सावन के महीने सा अंधियारा और शरद माह की सी ठंड है आज देहरादून में
यदि आप देहरादून में है - स्वेटर, मॉफलर, जेकेट या कोई भी गरम वस्त्र आपके पास होना ही चाहिए।
होली को बीते एक पखवाड़ा हो चुका है। गालों पर लगा गुलाल, यदि वह सचुमच प्रेम का रहा हो तो उसकी चमक बरकरार रहनी ही है, वरना बनावटी रंगों का पक्कापन तो ठटठा ही बन गया होगा।
इस बार होली पर मौसम था ही बहुत शानदार। धूप खिली हुई थी। बाल्टियों भर पानी से भिगों देने के बाद भी मात्र कुछ मिनटों में ही होलीयारों के भीग चुके वस्त्र सूख जा रहे थे।
होलीयारे भी मस्त कि सूखे रंग से नहीं, भई कुछ गीला हो जाये। देखो तो कैसी धूप खिली है इस बार।
रंगों की थकान मिटाने के लिए गरम पानी की जरुरत शायद ही किसी होलीयारे को पड़ी हो इस बार। घूप से तप रहे पाईपों के भीतर दौड़ रहा पानी भी ठंडी चसक को खो चुका था।
देहरादूनिये कहने लगे थे, इस बार तो लगता है गर्मी जम कर पड़ेगी। जब अभी मार्च ही नहीं बीता और पंखे चलने लगे हैं तो अप्रैल, मई, जून में न जाने क्या होगा।
आशंका कहे या अनुमान। धरे रह गये - आज दोपहर में। जब तह लगाकर, लोहे के बड़े बक्सों के भीतर रख दिये गये गरम वस्त्रों को दुबारा निकालना पड़ गया।
जी हां, यह देहरादून का मौसम है।
होली के अगले दिन जयपुर से कथाकार अरुण कुमार असफल का फोन आया था, 24 मार्च को देहरादून पहुच रहा हॅ। मौसम कैसा है ? ठंड तो नहीं ?
जब छ: सात वर्ष देहरादून में बिताने वाले योगन्द्र आहूजा देहारादूनिये हो गये तो फिर, पिछले लगभग 12 वर्ष देहरादून के साहित्यिक, समाजाजिक माहौल में पूरी तरह से रमा अरुण कैसे देहरादूनिया न होता। अरुण ने अपना नाम असफल न रख होता तो इस वक्त मैं उसे अरुण कुमार देहरादूनिया कहता। देहरादून के मौसम के अचानक से बदलते मिज़ाज़ को उसने नज़दीक से देखा है। उसके ज़ेहन में सवाल यूंही नहीं आया होगा। वरना सूचना तंत्र के विस्तार के बाद किसी भी भूभाग के वर्तमान तापमान को तो कोई भी जान सकता है।
उसके सवाल पर क्या कहता !
चले आओ यार, मस्त है मौसम। दिन तो बहुत ही गरम होने लगे हैं।
ये तो बात दस-एक दिन पहले की है। आज ही सुबह जब फुरसतिया, अनूप शुक्ला जी से बात हो रही थी, लगभग 7.45 पर, तब भी कहां था ऐसा अनुमान कि दिन में गरम कपड़ों की दरकार ही नहीं होगी बल्कि स्कूल जा चुकी बच्ची को ठंड न लग जाये, इस बात की चिन्ता से ग्रसित मां जब स्वेटर निकाल बच्ची के पिता को दौड़ा रही होगी कि जाओ स्वेटर भी ले जाओ और बरसाती भी, नहीं तो बच्ची भीग ही जायेगी और ठंड भी बढ़ रही है। उस वक्त तो आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फैक्ट्री, देहरादून में पिछली ही रात सम्पन्न हुए, निर्माणी के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित उस कवि सम्मेलन की चर्चा होती रही जिसमें देश भर की निर्माणियों से आये कवियों ने ही हिस्सेदारी की। कुछ इधर-उधर की भी बातें हुई। मौसम का तो जिक्र आया ही नहीं। आता भी क्यों ! जब सब कुछ अपनी सामान्य गति से ही हो, तो।
कल शाम यानि 4 अप्रैल को कुछ ठंडक तो थी वातारण में। हल्की बूंदा-बांदी जो हुई थी। पर सुबह मौसम वैसा ठंडा नहीं था और बादल भी वैसे नहीं, जैसे कि दिन खुलने के बाद होते चले गये। लगभग 11 बजे के बाद मौसम ने करवट बदलनी शुरु कर दी थी।
तेज बारिस होने लगी और ठंड लगातार बढ़ती गयी। दोपहर आते आते तो आधी बांहों की कमीज़ पहनना शुरु कर चुके देहरादूनिये भी स्वेटर, जेकेट पहने नज़र आने लगे।
बादलों की गड़गड़ाहट और दमकती बिजली के साथ घिरता जा रहा अंधेरा ठंड को और ज्यादा बढ़ाने लगा। सावन के महीने का सा अंधियारा और शरद रितु की सी ठंड, अप्रैल की धूप पर हावी होने लगा। ऊपर पहाड़ों में कहीं बर्फ भी गिर ही होगी शायद।
तो ऎसा है आज देहरादून का मौसमा
अपनी ही एक छोटी सी कविता, जो वैसे तो किसी और संदर्भ में लिखी गयी पर इस वक्त गुन-गुनाने का मन है:-
बारिस
सब कह रहे हैं
बारिस बंद हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा पानी
पर घर के भीतर तो पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है
आगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
सड़क पर भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिस बंद हो चुकी है।
Saturday, April 5, 2008
Thursday, April 3, 2008
आकांक्षाएं
कहानी
० सोना शर्मा
कई वर्ष पूर्व, रमा जी से मेरी भेंट, डा0 राकेश गोयल के क्लीनिक पर हुई थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा में, बेंच पर समीप बैठे हुए, उन्होंने बिना किसी विशेष भूमिका के, अपना संक्षिप्त परिचय दे डाला। अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष के सम्बंध में भी संकेत देने में, उन्हें झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने सहानुभूति प्रकट की और शीघ्र ही दो-एक ट्यूशन दिला देने का आश्वासन दे दिया।
रमा जी से दूसरी भेंट भी राह चलते ही हुई। तब उनके पति भी साथ थे। उन्होंने विद्याचरण से परिचय कराया। संभवत: इस बीच उनकी स्थिति कुछ संभल गई थी। तीन कमरों का मकान उन्होंने दौड़-धूप करके एलाट करा लिया था। चार पांच ट्यूशनें मिल गई थीं और एक प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूल में विद्याचरण की नौकरी लग जाने की भी बात, लगभग निशित हो चुकी थी। दोनों ने साग्रह किसी दिन घर आने के लिये आमन्त्रित किया।
अनुमानत: उनका प्रेम विवाह हुआ था। अनुमान का आधार था, विद्याचरण का उतरप्रदेशीय ब्राहमण तथा रमा जी का बंगालिन होना। रमा जी हिन्दी जानती थी तथा सही उच्चारण में बातचीत भी कर लेती थीं। दोनों में अच्छी निभ रही थीं। दोनों में जीवन से जूझने की शक्ति थी। और अच्छे दिनों की आमद का विशवास भी उनकी आँखों में झलकता था।
विद्याचरण को अंग्रेजी स्कूल में नौकरी मिल गई। किन्तु प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल वाले जिस कड़ाई के साथ विद्यार्थियों से रूपये वसूल करते हैं, उस अनुपात में अपने अध्यापकों को वेतन देने में विश्वास नहीं करते। कुल मिलाकर एक गैर सरकारी मज़दूर से भी कम वेतन, एक अध्यापक को मिल पाता है।
कुछ दिन तो इसी तरह निकल गये, मगर शीघ्र ही भविष्य की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। कल को बच्चे होंगे तो क्या उनकी परवरिश होगी और क्या उनका अपना जीवन स्तर सुधर पायेगा!
काफी सोचने के बाद, उन्होंने एक नर्सरी स्कूल शुरू करने का निणर्य ले लिया। नई जगह की व्यवस्था आसान न थी। इसलिये तीन कमरों के इस मकान का ही, स्कूल के तौर पर उपयोग करना निश्चित हुआ। कमरे ठीक ठाक ही थे। पूरे मकान की पुताई हो गई। दरवाजे खिड़कियों पर नया पेंट। आंगन के झाड़ झंकार को साफ़ कर दिया गया। बरामदे के एक भाग को एनक्लोज़र-सा बनाकर,कार्यालय का रूप दे दिया गया। साइन बोर्ड तैयार होकर आ गया। कुछ बेंच डेस्क टाट अलमारी ब्लैक बोर्ड आदि बहुत कम दाम में एक कबाड़ी से मिल गये।
पढ़ाने के लिये रमा जी थी हीं। विद्याचरण के लिये भी अपने स्कूल से आकर एक दो पीरियड़ ले लेना संभव था। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब तीस बतीस बच्चे आने लगे, तो एक अतिरिक्त अध्यापिका की कमी, बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। इसी संदर्भ में रमा जी ने मुझ से किसी शरीफ और परिश्रमी लड़की का पता बताने के लिये कहा, मैंने हँसकर कहा, "शराफत या शरीफ होने का प्रमाणपत्र तो कोई राजपत्रित अधिकारी ही दे सकता है, एक अच्छी पढ़ी लिखी और मेहनती लड़की मेरी नज़र में है, उसे आप के पास भेज दूंगी।''
चेष्टा मेरे छोटे भाई के मित्र की बहन है। बी0ए0 करने के बाद उसके लिये लड़का खोजते खोजते वह एम0ए0 हो गई। तब तक भी कहीं बात पी न हुई तो उसके घर वालों ने उसे बी0एड में दाखिला करा दिया। बी0एड भी हो गया, किन्तु दुर्भाग्य! इतनी पढ़ी लिखी और नेक स्वभाव लड़की को अब तक न तो वर मिला था और न नौकरी ही! बेचारी दिन भर अपने कमरे में बन्द, न जाने क्या क्या सोचा करतीं। मैंने चेष्टा को रमा जी के पास भेज दिया। उसे नौकरी मिल गई और रमा जी की समस्या का समाधान भी हो गया।
इसी बीच, कुछ विशेष घट गया। चेष्टा मुझ से अकसर बचने का प्रयास करती है। विद्याचरण और रमा जी से दुआसलाम तक बन्द है। जबकि मैंने इन तीनों में से किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
घटना या दुर्घटना के बाद सर्वप्रथम मैंने विद्याचरण से ही बात की। बड़ी बेचारगी के साथ उसने बताया, ""देखिये बहन जी, मैने तो पहले ही कुमारी चेष्टा से कह दिया था कि हमारा यह छोटा सा स्कूल व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु जनसेवा के उद्धेश्य से खोला गया है। मुहल्ले के गरीब बच्चे पढ़ लिख कर चार पैसे कमाने योग्य हो जायें, यही हमारी कामना है। हमारी सभी बातें या स्कूल के सब नियम कुमारी चेष्टा ने सहर्ष स्वीकार कर लिये थे। मैं मानता हूं कि वह अच्छा पढ़ाती थी और बच्चे भी उससे काफी प्रसन्न थे किन्तु ---
"किन्तु क्या?''
"क्षमा कीजिये, मैं कुछ भी बताने में असमर्थ हूं।''
बहुत पूछने पर भी जब विद्याचरण ने कोई स्पषट कारण न बताया तो मैं रमा जी से मिली। वे भी टाल मटोल सा करती हुई चाय पानी की व्यवस्था में लगीं रही। किन्तु मैं जब देर तक बैठ ही रहा तो बोली, "बात यह है कि जब लोगों को नौकरी की जरूरत होती है, तब तो दूसरों के पांव तक पकड़ने को तैयार हो जाते हैं, मगर नौकरी मिलते ही इनका नखरा आकाश छूने लगता है। सच मानिये, हमने तो यह स्कूल चलाकर मुसीबत ही मोल ले ली। इसमें बचत तो क्या होनी थीं, उल्टे जेब से ही खर्च हो रहा है। यह ठीक है, हम शैक्षणिक योग्यता अनुसार उस लड़की को अधिक वेतन नहीं दे सके। देते भी कहां से? अपने ही बीसियों झंझट है। तब भी किसी तरह खींच ही रहे थे, मगर उसने तो सब किये कराये पर पानी फेर दिया।''""मगर, किया क्या उसने?''
""उसी से पूछिये न।''
""उसी से पूछिये न।''
मैं खीज गई थी। 'मारो गोली" कह कर भी मैं मामले को गोली न मार सकी और चेषठा को भुला भेजा। वह भी बड़ी कठिनाई से कुछ बताने के लिये सहमत हुई। जो कुछ उससे मालूम हुआ, वह लगभग इस प्रकार था।
अपने एम0ए0बी0एड तक के प्रमाणपत्र लेकर, चेषठा नौकरी के लिये साक्षात्कार मण्डल (पति पत्नी) के समक्ष उपस्थित हुई, तो चकित ही रह गई। दोनों सदस्यों ने एक घंटे तक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रशनों की झड़ी लगाये रखी। गाना, नाचना तबला हारमोनियम, चित्रकारी मे, वह कितनी दक्ष है, इसकी जानकारी भी ली गई। बच्चों को योग्य बनाने हेतु, इन सभी चीज़ों की ज़रूरत थी। चेष्टा प्रशनों के उतर देती जा रही थी और पसीने में भीगती जा रही थी। इतने प्रशन तो अब तक जो लड़के वाले उसे देखने आये, उन्होंने ने भी नहीं पूछे थे। पांच सौ रूपये वेतन सुनकर तो उसका चेहरा ही उतर गया, किन्तु विद्याचरण का आदर्शवादी भाषण सुनकर तथा 'चलो कुछ वक्त कटी ही होगी", सोचकर उसने नौकरी स्वीकार कर ली। वैसे रमा जी ने यह भी कह दिया कि कुछ बच्चे और बढ़ते ही वे वेतन बढ़ा देंगे।
स्कूल में पढ़ाना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होता था। हर रोज़, समय से पूर्व, स्कूल पहुंच कर, घर को स्कूल में परवर्तित करने के लिये चपरासी का कार्य उसे स्वयं ही करना होता। विद्याचरण तो प्रात: सात बजे ही अपनी नौकरी पर चला जाता। रमा जी का स्वास्थ्य, वही आम औरतों की तरह, कभी कमर में दर्द तो कभी सिर में चर। छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाना कम और संभालना अधिक होता। किसी की नाक बह रही है तो किसी को पाखाने की हाजत है। एक दो बार चेद्गठा ने एक और अध्यापिका रख लेने का सुझाव भी दिया किन्तु 'देखेंगे" कह कर रमा जी ने कोई और ही प्रसंग छेड़ दिया।
एक दिन, बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी। विद्याचरण अभी नहीं लौटा था। रमा जी कुछ देर पहले बच्चों से प्राप्त फीस, बैंक में जमा कराने चली गई थीं। तब मौसम साफ था। इसलिये वे छाता भी नहीं ले गईं। मगर मौसम बदलते देर ही कितनी लगती है। विद्याचरण तो लगभग पूरा ही भीग कर घर पहुंचा था। जाती हुई रमा जी यह घर -स्कूल, चेषठा के हवाले विद्याचरण के लौट आने तक के लिये कर गई थीं। उसको कंपकपाते देख चेष्टा ने स्टोव जलाकर चाय के लिये पानी रख दिया। जितनी देर में विद्याचरण ने कपड़े बदले, चाय तैयार थी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।
"आपको देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ी लिखी हैं, हर तरह से ठीक हैं। तब भी।।।खैर मैं कोशिश करूंगा आप के लिये।''
चेष्टा जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी।
"आपके लिये लड़कों की क्या कमी! ऐसा वर खोजकर दूंगा, जो लाखों में एक हो। बिल्कुल आप के योग्य--- आप तो कुछ बोल ही नहीं रही!''
चेष्टा ने तनिक सी दृष्टि उठाकर, विद्याचरण की ओर देखा।
"इस समय भी मेरी नज़र में एक बहुत अच्छा लड़का है। काफी बड़ा अफसर है। मुझे न नहीं करेगा। सुन्दर है, अच्छे घराने से भी है --- बोलिये?''
वह कुछ समीप आ गया था।
चेष्टा थर थर कांप रही थी।
"आपको शायद ठंड लग रही है। एक कप अपने लिये भी बना लेना चाहिये था। कहिये तो मैं बना दूं?''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''
"देखिये, आप को ये बातें मेरे पिता जी से करनी चाहिये।''
"उनसे तो हो ही जायेंगी, पहले आप तो हां करें।''
इस बीच विद्याचरण कितना आगे बढ़ आया था, चेषठा ने इस पर ध्यान ही न दिया था। किन्तु जब विद्याचरण ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "बस आपके हां कहने की देर है।'' तो चेष्टा उछल सी पड़ी।
अब वह डर या सर्दी से नही, बल्कि क्रोध से कांप रही थी।
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''
मालूम नहीं, रमा जी ने 'बात" को कहां तक समझा, या विद्याचरण ने किस प्रकार उन्हें 'असली बात" समझाने का प्रयास किया।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210
ब्लाग पर
(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210
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(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।
वहीं दूसरी ओर बदलते श्रम संबंधों और अपने पांव पसार रही भ्रष्ट राजनैतिक, सामाजिक ढांचे की बुनावट में फैलती जा रही अप-संसकृति ने जल्द से जल्द पूरे वातावरण में छा जाने की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया है। मात्र दो एक रचनाओं की शुरुआती पूंजी को ही उनके रचना संसार का स्वर देख लेने वाली आलोचना भी ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रही है।
यहॉं प्रस्तुत सोना शर्मा की कहानी उनकी प्राकाशित प्रथम रचना है। उस पर टिप्पणी करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि वे लगातार लिखती रहे और खूब-खूब पढ़े. ताकि जटिल होते जा रहे यथार्थ को समझने में अपने विकास की गति पकड़ सकें।)
कथाकार सुभाष पंत के नये उपन्यास का मुख्य पात्र
''आओ तुम्हे एक कहानी सुनाता हूं।"
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।
लेबल:
देहरादून,
ब्लाग पर,
विजय गौड,
शब्द चित्र,
सुभाष पंत
Wednesday, April 2, 2008
अतीत ने ही रचा है वर्तमान
ओम प्रकाश वाल्मीकि
भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।
हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।
दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।
(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .
भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।
हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।
दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।
(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)
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अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .
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Tuesday, April 1, 2008
देहरादून में रहते थे कवि कुल्हड़
* मदन शर्मा
देहरादून जैन धर्मशाला में, समाज सेवी वीरेन्द्र कुमार जैन की सपुत्री के शुभ विवाह का आयोजन था। काफी चहल पहल का माहौल था। बड़ा हाल अतिथियों से खचाखच भरा था। एक कोने में, आठ-दस प्रशन्स्को से घिरे कवि कुल्हड़, अपनी चिरपरिचित विनोदपूर्ण शैली में बातचीत करने में व्यस्त थे। प्रशन्स्को में से एक ने कह दिया, ""कुल्हड़ जी, कुछ हो जाये।'' ""क्या हो जाये?'' कुल्हड़ जी ने चकित होकर पूछा। ""कोई छोटी-मोटी कविता ही हो जाये।''
कुल्हड़ जी का मूड बदल गया। थोड़ा गम्भीर होकर बोले, ""देखो मित्र, यह छोटी मोटी, लोकल कवि, यहां वहां सुना दिया करते है। हम अखिल भारतीय स्तर के कवि हैं और कविता, कवि सम्मेलन के मंंंंच पर ही सुनाया करते हैं। वो उधर डी। ए। वी। कालेज देहरादून के प्रोफेसर खड़े हैं। वे आप को छोटी मोटी सुना देन्गे। मगर जहां तक हमारी बात है, हम उन में से नहींे, जो मोची से जूता ठीक कराते समय भी, कविता सुनाने लगें।''इसी मेहफिल में, एक सरदार जी, कुल्हड़ जी को बार बार हाथ जोड़े जा रहे थे। कुल्हड़ जी ने उनकी और निहारा और कहा, ""मैंने आपको पहचाना नहीं।'' सरदार जी ने पुन: हाथ जोड़े और कहा, ""मैं तो जी बस आप के जूते साफ करने वाला, एक तुच्छ प्राणी हूं।'' कुल्हड़ जी ने उसकी ओर घूर कर देखा। फिर सस्नेह कहा, ""देखो, यदि जूते साफ करने वाले हो, तो बाहर जाकर बैठ जाओ। यहां सम्मानित अतिथि भोजन करने वाले हैं।'' हास्यरस के वरिष्थ कवि श्री सोमेश्वर दत्त शन्खघर 'कुल्हड़" से मेरी पहली भेंट, आर्य समाज मन्दिर में आयोजित, हिंदी साहित्य समिति की एक बैठक के दौरान हुई। वहीं मौजूद कवि हर्ष पर्वतीय ने उनसे मेरा परिचय कराया। कुल्हड़ जी बड़ी आत्मीयता से मिले और जब हर्ष जी ने उन्हें बताया, कि इन्ही दिनों मेरा उपन्यास प्रकाशित हुआ है, तो वे प्रसन्न होकर बोले, ""किसी दिन मिलिये और अपना उपन्यास भी दिखाइयंए।''
मैंने पूछा, ""आप से कहां भेंट हो सकेगी?'' कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""देखो मित्र, मैं अपने निवास पर तो किसी को आमंत्रित नहीं किया करता। एक लोकल कवि मेरे पास आया करता था। वह एक दिन मौका पाकर, मेज़ पर रखे नोट और रेज़गारी लेकर चलता बना।।। आप ऐसा करें, ईस्ट केनाल रोड़ पर हमारा पुरातत्व विभाग कार्यालय है। आजकल वही हमारा ड्राइंगरूम है। आप किसी दिन वहीं आ जायें।''
कुल्हड़ जी से तीन-चार बार मेरी वही भेंट हुई। उसके बाद उन्होंने विधिवत 'पर्मिशन" जारी करते हुए कहा, ""आप शरीफ आदमी जान पड़ते हैं। रेसकोर्स चौराहे के पास, विकास होटल में मेरा निवास है। आप वहीं आ जाया करें।''
कुल्हड़ जी ने मेरा साधारण-सा उपन्यास 'शीत लहर" गम्भीरता से पढ़ा और उस पर पेंसिल से, सभी अशुद्धियों और त्रुटियों पर निशान लगा दिये। भेंट होने पर, उन्होंने विस्तार से बातचीत की और भविषय के लिये कुछ हिदायतें भी दीं। लेखन के बारे में उन्होंने समझाया, ""परिश्रम करो। अच्छा साहित्य पढ़ो और पूरे आत्म विशवास के साथ लिखो। प्रशनसा करने वाले को, शक की निगाह से देखो और अधिक प्रशनसा करने वाले को, तो अपना शत्रु ही जानो। एक बार जम जाने के बाद, जो भी सांप - अजगर मार्ग में नज़र आये, उसे तलवार से काटकर, आगे बढ़ जाओ।''
कुल्हड़ जी से तीन-चार बार मेरी वही भेंट हुई। उसके बाद उन्होंने विधिवत 'पर्मिशन" जारी करते हुए कहा, ""आप शरीफ आदमी जान पड़ते हैं। रेसकोर्स चौराहे के पास, विकास होटल में मेरा निवास है। आप वहीं आ जाया करें।''
कुल्हड़ जी ने मेरा साधारण-सा उपन्यास 'शीत लहर" गम्भीरता से पढ़ा और उस पर पेंसिल से, सभी अशुद्धियों और त्रुटियों पर निशान लगा दिये। भेंट होने पर, उन्होंने विस्तार से बातचीत की और भविषय के लिये कुछ हिदायतें भी दीं। लेखन के बारे में उन्होंने समझाया, ""परिश्रम करो। अच्छा साहित्य पढ़ो और पूरे आत्म विशवास के साथ लिखो। प्रशनसा करने वाले को, शक की निगाह से देखो और अधिक प्रशनसा करने वाले को, तो अपना शत्रु ही जानो। एक बार जम जाने के बाद, जो भी सांप - अजगर मार्ग में नज़र आये, उसे तलवार से काटकर, आगे बढ़ जाओ।''
कुल्हड़ जी के एक घनिषट मित्र हरिसिंह 'हरीश" भी काफ़ी अक्खड़ और मुहंफट किस्म के साहित्यकार थे। वह किसी सरकारी दफतर में अधिकारी थे। एक बार मिले, तो छूटते ही बोले, ""आप को उपन्यास छपवाने की किस अक्लमन्द ने राय दी थी?'' मैं सहम कर रह गया। वे फिर बोले, मैं पढ़ चुका हूं आप का वह उपन्यास। उस में भाव पक्ष तो है, मगर बुद्धि पक्ष का पूर्णत: अभाव है।'' मैं तब भी चुप रहा, तो समीप बैठे कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""हरीश, एक बार सुन लो। इनका उपन्यास जैसा भी है, मगर तुम्हारे उपन्यास से काफ़ी अच्छा है।''
हरि सिंह हरीश ने अपने उपन्यास की प्रति मुझे देते हुए कहा, ""पढ़ कर बताइये, कैसा है।''
हरि सिंह हरीश ने अपने उपन्यास की प्रति मुझे देते हुए कहा, ""पढ़ कर बताइये, कैसा है।''
कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""कैसा है, यह मैं अभी बता देता हूं। मदन जी, यह हरिसिंह हरीश नाम का व्यक्ति जितना घटिया है, उससे कहीं घटिया, इसका यह उपन्यास है। इस पुस्तक के पांच पृषठ पढ़ जाना भी, हर किसी के वश की बात नही। आप यदि किसी तरह पूरा उपन्यास पढ़ जायें, तो पिक्चर मेरी ओर से।''
उस समय मेैंने कुल्हड़ जी की बात को उपहास में ले लिया था। किंतु जब वह उपन्यास पढ़ा, तो महसूस किया, कि हास्य के दौरान भी वे अकसर गम्भीर ही हुआ करते थे।
उन्हीं हरीश जी का एक और किस्सा याद आ गया। वे एक दिन, कुल्हड जी के निवास पर, मोटर साइकिल पर घ्ाड़घ्ाड़ाते पहुचें और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगे। कुल्हड़ जी हड़बड़ा कर उठे और दरवाज़ा खोला। हरिसिंह हरीश पर निगाह पड़ते ही, उन्होंने तीन चार भारी भरकम गालियों के साथ स्वागत किया। हरीश जी नाराज़ होकर बोले, ""यार, कभी तो खय़ाल कर लिया करो। मेरी पत्नी साथ है और तुम इस तरह गालियां बके जा रहे हो।''
कुल्हड़ जी ने हाथ जोड़, श्रीमती हरीश को नमस्कार किया और बड़ी विनम्रता से कहा, ""क्षमा कीजिये भाभी जी, दरअसल मैंने आपको देखा नहीं था।'' फिर खिलखिला कर कहने लगे, ""वैसे एक बात तो अच्छी ही हुई। भाभी जी को यह पता चल गया, कि हरिसिंह हरीश की, मित्रों के बीच क्या कद्र है।''
एक दिन, कुल्हड़ जी के दफ़तर के एक सहयोगी ने कहा, ""मैंने आपका इतना नाम सुना है। मगर मैंने आज तक आप की एक भी कविता नहीं सुनी।''
कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""आप सौभाग्यशाली हैं। मेरी कविता वो लोग सुनते हैं, जिनकी किस्मत फूट गई होती है।'' फिर वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, ""मदन जी, आपने कभी कविता नहीे लिखी।''
उस समय मेैंने कुल्हड़ जी की बात को उपहास में ले लिया था। किंतु जब वह उपन्यास पढ़ा, तो महसूस किया, कि हास्य के दौरान भी वे अकसर गम्भीर ही हुआ करते थे।
उन्हीं हरीश जी का एक और किस्सा याद आ गया। वे एक दिन, कुल्हड जी के निवास पर, मोटर साइकिल पर घ्ाड़घ्ाड़ाते पहुचें और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगे। कुल्हड़ जी हड़बड़ा कर उठे और दरवाज़ा खोला। हरिसिंह हरीश पर निगाह पड़ते ही, उन्होंने तीन चार भारी भरकम गालियों के साथ स्वागत किया। हरीश जी नाराज़ होकर बोले, ""यार, कभी तो खय़ाल कर लिया करो। मेरी पत्नी साथ है और तुम इस तरह गालियां बके जा रहे हो।''
कुल्हड़ जी ने हाथ जोड़, श्रीमती हरीश को नमस्कार किया और बड़ी विनम्रता से कहा, ""क्षमा कीजिये भाभी जी, दरअसल मैंने आपको देखा नहीं था।'' फिर खिलखिला कर कहने लगे, ""वैसे एक बात तो अच्छी ही हुई। भाभी जी को यह पता चल गया, कि हरिसिंह हरीश की, मित्रों के बीच क्या कद्र है।''
एक दिन, कुल्हड़ जी के दफ़तर के एक सहयोगी ने कहा, ""मैंने आपका इतना नाम सुना है। मगर मैंने आज तक आप की एक भी कविता नहीं सुनी।''
कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""आप सौभाग्यशाली हैं। मेरी कविता वो लोग सुनते हैं, जिनकी किस्मत फूट गई होती है।'' फिर वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, ""मदन जी, आपने कभी कविता नहीे लिखी।''
मैंने बताया, कि कभी नहीं लिखी।
""क्यों नहीं लिखी? कोशिश तो की ही होगी?'' मैंने कहा, ""कोशिश भी नहीं की।।। मेरे अंदर यह प्रतिभा ही नहीें है।''
कुल्हड़ जी हँसकर कहने लगे, ""आप क्या समझते हैं, इतने लोग, जो कविता लिख रहे हैं, सभी प्रतिभा संपन्न हैं? हमारे इसी देहरादून में, पांच सौ कवि तो होंगे ही। किसी को भी भाषा का ज्ञान नहीं। छंद अलंकार को तो गोली मारो, यही पता नहीं चलता, ये क्या कहना चाहते हैं। रोते हैं या हंसते, यह भी आभास नहीं होता। उर्दू शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे सब के सब मुन्शीफ़ाजिल हों। इनमें ऐसे भी है, जो हिंदी गोषठी में गज़ल पढ़ कर सुनाते हैं और उर्दू की नशिस्त में हिंदी के बिरह गीत प्रस्तुत करते हैं!''
कुल्हड़ जी हँसकर कहने लगे, ""आप क्या समझते हैं, इतने लोग, जो कविता लिख रहे हैं, सभी प्रतिभा संपन्न हैं? हमारे इसी देहरादून में, पांच सौ कवि तो होंगे ही। किसी को भी भाषा का ज्ञान नहीं। छंद अलंकार को तो गोली मारो, यही पता नहीं चलता, ये क्या कहना चाहते हैं। रोते हैं या हंसते, यह भी आभास नहीं होता। उर्दू शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे सब के सब मुन्शीफ़ाजिल हों। इनमें ऐसे भी है, जो हिंदी गोषठी में गज़ल पढ़ कर सुनाते हैं और उर्दू की नशिस्त में हिंदी के बिरह गीत प्रस्तुत करते हैं!''
वे थोड़ा रूककर फिर कहने लगे ""कविता के मामले में, एक बड़ी सुविधा यह है कि आप किसी प्रकार चार कविताएं लिख डालिये और सिर्फ़ उन्ही चार कविताओं को, देश के कोने-कोने में आयोजित कवि सम्मेलनों के मंच पर, सस्वर या बेसुरे, लगातार आठ वर्ष तक पढ़ते चले जाइये। मैं इसी शहर के एक ऐसे महाकवि को जानता हू, जिसने गत् चालीस वर्ष में, केवल एक कविता लिखी है और उसी बीस शब्दीय महाकाव्य की रचना कर, उसने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को तो अमर होने के लिये, तीन अदद कहानियां लिखनी पड़ी थी। किंतु हमारे इस महाकवि ने केवल बीस शब्दों की रचना से ही, हिंदी साहित्य जगत में तहलका मचा दिया। एक आप हैं, जो दो ढ़ाई वर्ष बर्बाद करने के बाद, एक उपन्यास पूरा कर पाते है। फिर किताब के छपने का झंझट और पाठक उस उपन्यास को तीन चार घ्अनटे में निबटा कर, एक और पटक देता है और इतने उपन्यास लिखने के बाद भी, आप अमर नही हो पाये। मेरी मानिये, तो आप भी हमारे महाकवि जैसी दो चार उल्टी सीधी कविताएं लिख मारिये।''
मगर मैंने तब भी कविता लिखने की कोशिश नहीं की। और कुल्हड़ जी ने इस बात पर संतोष ही व्यक्त किया। उन्होंने कितने ही लोगों के पास प्रशनसा करते कहा, ""मदन शर्मा समझदार है, उसने कविता लिखने की एक बार भी हिमाकत नही की।''
किसी गोषठी में, एक कवि काफी देर से, किसी अन्य कवि की आलोचना किये जा रहे थे। गोषठी में कवि वीर कुमार 'अधीर" भी मौजूद थे। कुल्हड़ जी बोले, ""अधीर तुम्हें याद है, किसी काव्य संग्रह में इन्हीं श्री मान जी ने अपनी एक कविता में लिखा है।।।।। मैं यदि सुबह उठकर पेशाब करने न जाऊं, तो मेरा कोई क्या कर लेगा। इनसे पूछो, वहां इनकी कविता का क्या स्तर रहा था।''
लेखक नवीन नौटियाल के 'इंडियन आर्ट स्टूडियो" में 'संवेदना" की मासिक गोषठी चल रही थी। वहां 'जंजीर" साप्ताहिक के संपादक स्वचन्द्र प्रकाश मेरे बराबर बैठे थे। वे वहां मुझ से मिलने ही आये थे। गोषठी सम्पन्न हो जाने पर, सभी बाहर निकले, तो कुल्हड़ जी पर नज़र पड़ी। चन्द्र प्रकाश उनसे कहने लगे, ""आप अंदर क्यों नहीं आ गये?''
कुल्हड़ जी बोले, ""मैं यहां मदन जी से मिलने चला आया। मगर चन्द्र प्रकाश, आप यहां कैसे? संवेदना की गोषठी में तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोग भाग लेते है।''
चन्द्र प्रकाश कुल्हड़ जी से काफी दिन तक नाराज़ रहे। बहुत से लोगों को" यह मुगालता रहा, कि कुल्हड़ जी सीमा से भी बढ़ कर मुहफट हैं और वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर ऐसा नही था। वे स्पषटवादी होने के साथ साथ, सिद्धांतवादी भी थे। बनावट उन्हें बिल्कुल पसन्द नही थी। कोई उनके सामने डींगंे हाकें, यह सहन कर पाना उनके लिये सहज न था। वे बहुत ही सहज और विनम्र थे और परिस्थिति देखकर ही बात किया करते थे। मुझे उन से सदा ही आदर और स्नेह मिलता रहा।
देहरादून, कुल्हड़ जी का 'अपना शहर" था। उनकी पत्नी, दिल्ली में किसी कालेज की प्राचार्य थी और वे स्वयं देहरादून में पुरातत्व विभाग में, उच्च पद पर नियुक्त थे। अत: उन्हें इधर अकसर अकेले ही रहना पड़ता था। इसके बावजूद मैं जब भी उनसे मिलने गया, उन्होने अपने हाथ से चाय बना कर पिलाई।
लेखन के बारे में उन्होंने बहुत कुछ समझाया। अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने के लिये दी, ताकि उन्हें पढ़कर मैं बेहतर लिखने का प्रयास करूं।
अन्य लोगों को उनसे मिलने के लिये, समय लेना अनिवार्य था। मगर मेरे लिये कोइ बंदिश नही थी। वैसे उनका नियम था, कि सुबह ग्यारह बजे से पूर्व, वे अपने कमरे का दरवाजा नही खोलते थे। उससे पूर्व वे कई घ्ंटे पूजापाठ में लगाते थे।
कुल्हड़ जी पक्के शाकाहारी थे। मिठाई के बहुत शौकीन। कहा करते, ""ब्राहमण का यह भी धर्म है, मीठा खाना और कड़वा बोलना।'' कवि सम्मलेन के लिये जाते समय, वे हमेशा साफ़ पानी से भरी बोतल, साथ लेकर चलते थे ।कवि सम्मलेन में कविता पाठ का निमंत्रण मिलने पर वे अन्य कवियों की तरह, कभी मोल भाव नहीं करते थे। मगर मान सम्मान का पूरा ध्यान रखते। एक बार, किसी संस्था की और से, एक कार्यकर्ता इन्हें कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित करने आया, तो गलती से पूछ बैठा, ""कवि सम्मेलन में आने का आप क्या लेंगे?'' कुल्हड़ जी ताव खाकर बोले, ""क्या तुम्हें मैं शक्ल से भीखमंगा नज़र आ रहा हूं?''
मित्रों के लिये, वे कई बार, बिना धनराशि लिये भी, कविता-पाठ के लिये गये। वहां भी उन्होंने वैसे ही जमकर कविताएं पढ़ी, जैसे अन्य कवि सम्मलेनों में पढ़ते थे और कवि सम्मलेन हमें पूरी तरह छा जाते थे।
उन्होंने बहुत अधिक कविताएं नहीं लिखी। किंतु उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी, कि बार-बार सुनने के बावजूद, वे कविताएं नई और ताज़ा मालूम पड़ती थी। उन्हंे स्वयं अपने लेखन के बारे में कभी गलतफहमी नही हुई। वे स्वयं ही कहा करते, ""देखो हमारी कविता दो कौडी की भी नहीं: मगर हनुमान बाबा की कृपा से, हमारा आत्मविशवास सदैव कार्य करता है। आज तक हम कभी हूट नही हुए। वरना बड़े-बड़े धुरन्दर मंच पर जाकर, अपनी हीन भावना के कारण, हूट हो जाते हैं।''
एक बार कुल्हड़ जी, मेरे साथ सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" से मिलने राजपुर गये। वहां हम दो ढ़ाई घ्ंटे रहे। मफ्तून साहब अपने दिल्ली और 'रियासत" अखबार वाले संस्मरण सुनाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे। कुल्हड़ जी इस दौरान, कुछ भी नही बोले। लौटते समय मैंने उनकी इस चुप्पी का कारण जानना चाहा। वे बोले, ""मफ्तून साहब विद्धवान व्यक्ति है। उनके पास अनुभवों का भंडार है। उनकी भाषा शैली उच्च स्तर की है। उनको सुना जाना जरूरी है। वरना हमारा क्या है, हम तो बकते ही रहत हैं! ''
उर्दू शायर ज़िया नेहटौरी, उनके पक्के दोस्त थे। दोनों आपस में जी भर कर बहस करते और एक दूजे को बेहद चाहते थे। दूसरों से भी कहते, ""यह मुल्ला है और मैं ब्राहमण। हम दोनों, हिंदु-मुसलिम एकता का प्रतीक है। यह अलग बात है, कि हमें इस एकता के लिये, कोई राषट्रीय पुरस्कार नही मिला।''
एक दिन बारिश हो रही थी। वैसे भी बरसात का मौसम था। लगभग डेढ़ घ्ंटे से कुल्हड़ जी से, उनके निवास पर बातचीत चल रही थी। मैं घ्ाड़ी देख उठ खड़ा हुआ। कोने में रखी अपनी छतरी उठाई और चलने लगा। कुल्हड़ जी बोले, ""चल रहे हैं, अच्छी बात। छतरी है न आप के पास! ठीक है, समझदार आदमी वही है, जो बरसात के मौसम में, बिना बारिश के भी, छतरी साथ लेकर चले।
मगर मैंने तब भी कविता लिखने की कोशिश नहीं की। और कुल्हड़ जी ने इस बात पर संतोष ही व्यक्त किया। उन्होंने कितने ही लोगों के पास प्रशनसा करते कहा, ""मदन शर्मा समझदार है, उसने कविता लिखने की एक बार भी हिमाकत नही की।''
किसी गोषठी में, एक कवि काफी देर से, किसी अन्य कवि की आलोचना किये जा रहे थे। गोषठी में कवि वीर कुमार 'अधीर" भी मौजूद थे। कुल्हड़ जी बोले, ""अधीर तुम्हें याद है, किसी काव्य संग्रह में इन्हीं श्री मान जी ने अपनी एक कविता में लिखा है।।।।। मैं यदि सुबह उठकर पेशाब करने न जाऊं, तो मेरा कोई क्या कर लेगा। इनसे पूछो, वहां इनकी कविता का क्या स्तर रहा था।''
लेखक नवीन नौटियाल के 'इंडियन आर्ट स्टूडियो" में 'संवेदना" की मासिक गोषठी चल रही थी। वहां 'जंजीर" साप्ताहिक के संपादक स्वचन्द्र प्रकाश मेरे बराबर बैठे थे। वे वहां मुझ से मिलने ही आये थे। गोषठी सम्पन्न हो जाने पर, सभी बाहर निकले, तो कुल्हड़ जी पर नज़र पड़ी। चन्द्र प्रकाश उनसे कहने लगे, ""आप अंदर क्यों नहीं आ गये?''
कुल्हड़ जी बोले, ""मैं यहां मदन जी से मिलने चला आया। मगर चन्द्र प्रकाश, आप यहां कैसे? संवेदना की गोषठी में तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोग भाग लेते है।''
चन्द्र प्रकाश कुल्हड़ जी से काफी दिन तक नाराज़ रहे। बहुत से लोगों को" यह मुगालता रहा, कि कुल्हड़ जी सीमा से भी बढ़ कर मुहफट हैं और वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर ऐसा नही था। वे स्पषटवादी होने के साथ साथ, सिद्धांतवादी भी थे। बनावट उन्हें बिल्कुल पसन्द नही थी। कोई उनके सामने डींगंे हाकें, यह सहन कर पाना उनके लिये सहज न था। वे बहुत ही सहज और विनम्र थे और परिस्थिति देखकर ही बात किया करते थे। मुझे उन से सदा ही आदर और स्नेह मिलता रहा।
देहरादून, कुल्हड़ जी का 'अपना शहर" था। उनकी पत्नी, दिल्ली में किसी कालेज की प्राचार्य थी और वे स्वयं देहरादून में पुरातत्व विभाग में, उच्च पद पर नियुक्त थे। अत: उन्हें इधर अकसर अकेले ही रहना पड़ता था। इसके बावजूद मैं जब भी उनसे मिलने गया, उन्होने अपने हाथ से चाय बना कर पिलाई।
लेखन के बारे में उन्होंने बहुत कुछ समझाया। अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने के लिये दी, ताकि उन्हें पढ़कर मैं बेहतर लिखने का प्रयास करूं।
अन्य लोगों को उनसे मिलने के लिये, समय लेना अनिवार्य था। मगर मेरे लिये कोइ बंदिश नही थी। वैसे उनका नियम था, कि सुबह ग्यारह बजे से पूर्व, वे अपने कमरे का दरवाजा नही खोलते थे। उससे पूर्व वे कई घ्ंटे पूजापाठ में लगाते थे।
कुल्हड़ जी पक्के शाकाहारी थे। मिठाई के बहुत शौकीन। कहा करते, ""ब्राहमण का यह भी धर्म है, मीठा खाना और कड़वा बोलना।'' कवि सम्मलेन के लिये जाते समय, वे हमेशा साफ़ पानी से भरी बोतल, साथ लेकर चलते थे ।कवि सम्मलेन में कविता पाठ का निमंत्रण मिलने पर वे अन्य कवियों की तरह, कभी मोल भाव नहीं करते थे। मगर मान सम्मान का पूरा ध्यान रखते। एक बार, किसी संस्था की और से, एक कार्यकर्ता इन्हें कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित करने आया, तो गलती से पूछ बैठा, ""कवि सम्मेलन में आने का आप क्या लेंगे?'' कुल्हड़ जी ताव खाकर बोले, ""क्या तुम्हें मैं शक्ल से भीखमंगा नज़र आ रहा हूं?''
मित्रों के लिये, वे कई बार, बिना धनराशि लिये भी, कविता-पाठ के लिये गये। वहां भी उन्होंने वैसे ही जमकर कविताएं पढ़ी, जैसे अन्य कवि सम्मलेनों में पढ़ते थे और कवि सम्मलेन हमें पूरी तरह छा जाते थे।
उन्होंने बहुत अधिक कविताएं नहीं लिखी। किंतु उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी, कि बार-बार सुनने के बावजूद, वे कविताएं नई और ताज़ा मालूम पड़ती थी। उन्हंे स्वयं अपने लेखन के बारे में कभी गलतफहमी नही हुई। वे स्वयं ही कहा करते, ""देखो हमारी कविता दो कौडी की भी नहीं: मगर हनुमान बाबा की कृपा से, हमारा आत्मविशवास सदैव कार्य करता है। आज तक हम कभी हूट नही हुए। वरना बड़े-बड़े धुरन्दर मंच पर जाकर, अपनी हीन भावना के कारण, हूट हो जाते हैं।''
एक बार कुल्हड़ जी, मेरे साथ सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" से मिलने राजपुर गये। वहां हम दो ढ़ाई घ्ंटे रहे। मफ्तून साहब अपने दिल्ली और 'रियासत" अखबार वाले संस्मरण सुनाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे। कुल्हड़ जी इस दौरान, कुछ भी नही बोले। लौटते समय मैंने उनकी इस चुप्पी का कारण जानना चाहा। वे बोले, ""मफ्तून साहब विद्धवान व्यक्ति है। उनके पास अनुभवों का भंडार है। उनकी भाषा शैली उच्च स्तर की है। उनको सुना जाना जरूरी है। वरना हमारा क्या है, हम तो बकते ही रहत हैं! ''
उर्दू शायर ज़िया नेहटौरी, उनके पक्के दोस्त थे। दोनों आपस में जी भर कर बहस करते और एक दूजे को बेहद चाहते थे। दूसरों से भी कहते, ""यह मुल्ला है और मैं ब्राहमण। हम दोनों, हिंदु-मुसलिम एकता का प्रतीक है। यह अलग बात है, कि हमें इस एकता के लिये, कोई राषट्रीय पुरस्कार नही मिला।''
एक दिन बारिश हो रही थी। वैसे भी बरसात का मौसम था। लगभग डेढ़ घ्ंटे से कुल्हड़ जी से, उनके निवास पर बातचीत चल रही थी। मैं घ्ाड़ी देख उठ खड़ा हुआ। कोने में रखी अपनी छतरी उठाई और चलने लगा। कुल्हड़ जी बोले, ""चल रहे हैं, अच्छी बात। छतरी है न आप के पास! ठीक है, समझदार आदमी वही है, जो बरसात के मौसम में, बिना बारिश के भी, छतरी साथ लेकर चले।
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(हमारी कोशिश है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह चलाते हुए अप्रकाशित रचनाओं को यहॉं प्रकाशित करें। वैसे पहले कहीं प्रकाशित हो चुकी रचना के पुन: प्रकाशन से हमारा परहेज़ नहीं। हॉं, उस स्थिति में होगा यही कि अपनी पहुच की सीमा के भीतर ही हम रचनाओं को ढूंढ कर पाठकों तक पहुॅचा पायेगें। लेकिन यदि कोई अप्रकाशित रचना हमें प्राप्त होती है तो उसका स्वागत किया जायेगा।
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