पिछले से जारी
दारचा पुलिस चैकपोस्ट के ठीक सामने, उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुलकिला (पहाड़ की चोटी) झांक रही है।
दारचा-केलांग रोड़ के किनारे काले-भूरे बड़े-बड़े पत्थरों का बिखरा होना गवाह है कि कभी सड़क के दक्षिण दिशा की ओर वाले पहाड़ के खिसकने से ही उनका जमावड़ा हुआ है। दारचा वाले बताते हैं कभी इस जगह पर गांव था जो पत्थरों के इस ढेर के नीचे दफ़न हो गया। यह बात कितने वर्ष पुरानी है, ठीक से मालूम नहीं। बस कहानी भर है पहाड़ के खिसकने की। वैसे नदी के किनारे बिखरे पड़े पत्थरों के ढेर को देख कर माना जा सकता है कि कहानी या दंत कथा नहीं सचमुच कोई इतिहास इसके नीचे दबा है। लेह से लद्दाख आते वक्त दारचा पहुंचने पर आनन्द जी के नाम लिखे गए अपने 2/10/1933 के एक पत्र में राहुल सांकृत्यायन भी जिक्र करते हैं इन पत्थरों के ढेर का,
''दारचा के पास बिखरी छोटी बड़ी चट्टानों का ढेर, जिस पर कहीं कहीं एक-आध देवदार के वृक्ष भी खड़े थे---बहुत समय पहले इसी स्थान पर एक बड़ा सा गांव था।
जिसमें सैकड़ों घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्रित हो भोज कर रहे थे, उसी समस बड़ेलाचा की ओर से कोई वृद्ध आया, साधारण भोटिया समान। सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पॉति के नीचे की ओर कर दिया। सबसे अंत में एक लड़का बैठा था, उसने बूढ़े को अपना आसन दे, अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छंड; के बाद वृद्ध अर्न्तध्यान हो गया। लोगों ने नाच रंग शुरु किया। इसी इसी समय एक भारी तूफान आया, जिसके साथ लाखों भारी-भारी चट्टानें पहाड़ से गिरने लगीं, सारा गांव उनके अन्दर दब गया। तूफान ने उस लड़के को दरिया के पार कर दिया, जिसकी संतान अब भी वहां मौजूद है और शायद "ऐतिहासिक घटना" भी उसी की परम्परा से सुनी गयी।"
यूं पहाड़ के गिरने का कारण क्या रहा होगा, यह शोध का विषय हो सकता है पर इस कहानी से इस बात की पुष्टी तो होती ही है कि जरूर ही यहां कोई गांव रहा होगा जो मलबे के नीचे दबा है। देवदार के वृक्ष तो हमने नहीं देखे। पत्थरों पर अन्य किसी वनस्पति का चिह्न भी हमें दिखाई न दिया।
कारगियाक गांव का 25 वर्षीय युवा नाम्बगिल दोरजे हमारे साथ अपने घोड़ों को लेकर चलने के लिए तैयार हो गया। फिरचेन लॉ के रास्ते जांसकर जाने के लिए ज्यादातर घोड़े वालों ने मना कर दिया था। वे रास्ते में पड़ने वाले उस दरिया, जिसको भीतर उतर कर ही पार करना होता है, से भयभीत थे। दरिया का बहाव घोड़ों से हाथ धोने के लिए काफी है वहां, वे कहते रहे। नाम्बगिल दिलेर मालूम हुआ। बिना किसी हिचकिचाहट के उसने जाना स्वीकार कर लिया। अब हम पांच और नाम्बगिल को मिलाकर कुल छै के छै रास्ते की दुरुहता से अनजान दारचा से आगे निकल लिए- बारालाचा की ओर। केलांग सराय से शुरु होगा फिरचे जाने का रास्ता।
बारालाचा से नीचे भरतपुर, जहां टैन्ट होटल है, वहां से आगे बढ़ते हुए युनम नदी पर जहां लकड़ी का पुल है, वही केलांग सराय है। लेह मार्ग को दांहे किनारे छोड़ युनम नदी के साथ-साथ कुछ ही दूर बढ़े थे कि कैम्पिंग ग्राउंड दिखाई दे गया। यूं कैम्पिंग ग्राउंड तो केलांग सराय पर भी है। पर बस रोड़ के एकदम किनारे रुकना ठीक न लगा। ग्राउंड में इंग्लैण्ड से आए स्कूली बच्चों की एक टीम भी रुकी थी। पहुंचने पर मालूम हुआ कि हमसे एक दिन पहले ही वे यहां पहुंच गए थे। टीम में कुल 13 बच्चे हैं, सभी लड़कियां, उम्र 16 से 20 वर्ष के आस-पास। एक अध्यापिका और एक ब्रिटिश फौजी अफसर के साथ वे सभी बच्चे जांसकर की यात्रा पर हैं। केलांग सराय पहुंचने तक उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा। तीन लड़कियों की तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। इसीलिए वे अपनी अध्यापिका के साथ मनाली वापिस लौट जाएंगी। बचे रह गए बच्चे फौजी अफसर के साथ-साथ हमारे ही साथ अगले दिन फिरचेन लॉ को निकलेंगे और फिरचेन लॉ पार करने के बाद वे सिंगोला की ओर मुड़ जाएंगे जांसकर पहुंचने के लिए और हम तांग्जे से होते हुए उनके विपरीत दिशा में पदुम की ओर निकल जाएंगे। 15 सदस्य इस दल के साथ 20 घोड़े, मानली के आस-पास के गांव के चार घोड़े वाले, एक गाईड और एक कुक भी है।
कैम्पिंग ग्राउंड खूबसूरत है। सामने बहती हुई युनम नदी है। नदी पार लेह मार्ग और ऊंची- ऊंची चोटियां। भूरे काले रंग के पहाड़। इधर कैम्पिंग ग्राउंड के से ही उठना हो गई है चोटियां, जिन पर बर्फ जमी है। दोनों बाहों की ओर भी है चोटियां। उन पर भी बर्फ ही बर्फ। कुल मिलाकर बर्फ, पत्थर और रेतीली मिट्टी का साम्राज्य ही बिखरा पड़ा है चारों ओर। बीच में नदी है। टैन्ट के आस-पास कुछ छोटी-छोटी घास है, जिसे घोड़े चर रहे हैं। घोड़ा भी अजीब जानवर है। इसे कभी आराम करते नहीं देखा। या तो घास चरता होगा या फिर पीठ पर बोझा लादे हमारे साथ चलता हुआ। हां, बोझे के उतरते ही एक बार ज़मीन दो तीन करवट लौटेगा और फिर बदन को झाड़कर आस पास के हरे तिर्ण पर मुंह चलाने लगेगा। मालूम नहीं यह जगह घोड़ों को भी उनकी थकान मिटाने वाली लग रही है या नहीं ?
केलांग सराय जिसे हम पीछे छोड़ आए, वहां से सर्चू 19 किमी दूर है। इधर हमें लगभग सर्चू के पास तक आगे बढ़ना है। पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाना है फिरचेन ला के लिए। बर्फीली हवाएं तेज बह रही हैं। हमारे गाल और होंठ जो दारचा में ही फटना शुरु हो गए थे, काफी फट चुके हैं। अब पानी में हाथ लगाना भी आसान नहीं है। युनम नदी में हाथ पांव धोने से पहले जेब में रखे रुमाल को धोने की गलती कर बैठा, ऐसा लगा किसी तेज चाकू की धार के नीचे हो हाथ। ठंडापन ऐसा कि तेज धार चाकू को भी मात कर रहा था। हाथ को तेजी से बाहर निकाल झटकता और मसलता ही रहा कि किसी कटे हुए घाव की सी चिरचिराहट खत्म होने का नाम ही न ले रही थी। ठंड में सिहरन होती है, यह कहना तो कतई सही नहीं लग रहा, कहूंगा की तेज चाकू की धार होती है। आगे ऐसी गलती न करुं शायद कभी भी।
केलांग सराय से आगे जाते हुए जाना कि पहाड़ी मरुस्थल क्या होता है। एकदम लाल-काली चट्टानें, जिनके नीचे तक लुढ़क कर आए हुए हैं पत्थर। उसके बाद रेतनुमा मिट्टी और उसी मिट्टी पर छितरातई हुई हल्की घास। केलांग सराय से आगे का पहाड़ी मरूस्थल तो पहाड़ के प्रति हमारी कल्पनाओं को पूरी तरह से ध्वस्त कर रहा है। एकदम सूखे पहाड़। लम्बे-लम्बे धूल भरे घास के मैदान। पानी का कहीं नामों निशान नहीं। प्यास के कारण गले सूखने लगे हैं। दारचा से सिंगोला पास वाले रास्ते पर भी यूं तो पहाड़ों पर सूखापन इसी तरह बिखरा रहता है पर उस रास्ते में पानी के लिए ऐसे तड़पना नहीं पड़ता। बड़े-बड़े बोल्डरों भरे उस रास्ते पर ऊपर से उतरते दरिया भी स्वच्छ पानी के साथ होते हैं। इस रास्ते पर उस तरह बोल्डरों भरा नजारा तो नहीं, सममतल ही है पर पानी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। गदि्दयों के बसेरों के आस-पास पानी के स्रोत होने चाहिए, इस उम्मीद में कितने ही उजाड़ पड़े बसेरों के आस-पास को छानते हुए बढ़ रहे हैं। पर अंजुली के गीलेपन के लिए भी पानी कहीं नहीं। घास के लम्बे मैदानों में टैन्ट तो कहीं भी लगाया जा सकता है पर पानी का स्रोत कहीं मौजूद नहीं तो फिर कैसे तय करें रुकने का। ऊपर पहाड़ों पर भी बर्फ कम ही दिखाई दे रही है। नाले सूखे पड़ें हैं। जगह-जगह सूखे नालों को देखकर लगता है कि जब पहाड़ों के सिर बर्फ से ढके रहते होंगे तो इस रास्ते से गुजरना आसान न होता होगा। जगह-जगह विभिन्न समय अंतरालों मे लगे कैम्पों के अवशेष दिखाई पड़ रहे हैं। ये गदि्दयों के बसेरे हैं। नाम्बगिल का कहना है इस बार बर्फ कम पड़ी बल्कि पिछले तीन-चार वर्षों से कम ही पड़ रही है। 1992 में जब हमारे कुछ साथी रोहतांग से बारालाचा की यात्रा पर थे, जून के दूसरे सप्ताह में यात्रा शुरु की थी, बर्फ इतनी ज्यादा थी कि तब तक रोहतंग खुला नहीं था। वह तो खुशकिश्मती समझो कि ऊपर से नीचे की ओर देखते हुए दूर सूरज ताल से निकलती नदी के किनारे-किनारे सड़क की झलक दिखाई दे गई थी, वरना उस वक्त तो वे बारालाचा के उस बर्फिले विस्तार में रास्ता भटक ही गए थे। अनाज भी, जो तय दिनों के हिसाब से रखा गया था, खत्म हो चुका था। बल्कि एक दिन पहले ही रास्ता खोजने में निबटा चुके थे। इस वर्ष तो मई में ही खुल गया था रोहतांग। 1997 में भी जब सिंगोला पास को पार कर रहे थे तब भी जांसकर सुमदो पार कर छुमिग मारपो की ओर बढ़ते हुए सिंगोला से काफी पहले ही मिल गई थी बर्फ। लेकिन इस साल तो बर्फ का वो नजारा दिख ही नहीं रहा। बारालाचा भी पत्थरों पर टकराती धूप को ही बिखेर रहा था।
जारी---