Monday, September 20, 2010

बारिश

उत्तराखण्ड में बारिश की भीषड़ मार को झेलते हुए एक दौर में लिखी गई यह कविता आज फिर याद आ रही है। 


सब कह रहे हैं
बारिश बन्द हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा है पानी
पर घर के भीतर तो
पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है;

सड़क पर भी है पानी
आंगन में भी है पानी
र के पिछवाड़े भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिश बन्द हो चुकी है

Sunday, September 19, 2010

"सरकार" क्या होती है!




डॉ. शोभाराम शर्मा

    'सरकार, आपको बडे सरकार ने सलाम बोला है।" सुबह-सुबह कालेज का चपरासी संदेश दे गया और मुझे अपने बंटी के सवाल का जवाब सूझ गया। अपनी पुस्तक के पन्ने पलटते हुए उसने पिछली रात सवाल दागा था- ''पापा सरकार क्या होती है?"  और मैं अकचकाकर बोेला था- ''जो सर करती है यानि दूसरों पर अध्किार करती है, वही सरकार है।"   परिभाषा का पुरानापन और अव्याप्ति दोष ध्यान में आया तो मैंने पिंड छुडाने के लिए कह दिया था- ''वह आजकल कारों में सर छुपाकर चलती है, इसलिए सरकार कहलाती है।"
    चपरासी ने सरकार, बडे सरकार और सलाम, इन तीन शब्दों में सरकार का बाहर-भीतर खोलकर रख दिया। सरकार भी छोटी होती है, बडी भी होती है। और उसको सलाम भी करना पडता है। आकार से बात वर्ण पर आती है तो सरकार बाहर से गोरी और भीतर से काली भी होती है। इसका विलोम भी होता है और पीली से लेकर लाल सरकारें भी आज दुनिया में विराजमान हैं। उन्हें आकार-प्रकार और वर्ण के अनुसार छोटा-बडा, काला-पीला और लाल सलाम भी करना पडता है।

    सलाम में तो हर सरकार के प्राण बसते हैं। हैसियत के अनुसार उसे घुटना-टेकु से लेकर फर्जी सलाम तक ठोकने पडते हैं। हर जगह का अपना रिवाज है। कहीं दण्डवत लेट लगा दी, कहीं हें-हें कहकर हाथ जोड दिए तो कहीं बूट पर बूट चढाकर हाथ से माथा पीट लिया और सरकार खुश कि वह जिन्दा तो है। यह सब ठीक है, लेकिन सरकार का स्वरूप भौतिक है या आध्यात्मिक, यह विवाद का विषय है। जब थानेदार का डंडा सिर पर बजता है तो लगता है कि डंडा ही सरकार है लेकिन एक निर्जीव डंडे में करामाती सरकार कहां पर स्थित है, वह डंडे में है या डंडे के आघात से होने वाले मीठे-मीठे दर्द में, यह अभी तक समझ में नहीं आया। हां सारी साक्षियां यही बताती है कि डंडे से सरकार का संबंध् है जरूर।
    सरकारों के सरकार खुदा ताला, ने जब आदम-हौवा के लिए जन्नत के दरवाजे पर ताला डाल दिया तो लगता है कि उन बेचारों के पास कोई डंडा नहीं था और वे बेचारे ना नुकुर किए बैगर चुपचाप ध्रती पर चले आए। आदेश का डंडा खुदा के पास जन्नत में छूट गया और इध्र ध्रती पर आदम-हौवा की औलाद बढती गई। करामाती डंडे की जरूरत पडी तो कुछ जबर जन्नत से चुरा लाए और खुदा की जगह खुद दुनिया को हांकने लगे। चोरी तो चोरी है। सिर उफंचा रखने के लिए उन्होंने घ्ाोषित किया कि परम पिता परमात्मा ने ही उन्हें करामाती राजदण्ड स्वेच्छा से प्रदान किया है। पेट की मार और जबर की लाठी से विवश होकर अल्ला-ताला से सीध सम्पर्क बताने वाले पण्डित-मुल्ला और पादरियों ने भी स्वीकार कर लिया तो सरकार चल निकली और उसका सीध संबंध् नेति-नेति से हो गया। कुछ विचारकों का मत है कि सरकार मानव समाज के सामूहिक विवेक का परिणाम है। कुछ का मत है कि वह राज्य या राष्ट्र की आत्मा है।  दैवीय-इच्छा सामूहिक विवेक या आत्मा का आकार-प्रकार अभी तक तो कोई स्पष्ट नहीं कर पाया, लेकिन डंडा अपनी जगह है। आप चाहें तो उसे इनका प्रतीक मान सकते हैं। दूसरे शब्दों में डंडा निराकार का साकार रूप है, जो काम करता है।
   बाबा तुलसीदास ने निराकार ब्रह्म के विषय में लिखा है कि वह बिना कानों के ही सुनता है, बिना पैरों के ही चलता है, बिना जीभ के ही नाना स्वाद लेता है और बिना हाथों के ही सारे कार्य करता है। वही निराकार ब्रह्म ब्राह्मणों और साधुओं की रक्षा के लिए साकार भी हो जाता है। मेरा विश्वास है कि बाबा की नजर में परम पिता का वही डंडा रहा होगा, जो आज तक बडे लोगों की रक्षा की पुनीत दायित्व निभाता रहा है। उनका कथन इस सरकार बनाम करामाती डंडे पर ही सटीक बैठता है। उसकी मार, उसके होने की साक्षी देता है और तलवार की नोंक या बंदूक की नली के रूप में सीधे हमारी आंखों में घूरता है। हां, एक बात में बाबा भी चूक गए। वे यह लिखना भूल गए कि वह बिना दिमाग के ही सोचता है, क्योंकि डंडा चलता अधिक है और सोचता कम है।
   कुछ पहले तक सरकार अपने करामाती डंडे से तीन काम लेती थी। वह भीतर को ठीक-ठाक रखती थी, इसलिए कि उसका आसन बरकरार रहे, वह बाहर वालों पर झपटती थी, इसलिए कि उसके आसन पर कोई खतरा न आए और वह कर वसूल करती थी, इसलिए कि उसके होने का अहसास बना रहे। प्रजा की जेब हल्की करने से उसका रौब-दाब बढता था। खजाना भरा होने पर बिना जीभ के भी नाना स्वाद लेती और 'राज्ञ: प्रजारंजनात" का खेल भी बखूबी खेल सकती थी। उसका आसन सिंहासन कहलाता था, जो सोने से मढा होता और कोई नर-शार्दूल हाथ में राजदण्ड लिए सर पर रत्न-जडित मुकुट धरण किए, जब अकडकर उस पर बैठता जो प्रजा तमाशा देखकर प्रसन्न होती और जय-जयकार करने लगती। वह सचमुच का शेर होता या माना हुआ शेर होता, लेकिन राज्य में जो कुछ भी अच्छा या सुंदर होता उस पर उसीका अधिकार होता। उसकी रानी स्वर्ग की अप्सरा होती। एक नहीं कई-कई होतीं, जिनकी सुरक्षा के लिए वह अपने राजमहल में जनखे रखता। जनखे भी तब धंधे में लगे रहते और रनिवास की कहानियों से जनता का अच्छा मनोरंजन होता। कहीं किसी की बेटी या बहू सुंदर हुई तो उसका राजा के रनिवास तक पहुंचना प्राय: आवश्यक हो जाता, क्योंकि सबसे सुंदर पर सबसे बडे का ही अधिकार हो सकता था। राजा ने छुई और पारस हुई, तब नारी जीवन की सार्थकता इसी में थी। इसमें भी बडे-बडे उलट पफेर होते, रानी दासी बन जाती और दासी रानी। कवि लोग इस पर सुंदर-सुंदर नाटक और काव्य रचते। राजा लोग अपनी रानियों से सौ-सौ राजकुमार और राजकुमारियां पैदा करते, जिनकी शान-शौकत और छीना-झपटी में महाभारत रचे जाते ओर प्रजा तमाशा देखकर भौचक रह जाती। अश्वमेध् से नरमेध् तक कई प्रकार के मेध् होते। सब से बडी सरकार के सगे ब्राह्मण-पुरोहितों को इतना खिलाया जाता कि उन्हें पेट की अपच ही नहीं, दिमागी अपच भी हो जाती थी। पेट की अपच से चरक और सुश्रुत जैसे धन्वन्तरियों का धंधा चमकता और दिमागी अपच के मारे हमारी मेध वहां पहुंच जाती, जहां से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता।
    सिंहासन की सुरक्षा के लिए डंडा विशाल दुर्गों का निर्माण करवाता, परलोक बनाने के लिए बडे-बडे मठ-मंदिर बनते, विहार और स्तूप बनते, जहां महंतों व पुजारियों के मुफत रोटी तोडने का प्रबंध् हो जाता। चटटानों पर भित्ति-चित्र खुदवाए जाते, शिलाओं पर अपनी प्रशंसा उत्कीर्ण की जाती और राजा इहलोक तथा परलोक के बीच दलालों द्वारा उफपर वाले का प्रतिनिध् घ्ाोषित कर दिया जाता। कभी कोई सडक बन जाती, ध्मशालाएं खुल जातीं या सडकों के किनारे छायादार वृक्ष लग जाते तो प्रजा समझती कि उफपरवाली सरकार ही छोटी सरकार के रूप में धरती पर उतर आयी है। कुछ ऐसे भी आए जो तलवार के बल पर अपने भोंडे विश्वासों को जनता के मन मस्तिष्क में ठूंसना अपना सबसे पाक कारनामा मानते थे और जन्नात तथा जमीन के बीच के दलाल उन्हें गाजी घोषित करते। उनके उत्तराधिकारियों ने लाजबाब कबरें बनवाई और ताजमहल खडे किए। और ये तमाशे उस करामती डंडे की देन है, जिस पर हम आज भी अभिमान करते हैं।
    सुदूर पश्चिम में एक तमाशा और हुआ। भोक्ता और निर्माता के बीच दलाली पर जीने वाले की आंखों में इतनी चर्बी आ गई कि उसने प्रजा के नाम पर डंडा हथिया लिया। ईश्वर के पुराने प्रतिनिधियों की जगह नये प्रतिनि्धियों ने ले ली और उन्हें दुनिया को आपस में बांटना आरंभ कर दिया। अपने तैयार माल की खपत और कच्चे माल की उपलब्ध् के लिए उन्होंने दो-दो महायु्द्ध लडे और वे सभी ईसा मसीह की प्यारी भेडें थीं। कानून और शासन की पोथी में पैसे का नाग न जाने कहां से घुस आया, जिसने डंडे को स्टर्लिंग और डालर में बदल दिया। डंडे का यह नया रूप लोगों की जेब से लेकर चूल्हे तक निसंकोच घुस जाता है और भाड में जाए या चूल्हे में, हर जगह से कुछ-न-कुछ वसूल कर ही लेता है। लोग कहते हैं कि यह एक बहुत बडा परिवर्तन है। मुझे तो वही 'ढाक के तीन पात" दिखाई देते हैं। सामूहिक विवेक को पैसे की दीमक चाट रही है और राज्य की आत्मा नए-नए हिटलरों के रूप में यहां-वहां पफौजी बूट बजाती नजर आती है। सिंहासन की जगह कुर्सी ने भले ही ले ली हो, लेकिन छिन जाने का डर आज भी नए-नए तमाशे खडे करता है और वह भी राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बडी बेरहमी के साथ। पहले राजसूय-अश्वमेघ यज्ञ होते थे। आजकल बडे-बडे राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय जमावडे होते हैं। जनतंत्रों के नये बादशाह "अहो रूपं अहो ध्वनि" के अंदाज में उछलते कूदते हैं, दावतें उडाते हैं और बदले में भाषण पिलाकर, प्रस्तावों की मीठी नींद की गोलियां खिलाते हैं।
    पहले राजकुमार महलों में पैदा होते थे, आजकल वे गलियों में पैदा होते है और आवारा कुत्तों से राजनीति का पहला पाठ पढते हैं। पक्ष हो या विपक्ष, काट खाना उनका स्वभाव होता है और तिकडम के बल पर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचकर वे देश के हृदय-सम्राट बन जाते हैं। पहले ध्म के दलालों का पैदा किया गया कुहासा उनका प्रभा-मंडल होता था और आज अंध-धुंध् प्रचार व आंकडो की धुंध् उनके असली चेहरों को छिपाए रखती है। डंडा पहले बाहर-बाहर से नियंत्रण रखता था। आज वह जीवन के हर क्षेत्रा को अपनी चपेट में ले चुका है। जान वह पहले भी लेता था, आज भी लेता है। मौत का भय आज भी उसका सबसे बडा सहारा है।
    जनखे पहले रनिवास तक सीमित थे। आज सारा राज-काज जनखों के बल पर चलता है। राज-सेवा में आने से पहले अच्छे-खासे आदमी को जनखा बना दिया जाता है। उफपर वाले ने जिन्हें जनखा पैदा किया उनका धंधा चौपट है, क्योंकि जनतंत्रा के बादशाह रनिवास रखते ही नहीं।
   हां, जनखों को छेडने का खेल बदस्तूर चालू है। शोहदे आज भी गलियों में शिखण्डियों को छेडते हैं और कहीं सत्ता के रथ पर पहुंच गए तो बने हुए शिखण्डियों की आड में, चाहे जिस पर बाण छोड देते हैं। गली में जो शोहदापन माना जाता है, सरकारी डंडे के बल पर वही कूटनीति कहलाता है।
    इसी डंडे के मारे बेचारे मार्क्स ने एक देश से दूसरे देश भागते हुए लिख दिया कि एक दिन शासन का यह डंडा स्वत: हवा में विलीन हो जाएगा। कुछ लोग हैं जो उसी के शब्दों को घोलुआ घोलते रहते हैं किंतु आज जो स्थिति है, वह पुकार-पुकार कर कहती है कि आवरण भले ही बदलते रहें, डंडा अपनी जगह रहेगा।
    राजा हो या बादशाह, तानाशाह हो या जन-नेता, ये सभी उसी करामाती डंडे के डंडे हैं, जिसे लोग बडी अदब से "सरकार" कहते हैं। जो व्यक्त भी है और अव्यक्त भी, साकार भी है और निराकार भी, जो रूहानी भी है और जिस्मानी भी। इस डंडे को तोडने के लिए किसी और बडे डंडे की आवश्यकता होगी, लेकिन क्या उस डंडे को और भी बडा सलाम नहीं ठोकना पडेगा? जड ही पकड में नहीं आती तो खोदेगें क्या? इधर-उधर खोदेगें तो थानेदार का डंडा मुठभेड भी दिखा सकता है और पिफर कोई दूसरा ही होगा, जिससे उसका बंटी पूछता पिफरेगा- पापा सरकार क्या होती है?

Friday, September 10, 2010

पहाडी खानाबदोशों का गीत

अजेय की कविता

अलविदा ओ पतझड़!
बांध लिया है अपना डेरा डफेरा
हांक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीले फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठंडी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!

विदा ओ खामोश बूढी सराय!
तेरी केतलियां भरी हुई हैं
लबालब हमारे गीतों से
हमारी जेबों में भरी हुई हैं
ठसाठस तेरी कविताएं
मिल कार समेट लें भोर होने से पहले
अंधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे!

विदा ओ गबरू जवान कारिन्दों!
हमारी पिट्ठुओं में
ठूंस दिये हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने
हमारी छातियों में
अपनी अंगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बदल
आकाश के उस एक कोने में
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हवाएं सूंघेंगे!

सोई रहो बरफ में
ओ कमजोर नदियों!
बीते मौसम में घूंट-घूंट पिया है
तुम्हें बदले में
कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में
तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं
हमारे पांवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे

विदा ओ अच्छी ब्यूंस की टहनियां
लहलहाते स्वप्न हैं
हमारे आंखों में तुम्हारी हरियाली के
मजबूत लाठियां है
हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की

तुम अपनी झरती पत्तियों के आंचल में
सहेज लेना चुपके से
थोडी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज

अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे!
(अकार २७ से साभार)

Wednesday, September 1, 2010

आओ खेलें खेल

सावन बीत गया था
भादों की उमस भरी गरमी में
कृष्ण जन्माष्टमी की वो एक
चुहल भरी सुबह थी -

बच्चे कट्टा भर रेत और
काई उठाये चले आ रहे थे
कितनी ही सीलन भरी दीवारें
खेल-खेल में हो गयीं थी साफ
खिल-खिलाने लगा उनका चूना
प्लास्टिक के कितने ही खिलौने से
भर गयी बहुमंजिला इमारत की
सीढ़ी के नीचे की वो जगह-
एक उदासी सी पसरी रहती थी जहां हर रोज

कितनी ही गोपियां, राधा और कृष्ण 
खेलने लगे
धर्म-कर्म पर यकीन और
चण्डोल देखने वाले गुजरते 
तो कृष्ण बना बच्चा
बांसुरी होठों  से लगा
खड़ा हो जाता ऐसा
जैसी छठवीं कक्षा की पुस्तक में होती तस्वीर,
राधा भी नृत्य मुद्रा में स्थिर
गोपियों का कोरस और नृत्य देख
आनन्दित होते देखने वाले

प्रसाद बांटने को उत्सुक
कृष्ण बना बच्चा स्थिर न रह पाता
उसकी मुद्रा का टूटना भी
हंसी खेल हो जाता उस वक्त।


-विजय गौड़

Sunday, August 29, 2010

चाहता हूँ पानी बरसे



मूल रूप में सिएरा लेओन के पिता की संतान नाई आईक्वेई पार्केस, जन्मे तो ब्रिटेन में पर शुरुआती और निर्मिति का समय उनका घाना में  बीता..देश विदेश घूमते हुए और अनेक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थाओं में रचनात्मक साहित्य पढ़ाते हुए वे पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं...पार्केस कविताओं के अलावा कहानियां और लेख तो लिखते ही हैं,अश्वेत अस्मिता को स्थापित करने वाले स्टेज परफोर्मेंस के लिए भी खूब जाने जाते हैं. उनके अपने सात संकलन प्रकाशित हैं और अनेक सामूहिक संकलनों में उनकी कवितायेँ शामिल हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ लोकप्रिय कवितायें..चयन और प्रस्तुति  यादवेन्द्र की है.  


 चाहता हूँ पानी बरसे
कभी कभी मैं चाहता हूँ पानी बरसे
धारासार, अनवरत और पूरे  जोर से
ताकि तुम मेरे  अन्दर समा जाओ  जैसे छुप जाती   है व्यथा
और मुझे साँस की मानिंद पीती   रहो निश्चिन्त हो कर धीरे धीरे.
मुझे खूब भाता है मेघों का विस्तार
इनका गहराना और दुनिया को अपनी छाया से ढँक लेना
जैसे पानी की धार हो जेल की सलाखें 
और हम  सब इसके अन्दर दुबक गए हों   कैदी बन कर. 
यही ऐसा मौका होता है जब सूरज बरतता है संयम
थोड़ी कुंद पड़ती हैं इसकी शिकारी निगाहें..
पडोसी धुंधलके में खो जाते हैं 
और हमें पूरी आज़ादी नसीब होती है एकाकी  प्रेम करने की.  
सुबह सुबह का समय है
इसको न तो  दिन कहेंगे न ही रात..
इस   वेला में तुम न तो तुम रहीं और  न  मैं  ही साबुत  बचा
मुझे न तो किसी ने कैद में डाला और न  खुला और आजाद ही रह पाया .
टिन की छत
बेकाबू गर्म थपेड़ों वाली तेज हवा  कोड़े बरसाती  रहती  है तुम्हारी पीठ पर  
फिर भी टिके बने रहते हो तुम..
तुम्हारी पूरी चमक पर बिखरा देते हैं वे गर्द और मिट्टी 
और  ऐंठ मरोड़ देते हैं तुम्हारे धारदार किनारे.
बारिश आती है तो अपनी थपाकेदार लय से  
कीचड़ की लेप बना कर  लपेट  देती है तुम्हारा पूरा  बदन
फिर भी टिके बने रहते हो तुम.  
--- मेरा आत्मगौरव---
मेरी अपनी टिन की छत ही तो है.

मुझे मैं रहने दो
मैं मैं हूँ 
और  तुम तुम
पर तुम चाहते हो 
मैं हो जाऊं बिलकुल तुम्हारे जैसा.....
तुम्हारी मंशा है कि मैं तो हो ही जाउं  
तुम्हारे जैसा
पर आस पास के तमाम लोग भी
रूप बदल  लें  बिलकुल मेरी तरह...
मानो मैं हो गया बिलकुल तुम्हारी तरह
और चाहने लगूँ कि तुम भी बदल कर हो जाओ मेरी तरह..
इस से पहले कि मैं तुम्हारे जैसा हो जाऊं
तुम मेरे जैसे हो जाओगे
और मैं तो हो ही जाऊँगा बिलकुल तुम्हारी तरह..
पर जल्दी ही
मैं फिर से मैं ही हो जाऊंगा..
इसलिए यदि तुम चाहते हो
कि मैं बन जाऊं तुम्हारी तरह
तो मुझे  रहने दो मैं ही...