Friday, May 23, 2008

टीआरपी और भाषा

(टीआरपी का भाषा से क्या लेना देना है ? यह सवाल कई दिनों से कोंध रहा है। ब्लाग की दुनिया भी क्या टीआरपी की दुनिया है? टीआरपी बढ़ानी है तो जो कुछ लिखा जाये क्या उसमें भाषा भी कोई भूमिका निभा सकती है ? यदि नहीं तो फिर एक स्वस्थ बहस की बजाय व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की भाषा में एक झूठा विवाद क्यों खड़ा हो जाता है। बहस बेशक उत्तेजक हो लेकिन तार्किक परिणिति तो होनी ही चाहिए।

भाषा को लेकर मोहल्ले में चल रही बहस शायद समाप्त हो चुकी है। शायद इसलिए कि आज जो पोस्ट लगी है पिछले कुछ दिनों पहले शुरु हुई बहस की झलक उसमें दिखायी नहीं देती। अब यह तो मोहल्ले वाले ही बता सकते हैं कि बहस समाप्त हुई या स्थगित!

वैसे जिस तरह से बहस शुरु हुई थी उम्मीद की जा सकती थी कि कुछ ऐसे प्रश्न उठेगें और उन पर गम्भीरता से विचार भी होगा जो समकालीन दुनिया के पेचोखम को भाषा के माध्यम से खोल पाये। लेकिन जैसे जैसे बहस आगे बढ़ी तो दिखायी देता रहा कि नितांत व्यक्तिगत किस्म के आरोप और प्रत्यारोपो का सिलसिला शुरु हो चुका है।
हलांकि बहस में शामिल दोनों ही रचनाकारों ने शुरुआती दौर में एक संतुलित बातचीत को आगे बढाया था। पर बहुमत के रुप में समर्थकों की भीड़ के हमले आरम्भ से ही इतने तीखे और पैने थे कि बहस में शामिल रचनाकार भी एक हद तक उससे उद्वेलित (कुछ कुछ उत्तेजित भी) हो ही गये। अच्छा ही हुआ जो बहस को रोक कर आज मोहल्ले पर कुछ अलग पोस्ट किया गया। वैसे एक स्वस्थ बहस की निश्चित ही जरुरत है। खास तोर पर ऐसे मुद्दों पर जिनकी उपस्थिति बहुत इकहरी नहीं है।
अपने इतिहास में भी और समकालीन दुनिया में भी भाषा का मसला ऐसा ही एक विषय जो उतना इकहरा नहीं कि तुरत फुरत में किन्हीं नतीजों पर पहुंचा जा सके।
भाषा के सवाल पर दलित धारा के रचनाकार ओमप्राकद्ग्रा वाल्मीकि का एक आलेख यहां प्रस्तुत है। यह आलेख पिछले दो आलेखों (वरवर राव और नवीन नैथानी )का ही विस्तार है। माहोल्ले पर चली भाषा सम्बंधी बहस के प्रश्न भी इसमें स्वभाविक रुप से आये ही हैं। यह अलग बात है कि आलेख हमारे अनुरोध पर लिखा गया और मोहल्ले की बहस से ओम प्रकाश वाल्मीकि अपरिचित नही हैं। वसुधा के 1857 पर केन्द्रित अंक में ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रकाशित आलेख में इसकी हल्की झलक पाठक अलग से देख सकते हैं।
कोशिश रहनी चाहिए कि टीआरपी को ध्यान में न रखते हुए भाषा की सादगी को बचाया जा सके। इस सवाल के साथ ही भाषा पर विमर्श जारी रखने का प्रयास किया जा रहा है। भाषा के सवाल पर कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की प्रतिक्रिया के बाद हमें दो और आलेख प्राप्त हुए है। दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि और युवा रचनाकार चंद्रिका ने हमारे अनुरोध पर जिन्हें लिखा है। चंद्रिका का आलेख आगे प्रस्तुत किया जायेगा। )


ओमप्रकाश वाल्मीकि - 094123319034, opvalmiki@yahoo.com

भारत में भाषा का मसला काफी गंभीर है। यहां एक ही राज्य में कई बोलियां है, जिन्हें भले ही हिन्दी या उस राज्य की विशेष भाषा का अंग माने। लेकिन इन बोलियों का अपना अस्तित्व है, अपनी सांस्कृतिक महत्ता है जिसे भाषा-विमर्श में अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
हिन्दी राजभाषा कही जाती है लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का कायम है। ऐसा पहली बार हुआ है कि साधारण जन भाषा राजभाषा बनी है।

अभी तक राजसत्ता की भाषा को नीचे की ओर लाया जाता था। यानि राजसत्ता या उच्चवर्ग की भाषा ही राजभाषा राजभाषा होती थी। वह चाहे संस्कृत हो, फारसी या अंग्रेजी हो। सभी उच्चवर्ग की या सत्ताधारियों की भाषा रही है। कालिदास के साहित्य में राजा, ब्राहमण ही संस्कृत बोलते हैं। स्त्रियां, कर्मचारी, सैनिक, दास-दासियां प्राकृत बोलते हैं।
1857 के बाद भाषा को लेकर जो भी माहौल बना उसने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। इसके तथ्य साहित्य में मौजूद हैं।
नव जागरण के उस दोर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय धार्मिक संस्थाओं को जाता है। डा। जगन्नाथ प्रसाद ने अपनी पुस्तक हिन्दी गद्य शैली का विकास में लिखा है - 'आर्य समाज के तत्कालीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन के प्रसार के निमित जो व्याख्यानों और वक्ताओं की धूम मची, उससे हिन्दी गद्य को प्रोत्साहन मिला। दयानन्द ने राष्ट्रीयता के लिए हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित किया था। उन्होंने एक पत्र में लिखा था - 'मेरी आंखें उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब एक भाषा समझने और बोलने लगेगें।'
उत्तर पश्चिम भारत में आर्य समाज की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही थी। रामगोपाल अपनी पुस्तक स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास में जिसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने प्रकाशित किया था, लिखते हैं - 'आर्य समाज की गणना भी वैमनस्य तथा विवादोत्पादक संस्थाओं में की जाती थी, उसे एक ओर मुसलमान अपना शत्रु समझते थे, तो दूसरी ओर हिन्दुओं का एक भाग प्राचीन हिन्दु धर्म को विकृत करने वाला घोषित करता था। संयोग से इन सभी विरोधात्मक तत्वों द्वारा हिन्दी को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।'
उस काल में देवनागरी लिपि और फारसी लिपि को लेकर हिन्दू ओर मुसलिम उच्चवर्ग के शिक्षित वर्ग के मतभेद बढ़ गये थे। भाषा का मसला एक साम्प्रदायिक मसला बन गया था। धर्मिक संस्थाओं ने इसे हवा दी।
विरोध और प्रतिरोध ने हिन्दी-उर्दू के प्रश्न को हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न बना दिया था। जिसे ब्रिटिश शासकों ने और भी ज्यादा हवा दे दी थी। इसी नवजागरण के प्रमुख व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय भी थे। राजा राम मोहन राय ब्रहम समाज के प्रचारक थे। ओर अपने विचारों के व्यापक प्रचार के लिए उन्होंने जो पुस्तके छपवायी थी, वे हिन्दी में थी। उनकी परम्राओं को आगे बढ़ाते हुए केशव चंद्र सेन, राजनारायण बोस, भूदेव मुखर्जी, नवीनचंद्र राय ने हिन्दी के माध्यम से समाज-सुधार के कार्य आगे बढ़ाये थे। पंजाब प्रांत में उर्दू-फ़ारसी का आधिपत्य था। लेकिन श्रद्धाराम फुल्लोरी जैसे लोगों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। पंजाब में उर्दू विरोध ओर हिन्दी समर्थन से जो स्थितियां उत्पन्न हुई थी, वहां जोश ओर विरोध ने साम्प्रदायिक रुप ले लिया था, जिसे नवजागरण की चर्चा में हमेश अनदेखा किया गया। जिसकी परिणिति ने इतिहास में एक काला पृष्ठ जोड़ दिया।
महात्मा गांधी हिन्दी समर्थक थे। उन्होंने 'हिन्द स्वराज (1908) में लिखा था - 'भारत की सर्वग्राह भाषा हिन्दी होनी चाहिए और इच्छानुसार नागरी या फारसी अक्षरों में लिखी जाये।' उन्होंने भड़ौच में द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देते हुए कहा था - 'यह निश्चयी है कि मुसलमान अभी उर्दू की लिपि का प्रयोग करेंगे और अधिकांश हिन्दू हिन्दी का। मैंने अधिकांश इसलिए कहा कि आज भी हजारों हिन्दू उर्दू लिपि में लिखते हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो नागरी लिपि जानते ही नहीं हैं। अंत में, जब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में लेश मात्र भी संदेह न रहेगा, जब अविश्वास के सब कारण दूर हो जायेगें, तब वह लिपि जो अधिक शक्तिशाली है, अधिक व्यापक प्रयोग में आ जायेगी और राष्ट्रीय लिपि बन जायेगी।'
एक तथ्य और भी है जिसका रूप आज हिन्दी के संस्कृत रूप में सामने आ रहा है। यह मसला उस समय भी गंभीर था। महात्मा गांधी ने उस समय (1917) में भी यह स्पष्ट किया था - 'शिक्षित हिन्दू अपनी हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उसे मुसलमान समझ नहीं पाते हैं। इसी तरह लखनऊ के मुसलमान अपनी उर्दू का फारसीकरण कर देते हैं और वह हिन्दुओं के लिए अबोध हो जाती है।'
इन उद्धरणों से जो तसवीर बनती है, वहां भाषा को धर्म के साथ जोड़ने के प्रयास दिखायी देते हैं। जैसे संस्कृत को ब्राहमणों के साथ जोड़ कर देखना। नवजागरण में धर्म और संस्कृति को राष्ट्रवाद के साथ देखने की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसलिए नवजागरण सवर्ण हिन्दू नवजागरण है, जिसने भीतर छिपी साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर मजबूत किया है, जो देश के हित में कतई नहीं है।
भाषा के विकास में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं होता है। किसी भी समाज, राष्ट्र और देश की विकास यात्रा में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूण्र होती है। डा0 शम्भूनाथ ने एक जगह चार क्रान्तियों की चर्चा की थी - बुद्ध का संस्कृत की जगह पाली भाषा को अपनाना, अलवार, नयनार का शास्त्रीय भाषा को छोड़कर लोक भाषा को अपनाना, तुलसी का अवधी को अपनाना और नवजागरण के बाद अंग्रेजी की जगह अपनी भाषाओं को अपनाना। जैसे माइकल मधुसूदन दत्त का अंग्रेजी छोड़कर बंगला भाषा में साहित्य सृजन करना। ये तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि लोकभाषायें ही हमारी सांस्कृतिक पहचान बनाती है। हिन्दी भाषा का विकास भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
लेकिन नवजागरण काल के दौर में इसे जिस तरह से रूपांतरित किया गया, वह एक गंभीर समस्या का निर्माण करने में सहायक हुआ। हिन्दी-उर्दू को जो साम्प्रदायिक रूप दिया गया, वह भविष्य को कई और समस्याओं में उलझा गया। उस दौर में समाज की अग्रिम पंक्ति के लोग न तो अंग्रेजी का विरोध कर रहे थे,न दासता का।
नवजागरण काल में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के लिए संघर्ष करने वाले साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आंदोलन को अभूतपूव्र शक्ति प्रदान की। 1882 के शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भारतेन्दु ने कहा था- 'साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिन्दी में रखते हैं। हिन्दुओं का निजी पत्र व्यवहार भी हिन्दी में होता है। स्त्रियां हिन्दी लिपि का प्रयोग करती हैं। पटवारी के कागजात हिन्दी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिन्दी में शिक्षा देते हैं।'
राधाचरण गोस्वामि द्वारा सम्पादित तथा मथुरा से प्रकाशित समाचार पत्र भारतेन्दु ने 8 अगस्त 1884 के अंक में लिखा - '---इन देशवासियों की हिन्दी स्वाभाविक भाषा है, उर्दू अस्वाभाविक है, फिर भला उसमें लोगों की प्रवृत्ति कैसे हो ?'
इन उद्धरणों से आभास होता है कि हिन्दी के लिए जी जान से संघर्ष करने वाले उर्दू का विरोध कर रहे थे, न कि अंग्रेजी का। क्योंकि हिन्दी हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया था, जो एक गहरी साम्प्रदायिक सोच का परिणाम थी।

Thursday, May 22, 2008

भाषा और बाजार

(भाषा के सवाल पर तेलगु कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की लिखित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई जिसको यहां प्रस्तुत करते हुए पाठकों से अनुरोध है कि नवीन नैथानी द्वारा छुए गये बिन्दु, हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप और बाजार की भूमिका पर अपनी विस्तृत राय के साथ उपस्थित हों। यदि संभव हो तो मेल करें। mail i d : vggaurvijay@gmail.com आपकी महत्वपूर्ण राय को पाठकों तक पहुंचाने में हमें प्रसन्नता होगी।
नवीन नैथानी पेशे से भौतिक विज्ञान के व्याख्याता हैं। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में पढ़ाते हैं। उनकी कहानियों का अपना एक पाठक वर्ग है। उनके लेखन की विश्वसनियता के चिन्ह को रमाकांत स्मृति सम्मान और कथा सम्मान के रूप में पाठक देख सकते हैं।)

नवीन नैथानी, 09411139155 -

भाषा के विभिन्न स्वरूपों में जन भाषा और राजभाषा की स्पष्ट विभाजक रेखा इतिहास में हम देख सकते हैं। राजभाषा मूलत: सत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए एक अभेद्य दुर्ग के रुप में गढ़ी गयी। व्याकरण की नियमबद्ध निर्मितियों में अभिव्यक्तिको बांधने की कोशिश को आप क्या कहेंगें ?
व्हां संवेदना के लिए स्थान नहीं है, जो सुनना है उसके विशेष अर्थ पर जोर है और जो अप्रिय है उसे व्याकरण निषिद्ध घोषित करते आये हैं। जन भाषा में कुछ भी अस्वीकार्य नहीं है, राजभाषा (इसे व्याकरणनिष्ठ भाषा भी पढ़े) में जनता द्वारा बहुत कुछ कहा गया दोषपूर्ण संरचना के खाते में डाल दिया जायेगा।
बहरहाल, वर्चस्व की इस लड़ाई को हम कानून की भाषा के रुप में सबसे सही तरीके से जान सकते हैं। अदालतों की भाषा एक विशेष कौशल की मांग करती है जो सिर्फ वकीलों के पास होता है। आप अपनी पूंजी उनके हवाले कीजिए और उनसे कानून की भाषा लीजिए। यह न्याय के इतिहास पर दृष्टि डालने के लिए एक सही प्रस्थान बिन्दु हो सकता है। बीसवीं शताब्दी का प्रख्यात दार्शनिक वाइट्जैस्टीन जब भाषा (उसका आशय निश्चित रूप से इसी भाषिक व्याकरण की तरफ है) की सीमाओं की तरफ संकेत करता है तो वह मनुष्य की अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर शंका नहीं उठा रहा है, वह अभिव्यक्ति की असंख्य संभावनाओं को ही चिन्हित कर रहा है, जो दुर्भाग्य से, व्याकरण की परिधि के बाहर है।
इस भाषिक वर्चस्व का एक अन्य उदाहरण हम बाजार की भाषा के रूप में देखते हैं। जन भाषा को किसी रणभेरी की जरुरत नहीं। लेकिन बाजार की भाषा को है। वह व्याकरण (सत्ता) और जन भाषा के बीच अपने संघ्ार्ष से एक नयी ही भाषा रचने के प्रयास में दिखायी पड़ता है। दरअसल यह निर्माण की नहीं बल्कि सत्ता के वर्चस्व की प्रक्रिया है।
पुस्तकों के प्रकाशन को ही लें। यह एक जाना माना तथ्य है कि हिन्दी अब भारतीय संदर्भ में एक बाजार-भाषा में तबदील हो चुकी है। बांग्ला, मराठी, मलयालम जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य जिस तरह से उन भाषा-भाषियों के बीच खरीदा जाता रहा है, हिन्दी का साहित्य उनके पासंग में भी नहीं है। इधर कुछ वर्षों से हिन्दी में बड़े प्रकाशन गृहों से अंग्रेजी के उपन्यासों के अनुवाद अच्छी खासी तादाद में छप रहे हैं। क्या यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी है ? इस प्रश्न का जवाब, मुझे उम्मीद है, मेरी शंकाओं को दूर करने में सहायक ही होगा।

Wednesday, May 21, 2008

राज-काज की भाषा और जनता की भाषा

(भाषा को लेकर पिछले कुछ दिनों से हमारे ब्लागर साथी एक ऐसी कार्यवाही में जुटे हैं जो मोहल्ले में विवाद नहीं तो चर्चा को तो जन्म दिये हुए ही है। कल यानि 20 मई को बुद्ध पूर्णिमा थी। वर्ष 2001 में बुद्ध पूर्णिमा के ही दिन मैंने और मेरे कथाकार साथी अरुण कुमार असफल ने तेलगू के कवि वरवर राव के साथ उनके अपने रचनाकर्म, समकालीन साहित्य सांस्कृतिक स्थितियों और तेलगू साहित्य पर कुछ बातचीत की थी। वर्ष 2002 में साहित्यिक कथा मासिक कथादेश के मई अंक में जो प्रकाशित हुई है। तेलगू के कवि वरवर राव द्वारा हिन्दी में दिया गया यह प्रथम साक्षात्कार था। हम दोनों ही साथी तेलगू साहित्य से पूरी तरह से अनभिज्ञ ही थे। कुछ छुट-पुट अनुवाद ही, जो कि सीमित ही हैं, हमने पढ़े भर हैं। बल्कि तेलगू ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की पर्याप्त संख्या में अनुपलबधता हमें उस से अपरिचित किये हुए है। जबकि अन्य विदेशी भाषा के साहित्य के अनुवाद भी हमने इनसे कहीं ज्यादा पढ़े होंगे। ये सवाल हमारे भीतर उस वक्त मौजूद था। अपनी बातचीत को हमारे द्वारा इसी बिन्दु से शुरु करते हुए हमारी जिज्ञासा को शांत करने के लिए भाषा पर दिया गया वी वी का वक्तव्य यहां इसी संदर्भ में पुन: प्रस्तुत है।)

वरवर राव -

यह एक भूमिका की बात है। एक ऐसी भूमिका जिसका आधार राजनीतिक और आर्थिक सम्बंधों के कारण खड़ा हुआ है। हम भी हिन्दी कविताएं या हिन्दी साहित्य के बारे में थोड़ा बहुत ही जान पाये, या जान पा रहे हैं। पर अपने पड़ोसी तमिल, मराठी, कन्नड़, ओड़िया और अन्य किसी दूसरी भाषा के बारे में इससे भी कम समझ रखते हैं। हाल ही में मेरी तेलगु कविताओं का मराठी में अनुवाद हुआ। उसकी भूमिका में मैंने लिखा - 'दलित पैंथर' को छोड़कर मराठी साहित्य के बारे में मेरी जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। हां, थोड़ा-बहत सुना है तो पहले अमर शेख के बारे में बाद में अनाभाव साठे के बारे में इसका मुख्य कारण, उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलनों से रहा, जिससे कि मैं खुद भी जुड़ा हूं। जबकि पड़ोसी होने पर भी मराठी साहित्य के बारे में तो मैं जानता तक नहीं हूं। पड़ोसी की ही बात नहीं - तेलुगु, मराठी, कन्नड़ भाषा-भाषी बहुत साल तक एक ही राज्य में थे - हैदराबाद में। जहां से मैं आया हूं। यानि जिसमें तेलंगाना है। मैं उस तेलंगाना, मराठवाड़ा के चार जिले, कर्नाटक के तीन जिले (जिसे आज भी हैदराबाद कर्नाटक कहते हैं ) को मिलाकर कुल सोलह जिलों का भौगोलिक क्षेत्र ही हैदराबाद राज्य था। फिर भी हमको एक दूसरे की भाषा नहीं आती। यहां तक कि उनके साहित्य के बारे में भी कुछ नहीं सुना। कारण था कि राज की भाषा उर्दू थी। यानि हमारी भाषाओं ने कभी राज नहीं किया।
भाषा की सदैव दो भूमिका रही है, जबकि होनी चाहिए एक ही। वो एक मात्र भूमिका है, एक दूसरे को समझने की-सम्प्रेषण की। मगर इस देश में भाषा की एक राज करने की भूमिका भी रही है। राज करने वाले की यानि कुलीन वर्ग की भाषा रही है जिसे हम कह सकते हैं ब्राहमणीकल फ्यूडलिज्म। उस समय से लेकर मुगलों तक जनता की भाषा एक थी। राज काज की भाषा दूसरी।
भाषा का एक ऑथोरिटेरियन रोल था। यानि राज काज करने की भूमिका। जो भाषा राज-काज की भाषा रही, वह कभी किसी जनता की भाषा नहीं रही। हमारे देश के लिए यह एक खास बात है और दुर्भाग्यपूर्ण भी, जैसे कहा जाये दो हजार साल पहले जनता की भाषा थी पाली, प्राकृत और अनेक उपभाषाएं, जिन्हें डाइलेक्टस भी कहते हैं। इन सब भाषाओं से पाणिनि ने अष्टाध्यायी लिखा। ग्रामर की रचना और एक प्रमाणिक भाषा का निर्माण किया जिसे संस्कृत कहते हैं। जिसका ब्राहमण शास्त्रों में इस्तेमाल किया गया। वैसे ही एक सत्ता की भाषा बनी जो किसी की भी मातृभाषा थी ही नहीं। बुद्ध ने अपने धम्मपद पाली में लिखकर चेतना से इसका विरोध किया।
अब आधुनिक काल में आयें तो अंग्रेजी सत्ता की भाषा बन गयी। हमारी कोई भी मातृभाषा कभी भी सत्ता की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी जो दुनिया के शासकों की भाषा है, दुनिया के साहित्य की गवाक्ष भी बन गयी। जो भी अंग्रेजी से आ रहा है वह हमें प्राप्त हो रहा है।

Tuesday, May 20, 2008

यमुना के बागी बेटे

यमुना के बागी बेटे कथाकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास है। यह उपन्यास रंवाई के ढंढक की पृष्ठभूमि में लिखा गया है।
रवांई का ढंढक की वह घ्ाटना 20 मई 1930 को घटी थी। यानि 23 अप्रैल 1930 को जहां एक ओर अंग्रेज फौज के सिपाही पेशावर में निहत्थे देशवासियों पर हथियार उठाने से इंकार कर चुके थे। वहीं उस घ्ाटना के महीने भर के भीतर ही टिहरी रियासत का दीवान चक्रधर जुयाल राज्य की जनता पर हथियार चला रहा था।
पर्यावरणविद्ध सुन्दरलाल बहुगुणा के आलेखों और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से इतिहासकार शिवप्रासद डबराल द्वारा लिखे उत्तराखण्ड का इतिहास भाग-8 में दर्ज रवांई के इस ढंढक की गाथा को देखा जा सकता है।

टिहरी में वन व्यवस्था से असन्तोष

1927-28 में राज्य टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गयी उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जानबूझकर अवहेलना की गयी। इससे वनोंे के निकट की ग्रामीण जनता में भारी असन्तोष फैला। परगना रवांई वनों की जो सीमा निर्धारित की गयी उसमें ग्रामीणों के आने जाने के मार्ग, खलीहान तथा पशुओं को बांधने के स्थान (छानी) भी वन की सीमा में चले गए। फलत: ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बन्द हो गए। वन विभाग की ओर से घोषणा की गई कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिए जा सकते। कई वर्ष पहले से ही वनों पर ग्रामीणो
के अधिकारों को रोककर उनके विक्रय से अधिकाधिक धनराशि बटोरने का क्रम चला आ रहा था। राज्स की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पति के अनतर्गत गिने जाते थे। इसलिए कोई भी व्यक्ति किसी भी अन्य किसी भी वस्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य प्राप्त नहीं कर सकता था। यदि राज्य की ओर से किसी व्यक्ति को राज्य के वनों से किसी वस्तु को निशुल्क प्राप्त करने की छूट दे दी जाती है तो इसे महराजा की ''विशेष कृपा"" समझना चाहिए। जो सुविधाऐं वनों में जनता को दी गई हैं, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकते हैं।

पशुचारण और कृषि के रोजगार पर निर्भर जनता के लिए अपने पशुओं के चारागाह बन्द हो गये। खेती के उपकरण, हल आदि जो विशेष जाति के वृक्षों से अनाए जाते थे, दुर्लभ हो गए। छप्परों को छाने के लिए बांस, घास और मालू आदि की पत्तियों एवे मालू के रेशों की की कमी हो गई। वनों पर निर्भर ग्रामीणों पर कठोर प्रतिबन्ध लगादेने से स्वभाव से ही उग्र एवं अदम्य स्वतंत्रताप्रिय रवांलटों का रुधिर खौलने लगा। जनता पूछती थी वन बन्द हो जाने से हमारे पशु कहां चरेगें ? सरकार की ओर क्षुद्र और विवेकशून्य कर्मचारी जवाब देते, "ढंगारों में फेंक दो।"

आंदोलन भड़क उठा

पूरे भारत में गांधी जी के आहवान पर जनता ब्रिटिश सरकार निर्मित विधि-विधानों को अदम्य उत्साह के साथ तोड़ रही थी। सरकार के विरुद्ध आंदोलनकारियों का जयजयकार सर्वत्र बड़ी श्रद्धा, उत्साह एवं आवेश के साथ किया जाता था। चकरोता में रवांई को जाने वाले मार्ग पर स्थित राजतर नामक स्थान पर लाला रामप्रसाद की दूकान पर समाचारपत्र आते थे, जिनमें देशभर में फैले हुए सत्याग्रह के समाचार छपते थे। रवांई के निवासी इन समाचारों को बड़ी उत्सुकता से पढ़ते और सुनते थे।
रवांई में साहसी व्यक्तियों ने वनों में अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन आरम्भ कर दिया। आंदोलन का नेतृत्व नगाणगांव के हीरासिंह, कसरू के दयाराम और खुमण्डी-गोडर के बैजराम ने सम्भाला। इनके पास समाचार पहुंचाते रहने की व्यवस्था लाला रामप्रसाद ने की। रवा्रई निवासियों ने अपनी आजाद पंचायत की स्थापना कर डाली। आजाद पंचायत की ओर से घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वाली प्रजा को वन सम्पदा के उपभोग का सबसे अधिक अधिकार है। रवांई वासियों ने अपनी समानान्तर सरकार की स्थापना कर ली। हीरासिंह को पांच सरकार और बैजराम को तीन सरकार कहा जाने लगा। रवाईं निवासियों ने वनों की नई सीमाओं को मानना अस्वीकार कर दिया। आजाद पंचायत की ओर से लोटे की छाप का मुहर के रूप में प्रयोग करके आदेश भेजे जाने लगे।
सारे रवांई में क्रांति की फैली हुई लहर को देखकर राजदरबार की ओर से भूतपूर्व वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को रवांई भेजा गया। रतूड़ी के सम्मुख आंदोलनकारियों ने मांग रखी वनों का हम लोग अब तक जिस प्रकार उपयोग करते थे, उसी प्रकार की सुविधाएं अब भी मिलनी चाहिए। ग्रमीणों की मांगों को जायज मानते हुए अपनी ओर से आश्वासन देकर रतूड़ी वापिस चले गये।
जब एक ओर समझौते की बातचीत चल रही थीए दूसरी ओर रवांई के अन्तर्गत राजगढ़ी के एसडीएम सुरेन्द्रदत के न्ययालय में आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर राज्य के वनों को हानि पहुंचाने के अपराध में अभियोग चलाया जा रहा था। यह अभियोग राज्य की ओर से वनविभाग के डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया था। एसडीएम ने आंदोलन के प्रमुख नेता दयाराम, रुद्रसिंह रामप्रसाद और जमनसिंह को दोषी पाया और उन्हें कारावास का दण्ड सुनाया।
पटवारी और पुलिस के साथ एसडीएम एवं डीएफओ 20 मई 1930 को आंदोलन के उन नेताओं जिन्हें सजा सुना दी गयी थी, को लेकर राजगढ़ी से टिहरी की ओर प्रस्थान कर गये। डण्डियाल गांव के नजदीक पहुंचे ही थे कि आंदोलनकारियों ने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए हमला कर दिया। दोनों ओर से जमकर गोलीबारी हुई। डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी की रिवाल्वर से निकली गाली से ज्ञानसिंह मारा गया। जूनासिंह एवं अजितसिंह भी मारे गये। बहुत से घायल हो गये। एसडीएम भी गाली लगने से घ्ाायल हुआ। पदमदत्त रतूड़ी जिसके पास रिवालर था, भाग गया। पुलिस वाले भी भाग गये। एसडीएम सुरेन्द्रदत्त को आंदोलनकारियों ने बन्दी बना लिया। अपने साथियों को छुड़ाकर आदोलनकारी राजतर ले गये। समाचार पाकर दीवान चक्रधर जुयाल ने रवांई के निवासियों को ऐसा पाठ पढ़ाने की सोची, जिसे वे कभी भूल न सकें। राजा यूरोप की यात्रा में गया हुआ था। दीवान ने संयुक्त प्रदेश के गवर्नर से आंदोलन के दमन करने के लिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो शस्त्रों का प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त कर ली। टिहरी राज्य की सेना का अध्यक्ष कर्नल सुन्दरसिंह जब प्रजा पर गोलियां चलाने के लिए प्रस्तुत न हुआ तो दीवान ने उसे हटाकर नत्थूसिंह सजवाण को राज्य की सेना का सर्वोच्च अफसर बनाकर ढंढकियों का दमन करने के लिए भेजा।
धरासू के मार्ग से राज्य की सेना राजगढ़ी पहुंची। सेना का मार्ग रोकने के लिए ग्रामीणों ने वृक्षों को काटकर सड़क पर गिराने की योजना बनाई थी। किन्तु इससे विशेष बाधा न पड़ी। थोकदार रणजोरसिंह अपने दलबल सहित मदिरा के घड़ों को लेकर सेना के स्वागत के लिए खड़ा था। रात्रि विश्राम के वक्त सेना ने जम के नाचरंग और मदिरापान का आनंद उठाया। थेकदार लाखीराम और रणजोरसिंह ने जिसे चाहा, पकड़वाया।
टगले दिन तिलाड़ी के मैदान में, चांदाडोखरी नामक स्थान पर आजाद पंचायत की बैठक हुई। जिसमें सेना के आगमन तथा समझौते की शर्तो पर विचार-विमर्श होने लगा। सेना ने घ्ाटनास्थल पर तीन ओर से घेरा डाल दिया। सेना में रवांई का ही एक सैनिक अगमसिंह था। उसने आगे बढ़कर आंदोलनकारियों को सचेत करना चाहा कि दीवान ने सीटी बजा दी। दीवान की सीटी की आवाज पर सैनिकों ने गोलियों की बौछार शुरु कर दी। प्राण बचाने के लिए कुछ जमीन पर लेट गये, कुछ पेड़ों पर चढ़ गए, कुछ ने जान बचाने के लिए यमुना में छलांग लगा दी। न जाने कितने मारे गये और कितने घायल। जान बचाकर यमुना में कूदने वालों पर चलायी गयी गोली से यमुना के पार सुनाल्डी गांव में सैनिकों की गाली से एक गाय भी मर गयी।
यमुना के बागी बेटों का यह ऐसा दमन था जिसकी खबरें प्रकाशित नहीं हुई। आंदोलन पर यकीन रखने वालों के व्यक्तिगत प्रयासों से कहीं कोई छुट-पुट कोशिश हुई भी तो खबर के फैलने से पहले ही ब्रिटिश हुकूमत गिरफ्तारियों को उतावली रही। यमुना के बागी बेटो का इतिहास तो किस्से कहानियों में ही दर्ज है।

Sunday, May 18, 2008

भगत सिंह : सौ बरस के बूढ़े के रुप में याद किये जाने के विरुद्ध

("ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रान्तिकारी विचारों की सुगन्ध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जायेगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे क्रान्ति के लिए पागल हो उठेगें। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब मुझे इस देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।"
भगत सिंह का यह कथन उनके साथी शिव वर्मा के हवाले से है। परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित भगत सिंह की जेल डायरी में शिव वर्मा जी ने अपने आलेख में उर्द्धत किया है।
पहल88 में प्रकाशित कवि राजेन्द्र कुमार की कविता को पढ़ते हुए जेल डायरी को पलटने का मन हो गया। यह कविता की खूबी ही है कि उसने भगत सिंह को जानने के लिए मुझे प्रेरित किया। पहल से साभार कवि राजेन्द्र कुमार की कविता आपके लिए यहां पुन: प्रस्तुत है।


मैं फिर कहता हूं
फांसी के तख्ते पर चढ़ाये जाने के पचहतर बरस बाद भी
'क्रान्ति की तलवार की धार विचारों की सान पर तेज होती है।"

वह बम
जो मैंने असेंबली में फेंका था
उसका धमाका सुनने वालों में तो अब शायद ही कोई बचा हो
लेकिन वह सिर्फ बम नहीं, एक विचार था
और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते

माना कि यह मेरे
जनम का सौ वां बरस है
लेकिन मेरे प्यारों,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढ़ों में मत ढूंढ़ों

वे तेईस बरस कुछ महीने
जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया में जिये
वे इन सौ बरसों में कहीं खो गये
खोज सको तो खोजो

वे तेईस बरस
आज भी मिल जाएं कहीं, किसी हालत में
किन्हीं नौजवानों में
तो उन्हें मेरा सलाम कहना
और उसका साथ देना ---

और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढ़ों से कहना
अपने बुढ़ापे का गौरव उन पर न्यौछावर कर दें

राजेन्द्र कुमार, फोन : 0532 - 2466529