Thursday, November 19, 2009

बचा हुआ मांड हम फेंकते नहीं

भाषाओँ की विलुप्ति पर चिंता व्यक्त करने वाली कवितायेँ यादवेन्द्र जी के हवाले से पहले भी पोस्ट की गईं हैं,इस बार उन्हीम के मार्फ़त स्कॉट्लैंड की कवियित्री ओलिविया मक्महोन की भाषा सम्बन्धी दिलचस्प कविता प्राप्त हुई है। अनुवादक यादवेन्द्र जी का मानना है कि  ओलिविया की कविता में एक ताजगी भरा खिलदंड़पन है । ओलिविया एक ऎसी कवियित्री हैं जिनके कई संकलन छप चुके हैं. इसके अलावा उनके उपन्यास और स्कूल में अंग्रेजी को विदेशी भाषा के तौर पर पढ़ाने  वाली कई पाठ्य पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. आपने खाली समय में वे
 पहाड़ो पर सैर सपाटा करना,पियानो बजाना और अमनेस्टी इंटरनेशनल के लिए धन जुटाना पसंद करती हैं.विभिन्न भाषा भाषियों और राष्ट्रीयताओं के लोगो के बीच के अपने अनुभव इन कविताओं में उन्होंने व्यक्त किये हैं..



नयी भाषा सीखना

कोई नयी भाषा सीखना
भरमाने वाली पहेली सुलझाने जैसा होता है
जिसमे होते हैं लाखों आड़े तिरछे टुकड़े
जो बनाते रहते हैं नए नए चित्र हरदम
यह वैसा ही है जैसे
भटक
 जाये कोई इन्सान परदेसी किसी शहर में
और न हो उसके पास वहां
 का कोई नक्शा
जैसे
 खेलना शुरू कर दे कोई टेनिस
और
 न हो उसके पास गेंद कोई इस खेल की
जैसे टिड्डों के झुण्ड में
धकेल दिया जाये किसी को बना के चींटी
जैसे कलाबाजियां दिखाना शुरू कर दे कोई
और टांगें ही न हो सही सलामत
जैसे अभिनय की मजबूरी आन पड़े
और स्क्रिप्ट न हो हाथ में कोई
जैसे बढईगिरी करनी पड़ जाये
और आरी का आता पता न हो दूर दूर तक
जैसे बन तो जाये कोई किस्सागो
पर
 किस्से में न तो मध्यांतर हो और न ही अंत...

पर इसके बाद धीरे धीरे
लगने लगता है जैसे आप सैर को निकल पड़े हों
अल स सुबह
और कोहरे की चादर धीरे धीरे खींच कर उतारने लगे कोई
जैसे दरवाजे के
 उस पार से कौंध जाये कोई रौशनी
जैसे अचानक हाथ आ जाये वो दस्ताना
जिसके तलाश में मचा रखी थी धमा चौकड़ी
जैसे
 भौंचक्के से पहुँच जायें हम
उस ट्रेन तक जिसका छुटना अवश्यम्भावी था
जैसे छप्पर फाड़  कर दे जाये कोई अप्रत्यासित तोहफ़ा
मंद मंद मुस्कराहट बिखेरता

इस तरह चलते चलते एक दिन लगने लगता है
कि हम चढ़ बैठे हैं साइकिल पर
जो तेजी से उतरती जा रही एक ढलान पर औंधे मुंह....


भात

एक इन्दोनेसिई,एक थाई और एक बंगलादेशी
आ कर खड़े हो गए मेरी किचन के अन्दर..,
तुम्हारे यहाँ कैसे पकाते हैं भात???
पूछती हूँ मैं उनसे.

भात पकाने के बाद हम बचा हुआ मांड फेंकते नहीं
सब इस एक बात पर राजी हो जाते हैं.....
कच्चे चावल से थोडा ऊपर तक रखते हैं पानी..
-तर्जनी जितना ऊँचा
-नहीं,बीच वाली  ऊँगली की पहली गांठ तक
-नहीं,दूसरी गांठ जितना ऊँचा

उन्हें सही सही मालूम नहीं था
कितना ऊपर तक रखना होता है पानी
अब अपने अपने घर लिखेंगे वे चिठ्ठी:
प्यारी माँ,तुम्हारी बहुत याद आती है यहाँ..
ठीक से समझा कर लिख भेजो चिठ्ठी
कैसे पकाया जाता है भात..


शब्दों की अदलाबदली

हमें शालीनता  से पेश आना चाहिए
और उसे स्त्री(१) कह कर पुकारना चाहिए
या,बेहतर हो
कि अभी उसको एक लड़की ही कहें
बात को और खींच सकें हम तो--
क्यों न कहा जाये  उसको एक औरत(२)?
वजह साफ है,औरत आकारहीन होती है
बिलकुल वैसे ही जैसे होता है
इतवार को दोपहर बाद का वक्तहर
 लड़की की होती है एक गुंजायमान आहट
और कुछ न कुछ होने ही वाला होता है उनके साथ
कुछ भी...
बस,लड़की तो होती है एक खालिस मौजयदि
 आप उसे कहने लगें औरत
जैसे कि आदमी होता है आदमी-
तो होने लगेंगे हम बेवजह धीर गंभीर
नहीं,हमें तब तक तो थम कर
इंतजार करना ही चाहिए
जब तक वो दिखने न लगे
किसी अदद माँ जैसी-
तभी वो कही जा सकेगी औरत
या,शालीनता दिखाएँ तो..एक स्त्री(१)
हो सकता है तब भी गुंजाईश बची रहे
उसमे लड़की कहलाने की-
यही होना चाहिए दरअसल
बात को और खींच सकें हम ...तो

(१)lady
(२)woman

 अनुवाद- यादवेन्द्र

Tuesday, November 17, 2009

एक अदृश्य दुकानदार का नाम है साम्राज्यवाद

रोज की जरूरतों में शामिल इच्छाएं ही नहीं बल्कि आवश्यक जरूरतों की चीजों को भी दूभर बना दे रहे मौजूदा तंत्र की आक्रमकता आज छुप न पा रही है। चीजों के दाम पिछले कुछ दिनों में जिस बेतहासा तेजी के साथ दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं, क्या वह चिन्ता का कारण नहीं होना चाहिए ? न सही संतुलित भोजन- जिसमें दाल, सब्जी और दूसरे भोज्य पदार्थ शामिल हों पर पेट भरने के लिए, बेशक सूखी रोटी ही सही, चाहिए तो है ही। पर अफसोस कि दूसरे सामानों की तरह आटा और चावल के दाम भी, जिनके बिना तो जीने की कल्पना ही बेइमानी हो जाएगी, बेतहासा रूप से बढ़ते जा रहे हैं। हमेशा से पिटे-पिटाये लोग ही नहीं बल्कि कसमसाते हुए अपनी सीमित आय से जीने के रास्ते तलाशते परिवारों के लिए भी इस स्थिति को, यदि कुछ और दिन यथावत जारी रही, झेलना शायद संभव न रहे। सड़कों पर उतरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उनके पास शेष न होगा। कवि राजेश सकलानी की कविता पंक्ति अनायास याद आ रही है -

हमें गहरी उम्मीद से देखो बच्चों
हम रद्दी कागजों की तरह उड़ रहे हैं
 

हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका तदभव के 20 वें अंक में प्रकाशित मदन केशरी की कविताएं जो ऐसे ही दूसरे सवालों को छेड़ रही हैं, ध्यान खींचती हैं। मदन केशरी की रचनाओं से मेरा यह पहला साक्षात्कार है। उनकी कविताओं में वे राजनैतिक शब्दावलियां जिन्हें साम्राज्यवाद या पूंजीवाद जैसे भारी भरकम शब्दों में व्यक्त किया जा रहा होता है, एक कवि के रचनात्मक कौशल में बहुत सहज तरह से परिभाषित हो रहे हैं। अपने विन्यास में भी ये कविताएं जो चित्र प्रस्तुत करती हैं वे एक दम साफ-साफ नजर आते हैं। शिल्प की दृष्टि से भी और एक कवि की वैचारिक स्पष्टता की दृष्टि से भी- द्विविधा या संशय जैसा भी कहीं कुछ, जो कई बार पाठक को बोझिल बना रहा होता है, कविताओं में दिखाई नहीं देता। यहां यह कहने की जरूरत भी नहीं लगती कि साम्राज्यवाद और स्वस्थ पूंजीवाद का भेद क्या होता है। अदृश्य दुकानदार के भ्रम जाल को रचता साम्राज्यवाद कैसे एक सीमित रूप के ही सही, स्वस्थ पूंजीवाद को भी तहस नहस कर देने के षड़यंत्र रच रहा है, कवि ने उसे भी बहुत सटीक तरह से पकड़ा है -  
अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास


मदन केशरी की कविताओं से यह साक्षात्कार उस गौरवशाली परम्परा को याद करना ही है जिसमें जनता के पक्ष की प्रबल इच्छाएं जन्म लेती हैं। मदन केशरी की ये कविताएं तदभव से साभार हैं। कवि और तदभव सम्पादक की सहमति के बाद ही इन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।  


-वि. गौ.

मदन केशरी की दो कविताएं


वैश्विक बाजार में लुप्त होने से पहले पटरी बाजार का एक शब्दचित्र

ताजी सब्जियों से भरे पुराने तिपहिये आने लगे हैं
खड़खड़ाहट की आवाज के साथ वे खड़े होने लगे हैं अपनी नियत जगह पर
कुछ टेढ़े मेढ़े जैसी गंुजाइश हुई वैसी, कुछ एक के साथ दूसरे लगे सीधी कतार में
टेम्पुओं से उतर रहे भारी भरकम गट्ठर, धूल झाड़ते बोरे, बड़े बड़े संदूक
गिर रहे मटमैले तिरपाल, कील और छेदभरी बल्लियां
करीने से लपेटे बिजली के तार और बल्ब, रस्सी से बंधी पेट्रोमैक्स की बत्तियां
अभी दो बजे हैं और पटरी वाले अपनी अपनी जगहों पर
टाट और रेक्सीन की नीली चादरें बिछा माल उतारने में व्यस्त हैं
दुकान लगाते, सामान फैलाते पटरी वाले थकान से चूर हैं
और शाम की बिक्री के खयाल से उत्साहित
चिराग दिल्ली से शेख सराय के बीच की पटरी सुगबुगाने लगी है

पटरी पर बिछता माल हर बार वही होता है
नये सिरे से जरूरतों को पूरा करता हुआ
कोल्ड स्टोरों और गोदामों में जो न अंटे वे फल सब्जियां, अनाज दलहन
चीनी मिट्टी के कप प्लेट, तश्तरियां, फूलदान
जो नुक्स के कारण निकाल दिये गये निर्यात की पहली ही खेप से
चादर, गिलाफ, पर्दे, दरियां जो न पहुंच सके
कनॉट प्लेस, करोलबाग, कमला नगर के शोरूमों तक
महंगे बाजारों के छंटुआ स्टील और प्लास्टिक के बर्तन
गांधी नगर के फैब्रिकेटरों के अतिरिक्त जीन्स, जैकेट, स्कर्ट, टॉप
बंद पड़ी फैक्ट्रियों का बचा हुआ माल
और बची हुई फैक्ट्रियों का बंद पड़ा माल
कतारों में एक गझिन बुनावट में  गुंथी दुकानों पर
दफ्तरों से वापस लौटे लोगों और प्रतीक्षा करती औरतों की भीड़ घनी होने लगी है

बल्लियों से लटकते बल्ब के नीचे चमक रहे रेहड़ी पर अंटे सामान
अचार मुरब्बा बड़ियां पापड़ गजक रेवड़ी पट्टी बताशा
बल्बों की जगमग में रह रह कर भभक उठता है गुब्बारे वाले का धुंधुवाता पेट्रोमक्स

गुप्ता जी की कचौड़ी की गर्माहट लोगों की जेबों तक पहुंच रही है
सौ रुपये में पुरानी रेशमी साड़ियां इच्छाओं के गिर्द लिपटने लगी हैं
दस रुपये में ढाई किलो टमाटर बार बार याद दिला रहा फ्रिज का छोटा होना
मोल तोल के बीच, प्याज के बोरे तेजी से खाली हो रहे हैं
बहुतों के स्वाद में उतरने लगा है तरबूज का गहरा लाल रंग
सड़क की धूल और हरे धनिये की गंध हवा का वजन बढ़ा रही है

जहां रोज की जरूरतों में शामिल है इच्छाओं को मारना
यह पटरी बाजार बचाये हुए है चीजों को आम आदमी की सोच से लुप्त होने से

अभी भी अरहर की दाल में पड़ सकती है कभी कभार
एक चम्मच असली घी में भुने हुए जीरे की छौंक
पच्चीस रुपये में एक किलो रस्क बदल सकता है शाम की चाय का जायका
लक्मे या रेवलॉन न सही, अनजान लेबल वाला लिपस्टिक
भर सकता है औरत के होठों में कामुकता का रंग
बच्चों की नींद में अभी भी गिर सकती है रबर की गेंद
यूनीलीवर,  प्रॉक्टर  एंड  गैम्बल  और  पेप्सीको  की  बाजार  नियंत्रक  सत्ता  के बावजूद
आमजन की खरीददारी में अभी भी शामिल हैं चीजों के रंग और स्वाद

उस नीम के पेड़ के नीचे मुट्ठी में बीड़ी रख सुट्टा खींचता
वह खुरदरे चेहरे वाला आदमी
बीस साल से यहां प्याज की ढेरी लगाता है
हर मंगलवार रोशनी में चमकता है उसके प्याज का गहरा बैगनी कत्थई रंग
मगर प्याज की चमक से बाहर, इस बीच चीजें तेजी से बदलती रही हैं
बदल गया है अर्थतंत्रा की हिंसा का शिल्प



अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास
वह दूसरा जो वॉल्स आइसक्रीम के ठेले के पीछे खड़ा है
धारियों वाली गुलाबी कमीज और नीली पतलून के यूनिफॉर्म में
पिस्ते वाली कुल्फी बनाता था और बेचता था घंटी बजा कर
उसकी कुल्फी के लिए लड़के शाम तक बचा कर रखते थे जेब में पांच रुपये
व्यावासायिक डार्विनवाद में पहननी पड़ी उसे वॉल्स की यूनिफॉर्म
वह कोई और है जो पापड़ बड़ियां बेचते बेचते
खींचने लगा एक दिन अचानक रिक्शा
आ चुका है यह पटरी बाजार वैश्विक बाजार के मानचित्रा के नीचे
मगर लुप्त होने से पहले अभी इस शाम
औरत मर्द बच्चों की आवाजों से गूंजता
बल्बों और पेट्रोमैक्स की रोशनी में सराबोर, फैला है
सड़क के इस छोर से उस छोर तक

तेल के दाग भरे कैलेण्डर में चमकता मंगलवार का दिन

यह सप्ताह का वह दिन है जब औरतें घर के अनेक कामों के बीच
अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेती हैं
घर की साफ सफाई, रसोई पानी, कपड़े लत्ते की धुलाई
सारा काम खत्म कर लेती हैं दोपहर तक
बच्चों को स्कूल बस से लाकर जल्दी उनके कपड़े बदलती हैं
एक बर्नर पर सुबह की सब्जी गरम करने को रख दूसरे पर फुल्के सेंकते सोचती है
अभी चार बजे हैं, दो घंटे बाद निकल जायेंगे 
थोड़ा समय मिल जायगा बातचीत का, पास पड़ोस का समाचार जानने का
बहुत दिनों से जबसे बच्चों की परीक्षा चल रही है
किसी से ठीक से दो शब्द बात न हो सकी
केवल आते जाते देख कर थोड़ा मुस्करा दिया या "कैसी हो" पूछ लिया


उस दिन रसोई की खिड़की से बाहर चमकती धूप
चल कर उनके चेहरे पर पहुंचती है
क्या क्या खरीदना है?
कनस्तर में खत्म हो रहा है आटा, पिसवाने के लिए दस किलो गेहूं
काला चना, साबूत मसूड़, चित्ती वाला राजमा एक एक किलो
धनिया, मिर्च, अमचुर सौ सौ ग्राम, एक पाव लहसुन
इस बार बहुत जल्दी खत्म हो गयी हल्दी
पुर्जी पर लिखती हैं चीजों को
जिनके रंग और गंध पहचानती है केवल औरत
"आ रही हो मंगल बाजार?"
खिड़की से एक पूछती है सामने की तीसरी मंजिल की सहेली से
"छै बजे निकलते हैं, आठ बजे बिट्टू के पापा आ जाते हैं दफ्तर से!"
तीसरी मंजिल की सहेली बरामदे से बतियाती है पहली मंजिल की नयी आयी पड़ोसन से

"क्या कर रही हो? काम निपटा लिया? आज पटरी बाजार लगता है, चलोगी साथ

"अरे वह तो अपने पति के साथ जायगी!
किस्मत वाली है, हमारी तरह नहीं!" दूसरे बरामदे से आती है आवाज
"यार, हम भी कोई बुरे किस्मत वाले नहीं!
अब अगर हमारे पति देर से आते हैं तो हमारे लिए ही तो खटते हैं!"
वह हंस कर देती है जवाब
उसके शब्द उसके उ+पर ही टूट कर गिरते हैं
दस रुपये में ढाई किलो बेचते प्याज वाले की दुकान पर मिल जाती हैं औरतें
रोजमर्रा से थोड़े बेहतर कपड़ों में
कुछ की आंखों में काजल से भी ज्यादा चमक है
कुछ के कपड़ों में इस्तरी वाले के कोयले की गर्मी अभी भी मौजूद है
कंधों पर लटकते झोलों में भर रहीं
दूर से बम्पुओं में लद कर आया मूली, हरा लहसुन, आलू, शलजम
जो उन्होंने खरीदा है रोज सुबह आवाज लगाते रेहड़ी वाले की बनिस्बत आधी कीमत पर
और मदर डेयरी, सुभीक्षा और रिलायंस फ्रेश से भी सस्ता
हाथों में झूलते पॉलीथीन में ठूंस ठूंस कर भरा बड़ियों, पापड़, बिस्कुट, रस्क का स्वाद
"अरे आज तो बड़ी जंच रही हो! एकदम फेयर एंड लवली! क्या बात है?"
करीने से बंधी साड़ी, जूड़े और गहरे लिपिस्टक में एक को
ऊपर से नीचे तक देखते कहती है दूसरी
सामने शीशे वाले की दुकान में लटकते आईने में पहली औरत निहारती है अपना चेहरा

"अब क्या! मगर पहले मेरा चेहरा मोहरा बहुत अच्छा था
बेहद शौक था फोटो खिंचवाने का!"
"और, आज टमाटर नहीं खरीदा?"
हरे और चम्पई रंग के सलवार कुर्ते में एक अर्थभरा प्रश्न करती है
"बड़ा बदमाश है, मैं टमाटर चुनती हूं और वह दबी नजर से देखे जाता है!"
"खोजता है हर सप्ताह तुझे!"
"एक बार उससे सब्जी न लेकर बगल से खरीदा
तो बोलने लगा कि आज तो मेरी दुकानदारी ही खराब हो गयी!"
पेट्रोमैक्स की बत्तियां जलने लगी हैं
उनकी रोशनी में चमकती है उनकी हंसी
खरीदती हैं वे चूड़ियां, बिन्दी, पाउडर, प्लास्टिक के क्लिप और रंगीन परांदे
चुनती हैं उनको भी वैसे ही जैसे तन्मयता से चुनती हैं टमाटर और भिण्डी
नाखूनों पर लगाती हैं गाढ़े रंग का आलता
जो बचाता है एक स्त्री को धुएं की कालिख में गुम होने से

छोले भटूरे की दुकान पर एक निकालती है ब्लाउज के अंदर से छोटा पर्स
दूसरी खोलती है रेक्सीन का कत्थई हाथबटुआ
बाकी की मुटि्ठयों में हैं पसीने में कुछ भीगे मुड़े तुड़े नोट
"पिछली बार तूने दिया था, इस बार मैं दूंगी!" रोकती है एक दूसरी का हाथ
"कोई बात नहीं, यार! तूने दिया या मैंने, एक ही बात है!"
देर तक उनकी उंगलियां चलती हैं प्लेटों में
झिलमिलाती हैं बिन्दी वाले माथे पर पसीने की बूंदें
बीतती शाम में नहीं बीतते पांच रुपये के छोले भटूरे
दरवाजे के पीछे टंगे कैलेण्डर में मंगलवार वह दिन है
जिस पर निशान लगाती है झाडू, बर्तन, रसोई में लुप्त एक औरत

Saturday, November 14, 2009

नैनीताल का पहला फिल्म उत्सव

7-8 नवम्बर 2009 को नैनीताल में पहले फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। नैनीताल में यह अपनी तरह का पहला आयोजन था जिसे एन.एस. थापा और नेत्र सिंह रावत को समर्पित किया गया था। इस फिल्म उत्सव का नाम रखा गया था `प्रतिरोध का सिनेमा´। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को उन संघषों से रु-ब-रु करवाना था जो कि कमर्शियल फिल्मों के चलते आम जन तक नहीं पहुंच पाती हैं। युगमंच नैनीताल एवं जन संस्कृति मंच के सहयोग से इस फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया।

आयोजन का उद्घाटन युगमंच व जसम के कलाकारों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करके की गयी। इसी सत्र में फिल्म समारोह स्मारिका का विमोचन भी किया गया और प्रणय कृष्ण, गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ एवं इस आयोजन के समन्वयक संजय जोशी ने सभा को संबोधित किया। इसके बाद आयोजन की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू निर्देशित `गरम हवा´ दिखायी गयी। बंटवारे पर आधारित यह फिल्म दर्शकों द्वारा काफी सराही गयी

सायंकालीन सत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह `स्याही ताल´ का विमोचन किया गया तथा गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ और विश्वम्भर नाथ सखा को सम्मानित किया गया। इस दौरान `आधारशिला´ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। इसके बाद राजीव कुमार निर्देशित 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री `आखिरी आसमान´ का प्रदर्शन किया गया जो कि बंटवारे के दर्द को बयां करती है। उसके बाद अजय भारद्वाज की जे.एन.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर पर केन्द्रत फिल्म `1 मिनट का मौन´ तथा चार्ली चैिप्लन की फिल्म `मॉर्डन टाइम्स´ दिखायी गयी। इस फिल्म के साथ पहले दिन के कार्यक्रम समाप्त हो गये।

दूसरे दिन के कार्यक्रमों की शुरूआत सुबह 9.30 बजे बच्चों के सत्र से हुई। इस दौरान `हिप-हिप हुर्रे´, `ओपन अ डोर´ और `चिल्ड्रन ऑफ हैवन´ जैसी बेहतरीन फिल्में दिखायी गयी। बाल सत्र के दौरान बच्चों की काफी संख्या मौजूद रही और बच्चों ने इन फिल्मों का खूब मजा लिया।

दोपहर के सत्र की शुरूआत में नेत्र सिंह रावत निर्देशित फिल्म `माघ मेला´ से हुई और इसके बाद एन.एस. थापा द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म `एवरेस्ट´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 1964 में भारतीय दल द्वारा पहली बार एवरेस्ट को फतह करने पर बनायी गयी है। यह पहली बार ही हुआ था कि एक ही दल के सात सदस्यों ने एवरेस्ट को फतह करने में कामयाबी हासिल की थी। निर्देशक एन.एस. थापा स्वयं भी इस दल के सदस्य थे। इस फिल्म को दर्शकों से काफी प्रशंसा मिली। इस के बाद विनोद राजा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री `महुवा मेमोआर्ज´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 2002-06 तक उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में किये जा रहे खनन पर आधारित है जिसके कारण वहां के आदिवासियों को अपनी पुरखों की जमीनों को छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह फिल्म आदिवासियों के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही।

सायंकालीन सत्र में अशोक भौमिक द्वारा समकालीन भारतीय चित्रकला पर व्याख्यान दिया गया और एक स्लाइड शो भी दिखाया गया तथा कवि विरेन डंगवाल जी का सम्मान किया गया। इस उत्सव की अंतिम फिल्म थी विट्टोरियो डी सिल्वा निर्देशित इतालवी फिल्म `बाइसकिल थीफ´। उत्सव का समापन भी युगमंच और जसम के कलाकारों की प्रस्तुति के साथ ही हुआ।

समारोह के दौरान अवस्थी मास्साब के पोस्टरों और चित्तप्रसाद के रेखाचित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसे काफी सराहना मिली।
आयोजन की कुछ झलकियां





अवस्थी मास्साब के पोस्टर





चित्तप्रसाद के रेखाचित्र


विरेन डंगवाल जी के काव्य संग्रह का लोकार्पण

गिर्दा का सम्मान

विश्वम्भर नाथ साह `सखा´ का सम्मान

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प





प्रभाष जोशी नहीं थे। हम संवेदना के साथियों के बीच वे मौजूद थे। कथाकार अल्पना मिश्र दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित महाश्वेता देवी के उस स्मृतिआलेख को अपने साथ ले आईं थी जिसमें पराड़कर की परम्परा के पत्रकार प्रभाष जोशी का जिक्र था। प्रभाष जोशी से हममें से कोई शायद ही व्यक्तिगत रूप से परिचित हो, अल्पना मिश्र का सोचना देहरादून के साथियों की उस फितरत के कारण रहा होगा जिसमें तमाम रचनात्मक व्यक्तियों के रचनाकर्म से परिचित होने के बावजूद भी व्यक्तिगत परिचय की बहुत सीमित जानकारियों का इतिहास था। अनुमान गलत भी न था। उपस्थित साथियों में कोई भी प्रभाष जोशी से व्यक्तिगत रूप से परिचित न था। उसी आलेख का पाठ करते हुए हम प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। जनसत्ता जो संख्यात्मक रूप में बेशक सीमित प्रतियों वाला अखबार है, अपने साहित्यिक आस्वाद के कारण हममें से हर एक का प्रिय था। प्रभाष जोशी उसी जनसत्ता के सम्पादक थे। रविवारिय संस्करण के हम ज्यादातर पाठक जो किक्रेट के जिक्र से भरे कागद कारे को अपनी थाली में से हड़प लिए गए किसी साहित्यिक आलेख की जगह के रूप में देखते थे, उस वक्त उन्हीं कागद कारे करने वाले प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प के जिक्र के साथ प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। रविवार में प्रकाशित उनके हालिया साक्षात्कार से असहमति के स्वर भी थे तो अभी तीन राज्यों के भीतर हुए चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर दबंगई से लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी के प्रति आगध स्नेह भी बातचीत में था। कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, मनमोहन चढडा, वेद आहलूवालिया, स्वाति, महावीर प्रसाद शर्मा  मुख्यरूप से उपस्थितों में थे।


स्वाति, वह युवा रचनाकार जो पहली बार संवेदना की बैठक में उपस्थित हुई, अपनी कविताओं के साथ आई थी। उसने कविताओं का पाठ किया। कथाकार/व्यंग्यकार मदन शर्मा ने अपने ताजा व्यंग्य का पाठ किया और अंत में कथाकार सुभाष पंत के ताजा लिखे जा रहे उपन्यास अंश को सुनना गोष्ठी की उपलब्धता रही।

स्वाति का कविता-पाठ आप यहां क्लिक कर सुन सकते हैं-

Thursday, October 29, 2009

नेपाली क्रांति की अवश्यमभाविता


पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं।
वनरावतों पर लिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और सामंतवाद के विरूद्ध संघर्ष की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। प्रस्तुत है नेपाल के सीमांत में रहने वाली राजी जन जाति पर लिखे गए उनके इसी उपन्यास 'काली वार-काली पार" का एक छोटा सा अंश :


उपन्यास अंश

काली वार-काली पार

डॉ.शोभाराम शर्मा


उस साल चौमास (चातुर्मास) कुछ पहले ही बीत गया। आषाढ़-सावन में तो बारिश कुछ ठीक हुई, लेकिन भादो लगते ही न जाने क्यों रूठ गई। बादल आते, कुछ देर आंख-मिचौली खेलते और पिफर अंगूठा दिखाकर न जाने कहां गायब हो जाते। परिणाम यह हुआ कि हरी-भरी पफसल मुरझाने लगी। लगता था कि जैसे पफसल को पीलिया हो गया हो, धान, झंगोरा (सवां), मंडुवा में बालियां तो आ गई थीं, लेकिन ऐन मौके पर वर्षा बन्द हो गई। पुष्ट दानों का तो अब सवाल ही नहीं रहा। अदसार (अर्द्धसार) फसल हाथ लग जाए, बस वही बहुत था। नदी-घाटियों में जहां सिंचाई सुलभ थी, वहां तो अधिक नुकसान की सम्भावना कम ही थी। फ़िर भी आसमानी वर्षा की तो बात ही कुछ और है। उसके अभाव में वहां भी भरपूर फसल की आशा नहीं रही। ऊपर बसे गांवों का तो बहुत बुरा हाल था। मक्के में ठीक से दाने कहां से पड़ते जबकि पानी के अभाव में पौधे ही पीले पड़ने लगे थे। हर नई फसल के हाथ आने से पहले वैसे भी प्राय: हाथ तंग होता ही है। लेकिन जब अगली फसल के मारे जाने का दृश्य आंखों के सामने हो तो लोग कहां और किस ओर देखें। वनवासी राजियों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी। रोपाई, गुड़ाई और निराई के काम से जो थोड़ा बहुत अनाज मिला था वह भी समाप्ति पर था। जंगलों के बीच खील काटकर फसल बोई तो थी, लेकिन बालियां आने से पहले ही सूखने लगी थीं। गींठी (बाराही कन्द), तरुड़ आदि के कन्द अभी तैयार नहीं हुए थे। लाचारी में खोदकर लाते भी तो बेस्वाद खाए नहीं जाते थे।
चिफलतरा के गमेर को अपनी और अपने लोगों की चिन्ता खाए जा रही थी। मुखिया था लेकिन कोई राह नहीं सूझ पा रही थी। अपनी छानी के आगे सांदण के एक कुन्दे को बसूले से छील रहा था कि सामने फत्ते के खेत पर नजर पड़ी। फत्ते के गाय-बछड़े अनाज के पौधों को चट करने में लगे थे। गमेर ने फत्ते को आवाज दी -
फत्ते! अरे वा फत्ते!! गाय खुल गई है रे! बाहर तो आ।
फत्ते छानी से बाहर निकला और गाय-बछड़े हांकने के बजाय झंगोरे के दो-तीन अधमरे पौधे उखाड़कर गमेर के पास आकर बोला-
दाज्यू, गाय खुली नहीं, मैंने ही चरने छोड़ दी है। देखो, फसल तो पूरी चौपट हो चुकी है। सोचा, गाय-बछड़े ही अपना पेट भर लें
गमेर ने पौधे छूकर कहा-
ठीक कहते हो भाऊ, फसल तो सचमुच बर्बाद है, डंगरों के मतलब की ही रह गई है। सोचता हूं यहां से बाहर निकल जाते, लेकिन अभी तो कम-से-कम एक महीना बाकी है।
लेकिन तब तक जिन्दा भी रह पाएंगे दाज्यू? घास-पात खाकर कब तक निभेगी। शिकार-मछली का जुगाड़ भी ठीक से नहीं बैठता तो क्या करें?
फत्ते ने निराश होकर कहा।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। काठ के बर्तन और खेती के जो उपकरण हमने इधर बनाए हैं, वे कब काम आएंगे? उनके बदले अनाज का जुगाड़ तो कर लें। महीने भर का गुजारा तो किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा। कल सुबह अंधेरे में पास के गांव तक हो आएंगे। चुन्या से भी तैयार रहने को कह देना। वैसे गांव वालों की हालत भी पतली है। फ़िर भी कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा,
गमेर से यह सुनने पर फत्ते अपनी छानी की ओर चला गया और गमेर अपने बनाये बर्तनों और उपकरणों को संभालने में लग गया।
अभी पौ नहीं फटी थी। गमेर, चुन्या और पफत्ते तीनों अंधेरे में ही जंगल से होकर चल पड़े - सिर पर काठ के बर्तन और खेती के उपकरण लादे। पाला इतना पड़ा कि पेड़ों से जैसे पानी बरस रहा था। नंगे बदन वे तीनों राजी बुरी तरह भीग गए। ठण्ड से कांपते-सिकुड़ते और जमीन पर केंचुओं को कुचलते हुए वे आगे बढ़ते रहे। न जाने कितनी जोंकें उनके पैरों की उंगलियों के बीच चिपक गई थीं। खुजली का आभास हो रहा था। पूरब की पहाड़ियों पर लाली क्या फूटी कि वे तीनों एक गांव के निकट थे। पनघट सामने था। वहीं बिछे पत्थरों पर बर्तन आदि रख दिए। फ़िर तीनों एक ऐसी घनी झाड़ी में जाकर छिप गए, जहां से पनघट का सारा दृश्य साफ-साफ दिखाई देता था। चुन्या ने कुछ कहना चाहा तो गमेर ने मुंह पर उंगली रखकर चुप रहने का संकेत कर दिया। आवाज करने से उनकी उपस्थिति का पता जो चल जाता। बेचारे इशारों में ही बतियाते रहे और पैरों से चिपकी जोंकों से पल्ला छुड़ाते रहे।
कुछ और उजास हुआ। गांव की दो औरतें पानी लेने आ पहुंची। राजियों के बर्तनों पर नजर पड़ी। गगरियां भरीं और एक-एक ठेकी भी साथ में लेती गईं। यही क्रम चलता रहा। कुछ ही देर में सारे बर्तन और उपकरण उठ गए थे। मुश्किल से दो-चार लोग ही अनाज लेकर आए। झाड़ी में बैठे राजी निराश होकर वह सब देखते रहे। नजरें बचाकर किसी तरह पत्थरों पर रखा अनाज उठाया, अपनी जाफ़ियों (रेशों से बने थैले) में भरा और छिप-छिपाकर अपने रौत्यूड़ा (रावतों अर्थात् राजियों की जंगली बस्ती) की ओर चल पड़े। रास्ते में फत्ते ने गमेर से कहा-
दाज्यू, यह तो कुछ भी नहीं हुआ।
चुन्या भी बोल उठा-
हम तो लुट गए दाज्यू। दो-तीन महीनों की मेहनत और इतना-सा अनाज!
गमेर ने कहा-
हां,इतने कम की आशा तो मुझे भी नहीं थी। लगता है कुछ लोग बर्तन तो ले गए, पर अनाज लेकर लौटे ही नहीं। इतना तो मैं भी मानकर चला था कि लोगों के हाथ तंग हैं, अनाज कम ही मिलेगा। लेकिन लोग बर्तन उठा ले जाएं और बदले में दो दाने भी न दें, इसकी आशा नहीं थी। ऐसी बात पहले कभी नहीं हुई, इसी का दु:ख है।

-तो क्या हम इसी तरह लुटते रहेंगे?, चुन्या ने आवेश में आकर पूछा।
कर भी क्या सकते हैं चुन्या? हम हैं ही कितने? वे अगर अपनी पर उतर आएं तो ---? हां, एक ही उपाय है, रजवार अगर चाहें तो बात बन सकती है। उनका आदेश कोई टाल नहीं सकेगा। जब भी मौका मिलेगा अस्कोट जाकर बात करेंगे। इसके अलावा हमारे पास कोई और चारा भी तो नहीं।
गमेर ने समझाया।

चुन्या और फत्ते पहले तो गमेर से सहमत नहीं हुए। मरने-मारने की बात ही बढ़-चढ़कर करते रहे। लेकिन गमेर ने जब उन्हें बताया कि रजवार तो रिश्ते में "भाऊ" (छोटे भाई) लगते हैं, वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। फ़िर हम हैं कितने जो दीगर लोगों का मुकाबला कर सकें? इस पर उनका जोश ठण्डा पड़ गया और वे भी अस्कोट के रजवार के पास जाने की बात मान गए। अदला-बदली के लिए वे दूसरे गांवों में भी गए, लेकिन वही ढाक के तीन पात। बहुत कम अनाज मिल पाया। किसी तरह दिन काटते रहे कि कब जाड़ा शुरू हो और बाहर निकलने का अवसर आए। घर-गृहस्थी के झंझट में वे रजवार से मिलने की बात तो जैसे भूल ही गए। एक दिन फत्ते को याद आई और वे तीनों गमेर की अगुवाई में अस्कोट के लिए चल पड़े।
जाड़े के मौसम की शुरूआत। तीन-चार दिनों से आसमान पर हल्के बादल छाए हुए थे। दिगतड़ के उफपर सीराकोट-द्योधुरा, गोरी-रौंतिस के बीच यमस्यारी घणधुरा तथा पूर्वोत्तर में गोरी-पार घानधुरा-पक्षयां पौड़ी और छिपलाकोट की ऊंचाइयों पर सफेद कुहरे की चादर मौसम के और बिगड़ने की सूचना दे रही थी। मौसम की परख आदमी से कहीं अधिक पशु-पक्षियों को होती है। चिफलतरा का गमेर बणरौत अपने दो साथियों - चुन्या और फत्ते के साथ अस्कोट के रजवार से भेंट करने निकला था। तीनों लगभग नंगे थे। केवल अपने गुप्तांग ही किसी तरह ढके हुए। मालू की बेल के रेशे से बने कमरबन्द और उसी के चौड़े पत्तों का उपयोग इस कुशलता से किया गया था कि हरे रंग के मुतके (लंगोट) का आभास होता था।
रौंतिस गाड (नदी) तक आते-आते उन पत्राधारी वनरौतों को अचानक एक काखड़ नीचे की ओर भागता नजर आया। वे समझ गए कि बर्फबारी के डर से जानवर नीचे गरम घाटियों की ओर आ रहे हैं। उनकी बांछें खिल गईं। यदि कोई जानवर हाथ लग गया तो रजवार से खाली हाथ भेंट करने की बेअदबी से तो बच ही जाएंगे। गमेर ने अपने तीर-कमान संभाले और दोनों साथियों को सतर्क नजरों से टोह लेने का इशारा किया। वे एक खेत के किनारे क्वेराल (कचनार) के पेड़ के नीचे खड़े थे। फत्ते ने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो मवा की एक शाखा के नीचे काखड़ को खड़ा पाया और गमेर को इशारा किया। काखड़ की नजर दूसरी ओर थी और गमेर ने जो तीर मारा तो काखड़ नीचे रौंतिस के पानी में जा गिरा। गमेर और फत्ते नीचे भागे ताकि काखड़ को कब्जे में कर सकें। लेकिन चुन्या की नजर तो खेत के किनारे गींठी (बाराही कन्द) खोदते एक साही पर टिकी थी। उसने दोनों हाथों से एक भारी सा पत्थर उठाया और दबे पांव पास जाकर साही पर दे मारा। बेचारे साही को अपने तीरों का उपयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। साही भी हाथ लगा और गींठी भी उसने अपनी जापफी (रेशों से बुनी झोली) के हवाले की। पिफर वह भी गमेर और पफत्ते के पास चला आया। गमेर और फत्ते काखड़ को मालू की बेल से एक लट्ठे पर बांध चुके थे। चुन्या और पफत्ते ने काखड़ अपने कन्धों पर उठाया। गमेर ने चुन्या की जापफी भी अपने कन्धे से लटकाई और वे तीनों रौंतिस-पार अस्कोट के लिए चढ़ाई चढ़ने लगे।
वे छिप-छिपकर चल रहे थे। डर था कि कहीं पड़ोस के बसेड़ा, कन्याल या धामी लोगों में से किसी ने देख लिया तो कहीं काखड़ से हाथ न धोना पड़े। रह-रहकर ठण्डी पछुवा के झोंके चलने लगे थे। उफपर आसमान पर बादल भी गहराने लगे और बरसने-बरसने को हो आए थे। वे अभी उबड़-खाबड़ रौंतिस के किनारे से अधिक दूर नहीं जा पाए थे। अचानक पानी बरसने लगा। तीनों रौंतिस के किनारे एक ओडार (गुफा) की शरण लेने पर बाध्य हो गए। ऊंचाइयों पर सम्भवत: बर्फ पड़ने लगी थी। उधर से आते हवा के ठण्डे झोंके कंप-कंपी पैदा कर रहे थे। सौभाग्य से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां और झाडियां पड़ी मिल गईं। गुफा राजी बण-रौतों की यदा-कदा रात बिताने का आश्रय जो थी। मालू की एक बेल भी अपने चौड़े-चौड़े पत्तों के साथ गुफा के आधे खुले भाग को ढके हुए थी। पानी बरसना नहीं रुका तो अब रात उसी गुफा में काटनी थी। चुन्या ने मालू के पत्तों के बीच से बाहर झांका और बोला -
थिप्पे पौवा,(शाम हो गई है)।
ओअं, दे अस्कोट हं पियरे हूँर (हां, आज तो अस्कोट नहीं पहुंच पाएंगे), गमेर ने कहा।
उन्होंने काखड़ का शव गुफा की पिछली दीवार के सहारे एक पत्थर पर रख दिया था। गमेर ने अपनी जापफी से अगेला (आग पैदा करने वाला लोहे का टुकड़ा), डांसी (चकमक और कसबुलु ;एक वन्य पौधा जिसके पत्तों की सफेद परत को रेशों के रूप में उतार लिया जाता है, पुराना होने पर वह रेशा शीघ्रता से आग पकड़ लेता है) निकाले। डांसी से चिनगारियां निकली और कसबुलु ने आग पकड़ ली। सूखी पत्तियों, झाड़ियों और लकड़ियों के बीच रखकर हवा दी तो आग भड़क उठी और तीनों बैठकर आग सेंकने लगे। ठण्ड इतनी अधिक थी कि एक ओर जहां ताप का अनुभव होता, वहीं शरीर का दूसरा भाग सुन्न पड़ता महसूस होता। वे बारी-बारी से आग की ओर कभी मुंह करते तो कभी पीठ और इस तरह ठण्ड से बचने का प्रयास करते रहे। अंधेरा और गहराने पर गमेर ने दांत किट-किटाते चुन्या और फत्ते से कहा -
दे हं चुजावरे हूँर?(आज खाने का क्या होगा?)
चुन्या ने जवाब में अपनी जापफी से साही निकाला। उसके तीर जैसे कांटे उखाड़े और पत्थर के आघात से दो-तीन टुकड़े कर दिए। फत्ते तब तक मालू के साबुत पत्ते चुन चुका था। साही के टुकड़े मालू के पत्तों में लपेटकर धधकती आग में भूनने रख दिए गए और गीठी भी गरम राख में दबा दी गई। कुछ देर में मांस और गींठी दोनों पक गए। कुछ ठण्डे होने पर बिना नमक के ही वे तीनों मांस और गींठी का स्वाद लेने लगे। खाना समाप्त होते ही तीखी ठण्डी हवा फ़िर से सताने लगी। फत्ते ने आग को और धधकाने का प्रयास किया। किन्तु अब लकड़ियां समाप्त होने को थीं, केवल शोले भर रहे गए थे और उनसे तपन उस मात्रा में नहीं मिल पा रही थी, जितनी पहले लपटों से मिल रही थी। तीनों सटकर इस तरह बैठ गए कि एक-दूसरे के शरीर की गर्मी से ठण्ड का प्रकोप शान्त कर सकें। गमेर ने ठुड्डी पर हाथ रखते हुए गम्भीर होकर कहा-
बाप रे! यह हाल तो हमारा है, बेचारे गरीब-गुरबों का क्या होगा?

Monday, October 26, 2009

विश्वावा शिम्बोर्सका की कविता

विश्वावा शिम्बोर्सका पोलेंड में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली कवयित्री हैं। 1996 में उन्हें नोबेले पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी कविताओं को कई भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है।
यहां प्रस्तुत है उनकी एक कविता -

अंत और आरंभ

हर युद्ध के बाद
किसी-न-किसी को सब कुछ ठीक करना पड़ता है
आखिर चीजें अपने आप तो ठिकाने नहीं लग जायेंगी।

किसी को सड़क से मलबा हटाना पड़ता है
ताकि लाशों से भरी गाड़िया गुज़र सकें।

कोई भारी कदमों से चला जाता है
कीचड़ और राख़ से होते हुए,
सोफों के स्प्रिंग कांच के टुकड़ों
और खून सने कपड़ों से बचते हुए

किसी को घसीट कर लाना होता है एक खंभा
गिरती दिवारों से टिकाने के लिये,
किसी को खिड़कियों में कांच लगाने होते हैं,
चौखट में दरवाजा लगाना होता है...

कोई फोटोग्राफर मुस्कुराने के लिये
नहीं कहता बरसों तक।
सभी कैमरे किसी और मोर्चे पर चले गये हैं।
फिर से बनाने हैं पुल और रेलवे-स्टेशन
इसके लिये चीथड़े-चीथड़े हुए कमीजों की आस्तीनें चढ़ानी होंगी।

कोई हाथ में झाड़ू लिये याद करता है
कैसे हुआ यह सब
और कोई सुनता है हिलाते हुए अपना सिर
जो किसी तरह साबुत रह गया है।
लेकिन बाकी सब दौड़-धूप में लगे हैं
किसी कदर बोरियत से भरे हुए।

कभी-कभार ही सही
कोई अब भी गड़े मुर्दों की तरह
उखाड़ लाता है झाड़ियों के पीछे से
एक जंग खाई बहस और कचरे के ढेर में डाल जाता है।

वे जो ये सब जानते थे
उन्हें रास्ता छोड़ देना होगा
उनके लिये जो बहुत कम जानते हैं या उससे भी कम
यहां तक कि कुछ भी नहीं जानते।

और उस घास पर
जो सारे कारणों और परिणामों को
दबा लेती है अपने नीचे
दांतों में तिनका दबाये कोई होगा लेटा
अनमना सा देखते हुए
बादलों का बिखर जाना।

अनुवाद - विजय अहलुवालिया

Saturday, October 17, 2009

एक रचनात्मक खबर



जिस तरह अरविन्द शर्मा के लिए पिछले लगभग 16-17 सालों का देहरादून का घटनाक्रम एक खबर हो सकता है, ठीक वैसे ही देहरादूनियों के लिए अरविन्द की खोज एक खबर से कम नहीं। इस खबर को संभव बनाया है एक ऐसे ही देहरादूनिये ने जिनसे मेरा पहला परिचय अरविन्द भाई ने ही करवाया था- कथाकार सूरज प्रकाश। ब्लाग पर जब भी अरविन्द भाई का जिक्र किया तो ब्लाग पोस्टों को पढ़ने के बाद हमेशा खामोश रह जाने वाले सूरज भाई उस समय खामोश न रह पाए - अरविन्द ने कल अचानक मुझे पिछले बीस वर्षों बाद फोन किया, न जाने कहां-कहां से मेरा फोन नम्बर हासिल करने के बाद। यह सूचना भाई सूरज प्रकाश ने ही मेल की थी। भला ऐसा कैसे होता कि उस गुम हो गए अरविन्द को खोज लिए जाने की खबर देहरादून के बाशिंदों को क्यों न चौंकाती। फोन नम्बर सूरज भाई से मिल गया था। अरविन्द भाई से सम्पर्क हुआ तो चौंक गए। मालूम हुआ कि वे अहमदाबाद में ही हैं और लगातार रचनारत हैं।
अवधेश, हरजीत ( दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं) और अरविन्द ये तीन ही शख्स रहे देहरादून के, जो कई सारे चित्रों को आड़ा तिरछा काट-चिपका कर कोलाज बनाया करते थे। स्कैच भी बनाते थे। स्कैच बनाने वाला तो एक और शख्स रहा रतिनाथ योगेश्वर। वही रति जिसने दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के पहले कविता संग्रह - सदियों का संताप का, जो फिलहाल प्रकाशन, देहरादून से छपा था, कवर पेज स्कैच किया था। आजकल वह भी न जाने कहां है। दो वर्श पूर्व इलाहाबाद में मुलाकात हुई थी। बाद में मालूम हुआ शायद मध्य प्रदेश के किसी इलाके में स्थानानतरित हो गया है वह।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा के कोलाज।

Tuesday, October 13, 2009

किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात




देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।

एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।

Friday, October 9, 2009

मशहूर चित्रकार रोरिख का जन्मदिवस है आज



मशहूर चित्रकार निकोलाई रोरिख का जन्म 9 अक्टूबर 1874 को रूस के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। रोरिख बचपन से ही चित्रकार बनना चाहते थे पर उनके पिता जो कि वकील एवं नोटरी थे, उनको ये पसंद नहीं था इसलिये रोरिख ने वकालत और चित्रकारी की शिक्षा साथ-साथ ली।


अपने जीवन काल में रोरिख ने लगभग 7000 पेंटिंग्स बनाई। जिनमें विभिन्न तरह की पेंटिंग्स शामिल हैं। पर रोरिख की पहचान ज्यादा उनकी लैंडस्केप पेंटिंग्स के कारण ही है। पेंटिंग के अलावा रोरिख ने कई विषयों में किताबें भी लिखी जिनमें प्रमुख है फिलोसफी, धर्म, इतिहास, आर्कियोलॉजी साथ ही रोरिख ने कुछ कवितायें और कहानियां आदि भी लिखे। पूरे विश्व में शांति के प्रचार प्रसार के लिये रोरिख ने कई म्यूजियम एवं शैक्षणिक संस्थान आदि की भी स्थापना की।


रूस में 1917 की क्रांति के बाद से रोरिख ने ज्यादा समय रुस के बाहर ही बिताया। इस दौरान उन्होंने विभिन्न देशों अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन आदि की यात्रा की। न्यूयॉर्क में इन्होंने रोरिख म्यूजियम की स्थापना भी की। इनके अलावा रोरिख ने ऐशियन देशों की यात्रायें भी की और हिन्दुस्तान से तो उन्हें विशेष लगाव रहा। यहां के हिमालयी स्थानों में उन्होंने अच्छा समय बिताया और यहां की संस्कृति आदि से वे बेहद प्रभावित रहे। 13 दिसम्बर 1947 को कुल्लू में रोरिख का देहांत हुआ।


अपने जीवनकाल में रोरिख को कई पुरस्कारों द्वारा नवाजा गया जिनमें प्रमुख हैं रसियन ऑर्डर ऑफ सेंट स्टेिन्सलॉ, सेंट ऐने एंड सेंट व्लादिमीर, यूगोस्लावियन ऑर्डर ऑफ सेंट साबास, नेशनल ऑर्डर ऑफ लिजीयन ऑफ ऑनर तथा किंस स्वीडन ऑर्डर ऑफ नॉर्दन स्टार। इसके अलावा उन्हें 1929 में नोबोल पुरस्कार के लिये भी नामांकित किया गया।

यहां हम उनके द्वारा बनाये गई कुछ पेंटिंग्स लगा रहे हैं


Guests from Overseas


The messenger 


The Vernicle and Saint Princes


Last Angel, 1912.


Song of Shambhala






MosesThe Leader




Chintamani 1936 

Tuesday, October 6, 2009

हिमालय की यात्रायें - २

रामनाथ पसरीचा जी के बारे में पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है और उनका मसूरी का एक यात्रा संस्मरण भी दिया गया था।


इस पोस्ट में प्रस्तुत है उनके कुछ पेंटिंग्स और स्कैच जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान बनाये हैं।


हिमालय में रात



स्वर्गारोहणी


श्रीनगर का एक पुल


अस्तन गांव 


नचार का लालपुर


एक किन्नर


स्पीति की एक महिला

 
माठी देवी का मंदिर

Sunday, October 4, 2009

शार्ट लिस्टिंग की युक्ति का एक नाम आलोचना हो गया है




स्मृतियों की सघनता में दबे छुपे समय को पकड़ने की कोशिश संवेदनाओं के जिस धरातल पर पहुंचाती है, वहां एक ऎसे दिन की याद है जो  सूरज की कोख से जन्म लेती धूप और चन्दा की कोख में पनपती चांदनी के खूबसूरत बिम्ब की संरचना करती है। बिना किसी दावे के , सिर्फ़ सहज अनुभूतियों का घना विस्तार कविता को सिर्फ़ एक मित्र के जन्मदिन की स्मृतियों तक ही सीमित नहीं रहने देता। सहजता का एक और द्रश्य विश्वास में भी दिखाई देता है। भाई प्रदीप कांत से मेरा परिचय मात्र उनके लिखे के कारण  है। उन्हें उनके ब्लाग तत्सम पर पहले पहले पढ़ने का अवसर मिला। इससे ज्यादा मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता। उनकी कविताओं और इधर दो एक बार उनसे फ़ोन पर हुई बातचीत से जो तस्वीर मेरे भीतर बनती है उसमें एक सादगी पसंद सहज और प्रेमी व्यक्ति आकर लेता है। बिना हो-हल्ले के चुपचाप अपने काम में जुटा मनुष्य। बाद में उनके बारे में और जुटाई जानकारियां चौंकाने वाली थी कि वे लगातार लिखते और महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं (कथादेश, इन्द्रपस्थ भारती, साक्षात्कार, सम्यक, सहचर , अक्षर पर्व  आदि-आदि) में छपते रहने वाले रचनाकार होते हुए भी मेरे लिए अनजाने ही थे। यूं मैं इसे अपनी व्यक्तिगत कमजोरी स्वीकार करता हूं कि ब्लाग से पहले मैं कभी उन्हें एक कवि के रूप में क्यों न जान पाया ! पर जब इसकी पड़ताल करता हूं तो पाता हूं साहित्य कि दुनिया के प्रति मेरे आग्रह अनायास नहीं हुए। दरअसल साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने आलोचना के नाम पर जिस तरह से शार्ट लिस्टिंग की है उसके चलते बहुत सा प्रकाशित भी बिना पढ़े छूट जा रहा है। ऎसे ही न जाने कितने रचनाकार है जिनकी रचनाएं समकालीन रचनाजगत के बीच महत्वपूर्ण होते हुए भी या तो अप्रकाशित रह जाने को अभिशप्त है या हल्ला-मचाऊ आलोचनात्मक टिप्पणीयों के चलते पाठकों तक पहुंचने से वंचित रह जा रही है।
प्रस्तुत है कवि प्रदीप कांत की दो कविताएं। 

 वि.गौ.



 

प्रदीप कांत
विश्वास


स्कूल जाते
बच्चे के बस्ते में

चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ

इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन 


मित्र के जन्म दिन पर

                                                     
दीवार पर टंगी है
मुस्कुराती हुई स्मृति
जो स्पर्श कर रही है
तुम्हारे और मेरे बीच
कुछ न कुछ
स्थापित होने की प्रक्रिया को

पता नहीं
सूरज की कोख से
कब जन्मी धूप

चन्दा की कोख में
कब पनपी चांदनी

लेकिन अब भी अंकित है
मन के किसी कोने में
आंचल में बन्धे
एक स्वप्न के
साकार होने की तिथि

आज भी वही दिन है

और मैं देख रहा हूं
ढेर सारी मोमबित्तयों की
थरथराती लौ



अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Saturday, October 3, 2009

सभ्य लोग कोई नाम याद नहीं रखते

हालांकि सभ्य लोग, भले लोगए अच्छे लोगों की परिभाषा गढ़ती हिन्दी की कई कविताएं गिनाई जा सकती हैं लेकिन अरविन्द शर्मा की कविता में व्यंग्य का अनूठापन उसे अन्यों से भिन्न कर देता है। सभ्य लोगों की तस्वीर अरविन्द के भीतर उस कैमरे की आंख से जन्म लेती है जिसके जरिये वह जब वह किसी पेड़ को खास कोण से कैद करता था तो तैयार तस्वीर को देखता हुआ दर्शक चौंकता था एकबारगी। वह पेड़ों के न्यूड चित्र होते। चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाई हुई मुस्कानों की तस्वीर उतारने की बजाय वह सड़कों, गलियों के हुजूम या किसी सामान्य से दिखते आब्जेक्ट को अपने कैमरे में कैछ करता रहा। बहुत मुश्किलों से मिन्नतें करते मित्रों के भी फोटो खींचने में वह ऐसा सतर्क रहता कि एक दिन अचानक से सामने तस्वीर होती और देखने वाला चौंकता और याद करने की कोशिश करता किस दिन खींचा है कम्बख्त ने- एक-एक भाव चेहरे पर उभर रहा है। वह काली-सफेद तस्वीर होती। "टिप-टॉप" की की कुर्सी पर बैठा एक अकेला व्यक्ति होता जबकि जब तस्वीर खींची गई होती वहां टंटों की भरमार मौजूद होती। देहरादून के रचनाकारों के अड्डे "टिप-टॉप" को आबाद करने वाला वह अकेला होलटाइमर था। कविता फोल्डर "संकेत" निकाला करता था, जिसका सम्पर्क पता "टिप-टॉप", चकराता रोड़, देहरादून ही दर्ज रहता। कहने वाले कह सकते हैं "टिप-टॉप" शहर की बदलती आबो-हवा के कारण उजड़ा लेकिन यह असलियत है कि दिन के 14 घंटे "टिप-टॉप" में बिताने वाले अरविन्द के अहमदाबाद चले जाने के बाद खाली वक्तों के सूनेपन ने "टिप-टॉप" के मालिक प्रदीप गुप्ता को उदासी से भर दिया।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा की कविता जो कविता फ़ोल्डर फ़िलहाल ५ के प्रष्ठों से साभार है।
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                        सभ्य लोग
                                                   अरविन्द शर्मा

                                               सभ्य लोग देर तक
                                               कोई नाम याद नहीं रखते
                                               बिना गरज बात नहीं करते ।

                                               घर का पता
                                               फोन नम्बर
                                               डायरी के इतने पृष्ठ रंग देते हैं कि
                                               स्मृतियों के चिह्न दर्ज करने के लिए
                                               कुछ बचता ही नहीं ।

                                               सभ्य लोग कागज के फूलों से
                                               बेहद लगाव रखते हैं
                                               जो न कभी खिलते हैं और
                                               न कभी मुरझाते हैं।

 अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।