहे।' आस-पास फ़ैले व्यापक लोक-समाज और समय की लेखकीय समझ सौरी और वहां के बाशिंदों का देशकाल निर्मित करती है और 'सौरी' हमारा वर्तमान समाज और समय बनकर पहचान की आशवस्ति प्राप्त कर लेता है।
'सौरी के बाशिंदों के लिए जिनकी सौरी कहीं नहीं है' लेखक का यह समर्पण वाक्य पाठकों के सम्पूर्ण कुतुहल को परिचित और अपरिचित के बीच उपस्थित कला-कौशल की अपूर्व स्रजनात्मक छमता के साथ आमंत्रित करता प्रतीत होता है। इस तरह समकालीन कहानी के दायरे को लोक सम्पदा से सम्रद्ध और विकसित करने की व्यापक रचनात्मक चेष्टा नवीन कुमार नैथानी को अपने समवर्ती रचनाकारों से अलग पहचान दिलाती है।
पुस्तक का आवरण




प्रस्तुत है नवीन कुमार नैथानी की स्म्रतियों में अपने जनपद (देहरादून) का वह दौर जब वे कहानियां लिखना शुरू ही कर रहे थे।


एक बडी गोष्ठी स्व. राज शर्मा ने करायी थी DOLFIN का गठन करते हुए. यह १९८७ की बात है-है-संभवतः अप्रैल या मई का महिना था. DOLFIN से आशय था Democratic organisation for literarture and fine arts.वे इसमें सभी कलाकारों की भागीदारी चाहते थे. इस संबंध मे शहर के वरिष्ठ लोग सही रोशनी डाल सकते हैं. यह इन पंक्तियों के लेखक की पहली गोष्ठी थी ऒर यहां उसने कुछ कवितायें सुनायी थीं जिनमें कुछ इस तरह की ध्वनि निकलती थी कि हमारे दादा परदादा अपने जमाने में प्रेम किया करते थे. इस गोष्ठी में मेरा प्रवेश राजेश सेमवाल के सॊजन्य से हुआ था. इस गोष्ठी से ही अतुल शर्मा से परिचय हुआ ऒर फिर देहरादून की साहित्यिक दुनिया से धीरे धीरे संपर्क बढता रहा. उन दिनों देहरादून में साहित्य की दीवानी एक नयी पीढी उभर रही थी- राजेश सकलानी, दिनेशचन्द्र जोशी,विजय गौड,रतीनाथ योगेश्वर, मदन मोहन ढुकलान, दैवेन्द्र प्रसाद जोशी जैसे नाम इस समय ध्यान आ रहे हैं.जितेन ठाकुर ऒर जयप्रकाश नवेन्दु पहले ही परिद्र्श्य में आ चुके थे.जितेन की कविता धर्मयुग में छप चुकी थी. कविता संग्रह आ चुका था. नवेन्दु के भी एकाधिक संग्रह छप चुके थे. ये दोनों उस नयी फ़ॊज के बीच थोडा वरिष्ठ लगते थे. नयी फ़ौज अतुल शर्मा की अगुवाई में समान्तर कवि- सम्मेलन आयोजित/प्रायोजित कर लेती थी( प्रायः ये सम्मेलन उस मंचीय कविता के खिलाफ़ होते थे जिनकी सरपरस्ती स्व. गिरिजाशंकर त्रिवेदी किया करते थे. प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है विगत तीन दशकों से अधिक समय तक त्रिवेदीजी कवि सम्मेलनों के बहुत सफ़ल संचालक रहे. उनकी वाणी में सरस्वती निवास करती थी. वे बहुत मदुभषी थे किन्तु कवि सम्मेलन की दुनिया में सिमटे हुए थे.वे हिन्दुस्तान में स्ट्रिंगर भी थे.डी.ए.वी.कालेज में संस्कत के विभागाध्यक्ष तो थे ही.गत वर्ष उन्के निधन पर राजीव नयन बहुगुणा ने पठ्नीय श्रद्धांजली युगवाणी में लिखी थी. उम्मीद है विजय गौड उस श्रद्धांजलि को इस ब्लाग पर चस्पां करेंगे. उन सम्मेलनों को गरिमा प्रदान करने हेतु तीन बुजुर्गवार अध्यक्ष की आसन्दी के लिये उपलब्ध थे- रमेश कुमार मिश्र 'सिद्धेश', सुखबीर विश्वकर्मा (वे कविजी के नाम से ख्यात थे ऒर उन पर यह खाकसार अलग से कुछ फ़ूल चढायेगा) ऒर चारूचन्द्र चन्दोला. कविजी सडक दुर्घटना में हमसे बिछड गये ऒर सिद्धेशजी बिमारी के बाद इस दुनिया में नहीं रहे- वे डयबेटिक थे ऒर दिल के मरीज भी. सिद्धेशजी ठहाके बहुत ही सुन्दर लगाते थे- उसमें एक उठान वाली लय होती थी;थोडी सी मिठास ऒर बहुत महीन कम्पन. वे जब ठहाके लगाते तो उनके होंठ लरजते थे. वे कला-प्रेमी थे ऒर पत्थरों के रूपाकारों पर काम करते थे.एक बार अतुल शर्मा ने टाउन हाल में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था जहां सिद्द्धेशजी की प्रस्तर-स्रजन के साथ अतुल की कविताओं का संसार था. उस प्रदर्शनी के लिये हम तांगे मे सहस्र्धारा रोड से् सिद्धेशजी की प्रस्तर - संपदा लादे शहर की सड्कों से गुजर रहे थे ऒर उनके निश्छल ठहाकों की लहरों में उतरा रहे थे. अब वे पल दुर्लभ हैं.
अब वे सडकें नहीं हैं.
शहर में तांगे नहीं हैं.

फिर भी शहर में अब भी काफी कुछ बचा हुआ है.यह देहरादून की फितरत है. इस शहर में अपने को बचाने की जिजीविषा मॊजूद है.इस बारे में फिर कभी.

Friday, January 16, 2009

खास तुम्हारे लिये

जिस वक्त यह ब्लाग बनाया गया था, एक विचार मन में था कि बहुत कुछ ऎसा जो बहुधा और कहीं प्रकाशित नहींहोता, या जिसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जाना चहिए, मित्रों से लिखवाकर इस पर डालते रहेंगे और एकपत्रिका की तरह ही इसे चलाएंगे। अभी तक इसे ऎसे ही चलाने की कोशिश भी हुई है। पर यदा कदा जब समय पर ऎसा कुछ नहीं मिला तो अपनी रचनाओं से भी काम चलाना पडा है। फ़िर भी कोशिश जारी है। इस कोशिश का ही यह परिणाम है कि कथाकार नवीन नैथानी ने यह आलेख लिखा। ब्लाग में इसे देते हुए भाई नवीन का आभार व्यक्त करना चाह्ते हैं।
नवीन एक महत्पूर्ण कथाकार हैं। अपनी कल्पनाओं के सौरी को उन्होंने अपनी कहानियों मेंजिन्दा किया है। ग्यानपीठ से सौरी की कहानियां उनका प्रकाशनाधीन कथा संग्रह है। वर्ष २००५ में नवीन को उनकी कहानी पारस पर रमा कान्त स्म्रति सम्मान प्राप्त हुआ इससे पूर्व कथा सम्मान से भी वे सम्मानित हुए हैं। प्रस्तुतआलेख में नवीन अपने देहरादून को याद कर रहे हैं



नवीन नैथानी


मुझे नही लगता कि कोई शहर अपने होने को लेकर इस तरह से आत्म-मुग्ध होता होगा जितना देहरादून. यह शहर उन साहित्यकारों का गढ नहीं रहा जो हिन्दी जगत को अपने ईशारों से नचाते रहे. सम्मान ऒर पुरस्कार पाने ऒर बटोरने वाले लेखक इस शहर की फ़ितरत में ही नहीं हैं. यह उन लेखकों का शहर रहा है ऒर है जो साहित्यिक जीवन की रगों मैं लहू बनकर दॊड्ते हैं. फ़िर भी देहरादून की हवा में कुछ इस तरह की तासीर है कि यहां का लेखक इस शहर से दूर नहीं जा पाता. अगर रोजी-रोटी की मजबूरियां शहर से दूर खेंच के जाती हैं तो भी उसकी सांसें देहरादून में ही प्राण-वायु पाती हैं. अवधेश तो दिल्ली में पूरी तरह से स्थापित होने के बाद देहरादून लॊट आया था- वह एक यायावर की आत्महंता वापसी थी. सुरेश उनियाल तो दिल्ली में रहने ऒर बसने के बाद भी देहरादून इस तरह लॊटते हैं जैसे उनकी गर्भ-नाल देहरादून के किसी मुहल्ले की उस रसोई में गढी हुई है , जहां हिन्दुस्तान की आजादी के तत्काल बाद पंजाब ऒर दूसरे हिस्सों से आयी हुई एक दूसरी सभ्यता देहरादून को रचने लगी थी. यह देहरादून का एक सामान्य परिचय है-थोडा सा रहस्य की धुन्ध में ऒर थोडा कुहरे के कम्बल में- ऒपनिवेशिक समय से बना हुआ शहर जो निरन्तर बनते रहने का भ्रम रचता है. यहां यह उल्लेख अवांछित नहीं है कि कुछ बडे नाम संप्रति स्थाई रूप से देहरादून में रहते हैं- जीवन की उत्तरशती में. पद्मश्री लीलाधर जगूडी इस शहर के उतने ही सम्मानित बाशिन्दे हैं जितने आदरणीय कामरेड विद्यासागर नॊटियाल.
देहरादून संभवतः उन विरल शहरों म्रें है जहां से पत्रिकायें नहीं निकलतीं ऒर शहर के साहित्यकार अपने शहर पर इठ्लाते फ़िरते हैं -
शहर में ढूंढता तुझको तुझी में शहर बसता था
तेरे गेसू से बिखरी जो बासमती की खुशबू थी
(दर्द भोगपुरी)
खैर,इस शहर का बाशिदा मैं भी हूं, यहां मैं शहर को कुछ व्यक्तियों ,कुछ घ्टनाऒ ऒर कुछ संस्थाऒ के बहाने याद करने की कोशिश कर रहा हूं. और इस शुभ काम की शुरूआत हरजीत ऒर अवधेश के जिक्र के साथ क्यों न की जाये!
दर असल मैं ठीक- ठीक समझ नहीं पा रहा हूं कि एक ब्लोग में यह दर्ज करते हुए कितना अपना समय बचा रहा हूं. मुझे स्वीकार करते हुए थोडा कष्ट होता है कि तनिक गम्भीर साहित्यकार इस माध्यम को नितान्त अगम्भीरता से लेते हैं . समय वैसे भी उतना पारदर्शी कहां रहा? इस बात में कष्ट से अधिक विडम्बना झलकती है.
हरजीत से पहले मैं अवधेश से मिला था. इन दोनों से पहले अतुल शर्मा से. ऒर इन सबसे पहले राज शर्मा से! यह संदर्भ १९८६ का है.उन दिनो मैं शोध छात्र था. डीएवी कालेज में .राजेश सेमवाल मेरे साहित्यिक सफ़र का पहला हमकदम था. वे सिर्फ पढ्ने के दिन थे, सेमवाल के साथ मेरा सफ़र १९७९ से शुरू हुआ था- मैं भोगपुर से शहर आया था-पिछले तीस बरस से यह मेरा शहर है. उन दिनों हम खूब पढते थे.जो भी मिल गया वह पढ लिया. तो उन दिनों हम सुनते थे कि देहरादून में दो बडे सहित्यकार हैं-सुभाष पन्त ऒर अवधेश कुमार.अवधेश तो हमारा हीरो था.बाद जब मैं अवधेश से मिला तो आतंक, सम्मान ऒर कॊतुक का भाव जगता रहा-शुरू मैं .यह एक अलग प्रसंग है-इस पर चर्चा अन्यत्र कर चुका हूं .यहां तो जिक्र देहरादून की उस फ़ितरत का हो रहा है-जो आत्म-मुग्धता के बाग में टहलते हुए ऒर मस्त हुई जाती है.
यह शहर कभी भी हडबडाहट में नही दिखता. कम से कम साहित्यिक द्रष्टि से तो नहीं. यहां कभी भी फोन करने के बाद किसी मित्र के यहां जाने का रिवाज नहीं रहा. अब थोडा सा चलन बदला है.जब इस शहर में अवधेश ऒर हरजीत रहते थे तब शहर शाम को अंगडाई लेता ऒर रात उतरने के साथ खामोश सडकों को धुन्ध ऒर कुहरे की चादर में छुपाये लुका-छिपी का मनोरंजक खेल खेलता था.कई बार हम रात के वक्त दूर दूर बिखरे दोस्तों के घरों तक पहुंचकर दरवाजे खटखटा देते. यह देहरादून का ही कलेजा है जो बिना उफ किये पूरी गर्म-जोशी से स्वागत करता ऒर कोई नयी कहानी, कविता सुनने के लिये सहर्ष तैयार रहता . शहर का यह मिजाज आज भी बचा हुआ है. अब न अवधेश है ऒर न ही हरजीत .कभी दर्द भोगपुरी ने कहा था:
उठा भी तू, आया भी तू ऒर फिर पलट लिया
हमने तेरी अंगडाई से कुछ ऒर ही मतलब लिया
अब लगता है कि उन दोनों के जाने के बाद शहर अंगडाई लेना शायद भूल गया है-थोडा सा सयाना हो गया है-एक बुजुर्गियत शहर पर तारी हो गयी है.लेकिन वह बचपना अभी भी कहीं बचा हुआ है. यही इस शहर को बचाये हुए है.विजय गॊड,सुरेश उनियाल ऒर मदन शर्मा के संस्मरण देहरादून के मिजाज को समझने में मददगार हैं. यह शहर शब्दों में बयां नहीं हो पाता.इसे सुनने के लिये ऒर इससे कहने के लिये इसकी हवाओं में मॊजूद रहना पड्ता है.योगेन्द्र आहूजा ने जिस बालकनी का जिक्र किया है, उसी बालकनी में हरजीत को एक सरदारजी(वे ट्र्क-ड्राईवर थे) ने यह शे'र सुनाया था जो वे पता नहीं मुल्क के कॊन से ढाबे से सहेज कर लाये थे-खास हरजीत के लिये (यह हरजीत का प्रिय जुमला था-खास तुम्हारे लिये)
मैखाना-ए-हस्ती का जब वक्त खराब आया
कुल्हड में शराब आयी, पत्ते में कबाब आया
आमीन


भाई योगेन्द्र आहूजा को वर्ष २००८ के विजय वर्मा कथा सम्मान के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं। सम्मान समारोह कल दिनांक १७//२००९ को मुम्बई में सम्पन्न होगा। इस अवसर पर योगेन्द्र जी के द्वारा दिये जाने वाले वक्तव्य को आप कल दिनांक १७//२००९ को यहां पढ सकेंगे।