Thursday, October 13, 2016

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की

उत्तराखण्ड के इतिहास को केन्द्र में रखकर रचनात्मक साहित्य सृजन में जुटे डॉक्टर शोभाराम शर्मा की कोशिशें इस मायने में उल्लेखनीय है कि गाथाओं, किंवदतियों, लोककथाओं और मिथों में छुपे उत्तराखण्ड के इतिहास को वे लगातार उदघाटित करते रहना चाहते हैं। उनकी डायरी के पन्‍नों में झांके तो उनके विषय क्षेत्रों से वाकिफ हो सकते हैं । 1950 के दशक में उन्‍होंने कुछ गढ़वाली लोकगीतों के हिन्दी काव्यानुवाद भी किए जो अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं। यहां प्रस्‍तुत हैं उनकी उस पुरानी डायरी का एक पन्‍ना । 
वि.गौ.

चेल्यो या झुमैलो....



तैल देश कि चेल्यो मैल देश आवो...
मैल देश कि चेल्यो तैल देश जावो...
लम्बी बणाट्यूं  या झुमैलो......
जैंकु बाबा ह्वालू चेल्यो या झुमैलो
जैंकु बाबा ह्वालू लत्ता म्वलालू
जैंकु इजु ह्वेली चेल्यो या झुमैलो....
जैंकु इजु ह्वेली कल्यो पकाली
जैंकि भौजी ह्वेली मुंड मलासली
जैंकु भाई ह्वालू चेल्यो या झुमैलो....
जैंकु भाई ह्वालू बोजी भ्वरालू
जैंकु बाबा ह्वालू आंगड़ी सौंपालू
निमैतु वली दणमण र्वेली
चेल्यो या झुमैलो..

 

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
याद म मैताकि ब्वे कु जु नि झूरली
आंख्यों म आंसू कि ब्वे धार ब्वागली
मैतु आई गौली ब्वे बेटीब्वारी गौं की
मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
काफलों की डाली ब्वे लाल बणी ह्वेली
कुखली भोरिक ब्वे दीदीभुली खाली
फूलिं मैं बुरांस ब्वे बांज गैना मौली
जुग मुग रति ब्वे गांदी गांदी जाली
हिंस्वलो की खोज ब्वे फजलेक खाली
मेरी जिकुड़ी............
ल्वखु कि बेटी आली ब्वे देख पूस मैना
बौड़ीबौड़ी आली ब्वे भाऊ मैना
मैत्वड़ा बुलाली ब्वे, ब्वेई ह्वेली जौंकी

 

मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की
 घुघुती घूरद ब्वे जोड़ी छूटी जैंकी
घुघुती घूरद ब्ले जिकुड़ी झूरद
यखुली यखुली ब्वे उदासी लगद
मेरी जिकुड़ी .....................
सब्बि जागा खुशि ब्वे झूरी बिन स्वामी
आश मेरी मोरी ब्वे कब आला स्वामी
रौल्यों-रौल्यों पाणि ब्वे डांड्यों कुयड़ों होली
सौंण भादो आंखो ब्वे बेटी तेरी र्वेली
मेरी जिकुड़ी .....................
बुबा जी ल खैंईं ब्वे रुपया भोरी थाली
सबि झुरांदा छैं ब्वे दींदी भारी गाली
पता नि कै देश ब्वे स्वामी चली गैना
कर्जा चुकाड़ कु ब्वे रुणि कैरी गैना
पिताजी व द्याखु ब्ले अपुणु स्वारथ
गाजू म्यारू ध्वाटू ब्वे अपुणु स्वारथ
मनकभी आंद ब्वे ढंढी पोड़ी जौऊं
इन दुख सेत ब्वे जान घाई दीऊं
मेरी जिकुड़ी .....................
हिंल्वसि बसद ब्वे जिकुड़ी झूरद
आंखि सूजि गैना ब्वे  आंसू  सूखा रूंद
भाग हैंका हथु ब्ले भाग रुणि वींकी
मेरी जिकुड़ी ....

 

बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...


बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...
गैड़ी छैं झुमक.....
डांड्यों कूड़्यों घाम बौ..गद्यरि रुमक
अस्यली को पूच...
ये मैना हेर फेरि पलि मैना कूच...
धम्यलि क तैतू....
ये मैना हेर फिर मैरि बौ..पलि मैना मैतु...
तमखू कू ख्यारू..
त्वे ह्यरिदि, ह्यरिदि बौ...कख म्वार त्यारू
संगाड़ की बीछी
अगि बटी द्वाड़ा दी मैंची,
 अब केल खाई गिच्चि
बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ..

चेल्यो या झुमैलो..


अपनीअपनी मातृ-धरा से ,

दूर कहीं तुम पार शिखर से।

निम्न देश से उत्तर पथ को,

उत्तर पथ से निम्न देश को ।

चलो सुहागिन ललनाआे

लम्बेलम्बे खेतों में से,

हलधर तीखी आवाजों से .

अपनेअपने आकुल मन को,

बहलाएं कुछ ठहरा हल को।

चलते,चलते छवि मुड़ देखो,

सजी सुहागिन ललनाआें

वसन बनायें भागिन किनके,

पिता अभी हो जीवित जिनके

जननि आंचल कल्यो धरेगी

बंधु प्रिया नत माथ मलेगी

पलकें गीली पोंछ विदा लो

बोजी भरते बंधु कहेंगे

और भरें यदि प्राण रहेंगे

लेकिन कोई सगा न जिनका

रोये जीभर, भार व्यथा का

उसे अकेला ही सहना है

चलो सुहागिन ललनाआे




मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की



मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा

जननि गेह से दूर अभागिन

पीड़ा सी उठती मन से

क्यों न बहे फिर नीर नयन से

दूर जननि के आंचल से

ललनाएं आ पहुंची होंगी

अपनी मां की गोदी में

पीड़ा मैं भी सह लेती पर

बेबस आंसू आंखों में

हंसती रोती वह भावों में

चूमें अपनी बेटी को

लेकिन जननि कहां तू ,

छोड़ अकेली बेटी को

झुके वनों में होंगे काफल

लाल रसीले दानों से

आंचल भर-भर खाएं साथिन

जीभर के अरमानों से

हरित सुनीली वन आभा में

जगमग तारे से नभ के

लाल बुरांसी फूल खिले औ

प्योलि किरण नवजीवन के

स्वच्छ केशरी मंजुल कोंपल

उगे बांज के ुमदल में

सरस हिंसोली पके हुए मां

झुके हुए नत भूतल में

उषा विहंसती देख किसी को

जग जगती से कुछ पहिले

चली फलों की टोह लिए और

रागिनि मुख से झर निकले

शीत शिशिर का बीतेगा दिन

किनका मां की गोदी में

चली चलें फिर प्रियतम के घर

रोकर पावन गोदी में

माता जीवित होंगी जिनकी

अपने पास बुलाएंगी

पीहर के दुख भूल अभागिन

अपना मन बहलाएंगी

मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा




मेरी जिकुड़ी म ब्वे कुयड़ी सिलौं की


मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा

ऊब उठी एकाकीपन से

मां इस तन से जीवन से

पूछे कोई अंतर्पीड़ा

आहत घुघुती विरहन से

नियति नटी के हर अंगों में

अल्हड़ यौलन छाया सा

किंतु विरह की दावानल में

जली लता सी मम आशा

नद नालों में पानी बहता

धवलित कुहरा शिखरों में

लेकिन तेरी सुता कहीं मां

सावन भादो आंखों में

मिटी पिता के कर कमलों से

आज त्रिहणी पतिदेव हुए

सभी कोसते इंगित कर मां

हाय भला फिर कौन जिए

पता न प्रियतम कहां चले औ

सूना यौवन रोता सा

आह प्रणय के स्वर्णिम पट पर

अंकित मुक्ता बाधा सा

बेच सुता को बने पिता तुम

निपट अहं स्वारथ प्रेरा

अपने हाथों गला घोटकर

भार किया जीवन मेरा

हूक कभी यह उठती मन में

आत्म घात कर डालूं मां

जीवन फीका दुख भारों से

जीवित रहना बोझिल मां

हृदय चीरता रोदन जिसका

ङ्क्षहल्वसि रोती है वन में

फूल गई हैं आंखें मेरी

हाय नहीं आंसू जिनमें

 भाग्य नहीं निज कर में जिसका

अपना उसका जीवन क्या

आंसू ही धन वैभव जिसका

शोषित जन का जीवन क्या

मेरे मानस तल में फैला

आह घनीला कुहरा सा

विजन विपिन का अंधकार सा

सूनासूना गहरा सा






बौ दगडय़ा बौ.... उठी जा बौ...

 

चली लालिमा थकीथकी सी

ऊंचेऊंचे गिरि श्रृगों में

झुटपुट संध्या गहरीगहरी

निचली घाटी सरिता तट में

चलें गेह को भली न देरी

बंधु प्रिया हे साथिन मेरी

इतनी आकुल होना भी क्या

इतना पलपल रोना भी क्या

ठहरो माह गुजरने भी दो

यादों ही में खोना भी क्या

जननि गेह  को अभी न देरी

बंधु प्रिया........

मरी कहां तुम जीभर रोने

यहां अकेली फिरती हूं मैं

छिपी कहां तुम जी बहलाने

ढूंढा लेकिन हार चुकी मैं

बंधु प्रिया..............

अभीभी तो उत्तर देती

थी तुम मेरी आवाजों का

लेकिन अब चुप नीरव हो क्या

रोना रोती गत बातों का

किसने हर ली वाणी देरी

बंधु प्रिया...........

Monday, October 3, 2016

क्लिक्टिविज़्म

चाय की प्याली में तूफ़ान


यादवेन्‍द्र 


अभी अभी ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने अपने नए एडिशन में करीब बारह सौ नए शब्द सम्मिलित किये हैं।संपादकों का कहना है कि नीतिगत तौर पर आम तौर पर वे कोई नया  शब्द तब स्वीकार करते हैं जब दस सालों तक उसका सार्वजनिक प्रयोग करने की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ उनतक पहुँचती हैं। अभी शामिल नए शब्दों में एक शब्द है "क्लिक्टिविज़्म" (cliktivism) जिसका अर्थ है बगैर किसी सीधे प्रत्यक्ष प्रदर्शन में हिस्सेदारी किये इंटरनेट या सोशल मीडिया के प्रचलित उपकरणों के माध्यम से किसी राजनैतिक या सामाजिक मुद्दे का समर्थन करना।अनेक विचारक विरोध प्रदर्शन के इस मार्केटिंग औजार को लोकतंत्र के लिए प्रतिगामी मानते हैं क्योंकि यह आम आदमी को पारम्परिक ( जो सदियों से आजमाया हुआ कारगर तरीका भी है ) शैली के एक्टिविज़्म से विमुख करता है।प्रसिद्ध इतिहासकार रॉल्फ़ यंग ( जिनकी किताब "डिसेंट : द हिस्ट्री ऑफ़ ऐन अमेरिकन आइडियल" हाल में खूब चर्चा में आयी है)कहते हैं कि "टेक्नॉलॉजी प्रतिरोध का महत्वपूर्ण औजार है पर इन दिनों यह देखने में आया है कि कुछ लोग "क्लिक्टिविज़्म" जैसी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं - किसी बात के पक्ष में "लाइक" क्लिक कर के समर्थन व्यक्त करते हैं -पर यह कृत्य कुछ हज़ार लोगों के सड़क पर निकल कर डंडे और आँसू गैस की मार झेलते हुए विरोध प्रदर्शन करने की कतई बराबरी नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि ऐक्टिविस्ट और मिलिटेंट लोगों को टेक्नॉलॉजी का सोच समझ कर और जमीनी तौर पर असर पैदा करने वाले ढंग से उपयोग करना चाहिए। "