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Monday, October 3, 2016

क्लिक्टिविज़्म

चाय की प्याली में तूफ़ान


यादवेन्‍द्र 


अभी अभी ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने अपने नए एडिशन में करीब बारह सौ नए शब्द सम्मिलित किये हैं।संपादकों का कहना है कि नीतिगत तौर पर आम तौर पर वे कोई नया  शब्द तब स्वीकार करते हैं जब दस सालों तक उसका सार्वजनिक प्रयोग करने की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ उनतक पहुँचती हैं। अभी शामिल नए शब्दों में एक शब्द है "क्लिक्टिविज़्म" (cliktivism) जिसका अर्थ है बगैर किसी सीधे प्रत्यक्ष प्रदर्शन में हिस्सेदारी किये इंटरनेट या सोशल मीडिया के प्रचलित उपकरणों के माध्यम से किसी राजनैतिक या सामाजिक मुद्दे का समर्थन करना।अनेक विचारक विरोध प्रदर्शन के इस मार्केटिंग औजार को लोकतंत्र के लिए प्रतिगामी मानते हैं क्योंकि यह आम आदमी को पारम्परिक ( जो सदियों से आजमाया हुआ कारगर तरीका भी है ) शैली के एक्टिविज़्म से विमुख करता है।प्रसिद्ध इतिहासकार रॉल्फ़ यंग ( जिनकी किताब "डिसेंट : द हिस्ट्री ऑफ़ ऐन अमेरिकन आइडियल" हाल में खूब चर्चा में आयी है)कहते हैं कि "टेक्नॉलॉजी प्रतिरोध का महत्वपूर्ण औजार है पर इन दिनों यह देखने में आया है कि कुछ लोग "क्लिक्टिविज़्म" जैसी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं - किसी बात के पक्ष में "लाइक" क्लिक कर के समर्थन व्यक्त करते हैं -पर यह कृत्य कुछ हज़ार लोगों के सड़क पर निकल कर डंडे और आँसू गैस की मार झेलते हुए विरोध प्रदर्शन करने की कतई बराबरी नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि ऐक्टिविस्ट और मिलिटेंट लोगों को टेक्नॉलॉजी का सोच समझ कर और जमीनी तौर पर असर पैदा करने वाले ढंग से उपयोग करना चाहिए। "

Tuesday, July 5, 2016

मेरे मन के द्वार खुले हुए हैं पूरे के पूरे

स्मृति शेष : अब्बास क्योरोस्तमी


76 वर्ष की उम्र में कैंसर के चलते हमसब को ग़मज़दा छोड़ कर खुदा को प्यारे हो गए अब्बास क्योरोस्तमी (फ़ारसी में उन्हे अब्बोसे क्योरोस्तानी कह कर पुकारा जाता है) ईरान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार ,पेंटर और फ़ोटोग्राफ़र थे जिनकी गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में की जाती है। जापान के शिखर के फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने अब्बास क्योरोस्तमी के बारे में कहा : मैं अब्बास के बारे में अपनी भावनाओं को शब्दों में बयान नहीं कर सकता ...सत्यजित रॉय के इंतकाल की खबर सुनकर मेरा मन गहरे अवसाद से भर गया ,पर अब्बास क्योरोस्तमी की फ़िल्में देखने के बाद मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि उनकी कमी पूरी करने के लिए बिलकुल उपयुक्त फ़िल्मकार धरती पर भेज दिया। अपने देश की सामाजिक संरचना पर गम्भीर कटाक्ष करने के चलते उन्हें फ़िल्में बनाने के लिए न तो किसी प्रकार की सरकारी सहायता मिलती थी न ही ईरान में उनके प्रदर्शन की अनुमति थी। इस बाबत उनसे अक्सर पत्रकार सवाल करते रहे थे ,एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : "मैं हुकूमत का शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मेरी फ़िल्में रिलीज़ करने पर पाबंदी लगायी है ,उनके हाथ में इतना ही है बस ....अच्छी बात यह है कि उनके हाथ इस से आगे नहीं पहुँचते। जहाँ तक मेरी फ़िल्म के प्रशंसक दर्शकों की बात है वे इसे गैरकानूनी ढंग से हासिल करते हैं और खूब देखते हैं। फल पकने के बाद हवा में उड़ रहा है ,जिसकी मर्ज़ी उसको पकड़े और खाना चाहे तो खाये ... हवा जानती है उसको कहाँ किसके पास तक ले जाना है। " वे यह भी कहते थे कि सरकार ने बीते सालों में मेरी कोई फ़िल्म ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दी ... उन्हें उन फ़िल्मों की कोई समझ ही नहीं है। अपनी धरती से जुड़े रहने के आग्रह और उसके कारण रचनात्मक स्तर पर सालों साल से पेश आ रही मुश्किलों के कारण मन में पैदा हुई कड़वाहट को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था :"मुझे इसका इल्म बिलकुल नहीं कि सही क्या है और गलत क्या है ,पर यह क़ुबूल करने में मुझे कोई परेशानी नहीं कि मुझमें किसी प्रकार के राष्ट्रीय गौरव का भाव नदारद है.... मैं ईरानी हूँ तो किसी तरह का फ़ख्र इसको ले के मेरे मन में नहीं है ... मैं बस जैसा हूँ वैसा ही हूँ। अक्सर मैं खुद को किसी दरख़्त की तरह देखता हूँ ,उस दरख़्त का उस धरती के लिए कोई विशेष आग्रह नहीं होता जिसपर वह खड़ा होता है ... उसका काम फल देना है ,पत्तियाँ देना है और खुशबू बिखेरते रहना है।" सृजनात्मक भूख को मिटाने के लिए अब्बास क्योरोस्तमी ने कई बार अलग अलग तरह के काम किये - बाकायदा फ़िल्मकार बनने से पहले उन्होंने पेंटिंग की ,विज्ञापन के लिए फ़ोटो खींचे और लघु फ़िल्में बनायीं ,किताबों के लिए ग्राफ़िक्स और चित्र बनाए ,कवितायेँ लिखीं और संकलित किया।पिछले दशक में लंदन में मोजार्ट का एक ऑपेरा निर्देशित किया और क्यूबा जाकर नवोदित युवा फ़िल्मकारों दस दिन की एक वर्कशॉप आयोजित की। जब अभिव्यक्ति पर हज़ार ताले पड़े हों तो कोई भी हार न मानने वाला कलाकार वही करेगा जो अब्बास क्योरोस्तमी ने पिछले महीनों में किया - अपने देश में फ़िल्में वे बना नहीं सकते सो पिछले दो दशकों में खींचे छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी कनाडा में लगा दी जिसका शीर्षक रखा 'डोर्स विदाउट कीज़'...... इस प्रदर्शनी में सभी भारी भरकम किवाड़ हैं जिनपर कभी न खुल सकने वाले मोटे ताले जड़े हुए हैं। इस प्रदर्शनी के विषय और उद्देश्य के बारे में अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था :"देखने में मेरा काम किसी डिफेंस मेकैनिज्म जैसा लग सकता है पर यह तमाम बंदिशों और यंत्रणाओं के प्रति एक प्रतिरोध कर्म भी है। इन किवाड़ों की ओर मुझे जो बातें सबसे ज्यादा खींचती हैं वे हैं जीवन .. उम्र का पकना ... और पकी उम्र की खूबसूरती ..... इन किवाड़ों के पीछे क्या घटित हो रहा है ?इनसे बाहर कौन खड़ा है कि किवाड़ खुले और वह अंदर दाख़िल हो ?कौन है जो उन बंद किवाड़ों पर निगाहें मारता हुआ पास से चुपचाप गुज़र रहा है ?नयी तरह के किवाड़ों में अंदर झाँकने के लिए सूराख़ बने होते हैं पर इन पुराने किवाड़ों में वो कहाँ ... दरअसल ये उस ढब के जीवन की याद दिलाते हैं जो अब कहीं नहीं हैं। " फ़ोटो के साथ उन्होंने दो और माध्यमों का बड़ा भावपूर्ण सृजनात्मक इस्तेमाल किया है ... किवाड़ों के खुलने बंद होते समय उत्पन्न ध्वनियों का ,उनकी चरमराहट का , पार रहने वाले लोगों के दैनन्दिन जीवन की ध्वनियों का - मनुष्य ध्वनियों के साथ पंछी के कलरव का। और साथ साथ अपनी बेहद छोटी पर भावपूर्ण कविताओं का भी।

 प्रस्तुति : यादवेन्द्र

प्रदर्शनी में लगी हुई उनकी कविताओं के कुछ नमूने  :


घंटी खराब है 
मेहरबानी कर के 
किवाड़ पर दस्तक दीजिये ...... 
**********
मैं आया 
आप मिले नहीं 
सो मैं उलटे पाँव लौट गया ....  
************
हवा ने 
खोल दिया जर्जर किवाड़ 
फिर बंद कर रही है उसे 
चर्र चर्र 
एक बार नहीं 
बार बार .....  
**********
चाभियाँ दर्जनों हैं 
जो सदियों से यहाँ पड़ी हुई हैं 
मैं उनको कैसे फेंकूं 
कहाँ है ऐसी जगह जहाँ ताले नहीं ....  
************
भारी भरकम ताला 
रखवाली कर रहा है 
बिना छत वाली हवेली के 
सड़े गले किवाड़ की ...  
************
आज मैं दिन में घर रहूँगा 
और किसी के लिए खोलूँगा नहीं 
किवाड़,  पर 
मेरे मन के द्वार 
खुले हुए हैं पूरे के पूरे 
दोस्तों के लिए जो मुझसे 
तीखी बहस में उलझते हैं हमेशा 
और अड़ियल 
परिचितों के लिए भी ....  

Monday, June 6, 2016

सोचने वाला बॉक्सर

आज सुबह सुबह यादवेन्‍द्र जी का संदेश मिला, 'ब्‍लाग के लिए सामग्री भेजी है।' मेल देखा तो बहुत मन से लिखे गये और मुहम्मद अली के जरूरी उदगार दिखे। यादवेन्‍द्र जी का आभार।

 वि.गो.
 


मुहम्मद अली बॉक्सिंग से रिटायर होने के बाद हेनरी किसिंजर की तरह किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने की बात अक्सर किया करते थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त निर्भीकतापूर्वक अपने सुस्पष्ट एवं प्रखर विचारों को बेवाकी के साथ कह देने का धर्म निभाया। उनके कुछ वक्तव्य गहरी समझ का पर्याय हैं ,इनमें से एक वक्तव्य यहाँ उद्धृत है ।

प्रस्तुति : यादवेन्द्र
"जो लोग मुझसे यह जानने की इच्छा रखते हैं कि कल दुनिया में उपस्थित न रहने पर मैं किस तरह याद किया जाना चाहूँगा ,उनके लिए कहना चाहूँगा :

मुहम्मद अली

उसने कुछ प्याले प्यार के पिये 
एक बड़ा चम्मच सब्र का लिया 
छोटे चम्मच में दरियादिली 
और कटोरी भर नेकी 
हँसी ठट्ठा गिलास भर कर लिया 
और उसमें डाला  चुटकी भर लगाव और अपनापन  
उसके बाद ख़ुशी के रस में घोल दी अपनी स्वीकृति 
उसके पास बहुत बड़ी थी भरोसे की गठरी , उसमें वह भी मिलाया 
सबको अच्छी तरह से घुमा घुमा कर फेंट दिया .... 
पूरे जीवन को रोटी जैसा फैला कर
उसपर उड़ेला फैला दिया तैयार किया हुआ लेप 
और हर उस को थमाता रहा हाथ में एक एक टुकड़ा 
जिन जिन से सफ़र में  मुलाकात हुई 
और लगे वे साझेपन के सुयोग्य अधिकारी। 

Thursday, May 26, 2016

महानता के मारे



यह जो ऊपर शीर्षक है – ‘’महानता के मारे’’, यह इस बात को नहीं बताता कि किस महानता की बात हो रही। लिखने वाले चाहें तो लिख ही सकते हैं संबंधित क्षेत्र- क्रिकेटर/ वैज्ञानिक/ लेखक/ कवि/फेसबुकिये, आदि आदि।

लिखा तो यहां भी जा सकता था। पर अभी मेरे भीतर कोई ऐसी ग्रंथी फूलने को नहीं जिसको देखकर लोग मुझे आदतन मुफ्त की चिकित्‍सकीय सलाह बांटने लगें। यद्यपि दावे से मैं भी नहीं कह सकता कि सच में ही ऐसी किसी ग्रंथी का रोग मेरे भीतर भी न हो। इस तरह की कोई चिकितसकीय जांच मैंने नहीं कराई है। वैसे भी मुझे स्‍वंय की चिकित्‍सा करने का रोग तब से ही लगा हुआ है जब से मैंने होम्‍योपैथी चिकितसा पद्धति को अपनाना शुरू किया। कभी असमान्‍य महसूस करता हूं तो चिकित्‍सक के पास जाने की बजाय, एक सीमा तक अपना इलाज खुद ही कर लेता हूं। कई बार घर परिवार के लोगों और दोस्‍तों को दवा देने की हिमाकत कर चुका हूं। वैसे उनका कुछ बिगड़ा नहीं, ठीक हो ही गये। हां, होम्‍योपैथी की उन छोटी छोटी ओर अचूक गोलियां बेशक उनके भीतर सम्‍मान न पा पाईं, उन्‍हें तो यही लगा कि जैसे उन्‍हें कोई ऐसी बीमारी हुई नहीं थी, स्‍वस्‍थ ही थे। 

होम्‍योपैथी को जानने समझने और बहुत सी दवाओं को जरूरत पड़ने पर फिर फिर इस्‍तेमाल करने को जुटाने का मेरा अपना ही तरीका रहा। कभी किसी बीमारी ने घेरा तो डाक्‍टर को दी जाने वाली फीस और खरीदी जाने वाली संभावित दवाओं की कीमत, जो उससे पहले के जीवन के अनुभव रहे, का अनुमान लगाकर उन्‍हें सिर पर आ पड़ा खर्चा मान, मैंने उस उस समय पर होम्‍योपेथी चिकितसा पद्धति की किताबें और रोग लक्षणों के आधार पर चुन ली गयी दवाओं की कितनी ही शीशियां खरीदी हुई हैं। यहां तक कि सुगर बाल और किसी को कभी दवा बना कर देने के अनुमान से खाली खोखे भी। एक आला, एक प्रेशन नापने का यंत्र और एक थर्मामीटर भी, जबकि उनकी जरूरत मुझे शायद ही कभी पड़ी हो। मैं तो रोग को पहचानने के लिए लक्षणों पर यकीन करने लगा हूं और जितनी भी तरह की व्‍याधियां दिख रही हों उनके लिए एक अचूक दवा तलाश कर ही रोग का निवारण करने में सफल रहा हूं। बताता चलूं कि मैंने जब भी खुद को रोगी पाया है तो मेरे सम्‍पूर्ण को, खण्‍ड खण्‍ड करके तमाम तरह की रोग जांचों वाली चिकितसा पद्धति से मैंने अपने को बचाने पर ही यकीन नहीं किया, बल्कि उन जांचों के बाद प्रस्‍तावित की जाने वाली तरह तरह की दवाओं से अपने को बचाया है। बल्कि उन अनाप सनाप दामों में लुटने से भी बचाया हे जिनमें वे बिकती हैं।  लेकिन यह भी सच है कि ऐसा करते हुए कइ्र बार मैं भी कमजोर साबित हुआ और शुभेक्षुओं की सलाह पर उस पद्धति को ही अपनाने और उन दवाओं पर ही पैसा लुटाने के लिए मजबूर हुआ। ऐसी स्थितियों में भी बहुत जिद्द के साथ मैं अपनी होम्‍योपैथी की दवाओं को पूरी तरह से परित्‍यााग करने वालों से लोहा लेता रहा और साथ साथ उन्‍हें भी इस्‍तेमाल करते रहने की छूट लेता रहा हूं।

अरे, बात तो शीर्षक में आदि आदि वाले क्षेत्रों की हो रही थी। तो मैं यहां उन आदि आदि क्षेत्रों के नाम नहीं देना चाहता, वैसे भी वह कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं, जिनमें महानता के मारे बहुत वाचाल हुए जाते हैं। यह मैं उन लिक्‍खाड़ों के लिए छोड़ता हूं जो जमाने की प्रवृति को खण्‍ड खण्‍ड में देखने पर यकीन करते हैं। वैसे आप देख सकते हैं कि कि फेसबुक पर महानता के मारे बहुत से लोगों की आमद इस बीच बढ़ी है। वे रोज कोई न कोई ऐसा किस्‍सा लेकर सामने होते हैं कि आदि आदि के मारे लिक्खाड़ो को मौका मिल ही जाता है जो लिख/कह ही देते हैं -  महानता के मारे फेसबुकिये। उस वक्‍त उन्‍हें भी महानता के मारे रोग से तो ग्रसित माना ही जा सकता है न शायद।

Friday, March 11, 2016

अभिव्यक्ति का झूला

“शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।“ एडुआर्डो गैलियानो का यह वक्तव्य डा. अनिल के महत्‍वपूर्ण अनुवाद के साथ पहल-102 में प्रकाशित है।
 
इस ब्लाग को सजाने संवारने और जारी रखने में जिन साथियों की महत्वतपूर्ण भूमिका है, कथाकार दिनेश चंद्र जोशी उनमें से एक है।
 
जोशी जी, भले भले बने रहने वाली उस मध्य वर्गीय मानसिकता के निश्छल और ईमानदार व्य।वहार बरतने वाले प्रतिनिधि हैं, जो हमेशा चालाकी भरा व्यवहार करती है और लेखन में विचार के निषेध की हिमायती होती है। पक्षधरता के सवाल पर जिसके यहां लेखकीय कर्म के दायरे से बाहर रहते हुए रचनाकार को राजनीति से परहेज करना सिखाया जाता है और रचना को अभिव्यक्ति के झूले में बैठा कर झुलाया जाता है, इस बात पर आत्म मुगध होते हुए  कि चलो एक रचना तो लिखी गयी। जोशी जी का ताजा व्यंग्य लेख इसकी स्पष्ट मिसाल है।
 
असहमति के बावजूद लेख को टिप्‍पणी के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्पष्‍ट है कि ब्लाग की विश्ववसनीयता कायम रहे। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत हो सके, एवं ऐसे गैर वैचारिक दृष्टिकोण बहस के दायरे में आयें, जो अनर्गल प्रचारों से निर्मित होते हुए गैर राजनैतिक बने रहने का ढकोसला फैलाये रखना चाहते हैं लेकिन जाने, या अनजाने तरह से उस राजनीति को ही पोषित करने में सहायक होते हैं, जिसके लिए ‘लोकतंत्र’ एक शब्द मात्र होता है- जिसका लगातार जाप भर किया जाना है, ताकि अलोकतांत्रिकता को कायम रखा जा सके।

वि.गौ.

व्यंग्य लेख

                                 वाह कन्हैया, आह कन्हैया

         दिनेश चन्‍द्र जोशी
          9411382560
 
एक कन्हैया द्वापर युग में पैदा हुए थे, दूसरे आज के साइबर युग में प्रकट हुए है। द्वापर वाले कन्हैया गोपियों के साथ रास नचाते थे, ये नये वाले जे.एन.यू की गोपियों के साथ विचारधारा रूपी प्रेमवर्षा में स्नान करते हैं। ये बौद्धिकता की वंशी बजा कर जे.एन.यू के ग्वाल बालों को सम्मोहित करते हैं, देश उनके लिये कागज में बना नक्सा भर है, जिसको रबर से मिटा कर बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य है, ''देश से नहीं, देश में आजादी,''  उनका नारा है, ''आजादी, आजादी'', मुह खोलने की आजादी, मन जो कहे उसे उड़ेलने की आजादी। क्योंकि उनका मन अभिव्‍यक्ति के लिये छटपटाता रहता है, इसी छटपटाहट के तहत उनकी संगत कुछ देश द्रोही किस्म के ग्वाल बालों से हो गई थी। वे आजादी के मामले में इससे दो हाथ और आगे थे, वे नारे लगा रहे थे, देश के टुकड़े टुकड़े कर देंगे, मुटिठयां उछाल रहे थे, हुंकारा भर रहे थे, आग उगल रहे थे, कन्हैया भी उनके झांसे में फंस गये, उस भीड़ में प्रकट नजर आये, नैतिक समर्थन देने को उत्सुक से। टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वाले भूमिगत हो गये।   छात्रसंघ के अघ्यक्ष होने के नाते  कन्हैया धर लिये गये। हवालात में, सुनते हैं, कन्हैया की ठुकाई भी हुई। उनका मोरमुकुट बंशी वंशी सब तोड़ दी गई होगी, जाहिर सी बात है। उन पर राजद्राोह का आरोप लगाया गया। कन्हैया की गिरफ्तारी पर बवाल मच गया। सारे जे.एन.यू के ब्रजमंडल सहित वामदल,पुष्पकमल दहलवादी विफर पड़े। देशभक्ति  की भाावुकता को संघियो का षडयन्त्र बताया, तर्क,विचार, ज्ञान,शोध आजादी के अडडे की श्रेष्ठता को बदनाम करने की साजिश बताया। सेक्युलरवादियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोये। राहुल बाबा की बैठे बिठाये मौज हो गई। नितीश बोले, ये मथुरा वाला नहीं ,हमारे  बेगूसराय वाला कन्हैया है, इसको हिन्दूवादी तंग कर रहे हैं, अलबत्‍ता लालू जी के गोल मटोल ढोल से कुछ मौलिक किस्म का प्रहसन नहीं झरा। दक्षिणपंथियों ने देशभक्ति की विशाल रैली निकाली, तिरंगे फहराये, केशरिया लहराये, कहा, बन्द कर देने चाहिये देशद्रोह के जे..एन.यू जैसे अडडे, जहां पर शराब, ड्रग्स, कंडोम बहुतायत में पाये जाते हैं। ऊपर से देश के टुक्ड़े टुकड़े करने के नारे भी लगाये जाते हैं। आंतकवादी इनके आदर्श हैं, हाफिज सईद इनका सरगना है, इन सबको पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिये। मीडिया की बहार हो गई, देशभक्ति व देश द्रोह की परिभाषायें खंगाली गई,कानूनी टीपें खोजी गई। इन विषयों के वक्ता प्रवक्ताओं की दुकानें चैनलों पर जम कर चलने लगी। भगत सिंह, गोलवलकर, गांधी, गोडसे सब लपेटे में लिये गये। कुछ ने सोनियां को महान देशभक्त बताया। उधर हनुमनथप्पा सियाचीन में बफ्र्र के नीचे दबे कराहते रहे, इधर जे.एन.यू के मुकितकामी, देशभक्ति को छदम अवधारणा ठहराने का तर्क गढ़ते रहे।  कन्हैया को कोर्ट में पेश किया गया, वहां काले कोट वालों ने उन पर लात घूंसे जड़ने की चेष्टा की, कुछ इस अभियान में सफल भी हुए,कुछ निराश जो देशभक्ति का कर्ज नहीं चुका पाये। बड़ा विलोमहर्षक –दृश्य था, जनता भौचक्की रह गई, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर देशभक्ति होती क्या चीज है, तिरंगा फहराना या काले झंडे दिखना। जनता बिचारी को खुद अपनी देशभक्ति पर शक होने लगा। इधर कन्हैया को जमानत भी मिल गई, वे हवालात से हीरो बन कर लौटे, उनका इन्टरव्यू लेने को मीडिया में होड़ मच गई है।  कन्हैया ने जे.एन.यू के ग्वालबालों को भाषण दिया,उनको देशभक्ति की व्याख्या समझाई, वे काले जैकिट के भीतर सफेद टी शर्ट में सलमान खान वाले अंदाज में नमूदार हुए। जे.एन.यू की गोपियां उसकी रोमानिटक बौद्धिकता पर फिदा हुई। कन्हैया ने अपनी मां की गरीबी का हवाला दिया। उसने स्वयं को विधार्थी व बच्चा भी कहा, इस बच्चे ने फिर राजनीतिक भाषण दिया,उसका भाषण सुन कर तीसियों साल वामपंथ में खपा चुके बूढ़े कुंठित हुए। कन्हैया ने कहा, हमें मुक्ति चाहिये, गरीबी से, बेरोजगारी से, साम्प्रदायिकता से, सामन्तवाद से मुक्ति। हमें छदम देशभक्ति से मुक्ति चाहिये, असहिष्णुता से मुक्ति। मुक्ति का पाठ पढ़ाता कन्हैया, बच्चे से एक घाघ नेता में तब्दील नजर आया। उसकी नेतागिरी से प्रभावित हो कर सीताराम येचूरी ने उसको अपना चुनाव प्रचारक घोषित कर दिया,बंगाल के चुनाव हेतु। केजरीवाल उसके मुक्ति पाठ से प्रेरित होकर कहने लगे,हमें भी मुक्ति चाये,राज्यपाल जंग से। उसका मुक्ति पाठ इतना प्रभावशाली था कि उस पाठ ने कइयों को अपनी जद में ले लिया। स्त्रियां पतियों से मुक्ति चाहने लगीं,कर्मचारी बास से, बच्चे अभिभाावकों से, कांग्रेसी सोनियां राहुल से, विपक्षी मोदी सरकार से मुक्ति चाहने लगे,सत्‍ताधारी सहिष्णुता के ठेकेदारों से। गीतकार आधुनिक कविता से मुक्ति चाहने लगे, कहानीकार,लम्बी कहानी लाबी से। कन्हैया का मुक्ति पाठ वायरल हो गया। कन्हैया का देशद्रोह सफल हो गया, हालांकि उसकी मुक्ति व स्वच्छन्दता का राग कइयों के गले नहीं उतर रहा है,वे उसकी ठुकाई तैयार बैठे है, उसके सिर पर इनाम घोषित हो चुका है, ये उसको कंस बना कर छोड़ेंगे।
 

Monday, January 11, 2016

यह कैसी सांस्‍कृतिक होड़ है

तकनीक पर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त डाल कर मुनाफे की हवस से गाल फुलाने वाले बाजार ने विकास के मानदण्‍ड के लिए जो पैमाने खड़े किये हैं, उसने वैयक्तिक स्‍वतंत्रता तक को अपना ग्रास बना लिया है। मनुष्‍यता के हक के किसी भी विचार को शिकस्‍त देने के लिए उसने ऐसे सांस्‍कृतिक अभियान की रचना की है, हमारे मध्‍यवर्ग मूल्‍य भी उसके आगोश में खुद ब खुद समाते जा रहे हैं। विभ्रम फैलाते उसके मंसूबों को पहचानना इसलिए मुश्किल हुआ है। सौन्‍दर्य प्रतियोगिताओं का फैलता संसार उसकी ऐसे ही षडयंत्रों की सांस्‍कृतिक गतिवि‍धि है। देख सकते हैं पिछले कई सालों से दुनिया भर के तमाम पिछड़े इलाकों में उसकी घुसपैठ ने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का आक्रमण सा किया है। ऐसे ही एक अाक्रमण के प्रति पत्रकार जगमोहन रौतेला की चिन्‍ताएं देहरादून से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका युगवाणी के जनवरी 2016 के पृष्‍ठों पर दिखायी दी है जिसे यहां इस उम्‍मीद के साथ पुन: प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि बाजारू संस्‍कृति के आक्रमणकारी व्‍यवहार पर एक राय बनाने में मद्द मिले।
- वि.गौ.          

*** जगमोहन रौतेला 


महिलाओं को बाजार का हिस्सा बनाने का एक दूसरा षडयंत्र है तरह- तरह की सौंदर्य प्रतियोगितायें . वैसे ये प्रतियोगितायें सालों से होती आ रही हैं , लेकिन पहले इसमें मध्यवर्ग की महिलायें ( लड़कियॉ ) हिस्सा नहीं लेती थी . फैशनपरस्त परिवार की लड़कियॉ ही इसमें हिस्सेदारी किया करती थी . पिछले कुछ दशकों से जब से बाजारवाद ने मध्यवर्ग को भी अपनी चपेट में लेना शुरु किया तब से इस वर्ग की लड़कियों में भी " सुन्दर " दिखने की चाह जाग उठी है . सुन्दर दिखाने की यही चाहत उसे देश और विदेश में सौन्दर्य के नाम पर होने वाली कथित प्रतियोगिताओं की ओर भी आकर्षित कर रही है . यही आकर्षण मध़्यवर्ग की लड़कियों को इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने को " उत्तेजनापूर्ण " तरीके से प्रेरित करता है . बाजारवाद के इस अतिवाद भरे दौर में जब से 1990 के दशक में ऐशवर्या राय को " मिस वर्ड " और सुष्मिता सेन को " मिस यूनिवर्स " बनाया गया तो तब से भारत के मध्यवर्ग में अपनी लड़कियों को सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भेजने की एक अलग तरह की होड़ सी मची है . कुछ इसी तरह की होड़ राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में जबरन दिखायी जा रही है . यहॉ के अधिकतर शहर उच्च जीवन शैली वाले न होकर कस्बाई संस्कृति वाले ही हैं . इसके बाद भी कुछ लोग जबरन देहरादून जैसे कथित आधुनिक शहर में सौन्दर्य प्रतियोगितायें करवाते रहते हैं . इसकी चपेट में अब हल्द्वानी को लिया जाने लगा है . कुछ साल पहले देहरादून की निहारिका सिंह ने भी कोई अनजान सी सौन्दर्य की प्रतियोगिता जीत (?) ली थी . उसके बाद वह जब देहरादून आयी तो उसने एक लम्बा - चौड़ा बयान अखबारों को दिया कि उत्तराखण्ड की हर लड़की निहारिका सिंह बन सकती है . कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली निहारिका सिंह अब कहॉ है और क्या कर रही है ? शायद ही आम लोगों को पता हो ? निहारिका आज जहॉ भी हो लेकिन उत्तराखण्ड में सौन्दर्य का बाजार तलाशने वाले कुछ चंट - चालाक लोगों के मंशूबे अवश्य ही फलीभूत हुये हैं . ऐसे ही लोगों ने कोटद्वार निवासी उर्वशी रौतेला के पिछले दिनों मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया कि वे उत्तराखंड की गरीमा , देश की प्रतीक और भविष्य की उम्मीद हैं . मीडिया और इस तरह की तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ कर अपना व्यवसायिक हित साधने वाला कार्पाेरेट ऐसा वातावरण बना रहे थे कि मानो उर्वशी समाज के हित में कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रही हो और वह वहॉ से कथित तौर पर जीतकर लौटी तो उत्तराखण्ड और देश की शान में चार चॉद लग जायेंगे . प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिये लास वेगास जाने से पहले उर्वशी ने देहरादून और कोटद्वार का दौरा भी किया और जगह-जगह लोगों से अपने पक्ष में वोट देने की अपील भी की . उसने अनेक देवताओं के थानों में मत्था टेककर अपने लिये आशीर्वाद तक मॉगा . बाजारवाद की हिमायती हमारी सरकार के मुखिया हरीश रावत ने भी लोगों से उर्वशी के पक्ष में वोट देने की अपील कर डाली .पर जब 21 दिसम्बर 2015 को लास वेगास में उर्वशी के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसने अपनी भड़ास आयोजकों पर यह कह कर निकाली कि उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे जानबूझकर हराया गया . अतिरेक में वह यह तक कह गयी कि मेरे राज्य उत्तराखण्ड व देश से मुझे ज्यादा समर्थन ( वोट ) नहीं मिला . जिसकी वजह से मैं हार गयी . मतलब ये कि उर्वशी अपनी तथाकथित हार का ठीकरा दूसरों के सिर ऐसे फोड़ रही थी मानो उसे न जीताकर देश और उत्तराखण्ड ने एक भयानक गलती कर दी हो . वास्तव में सौन्दर्य के नाम पर आयोजित की जाने वाली इस तरह की प्रतियोगितायें पुरुषों द्वारा सार्वजनिक रुप से नारी के शरीर को सौन्दर्य के नाम पर कामुकता भरी नजरों से देखने के सिवा और कुछ नहीं हैं . ऐसा नहीं है तो क्यों उसे एक तरह से निरावरण होकर अपने शरीर का कथित सौन्दर्य पुरुषों को दिखाना पड़ता है ? और उसके कथित सौन्दर्य को परखने के पैमाने में शरीर के हर अंग को मापदंड क्यों बनाया जाता है ? सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? यदि यही सच है तो फिर ये प्रतियोगितायें सौन्दर्य के नाम पर पुरुषों की कामुक नजरों का " ठंडा " करने के सिवा और कुछ नहीं हैं . तब ऐसी स्थिति में हमें किसी निहारिका सिंह या किसी उर्वशी के इस तरह की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर कतई नहीं इतराना चाहिये . ये लोग हमारे समाज की महिलाओं के लिये कतई आदर्श नहीं हो सकते हैं , वह इसलिये भी कि ऐसी कथित प्रतियोगितायें महिला को एक " भोग की वस्तु " के अलावा और कुछ समझने के लिये तैयार नहीं हैं . और ऐसी सोच को बढ़ावा देने से महिलाओं का मान नहीं अपमान ही होता है . **