चूंकि पानी नहीं है, इसलिए एक मात्र साधन है आगे बढ़ो। जहां पानी मिले वहीं पर लगायेंगे टैन्ट। धूप तेज पड़ रही है। नीचे से गर्म होती कंकरीट और मिट्टी हंटर शू के भीतर हमारे पावों को जला रही है। उपर से ठंड़ी हवा बह रही है जो हमारे चेहरे को फाड़ चुकी है। होठों पर और नाक पर कटाव के लाल लाल निशान है---कभी कभी पतला खून भी बह रहा है। धूल पूरे चेहरे और पिट्ठु पर जमा होती जा रही है। लगभग दस घन्टे चलने के बाद एक लम्बी दूरी तय कर पानी का पहला नाला मिला लेकिन जगह उबड़ खाबड़ थी। सो वहां से आगे बढ़ गये। गद्दी थांच है इसका नाम, जहां हम रूक गये। यह भेड़ वालों का दिया नाम है ।
शरीर बुरी तरह से थक चुका है। पानी न मिलने से थकान और भी ज्यादा बढ़ गयी। शाम के सात बज रहे हैं। सूरज अब भी चमक रहा है। यहां के पहाड़ों पर सूरज की पहली किरण सुबह 5.20 के आस पास ही दिखायी देती है और शाम के लगभग 7.20 तक चमकती रहती है। उसके बाद इतनी तेजी से डूब जाता है सूरज कि पन्द्रह मिनट पहले चमकती धूप को देखकर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल होता है कि मात्र आधे घंटे बाद ही अंधेरा घिरने लगेगा। गद्दी थांच से आगे तो पहाड़ी मरूस्थल बर्फीली हवाओं को फैलाता रहता है। खम्बराब नदी का तट हमारा पड़ाव होगा। यूं गद्दी थांच से आगे खम्बराब दरिया तक कई सारे नाले हैं। मगर दो तीन नालों में ही पिघलती बर्फ बह रही थी। खम्बराब को देखकर डर लगता था, कैसे कर पाएंगे पार। फिरचे से आती एक नदी यहां खम्बराब से मिल रही है। इन दोंनों नदियों के मिलन स्थल से पानी का बहाव तो उछाल मारता दिख रहा है।
नाम्बगिल से अपने घोड़ों को खम्बराब में डाल दिया। पानी में लहर खाते घोड़े आगे बढ़ रहे हैं। आगे की ओर बढ़ते हुए घोड़े लगातार छोटे होते जा रहे हैं। दूसरे किनारे तक पहुंचते हुए गर्दन और पीठ पर लदा सामान भर ही दिखायी दे रहा था। घोड़ों की पीठ पर लदे सामान के किट भी आधा पानी से भीग गये। दरिया में बहते पानी को छुआ, वही चाकू की धार। बदन में सिहरन सी उटी। कैसे कर पायेंगें पार। क्या हाल होगा पांवों का इस ठंडे पानी में। मित्रों का कहना है हमें जूते नहीं उतारने चाहिए। पानी के ठंडे पन को पांवों के तलवे झेल नहीं पायेंगें ओर थोड़ी सी असावधानी भी किसी बड़ी दुर्घटना में बदल सकती है। घोड़ों को खम्बराब में डाल नाम्बगिल ने
वाकई जोखिम उठाया था, अब नाम्बगिल पानी में उतर गया। बदन को संभालते हुए वह आगे बढ़ने लगा। दूसरा किनारा पकड़ते वक्त मात्र धड़ से उपर का हिस्सा ही दिख रहा था। इसका मतलब है उस किनारे पर गहराई और भी ज्यादा है । जूते पहने हुए ही हम पांचों साथी एक दूसरे के सहारे खम्बराब में उतर गये। थोड़ा आगे बढ़ने पर पांव मानो सुन्न हो रहे थे। पानी का बहाव इतना तेज था कि संभलने नहीं दे रहा था। संतुलन को बनाये रखते हुए एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हम आगे बढ़े। दूसरी ओर खड़ा नाम्बगिल अपने हाथों को आगे बढ़ाये , किनारे पहुंचते हम लागों को सहारा देता रहा। दरिया पार करने पर सारे कपड़े भीग गये थे। पांव एक दम सुन्न हो गये थे। जूते उतारने में बेहद कठिनाई हुई। खैर, जैसे तैसे जूते उतार कर पांवों के तलवों को मसल कर गरमी देते रहे। ट्रैक सूट का लाअर भीग चुका था। धूप तेज थी और हवा भी चल रही थी । लगभग आधे घंटे के बाद लोअर के सूखने का आभास होने लगा। नदी पार कैम्प गाड़ दिया गया। दो नदियों के बीच यह छोटा सा कैम्पिंग ग्राउंड बर्फिली चोटियों के एकदम नजदीक है। कैम्पिंग ग्राउंड से पश्चिम दिशा की ओर दिखायी देती बर्फिली चोटी शायद खम्बराब पीक हो। फिरचेन ला की ओर जाने वाला रास्ता उस नदी के किनारे किनारे है जो यहां खम्बराब दरिया से मिल रही है । कैम्पिंग ग्राउंड के आस पास साफ पानी का कोई भी स्रोत नहीं। खम्बराब में रेत ही रेत बह कर आ रहा है। जिसे खाना बनाने के लिए छानकर इस्तेमाल करना है। तब भी रेत तो पेट में पहुंचेगा ही। साफ पीये जाने वाले पानी के लिए नाम्बगिल और अमर सिंह तलाश में निकले। लगभग दो घन्टे के बाद एक एक लीटर की दो बोतलें भरकर लौटे। साफ पानी का स्रोत आस पास कहीं नहीं था। दूसरी नदी के किनारे काफी दूर जाकर साफ पानी मिला। खम्बराब दरिया में जो दूसरा दरिया मिल रहा है, छुमिग मारपो से होता हुआ हमें फिरचेन ला के बेस तक ले जाएगा। दरिया के दांये किनारे से हम आगे बढ़ते रहे। लगभग दो घंटे की यात्रा करने के बाद जाना, दरिया के इस पार के पहाड़ पर चलते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता । दरिया पार करना ही होगा। पानी यहां भी कम नहीं लेकिन खम्बराब से कम ही है। यूं अभी सुबह के दस बज रहे हैं। खम्बराब को जब पार किया उस वक्त दिन के बारह बज रहे थे। हो सकता है उस समय तक इसमें भी पानी का बहाव पार किये गये दरिया के बराबर हो जाये। पहाड़ों नदी नालों की एक खास विशेषता है कि इन्हें सुबह जितना जल्दी पार करना आसान होगा उतना दिन बढ़ते बढ़ते मुश्किल होता जायेगा। शाम को किसी नाले को पार करना भी आसान नहीं होता। यही वजह है कि गद्दी थांच से खम्बराब पहुंचने के लिए हमें सुबह जल्दी चलना पड़ा था। ताकि जितना जल्दी हो खम्बराब को पार कर लें। दो बजे के बाद तो खम्बराब में बहता पानी दहश्त पैदा करने वाला था। फिरचेन ला के बेस की तरफ तक आते इस दरिया का हमने पार किया। पार होने के बाद पांवों के तलवों को गरम कर आगे बढ़ने लगे। अब दरिया हमारे दांये हाथ पर, रास्ता चढ़ाई भरा है। बहुत कम जगह है पहाड़ में। जगह जगह पिट्ठु के पहाड़ के टकराने का खतरा मौजूद है। हल्की संगीत लहरियों सी कदम ताल भर ही है हमारे आगे बढ़ने की। लगभग एक घन्टे का सफर तय कर वही लम्बा मैदान नजर आ रहा है जैसा कैलांग सराय से आगे बढ़ते हुए दिखायी देता रहा। यहां स आगे दूर तक देखने पर ऐसा लगता है जैसे आगे कोई रास्ता नहीं । दूर जा पहाड़ की दीवार दिख रही है बस वहीं तक हो मानो रास्ता, पीछे जहां से आ रहे हैं उधर देख कर भी ऐसा लग रहा है मानो वहां भी कोई रास्ता न हो। यूं पहाड़ में ऐसे दृ्श्य बनते ही है पर इधर लद्दाख के पहाड़ों में यह दृश्य आम बात है।
हर एक धार के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी डिबिया में बन्द हो गये हैं। इन पहाड़ों पर आगे बढ़ने वाला ही जान सकता है आगे का रास्ता जो कहीं खत्म नहीं होता। यदि यूंही आगे बढ़ा जाए तो नापा जा सकता है दुनिया को जो आज सीमाओं में बंटी है। राहुल सांकृतयायन तो पहाड़ों को पार कर तिब्बत तक गये ही थे। फिरचे के बेस की तरफ बढ़ते हुए इन लम्बे मैदानों में भी पानी नहीं है। ''फिरचे के बेस में तांग्जे वालों का डोक्सा होगा।" बताता है नाम्बगिल। वहां पानी का स्रोत भी होगा ही। कारगियाक वालों का डोक्सा है शिंगकुन ला के बेस पर। तीन महीने तक अपने जानवरों के साथ डोक्सा में ही रहते है जांसकर वाले। बच्चे भी होते ही है उनके साथ।
फिरचे के बेस पर जो तांग्जे वालों का डोक्सा है, वहां तांग्जे वाले अपनी चौरू और याक के साथ मौजूद हैं। जांसकरी बच्चे घोड़ों पर सवारी कर रहे हैं। पहुंची हुई टीम के नजदीक टाफी रूपी मिठाई की उम्मीद लगाए जांसकरी बच्चे पहुंच रहे हैं। आठ-आठ, दस-दस साल के ये बच्चे, जिनमें लड़कियां ज्यादा हैं, चिल्लाते हुए,
घोड़ों की पीठ पर उछल रहे हैं। ''जूले !! आच्चे बों-बोम्बे।" पिट्ठु के बहार निकाली टाफियां बच्चों को बांट दी गयी हैं। बड़ी ही उत्सुकता से बच्चे एक-एक चीज का निरक्षण कर रहे हैं। उन्हीं के बीच नाम्बगिल दोरजे का भांजा दस वर्षीय जांसकरी बालक गोम्पेल भी है। नाम्बगिल उनका अपना है। जांसकरी भाषा में वे नाम्बगिल से बातें कर रहे हैं। नाम्बगिल हमारे साथ हैं, इसलिए हमारे साथ भी उनकी नजदीकी दिखायी दे रही है। विदेशी टीम जो हमारे साथ केलांग सराय से चल रही है। उनके नजदीक जाने में बच्चे हिचक रहे हैं। नाम्बगिल के कहने पर गोम्पेल डोक्सा से दूध और दही पहुंचा गया है हमारे पास। दही का स्वाद अच्छा है। चौरू गाय की दूध की चाय पहली बार पी हमने।जारी ---












