पिछले दिनों कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ को विवाद में घसीटकर पाठ्यक्रम से उसे बाहर निकलवाने का जो षड़यंत्र सामने आया। उसकी तीखी प्रतिक्रिया हिंदी समाज में हुई। बहस में ‘जूठन’ ही नहीं अन्य दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं के भी इस पहलू को उजागर किया गया कि आत्मकथाओं में एक व्यक्ति के जीवन के ब्योरे भर ही जगह नहीं पाते, बल्कि समाज व्यवस्था की पर्तें भी ज्यादा प्रमाणिक रूप से खुलती हैं। वाल्मीकि जी की आत्मकथा पर लिखी गयी टिप्पणी को आगे भी इस ब्लाग में पढ़ा जाना संभव होगा। अभी तो वाल्मीकि जी के सबसे घनिष्ट पारिवारिक मित्र कथाकार मदन शर्मा जी आत्मकथा में आए प्रसंगों पर कुछ बात करना ही उचित लग रहा है। कवि एंव आलोचक गीता दूबे ने हाल ही प्रकाशित इस आत्मकथा ‘’उन दिनों’’ के उन पक्षों को रेखाकिंत किया है जिसका वास्ता देश विभाजन की दास्तान से है। इस रचनात्मक सहयोग के लिए गीता दूबे जी का आभार। उनका यह आलेख न सिर्फ इस ब्लाग को समृद्ध कर रहा है, अपितु आत्मकथाओं के लिखे जाने औचित्य को भी महत्वपूर्ण मान रहा है।
वि. गौ.
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सहजतापूर्ण आत्मीय अभिव्यक्ति से सराबोर आत्मकथा :
उन दिनों (मदन शर्मा)
गीता दूबे
आत्मकथाएं लिखी क्यों जाती हैं, इस पर सोचने बैठें तो कई बातें दिमाग़ में चक्कर लगाने लगती हैं। किसी की आत्मकथा पढ़कर भला हमें मिलने क्या वाला है ? लेकिन इसके बावजूद आत्मकथाएं लिखीं और पढ़ी जाती हैं । इसके पीछे जहां एक ओर अपनी कहानी लोगों को सुनाने की ख्वाहिश काम करती है तो दूसरी ओर किसी और के बारे में जानने का कौतूहल भी अहम भूमिका निभाता है। 'बिग बास' जैसे धारावाहिकों का निर्माण भी इस मानवसुलभ जिज्ञासा या कौतूहल को भुनाने के लिए ही हुआ है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी सिर उठाता दिखाई देता है कि जब भी कोई रचनाकार अपनी आत्मकथा लिखता है तो उसके पीछे उसका उद्देश्य क्या होता है। खुद को उधेड़ना या छिपाना। अगर उधेड़ना तो कितनी निर्ममता से और छिपाना तो भला क्यों, क्योंकि जब आपबीती सुनाने की ठान ही ली है तो फिर लुकाछिपी का खेल भी क्यों खेलना? लेकिन यह खेल खेल जाता है और पूरे कौशल के साथ। जिस तरह अदालत में गीता पर हाथ रखकर झूठी कसमें बेशर्मी से खाईं जाती हैं ठीक उसी तरह आत्मकथा लेखक भी बड़े मजे से मनगढ़ंत गप्पे कुछ इस अंदाज में हांकता है कि सजग पाठक ही नहीं रचनाकार के समकालीन लेखक भी हतप्रभ-से रह जाते हैं। इसी कारण बहुत सी आत्मकथाएं झूठ का पुलिंदा साबित नहीं तो घोषित जरूर हो जाती हैं और उनके प्रकाशन के साथ ही बहस का तूफान उठ खड़ा होता है। लेकिन इसके साथ यह भी कहना चाहूंगी कि कई बार ये बहसें प्रायोजित भी होती हैं जिनका उद्देश्य रचना विशेष को समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में हिट या फिट करना होता है। बहुधा आत्मककथा लेखक अपनी उपलब्धियों का डंका तो जोर- शोर से पीटते हैं और अपने संघर्षों की कथा भी बहुत दर्दभरे अंदाज में बयां करते हैं लेकिन अपनी जिंदगी के बहुत से पन्नों को अंधेरे में रखने का खेल भी बेहद कुशलता से खेलते हैं। वहीं कुछ तथाकथित बोल्ड लेखक जानबूझकर कुछ सनसनीखेज खुलासों को परोसने के लिए ही आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाते हैं। जाहिर है कि इन खुलासों में बहुत से जाने-पहचाने चेहरे भी शामिल होते हैं और लेखक खुद भी कटघरे में खड़ा होने की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन बदनाम गर हुए तो नाम भी तो होगा की तर्ज पर कुछ साहसी (?) रचनाकार यह जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। तो क्या जिस लेखकीय तटस्थता की बात बार- बार कही जाती है वह 'आत्मकथा' में संभव है ? कविता, नाटक, कथा साहित्य या फिर अन्य साहित्यिक विधाओं में लिखते हुए तो लेखक फिर भी तटस्थ हो सकता है लेकिन आत्मकथा में तो उसका स्व इस कदर घुला मिला होता है कि तटस्थ होना बेहद मुश्किल होता है और इसी कारण बहुत से रचनाकार आत्ममुग्धता के शिकार होकर आत्मप्रशंसा और परनिंदा पर उतर आते हैं। कहीं -कहीं तो भावुकता की चाशनी इतनी गाढ़ी हो जाती है कि तथ्य उसमें डूब जाते हैं। खैर आत्मालोचन के साथ- साथ जग की पड़ताल और अपने समय का दस्तावेजीकरण करती हुई आत्मकथाएं भी लिखी गयी हैं जो सिर्फ साहित्य न ह़ोकर इतिहास का हिस्सा भी बन जाती हैं । भारतीय संदर्भ में गांधी और नेहरू की आत्मकथाएं तो उल्लेखनीय हैं ही। कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'एक जिंदगी काफी नहीं' भी एक महत्वपूर्ण और पठनीय आत्मकथा है।
फिलहाल मैं बात करना चाहूंगी हाल ही में प्रकाशित साहित्यकार मदन शर्मा की आत्मकथा 'उन दिनों' का जिसकी सहजता ने बरबस मुझे आकर्षित किया और एक बैठक में पढ़वा भी लिया। हालांकि मदन शर्मा मेरे लिए चर्चित और परिचित नाम नहीं था लेकिन आत्मकथा के दो एक पन्ने पलटते -पलटते कब मैं इसे पूरा पढ़ गयी पता ही नहीं चला । सवाल है कि ऐसा कैसे होता है। बहुधा आप बहुत से महान रचनाकारों की बेहद बेहद चर्चित, पुरस्कृत रचानाओं की प्रसिद्धि की अनुगूंज से प्रभावित होकर उन्हें पढ़ना शुरू तो करते हैं लेकिन पूरा पढ़ नहीं पाते। और खुद को कोसते भी हैं कि कमी शायद कहीं न कहीं अपनी समझ में होगी जो इस दुर्लभ रस का आस्वादन कर पाने में असमर्थ है। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जिनके नाम का चर्चा या डंका भले न गूंज रहा हो पर वे साहित्य के परिदृश्य पर इतने हौले से अपनी जगह बना लेती हैं जैसे शक्कर दूध में और नमक सब्जी में घुल जाता है। जिसकी उपस्थिति के बिना सब कुछ बेस्वाद हो जाए यह बात और है कि उस उपस्थिति का कोई नोटिस ले या न ले पर उसकी कमी से सब कुछ अधूरा-अधूरा सा जरूर लगने लगे।
मदन जी की आत्मकथा की सबसे बड़ी खासियत है इसकी सहजता
और वही तटस्थता जो किसी भी रचनाकार के
लिए एक चुनौती की तरह होती है। मदन शर्मा ने इस कला
को बड़ी सहजता से इसे साध लिया है। जब वह अपनी तकलीफों,
संघर्षों
या अभावों की बात करते हैं तो कहीं भी अश्रुविगलित भावुकता की तैलीय परत तैरती नजर
नहीं आती। वह इतने सहजता से अपने संघर्षों को उकेरते हैं जैसे अपनी नहीं किसी और
की बात कर रहे हैं। और रही बात उधेड़ने की तो अपने पूरे परिवेश के साथ- साथ वह अपने
परिवार, रिश्तेदारों आदि को भी बेबाकी से तो उधेड़ते ही हैं खुद अपने आपको
भी
नहीं बख्शते। अपने पिता का चित्र खींचते करते हुए
उनके जेलर जैसे व्यवहार का जिक्र करते हैं तो उनके कोमल पक्षों की ओर
भी इंगित करते हैं। कोई भी रचनाकार जब
अपनी आत्मकथा लिखता है तो दो तरह की मनोवृत्तियां दिखाई देती हैं ,
एक
तो वह अपने परिवार, कुल या खानदान की गौरवशाली परंपरा के
माहात्म्य का वर्णन करते नहीं अघाता दूसरी ओर वह अपनी दीनता के ऐसे चित्र खींचता
है कि पाठक के मन में रचनाकार के प्रति दयामिश्रित सहानुभूति जैसा भाव उत्पन्न
होने लगता है। साथ ही कहीं न कहीं इस लेखन के पीछे खुद को महान समझने या समझाने की प्रेरणा भी काम
करती है लेकिन मदन शर्मा जी की आत्मकथा इस मायने में जुदा है कि वहां किसी प्रकार
की आत्ममुग्धता या आत्मप्रशंसा की कोई भावना दिखाई नहीं देती।
वह
पहले ही खुद से सवाल करते हैं कि "मैं यह राग क्यों
अलापने लगा हूं ? क्या होगा इससे ? किसी को क्या मतलब,
मुझे
बचपन में किस किस ने दुलारा, पुचकारा या लताड़ा..."(पृ.11)
लेकिन
इसके बावजूद लेखक अपने बचपन से लेकर अपने विवाह तक की कथा को इतने सहज और दिलचस्प तरीके से बयां
करता है कि साधारण पाठक को भी इस रचना को पढ़ते हुए किसी उपन्यास को पढ़ने जैसा
आनंद मिलता है। अपने परिवार की समृद्धि के दिनों का वर्णन करते हुए पारिवारिक झगड़ों
और पारिवारिक सदस्यों की आपसी तनातनी का वर्णन भी दिलचस्प अंदाज में पर बेहद निस्पृह ढंग से करते हैं। कभी
-कभी यह निस्पृहता ऐसी लगती है मानो लेखक आपबीती नहीं कोई रोचक किस्सा सुनाने बैठा है। अपने
परिवार में पिता- चाचा के झगड़े हों या स्त्रियों की
दुर्दशा या फिर विभिन्न पारिवारिक सदस्यों की खामियां और खूबियां,
इन
सभी का वर्णन मदन जी जीवंतता से करते हैं जिन्हें पढ़कर पाठक उनसे सहज सामंजस्य बैठाता
चला जाता है। अपने चचेरे भाई परमानन्द का चित्रण करते हुए वह एक घटना का जिक्र बड़े रोचक ढंग से करते हैं जब भाई
परमानन्द गाजरपाक बना रहे हैं और एक
बुजुर्ग के बार -बार पूछे जाने पर कि हलवा बन गया या नहीं
खीजकर उनके मुंह में गर्मागर्म गाजर का हलवा ठूंस कर खिलखिलाते हुए कहा उठते हैं-"
बहन
के यार ने सुबह से परेशान कर रखा था...बच्चा गाजर पाक का।"(पृ 29) हालांकि सामान्य दृष्टि से देखने पर परमानंद का
यह व्यवाहर उचित नहीं लगता लेकिन इस घटनाक्रम से गुजरते हुए पाठक भी परमानंद
की
खिलखिलाहट को आत्मसात कर उसके साथ खुद भी खिलखिला उठता है। किसी भी रचनाकार की बड़ी
विशेषता होती है जब वह अपने पाठकों को अपने पात्रों के साथ हंसने- रोने को विवश कर
देता है और इस रचना में निसंदेह यह खूबी है। इसी तरह वह अपनी चचेरी बहनों का किस्सा भी बड़ी बेबाकी से कहते हैं। उनकी तथा अपनी भाभियों की जिंदगी
के चित्रण के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा का वर्णन
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से करते हुए उनके दुख दर्द और संघर्षों को उकेरते हुए उनके साहस की सराहना भी
करते हैं।
ऐश्वर्यपूर्ण
जिंदगी जीते हुए अचानक हालात के बद से बदतर होते जाने के कारणों के साथ अपने
परिवार
के कष्टों और पारिवारिक सदस्यों के संघर्षों का वर्णन
लेखक तटस्थता से करता है। कहीं भी कष्ट या तकलीफ को जरूरत से ज्यादा
बढ़ा -चढ़ा कर नहीं दिखाया गया है। देश- विभाजन के दौरान हुए दो बड़े
भाइयों की मृत्यु और उस दुख से कातर पिता और माता की मनःस्थिति का वर्णन बेहद मार्मिक
बन पड़ा है। जब तक हम किसी को अपनी आंखों के आगे मरते हुए नहीं देखते वह हमारी
स्मृति में हमेशा जीवित बने रहते हैं और हमारे दिल में उनकी अनकही प्रतीक्षा बनी
रहती है, मृत घोषित भाइयों के प्रति इस प्रतीक्षा या
उम्मीद को रचनाकार में भी देखा जा सकता है- "मैं उस समय सातवीं में
पढ़ रहा था। मौजूदा हालात में, पढ़ाई-लिखाई में बिल्कुल
मन नहीं लग रहा था। ध्यान हर वक्त घर की बाहर वाली चौखट पर ही लगा रहता...शायद कोई आकर कह दे...
किसी ने उन्हें वहां देखा है, या वे तो बस पहुंचने
ही वाले हैं...बाहर दिल्ली दरवाजे के पास खड़े, किसी से बात कर रहे
हैं....(पृ 64) आप कल्पना कीजिए जिस व्यक्ति का बचपन बेहद लाड़- प्यार और ऐशो- आराम से कट रहा हो
कि अचानक उसे दो घूंट दूध के लिए भी तरसना पड़ जाए , बचपन में ही पिता का साया
सिर से उठ जाने और बुआ के घर पर रहकर अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाते हुए घर को संभालने के
लिए खेलने- कूदने की उम्र अर्थात महज चौदह वर्ष में नौकरी से
लगना पड़ा हो उसने क्या -क्या नहीं झेला
होगा लेकिन हर बार वह मुश्किलों को धता बताते हुए उन्हें पीछे छोड़कर मुस्कराते
हुए मानो उन्हें चुनौती देने के अंदाज में कहता हुआ नजर आता है-
"हमने बना लिया है नया फिर से आशियां जाओ
ये बात फिर किसी तूफान से कह दो।"
अपनी छोटी- छोटी कमजोरियों और हल्के फुल्के आकर्षणों
का वर्णन भी वह बड़े तटस्थ ढंग से करता है और सगाई तथा शादी की
घटनाएं तो बेहद नाटकीय ढंग से घटती दिखाई देती हैं। उसके बाद की घटनाओं
को लेखक ने जिक्र भर में समेटते हुए अपने लिखने की शुरुआत की ओर भी संकेत सा ही
किया है मानो वह कोई बहुत उल्लेखनीय बात ही न हो। जिस व्यक्ति ने अपने शुरुआती
जीवन में हिंदी की शिक्षा ही न पाई हो उसका हिंदी में लिखना निश्चित तौर पर एक
श्रमसाध्य काम रहा होगा लेकिन लेखक उस श्रम को महिमा मंडित
करना तो दूर उसके उल्लेख तक से कतराता है। आज सोशल मीडिया के आत्मसजग समय में जब हम कुछ भी लिखकर
लेखकीय पहचान कमाने के लिए व्याकुल रहते हैं वहीं बहुत कुछ लिखकर भी मदन शर्मा खुद
को लेखन मानने से इन्कार करते हैं-" जितना छपा,
उससे
दुगना डस्टबिन के हवाले कर चुका था। इसके बावजूद, अपने छपे हुए को देख
कितना दुख हुआ। वास्तविकता यही थी कि मुझे लिखना आता ही नहीं था।" (पृ 173)
इस
आत्मकथा को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कहानी 'मैं फिलसाफर नहीं
हूं' की याद आ जाती है जिसमें ज्ञानी प्रोफेसर अपने आपको 'टैब्यूला रासा"
अर्थात
बिलकुल कोरा बताने का साहस करता है। आत्ममुग्धता
के दौर में जहां जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना वह चाहे सुखद हो या दुखद प्रर्दशन की
चीज समझी जाती है वहां आत्मस्वीकार का यह विनय या साहस कितनों में है यह प्रश्न भी
इस रचना से गुजरते हुए सहज ही दिमाग में कौंध मारने लगता है। विनम्रता का यह भोला
अंदाज और आत्मस्वीकृति का सहज साहस इस रचना की बड़ी खासियत है।
आत्मकथा को कथेतर गद्य की परिभाषा में बांधते हुए हम भले ही उसे किस्से
कहानी से इतर विधा माने पर कथा रस कई मर्तबा वहां कहानियों से
जरा भी कम नहीं होता यह बेझिझक कहा जा सकता है क्योंकि जिंदगी से दिलचस्प और हैरतअंगेज किस्सा कोई हो ही नहीं सकता। किस्सों कहानियों जहां
में कोरी गप्प होती है वहीं आत्मकथा में सच्ची गप्प और आपबीती के साथ जगबीती भी।
हालांकि इस आत्मकथा में आपबीती ही ज्यादा है पर अपनी कथा के साथ -साथ अपने रिश्तेदारों, दोस्तों की जिंदगी
की झलकियां पेश करते हुए मदन शर्मा जी ने तत्कालीन शासक की सनकों के साथ शासन
व्यवस्था की जो चंद तस्वीरें उकेरी हैं, उन्हें पढ़ते हुए
किसी कथा को पढ़ने के आनंद के साथ ही इतिहास में झांकने का अवसर भी मिलता है। मदन
शर्मा
जी की एक खासियत और है कि इन्होंने लेखकीय
सहजता को सपाटबयानी में ढलने नहीं दिया है। आलोच्य आत्मकथा से गुजरते हुए सहज सरल और ईमानदार लेखन की
प्रेरणा जरूर मिलती है। आज के दौर में जब बतौर
लेखक स्थापित या प्रचारित होने के लिए सिर्फ लिखना ही काफी नहीं होता बल्कि बहुत से कौशल भी करने पड़ते हैं, मदन शर्मा बहुत
प्रसिद्ध या बड़े रचनाकार हैं या नहीं यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इसमें कोई दो राय
नहीं कि बेहद सुलझे हुए भले और ईमानदार इंसान जरूर हैं।
और
अच्छा इंसान होना मशहूर लेखक होने से कहीं ज्यादा अच्छा है यह कहने
और
स्वीकारने में मुझे जरा भी हिचक नहीं।