Thursday, March 20, 2008

फेंटा

कल यानी 19 मार्च 2008 को नवीन भाई (नवीन नैथानी) और मैं साथ थे। शिरीष कुमार मौर्य का ब्लाग देख रहे थे। हरजीत याद आ गया। नवीन भाई कह रहे थे, ''आज हरजीत होता तो ब्लाग पर जुटा होता।'' ऐसे जैसे स्पीक मेके के साथ जुटा रहता था, जैसे समय साक्ष्य के साथ और जैसे बाद में बच्चों के खिलौने बनाने में जुट गया था। कभी कभी एकलव्य के साथ भी। कोई कभी पूरी तरह से कभी नहीं जान पाया वह कहॉं-कहॉं जुटा है इन दिनों। ब्लाग पर भी होता तो सिर्फ अपने ही नहीं ढेरों अपने तरहों के साथ होता। कम्बख्त समय से पहले चला गया। वह हुनरमंद कारीगर था लकड़ी का। गज़ल कहता था। स्केच करता था। फोटोग्राफी करने लगा था। फोटोग्राफी सीखाने वाला हुआ अरविन्द शर्मा। वही अरविन्द जिसका पता ठिकाना था - ''टिप टॉप''। आजकल कहां है, मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं अहमदाबाद में है। हमारा देहरादूनिया भाई सूरज प्रकाश शायद जानता होगा उसका पता। अहमदाबाद आना जाना अरविन्द का पहले भी होता ही रहता था। अहमदाबाद में उसके परिवार के लोग जो ठहरे। भाई सूरज प्रकाश को वहीं से खोज कर लाया था वह और हम सब जानने लगे फिर सूरज भाई को।
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -

जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है

हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।

प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -

सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
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रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
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इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं

मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है

हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है

कोई चुप हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही सकें

Wednesday, March 19, 2008

लघु कथा

युवा रचनाकार
(चेखव को याद करते हुए)

विजय गौड

एक

वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"


दो

वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।

तीन

ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।

Tuesday, March 18, 2008

पुस्तक समीक्षा

परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो
विजय गौड़ सी 24/9 आयुध निर्माणी एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008, नेपथ्य: 09411580467
समकालीन यथार्थ के वृत्त पर, जहां बदलते सामाजिक आर्थिक मूल्यों ने संवेदनहीनता को जन्म दिया है, प्रेम और आदर्श की मिली-जुली अभिव्यक्ति से संगुम्फित, 'कोई नाम न दो" परितोष चक्रवर्ती के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह की कहानियॉं अपने विषय की विशिष्टता से जो जाप काटती हैं उस कटान बिन्दु से एक सीधी स्पर्श रेखा खींचने का लेखकीय प्रयास इन कहानियों में दिखायी देता है। ऐसी स्पर्श रेखा जो त्रिज्या पर समकोण बनाती है और संवेदनहीनता की उस धारा को मोड़ने के लिए प्रयासरत जान पड़ती हैं। कहानी दर कहानी बात करें तो पाते हैं कि 'सोनपत्ती" उस लोक परम्परा के वृत्त पर पल्लवित होती प्रेम कथा है जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुॅचे हुए स्त्री-पुरुष को अकेलेपन के बीच सहारा देता है। कथानक में घ्ाटित होती घ्ाटनाऐं सम्बंधों को उस तरह की मूर्तता नहीं देती जैसा अक्सर युवा प्रेमियों की कथाओं में आकार लेता है। प्रेम की छट-पटाहट वाली मानसिक उद्विगनता नहीं, बस एक हल्का-हल्का सा अहसास जिसकी स्मृतियां सोनपत्ती पर टिकी रहती हैं। ऐसी स्मृतियां जिन्हें कैसी भी परिस्थितियां मिटा नहीं सकती। बिछोह की उदासी इंतजार की लड़ी बनकर टंगी रहती है। कहानी की नायिका सरोज का अकेलापन कप्तान सहाब के अकेलेपन का समानार्थी नहीं है। वहां तो परिवार के अन्य लोगों के बीच पूरे मान के बावजूद अन्य लोगों और उनके बीच उम्र का एक फासला है जो उन्हें अकेला किये दे रहा है। अपने छोटे भाई के परिवार के बीच अटी पड़ी वे खुद ही अकेलेपन की गिरफ्त में जकड़ी चली जाती हैं। छोटे भाई के बच्चों के साथ पार्क में होते हुए भी एक हम उम्र, हम मनस कप्तान सहाब की उपस्थिति इसी लिए सुकूनदेय लगने लगती है। कप्तान सहाब की ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थिति में बदल जाना सरोज को बेचैन तो करता है पर ऐसी स्थिति में युवापन की छटपटाहट वाली बेचैनी के बजाय वहां गम्भीरता का एक गहरा आवरण उन्हें ढकने लगता है। वे चाहती हैं कि उनका भाई छोटू कप्तान सहाब के घ्ार जाकर उनकी खोज-खबर ले आये। छोटू के मना करने पर वे स्पष्टता के साथ पेश आती हैं- ''छोटू, मैंने तुझे पता करने को कहा है, कोई दित है तो बता।""''वृत्त से बाहर"" एवं 'घ्ार बुनते हुए" ऐसी कहानियां हैं जिनमें घ्ाटनाओं को काफी कुशलता के साथ संयोजित किया गया है। वृत्त से बाहर के पात्र रजत पर जहां आदर्शवाद हावी है वहीं घ्ार बुनते हुए का सामन्ता बेहद दयनीय नजर आता है। सामन्ता की दयनीयता को लेखक के राजनीतिक आग्रहों के दायरे में समझा जा सकता है। इस कहानी में सामन्ता को एक ऐसी राजनीति से जुड़ा दिखाया गया है जहां सिर्फ और सिर्फ हत्या और आतंक का माहौल ही रचा जा रहा है। अन्तत: सामन्ता का उससे मोहभंग होता है। मोहभंग की इस स्थिति में जाते हुए सामन्ता के भीतर भी कोई द्वंद्व है, ऐसा कहानी से दिखायी नहीं पड़ता। बस वह तो वहां से निकल भागता है रेड लाईट एरिया की ओर जहां ग्राहकों को पानी पिलाने का काम करना है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, गुरुजी का आदर्श वाक्य, ''दुनिया में अपने कर्म से यदि तुम किसी को दुख-यातना या नुकसान नहीं पहुॅचा रहे हो तो वह काम खराब नहीं होता"" सामन्ता के जीवन दर्शन का सूत्र वाक्य है। इस कहानी के मार्फत यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या सिर्फ हत्या का रोमांचक खेल किसी ऐसे आंदोलन का रुप ले सकता है जिसमें आवाम का एक हिस्सा भागीदारी करता हो ? यदि नहीं, तो फिर सामन्ता के मोहभंग के वास्तविक कारण क्या हैं ? यहां लेखकीय आग्रह ही सामन्ता के चरित्र को निर्धारित करते जान पड़ते ह्रैं। कहा जा सकता है कि बिना किसी तार्किक आधार के किसी भी राजनैतिक दिशा को अप्रसांगिक ठहराना कोई गम्भीर कर्म नहीं। नक्सलवादी राजनीति का जिक्र कहानी में सनसनी बिखेरने के लिए किया गया ही जान पड़ता है। ऐसी ही कोशिश कुछ अन्य कहानियों में भी दिखायी पड़ती है। 'सड़क नम्बर तीस" के मार्फत इस बात को ज्यादा स्पष्ट तरह से कहा जा सकता है। इस कहानी में भी ऐसी ही राजनीति से जुड़ा एक कार्यकर्ता है जो अपनी कुठाओं से उबरने के लिए और हताशा के क्षणों में हौंसला प्राप्त करने के लिए रेड लाईट एरिया में पहुॅचता है, ''।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।पिछले कुछ सालों से मेरी पार्टी समाज के पूरे ढॉंचे में बदलाव की लड़ाई लड़ रही है। मेरे जैसे कई युवक घ्ार-बार छोड़कर इस लड़ाई में कूद पड़े हैं। हम गांवों के किसानों और शहर के श्रमिकों के बीच अपना काम करते हैं। पर सरकार को यह पसन्द नहीं। मैं अपने बाप का बड़ा बेटा हूॅं।।।।।।।। आज रहा नहीं गया तो इधर पॉंव उठ गए।"" घ्ार के प्रति उत्कट मोह में फंसे एक क्रांतिकारी को रेड लाईट एरिया में जाकर शरण लेना और फिर वहॉं का ग्राहक बन जाना, क्या यही है यर्थाथ ? रेड लाईट एरिया और दुनिया को बदलने की राजनीति का एक ऐसा कोलाज इन कहानियों से उभरता है जिसमें समकालीन यर्थाथ को समझना बेहद मुश्किल है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि ऐसी कहानियों में न तो राजनीति की वास्तविक तसवीर ही उभर पायी है और न ही प्रेम की व्याख्या हो सकी है। 'कमजोर" और 'कोई नाम न दो" इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां है। कमजोर एक ऐसी कहानी है जो इस बात को स्थापित करती है कि प्रेम विज्ञापन की वस्तु नहीं, संबंधों की निजता का नाम है। दया, करुणा, कुंठा, निराशा और हताशा की जीवन स्थितियों के बीच इन कहानियों के पात्र जिस प्रेम की आकांक्षा में तड़पते दिखायी देते हैं उसे समकालीन विमर्श के दायरे में (जहां सहानुभूतियों से भरा यथार्थ छलांग मार चुका है) पढ़े तो कहा जा सकता है कि ये कहानियां एक सीमा के बाद उसी पुरुषोचित मानसिकता का प्ार्याय बनने लगती हैं जो एकनिष्ठता की मांग सिर्फ स्त्रियों पर लादे हुए है। जहां दावा होता है वहां प्रेम नहीं होता। दावा करते हुए दया, करुणा और सहानुभूति तो बिखेरी जा सकती है पर प्रेम नहीं किया जा सकता। परितोष चक्रवर्ती की कहानियों की यह पुस्तक प्रेम का दावा करती पुस्तक है- ''प्यार की कहानियां है"" और उन तमाम लोगों को समर्पित है जिन्होंने हमेशा प्यार को मान दिया है। प्रेम में पगलाया कोई पागल-प्रेमी क्या यह कह सकता है- वह प्रेम करता है ? और क्या प्रेम करते हुए भी वह उतना ही सहज, सामान्य और दैनिक व्यवहार में अपनी सम्पूर्ण मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों को सुरक्षित रख सकता है ? शायद ऐसा कर पाना असंभव है। वैसे प्रेम के लिए कोई तय व्यवहार या नियम हो, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। पर इन कहानियों के ये पात्र जिस मानसिक संत्रास से छटपटाते हुए प्रेम की ओर कदम बढ़ाते हुए दिखायी देते हैं वहां हत्या और आतंक की स्थितियों को दर्शाया गया है। ये सभी पात्र नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर एवं दुनिया के दुख-दर्द से द्रवित होकर उसको मिटाने के लिए जिस आंदोलन का हिस्सा होना चाहते हैं वहां हत्या और आतंक का सृजन ही (एक मात्र पक्ष) उन्हें दिखायी देता है और इसी कारण एक प्रकार की विक्षिप्तता के शिकार वे किसी की गोद में सिर रख कर प्रेम के लिए विचलित जान पड़ते है। एक राजनितिक आंदोलन की इतनी उथले तरह की व्याख्या करती ये कहानियां प्रेम की संवेदना को भी विक्षेपित कर देती हैं। क्रान्तिकारी राजनीति का ऐसा ही उत्तर-आधुनिक पाठ प्रस्तुत करने की कोशिश वी।एस।नायपॉल के उपन्यास डंहपब ैममके ;माटी मेरे देश की द्ध में ज्यादा तीव्रता के साथ दिखायी देती है। 'माटी मेरे देश की" का नायक विली तो बकायदा आधार क्षेत्रों का कार्यकर्ता बन जाता है और तथ्यों की प्रमाणिकता से बचने के लिए नायपॉल ने शिल्प के स्तर कुछ-कुछ जादूई किस्म के एक ऐसे यथार्थ का सृजन किया है जिसमें हत्या और आतंक की स्थितियां ही छायी रहती है। एक ऐसा आंदोलन जो लगातार दमन को झेलते हुए भी कैसे अपना प्रसार करता गया, उस पर ठोस विश्लेषण करने की बजाय मुक्त क्षेत्रों के बीच उस राजनीति को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के साथ राय मश्विरा करता विली हर क्षण उपहास उड़ाता हुआ-सा ही नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि परितोष चक्रवर्ती के पात्रों को हम वी।एस।नायपॉल के पात्रों की तरह एक व्यापक आंदोलन का उपहास उड़ाते हुए नहीं पाते। वहां सिर्फ कहानीकार की वह दृष्टि ही हावी दिखायी देती है जो शायद ऐसे किसी भी आंदोलन से नाइतिफाकी रखती होगी। ऐसी किसी भी असहमति को तभी जायज ठहराया जा सकता है जब वहां तार्किकता भी हो। सिर्फ अपने मनोगत वाद के चलते किसी भी आंदोलन को अतार्किक तरह से खारिज करने की यह प्रवृत्ति सामान्य जनतांत्रिकता को भी संदेह के घ्ोरे में खड़ा ही करेगी । पुस्तक: कोई नाम न दोलेखक: परितोष चक्रवर्तीप्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्सए नई दिल्ल्ी

कहानी पर टिपण्णी

पहल सम्मान-2006, जबलपुर में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी की कहानी ज्वार पर टिप्प्णी को आधे-अधूरे तरह से ही रख पाया था। आलेख पढ़ते हुए आये गतिरोध के कारण पढ़ना बीच में ही रोक देना पड़ा था। जो पढ़ना चाहता था उसे यहॉं दे देने का मन हुआ तो प्रस्तुत कर दिया।
ज्वार के बहाने
किसी भी रचना पर बात करने से पहले उस रचना के परिप्रेक्ष्य को जान समझ कर ही उसके मंत्ाव्य विचार करते हुए उसकी व्याख्या की जा सकती है। एक परिप्रेक्षय रचना का अपना होता है जिसमें वो रची गयी होती है दूसरा जिस दौर में वो प्ाढ़ी जा रही होती है। हो सकता है दोनों ही परिप्रेक्ष्य एक समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। यही वजह है कि ये परिस्थितियां विशेष ही रचना के पाठ को निर्धारित करती हैं। क्या ही संभव हो कि कोई रचना अपने दौर और अपने समाज का बयान करते हुए भी हर दौर में अपने निश्चित मंत्ाव्य को ही प्रक्षेपित करती रहे। स्पष्ट है कि कथाकार संजीव की कहानी 'ज्वार" का परिप्रेक्ष्य साम्प्रदायिक हिंसा है और मंसूबा उसकी मुखालफ्त है, सर्वधर्म सम्भाव का विचार जिसका उत्स है। इसमेंं कोई दो राय नहीं कि संजीव जनवाद के प्ाक्षधर, मानवीय मूल्यों के संरक्षक, धर्म निरपेक्ष और ईमानदार व्यक्ति के रुप्ा में अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से बिखरे पड़े हैं। चाहे सावधान नीचे आग है, सूत्रधार, जंगल जहां से शुरु होता है या कहानियों के रुप्ा में अभी याद आ रही- सागर और सीमांत, आरोहण, तिरबेनी का तड़बना, उनका ऐसा रचना संसार है जिसमें एक प्रतिबद्ध और सचेत रचनकार के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं के आधार पर संजीव की मंशाओं और जिस नीयत को मैं जान पाया हूं उसमें वे ऐसे ही नजर आये है।ज्वार कहानी के परिप्रेक्ष्य में जो माहौल है उसमें बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात तक का दौर स्थानीय स्तर पर और अंतराष्टीय स्तर पर तालीबानी नृशंसता के साथ साथ उस नृशंसता के खिलाफ एक सैद्धान्तिकी को रचते हुए एक तरफा हिंसा का दौर है और हाल ही में रचा गया कैरिकैचर कांड और उसके विरोध में उपजी हिंसा का माहौल। देखना यह है कि क्या ज्वार ऐसी स्थितियों से टकराने वाली रचना बन पा रही है। इसके निष्कर्षों को यदि लागू कर दिया जाये या स्थितियां ऐसी बन जाये कि वे लागू हो जाये तो स्थितियां बदल सकती हैं। साथ ही इन निष्कर्षों को लागू होने की शर्त क्या है? उसके लिए हर सचेत व्यक्ति को क्या करना होगा? यह मूल प्रश्न ही इस कहानी को समझने और उसके विश्लेषण करने में मद्दगार हो सकते है। स्ंाजीव की कहानी ज्वार के मंतव्य, जो कि मानवीय मूल्यों की स्भापना के लिए हैं, से सहमत होते हुए भी इसकी परास की एक सीमा दिखायी देती है। कहा जाये कि हिन्दी बौद्धिक जगत और साहित्य के भीतर साम्प्रदायिकता के सवाल पर जारी बहस और उन बहसों से बनती दृष्टि से उपजी ज्यादातर रचनाये, जिनमें साम्प्रदायिकता जैसे समाज विरोधि, मनुष्यता विरोधि विचार से निपटने के लिए सर्वधर्म सम्भाव का विचार है और संवेदनात्मक स्तर पर उस विचार की वकालत है। अपनी इस सीमा का अतिक्रमण ज्वार भी नहीं कर पाती है। है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी इन रचनाओं की विशेषता है कि वे संवेदना के धरातल पर विचलित तो करती हैं पर साम्प्रदायिकता के मूल स्रोत- धर्म को बचाये रखने की भी, अन्जाने में ही चाहे हो, वकालत करने लगती है और साम्प्रदायिकता से निपटने में नाकाम रही धर्मनिरपेक्षता की वह परिभाषा, भारतीय गणतंत्र के साथ जिसने जन्म लिया था उसी की रोशनी को बिखेरने लगती है। जबकि लगातार हिंसक होते गये वातावरण ने उसकी प्रसांगिकता पर खुद ही प्रश्न चिहन लगा दिया है। यही कारण है कि ऐसी रचनायें जहां किसी समाज विशेष में साम्प्रदायिकता के विरोध में होती हैं वहीं किसी दूसरे पहले के विपरीत समाज में साम्प्रदायिक शक्तियों का हथियार बन जाती हैं। स्ाम्प्रदायिकता, जो अपनी प्रवृत्ति में एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की उपज है, का मूल स्रोत धर्म है। इसलिए साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए धर्म की आलोचना से बचते हुए रची गयी कोई भी रचना यथार्थ का काल्पनिक आख्यान बन कर ही रहने वाली है। ऐसा मेरी समझदारी कहती है। सिर्फ हिसा की आलोचना साम्प्रदायिकता की बेहद स्थूल किस्म की आलोचना है। धर्म के भीतर निहित आध्यत्मिक गौरव की अभिव्यक्ति, परलौकिक सत्य की अवधारणा- जीवन के वास्तविक यथार्थ से दूर जाना है। धर्म के पीछे अन्धे होकर दौड़ते समुदायों का एकांगी और संकीर्णता की अन्धि गलियों में भटकने का यह एक ऐसा कल्पना लोक है जिसका आधार तर्क का निषेध और आस्था और अन्धविश्वास की जमीन पर खड़ा है। स्वतंत्र विचार की बजाय समर्पण की मांग जिसकी पहली शर्त है। मौजूदा वैज्ञानिक दौर में प्ाढ़े लिखे बौद्धिक समाज का आस्था के इस अतार्किक तंत्र को कुतर्क के सहारे उसके कर्मकाण्डिय क्रिया कलापों पर वैज्ञानिकता का जामा पहनाने की जिद निश्चित ही अवैज्ञानिक है जिसके निहितार्थ खतरनाक हिंसक माहैल से आबद्ध है। विवेक के अनुशासन से रहित भावनाओं के इस ज्वार को उन्माद की हद तक पहुॅचाने की यह खतरनाक पहल है। कहा जाता है कि धर्म तो जीवन जीने की एक प्ाद्धति है। अब सवाल है कि यह प्ाद्धति आखिर कौन से कालखण्ड की उत्पति है। स्पष्ट है कि प्रकृति की विराटता में घ्ाटती घ्ाटनाओं से अन्जान और चौंकता हुआ मनुष्य जब उस दौर के सीमित ज्ञान की सीमा की वजह से कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता रहा तो शक्तिरुपा अज्ञात ईश्वरों की कल्पनायें उसने कटनी शुरु की और उन्हीं अज्ञात अन्जान ईश्वरों की स्थापनाओं का कार्यभार धार्मिक कर्मकाण्ड के रुप्ा में स्थापित हुआ है। इसलिए धर्म तर्क से परे की चीज हो गयी। सिर्फ भावनाओं और आस्थाओं के इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने समय समय पर अपनी श्रेष्ठता की स्थापना के लिए खून खराबे भी किये जिसे साम्प्रदायिक उन्माद कहा जा सकता है। इसलिए साम्प्रदायिकता की मुखालफत बिना धर्म पर चोट किये, उससे समाज को मुक्त किये बगैर संभव नहीं। इतिहास गवाह है कि समाज को बदलने के लिए प्राचीन काल से आज तक जितनी भी विचार प्रक्रियायें आगे बढ़ी और जिसने भी धर्म पर चोट किये बगैर सामाजिक संरचना को बदलने के लिए कुछ सीमित परिवर्तनों का या भावनात्मक संवेदनों के तहत मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया, उसकी परिणति भी अन्तत: कर्मकाण्डिय ही होती चली गयी। बैद्ध धर्म जो ईश्वर की कल्पना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के विचार से परहेज करते हुए सामने आया, अन्तत: उसी का शिकार होता चला गया। भक्ति आंदोलन का पूरा दौर जिसने तमाम सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया लेकिन उस दौर के सीमित ज्ञान की वजह से धर्म पर चोट न कर पाने की वजह से खुद उसी की गिरफत में चला गया। कबीर जैसा क्रांतिकारी कवि अन्तत: रहस्यवादी होता चला गया। अन्जाने अज्ञात भय, आशंका में दबे ढके कारणों पर से विज्ञान ने आज काफी हद तक पर्दा उठा दिया है और जिन घ्ाटनाओं के कारणेंा की वास्तविक पड़ताल आज तक भी भले ही नहीं की गयी हो उसके विश्लेषण के दर्शन जो कार्य-कारण संबंधों से संभव है कि दार्शनिकता को जन्म दिया है जिसकी रोशनी में ऐसे ही दौरों में पैदा होते गये धर्मो की प्रासंगिकता पर संदेह किया जा सकता है। इसलिए आज के दौर में साम्प्रदायिकता की मुखालफ्त बिना धर्म पर चोट किये संभव नहीं जान पड़ती। अपने बेहद मानवीय रुपों वाला धर्म भी कट्टरता की उन्हीं हदों को छूने लगता है जहां धर्म विशेष की सर्वोच्चता का तर्क आस्था का सवाल बन कर खड़ा होता है। ऐसी आस्था जो तर्क से परे है। वो आस्था जो अन्जानी घ्ाटनाओं को न सिर्फ दैवीय प्रकोप मानने को विवश करती है बल्कि उसके कारणों के विश्लेषण पर भी अंकुश लगाने पर आमादा है। धर्म यदि एक जीवन प्ाद्धति है तो उससे उपजी संस्कृति निश्चित ही अन्य धर्म से भिन्न ही होगी। यानी उसके मूल में ही खुद को विशिष्ट और एक मात्र उचित दिशा मानने की गैर जनवादी अवधारणा जिद की हद तक निहित है। इसकी जद में दुनिया में अभी तक उदय हो चुके सारे ही धर्म आते हैं। तय है कि यह धार्मिक एकता संख्याबल में बढ़ जाने पर संख्या बल में अल्प पड़ गये धार्मिकों को अपनी ही संस्कृति अपने ही धर्म के आचरण को मनवाने के लिए हिंसकता पर उतारु हो जाती है। फिर सुधारवादी आंदोलन के जरिये या अहिंसा का जाप करते हुए क्या ऐसी हिंसकता का मुकाबला संभव है? मानवीय गरिमा को बचाये रखने के लिए सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा की मुखालफत करते हुए धर्म पर चुप्पी साधकर रची गयी कोई भी रचना साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़े जाने वाले संघ्ार्ष में कोई खास ऊर्जा प्रदान करने वाली नहीं है और न ही मानवीयता की गरिमा को बचाये रखने में मद्दगार हो सकती है। संजीव की कहानी ज्वार भी एक ऐसी ही कहानी है।भारतीय परिपे्रक्ष्य में यदि बात करें तो सामाजिक संरचना में सामंती अवशेषों के बीच पनपा मध्यवर्ग अपने सामंतीपन के साथ है जो तर्क की गुजाईश तो कतई नहीं छोड़ता। आज भी बड़े बूड़ों के सामने तमाम आधुनिक कहलाने वाले परिवारों के भीतर भी तर्क की कोई जगह नहीं है। जबकि आधुनिकता की तस्वीर बिखेरता यह मध्यवर्ग जिस तरह से इतराता फिरता है उससे उसकी पोल खुद ही खुलने लगती है। उपभोक्तवादी संस्कृति के फलस्वरुप्ा आरोपित आधुनिकता के ढोंग के बावजूद धर्म और आस्था की खाद ने उसके सामंतीपन को मुरझाने नहीं दिया है और समय बेसमय उन्माद के माहौल को पैदा करने में उसकी अग्रणी भूमिका है। एक ओर बड़ी पूंजी की दलाली और दूसरी ओर उसकी सामंती अकड़ ने माहौल्ा को बेहद खौफनाक बना दिया है और राजकीय हिंसा का ऐसा प्रपंच रचा है जो बेशर्मी की हद तक जन आंदोलन को कुचलने में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है। बेहद चालाकी और कुशलता से उसने योग और सिद्धियों की दुकान खड़ी करनी शुरु कर दी है। साथ ही जनता के खिलाफ चालू अमानवीय आर्थिक तंत्र को मजबूत आधार प्रदान करते हुए उसके विरोध के नाम पर पुरातनपंथी अवधारणाओं को पुर्नस्थापित करने का सिलसिला भी बढ़ाया हुआ है। जनविरोधि नीतियों के चलते बढ़ती तकलीफों के वास्तविक कारणों को छुपाये हुए ऐसे कल्पना लोक को खड़ा किया जा रहा है जिसमें दुविधा और हताशा की स्थितियां जन्म लेने लगी है। फलत: साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों गुरिल्ला कार्यवाहियों के लिए तमाम दलित आदिवासियों की फौज खड़ी दिखायी दे रही है, हिंसा के माहौल में लूटपाट का तोहफा देकर उसकी बदहाली के कारणों पर परदा डालने का दोे मुंहा खेल खेलना भी जिससे आसान हो गया है। भावनात्मक मुद्दों को उछाले जाने का और धृणा के सृजन का कृचक्र चालू है। ऐसे में फिर वो उदारतावादी विचार जो सर्वधर्म सम्भाव की बात करता है, अन्तत: उसी आधुनिक से दिखते साम्प्रदायिक वर्ग के हित साधने में ही तो अपनी उर्जा गंवायेगा जिसकी उसको बेहद जरुरत है। सबके बीच भाईचारे का तर्क बाजार के सुचारु रुप्ा से चलते रहने का भी तो तर्क है। यानी साम्प्रदायिक धार्मिक और गैर साम्प्रदायिक धार्मिक के बीच की यह नूरा कुश्ती अपने आप में एक झूठे जनतंत्र का सृजन कर रही है। हिंसा के माहौल में बिना वास्तविक कारणों पर चोट किये आंसू बहाती संवेदना एक ढकोसला ही है जो आये दिन बढ़ती आक्रमकता को रोकने में सफल्ा नहीं हो पायेगी। ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी जाने वाली रचना सिर्फ चुभन का अहसास भर कराये तो फासीवादी की ओर संक्रमित होते दौर के खिलाफ आखिर लामबंदी कैसे संभव होगी। इस कहानी की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसके भीतर नागरिक और राज्य की पहचान को धर्म से इतर देखने की कोशिश हुई है। लेकिन ऐसा भी कहा जा सकता है कि अवचेतन में स्थित किन्हीं दुविधाओं की वजह से यह विचार बहुत प्रभावी नहीं बन पाया उसकी एक सूक्ष्म सी लकीर ही दिखायी देती है जो बांग्लादेश के गठन के बाद भी कहानी के पात्रों के द्वारा उसे पाकिस्तान ही मानते रहने वाली मानसिक पर्तो को खोलने का प्रयास करती है। लेकिन अवचेतन में उपस्थित धर्म को बचाये रखने वाली मानसिकता ही यहां भी आड़े आ जाती है। फिर अपने प्रिय पात्र जो खुद लेखकीय मानसिकता से संचालित होते दिखायी देते है, साम्प्रदायिक कैसे हो सकते है। यानी कहानी की मां और अणिमा के अवचेतन में धंसी हिन्दू मानसिकता क्या इसलिए साम्प्रदायिक नहीं है क्योकि वो हिंसक नहीं है। क्या हिंसा के बीज बोने वालों के लिए अणिमा और मां का चरित्र एक मॉडल नहीं है? हिसा से बचे रहने के लिए अणिमा की अपने पूर्व धर्म का परित्याग कर देने की असहायता और उन स्थियों से साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से आंखें चुराने की असफल चेष्टायें क्या साम्प्रायिक शक्तियों को अपने हिंसक विचार को फैलाने में मद्दगार नहीं हैं ? आखिर बांगल्ाादेश की लेखिका तसलिमा की रचनाओं को बैन करने वाली और उन्हीं रचनाओं के सहारे अपने यहां हिंसा का माहौल रचने वाली दृष्टि क्या एक ही नहीं है। मेरी निगाह में ज्वार ऐसे सवालों से टकराना तो छोड़ो उसका विरोध भी करने का साहस नहीं करती और न ही प्रेरित करती है।