उत्तराखण्ड में बारिश की भीषड़ मार को झेलते हुए एक दौर में लिखी गई यह कविता आज फिर याद आ रही है।
सब कह रहे हैं
बारिश बन्द हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा है पानी
पर घर के भीतर तो
पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है;
सड़क पर भी है पानी
आंगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिश बन्द हो चुकी है
7 comments:
घर टापकता है और घर में वो मेहमान हैं
पानी पानी हो रही है आबरू बरसात में
बहुत दिनों बाद आपकी कविता पढ़ी…बरसते रहिये बड़े भाई…आपसे जुदाई अखरती है…
अच्छी कविता विजय भाई। आभार।
बारिश अभी बंद कहाँ हुई है ...!
बड़ी प्यारी कविता है ..... बधाई
बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात है इस कविता में ।[
बड़ी प्यारी ज़िद है आपकी, विजय भाई! और इसी से भीतर का कवि पहचान मे आता है.
Post a Comment