Wednesday, January 6, 2010

और बुक हो गये उसके घोड़े- 4

 पिछले से जारी

चूंकि पानी नहीं है, इसलिए एक मात्र साधन है आगे बढ़ो। जहां पानी मिले वहीं पर लगायेंगे टैन्ट। धूप तेज पड़ रही है। नीचे से गर्म होती कंकरीट और मिट्टी हंटर शू के भीतर हमारे पावों को जला रही है। उपर से ठंड़ी हवा बह रही है जो हमारे चेहरे को फाड़ चुकी है। होठों पर और नाक पर कटाव के लाल लाल निशान है---कभी कभी पतला खून भी बह रहा है। धूल पूरे चेहरे और पिट्ठु पर जमा होती जा रही है। लगभग दस घन्टे चलने के बाद एक लम्बी दूरी तय कर पानी का पहला नाला मिला लेकिन जगह उबड़ खाबड़ थी। सो वहां से आगे बढ़ गये। गद्दी थांच है इसका नाम, जहां हम रूक गये। यह भेड़ वालों का दिया नाम है । शरीर बुरी तरह से थक चुका है। पानी न मिलने से थकान और भी ज्यादा बढ़ गयी। शाम के सात बज रहे हैं। सूरज अब भी चमक रहा है। यहां के पहाड़ों पर सूरज की पहली किरण सुबह 5.20 के आस पास ही दिखायी देती है और शाम के लगभग 7.20 तक चमकती रहती है। उसके बाद इतनी तेजी से डूब जाता है सूरज कि पन्द्रह मिनट पहले चमकती धूप को देखकर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल होता है कि मात्र आधे घंटे बाद ही अंधेरा घिरने लगेगा।
गद्दी थांच से आगे तो पहाड़ी मरूस्थल बर्फीली हवाओं को फैलाता रहता है। खम्बराब नदी का तट हमारा पड़ाव होगा। यूं गद्दी थांच से आगे खम्बराब दरिया तक कई सारे नाले हैं। मगर दो तीन नालों में ही पिघलती बर्फ बह रही थी। खम्बराब को देखकर डर लगता था, कैसे कर पाएंगे पार। फिरचे से आती एक नदी यहां खम्बराब से मिल रही है। इन दोंनों नदियों के मिलन स्थल से पानी का बहाव तो उछाल मारता दिख रहा है।
नाम्बगिल से अपने घोड़ों को खम्बराब में डाल दिया। पानी में लहर खाते घोड़े आगे बढ़ रहे हैं। आगे की ओर बढ़ते हुए घोड़े लगातार छोटे होते जा रहे हैं। दूसरे किनारे तक पहुंचते हुए गर्दन और पीठ पर लदा सामान भर ही दिखायी दे रहा था। घोड़ों की पीठ पर लदे सामान के किट भी आधा पानी से भीग गये। दरिया में बहते पानी को छुआ, वही चाकू की धार। बदन में सिहरन सी उटी। कैसे कर पायेंगें पार। क्या हाल होगा पांवों का इस ठंडे पानी में। मित्रों का कहना है हमें जूते नहीं उतारने चाहिए। पानी के ठंडे पन को पांवों के तलवे झेल नहीं पायेंगें ओर थोड़ी सी असावधानी भी किसी बड़ी दुर्घटना में बदल सकती है। घोड़ों को खम्बराब में डाल नाम्बगिल ने वाकई जोखिम उठाया था, अब नाम्बगिल पानी में उतर गया। बदन को संभालते हुए वह आगे बढ़ने लगा। दूसरा किनारा पकड़ते वक्त मात्र धड़ से उपर का हिस्सा ही दिख रहा था। इसका मतलब है उस किनारे पर गहराई और भी ज्यादा है । जूते पहने हुए ही हम पांचों साथी एक दूसरे के सहारे खम्बराब में उतर गये। थोड़ा आगे बढ़ने पर पांव मानो सुन्न हो रहे थे। पानी का बहाव इतना तेज था कि संभलने नहीं दे रहा था। संतुलन को बनाये रखते हुए एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हम आगे बढ़े। दूसरी ओर खड़ा नाम्बगिल अपने हाथों को आगे बढ़ाये , किनारे पहुंचते हम लागों को सहारा देता रहा। दरिया पार करने पर सारे कपड़े भीग गये थे। पांव एक दम सुन्न हो गये थे। जूते उतारने में बेहद कठिनाई हुई। खैर, जैसे तैसे जूते उतार कर पांवों के तलवों को मसल कर गरमी देते रहे। ट्रैक सूट का लाअर भीग चुका था। धूप तेज थी और हवा भी चल रही थी । लगभग आधे घंटे के बाद लोअर के सूखने का आभास होने लगा। नदी पार कैम्प गाड़ दिया गया। दो नदियों के बीच यह छोटा सा कैम्पिंग ग्राउंड बर्फिली चोटियों के एकदम नजदीक है। कैम्पिंग ग्राउंड से पश्चिम दिशा की ओर दिखायी देती बर्फिली चोटी शायद खम्बराब पीक हो। फिरचेन ला की ओर जाने वाला रास्ता उस नदी के किनारे किनारे है जो यहां खम्बराब दरिया से मिल रही है । कैम्पिंग ग्राउंड के आस पास साफ पानी का कोई भी स्रोत नहीं। खम्बराब में रेत ही रेत बह कर आ रहा है। जिसे खाना बनाने के लिए छानकर इस्तेमाल करना है। तब भी रेत तो पेट में पहुंचेगा ही। साफ पीये जाने वाले पानी के लिए नाम्बगिल और अमर सिंह तलाश में निकले। लगभग दो घन्टे के बाद एक एक लीटर की दो बोतलें भरकर लौटे। साफ पानी का स्रोत आस पास कहीं नहीं था। दूसरी नदी के किनारे काफी दूर जाकर साफ पानी मिला।
खम्बराब दरिया में जो दूसरा दरिया मिल रहा है, छुमिग मारपो से होता हुआ हमें फिरचेन ला के बेस तक ले जाएगा। दरिया के दांये किनारे से हम आगे बढ़ते रहे। लगभग दो घंटे की यात्रा करने के बाद जाना, दरिया के इस पार के पहाड़ पर चलते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता । दरिया पार करना ही होगा। पानी यहां भी कम नहीं लेकिन खम्बराब से कम ही है। यूं अभी सुबह के दस बज रहे हैं। खम्बराब को जब पार किया उस वक्त दिन के बारह बज रहे थे। हो सकता है उस समय तक इसमें भी पानी का बहाव पार किये गये दरिया के बराबर हो जाये। पहाड़ों नदी नालों की एक खास विशेषता है कि इन्हें सुबह जितना जल्दी पार करना आसान होगा उतना दिन बढ़ते बढ़ते मुश्किल होता जायेगा। शाम को किसी नाले को पार करना भी आसान नहीं होता। यही वजह है कि गद्दी थांच से खम्बराब पहुंचने के लिए हमें सुबह जल्दी चलना पड़ा था। ताकि जितना जल्दी हो खम्बराब को पार कर लें। दो बजे के बाद तो खम्बराब में बहता पानी दहश्त पैदा करने वाला था। फिरचेन ला के बेस की तरफ तक आते इस दरिया का हमने पार किया। पार होने के बाद पांवों के तलवों को गरम कर आगे बढ़ने लगे। अब दरिया हमारे दांये हाथ पर, रास्ता चढ़ाई भरा है। बहुत कम जगह है पहाड़ में। जगह जगह पिट्ठु के पहाड़ के टकराने का खतरा मौजूद है। हल्की संगीत लहरियों सी कदम ताल भर ही है हमारे आगे बढ़ने की। लगभग एक घन्टे का सफर तय कर वही लम्बा मैदान नजर आ रहा है जैसा कैलांग सराय से आगे बढ़ते हुए दिखायी देता रहा। यहां स आगे दूर तक देखने पर ऐसा लगता है जैसे आगे कोई रास्ता नहीं । दूर जा पहाड़ की दीवार दिख रही है बस वहीं तक हो मानो रास्ता, पीछे जहां से आ रहे हैं उधर देख कर भी ऐसा लग रहा है मानो वहां भी कोई रास्ता न हो। यूं पहाड़ में ऐसे दृ्श्य बनते ही है पर इधर लद्दाख के पहाड़ों में यह दृश्य आम बात है। हर एक धार के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी डिबिया में बन्द हो गये हैं। इन पहाड़ों पर आगे बढ़ने वाला ही जान सकता है आगे का रास्ता जो कहीं खत्म नहीं होता। यदि यूंही आगे बढ़ा जाए तो नापा जा सकता है दुनिया को जो आज सीमाओं में बंटी है। राहुल सांकृतयायन तो पहाड़ों को पार कर तिब्बत तक गये ही थे।       
फिरचे के बेस की तरफ बढ़ते हुए इन लम्बे मैदानों में भी पानी नहीं है। ''फिरचे के बेस में तांग्जे वालों का डोक्सा होगा।" बताता है नाम्बगिल। वहां पानी का स्रोत भी होगा ही। कारगियाक वालों का डोक्सा है शिंगकुन ला के बेस पर। तीन महीने तक अपने जानवरों के साथ डोक्सा में ही रहते है जांसकर वाले। बच्चे भी होते ही है उनके साथ।

फिरचे के बेस पर जो तांग्जे वालों का डोक्सा है, वहां तांग्जे वाले अपनी चौरू और याक के साथ मौजूद हैं। जांसकरी बच्चे घोड़ों पर सवारी कर रहे हैं। पहुंची हुई टीम के नजदीक टाफी रूपी मिठाई की उम्मीद लगाए जांसकरी बच्चे पहुंच रहे हैं। आठ-आठ, दस-दस साल के ये बच्चे, जिनमें लड़कियां ज्यादा हैं, चिल्लाते हुए, घोड़ों की पीठ पर उछल रहे हैं। ''जूले !! आच्चे बों-बोम्बे।" पिट्ठु के बहार निकाली टाफियां बच्चों को बांट दी गयी हैं। बड़ी ही उत्सुकता से बच्चे एक-एक चीज का निरक्षण कर रहे हैं। उन्हीं के बीच नाम्बगिल दोरजे का भांजा दस वर्षीय जांसकरी बालक गोम्पेल भी है। नाम्बगिल उनका अपना है। जांसकरी भाषा में वे नाम्बगिल से बातें कर रहे हैं। नाम्बगिल हमारे साथ हैं, इसलिए हमारे साथ भी उनकी नजदीकी दिखायी दे रही है। विदेशी टीम जो हमारे साथ केलांग सराय से चल रही है। उनके नजदीक जाने में बच्चे हिचक रहे हैं। नाम्बगिल के कहने पर गोम्पेल डोक्सा से दूध और दही पहुंचा गया है हमारे पास। दही का स्वाद अच्छा है। चौरू गाय की दूध की चाय पहली बार पी हमने।

जारी  ---

Saturday, January 2, 2010

उम्मीदों भरी एक शुरुआत

देहरादून

एक समय में उत्तराखण्ड ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी जन पक्षधर नुक्कड़ नाटकों की स्थापना के लिए सचेत देहरादून की नाट्य संस्था दृष्टि ने एक लम्बी खामोशी के बाद नये साल के पहले दिन जिस तरह से अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2010 देहरादून के रंग आंदोलन में एक हिलौर लाने वाला हो सकता है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान देहरादून के उन तमाम रंग कर्मियों को, जो एक समय तक नुक्कड़ नाटकों से परहेज करते रहे, सड़क पर उतारते हुए जो भूमिका दृष्टि ने उस वक्त निभाई थी, वह आज इतिहास हो चुकी है।

नब्बे के दशक में मंचीय नाटकों से हटकर दादा अशोक चक्रवर्ती, अरुण विक्रम राणा, कुलदीप मधववाल और विजय शर्मा जैसे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों ने दृष्टि की शुरुआत की थी। वह समय हिन्दी नाटकों में नुड़ नाटकों का शुरूआती दौर था। रंगकर्मी सफदर हाशमी और दर्शक के रुप में मौजूद कामरेड राम बहादुर की सहादत के दिन को नुक्क्ड़ नाटक दिवस के रुप में मनाने के लिए दृष्टि ने जन नाट्य मंच, दिल्ली, शमशूल इस्लाम और उनके साथी, बिहार के कई नाट्य ग्रुप, नैनीताल के नाट्य ग्रुप युवमंच जैसे दूसरे प्रतिबद्ध नाट्य ग्रुपों के साथ एक संवाद कायम किया और अपने सहोदर संगठनों के साथ लगातार मिलकर नुक्कड़ नाटकों की रंग यात्रा को एक मुकाम तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाई। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के उस संयुक्त संघर्ष के दौरान कई कारणों से विभ्रम की स्थितियों के चलते और राज्य निर्माण के बाद जो स्थितियां दिखाई दी, दृष्टि के साथियों को एक गहरी चुप्पी में ले जाने वाली रही। उस लम्बी चुप्पी की छाया को देहरादून के रंगमंच पर देखा भी जाता रहा। 1 जनवरी के दिन अपने बैनर और कविता पोस्टरों के साथ गांधी पार्क पहुंचे दृष्टि के साथियों ने जिस तरह से अपनी भूमिका को फिर से पहचाना है उससे देहरादून के रंग-आंदोलन में एक बहुत से गहरे उठती हलचल को हर कोई महसूस कर सकता था। सुबह 11 बजे से शुरू हुई पोस्टर प्रदर्शनी को देखने के लिए शहर के कई रंगकर्मी, साहित्यकार और नाटकों के वे दर्शक जो दृष्टि को उसके मिजाज से जानते रहे, दिन भर गांधी पार्क में मौजूद रहे। इप्टा, मसूरी के साथियों ने दृष्टि के मंच पर जनगीत और नाटक की प्रस्तुति दी। 
नुक्कड़ नाटक दिवस के अवसर पर अपने बैनर पोस्टरों के साथ पहुंचे धरातल नाट्य संस्था और ज्ञान विज्ञान जत्थे के साथियों ने भी कविता पोस्टर प्रदर्शनी, जनगीत और अपने नाटकों की प्रस्तुति से गांधी पार्क में हलचल मचाए रखी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए धरातल संस्था ने अपने छ दिवसीय, पोस्टर, जनगीत और नुड़ नाटक अभियान की शुरूआत गांधी पार्क से ही की। इस अवसर पर डा। अतुल शर्मा द्वारा लिखित जनगीत ''बादशाह गश्त पर है"" का एक एकल अभियन युक्त पाठ रंगकर्मी पवन नारायण रावत द्वारा किया गया। ज्ञान विज्ञान समिति के सतीद्गा धौलाखण्डी ने भी अपने युवा साथियों के साथ एकल गीत नाटिका का मंचन किया।
दृष्टि, धरातल और ज्ञान विज्ञान समिति की हलचल भरी इस उपस्थिति को लम्बे समय से बेचैनी भरी कसमसाहट को महसूस करते रंगकर्मी, दर्शक और सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन को उम्मीदों भरी निगाहों से सराहने वाले आखिर एक नई शुरुआत के रुप में ही देख रहे हैं।
ऐसा वहां मौजूद डा। जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रेम साहिल, डा। अतुल शर्मा, अरविन्द शेखर, जयंति सिजवाल, रंजना शर्मा, रेवा नन्द भट्ट, रमेश डोबरियाल, जगदीश बाबला, रेखा शर्मा, कमला पंत, बी बी थापा, जगदीश कुकरेती और दूसरे कई जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ-साथ दर्शकों के रुप में मौजूद लोगों की उपस्थिति से जाना जा सकता है।  

Thursday, December 31, 2009

शब्द का अर्थ मनुष्यता के बोध से ही खुल सकता है

हिन्दी दलितधारा अपने से पूर्व के साहित्य और इतर  रचनाओं पर, ब्राहमणवादी और समांती सरोकार से गुंजित होने का आरोप लगाती है, क्या उसे पूरी तरह से झुठलाया जा सकता है ?  हिन्दी का एक महत्वपूर्ण कवि शब्द की महिमा के बखान में, बेशक गप ही मारे चाहे, जब एक गरीब की बेटी को नग्न करके उसको अर्थों तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता हो और उस घटना को अपनी स्मृति के दम पर ज्यों का त्यों रखने वाला हिन्दी का एक महत्वपूर्ण लेखक जो शिक्षाविद्ध भी हो, बिना विचलित हुए लिखता हो तो फिर क्या कहा जा सकता है ? क्या उस पत्रिका को सवालों के घेरे से बाहर रखा जा सकता है (?) जिसमें यह आलेख बिना किसी सम्पादकीय टिप्पणी के प्रकाशित होता है।
प्रस्तुत है  कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित उस आलेख ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) का वह आपत्तिजनक अंश जिस पर कवि राजेश सकलानी ने सवाल उठाया है। कवि राजेश सकलानी की टिप्पणी पाठकों की सुविधा के लिए यहां पुनः प्रस्तुत है:


लेखक महोदय आपने शर्म कर दी

लेखक सिर्फ एक माध्यम है। लेखन मूलत: एक सामुदायिक-नैतिक क्रिया है। यह गहरी जिम्मेदारी की माँग करता है। शब्द मानव अस्मिता के प्रतिफल होते हैं। शब्द-चर्चा को शोध माना जाता है। थोड़ा सा खिलावाड़ भी सहज माना जा सकता है। लेकिन प्रतिष्ठित कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह त्रिलोचन पर लिखे अपने संस्मरण में "जोबन" शब्द पर लिखते हुए गरीब दलित महिला के सम्मान की चिंदि्या उड़ा देते हैं। आधार शिला पत्रिका के त्रिलोचन केन्द्रित अंक मेंप्रकाशित आलेख "एक विरोधाभास त्रिलोचन " में वर्णित घटना सच है या नहीं लेकिन त्रिलोचन के पिता से लेकर आज तक की सामन्ती सड़ांध का पता जरूर लग जाता है। लेखक ने जिस गैर-जिम्मेदारी से एक घृणित प्रकरण को लिखा है वह सदमे में डालने वाला है। त्रिलोचन पर केन्द्रित इस विशेषांक में विद्वान कवि त्रिलोचन और जाने-माने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। भर्त्सना के सिवाय कुछ नहीं सूझता है। पीड़ित बहन का हम दिल से समर्थन करते हैं।
-राजेश सकलानी



एक विरोधाभास त्रिलोचन
अब्दुल बिस्मिल्लाह

शब्द का अर्थ बोध से खुलता है, प्रत्यक्ष अनुभव से खुलता है, यह बात संभवत: त्रिलोचन जी के मन में तभी से बैठ गई थी जब वे अपने गांव चिरानी पट्टी में रहते थे और किशोर वय के थे। एक बार उन्होंने एक रोचक किस्सा सुनाया। (किस्सा कितना सच है, कहा नहीं जा सकता)। बोले, मुझे सुने-सुनाए लोकगीतों को गुनगुनाने में मज़ा आता था। एक दिन हुआ क्या, कि मैं एक लोकगीत गुनगुनाता हुआ खेतों की तरफ से घ्ार आ रहा था। उस गीत में एक शब्द 'जोबना" बार-बार आता था। घ्ार के बाहर का दृश्य यह था कि पिताजी (शायद) तखत पर बैठे थे। थोड़ी दूर पर ण्क किशोर वय की लड़की खड़ी थी। शायद वह हरवाहे की बेटी थी और कुछ मांगने आई थी। मलकिन का इंतजार कर रही थी। पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, जोबना क्या होता है, जानते हो ? (प्रश्न अवधी में था) मैं पहले तो चुप, फिर बोला, नहीं। पिताजी उठे, आगे बढ़े और लड़की के ब्लाउज़ को चर्र से फाड़ दिया। बोले, देख लो यह होता है जोबना। मेरी तो घिघ्घी बंध गई और मैं भाग खड़ा हुआ। तब से इस शब्द का इस्तेमाल करने से डरने लगा हूं। मुझे ध्यान नहीं कि त्रिलोचन जी ने अपनी रचनाओं में इस शब्द का इस्तेमाल किया है अथवा नहीं। और किया है तो कब, कहां और कैसे ? मगर त्रिलोचन जी की इस बात में बहुत दम है कि अर्थ तो बोध से ही खुलता है। 

Tuesday, December 29, 2009

लेखक महोदय आपने शर्म कर दी

लेखक सिर्फ एक माध्यम है। लेखन मूलत: एक सामुदायिक-नैतिक क्रिया है। यह गहरी जिम्मेदारी की माँग करता है। शब्द मानव अस्मिता के प्रतिफल होते हैं। शब्द-चर्चा को शोध माना जाता है। थोड़ा सा खिलावाड़ भी सहज माना जा सकता है। लेकिन प्रतिष्ठित कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह त्रिलोचन पर लिखे अपने संस्मरण में "जोबन" शब्द पर लिखते हुए गरीब दलित महिला के सम्मान की चिंदि्या उड़ा देते हैं। आधार शिला पत्रिका के त्रिलोचन केन्द्रित अंक में प्रकाशित आलेख "एक विरोधाभास त्रिलोचन" में वर्णित घटना सच है या नहीं लेकिन त्रिलोचन के पिता से लेकर आज तक की सामन्ती सड़ांध का पता जरूर लग जाता है। लेखक ने जिस गैर-जिम्मेदारी से एक घृणित प्रकरण को लिखा है वह सदमे में डालने वाला है। त्रिलोचन पर केन्द्रित इस विशेषांक में विद्वान कवि त्रिलोचन और जाने-माने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। भर्त्सना के सिवाय कुछ नहीं सूझता है। पीड़ित बहन का हम दिल से समर्थन करते हैं।

-राजेश सकलानी

Monday, December 28, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-3

पिछले से जारी

दारचा पुलिस चैकपोस्ट के ठीक सामने, उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुलकिला (पहाड़ की चोटी) झांक रही है। दारचा-केलांग रोड़ के किनारे काले-भूरे बड़े-बड़े पत्थरों का बिखरा होना गवाह है कि कभी सड़क के दक्षिण दिशा की ओर वाले पहाड़ के खिसकने से ही उनका जमावड़ा हुआ है। दारचा वाले बताते हैं कभी इस जगह पर गांव था जो पत्थरों के इस ढेर के नीचे दफ़न हो गया। यह बात कितने वर्ष पुरानी है, ठीक से मालूम नहीं। बस कहानी भर है पहाड़ के खिसकने की। वैसे नदी के किनारे बिखरे पड़े पत्थरों के ढेर को देख कर माना जा सकता है कि कहानी या दंत कथा नहीं सचमुच कोई इतिहास इसके नीचे दबा है। लेह से लद्दाख आते वक्त दारचा पहुंचने पर आनन्द जी के नाम लिखे गए अपने 2/10/1933 के एक पत्र में राहुल सांकृत्यायन भी जिक्र करते हैं इन पत्थरों के ढेर का,
''दारचा के पास बिखरी छोटी बड़ी चट्टानों का ढेर, जिस पर कहीं कहीं एक-आध देवदार के वृक्ष भी खड़े थे---बहुत समय पहले इसी स्थान पर एक बड़ा सा गांव था। जिसमें सैकड़ों घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्रित हो भोज कर रहे थे, उसी समस बड़ेलाचा की ओर से कोई वृद्ध आया, साधारण भोटिया समान। सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पॉति के नीचे की ओर कर दिया। सबसे अंत में एक लड़का बैठा था, उसने बूढ़े को अपना आसन दे, अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छंड; के बाद वृद्ध अर्न्तध्यान हो गया। लोगों ने नाच रंग शुरु किया। इसी इसी समय एक भारी तूफान आया, जिसके साथ लाखों भारी-भारी चट्टानें पहाड़ से गिरने लगीं, सारा गांव उनके अन्दर दब गया। तूफान ने उस लड़के को दरिया के पार कर दिया, जिसकी संतान अब भी वहां मौजूद है और शायद "ऐतिहासिक घटना" भी उसी की परम्परा से सुनी गयी।"

यूं पहाड़ के गिरने का कारण क्या रहा होगा, यह शोध का विषय हो सकता है पर इस कहानी से इस बात की पुष्टी तो होती ही है कि जरूर ही यहां कोई गांव रहा होगा जो मलबे के नीचे दबा है। देवदार के वृक्ष तो हमने नहीं देखे। पत्थरों पर अन्य किसी वनस्पति का चिह्न भी हमें दिखाई न दिया।
कारगियाक गांव का 25 वर्षीय युवा नाम्बगिल दोरजे हमारे साथ अपने घोड़ों को लेकर चलने के लिए तैयार हो गया। फिरचेन लॉ के रास्ते जांसकर जाने के लिए ज्यादातर घोड़े वालों ने मना कर दिया था। वे रास्ते में पड़ने वाले उस दरिया, जिसको भीतर उतर कर ही पार करना होता है, से भयभीत थे। दरिया का बहाव घोड़ों से हाथ धोने के लिए काफी है वहां, वे कहते रहे। नाम्बगिल दिलेर मालूम हुआ। बिना किसी हिचकिचाहट के उसने जाना स्वीकार कर लिया। अब हम पांच और नाम्बगिल को मिलाकर कुल छै के छै रास्ते की दुरुहता से अनजान दारचा से आगे निकल लिए- बारालाचा की ओर। केलांग सराय से शुरु होगा फिरचे जाने का रास्ता।

बारालाचा से नीचे भरतपुर, जहां टैन्ट होटल है, वहां से आगे बढ़ते हुए युनम नदी पर जहां लकड़ी का पुल है, वही केलांग सराय है। लेह मार्ग को दांहे किनारे छोड़ युनम नदी के साथ-साथ कुछ ही दूर बढ़े थे कि कैम्पिंग ग्राउंड दिखाई दे गया। यूं कैम्पिंग ग्राउंड तो केलांग सराय पर भी है। पर बस रोड़ के एकदम किनारे रुकना ठीक न लगा। ग्राउंड में इंग्लैण्ड से आए स्कूली बच्चों की एक टीम भी रुकी थी। पहुंचने पर मालूम हुआ कि हमसे एक दिन पहले ही वे यहां पहुंच गए थे। टीम में कुल 13 बच्चे हैं, सभी लड़कियां, उम्र 16 से 20 वर्ष के आस-पास। एक अध्यापिका और एक ब्रिटिश फौजी अफसर के साथ वे सभी बच्चे जांसकर की यात्रा पर हैं। केलांग सराय पहुंचने तक उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा। तीन लड़कियों की तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। इसीलिए वे अपनी अध्यापिका के साथ मनाली वापिस लौट जाएंगी। बचे रह गए बच्चे फौजी अफसर के साथ-साथ हमारे ही साथ अगले दिन फिरचेन लॉ को निकलेंगे और फिरचेन लॉ पार करने के बाद वे सिंगोला की ओर मुड़ जाएंगे जांसकर पहुंचने के लिए और हम तांग्जे से होते हुए उनके विपरीत दिशा में पदुम की ओर निकल जाएंगे। 15 सदस्य इस दल के साथ 20 घोड़े, मानली के आस-पास के गांव के चार घोड़े वाले, एक गाईड और एक कुक भी है।
कैम्पिंग ग्राउंड खूबसूरत है। सामने बहती हुई युनम नदी है। नदी पार लेह मार्ग और ऊंची- ऊंची चोटियां। भूरे काले रंग के पहाड़। इधर कैम्पिंग ग्राउंड के से ही उठना हो गई है चोटियां, जिन पर बर्फ जमी है। दोनों बाहों की ओर भी है चोटियां। उन पर भी बर्फ ही बर्फ। कुल मिलाकर बर्फ, पत्थर और रेतीली मिट्टी का साम्राज्य ही बिखरा पड़ा है चारों ओर। बीच में नदी है। टैन्ट के आस-पास कुछ छोटी-छोटी घास है, जिसे घोड़े चर रहे हैं। घोड़ा भी अजीब जानवर है। इसे कभी आराम करते नहीं देखा। या तो घास  चरता होगा या फिर पीठ पर बोझा लादे हमारे साथ चलता हुआ। हां, बोझे के उतरते ही एक बार ज़मीन दो तीन करवट लौटेगा और फिर बदन को झाड़कर आस पास के हरे तिर्ण पर मुंह चलाने लगेगा। मालूम नहीं यह जगह घोड़ों को भी उनकी थकान मिटाने वाली लग रही है या नहीं ?
केलांग सराय जिसे हम पीछे छोड़ आए, वहां से सर्चू 19 किमी दूर है। इधर हमें लगभग सर्चू के पास तक आगे बढ़ना है। पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाना है फिरचेन ला के लिए। बर्फीली हवाएं तेज बह रही हैं। हमारे गाल और होंठ जो दारचा में ही फटना शुरु हो गए थे, काफी फट चुके हैं। अब पानी में हाथ लगाना भी आसान नहीं है। युनम नदी में हाथ पांव धोने से पहले जेब में रखे रुमाल को धोने की गलती कर बैठा, ऐसा लगा किसी तेज चाकू की धार के नीचे हो हाथ। ठंडापन ऐसा कि तेज धार चाकू को भी मात कर रहा था। हाथ को तेजी से बाहर निकाल झटकता और मसलता ही रहा कि किसी कटे हुए घाव की सी चिरचिराहट खत्म होने का नाम ही न ले रही थी। ठंड में सिहरन होती है, यह कहना तो कतई सही नहीं लग रहा, कहूंगा की तेज चाकू की धार होती है। आगे ऐसी गलती न करुं शायद कभी भी।
केलांग सराय से आगे जाते हुए जाना कि पहाड़ी मरुस्थल क्या होता है। एकदम लाल-काली चट्टानें, जिनके नीचे तक लुढ़क कर आए हुए हैं पत्थर। उसके बाद रेतनुमा मिट्टी और उसी मिट्टी पर छितरातई हुई हल्की घास। केलांग सराय से आगे का पहाड़ी मरूस्थल तो पहाड़ के प्रति हमारी कल्पनाओं को पूरी तरह से ध्वस्त कर रहा है। एकदम सूखे पहाड़। लम्बे-लम्बे धूल भरे घास के मैदान। पानी का कहीं नामों निशान नहीं। प्यास के कारण गले सूखने लगे हैं। दारचा से सिंगोला पास वाले रास्ते पर भी यूं तो पहाड़ों पर सूखापन इसी तरह बिखरा रहता है पर उस रास्ते में पानी के लिए ऐसे तड़पना नहीं पड़ता। बड़े-बड़े बोल्डरों भरे उस रास्ते पर ऊपर से उतरते दरिया भी स्वच्छ पानी के साथ होते हैं। इस रास्ते पर उस तरह बोल्डरों भरा नजारा तो नहीं, सममतल ही है पर पानी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। गदि्दयों के बसेरों के आस-पास पानी के स्रोत होने चाहिए, इस उम्मीद में कितने ही उजाड़ पड़े बसेरों के आस-पास को छानते हुए बढ़ रहे हैं। पर अंजुली के गीलेपन के लिए भी पानी कहीं नहीं। घास के लम्बे मैदानों में टैन्ट तो कहीं भी लगाया जा सकता है पर पानी का स्रोत कहीं मौजूद नहीं तो फिर कैसे तय करें रुकने का। ऊपर पहाड़ों पर भी बर्फ कम ही दिखाई दे रही है। नाले सूखे पड़ें हैं। जगह-जगह सूखे नालों को देखकर लगता है कि जब पहाड़ों के सिर बर्फ से ढके रहते होंगे तो इस रास्ते से गुजरना आसान न होता होगा। जगह-जगह विभिन्न समय अंतरालों मे लगे कैम्पों के अवशेष दिखाई पड़ रहे हैं। ये गदि्दयों के बसेरे हैं। नाम्बगिल का कहना है इस बार बर्फ कम पड़ी बल्कि पिछले तीन-चार वर्षों से कम ही पड़ रही है। 1992 में जब हमारे कुछ साथी रोहतांग से बारालाचा की यात्रा पर थे, जून के दूसरे सप्ताह में यात्रा शुरु की थी, बर्फ इतनी ज्यादा थी कि तब तक रोहतंग खुला नहीं था। वह तो खुशकिश्मती समझो कि ऊपर से नीचे की ओर देखते हुए दूर सूरज ताल से निकलती नदी के किनारे-किनारे सड़क की झलक दिखाई दे गई थी, वरना उस वक्त तो वे बारालाचा के उस बर्फिले विस्तार में रास्ता भटक ही गए थे। अनाज भी, जो तय दिनों के हिसाब से रखा गया था, खत्म हो चुका था। बल्कि एक दिन पहले ही रास्ता खोजने में निबटा चुके थे। इस वर्ष तो मई में ही खुल गया था रोहतांग। 1997 में भी जब सिंगोला पास को पार कर रहे थे तब भी जांसकर सुमदो पार कर छुमिग मारपो की ओर बढ़ते हुए सिंगोला से काफी पहले ही मिल गई थी बर्फ। लेकिन इस साल तो बर्फ का वो नजारा दिख ही नहीं रहा। बारालाचा भी पत्थरों पर टकराती धूप को ही बिखेर रहा था।

जारी---