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Monday, April 23, 2018

भविष्य के समाज के बारे में

अप्रैल मई 1918 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने एक छोटी सी किताब लिखी थी बाईसवीं सदी - जैसे गांधी जी ने 1909 में "हिंद स्वराज" लिखी थी - अपने बाहरी स्वरुप में दोनों किताबें दुबली पतली हैं पर विचार के धरातल पर दोनों भारतीय समाज का मील का पत्थर मानी जा सकती हैं। जहाँ गांधी गाँव को धुरी में रख कर विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था की सैंद्धांतिक बात करते हैं वहीँ 25 वर्षीय राहुल जी कथा शैली में 206 साल बाद के ( यानि सन 2124 ) समाजवादी विचारों को मूर्त रूप देने वाले ऐसे भारतीय समाज का खाका खींचते हैं जो वैसे तो युटोपिया जैसा लगता है पर नव स्वतंत्र देश का एक व्यावहारिक वैचारिक घोषणापत्र माना जाता है - राहुल जी जैसे स्वतंत्रता सेनानी से उम्मीद भी ऐसी ही की जाती थी। 

दुर्भाग्य से इस किताब को हिंदी समाज ने वैसा महत्त्व नहीं दिया जिसकी दरकार थी - दरअसल यह राजनैतिक , साहित्यिक और वैज्ञानिक तीनों मानदंडों पर कसी जाने वाली कृति है पर अंग्रेजी के चश्मे का अभ्यस्त बौद्धिक वर्ग जॉर्ज ऑरवेल की किताब 'नाइंटीन एट्टी फ़ोर' पर तो घंटों बोल लेगा, उससे ज्यादा समीचीन इस हिंदी कृति का नाम नहीं जानता होगा।

1987 में मैसूर में संपन्न इंडियन सोशल साइंस कांग्रेस के महत्वपूर्ण वार्षिक सम्मेलन के विज्ञान सत्र में देश के बड़े वैज्ञानिकों की उपस्थिति में सीएसआरआई- सीबीआरआई, रूड़की के पूर्व मुख्‍य वैज्ञानिक यादवेन्‍द्र ने वैज्ञानिक प्रगति को केंद्र में रख कर नाइंटीन एट्टी फ़ोर और बाईसवीं सदी का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था जिसने बड़े वैज्ञानिक समुदाय को अचरज में ही नहीं डाला बल्कि गर्व से ओतप्रोत भी किया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिमी समाज नाइंटीन एट्टी फ़ोर की अधिकांश वैज्ञानिक भविष्यवाणियों के सही साबित होने की बात पर फूला नहीं समा रहा था पर भारतीय समाज अपनी महत्वपूर्ण कृति को नजरअंदाज कर के संतुष्ट था। इस युगांतकारी कृति के सौ साल पूरे करने पर एक संक्षिप्त टिप्पणी यहाँ साथियों की जानकारी के लिए प्रस्तुत है। 


यादवेन्द्र

भविष्य के समाज के बारे में मानव समाज हमेशा से जिज्ञासु रहा है और दुनिया के हर भाग में अपने अपने ढंग से मनीषियों ने भविष्य के समाज का खाका प्रस्तुत किया है।ऐसी वैचारिक ढाँचा प्रस्तुत करने वाली कृतियों में सबसे ज्यादा चर्चा संभवतः 1948  में लिखे   जॉर्ज ऑरवेल (संयोग है कि वे भी भारत में ही जन्मे ) के उपन्यास "नाइन्टीन एट्टी फ़ोर" की हुई है जो समाजवादी आदर्शों का  कट्टर विरोधी माना जाने वाला वैचारिक घोषणापत्र है। कई समीक्षक "नाइन्टीन एट्टी फ़ोर" को एक वैघानिक उपन्यास मानते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते रहे हैं कि 1984 आते आते इस उपन्यास की सारी  वैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ सही हो जायेंगी - बार बार उपन्यास में वर्णित 137 भविष्वाणियों की चर्चा की जाती है और उनमें से अधिकांश के सही साबित होने का उत्सव मनाया जाता है। ऑरवेल के घोर नकारात्मक दृष्टिकोण के विपरीत राहुल सांकृत्यायन ने भविष्य के प्रति उत्कट आशावादी रुख अख़्तियार किया। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राहुल जी ने यह सब तब लिखा जब भारत पर अंग्रेजी राज का शिकंजा बहुत कसा हुआ था - इतिहास गवाह है कि पहली बार असहयोग आंदोलन किताब लिखे जाने के तीन चार साल बाद छेड़ा गया और पूर्ण स्वराज्य की माँग तो कांग्रेस ने बहुत बाद में उठायी। इन दो घटनाओं ने भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता की कल्पना करने के लिए वास्तव में तैयार किया था पर राहुल जी उनसे भी सालों पहले न सिर्फ़ स्वतंत्र भारत बल्कि सम्पूर्ण भूमंडल की एक राष्ट्र के रूप में कल्पना कर चुके थे - यह क्रांतिकारी सोच की पराकाष्ठा थी और जनोन्मुख वैज्ञानिक तरक्की के ध्वजवाहक की भूमिका में संस्कृत और बौद्ध दर्शन के महापंडित राहुल सांकृत्यायन थे।दुनिया की किसी भाषा में ऐसे उदाहरण नहीं मिलेंगे। दुर्भाग्य से राहुल जी की इस किताब को न साहित्य में और न ही विज्ञान लेखन में अपेक्षित महत्त्व दिया गया - लम्बे समय से यह किताब उपलब्ध भी नहीं है। किसी भारतीय अध्येता  ने गम्भीरता  पूर्वक कभी यह प्रयास भी नहीं किया कि राहुल जी द्वारा 'बाईसवीं सदी' में वर्णित भविष्यवाणियों के साकार होने की बात उपयुक्त मंच पर उठाये और दर्ज कराये। 

'बाईसवीं सदी' ऊपरी तौर पर 2124 ईसवी के  विश्व का विवरण देती है पर इस किताब में राहुल जी तत्कालीन भारत देश का विस्तृत विवरण  प्रस्तुत करते हैं। 
कथानायक 260 वर्ष की वय में भी अत्यंत सक्रिय और चैतन्य है।1940 में भारत को स्वराज्य मिल गया और 2040 में भूमंडल राष्ट्र अस्तित्व में आया - विश्व सरकार का मुख्यालय ब्राज़ील में है और एक भारतीय राष्ट्रपति के पद पर आसीन है - जापानी प्रधानमंत्री,रूसी शिक्षामंत्री और अमेरिकी स्वास्थ्यमंत्री है...सेनामंत्री या सेनापति नाम का पद दुनिया में कहीं नहीं है क्योंकि युद्ध इतिहास की पोथियों में सिमट कर रह गया है ।2124 में पृथ्वी पर 86 करोड़ लोग वास करते हैं जिसमें से भारतीयों की संख्या 35 करोड़ है।अफ्रीका तकनीकी उपायों से हरा भरा बना दिया गया है और आधा यूरोप वहाँ जाकर बस गया है।प्रजनन नियंत्रित करना वैसे ही शासन के हाथ में है जैसे बिजली का स्विच ऑन ऑफ़ करना... और तीन संतानों का आदर्श प्रचलित है।दिल्ली की आबादी 50 हजार पर स्थिर कर दी गयी है।कार्यालयों के लिए बहुमंजिला भवनों का निर्माण किया जाता है - पटना में ऐसे एक पचास मंजिला भवन का जिक्र किताब में है जिसमें चढ़ने उतरने के लिए सीढ़ियों का नहीं झूला डोल (लिफ़्ट) का प्रयोग किया जाता है। दफ़्तरों में प्रतिदिन चार घंटे और सप्ताह में पाँच दिन काम करने का नियम है - बाकी के बीस घंटे सोने ,पढ़ने ,नृत्य गान ,सत्संग ,विद्यावसन ,परोपकार,चिंतन ,साहित्य सेवा जैसे कामों के लिए उपलब्ध हैं। 

प्रशासन की जिम्मेदारी है कि बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को सत्रह वर्ष की शिक्षा निःशुल्क दे -तीन वर्ष के बच्चे को तीन वर्ष की अवधि के लिए बालोद्यान में दाख़िल किया जाता है ,इसके बाद छह वर्ष से लेकर चौदह वर्ष तक का बाल्य पाठ्यक्रम शुरु होता है। चौदह से बीस वर्ष की उम्र तक युवा पाठ्यक्रम चलता है। तीस चालीस गाँवों पर एक विद्यालय होता है जहाँ पंद्रह हजार तक विद्यार्थी पढ़ते हैं। पूरे भारत देश की भाषा नगरी लिपि में लिखी जाने वाली भारती  है। तकनीकी प्रगति का आलम यह है कि मनमाफ़िक वृष्टि करना मनुष्य के हाथ में है इसीलिए अफ्रीका का सहारा रेगिस्तान समुद्र और हरी भरी खुशहाल बस्ती में बदल गया है - यूरोप और एशिया से बड़ी आबादी वहाँ जाकर बस गयी है ..... शिक्षा दीक्षा में बराबरी होने से लोगों के रूप रंग में भी पहले जैसा अंतर् नहीं रहा।भारत के राजस्थान में भी हरियाली  साम्राज्य हो गया है। सम्पूर्ण भूमि को समतल कर दिया गया है और नहरों नालियों का जाल इस तरह बिछाया गया है कि धरती से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा सदा के लिए विदा हो गयी है। मंगल और बुध ग्रह के ल वासियों के साथ पृथ्वीवासियों के सामान्य संचार संबंध हैं .... विशेष बात यह है कि मंगलवासियों ने जनसंख्या वृद्धि न सिर्फ़ रोकी है बल्कि आवश्यकतानुसार कम करनी शुरू कर दी है। 

गाय से पीने के लिए दूध का उत्पादन किया जाता है - इनका प्रजनन इस तरह नियंत्रित कर लिया गया है कि साँढ़ों की जरूरत पड़ने पर ही नर बछड़े पैदा किये जाते हैं। मक्खन और घी के लिए भैंसें पाली जाती हैं - वे औसतन  एक मन के आसपास दूध देती हैं।बंदर ,कुत्ते ,बिल्ली ,सुअर ,हाथी ,हिंसक जंगली जंतुओं का पूरी तरह से खात्मा कर दिया गया है। 

खेती के लिए पचास पचास बीघे की क्यारियाँ हैं। मोटे  अनाजों की खेती बंद कर अच्छे महीन और सुगंधित धान की ही खेती की जाती है। उन्नत किस्म के फलों की खेती होती है - बड़े आकार ,ज्यादा रस और स्वाद और बीज विहीन प्रजातियाँ उगाई जाती हैं। तम्बाकू ,बीड़ी ,सिगरेट ,चाय ,कॉफी ,कहवा ,शराब ,गाँजा ,भाँग , अफ़ीम ,पान जैसी नशीली वस्तुओं का उत्पादन पूरी तरह से बंद कर दिया गया है - बीड़ी सिगरेट के उन्मूलन के साथ दियासलाई का दिखना भी बंद हो गया है। 

सारा यांत्रिक काम बिजली से किया जाता है पर धुँए  के चलते कोयले  से बिजली उत्पादन बंद कर दिया गया है और इसके लिए पानी का उपयोग किया जाता है। जहाँ तक रेलगाड़ी का सवाल है ये पहियों के घर्षण से पैदा होने वाली बिजली से चलती हैं। इंजन का  आकार हवा के धक्के को कम करने के लिए नोंकदार रखा जाता है। पूरी रेल में साफ़सुथरी और आरामदेह एक ही श्रेणी होती है जिसमें पुस्तकालय ,भोजनालय और बेतार के तार पर आधारित संचार प्रणाली होती है। रेलों पर चढ़ने के लिए टिकट नहीं लगता सो टीटी नाम के  कर्मचारी का अस्तित्व नहीं है। सिक्कों का प्रचलन नहीं है। पुरुष हों या स्त्री सब एक सा परिधान पहनते हैं। हाँ , प्रत्येक व्यक्ति के पास एक फाउंटेन पेन और रोजनामचा ( डायरी ) जरूर रहता है। 

सबके रहने के लिए एक सामान आवास हैं - भवन ,सड़कें और कार्यालय सबके नक़्शे पूरे देश में एक समान हैं।आवास तीन कमरों के होते हैं - एक बैठक ,दूसरा सोने का और तीसरा स्नान करने के लिए जिसमें ठंडे और गरम पानी के नल लगे हुए हैं। शौचालयों में नल घुमा देने से बड़ी तेज धार से पानी (आज का फ्लश )आता है। भोजन करने के लिए सामुदायिक कक्ष  होते हैं जिनमें एकसाथ पाँच हजार तक लोग एकसाथ बैठ जाते हैं। खाना बनाने से लेकर बर्तन साफ़ करने तक का सारा काम मशीन से होता है। बिजली के तार के सहारे तैरती तश्तरियाँ खाने की मेज तक पहुँचती हैं - बिजली का उपयोग होने से कहीं भी कालिख या धुँआ नहीं दिखता। जलपान और भोजन का समय पूरे भूमंडल पर नियत है जिसकी सूचना गोले दाग कर दी जाती है - इसी चलते लोग घड़ी नहीं पहनते। पुरुष और स्त्रियाँ साथ साथ बैठ कर भोजन करते हैं। 

यही है राहुल जी की बाईसवीं सदी की आशावादी और सकारात्मक खुशहाली का राज।  

Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

Tuesday, October 10, 2017

मुस्कुराना भी एक प्रतिरोध है


वैसे सुनने में यह अटपटा लग सकता है पर विपरीत और उग्र परिस्थितियों में घटनास्थल पर पहुँच कर खड़े हो जाना और तने हुए चेहरों के बीच मुस्कान बिखेरना भी एक प्रतिरोध है...कुछ महीने पहले ब्रिटेन के बर्मिंघम में गोरे अंग्रेजों के उग्र इस्लाम विरोधी प्रदर्शन के दौरान जब प्रदर्शनकारियों ने एक मुस्लिम युवती को चारों ओर से घेर लिया तो साफ़िया खान नामक युवती ने वहाँ पहुँच कर न सिर्फ़ भीड़ से घिरी युवती को आश्वस्त किया बल्कि बिल्कुल सहज भाव से जेब में हाथ डाले खड़े खड़े मुस्कुरा दी जैसे कुछ हुआ ही न हो...और यह संदेश भी दिया कि हम ऐसी बन्दर घुड़कियों से डरने वाले नहीं।यह प्रदर्शन कट्टर दक्षिणपंथी संगठन इंग्लिश डिफेंस लीग (EDL) ने आयोजित किया था जो मुसलमानों को वहाँ से हटाने की माँग कर रहे थे ।एशियाई देशों से आकर रह रहे नागरिक बहुल बर्मिंघम में इस तरह के प्रदर्शन के खास महत्व हैं और युवती को चारों ओर से घेर कर वे ' यह क्रिश्चियन देश है,तुम्हारा देश नहीं' जैसे जुमले उछाल रहे थे।'द गार्डियन' को भयभीत युवती सायरा जफ़र ने बताया कि नारे चिल्लाने वाली भीड़ ने उसको पकड़  कर इस्लामविरोधी बैनर उसके चेहरे पर लपेट दिया।तभी दूर खड़ी सब देख रही युवती साफ़िया खान दौड़ती हुई वहाँ आयी और आक्रामक प्रदर्शनकारियों को सहज मुस्कुराहट की भाषा में अनूठा जवाब दिया - "हम भी हैं तुम भी हो दोनों हैं आमने सामने...है आग हमारे सीने में हम आग से खेलते आते हैं/टकराते हैं जो इस ताकत से वो मिट्टी में मिल जाते है...."
उस युवती के बचाव में साफ़िया के अचानक बीच में आ जाने पर भीड़ उससे चिपट गयी...प्रदर्शनकारियों के मुखिया ने साफ़िया के गालों पर अपनी उँगलियाँ गड़ा दीं और जोर जोर से चिल्लाते हुए बदले में हाथापाई करने के लिए उसको उकसाने लगा।पर साफ़िया ने अपना आपा नहीं खोया और बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप जेब में हाथ डाले खड़ी मुस्कुराती रही। प्रदर्शनकारियों को इस जवाबी प्रतिरोध से सांप सूँघ गया और उन्होंने उन युवतियों की घेराबंदी तोड़ दी।


इस प्रदर्शन को जाने कितनी पब्लिसिटी मिली पर जोए गिडिन्स की खींची साफ़िया खान के नायाब अहिंसक प्रदर्शन की फ़ोटो पूरी दुनिया में आग की तरह फैल गयी।
फोटोग्राफर ने टाइम पत्रिका की बताया :
"वैसे देखें तो फ़ोटो मामूली सी है - एक प्रतिरोधकर्ता,एक EDL सदस्य और एक पुलिस वाला।पर जब मैंने गौर किया तो प्रतिरोध कर रही युवती के बॉडी लैंग्वेज और उसके चेहरे के भावों पर ध्यान गया...तब मुझे इस फ़ोटो की ताकत का अंदाज हुआ।इस फ़ोटो के इतने प्रभावकारी होने का कारण उस युवती का बॉडी लैंग्वेज है।(साफ़िया)खान एकदम शांत और स्थिर लग रही थी,उसके चेहरे पर मुस्कान थी और उसके हाथ जेब में थे।इसके विपरीत क्रॉसलैंड(प्रदर्शनकारियों का नेता) बेहद क्रोधित और आक्रामक था - यह अंतर्विरोध ही इस फ़ोटो की ताकत है और इसको विशिष्ट बनाता है।उसका बिल्कुल शांत और विश्वासपूर्ण चेहरा...न तो कोई घबराहट न ही डर।"


इस अनूठे प्रतिरोध की फ़ोटो ने पाकिस्तानी बोस्निया मिश्रित मूल की ब्रिटिश की पैदाइशी नागरिक साफ़िया खान को रातों रात एक सेलिब्रिटी बना दिया।साफ़िया कहती हैं कि उस फ़ोटो ने मुझे एक गुमनाम नागरिक से अलग पहचान दे दी पर जब मैं पिछली घटनाएँ याद करती हूँ तो लगता है अच्छा ही हुआ...अब मुझे एक मकसद के लिए काम करना है...अब मैं ब्रिटेन की सड़कों पर नस्ली भेदभाव के विरोध में संघर्ष करूँगी।
"मुझे लगता है कभी कभी चीखने चिल्लाने के बदले सिर्फ़ मुस्कुराना ज्यादा असरकारी होता है", साफ़िया कहती हैं।

प्रस्‍तुति: यादवेन्‍द्र  

Saturday, September 23, 2017

कितना लंबा इंतज़ार

कथादेश के सितम्बर अंक में छपे हमारे मित्र और इस ब्लाग के सहलेखक  यादविन्द्र जी की डायरी के कुछ अंश पुनः प्रकाशित हैं पढ़ें और अपनी बेबाक राय दें। 
वि गौ




आज सुबह सुबह सैर के वक्त एक दिलचस्प लेकिन ठहर कर सोचने के लिये प्रेरित करने वाली घटना हुई -- एक मामूली कपड़े पहने आदमी ने(बाद में बातचीत से मालूम हुआ प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड का काम करता है) अनायास मुझे रोका और सड़क पर पड़े हुए दस रुपये के नोट को दिखा कर पूछा :"सर, ये नोट कहीं आपकी जेब से तो नहीं गिर गया ?"ताज्जुब भी हुआ कि दूर से वः मुझे आता हुआ देख रहा था और वहाँ पहुँचने पर पूछ रहा है कि नीचे सड़क पर पड़ा नोट मेरा तो नहीं है..... गिरने की गुंजाइश तो तब होती जब मैं वहाँ से होते हुए आगे बढ़ गया होता। मैंने इन्कार किया तो उसने उसी  कंसर्न के  साथ पीछे आते व्यक्ति को रोक कर यही सवाल पूछा ।फिर एक और ....और ....और। मुझे इस खेल में मज़ा आने लगा था सो वहीं ठहर गया।इनकार करने वाले लोगों की गिनती जब बढ़ती गयी तब मैं उस से इस मसले की बाबत पूछने लगा ...  उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले वह रात की सिक्युरिटी गार्ड की ड्यूटी पूरी करके वापस घर लौट रहा था तो अचानक उसकी निगाह सड़क पर पड़े इस दस रु के नोट पर पड़ गयी  ....और तब से वह उस आदमी को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसकी जेब से अनजाने में यह नोट फिसल कर सड़क पर आ गिरा ..... ठिकाने पर पहुँच कर ,या आगे कहीं रुक कर उसको  नोट की ज़रूरत पड़ी होगी तो बेचारा परेशान हो रहा होगा - कहीं किसी मुसीबत में न हो। मालूम हो जाये किसका है यह नोट तो मैं उसके घर जाकर पहुँचा दूँ। 
उसकी बात में कहीं कोई दिखावा या नाटक नहीं था ,यह उसके चेहरे पर छाये हाव भाव से साफ़ झलक रहा था।मैं भी खड़ा होकर लौट आने वाले  का इंतज़ार करने लगा ,मुझे देखकर रोज रोज की पहचान वाले दो तीन और लोग ठहर गए।    
 "मैंने सोचा इतने सारे लोग इस सड़क से गुज़र रहे हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी की नज़र उस नोट पर न पड़ी हो .... मैं पहला इंसान तो नहीं हूँ जो सड़क पर पड़े इस नोट को देख रहा है। हो सकता है जिसका नोट  गिरा हो वह उसको ढूँढ़ता हुआ पलट कर इसी रास्ते आ रहा हो। मैंने पहले सोचा था वहाँ से गुज़रते हुए दस आदमियों से नोट के बारे में पूछ कर देखूँगा ,इतने समय में ज़रूर नोट का मालिक मिल जायेगा..... दस की गिनती पूरी होने पर सोचा और दस लोगों से पूछ लूँ --  मेरा क्या है ,घर ही तो जाना है मैं घंटे भर बाद भी घर पहुँच  जाऊँगा तो कुछ नुक्सान नहीं होना ,पर एक दो मिनट से कोई गरीब अपना खोया हुआ पैसा फिर से हासिल करने से चूक जाये तो बहुत बुरा होगा।सर ,आप सत्रहवें आदमी हो जिनसे मैंने पूछ कर अपनी आत्मा की भरपूर तसल्ली कर ली .....फिर भी मेरा मन मानता नहीं।  "
मैं थोड़ी दूर से खड़ा खड़ा देखता रहा कि बीस की गिनती पार कर के वह व्यक्ति हताश होकर अपनी साइकिल के साथ साथ दूर तक पैदल चलने लगा पर हर दो कदम पर पीछे मुड़ मुड़ कर उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहा --- शायद उसको लापरवाही में दस का नोट जेब से गिरा चुके अभागे के लौट कर आ जाने का इन्तज़ार अब भी था।
"ठरकी है साला ....खुद उसकी जेब से गिर गया होगा नोट और अब सिम्पैथी के लिये नाटक कर  
रहा है ..... लगता है दस का नोट नहीं कोहिनूर हीरे की अँगूठी गिर गयी हो। "कहते हुए एक साहब वहाँ से इस अंदाज में आगे बढ़े कि किसी ने उनका हाथ पकड़ कर तमाशा देखने को रोक लिया हो और तमाशा हुआ ही नहीं - टाँय टॉय फिस्स !
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अपने प्रोफेशनल काम से मुझे सड़क यात्रा बहुत करनी होती है ,ख़ास तौर पर पहाड़ पर…… मैदानी क्षेत्रों में भी। आम तौर पर नौजवान ड्राइवर तेज गति से  गाड़ियाँ चलाते हैं और जबतक आप उनको रुकने के लिये मनायें तबतक दो सौ चार सौ मीटर आगे बढ़ चुके होते हैं - फिर पीछे मुड़कर लौटना बहुत भारी पड़ता है … और कई बार तो जबतक आप पीछे लौटें तबतक परिदृश्य पूरा बदल चुका होता है। 
अभी कल सुबह सुबह की बात है ,हम लखनऊ से अयोध्या जा रहे थे -फूलगोभी के लम्बे चौड़े खेत लगभग वर्गाकार बिलकुल एक आकार के दिखाई दे रहे थे और भोर की ओस के ऊपर सुनहरी धूप  पड़ने पर मोहक रंग बिखेरते पौधे बार बार बरबस अपनी ओर ध्यान खींच  रहे थे .....  मैं उनकी कुछ तस्वीरें लेने की सोच रहा था। ज्यादातर खेत सड़क से थोड़ी दूर अंदर थे और मैं धीरज रख कर किसी बिलकुल सड़क किनारे खेत का इंतज़ार कर रहा था ..... पर इंतज़ार करते करते जब धीरज खो बैठा तब देखा ,गोभी के खेतों का स्थान केले के बागानों ने ले लिया है। पूछने पर ड्राइवर पारस ने बताया अब आपको गोभी के खेत नहीं मिलेंगे ,वह इलाका बीत चुका है। 

एक जगह खेत से भाप का चमकता हुआ बगूला जैसे उठ रहा था उसने मुझे मनाली से लेह जाने वाले लगभग रेगिस्तानी रास्ते के गंधक तालाबों की याद आई जिनसे उठती हुई ऐसी ही भाप दूर से दिखाई देती है - सुबह सुबह की सुनहरी धूप उसको और चमका देती है । दरअसल जुते हुए खेत में सिंचाई के लिए डाले जाते पानी से उठती भाप दूर से दिखाई दे रही थी पर जब खाली सड़क पर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से भागते हुए हम आगे निकल गए तो मन को मना लिया कि आगे फिर देख लेंगे - आगे हम इंतज़ार करते ही रहे ,पर साध कहाँ पूरी हुई। 

जीवन ऐसी ही स्मृतियों की अनवरत श्रृंखला है - लपक कर जिसको पकड़ लिया वह तो जैसे तैसे हाथ आ जाता है .... और जो छूट गया सो छूट गया।     

मेरी कवि मित्र ने उन्हीं दिनों किसी शायर की एक शानदार नज़्म मुझे भेजी थी जो कल वाली घटना पर बिलकुल सटीक बैठती है :

ज़रूरी बात कहनी हो 
कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …… 
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मेरी अम्मा अस्सी के आसपास पहुँच रही हैं पर शरीर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए मन से  अब भी एकदम युवा हैं - चाहे कहीं घूमने का मौका हो या फ़िल्म देखने का। बहते हुए पानी को देख कर  पिछली बार यहाँ आने तक वे भी वैसे ही मचला करती थीं जैसे उनके बेटे की बेटी का बेटा पलाश। पिछले हफ़्ते जब हमने हरिद्वार घूमने का नाम लिया तो तैयार तो वे फ़ौरन हो गयीं पर वहाँ पहुँचने के बाद नहाने को कहने पर ना नुकुर करने लगीं - यह अम्मा के स्वभाव से बिलकुल उलट था।पहले हरिद्वार ऋषिकेश जाने पर कोई और गंगा में उतरे या न उतरे अम्मा और उनका यह बेटा ज़रूर उतरता था। जब बहुत ज़िद कर के मेरी बहन उनको सीढ़ियाँ उतार कर नीचे पानी तक ले आयी तो उन्होंने हिचकिचाने का कारण बताया -- अप्रैल मई के महीनों में पटना में महसूस होने वाले भूकम्प के झटकों और सब कुछ तहस नहस कर डालने वाले दुनिया के सबसे बड़े भूकम्प आने की अफ़वाहों के बीच कई बार घुटनों की तकलीफ़ के बावज़ूद उन्हें बदहवासी में जैसे घर की सीढ़ियों से कूदते फाँदते हुए रात बिरात उतरना पड़ा उस से उनको किसी भी हिलती चीज़ से हिलती हुई धरती का एहसास होने लगता है। पानी की तेज़ धार के साथ उस दिन अम्मा की बड़ी संक्षिप्त मुलाकात हुई …मैं सोचता रहा वास्तविक भूकम्प के केन्द्र से सैकड़ों मील दूर (भूकम्प का केन्द्र नेपाल की सुदूर पहाड़ियों में बताया जा रहा था ) रह रही बेहद दृढ़ निश्चयी और साहसी अम्मा के मन में जब इतनी दहशत बैठ गयी तो महाविनाश के केन्द्र में रहने वाले अभिशप्तों के मन की दशा कितनी डाँवाडोल होगी।
मन की अंदरूनी परतों में दुबक कर बैठे डर मौका मिलते ही कैसे सिर उठाते फुफकारते हैं ....    =============
मामूली चीजें भी आपको कभी कभी एकदम हतप्रभ कर देती हैं … बात पुरानी है , बीसियों साल पहले रेल से पटना से रुड़की आते हुए लक्सर स्टेशन पड़ने पर अम्मा ने बाल सुलभ सरलता से मुझे बताया था कि बचपन में अपने नाना के साथ वे महीने भर के लिए पहली बार रेल पर चढ़ कर गृह शहर आरा (बिहार) से हरिद्वार आयी थीं --- रास्ते में पहले तो बक्सर( आरा से महज पचास किलोमीटर) पड़ा और नौ सौ किलोमीटर और चलने के बाद लक्सर स्टेशन दिखाई दिया। स्कूल में मास्टरजी ने उन्हीं दिनों दुनिया गोल है वाला पाठ पढ़ाया था और कहा था कि इसका प्रमाण यह है कि किसी स्थान से यदि यात्रा शुरू की जाए तो चलते चलते मुसाफ़िर उसी स्थान पर दुबारा पहुँच जाएगा --- बच्ची अम्मा नींद से उठी उठी थीं और लक्सर बक्सर के एक ही होने की उलझन में आसानी से उलझ गयी थीं.... जहाँ से चली थीं इतनी लम्बी यात्रा के बाद फिर वहीँ पहुँच गयीं ( ब के बदले गलती से ल भी तो लिखा जा सकता है )…… उनको पक्का प्रमाण मिल गया ,सचमुच दुनिया गोल है।  
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कल रात निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।उसका राउल मेलो की भावपूर्ण आवाज़ में गाया "ड्रीम रिवर" गीत हर बार की तरह मन में इस बार भी कहीं ठहर गया …… एक चलताऊ अनुवाद ,जिसने साँस लेने की गुंजाइश बनायीं और मन हल्का किया : 


सपनों की नदी में डूबते उतराते
ऊपर छाये हुए चाँद सितारे 
आस लगाये हूँ उनसे मदद की 
कि दिलवा दें प्रेम तुम्हारा 
पूरा पूरा अ टूट ....

कालिमा की अंतिम कोठरी में सोया हूँ 
तुम्हें बाँहों में समेटे होने के ख़्वाब देखता ....
काश, यह सपना सच हो जाता 
और ऊपर से नीचे तक तर जाता मेरा मन। 

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता  

सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता .......   
सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।    
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  
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कोई पंद्रह दिन पहले की बात होगी - एक मित्र के साथ सुबह सात बजे चाय पीने का वायदा था ,वे रिटायर होकर शहर छोड़ रहे थे। मैं अपने हिसाब से उठा और घूमने के लिए दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि बहन का फ़ोन आ गया। फ़ोन पर बात करते करते मैं घर के आहाते से बाहर निकल आया और घूमता टहलता मित्र के घर पहुँच गया। बातचीत के दौरान मेरे दूधवाले का फोन आया तब मुझे मालूम हुआ कि मुझसे दरवाज़ा बगैर ताले के खुला ही छूट गया है। जल्दी जल्दी मैं रास्ते भर अपने बुढ़ापे और याददाश्त के क्षरण के बारे में सोचता सोचता घर लौटा - अपने भुलक्कड़पन को सोचते सोचते कुछ साल पहले आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी के बारे में पढ़ी एक खबर याद आ गयी जब वे ऐसे ही सुबह की सैर को निकले और अपना पता ठिकाना भूल पीने का पानी ढूँढ़ते हुए किसी अजनबी घर जा बैठे। वे बड़े आदमी थे,बात पुलिस तक पहुँची और उन्हें सुरक्षित  घर पहुंचा दिया गया। मुझे बार बार यह लगता रहा कि मेरे साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा - अपने शहर में तो लोग पहचान लेंगे पर किसी दूसरे शहर में ???????
बरसो पहले पढ़ी और सहेज कर रखी बिली कॉलिन्स की चर्चित कविता "विस्मरण" कुछ ऐसे ही पलों का बड़ा मार्मिक विवरण देती है :

"सबसे पहले लेखक का नाम गुम होता है
और लगता है जैसे डूबते डूबते उसने समझाया  हो 
किताब के नाम को .... विषय को ... और दारुण अंत को भी 
कि चलते चले आओ पदचिह्न ढूँढ़ते मेरे पीछे पीछे 
और पल भर भी नहीं लगता पूरे उपन्यास को विस्मृत होते 
जैसे पढ़ना तो बहुत दूर, सुना भी न हो उसका नाम कभी इस जीवन में 
 
जो जो भी आप याद करने का यत्न करते हैं 
दिमाग पर भरपूर जोर डाल के 
सब का सब बच कर दूर छिटक जाता है आपकी ज़बान से
या कि आपकी तिल्ली (spleen) के किसी अंधेरे कोने में 
रुक रुक कर जुगनू सरीखा टिमटिमाता रहता है......

कोई अचरज नहीं कि आधी रात अचानक आपकी नींद उचट जाये 
और आप किताबों में ढूँढने लगें किसी ख़ास लड़ाई की तारीख़ 
कोई अचरज नहीं कि आपको अनमना देख  
खिड़की से बाहर दिख रहा चन्द्रमा 
आँख बचा कर भाग जाये उस प्रेम कविता से भी बाहर
जो आजीवन आपके मन में बोलती बतियाती रही...."

मुझे इस हिंसक समय में प्रेम कविताओं के विस्मृत हो जाने का बड़ा डर सताने लगा है उस दिन से .....
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 कल शाम दिल्ली से लौटते हुए एफ़ एम रेडियो पर एक ग़ज़ल इतनी दिलकश जनाना आवाज़ में कानों में पड़ी कि लगा थोड़ी देर के लिए जीवन उलट पलट हो गया - सड़क के शोर शराबे के कारण शब्द शब्द सुनना और समझना उस तसल्ली से नहीं हो पाया जिस से मैं चाह्ता था। पहले तो मुझे लगा कि ड्राइवर राधेश्याम ने अपने पेनड्राइव कलेक्शन से यह ग़ज़ल सुनायी ,सो उसको दुबारा बजाने को कहा। पर जब मालूम हुआ कि रेडियो पर आ रही थी तो इंटरनेट पर ढूँढ़ने लगा और गूगल सर्च के पहले पन्ने पर 1994 की फ़िल्म "विजयपथ" का इन्दीवर का लिखा और अलका याग्निक का गाया गीत हाथ लगा। मेरी स्मृति ने इन्दीवर वाला गीत स्वीकार करने से मना कर दिया और वह आवाज़ भी अलका जी की नहीं थी। आज सुबह जब मुझे अंदलीब शादानी की यह मूल ग़ज़ल हाथ लगी तब इन्दीवर जी की खिचड़ी सामने आ गयी। पर अब भी यह पता नहीं लग पाया कि कल मैंने किसकी दिलकश आवाज सुनी थी : आस ने दिल का हाल न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो .... घबराने का ऐसा भी अनूठा अंदाज़ हो सकता है ,मुझे इल्म भी न था। बहरहाल यह ग़ज़ल :


देर लगी आने में तुमको  शुक्र है फिर भी आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो…

शफ़क़ धनुक महताब घटायें  तारे नग़मे बिजली फूल 
इस दामन में क्या क्या कुछ है  दामन हाथ में आये तो ....

चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक 
कोई मिले तो दिल का गाहक  कोई हमें अपनाये तो … 

क्यूँ ये मेहर अंगेज़ तबस्सुम मद्द ए नज़र जब कुछ भी नहीं 
हाय!! कोई अनजान अगर  इस धोखे में आ जाये तो…

सुनी सुनाई बात नहीं ये  अपने ऊपर बीती है 
फूल निकलते हैं शोलों से  चाहत आग लगाये तो …

झूठ है सब तारीख़ हमेशा  अपने को दोहराती है 
अच्छा मेरा ख़्वाब ए जवानी  थोड़ा सा दोहराये तो…

नादानी और मज़बूरी में यारों कुछ तो फ़र्क करो 
एक बे आस इंसान करे क्या  टूट के दिल आये तो .... 

                                                       ---- अंदलीब शादानी 
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लम्बे अरसे बाद हमारे पच्चीस तीस साल पुराने मित्र ( जब हम मिले थे तो ये मस्तमौला कुँवारे थे ,उनकी शादी में शामिल होने वालों में मैं भी था और अब उनकी बड़ी बिटिया  पंतनगर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने को है) नवीन कुमार नैथानी कल शाम घर आये ..... ढेर सारी गप्पें हमने मारीं और उनके सात आठ महीनों से स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहने की विस्तार से चर्चा सुनी ....  फिर हरिद्वार जाकर कवि कथाकार सीमा शफ़क के घर खूब स्वादिष्ट भोजन किया। वैसे तो नवीन बेतक़ल्लुफ़ी में विश्वास करने वाले इंसान हैं पर घर से दूर रहने पर जब बगैर रोकटोक तबियत से खाना खाने के बाद उन्होंने "तृप्त हो गया" कहा तो सत्कार करने वाली सीमा के चेहरे पर भी तृप्ति और संतुष्टि का भाव झलक पड़ा। आज सुबह की सैर करते नवीन ने शुरूआती दिनों को याद करते हुए मज़ेदार बात बताई  कि बचपन में उनकी रूचि साइंस में बिलकुल नहीं थी पर स्व मनोहर श्याम जोशी के सम्पादन में "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में डॉ वागीश शुक्ल की क्वांटम फ़िजिक्स पर छपी लेखमाला पढ़ कर वे विज्ञान की ओर आकर्षित हुए - वे डाकपत्थर के सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक इसाक असिमोव की उसी पत्रिका में छपी एक कहानी "टेक ए मैच" का ज़िक्र बड़े मज़ेदार अंदाज़ में किया। इस कहानी में एक अंतरिक्षयान के बादलों के विशाल समूह के बीच फँस जाता है जिसके कारण अपेक्षित मात्र में ईंधन नहीं बन पा रहा है - धरती से लाखों किलोमीटर दूर वापस लौटना संभव नहीं है और आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त ईंधन भी है नहीं।  यान में सफ़र कर रहे लोगों की जान पर बन आई है और यान के ईंधन की जिम्मेदारी जिस विशेषज्ञ फ़्यूज़निस्ट पर है उसको कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है और वह अपनी नाकामी के चलते अपनी मूँछ भी नीची नहीं होने देना चाहता। यान में बैठे एक साइंस टीचर को इस गड़बड़ी का आभास हो जाता है और विज्ञान पढ़ाने के अभ्यास से विकल्प भी सूझ जाता है - कि माचिस की तीली को जलाने जैसी पुरातनपंथी क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है उसकी मदद लें तो थोड़ी मात्र में जिस ईंधन की दरकार है वह प्राप्त हो सकती है।असमंजस में पड़ा हुआ  फ़्यूज़निस्ट टीचर की बताई तरकीब अपनाता है और यान संकट से निकलने में कामयाब हो जाता है...पर यान के कैप्टन और   फ़्यूज़निस्ट की साख बनी रहे इसलिए आशा की किरण दिखाने वाले साइंस टीचर को घर में नज़रबंद कर दिया जाता है। नवीन को  फ़्यूज़निस्ट के बारे में लेखक का यह कथन हू ब हू याद था :"ए स्पेशलिस्ट ऑलवेज़ लिव इन स्पेशलिटीज़"....... अपनी बीमारी के शुरूआती दौर में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के एक दायरे में बंध कर रह जाने और अन्य संभावनाओं को न तलाशने की बात बताते हुए नवीन भाई को असिमोव याद आये और जिस सरसता के साथ उन्होंने सुबह मुझे यह बात बताई वह कोई कहानीकार ही बता सकता है। उनकी कहानियों का जो सकारात्मक जादुई संसार है उसकी जड़ें नवीन की पूरी शख्सियत में फैली हुई हैं ..... उनकी द्रौपदी के चीर सरीखी बातों को  सुनना एक ट्रीट है। 
अभी इस एक बात के साथ बस ... बाकी बातें फिर कभी और ..... नवीन भाई जल्द से जल्द खाने पीने के परहेज से बाहर आयें और जोरदार ठहाके लगाते हुए मिलें ,शुभ कामनायें। 
नोट : जब मैंने आज दो तीन बार उन्हें बिना चीनी की चाय पिलाई तो उन्होंने राज की यह बात भी बताई कि पहले एक मामला ऐसा था जब पत्नी के सामने झूठ बोलना पड़ता था ....अब तो वह भी छूट गया।           
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घर की भौतिक शक्ल सूरत को लेकर भले ही कितना  कुछ लिखा कहा जाए पर चार दीवारों और छत वाले एक अदद घर के अंदर व्याप्त भावनात्मक निष्ठा व ऊष्मा की अनुपस्थिति को समझे बगैर घर के मायने को समझ पाना मुमकिन नहीं होगा। अपनी किशोरावस्था में पढ़ी उषा प्रियंवदा की कहानी "वापसी" मुझे कई दिनों तक इसलिये हैरान परेशान किये रही कि गजाधर बाबू के किरदार का नौकरी से रिटायर होकर घर लौटना  और चंद दिनों में ही इस तरह उसको छोड़ कर चल देना उस अनुभवहीन अवस्था में गले नहीं उत्तर रहा था .... पर जैसे जैसे दीन दुनिया देखता गया वैसे वैसे उनके बर्ताव की असलियत मेरे मन में खुलती गयी- अपने ढर्रे पर चल रहे घर में चारपाई की तरह उनकी दैहिक उपस्थिति के असंगत लगने का मर्म समझ में आने लगा।कहानी का सिर्फ़ एक वाक्य " घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।" घर और मकान के बारीक अंतर को समझाने के लिए पर्याप्त है - कोई चालीस साल पहले पढ़ी कहानी का यह वाक्य मुझे अब भी अक्षरशः याद है। 
बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास "सारा आकाश" पर इसी नाम की फ़िल्म बना कर उसकी कई परतें और खोलीं - फ़िल्म निर्माण के दौरान उपयुक्त घर खोजने की पूरी कहानी राजेंद्र यादव ने बयान की है और लिखा भी है कि "घर बोलता है "...... पुरातन संस्कारों से जकड़े खोखले आदर्शवाद का पनपना अंधेरे भुतहे घरों के अंदर खूब होता है और इस परिवेश में क्या मज़ाल कि आधुनिक समय की ताज़ा हवा प्रवेश कर जाये। इस फिल्म में समर का कॉलेज से घर लौटते हुए साइकिल चलाना बेहद संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है - शुरूआती उत्साह घर के पास आते आते कितना थका थका और सुस्त हो जाता है यह बेमन से ढोये जाने वाले रिश्तों की बर्फ़ीली  ईंट गारे मिट्टी के निर्माण को घर कहने की परिपाटी पर गंभीर सवाल उठाता है। 
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प्रसिद्ध ग्रीक कवि यिआन्निस रित्सोस ने लिखा :

मुझे मालूम है हम में एक एक को
कदम बढ़ाना पड़ता है प्रेम की राह पर अकेले ही 
वैसे ही आस्था के रास्ते 
और मृत्यु को जाते रास्ते पर भी 
मैं अच्छी तरह जानता हूँ 
कोशिश तो बहुतेरी की पर कर नहीं पाया कुछ  .
अब मैं एकाकी नहीं 
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ 
चलोगी प्रिय? 

Tuesday, August 23, 2016

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन

पिछले दिनों पढ़ते हुए मेरे हाथ एक अनूठी सी बेहद छोटी कविता हाथ आयी। संयोग से कुछ शब्दों वाली इस कविता का शीर्षक ऐसा था जिसने मेरा ध्यान एकदम से खींच लिया - लंबी दूरी के धावक का अकेलापन। इसको पढ़ते हुए मुझे बार बार लगा कि दूर के निशाने साधने के लिए कितनी कुशल कारीगरी और फ़ोकस की दरकार होती है। प्रचुर मात्रा में कवितायें ,उपन्यास और नाटक लिखने वाले कनाडा के प्रसिद्ध कवि एल्डेन नोव्लेन - एक संघर्षशील परिवार में उनका बचपन मुश्किलों और घनघोर अकेलेपन में बीता और लम्बी दूरी तय कर चोरी चोरी लाइब्रेरी से किताबें लेकर वे साहित्य की ओर उन्मुख हुए। पूरे जीवन में उनको कभी साल भर की स्थायी नौकरी नहीं मिल पायी ..... कोई गाड़ी खरीदने की कभी उनकी औकात नहीं हुई, न उन्हें ड्राइविंग आयी। एल्डेन कहते भी हैं कि "इस मुसीबत में मेरे पास तीन रास्ते थे - पागलपन , मौत या कविता"- ज़ाहिर है उन्होंने कविता का रास्ता चुना। पर इस मुफलिसी में भी एल्डेन नोव्लेन ने उम्मीद का साथ कभी नहीं छोड़ा।उनकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उदधृत हैं ।
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

मैंने , एक इंसान ने , मौत तक को पालतू बना लिया।

*******************मैं बुढ़ा ज़रूर गया हूँ
पर जादू टोना जानता हूँ
और जा घुसा हूँ
एक जवान आदमी के शरीर के अंदर .....
****************
मैं कविता को आवाज़ लगाता हूँ
और वह है कि मुस्कुरा कर कहती है :
तुम कभी सयाने नहीं हुए ....
**********************
कितना अच्छा है कि
हम साझा करते हैं धरती को तमाम जीवों के साथ ...
कितना अकल्पनीय होता
कि मैं जन्म न लेता 
और अनुपस्थित हो जाता यह संग साथ ....
*********************
कोई बच्चा जिस दिन समझ लेता है
कि सभी वयस्क आधे अधूरे दोषपूर्ण हैं
वह किशोर हो जाता है ...
जिस दिन वह उनको माफ़ कर देता है
वह बच्चा नहीं रहता वयस्क हो जाता है
और जिस दिन ऐसा करने के लिए
वह स्वयं को माफ़ कर देता है
बच्चा बुद्धिमान हो जाता है।
***********************
मुझे यह ईश निंदा जैसा कृत्य लगता है
कि कवितायें लिखी जायें
उन दुखों के बारे में
जिन्हें महसूस ही न किया गया हो ....
******************

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन


मेरी पत्नी आ धमकी कमरे में
जहाँ मैं लिखने में तल्लीन था
प्रेम कविता
उसी के लिए .....
और अब जब वह कविता
एकदम से लुप्त हो गयी
मन ही मन
बैठा बैठा कोस रहा हूँ
मैं अब उसी को ....

Tuesday, July 5, 2016

मेरे मन के द्वार खुले हुए हैं पूरे के पूरे

स्मृति शेष : अब्बास क्योरोस्तमी


76 वर्ष की उम्र में कैंसर के चलते हमसब को ग़मज़दा छोड़ कर खुदा को प्यारे हो गए अब्बास क्योरोस्तमी (फ़ारसी में उन्हे अब्बोसे क्योरोस्तानी कह कर पुकारा जाता है) ईरान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार ,पेंटर और फ़ोटोग्राफ़र थे जिनकी गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में की जाती है। जापान के शिखर के फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने अब्बास क्योरोस्तमी के बारे में कहा : मैं अब्बास के बारे में अपनी भावनाओं को शब्दों में बयान नहीं कर सकता ...सत्यजित रॉय के इंतकाल की खबर सुनकर मेरा मन गहरे अवसाद से भर गया ,पर अब्बास क्योरोस्तमी की फ़िल्में देखने के बाद मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि उनकी कमी पूरी करने के लिए बिलकुल उपयुक्त फ़िल्मकार धरती पर भेज दिया। अपने देश की सामाजिक संरचना पर गम्भीर कटाक्ष करने के चलते उन्हें फ़िल्में बनाने के लिए न तो किसी प्रकार की सरकारी सहायता मिलती थी न ही ईरान में उनके प्रदर्शन की अनुमति थी। इस बाबत उनसे अक्सर पत्रकार सवाल करते रहे थे ,एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : "मैं हुकूमत का शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मेरी फ़िल्में रिलीज़ करने पर पाबंदी लगायी है ,उनके हाथ में इतना ही है बस ....अच्छी बात यह है कि उनके हाथ इस से आगे नहीं पहुँचते। जहाँ तक मेरी फ़िल्म के प्रशंसक दर्शकों की बात है वे इसे गैरकानूनी ढंग से हासिल करते हैं और खूब देखते हैं। फल पकने के बाद हवा में उड़ रहा है ,जिसकी मर्ज़ी उसको पकड़े और खाना चाहे तो खाये ... हवा जानती है उसको कहाँ किसके पास तक ले जाना है। " वे यह भी कहते थे कि सरकार ने बीते सालों में मेरी कोई फ़िल्म ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दी ... उन्हें उन फ़िल्मों की कोई समझ ही नहीं है। अपनी धरती से जुड़े रहने के आग्रह और उसके कारण रचनात्मक स्तर पर सालों साल से पेश आ रही मुश्किलों के कारण मन में पैदा हुई कड़वाहट को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था :"मुझे इसका इल्म बिलकुल नहीं कि सही क्या है और गलत क्या है ,पर यह क़ुबूल करने में मुझे कोई परेशानी नहीं कि मुझमें किसी प्रकार के राष्ट्रीय गौरव का भाव नदारद है.... मैं ईरानी हूँ तो किसी तरह का फ़ख्र इसको ले के मेरे मन में नहीं है ... मैं बस जैसा हूँ वैसा ही हूँ। अक्सर मैं खुद को किसी दरख़्त की तरह देखता हूँ ,उस दरख़्त का उस धरती के लिए कोई विशेष आग्रह नहीं होता जिसपर वह खड़ा होता है ... उसका काम फल देना है ,पत्तियाँ देना है और खुशबू बिखेरते रहना है।" सृजनात्मक भूख को मिटाने के लिए अब्बास क्योरोस्तमी ने कई बार अलग अलग तरह के काम किये - बाकायदा फ़िल्मकार बनने से पहले उन्होंने पेंटिंग की ,विज्ञापन के लिए फ़ोटो खींचे और लघु फ़िल्में बनायीं ,किताबों के लिए ग्राफ़िक्स और चित्र बनाए ,कवितायेँ लिखीं और संकलित किया।पिछले दशक में लंदन में मोजार्ट का एक ऑपेरा निर्देशित किया और क्यूबा जाकर नवोदित युवा फ़िल्मकारों दस दिन की एक वर्कशॉप आयोजित की। जब अभिव्यक्ति पर हज़ार ताले पड़े हों तो कोई भी हार न मानने वाला कलाकार वही करेगा जो अब्बास क्योरोस्तमी ने पिछले महीनों में किया - अपने देश में फ़िल्में वे बना नहीं सकते सो पिछले दो दशकों में खींचे छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी कनाडा में लगा दी जिसका शीर्षक रखा 'डोर्स विदाउट कीज़'...... इस प्रदर्शनी में सभी भारी भरकम किवाड़ हैं जिनपर कभी न खुल सकने वाले मोटे ताले जड़े हुए हैं। इस प्रदर्शनी के विषय और उद्देश्य के बारे में अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था :"देखने में मेरा काम किसी डिफेंस मेकैनिज्म जैसा लग सकता है पर यह तमाम बंदिशों और यंत्रणाओं के प्रति एक प्रतिरोध कर्म भी है। इन किवाड़ों की ओर मुझे जो बातें सबसे ज्यादा खींचती हैं वे हैं जीवन .. उम्र का पकना ... और पकी उम्र की खूबसूरती ..... इन किवाड़ों के पीछे क्या घटित हो रहा है ?इनसे बाहर कौन खड़ा है कि किवाड़ खुले और वह अंदर दाख़िल हो ?कौन है जो उन बंद किवाड़ों पर निगाहें मारता हुआ पास से चुपचाप गुज़र रहा है ?नयी तरह के किवाड़ों में अंदर झाँकने के लिए सूराख़ बने होते हैं पर इन पुराने किवाड़ों में वो कहाँ ... दरअसल ये उस ढब के जीवन की याद दिलाते हैं जो अब कहीं नहीं हैं। " फ़ोटो के साथ उन्होंने दो और माध्यमों का बड़ा भावपूर्ण सृजनात्मक इस्तेमाल किया है ... किवाड़ों के खुलने बंद होते समय उत्पन्न ध्वनियों का ,उनकी चरमराहट का , पार रहने वाले लोगों के दैनन्दिन जीवन की ध्वनियों का - मनुष्य ध्वनियों के साथ पंछी के कलरव का। और साथ साथ अपनी बेहद छोटी पर भावपूर्ण कविताओं का भी।

 प्रस्तुति : यादवेन्द्र

प्रदर्शनी में लगी हुई उनकी कविताओं के कुछ नमूने  :


घंटी खराब है 
मेहरबानी कर के 
किवाड़ पर दस्तक दीजिये ...... 
**********
मैं आया 
आप मिले नहीं 
सो मैं उलटे पाँव लौट गया ....  
************
हवा ने 
खोल दिया जर्जर किवाड़ 
फिर बंद कर रही है उसे 
चर्र चर्र 
एक बार नहीं 
बार बार .....  
**********
चाभियाँ दर्जनों हैं 
जो सदियों से यहाँ पड़ी हुई हैं 
मैं उनको कैसे फेंकूं 
कहाँ है ऐसी जगह जहाँ ताले नहीं ....  
************
भारी भरकम ताला 
रखवाली कर रहा है 
बिना छत वाली हवेली के 
सड़े गले किवाड़ की ...  
************
आज मैं दिन में घर रहूँगा 
और किसी के लिए खोलूँगा नहीं 
किवाड़,  पर 
मेरे मन के द्वार 
खुले हुए हैं पूरे के पूरे 
दोस्तों के लिए जो मुझसे 
तीखी बहस में उलझते हैं हमेशा 
और अड़ियल 
परिचितों के लिए भी ....  

Saturday, August 22, 2015

क्या ऐसे प्यार किया

अनेक चर्चित कविता संकलनों के रचयिता टोनी हॉगलैंड ने 2003 में "द चेंज" शीर्षक से एक कविता लिख कर सेरेना विलियम्स के "बड़े ,काले और किसी धौंस में न आने वाले शरीर" पर कटाक्ष कर के अश्वेत समुदाय की प्रचुर आलोचना झेली। एक दशक से ज्यादा समय से अविजित टेनिस किंवदंती सेरेना विलियम्स को खेल और ग्लैमर के लिए जाना जाता रहा है पर बहुत कम लोगों को खबर है कि 2008 में उन्होंने एक प्रेम कविता भी लिखी और अपने आधिकारिक वेबसाइट पर लोगों को पढ़ने के लिए प्रस्तुत  भी की। ज़ाहिर है, कविता और प्रेम दोनों किसी ख़ास वर्ग की बपौती नहीं हैं ………  

क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि बात बात में आने लगे रुलाई?
क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी जाये मौत भी?
ऐसा जो नहीं किया
तो कैसे रह पाओगी उसके साथ साथ ?

क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो खरा निर्विकार है
क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो इतना भरोसा पैदा कर दे
अपने आप पर
अपनी शक्ति पर
अपनी समझ पर ?

कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके हाथ सौंप दो अपने जीवन की पतवार ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके ऊपर न सिर्फ़ मचल मचल आये दिल
बल्कि फूट फूट आये उनपर प्यार की धार
खुल जाये जिनके सामने सारी गाँठें
और बन जाओ एकदम उन्मुक्त ?

कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि छाया की तरह ख़्वाहिश होने लगे उसके साथ की पल पल ?
कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि उसके लिए नामुमकिन हो जाये कुछ भी इनकार कर देना
भीख , उधारी से लेकर चोरी तक सबकुछ
खाना पकाओ, पहिये साफ़ करो .... सब कुछ ?

 
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि घर से बाहर निकलो और चिल्ला चिल्ला कर
इसकी बाबत सुना डालो सारी दुनिया को ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि विस्मृत हो जाये मन से अच्छा बुरा
दूसरे सबने जो कहा अबतक … सब कुछ ?
चाहत यह कि बस थामे रहे तुम्हें प्रिय हर पल
और डाँट भी लगाये जब जब हो जाये कोई गलती
पर इज्ज़त और अपनेपन से?
वह प्यार से तुम्हें सँभाल लेगा बड़ा बन कर
जितना ही गहरा जायेगा प्यार में

प्यार बड़ा  है प्रबल
प्यार में है बहुत जोर
और  जब मिल जाये प्रिय कोई ऐसा
कर नहीं सकता कोई बाल बाँका
खुल कर प्यार करो तोड़ कर सारी सीमायें
वैसे ही जैसे गाड़ी करती हो स्टार्ट पहली पहली बार
फिर प्यार भी जी जान से करेगा हिफ़ाज़त तुम्हारी।  
                                ( प्रस्तुति : यादवेन्द्र )
-- 

Thursday, July 30, 2015

प्रतिरोध का गीत


अभी हाल में अमेरिकी अदालत में एक दिलचस्प मामला आया जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कम्पनी पीबॉडी इनर्जी कॉर्प ने अपने खिलाफ़ दायर मुक़दमे को ख़ारिज करने से ज्यादा जोर इस बात पर लगाया कि तहरीर में उद्धृत करीब 45 साल पुराने एक गीत की पंक्तियाँ हटा दी जायें।यह तहरीर दो पर्यावरण ऐक्टिविस्ट लेस्ली ग्लूस्ट्रॉम (चित्र) और थॉमस एस्प्रे ने दो साल पहले कम्पनी के विरोध में प्रदर्शन करने पर की गयी अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती देते हुए दी थी। इन याचिकाकर्ताओं ने अपनी तहरीर की शुरुआत लोकगायक जॉन प्राइन(चित्र) के 1971 के अत्यंत लोकप्रिय गीत "पैराडाइज़" की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों से की है जिसमें पीबॉडी द्वारा स्ट्रिप माइनिंग के जरिये पैराडाइज़ नामक शहर(इसको "स्वर्ग" के प्रतीक के रूप में भी लिया जा सकता है) के उजड़ने की बात कही गयी है। यह गीत पर्यावरण ऐक्टिविस्ट आज भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाते हैं।
--यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294
पीबॉडी के कोयला खनन और नागरिकों द्वारा उसके विरोध का इतिहास बहुत पुराना है जब समय समय पर खनन करने की उसकी स्ट्रिप तकनीक और उस से पर्यावरण को होने वाले विनाश का जबरदस्त विरोध किया गया। इसी विरोध को 1971 में डाकिया से लोकगायक बने जॉन प्राइन ने ने शब्द और स्वर दिये - प्राइन का बचपन का बड़ा हिस्सा ग्रीन नदी के किनारे बसे पैराडाइज़ शहर में बीता और कोयला खनन के चलते उसके उजड़ते चले जाने को उन्होंने नज़दीक से देखा है।सत्तर के दशक में इस शहर का अस्तित्व धरती पर से मिट गया जब पूरी ज़मीन खनन को समर्पित कर दी गयी। उस समय भी पीबॉडी कम्पनी जॉन प्राइन के गीत की लोकप्रियता से घबरा गयी थी और उसने "फैक्ट्स वर्सेस प्राइन" शीर्षक से पुस्तिका छाप कर बाँटी थी जिसमें धौंस जमाते हुए कहा गया कि "संभवतः हमने ही उस गीत की रिकॉर्डिंग के लिए बिजली मुहैय्या करायी जो हमारे ऊपर पैराडाइज़ को खुरच कर उजाड़ डालने का आरोप लगा रहा था।" अब 44 साल बाद पीबॉडी एकबार फ़िर इस गीत से भयभीत हो रहा है - गीत में बयान किये तथ्यों की आँच साढ़े चार दशकों बाद भी जनता को सड़कों पर आने को प्रेरित कर रही है। कम्पनी ने कोर्ट से गुज़ारिश की है कि "याचिकाकर्ता गीत के माध्यम से पीबॉडी को बदनाम करने के साथ साथ पूरी इनर्जी इंडस्ट्री पर हमले कर रहे हैं....वे बेतुकी , असत्य , अनावश्यक और भड़काने वाली बात कर रहे हैं।" पीबॉडी कंपनी ने अपनी गतिविधियों के प्रति बढ़ते जनप्रतिरोध देखते हुए 2013 शेयरधारकों बैठक अपने मुख्यालय सेंट लुइस में न करके नार्थ व्योमिंग के एक कॉलेज में आयोजित की जहाँ प्रदर्शन कर रहे हुए याचिकाकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था।आंदोलनकर्ताओं का आरोप था कि कम्पनी पर्यावरण का विनाश करने के साथ साथ अपनी एक सहायक कंपनी दिवालिया घोषित कर के अपने करीब 25 हज़ार कामगारों को पेंशन और स्वास्थ्य बीमा के लाभों से वंचित करने का षड्यंत्र रच रही है।




  -- जॉन प्राइन


पैराडाइज़ 
         
जब मैं छोटा था मेरा परिवार जाता था
वेस्टर्न केंटुकी 
मेरे माँ पिता वहीँ पैदा हुए थे 
बाबा आदम के ज़माने का एक पिछड़ा शहर है वहाँ 
वह अक्सर याद आता है .... बार बार 
इतनी बार कि मेरी स्मृतियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। 



(कोरस)

अब तुम्हारे डैडी लेकर नहीं जायेंगे 
तुमको मुहलेनबर्ग काउंटी 
वहीँ जहाँ नीचे उतरो तो बहती है 
ग्रीन नदी 
और पहले बसता था पैराडाइज़ शहर ....
माफ़ करना बेटे… बहुत देर कर दी तुमने भी 
मिस्टर पीबॉडी का कोयला कब का 
ले जा चुका उसको तो अपने साथ खुरच कर। 

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कोयला कम्पनी दुनिया का सबसे बड़ा बेलचा लेकर आयी 
और उजाड़ डाले सभी पेड़ पौधे 
सारी धरती नंगी कर दी खुरच खुरच के 
पहले कोयला निकाला और घुसते चले गये 
धरती जहाँ ख़तम हो जाती है अंदर पाताल तक 
और दुनिया भर में  पीटते रहे ढिंढोरा
कि कर रहे हैं विकास पिछड़े आदमी का। 



(कोरस)


मैं जब मरुँ मेरी राख बिखेर देना 
ग्रीन नदी के ऊपर 
और दुआ है कि मेरी रूह जाकर टिक जाये 
रोचेस्टर डैम के ऊपर 
ऐसे मैं स्वर्ग के आधे रस्ते तो पहुँच ही जाऊँगा 
और मिल लूँगा इंतज़ार करते पैराडाइज़ से 
वहाँ से मेरा गाँव बहुत पास है 
महज़ पाँच मील दूर।   




 अनुवाद- यादवेन्द्र

Saturday, July 25, 2015

हमारा आस पास

यादवेन्‍द्र


शाम से गहरे सदमे में हूूं,समझ नहीं आ रहा इस से कैसे निकलूँ । देर तक सिर खुजलाने के बाद लगा उसके बारे में लिख देना शायद कुछ राहत दे।

मुझे किसी व्यक्ति या समाज की आंतरिक गतिकी और गुत्थियों को समझने के लिये गम्भीर अकादमिक निबन्ध पढ़ने से ज्यादा ज़रूरी और मुफ़ीद लगता है उसके कला साहित्य की पड़ताल करना। पर हिंदी के अतिरिक्त सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने की अपनी गम्भीर सीमा है । भारत की हिन्दीतर भाषाएँ हों या विदेशी भाषाएँ, इनके बारे में अंग्रेज़ी में उपलब्ध सामग्री मेरा आधार है।

आज शाम बड़े परिश्रम से ढूँढ कर मैंने ग्रीस के बड़े लेखकों की दो कहानियाँ पढ़ीं।दोनों रचनाएँ सात आठ साल से आर्थिक बदहाली से जूझ रहे ग्रीक समाज की भरोसे की कमी से जूझती आत्मा की हृदय विदारक पीड़ा का बयान करती हैं।एक कहानी डांवा डोल भविष्य से घबराये हुए पड़ोसी नौजवान की ऊँची इमारत से छलाँग लगा देने के दृश्य से लगभग विक्षिप्त हो जाने वाली स्त्री की अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है,दूसरी कहानी आर्थिक संकट के कारण बगैर कोई नोटिस दिए नौकरी से बाहर कर दिए गए एक कामगार की भावनात्मक अनिश्चितता का जिस ढंग से ब्यौरा प्रस्तुत करती है वह कोल्ड ब्लडेड मर्डर सरीखा झटका देती है। उसके बाद जाने किसका नम्बर आ जाये,इस आशंका का रूप इतना मुखर है कि पाठक को लगने लगता है कहीं कल उसका इस्तीफ़ा न ले लिया जाये।

मैंने पिछले महीने मेडिकल साइंस के एक प्रतिष्ठित जर्नल में छपे अध्ययन के बारे में पढ़ा कि 2011-2012 के दो सालों में ग्रीस में आत्महत्या की दर में 35फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।बेरोज़गारी ऐसी कि हर चौथा व्यक्ति काम से बाहर है।ऐसे समाज को विद्वानों से ज्यादा अंतरंगता के साथ लेखक कवि कलाकार समझ सकते हैं,और उनके तज़ुर्बे संकट के समय हमें उबरने में मदद कर सकते हैं।मानव समाज इसी साझेपन से चलता और विकसित होता है।

Thursday, June 11, 2015

घुसपैठियों से सावधान


प्रिय मित्र यादवेन्‍द्र जी से मुखातिब होते हुए

हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं-  किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्‍हें  ज्‍यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्‍हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए । ताकि उनके पक्ष और विपक्ष को दुनिया दूरगामी अर्थों तक ले सके और उनकी राय से व्‍युत्‍पन्न होती नैतिकता, आदर्श को विक्षेपित किया जाना संभव न हो पाये। पर ऐसा अक्सर देखने में आता नहीं। खास तौर पर तब जब प्रतिरोध के किसी मसले को  शासक वर्ग द्वारा भिन्‍न अंदाज में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ऐसे खास समय में प्रतिरोध का हमारा तरीका कई बार इतना वाचाल हो जाता है कि खुद हमारे अपने ही मानदण्‍डों को संतुष्‍ट 0कर पाना असंभव हो जाता है । कई बार ऐसा इस वजह से भी होता है कि शासकीय चालाकियों को पूरी तरह से पकड़ पाना हमारे लिए मुश्किल होता है और उसका लाभ उठाकर शासक वर्ग के घुसपैठिये भी प्रतिरोध का नकाब पहनकर अपनी भूमिका को बदल चुके होते हैं ताकि हमारे हमेशा के वास्‍तविक प्रतिरोध को अप्रसांगिक कर सके । उस वक्‍त उनके प्रतिरोध की आवाज इतनी ऊंची होती है कि एकबारगी वे हमें जनता के पक्षधर नजर आते हैं जो हमारे ही मन के प्रिय भावों को प्रकट करने में साथ दे रहे होते है। उनकी इस भूमिका पर हम उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते बल्कि उनके ही नारों, उनके ही तर्कों के साथ खुद प्रतिरोध में जुट जाते हैं। लेकिन एक दिन जब वे पाला बदलकर फिर से अपने पूर्व रंग में होते हें तो पाते हैं कि उनके अधुरे तर्कों के कारण और उनके ही पीछे पीछे डोलने के कारण हम खुद ही अप्रसांगिक हो चुके हैं।

घुसपैठियों के तर्कों में बहने की बजाय हमें प्रतिरोध की अपनी भूमिका को स्पष्ट रखते हुए  निशाना ठीक से साधना आना चाहिए। मैगी के समर्थन में आ रहे विचारों के मद्देनजर बात न भी की जाये तो ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के समय को देखिये जब एक वैश्विक पूंजी के विरोध में किया जा रहा हमारा प्रतिरोध हमें अप्रसांगिक बना दे रहा था । हम लादेन के पक्षधर नहीं हो सकते पर अनायास वैसा दिख रहे थे। हाना मखमलबॉफ की फिल्‍म एक बार फिर याद आ रही है  

Sunday, July 13, 2014

पसंद से ज्यादा नापसंद का इज़हार

                                      ---  यादवेन्द्र 
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति वाला गोपाल सुब्रहमण्यम मामला अभी ठण्डा भी नहीं हुआ था कि वर्तमान शासन की सोच से मेल न खाती एक फ़िल्म के प्रति नापसंदगी को ज़ाहिर करता अधैर्य सामने आ गया।  
एक छोटी सी लगभग अचर्चित ख़बर यह है कि 2013 के 61 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों के जून के अंतिम दिनों में संपन्न दिल्ली समारोह की पूर्व घोषित प्रारंभिक फ़िल्म हंसल मेहता की शाहिद थी पर बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में बगैर कोई तार्किक कारण बताये इसके स्थान पर मराठी की सुमित्रा भावे निर्देशित अस्तु दिखला दी गयी। सभी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों को दिखलाना ही था सो शाहिद  को अगले दिन प्रदर्शित किया गया।इस बदलाव से पूर्ववर्ती कार्यक्रम के लिए स्वयं उपस्थित रहने की अपनी औपचारिक सहमति दे चुके हंसल मेहता ने न सिर्फ़ दुखी और अपमानित महसूस किया बल्कि उन्हें इसमें राजनैतिक रस्साकशी की बू भी आयी। 
  
ध्यान रहे कि 61 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की जूरी के अध्यक्ष अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और नसीम जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में बनाने वाले सईद अख़्तर मिर्ज़ा थे और एम एस सथ्यु ( गर्म हवा जैसी मील का पत्थर फ़िल्म के निर्देशक )और उत्पलेंदु चक्रवर्ती( सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार पाने वाली बांग्ला फ़िल्म चोख के निर्देशक ) समिति के सदस्य थे --इसी जुड़ी ने शाहिद को श्रेष्ठ निर्देशन और अभिनय  के लिए पुरस्कृत किया गया तो अस्तु को श्रेष्ठ संवादों और सहायक अभिनेत्री के लिए इनाम दिया गया। यहाँ तक तो हिसाब किताब बराबर पर सृजनात्मक कृतियों को तुलनात्मक तौर पर वैसे बिलकुल नहीं तोला जा सकता है जैसे तराजू पर कोई सामान रख कर डंडियों का झुकाव देख लिया जाता है -- ज़ाहिर है अपने अपने तरीके और दृष्टिकोण से शाहिद और अस्तु नाम से दो अलहदा फ़िल्में बनायीं गयी हैं और उनको डंडी वाले तराजू पर सामान की माफ़िक तोला नहीं जा सकता। पहली फ़िल्म मानवाधिकारों की रक्षा और निर्दोष गरीबों को इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल देने वाले वकील शाहिद काज़मी के जीवन की वास्तविक घटनाओं पर आधारित बायोपिक फ़िल्म है जबकि दूसरी फ़िल्म डिमेंशिया से ग्रसित एक वृद्ध संस्कृत विद्वान और पिता की चिंता में दिन रात एक किये हुए उनकी बेटी के आपसी रिश्तों की बारीक और आम तौर पर ओझल रहने वाली परतों की मार्मिक कथा है जिसमें बेटी कभी बेटी तो कभी माँ की भूमिका में नज़र आती है। इन दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है ?

आहत हंसल मेहता जब यह कहते हैं कि किन्हीं कारणों से यदि मेरी फ़िल्म को प्रारम्भिक फ़िल्म के गौरव से वंचित करना ही था तो उसकी जगह आनंद गांधी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीत चुकी शिप ऑफ़ थीसियस का प्रदर्शन किया जा सकता था …  हाँलाकि वह अगली साँस में ही बतौर एक फ़िल्म अस्तु की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते।बेशक किसी भी कलाकार का अपनी कृति के साथ गहरा भावनात्मक लगाव और आग्रह जुड़ा होता है पर उसके स्थानापन्न के चुनाव में "अ" बनाम "ब" का मापदण्ड अपनाना उचित और नैतिक नहीं होगा। 

पर हंसल मेहता ने इस घटना के सन्दर्भ में जिन प्रश्नों को उठाया है उनसे मुँह मोड़ना चिंगारी देख कर भी धुँए से इंकार करने सरीखा होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि फिल्म के प्रदर्शन में बदलाव के कारण सिनेमा से परे हैं -- उन्होंने अनौपचारिक तौर पर बतलाये गए कारणों (शाहिद की  विषयवस्तु  के कारण कम दर्शकों की उपस्थिति की आशंका और अस्तु के कास्ट और क्रू का समारोह स्थल पर उपस्थिति होना ) को सिरे से नकार दिया। पर उनको समारोह के पहले दिन 29 जून को फ़िल्म के साथ आमंत्रित करने की तारिख ( 15 मई ) पर गौर करें तो सबकुछ शीशे की तरह एकदम साफ़ हो जाता है --- अगले दिन देश का राजनैतिक नक्शा पूरी तरह से बदल जाता है। ऐसे में सम्बंधित अफ़सरान की निष्ठा इधर से उधर हो जाये तो इसमें अचरज कैसा ?
हंसल इस बर्ताव से गहरे तौर पर आहत हुए हैं और कहते हैं कि शाहिद को पुरस्कार मिलने पर कई लोगों ने इसकी सृजनात्मक श्रेष्ठता को नहीं बल्कि एक समुदाय विशेष का पृष्ठपोषण करने को रेखांकित किया … पर यह फिल्म भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त गैर बराबरी चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय की हो के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है।गहरी पीड़ा के साथ वे आगे कहते हैं कि वे पिछली सरकार की आडम्बरपूर्ण तुष्टिकरण की नीतियों का विरोध करते थे और शाहिद इन्हीं विचारों का प्रखर दस्तावेज़ है।वैसे ही वे बदले हुए माहौल में देश के ऊपर मँडरा रही अराजक बहुसंख्यावादी शक्तियों का भी अपनी कला के माध्यम से भरसक विरोध करेंगे। उन्होंने आयोजनकर्ताओं को सिनेमा को सिनेमा रहने देने की नसीहत दी और आग्रह किया कि वे अपने राजनैतिक बाध्यताएँ सिनेमा के ऊपर न थोपें।

अच्छे दिनों की यह गला घोंटने वाली कैसी आहट है ? 

Thursday, May 8, 2014

चाय की प्याली में तूफान उठा देने वालों

हमारे सहयोगी यादवेन्द्र जी का यह आलेख उनके लेखन की ऐसी बानगी है कि हमारा आसपास बज बजाता हुआ सामने आने लगत है.



आज सुबह चाय बना कर पीने ही जा रहा था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया -- आम तौर पर देर से उठने के आदी मित्रों और परिजनों के फ़ोन से मुक्त रहती हैं मेरी सुबहें ,पर कुछ चुनिंदा लोगों को सुबह सुबह मुझे पकड़ लेने की तरकीब मुफ़ीद लगती है। मित्र ने मुझसे कुछ पढ़ कर सुनाने का आग्रह किया सो चाय किनारे रखनी पड़ी -- हाँलाकि बीच बीच में चुस्कियाँ लेने से खुद को रोक नहीं पा रहा था।
पर अंत में बची हुई चाय ने अपने हाव भाव ( स्वाद और गंध) से साफ़ साफ़ कह दिया कि पीनी है तो ढंग से चाय पियो प्यारे.... कई काम एक साथ करते हुए सब के साथ नाइंसाफ़ी और तौहीनी करते हो .... मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं।
चाय ने सचमुच इस बेरुखी पर क्रोधित होकर अपना स्वाद बदल लिया था -- सुबह की ताज़गी के बदले उसमें उबा देने वाला बासीपन घर कर गया था। दिलचस्प बात ये कि एक घूँट ख़राब चाय पी कर चार पाँच बार अच्छी चाय पी भी लें तो मामला बनता नहीं -- चाय मेरे लिए ऐसी प्रेमिका की मानिंद है जो पल पल समझाती रहती है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ और चमकदार है उसमें उसका स्थान हमेशा सबसे ऊपर रहेगा … जिसका मूड ख़राब करने का जोखिम आप उठा नहीं सकते .... और ऐसी गलती कर ही बैठे तो आपको  एड़ी छोटी का जोर लगाना पड़ेगा , फिर भी सब कुछ सहज सामान्य हो ही जाएगा इसकी कोई गारण्टी नहीं।
दरअसल चाय के इतने रूप रंग होते हैं कि एक से दूसरे के बीच के अंदर को मैं पहचान तो सकता हूँ पर शब्दों में उनका वर्णन नहीं कर सकता .... जैसे सुबह सुबह बनायी चाय के ही थोड़े से अंतराल के बाद बदल गये दो अलग अलग स्वाद को ही लें। यदि चाय किसी पतली गर्दन वाले बर्तन में बनाई जाये तो भगौने जैसे चौड़े मुँह के बर्तन में बनाई गयी चाय से उसका स्वाद बिलकुल अलग होगा। वैसे ही उबलते पानी में चाय की पत्ती डाल कर ढक्कन से ढँक दिया जाए तो उसका स्वाद बगैर ढक्कन के देर तक उबाल कर बनायीं गयी चाय से बिलकुल अलहदा होगा। जो लोग पानी और दूध बगैर नापे अंदाज से डाल कर चाय बनाते हैं उनकी चाय का स्वाद सब कुछ नाप तोल कर डाली गयी सामग्री की चाय से जुदा होगा। पानी दूध और चीनी का अनुपात  बदल जाने से ज़ाहिर है चाय का स्वाद बदल जाता है। गाय ,भैस और डेयरी के दूध ( वह भी टोन्ड और फ़ुल क्रीम ) से बनायीं गयी चाय एकदम अलग स्वाद और गंध की होती है। इतना ही नहीं अलग अलग व्यक्ति की बनायीं चाय में अलग अलग स्वाद मिलेगा। शाम को दफ़्तर की थकान के बाद मिलने वाली दैनिक रूटीन वाली चाय का स्वाद वह हो ही नहीं सकता जो लिखाई पढ़ाई में तल्लीन रहने पर देर रात मिलती है .... या रात भर अच्छी नींद लेकर उठने के बाद दिन की पहली चाय ( आहार) का होता है।यानि चाय पानी दूध चीनी चाय की पत्ती को फेंट कर तैयार किया गया महज़ एक द्रव नहीं होती बल्कि एक जीवंत शख्सियत होती है --- और मन के भावों के प्रति बेहद संवेदनशील होती है।

मुझे याद है जब 1995 में मैं पहली दफ़ा विदेश ( अमेरिका ) गया और वहाँ पहुँच कर होटल में चाय की माँग की तो मुझे मिंट ( पुदीना ) की गंध वाली चाय का पैकेट दिया गया --- जबरदस्त तलब के बावज़ूद मैं उस चाय को स्वीकार नहीं कर पाया ,क्योंकि अपने चालीस साल के जीवन में पहले कभी चाय के साथ पुदीने की गंध /स्वाद का अनुभव नहीं किया था। जब मुझसे पुदीने वाली चाय नहीं चली तो बार बार माँगने पर दूसरी गंध वाले टी बैग्स मिले , सादा चाय मिली ही नहीं। जैसे तैसे कुछ घंटे होटल में गुज़ारने के बाद मैं निकल कर खुद डिपार्टमेंटल स्टोर गया और सादा चाय के लिए मगजपच्ची करता रहा। पूछ ताछ करने पर मुझे बताया गया कि दार्जिलिंग टी का पैकेट खरीदो ,यहाँ सादा चाय वही मानी जाती है --- हाँलाकि मुझ जैसे इंसान के लिए उबाल कर बनायी गयी सादा  चाय ही चाय का स्थायी भाव है ,दार्जिलिंग चाय तो कभी कभार मिल जाने वाली लग्ज़री है। इसी यात्रा में मेरा सामना काँच के पारदर्शी प्याले में बर्फ़ और नींबू की पतली फाँक तैरती हुई ठण्डी चाय से हुआ --- तज़ुर्बे के तौर पर मेरी स्मृति में सिर्फ़ आग पर उबली हुई चाय मौज़ूद थी और बर्फ़ वाली चाय मुझे बड़ी अटपटी लगी थी पर बाद के दिनों में जब भारत में नेस्ले ने आइस टी बेचनी शुरू की तो इसका स्वाद मेरे मुँह को खूब लगा।

पिछले साल राजस्थान में नाथद्वारा जाने पर पुदीने वाली चाय पी और खूब छक कर पी -- यह वहाँ की वैसी ही खासियत है जैसे सैकड़ों की संख्या में बनी दूकानों में बिक रहा मंदिर में दिन में सात बार चढ़ाया गया प्रसाद। जब जब वहाँ चाय पीता  हूँ मुझे अमेरिका का वह अनुभव याद आता है और अचरज होता है कि वहाँ जिसको स्वीकार करना मुश्किल था वहीँ नाथद्वारा पहुँचते ही मुझे पुदीने वाली चाय की जबरदस्त तलब होती है।
 
पचमढ़ी में खूब देर तक अदरक के साथ उबाल कर तीन चरणों में बनायीं गयी चाय लोगों के इतने मुँह लगी रहती है कि एक कप चाय के लिए बीस पच्चीस मिनट तक इन्तज़ार करते हैं-- इस प्रक्रिया को पूरा होने में आधे घंटे तक का समय लगता है।पहली बार में मुझे तेज अदरक वाली यह चाय इतनी कड़वी लगी कि एक दो घूँट के बाद छोड़ दी पर थोड़ी देर बाद उसमें ही अनूठा स्वाद आने लगा।

तिरुपति में चाय बनाने का अलग ढंग है -- कॉफी के लिकर की तर्ज पर चाय का भी लिकर बना कर ताम्बे के लम्बे गोल बर्तन में रखा जाता है और ग्राहक के आने पर दूध और चीनी मिला कर दे दिया जाता है।

हालिया अनुसंधान से मालूम हुआ कि हमारी नाक लाखों अलग अलग गंधों को पहचान सकती है ,यह अलग बात है कि हम अपनी इस क्षमता का उपयोग करना भूलते जा रहे हैं। वैसे ही हमारी जीभ और स्वाद पहचानने वाली ग्रंथियाँ भी भिन्न भिन्न प्रकार के स्वाद पहचान सकती हैं पर हम उनका प्रयोग करना भूलने लगे हैं .... और  उनके बारीक अंतर को शब्दों में बयान करना तो बिलकुल असंभव है।

कैसी विडंबना है कि चाय के  इतने सारे भिन्न स्वरुपों को समेट कर हम देशवासियों पर यह धौंस जमा रहे हैं कि चाय पीनी है तो सिर्फ़ नमो चाय पियो ,वरना पाकिस्तान जाओ।    

--
यादवेन्द्र
*Mob.*    *+ 09411100294*

Wednesday, June 19, 2013

ताइवान : प्रतिरोध की कविता

ताइवान : प्रतिरोध की कविता आज से करीब सोलह साल पहले ताइवान के हजारों कारखाना मजदूरों को बढ़ती प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए उत्पादों की लागत कम करने के नाम पर बगैर कोई हर्जाना दिए नौकरी से निकाल दिया गया था। अचानक आई इस बिपदा से मजदूरों और उनके परिवारों का जीवन छिन्न भिन्न हो गया ,हाँलाकि यूनियनों के हस्तक्षेप से यह रहत मिली कि सरकारी श्रम विभाग उनको कुछ राशि "ऋण" के तौर पर देने को तैयार हो गया जो बाद में दोषी कारखाना मालिकों से वसूल लिया जाना था। अब सोलह साल बाद सरकार ने लाभार्थी मजदूरों ( जिनमें से अधिकतर अब मौत के मुंह पर दस्तक दे रहे हैं) को दिए गए "ऋण" को वापस लेने के लिए कानूनी अभियान चलाया है। गैर कानूनी ढंग से सरकारी ऋण डकार जाने का अभियोग उन मजदूरों पर लगाया गया है और कोर्ट में मुकदमा चलाया जा रहा है। ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने इस घटना को रेखांकित करते हुए और पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए एक कविता लिखी। http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है
प्रस्तुति : यादवेन्द्र 


रेल की पटरी पर सोना

यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ
 उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है
 पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया
 उन्होंने देखी नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं
 लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।

ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ...
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल
जिस से यह तुम्हें ले जा सके चप्पे चप्पे पर
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।

जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने के
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन। 

Saturday, April 13, 2013

चिनुआ अचेबे की कहानी : वोटर

(पिछले दिनों अफ़्रीकी साहित्य के शिखर पुरूष चिनुआ अचेबे के निधन से विश्व कथा साहित्य का नायाब हीरा हमारे बीच से गुम हो गया है.एक सम्मानित समालोचक ने उनके बारे में ठीक ही कहा है कि जैसे शेक्सपियर  के माध्यम से अंग्रेजी साहित्य और पुश्किन के माध्यम से रूसी साहित्य को अभिव्यक्ति मिली ,वैसे ही चिनुआ अचेबे के माध्यम से अफ़्रीकी साहित्य को अभिव्यक्ति मिली।यहाँ प्रस्तुत है उनकी कहानी वोटर जो लगता है कि भारत के बारे में ही लिखी गयी है. इसका अनुवाद किया है यादवेन्द्र ने)

           वोटर 
                   -- चिनुआ अचेबे

रुफुस ओकेके -- जिसको लोगबाग  संक्षेप में रूफ़ कह कर बुलाते थे --अपने गाँव का बेहद लोकप्रिय व्यक्ति था।गाँव वालों के बीच उस ऊर्जावान युवक की लोकप्रियता का कारण था कि आजकल के अन्य नौजवानों की तरह उसने  काम की तलाश में गाँव छोड़ कर शहर की ओर रुख नहीं किया -- और गाँव में रहते हुए भी उसकी छवि किसी आवारा मनचले की नहीं थी।सबने उसको दो साल तक साईकिल मरम्मत करने वाली दूकान पर काम सीखते हुए देखा था और उसके बाद स्वेच्छा से गाँव लौट कर इस मुश्किल दौर में अब सबकी मदद करते हुए देख रहे थे -- उसको लगता था ऐसा करते हुए उसका भविष्य जल्दी ही बेहतरी की करवट लेगा।        
उमोफिया गाँव अब पीपुल्स एलाएंस पार्टी का मजबूत गढ़ बन चुका था और उसके सबसे देदीप्यमान नक्षत्र मारकुस इबे उसके अंतिम सरकार के संस्कृति मंत्री के आसन पर विराजमान थे --अब जबकि लोगों को भरपूर यकीन था कि अगली सरकार भी उसी पार्टी की बनेगी सो उसके बासिंदों को अच्छे नेतृत्व  की दरकार थी। शायद ही कोई ऐसा होगा जिसको यह भरोसा न हो कि मंत्री दुबारा इस इलाके से जीत कर सत्ता हासिल करेंगे।

सबकी उम्मीदों के अनुरूप रूफ माननीय मंत्री की खिदमत में जी जान से जुटा हुआ था। चुनाव प्रचार की तमाम बारीकियाँ और नुस्खे उसको मालूम थे जिनका प्रयोग गाँव से लेकर देश तक की राजनीति में कामयाब रहते।चुनावी हवा के रुख और वोटरों की नब्ज भांपने में उसको महारत हासिल थी।अभी कुछ दिन पहले ही उसने मंत्री को गाँव के लोगों की  सोच में   रहे बदलावों के बारे में आगाह किया था।पिछले पाँच सालों में राजनीति  की मार्फ़त गाँव के लोगों को अच्छी भली दौलत और रसूखदारी हासिल हुई ,हाँलाकि कई मामलों में  लोगों को इनसे सीधा लाभ क्या मिलेगा इसका कुछ भी पता नहीं चला -- उनको तो किसी डाक्टर का मतलब सिर्फ यह समझ आता है कि रोगी उसके इलाज से चंगा हो जाए।मंत्री को देश के  तमाम बड़े खिताब और सम्मान पाँच साल के शासन काल में हासिल हो गए  कि उनको किसी और की तरफ देखने की जरूरत नहीं महसूस हुई।
गाँव के एक एक आदमी को पता था कि  मारकुस इबे राजनीती में आने से पहले एक मामूली स्कूल मास्टर था और उसकी छवि भी कोई अच्छी नहीं थी ... पर जब से उसने राजनीति का दामन थामा है  और उसकी शोहरत बढती गयी है लोगों की स्मृति से यह बात धुँधली पड़ती गयी है  कि स्कूल के एक साथी टीचर के गर्भ ठहर जाने का मामला इतना  तूल  पकड़ चुका था कि उसको स्कूल से निकाले   जाने का फैसला किया जा चुका था।
आज की तारीख में गाँव का माननीय प्रधान था ...उसके पास दो लम्बी चमकदार गाड़ियाँ थीं और उसकी कोठी तो इतनी शानदार थी  कि पूरे इलाके में वैसी कोठी कभी किसी ने देखी ही नहीं।पर सबसे बड़ी बात थी कि मारकुस के सिर पर इतनी दौलत और रसूख चढ़ी नहीं जबकि कोई और होता हो उसके पाँव ज़मीन पर बिलकुल  पड़ते।मारकुस था की अपने लोगों के लिए वैसा ही समर्पित बना रहा .. जब भी देश की राजधानी की चकाचौंध से उसको फुर्सत मिलती वह अपने गाँव लौट आता भले ही वहां हरदम बिजली और पानी की किल्लत रहती।कुछ दिन पहले ही उसने अपनी  कोठी को चौबीस घंटे बिजली पहुंचाने के लिए  निजी जेनरेटर लगवा लिया था।उसको अपने उज्जवल भविष्य का पक्का यकीन था। अपनी कोठी का नाम उसने अपने गाँव को सम्मान प्रदान करते हुए उमोफिया मैन्शन रखा था , और जिस दिन आर्च बिशप ने उसका उद्घाटन किया था उस दिन लोगों को खिलाने के लिए उसने पाँच भैंसों और अनगिनत बकरों का गोश्त परोसा था।
दावत खाने वालों में कोई भी ऐसा नहीं था जिसकी जुबान पर उसकी तारीफ़ के बोल  हों .. एक बुजुर्ग बोले :" हमारा बच्चा बेहद नेक इंसान है .. यह उन नामुरादों में शामिल नहीं है जिनके सामने थोड़ी सी  दौलत आई नहीं कि उन्होंने अपने लोगों से मुंह फेर लिया।" पर दावत ख़तम होने पर लोगबाग आपस में इस बात पर चर्चा करते रहे कि उनको नहीं लगता था कि बैलट पेपर की इतनी अहमियत होती है ...अब आने वाले चुनाव में वे इसको जाया नहीं करेंगे।  मारकुस इबे भी चुनाव के पूरी तरह से तैयार और मुस्तैद था ..उसने पाँच महीने का वेतन अग्रिम निकाल लिया था और नए चमकते हुए नोटों की गड्डियाँ इकठ्ठा कर रखी थीं।
अपने प्रचार दस्ते के नौजवानों को उसने सुन्दर सा जूट का बैग बनवा कर दिया था। दिन भर वह जगह जगह घूम कर धुंआधार भाषण देता और अँधेरा होने के बाद घर घर घूमकर वोट जुटाने के लिए उसका चुनाव दस्ता सक्रिय हो जाता।जाहिर था रूफ इस दस्ते का सबसे भरोसेमंद कार्यकर्ता था।

" इसी गाँव का एक आदमी देश का मंत्री है ..हमारा अपना लाडला बेटा"...उसने प्रचार के दौरान ओगबेफी एज़ेनवा के घर पर एकत्रित हुए बड़े बूढ़ों के समूह को संबोधित करते हुए रूफ ने कहा .." किसी गाँव के लिए इस से बढ़ के इज्जत की और क्या बात होगी? आपने कभी ठहर का ठन्डे दिमाग से यह सोचने विचारने की कोशिश की है कि हमारे ही गाँव को यह इज्जत क्यों बख्शी गयीमैं आपको एक राज की बात बताता हूँ .. यह गाँव पी पी पी ( पार्टी) नेतृत्व का प्रिय और पसंदीदा गाँव है। हम बैलट पेपर पर इस पार्टी को ठप्पा लगाएँ या  लगाएँ ..जीत तो पी पी पी की ही होनी है ..सरकार तो इसी पार्टी की बनेगी। अब आप गाँव गाँव तक पाइप से पानी पहुँचाने की बात ही लीजिये -- पार्टी ने इसका वादा आपसे किया ही है .."

जब यह बात कही जा रही थी तो उस कमरे में रूफ के अलावा पाँच और लोग थे .. लोगों के बीच धुंआता हुआ हलकी रोशनी फेंकता हुआ एक लैम्प रखा था।लोग एक घेरे में बैठे थे और सब के सामने चमकते कड़कडाते नोटों की एक एक गड्डी  रखी हुई थी ..दरवाजे के बाहर साफ़ आकाश में चाँद अपनी चमक बिखेर रहा था।
हमें तुम्हारी एक एक बात का भरोसा है .." एज़ेनवा ने आश्वस्त करते हुए हामी भरी " हम सब ..एक एक व्यक्ति ..सबलोग मारकुस के निशान पर ही ठप्पा लगायेंगे ..अब भला कौन ऐसा मूरख होगा जो दावत छोड़ कर सूखी रोटी खाने जायेगा। मारकुस को बोल दो कि हमारे वोट ...हमारी बीवियों के वोट भी ...सब उसी को मिलेंगे ..पर हमारी एक गुजारिश है , ये पैसे आज के समय में कम हैं .. इनको बढवा  दो।" यह कहते हुए उसने एक बार फिर से नोटों की गड्डी को उलट पुलट कर देखा कि कहीं वह उनकी कीमत को लेकर कोई गलती तो नहीं कर रहा है।

"बात तो सही है ..इतने पैसे बहुत कम हैं ...यदि मारकुस कोई गरीब आदमी होता तो मैं सबसे पहला आदमी होता जो उसको अपना वोट मुफ्त में दे देता ...पिछली बार मैंने ऐसा ही किया था। पर अब मारकुस दौलतमंद आदमी है सो उसको अपना कद देख कर काम भी करना चाहिए .. देखो , हमने पहले भी अपने लिए कोई मदद उस से नहीं मांगी ...आगे भी नहीं माँगेंगे ...पर आज तो हमारा दिन है ..आज हम जब पेड़ पर चढ़ गए हैं तो बगैर चूल्हे चौके के लिए लकड़ी काटे उतर गए तो हमसे बड़ा नादान भला और कौन होगा?"  

रूफ को बुजुर्गों की बात माननी पड़ी ..अबतक पेड़ की सबसे ज्यादा लकड़ी वो खुद अपने हिस्से में रखता जा रहा था                                
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अभी कल की ही तो बात है , मारकुस की सबसे मँहगी जैकेटों में से एक उसने माँगी थी। पिछले हफ़्ते मारकुस की बीवी ( वही टीचर जिसको लेकर उसकी नौकरी पर बन आई थी) ने रूफ को रोक था जब एक के बाद एक बियर की पाँचवी बोतल उसने फ्रिज से निकालने के लिए हाथ बढ़ाया था ..हाँलाकि सबके बीच में ही उसके पति ने ऐसा करने पर उसको खूब बुरा भला कहा था। बहुत दिन नहीं हुए जब एक विवादित ज़मीन वह अपने नाम लिखवाने में कामयाब हो गया था क्योंकि वह मंत्री की शोफ़र वाली गाड़ी जुगाड़ कर पूरे लाव लश्कर के साथ वहां पहुंचा था। यही कारण था कि बुजुर्गों की लकड़ी वाली बात उसको फ़ौरन समझ आ गयी।
अंग्रेजी में उसने कहा " ऑल राइट" और इबो की बात पर दुबारा आ गया:" अरे छोड़ो भी, छोटी मोती बातों पर विवाद करने का समय यह नहीं है।" वह उठ खड़ा हुआ ,अपने कपड़ों की सलवट सीधी की और बैग के अन्दर हाथ डाल कर कुछ टटोलने लगा।बैग से और पैसे निकाल कर उसने वहां मौजूद सबको ऐसे बाँटा जैसे कोई साधु  अपने थैले से निकाल कर मंदिर का प्रसाद बाँटता है --- पर ये पैसे उसने गाँव वालों की हथेली पर नहीं रखे बल्कि उनके सामने जमीन पर गिरा दिए। अबतक बुजुर्गों में से किसी ने भी जमीन पर रखे नोट छुए नहीं थे -- अब उन्होंने सामने नीचे देखा और इनकार में अपने अपने सिर हिला दिए।इसके बाद रूफ फिर से हरकत में आया -- बैग से और पैसे निकाले और उनको भी पहले से पड़ी नोटों की गड्डी के साथ मिला दिया।
"अब बहुत हो गया" उसने ऊँची आवाज में अपना गुस्सा प्रदर्शित करते हुए कहा हाँलाकि यह असली गुस्सा नहीं था। गाँव के बुजुर्गों को भी मालूम था कि बगैर बदमजगी किये हुए कितनी दूर तक जाया जा सकता है, इसलिए जैसे ही रूफ ने चिढ़ कर कहा कि " अब जाओ ... और मन में आये तो दुश्मनों के निशान पर ही मुहर लगा दो।" तो एक एक कर सबने बारी बारी से उसको शान्त करने के लिए कोमल शब्दों के लच्छेदार भाषण दिए ... जब आखिरी आदमी ने भाषण पूरा किया तो सबने झुक कर सामने जमीन  पर पड़े नोटों की गड्डी उठानी शुरू कर दी।
रूफ ने जिस दुश्मन का जिक्र किया था वह कोई बाहरी नहीं बल्कि चुनाव में पी पी पी की  प्रतिद्वन्द्वी  पार्टी पी ओ पी थी जिसका गठन सागर तट पर रहने वाले कबीलों ने अपने हितों की रक्षा की खातिर किया था क्योंकि उनको लगता था कि वर्तमान शासक पार्टी उनका पूर्ण राजनैतिक,सांस्कृतिक और धार्मिक सफाया करने पर तुली हुई है।हाँलाकि यह सबको मालूम था कि  इस इलाके में उसकी विजय की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं  है फिर भी कुछ स्थानीय गुण्डों मवालियों को चुनाव प्रचार के लिए गाडी और लाउडस्पीकर देकर वह मैदान में दिखाई देने का फर्ज निभा रही थी। किसी को यह पक्के तौर पर तो नहीं मालूम था कि पी ओ पी ने कितना पैसा इस गाँव में फूंका है पर प्रचार और शोर देख कर सबका अनुमान था कि यह रकम अच्छी खासी थी। एक बात बिलकुल तयशुदा थी कि इसके लिए प्रचार करने वाले स्थानीय नौजवानों के हाथ तगड़ी रकम आने वाली थी।
रूफ की मानें तो बीती रात तक सब कुछ बिलकुल वैसा ही चल रहा था जैसी योजना बनायी गयी थी। उसके बाद अचानक उसके पास पी ओ पी का कोई नेता पहुंचा -- ऐसा नहीं था कि दोनों एक दूसरे से अपरिचित  थे  --बल्कि उनको एक दूसरे का दोस्त कहना ज्यादा मुनासिब होगा-- पर उनकी यह मुलाकात बिलकुल काम के मद्दे नजर थी।निहायत कामकाजी तौर पर उनके बीच संक्षिप्त बातचीत हुई , एक शब्द भी फालतू नहीं। नेता ने रूफ के सामने नोटों की एक मोती गड्डी रख दी और बोला: "अब हमें तुम्हारा वोट चाहिए".रूफ अपनी जगह से उठा,बिना एक शब्द बोले दरवाजे तक गया और सावधानी से दरवाजा बंद कर के अपनी कुर्सी पर लौट आया। कुछ सेकेण्ड का यह अंतराल रूफ को आगामी नफे नुक्सान का हिसाब किताब करने के लिए काफी था -- जितनी देर वह बोलता रहा उसकी निगाहें सामने जमीन पर रखे लाल लाल नोटों पर लगी रहींरूफ नोटों पर खेत की फसल काटते किसान की तस्वीर देखते देखते कहीं और खो गया था।
"तुम्हें यह तो मालूम ही है कि मैं मारकुस के लिए काम करता हूँ " लगभग फुसफुसाते हुए उसने कहा .."मेरा ऐसा करना अच्छा नहीं होगा ..."
"जब तुम अपना वोट डाल रहे होगे तब मारकुस वहां नहीं रहेगा" हमें आज की रात बहुत सारे काम निबटाने हैं .. बोलो , तुम यह कबूल कर रहे हो या नहीं?"
" यह बात इस कमरे से बाहर तो नहीं जायेगी?" रूफ ने जानना चाहा।
"देखो , हम यहाँ वोटों का जुगाड़ करने आये हैं .. गप्पें मारने  और यहाँ वहां बातें फैलाने"
"" ऑल राइट".. रूफ ने अंग्रेजी में कहा।
नेता ने अपने एक साथी को आँख मारी और फ़ौरन वह लाल कपडे से पूरी तरह से ढँका हुआ डिब्बा लेकर हाजिर हो गया।जैसे ही उसने ढक्कन खोला अन्दर चिड़िया के पंखों के बीच में रखा हुआ जादू टोने वाला एक पत्थर दिखाई दिया।
"ये म्बाता ने तुम्हारे पास भेजा है ...तुम्हें इस तरह के जादू टोने वाले  पत्थर के  बारे में मालूम तो होगा ही .. इसके सामने वादा करो कि मादुका को वोट डालोगे .. यदि तुमने वादा खिलाफी की तो यह पत्थर ही तुम्हारा हिसाब किताब करेगा।"
उस पत्थर को देखते ही रूफ के होश उड़ गए ..वह लगभग बेहोश होने की कगार तक आ गया ..इन मामलों में म्बाता की शोहरत उस तक पहुँच चुकी थी।पर रूफ आनन् फानन में दो टूक फैसला करने वाला शख्स था,उसने मन ही मन हिसाब लगाया कि  चोरी छुपे यदि एक वोट मादुका को दे भी दिया गया तो मारकुस की पक्की जीत पर क्या असर पड़ने वाला है .. कुछ भी तो नहीं।
"मैं अपना वोट मादुका को ही डालूँगा ...जानता हूँ वादा खिलाफी करने पर यह पत्थर मेरा क्या हस्र कर देगा।"
"बिलकुल  सही ...तुम काफी समझदार हो।"नेता ने उठते हुए जवाब दिया जबकि उसका साथी पत्थर को वापस डिब्बे में रख के गाडी की ओर मुखातिब हुआ।
"पर तुम्हें यह तो मालूम होना चाहिए कि मारकुस के रहते उसकी चुनाव में कोई हैसियत नहीं है।"रूफ बोला।
"उसको गिनती के कुछ वोट भी मिल जाएँ तो इस बार के लिए बहुत हैं ..अगली बार हम देखेंगे कि ज्यादा वोट कैसे मिलें ..लोगों तक यह बात तो पहुँचेगी कि मादुका छोटे नोट नहीं बल्कि बड़े नोटों की गड्डियाँ बाँटता है .. लोगों को उनके वोट की कीमत समझने में देर नहीं लगेगी।"
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चुनाव के दिन की शुरुआत .. हर पाँच साल बाद लौट कर आने वाला यह महान दिवस जब आम लोग अपनी शक्ति और अधिकार का प्रयोग करते हैं ... घरों की दीवारों पर, पेड़ के तनों पर और टेलीफोन के खम्भों पर चिपके पोस्टर मौसम की मार सहते सहते बदरंग हो चुके हैं ..जो थोड़े बहुत पोस्टर जवान बचे थे उनपर लिखी इबारत पढ़ कर समझ जाने वाले ग्यानी कम ही थे ... पी ए पी ... पी पी पी ...पी ओ पी ...तमाम पार्टियों को वोट देने की अपील ...
हर बार की तरह अपनी जीत के लिए पूरी तरह से आश्वस्त मारकुस अपना हर काम उसी शान शौकत के साथ कर रहा था ..उसने एक महँगा बैण्ड वोटिंग बूथ से इतनी दूर बुला कर तैयार कर रखा था जिससे कानूनी अड़चन न आये ..अनेक गाँव वासी बूथ तक आते हुए हाथ लहराते हुए अपनी पसंद की पार्टी के गीत गाते चल रहे थे ..रसूखदार मारकुस अपनी चमचमाती हुई हरे रंग की कार के अन्दर शान से पसर कर बैठा हुआ था। ख़ुशी से झूमता हुआ एक एक गाँव वासी कार के पास आया और मारकुस से हाथ मिलाते हुए बोला:" बधाई ".उसका ऐसा करना था कि मारकुस के पास आकर हाथ मिलाने वालों और बधाई देने वालों का ताँता लग गया।
रूफ और उसके संगी साथी पसीने से लथपथ वोटरों को बूथ तक खींच लाने की भाग दौड़ में लगे हुए थे।
" भूलना मत "वह हंसी ठिठोली करती अनपढ़ औरतों के एक झुण्ड को निर्देश दे रहा था "हमारा निशान  है मोटर कार ... उसी पर मुहर लगाना".
" वैसी ही मोटर कार जैसी मारकुस की है ..बाहर वह जिसमें बैठा हुआ है।"
" आप ठीक समझीं काकी ... उसी कार की फोटो पर मुहर लगानी है ...उस कार के साथ ही मुहर लगाने की जगह बनी है" रूफ समझा रहा था .." ध्यान रखना ,दूसरी  जो आदमी के सिर की फोटो है,वह सही आदमियों के लिए नहीं है ..जिनका सिर फिर गया है वह उनके लिए है।" 
रूफ की  यह बात  सुनकर लोग हँस पड़े ..रूफ ने तिरछी  निगाहों से मारकुस की ओर ताका जिस से यह पता लग सके उसकी बात पर उसकी प्रतिक्रिया क्या हुई -- मारकुस की निगाहों में उसके लिए शाबाशी के भाव थे।
"कार के ऊपर मुहर लगाना" रूफ इतनी जोर जोर से यह कह रहा था कि चेहरे और गर्दन की सभी नसें बेतरह उभर आती थीं .." कार को वोट दोगे तो कार पर चढ़ने को मिलेगा ..कार पर मुहर लगाओ".
"चलो हमें कार पर चढ़ने को न भी मिले ...हमारे बाल बच्चों को तो मिलेगा ही" वही औरत मजाकिया लहजे में बोल पड़ी।
तभी बैंड पर नया गाना चालू हो गया .." पैदल चलें तेरे दुश्मन ...मैं तो चढूँगी मोटर कार ..."
ऊपर से बेखबर और आश्वस्त दिखने के बावजूद मारकुस के मन को चैन नहीं पड़  रहा था ..उसको बार बार अखबारों की इबारत याद आती थी कि उसकी रिकार्ड तोड़ विजय निश्चित है पर एक एक वोट का खटका उसको लगा हुआ था ..जैसे ही वोटरों का पहला जत्था निबट के बाहर निकला उसने अपने कार्यकर्ताओं को एक साथ जाकर वोट डालने का हुकुम दिया।
" रूफ , तुम सबसे पहले वोट डालने जाओ" उसने फरमान सुनाया।
रूफ की तो जैसे जान ही निकल गयी ,पर उसने पल भर में ही खुद को संभाल लिया जिस से किसी को खटका न हो।सुबह से ही वह अपने मन की बेचैनी को किसी न किसी ढंग से मुखौटे के अन्दर ढाँपने की जुगत कर रहा था और इसी क्रम में वह ज्यादा से ज्यादा अ सहज होता जा रहा था।फरमान सुनते ही वह बूथ की ओर तीर की गति से चलने को मुड़ा , दरवाजे पर खड़े पुलिस वाले ने नकली बैलट पेपर के लिए उसकी तलाशी ली .. चुनाव अफसर ने दो बक्सों में से किसी एक बक्से में बैलट पेपर डालने की हिदायत उसको दी।अबतक उसकी तीर जैसी गति पर ब्रेक लग गया था .. अन्दर पहुँचते ही अलग अलग बक्सों पर उसको कार और आदमी  के सिर  की फोटो दिखाई दी। अपनी जेब से उसने बैलट पेपर निकाला और उसको गौर से देखा .. भले ही यहाँ उसको देखने के लिए मारकुस खड़ा नहीं था पर उसके मन में एकदम से विश्वासघात की बात आ गयी, मारकुस को वह धोखा कैसे दे सकता था? उसने मन ही मन में ठान ली कि जिस से उसने विरोध में वोट देने के पैसे लिए हैं उसको नोटों की गड्डी वापस करके आएगा ..पर उसको भली प्रकार मालूम था कि अब इस घड़ी पैसे वापस करना संभव नहीं था ..उसने तो जादू टोने  वाले पत्थर के सामने वादा भी किया था ...लाल लाल नोट अब भी उसकी जेब में मौजूद थे जिनपर काम में लगे हुए किसानों की फोटो छपी थी।
रूफ इस उधेड़ बुन में था कि तभी उसको पुलिस वाले की आवाज सुनाई पड़ी ...वह अफसर से दरयाफ्त कर रहा था कि जो बाँदा अन्दर गया था वह इतने देर से बाहर क्यों नहीं निकला?
रूफ ने यह सुना तो बिजली की गति से एक विचार उसके मन में कौंधा ..उसने हाथ में पकडे बैलट पेपर की तहें कीं ..देखते देखते उसने उसको बीच से आधा आधा फाड़ डाला और सामने रखे दोनों बक्सों के अन्दर एक एक टुकड़ा डाल दिया। हाँ ,यह सावधानी उसने जरूर बरती कि उपरी हिस्सा पहले मादुका के बक्से में डाला ..यह बुदबुदाते हुए कि " मैं मादुका को वोट डालता हूँ।"  
वहाँ तैनात कर्मियों ने उसकी ऊँगली पर आसानी से न छूटने वाली स्याही लगा दी जिस से दुबारा वह वोट न आ सके .. रूफ तीर की गति से कमरे से बाहर निकल गया जिस तेजी के साथ वोट डालने बूथ के अन्दर दाखिल हुआ था।
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                             प्रस्तुति : यादवेन्द्र