Tuesday, July 5, 2022

चैत की ऋतु गाने वाली हुड़क्या

मोहन मुक्त की कविताओं को पढ़ना, एक जिरह से गुजरना है। जिरह करती हुई, ये ऐसी कविताएं हैं जो मजबूर करती हैं कि इन कविताओं को पढ़ते हुए हमें कविता के उस पाठ से मुक्‍त होकर इन्‍हें पढ़ना चाहिए जिसका फलक बताता है कि स्‍पेश क्रियेट करती अभिव्‍यक्ति ही कविता के दायरा बनाती है। स्‍पेश को सीमित कर देने के लिए नहीं बल्कि एक बड़ी आबादी के लिए सीमित कर दिये गये स्‍पेश की जिरह को सामने लाती इन कविताओं से गुजरना एक युवा रचनाकार के भीतर की बेचैनियों का खुलासा है। ऐसा खुलासा जिसमें वर्तमान की विसंगतियों के विश्‍लेषण के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है।

खुद भी अफसोस ही जाहिर कर सकता हूं कि अपने आस-पास की इस आवाज को अचानक से सुनना हुआ। अफसोस इस बात का भी हमारा आस-पास ऐसी आवाज को सुनाने के लिए अवसर मुमकिन करा पाने से बचता रहा है। वरना क्‍यों जी ऐसा होता कि जिस कवि ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को बाद में हिंदी में दलित साहित्‍य का प्रणेता माना गया, उनकी पहली कविता पुस्तक ''सदियों का संताप'' की कविताओं के चयन करते हुए और पुस्तिका का रूप देते हुए मैं ही नहीं, भाई ओमप्रकाश वाल्‍मीकि भी दलित रचनाओं की संज्ञा से विभूषित नहीं कर पाये।

आभारी हूं कथाकार बटरोही जी का जिनकी एक टिप्‍पणी से कवि का नाम जाना और खोज कर फिर जिसकी कविताओं को पढ़ने का अवसर जुटाया।

मोहन मुक्‍त की कविताओं में पहाड़ का वह चेहरा आकार ले रहा है जिसे हर वक्‍त के 'ऐ गुया, ऐ कुता' वाले प्रेम के झूठ से सने काका, बोडा वाली संज्ञाये जन समाज में व्‍याप्‍त विसंगतियों को छुपा लेना चाहती रही हैं। यह खुशी की बात है कि जल्‍द ही इस कवि की कविताओं को एक जिल्‍द में देखना संभव होने जा रहा है। भविष्‍य के इस कवि की कुछ कविताओं को यहां देते हुए यह ब्‍लॉग अपनी विषय सामाग्री को समृद्ध कर रहा है।

 वि.गौ.  

 

कवि मोहन मुक्‍त का परिचय:

मध्य हिमालय के पिथौरागढ़ ज़िले में गंगोलीहाट के निवासी और रहवासी यह कवि पिछले 13 साल से पत्र पत्रिकाओं में वैचारिक लेखन करता आ रहा है।

 'हिमालय दलित है ' पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.


 

फूल


बगीचे नहीं मेरे पास

होने भी नहीं चाहिए

जंगल पर मेरा हक़ नहीं

होना भी नहीं चाहिए

मैं फूल खरीद सकता हूँ

लेकिन वो तो बुके होगा फूल नहीं

मेरी प्यारी....

सच बात तो ये है

कि मुझे फूल तोड़ना पसंद नहीं

मैं तुम्हें किताब नहीं दूंगा

जिसके बीच सूखते फूल रखे हों

वो किताब है इस दुनिया की सबसे दुःखी जगह 

उस बंद किताब के भीतर

कागज़ और फूल दोनों गले मिलकर

अपने अपने पेड़ को याद करते हैं

रोते हैं...

और सारी लिपियाँ हो जाती हैं अस्पष्ट

दुःख की नदी में बहकर नहीं

सुख के घोड़े पर सवार नहीं 

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे पास

बिना किसी माध्यम के 

आदिम .... बेनक़ाब... ज़ाहिर और स्पष्ट

सुनो मेरी प्यारी...

मैं फूल नहीं भेजूंगा 

मैं ख़ुद आऊंगा

ख़ुशबू की तरह... 


मेरा पहाड़ ?????

 

मुंडा कोल

गोंड नाग

बौद्ध द्रविड़

या हडप्पन बाद के

जो कोई भी थे मेरे पुरखे

उन्होंने कभी नहीं कहा ....'मेरा पहाड़'

कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं

अगर कहा भी हो

तो कैसे जानें 

उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई

जो कुछ बच गया 

उनकी भाषा का 

वो गाली बन गया

भाषाविद कहते हैं

कि 'डूम' शब्द आर्य भाषा का नहीं है 

खशो ने बनाया 'खशदेश'

उन्होंने जरूर कहा ....'मेरा पहाड़'

गुप्तों के अधीन कत्यूरियों ने  कहा....'मेरा पहाड़'

आर्यों ने कहा गंगा मेरी तो..... 'मेरा पहाड़

नीलगिरी पर  कब्ज़ा छोड़े बिना 

विंध्य को लांघकर 

सारी बुद्ध प्रतिमाओं को

शिव बनाकर

शंकराचार्य ने कहा .....'मेरा पहाड़'

मैदानी चन्दो ने कत्यूरियों को कहा खदेड़कर अब ...

.....'मेरा पहाड़'

नेपाली गोरखाओं ने चंदों से छीनकर कर कहा गरजते हुए

.......'मेरा पहाड़'

काली के इस तरफ़ ना आना 

सुगौली में अंग्रेज ने धमकाकर कहा गोरखों से.... 'मेरा पहाड़'

मल्ल पंवार कहते रहे ......'मेरा पहाड़'

गंगोली मड़कोटी राजा ने भी कहा... 'मेरा पहाड़ 

राजा का राजपुरोहित 

उप्रेती भी कहता रहा... 'मेरा पहाड़'

कहा जाता है कि उसने मार दिया था राजा 

उसकी जगह बैठाए

गुमानी के मराठी पुरखे भी बोले ...'मेरा पहाड़'

नेपाल के ज्योतिष 

जिन्हें राजा ने दी 

पोखरी की जागीर 

वो कहने लगे.... 'मेरा पहाड़

महाराष्ट्र से आये डबराल ने तो 

अपना नाम ही रखा हिमाल के डाबर गांव पर 

और कहा .......'मेरा पहाड़'

थानेश्वर कुरुक्षेत्र से आये 

जनार्दन शर्मा के वंशज 

मंदिर में पाठ करने के चलते कहलाये पाठक

वो सगर्व और साधिकार कहते हैं ...'मेरा पहाड़'

जो भी कहता है 'मेरा पहाड़'

वो प्यार नहीं करता 

वो जताता है दावा 

जीती गई 

लूटी गई 

छीनी गयी

कब्जाई गयी 

और बांटी गयी 

ज़मीनों पर 

जागीरों पर

बर्फ जंगल पानी और बुग्याल 

किसी के हो कैसे सकते हैं भला 

सारे कवि जो मुग्ध हैं पहाड़ों के सौंदर्य पर 

जो पहाड़ों को ऊंचाई और मजबूती का रूपक बताते हैं 

वो बेईमान हैं 

वो शिकार में मारे गए बाघ की लाश पर 

उसकी ताक़त का बखान कर

दरअसल गा रहे हैं हत्यारे की प्रशस्ति

सारे राजा

सारे विजेता

सारे हत्यारे 

सारे लुटेरे

सारे ज्योतिष

सारे पुरोहित 

सारे गुमानी

सारे धर्माधिकारी 

और सब के सब कवि एक साथ भी कहें अगर ...

.....'मेरा पहाड़'

तो भी मैं नहीं कहूंगा

मैं नहीं कहूंगा ....'मेरा पहाड़

मैं कह ही नहीं सकता कभी....'मेरा पहाड़'

दो वजहों के चलते

एक तो ...'मेरा पहाड़' ...ये भाषा नही मेरी

और ज़्यादा मज़बूत वज़ह 

मैं ही पहाड़ हूँ...................


जड़ों की ओर

 

लौटो जड़ों की ओर 

जब वे कहते हैं

तो आप लौट पड़ते हैं 

घर की ओर

रहवास की ओर

जमीन की ओर

भाषा की ओर 

संस्कृति धर्म सभ्यता की ओर

गांवो की ओर

कबीलों की ओर

और आखिरकार 

आप सिमट कर हो जाते हैं 

इंसानद्रोही 

जीवद्रोही 

चैतन्यद्रोही 

पदार्थद्रोही

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं आपको समेटता नहीं

मैं कहता हूँ लौटो इतिहास की ओर

लेकिन पीछे नहीं

नीचे नहीं

आगे और ऊपर

आपका और मेरा साझा अतीत आकाश में है

आपकी और मेरी जड़ें एक हैं

और वो जमीन में नहीं

अंतरिक्ष में हैं

हम दोनों की जड़ें चेतन में नहीं जड़ में हैं

हम दोनों की जड़ें बिग बैंग में हैं 

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो उसका मतलब है लौटो 'जड़'की ओर

जो एक है...केवल एक

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं उस जगह की बात करता हूँ

जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं

क्योंकि उनकी भी एक ही जड़ है

जैसे आपकी और मेरी

जैसे जड़ की और चेतन की

सबकी एक ही जड़ होती है

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं इसी जड़ की बात करता हूँ

मैं पदार्थ की बात करता हूँ 


भू कानून 

 

किसने मांगा भू क़ानून 

 

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए भू कानून  

 

नौले पोखर ताल या सब्ज़ा

किसका पानी किसका कब्ज़ा 

 

डाने काने गाड़ गधेरे

किसके सेरे किसने घेरे 

 

कौन बाहरी कौन प्रवासी 

कौन यहाँ का मूल निवासी

 

किसके जंगल किसकी नदियां

कैद में बीती किसकी सदियां

 

चंद पंवार मल्ल कत्यूरी

कहो कहानी पूरी पूरी

 

कौन था पहला कब्ज़ाधारी

किसकी मारी हिस्सेदारी

 

किसकी लाठी कौन था गुंडा

खश आर्यन कोल या मुंडा

 

क्या आपने पीछे झांका

यहाँ पड़ा था भीषण डाका

 

लोग कटे थे लूट हुई थी

दान बंटा था छूट हुई थी

 

बुद्ध हुआ था कंकर कंकर

दक्षिण से आया था शंकर

 

धर्माधिकारी बना चौथानी

 घुसपैठी बन गया गुमानी 

 

चौथानी की सबने मानी

खसिया बामण राजा रानी

 

तभी बना था भू कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

 

जल जंगल जमीन या सब्ज़ा

तब से अब तक किसका कब्ज़ा

 

छ्यौड छ्यौड़ियाँ ओड़ लुहार

लुटते  पिटते करें  गुहार

 

कब तक ऐसा जुलम चलेगा

कभी तो ये भी गुमां ढलेगा

 

खेत रास्ते नदियां सेरे

जंगल छोटे बड़े घनेरे

तेरे मेरे सबके डेरे

जिस जिस ने रखे हैं घेरे

 

पहले उनको करो बेदख़ल

ऊंच नीच को कर दो समतल

 

बिसरा देंगे पिछला किस्सा

सबको दे दो सबका हिस्सा

 

यही है असली भू  कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए ये कानून

टिहरी सोर या देहरादून

 

हम चाहते ये क़ानून 

असली वाला भू क़ानून 

टिहरी सोर या देहरादून 

हमें चाहिए ये क़ानून

 

जिसका पहाड़

उसी का  नून

जो भेड़ चराये

उसी का ऊन

मुंडा कोलो का जो ख़ून

उसके लिये हो भू  क़ानून

उसके लिये जो भू क़ानून

सबके लिये वो भू क़ानून 

 

कब तक टालोगे क़ानून

फूट पड़ेगा कभी जूनून

दिल्ली तक जब बात उठेगी

कहाँ छुपेगा देहरादून

 

जल्द बनाओ वो कानून

असली वाला भू कानून

मुंडा कोलों का जो ख़ून

उसे चाहिए भू कानून

 

टिहरी सोर या देहरादून

असली वाला भू क़ानून....


होली और माँ

 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैं बचपन में

ऐसी ही दोपहरों में होली गाती इन साड़ियों के बीच

 अपनी माँ को ढूँढा करता था 

मैं बच्चा था सचमुच 

मुझे पता नहीं था कि उन औरतों में मेरी माँ हो ही नहीं सकती थी 

वहाँ माहौल बुरा नहीं था 

गुड़ और सौंफ मुझे भी दिया जाता था 

देने वाली कभी झिड़कती नहीं थी 

वो मुस्कुराती थी 

गुलाल वाले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देखते ही बनती थी 

हालांकि  उसके और मेरे हाथों के बीच बना रहे  कुछ  फ़ासला

वो ख़ास ध्यान रखती थी

ऊंचाई से देने पर कुछ सौंफ गिर जाती थी नीचे 

ऊंचाई से दी गई चीजें अक्सर गिर ही जाती हैं 

मुस्कराहट और फासला 

रंग और बदरंग 

गुड़ और सौंफ 

ये कॉम्बिनेशन मुझे आज भी समझ नहीं आये 

खैर मेरी माँ को वहाँ नहीं मिलना था 

वो मुझे वहाँ कभी नहीं मिली 

मेरी माँ ही नहीं वहाँ  मुझे मेरी अपनी कोई नहीं मिली 

ना चाची ना भाभी ना ताई ना बुआ ना बहनें 

मेरी ज़िन्दगी की सब औरतें उन फाग वाली दोपहरों में भी जंगल से घास और लकड़ियां ढो रही होती थीं 

मेरी ज़िन्दगी की औरतों के उत्सव अलग थे 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैंने पूरी ज़िन्दगी अपनी माँ को इस साड़ी में नहीं देखा 

उसके अपने कारण होंगे 

लेकिन मेरी माँ

मेरी एक और माँ को जला देने के उत्सव में 

कभी शामिल नहीं हुई.


काला बामण

एक 

शिल्पकार  जजमान खुश  है  बहुत  

आज  घर  पर  हो  रही  है सत्यनारायण  की  कथा  

काला  बामण कर  रहा  है कथापाठ और अनुवाद  

दोनों  कहानी  का  मर्म  समझने  की  करते  हैं  कोशिश

कहानी  में  अपनी  सही  जगह तय  करने  की  कोशिश

दोनो  होते  हैं  नाकाम  

एक  नजर  देखते  हैं  एक  दूसरे  की  ओर  

काला बामण बजा देता है सफेद  शंख जोर  से  ..

 

दो

कथा  के बाद  मैने  पूछा  काले  बामण से  

ये सत्यनारायण  तो  ब्लैक मेलिंग  है बड़ा 

हाथ  ना  जोडो  तो  डूबी  समझोनाव  

काला  बामण हंसा  जोर  से बोला 

''पूरा  धन्धा  ही  टिका  है  दरअसल ब्लैकमेलिंग  पर  ''

उसने  इतनी  सहजता से  ये कहा  कि  यकीन हुआ मुझे 

काले  बामण का  फिलहाल  तो नही  है वर्चस्व  कोई 

जिसके  टूट जाने  का  उसको डर  सताता  हो .

 

तीन                 

रामनामी ओढ़े रहता है 

करता है शिखा धारण 

साफ़ सुथरा रोज़ नहाता 

मुख पर भी है तेज 

काला बामण दशहरा द्वार पत्र चिपकाता है

ओड़ के घर पर 

ओड़ हाथ तो जोड़ता है पर उसमें लोच नहीं है 

काला बामण सबकी कुशल क्षेम पूछता हुआ

गुजरता है क़स्बे से

कोई उसे गुरुज्यू या पंड़ज्यू नहीं कहता 

लोग उसे हरदा या किड़दा ही कहते हैं 

'गोरे बामण 'को देखते ही वो बदल लेता है रास्ता 

मेहतर के सामने...

वो कुछ गोरा सा हो जाता है


चार

काले  बामण और  चैत  की  ऋतु  गाने  वाली  हुड़क्या 

औरत में  क्या  कोई  अंतर  होता  है  ?

हाँ  अंतर  तो  है  

स्त्री और पुरुष  का  पहला  शाश्वत  अंतर  

और  भी  बातें  हैं  कई  अलग  करने  वाली  

हुड़क्या  औरत  सभी  घरों  में  जाती  है  

काला  बामण जाता  है 

बस  शिल्पकार  के  घर  पर 

हुड़क्या औरत   जमीन  पर  बैठती  है  

दहलीज के  बाहर  

काला बामण घर के भीतर आता  है 

आसन सजाता है  

काले  बामण को  मिलता है 

सम्मान सत्कार और  दक्षिणा  

हुड़क्या औरत  पाती  है 

मडुवा ,भांग  के  बीज  और   बीडी का बंडल  

इतना  अंतर  होते  हुए  भी

इन  दोनो  में  एक  रिश्ता  है  

दोनों  माँ  बेटे  हैं  

एक  ही  घर  में  रहते  हैं .


Friday, July 1, 2022

द्वंदात्मकता ही वैज्ञानिकता है

    

अवैज्ञानिकता के कारण चारों ओर फैली सामाजिक अफरातफरी, राजनैतिकअराजकता, व्‍यवहारिक झूठ, अंधविश्‍वास, हिंसकता, आत्‍ममुग्‍धता, अहंकार, लोभ-लालच आदि सेहर वक्‍ त बेचैन रहने वाले एवं ऐसी गडबडों को ठिकाने लगाने के लिए जिद्द की हद तक बहस मुबाहिसों में उलझे रहने को उतारू भाई गजेन्‍द्र बहुगुणा ने पिछले कुछ समय से यह तय किया है कि वैज्ञानिक समझदारी केेप्रसार केे लिए अब वे कुछ गम्‍भीरता से काम करेंगे। इसी समझ के साथ पिछले दिनों उन्‍होंने कुछ मित्रों को जुटाकर कुछ जरूरी बातें शेयर करने का प्रयास किया था। वे बातें कुछ व्‍यवस्थित तरह से समाज के बीच जायें, इधर वे उसी की तैयारी में जुटे हैं। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए ही उन्‍होंने एक छोटी सी टिप्‍पणी मुझे शेयर की थी। उनकी अनुमति से वह टिप्‍पणी इस ब्‍लाग के पाठकों के साथ शेयर है। 



गजेन्‍द्र बहुगुणा साहित्‍य,इतिहास, राजनीति एवं विज्ञान के अध्‍येता हैं। पेट्रोलिय इंस्‍टीटयूट में वरिष्‍ठ तकनीकी अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे हैं। खेतीबाड़ी एवं बागबानी में इनका दिल रमता है।  

वि.गौ.



गजेन्‍द्र बहुगुणा

vigyan-विज्ञान सत्य का वास्तविक रहस्योद्घाटन करता ही जा रहा है ! विज्ञान पूर्वाग्रह, leaning, preconceived idea से परे observe किए आंकड़ो के आधार पर निष्कर्ष निकलता है ! जहां datapoint या प्रयोग या नमूने  के आंकड़े  नहीं होते ! वहाँ उपलभ्द जानकारी के आधार पर निष्कर्ष निकले जाते हैं ! ब्रह्माण्ड-Universe, जीवन का जन्म कैसे हुआ ?? इस पर बहुत से आंकड़े उपलभ्द नही हैं ! इसीलिए विज्ञान ज्ञात जानकारी के आधार पर prediction, निष्कर्ष निकालता है ! 

सबसे बड़ी बात विज्ञान मे विश्वास रखने वाले कठमुल्ले या fundamentalist नहीं होते ! वे observe किये गये तथ्यों के आधार पर अपने विचार बदलने को तैयार रहते हैं !  आधुनिक विज्ञान के स्तम्भ चार्ल्स डार्विन, आइज़ेक न्यूटन हों या एल्बर्ट आइन्स्टाइन सभी ईश्वर को किसी प्रकार, किसी रूप से मानते थे ! और कई सालों तक अपने शोध को जनता के बीच लाने मे हिचकिचाते रहे ! चार्ल्स डार्विन की पत्नि ईश्वर की सत्ता मे अंधभक्ति जैसा घनघोर विश्वास करती थी ! जब डार्विन ने पाया कि उनका शोध ईश्वर कि ईक्षा के विरुद्ध प्राकृतिक चुनाव कि ओर ले जा रहा है ! तो कई सालों तक उन्होने अपनी रिसर्च को छापा नहीं, यह सोचकर कि घर मे क्लेश हो जाएगा  ! पर जब उनके दूसरे साथियों, जूनियर शोधकर्ताओं ने वह बात सार्वजनिक करना प्रारम्भ कर दिया तो डार्विन को अपनी  " नयी प्रजातियों द्वारा प्राकृतिक चुनाव " वाली रिसर्च प्रकाशित करनी पड़ी ! और विश्व को पता चला कि नयी प्रजातियाँ कैसे पैदा हो जाती हैं ! इसी प्रकार अल्बर्ट आइन्सटाइन भी ब्रह्मांड के चार बलों -जिनसे दुनिया टिकी और चलती है-स्ट्रॉंग न्यूक्लियर फोर्स, वीक न्यूक्लियर फोर्स, एलेक्ट्रो -मेग्नेटिक फोर्स और गुरुत्वाकर्षण-gravitational Force को एकीकृत करके एकएकीकृत समीकरण बनाना चाहते थे , तो बार-बार उसमे ऐक constant डालते रहे ! और फेल हो गये ! Einstein सपने मे भी सोच नहीं पाये कि ब्रह्माण्ड मे कुछ भी स्थिर नहीं है ! हर कण-कण गतिशील और चलाएमान है ! सम्पूर्ण ब्रह्मांड फैल रहा है ! इसके गृह, ऐक दूसरे से दूर भागते जा रहे हैं ! आइन्सटाइन कहते थे ! God doesn't play dice ! यानि ईश्वर पासे नहीं खेलता .... और यह अस्थिर नहीं हो सकता ! इस तरह से आइन्सटाइन विश्व-ब्रह्मांड  को जोड़कर चलाने वाले बलों को ऐक करके नया समीकरण नहीं दे पाये ! कुछ हद तक इस काम को आगे बढ़ाने के लिए  1979 में पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ. अब्दुस सलाम को फिजिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया क्योंकि पार्टिकल फिजिक्स में उनके बेहतरीन काम की वजह से ही ‘हिग्स बोसॉन’ की खोज सम्भव हुई, जिसे ‘गॉड्स पार्टिकल’ कहा जाता है। नोबेल पुरुस्कार विजेता आइन्सटाइन गलत साबित हुवे !  उसके बाद स्टीफन हव्किंग जैसे वैज्ञानिक ने तो कहा कि ब्रह्मांड के जन्म के लिए किसी ईश्वर की जरूरत ही नहीं है ! अपनी पुस्तक मे हाकिंग ने इन बातों का जिक्र किया है ! चर्च ने गैलीलियो के साथ हुए दुर्व्यवहार के माफी भी मांगी है ! पर भारत के किसी धार्मिक परंपरा के मत-मन्दिर परम्परा ने आजतक चरवाक या अनीश्वरवादियों पर हौवे जुल्म के लिए कोई माफी नहीं मांगी ! कार्ल मार्क्स ने जिस dailectic  materialism principle द्वंदात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ! सभी वैज्ञानिक उस सिधान्त का अनुसरण करते हैं ! इसीलिए वैज्ञानिक मूलतः 
वामपंथी ही होते हैं ! वे नए निष्कर्षों को स्वीकार करने मे कठमुल्लपन नहीं दिखाते ! द्वंदात्मक भौतिकवाद नए तथ्यों को अपने पुराने निष्कर्ष मे जोड़ता जाता है !  हर बार   " Thesis + Anti Thesis = Synthesis " के आधार पर नए प्रतिवादन जुडते जाते हैं और नए  प्रतिपादन स्वीकार कर लिए जाते हैं ! इसीलिए विज्ञान दिशा भी दे रहा है ! और विजेता भी है ! विज्ञान ही भविष्य भी तय करेगा ! कठमुल्ले कहीं भी हों, उनका भविष्य अंधकारमय है ! जनता कभी न कभी उनको नकार ही देगी !

Monday, June 27, 2022

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते

   

दुख अपनी संरचना में जितना मजबूत होता है,प्रेम की छत जीवन की  दीवारों को उतना ही लचीला बना देने को उकसाती हैं। निर्मिति की प्रौद्योगिकी का यह वस्‍तु सत्‍य इल्‍म की इबारत होने से पहले अनुभव के जोर की परख का परिणाम होना चाहता है। कविताओं में सुख और प्रेम को पर्यायवाची की तरह संयोजित करने के आग्रह बहुत आम दिखते हैं। लेकिन सपना भट्ट की कविताओं में यह संयोजन संकोच के तार से स्‍वाभिमान की एडियों को बांधे हुए रहता है।  

प्रेम के बारे में प्रिय कथाकार राजेन्द्र दानी कहते हैं,’’ प्रेम नहीं कहना चाहिए , प्यार कहना चाहिए । प्रेम कहने से अभिजात महसूस होता है । प्यार ही सर्वांगीण है और सार्वभौमिक है । यह अभी भी विद्यमान है और भरोसा है कि रहेगा । किसी दार्शनिक ने कहा था कि आपकी हर हरकत में "सेक्स" है । अब इसका स्थानापन्न प्यार हो सकता है प्रेम नहीं । खुशहाली प्यार में निहित है ।

देह से मुक्त हुए बगैर, प्रेम एक भुलावा ही है। देह के बंधन जीवन की आपाधापी से निपटने नहीं देते, दुख के बादलों से घेरने लगते हैं। कुछ दिखाई नहीं देता। जीवन में आड़े आ रहे दुखों से लड़ने में प्रेम एक ताकत की तरह है। सपना भट्ट की कविताओं से गुजरते यह और भी साफ दिखाई देता हैं। सामाजिक महौल में बहुत करीब मौजूद बिम्‍बों का जैसा इस्‍तेमाल सपना भट्ट अपनी कविताओं में करती हैं, उसके कारण ही अपने समकालीनों में उनकी कवितायें अलग से पहचानी जाती हैं।    

प्रस्‍तुत हैं सपना भट्ट की कुछ चुनिंदा कवितायें 

वि.गौ.
परिचय:
सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
 शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं  और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं। 
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि। 
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
बोधि प्रकाशन से पहला कविता संग्रह 'चुप्पियों में आलाप' 2022 में प्रकाशित ।

1

 जबकि इतनी 

चिंताएं हैं इस विपुला पृथ्वी पर 

 

और 

मुझ पर अपनी 

उम्र से अधिक सालों का ही कर्ज़ नहीं

अपने छोटे बच्चों और अपनी ही 

रुग्ण देह से असीम काम लेने का भी निर्दयी कर्ज़ है

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ...

 

जबकि दुनिया में सुलग रही है

अन्याय की राजनैतिक सामाजिक आग 

तिस पर जब एक भीषण महामारी का 

प्रकोप सह रही है यह दुनिया

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ

 

कितनी निर्लज्ज हूँ

मेरे अस्तित्व से समाज को क्या लाभ !

 

फिर सोचती हूँ 

पैरों से लिपटी माटी भी

ढल जाती है भांडे बर्तनों,

मूर्तियों खिलौनों और दीपदानो में एक दिन

 

बेढंगे अटपटे पत्थर भी 

एक दिन सहारा देते हैं 

किसी मकान की गहरी नींव में पैठकर

काम आते हैं 

ऊखल जांदर सिलबट्टों और घराटों में ढलकर

 

लोहा लोखर 

से चाहें तो गढ़ सकते हैं 

चिमटे सरिए हथियार  

या कुदाल गेंती फावड़े जैसे औजार ही 

 

ईंधन के बाद बची राख से भी 

मले और घिसे जा सकते हैं बासन

बनाई जा सकती है भभूत माथे और देह के लिए

 

और तो और 

कांटा भी कभी काम आता है कांटा निकालने के 

विष भी औषधि के काम आता है । 

 

इतना व्यर्थ नहीं होता

दुनिया मे किसी का भी अस्तित्व

जितना तुमने मेरा मान लिया है  ....

 

2

मेरी देह इन दिनों 

अक्सर अपने पते पर नहीं मिलती

 

क्षितिज पर 

अहर्निश टँगे सुरंगे दृश्यों 

और मतवाले चैत का अखूट सौंदर्य मुझे पुकारता है 

 

मैं घाटी के 

निचाट रस्तों पर भटकती रहती हूँ

 

मेरी तरसी हुई दीठ

केवल पहाड़ बादल नदी 

और बांज देवदारों के लकदक पेड़ ही नहीं देखती

मौल्यार के धानी वैभव का आह्लाद भी देखती है 

 

चाय की छोटी धूसर दुकानों पर 

सस्ते बिस्कुट और मैगी के पैकेट ही नहीं देखती

थके हारे लोगों की तृप्ति भी देखती है 

 

इधर मैं एक दृश्य में

ठिठक कर प्रवेश करती हूँ 

चौरंगीनाथ के मुख्य द्वार पर 

चार हमउम्र बूढ़ों की चमत्कृत करती फसक सुनती हूँ

देर तक मुस्कुराती हूँ 

 

किसी कुल देवी की 

फिरकियों चर्खियों और 

फ्योंली बुरांश से सजी वह डोली देखती हूँ 

जिसके शीर्ष पर

मनौती वाली चिट्ठियां बंधी हैं 

 

क्षमता से अधिक

घास लकड़ियाँ ढोती स्त्रियों का 

मुझ देसवाली को देख 

खिस्स करके हँस देने का कौतुकपूर्ण उल्लास देखती हूँ

उन मृदुल मीठे ठहाकों पर न्योछावर होती हूँ। 

 

चैत में मायके आई 

बेटियों के अछोर सुख की तरह 

एक निश्चिंतता मेरी पूरी आत्मा में पसर जाती है 

 

फेफड़ों में ख़ूब गहरी सांस भरकर

मैं इस कविता के सहारे 

धीरे धीरे अपने एकांत में लौट आती हूँ।

 

 3


देखती हूँ 

कि यह बैरन शीत 

इन दिनों मेरे कमरे में ही आकर रहने लगी है ।

 

माघ का क्रूर तुहिन 

दुःख की खपरैलों से टपकता हुआ

सीधे मन की उन्मन भीत पर झिरता है 

 

ज्वर का भीषण ताप 

खोखली देह की ठठरी सुलगाता है 

प्राणों की धौंकनी को

श्वास का ईंधन पूरा नहीं पड़ता 

 

आंखें अश्रु ही बनाती है 

याद का बीज याद ही उपजाता है 

 

यह धड़ 

बेवजह एक उदास चेहरा उठाए फिरता है 

 

प्रीत का सुख 

इतना बेढब और विविक्त है 

कि अब अपने पर्यायों में भी नहीं मिलता

 

दुःख इतना सुघड़ और सलीकेदार 

कि अंधेरे में हाथ बढ़ाने पर भी

अपनी नियत जगह पर रखा मिलता है

 

फूलों के नाम याद रह जाते हैं

उनका सौरभ भूल जाती हूँ

तुम्हे बिसराने की जुगत में

तुम्हे और अधिक याद करने लगती हूँ

 

स्मृतियों के विलोम में 

बरसों पीछे लौटती हूँ 

वहां भी विस्मृति नहीं मिलती 

 

किसी और के लिए लिखी हुई

तुम्हारी विह्वल और रुआँसी कविताएँ मिलती हैं 


4

धैर्य के चूकने से निमिष भर पहले 

शिराओं में घुले 

दुःख की लयात्मकता टूट जानी चाहिए ।

 

जिस तरह

पुराने बूढ़े दुःख की जगह 

कोई मीठा तरुण दुःख 

कातर अनुभूतियों को कांधा दे देता है,

 

ठीक उसी तरह,

एक निश्चित अंतराल पर

स्मृतियों की निर्मम चोट मंथर हो कर

फूलमार में बदल जानी चाहिए।

 

चुम्बन का अन्वेषण किसी अधीर प्रेमी ने नहीं

अकेलेपन से घबराए 

ईश्वर ने किया होगा ।

 

उधर स्वप्न में तुम मुझे चूमते हो 

इधर मंगसीर का तीव्र ज्वर

निर्विघ्न इस देह की सांकलें बजाता है। 

एक ठंडी आंच आठो पहर आत्मा के भीतर सुलगती है। 

 

तुम्हारा नाम पुकारती हूँ 

एक आदिम प्यास से जिव्हा जलती रहती है।

 

इस दरिद्र तलहटी में 

नशे से बेसुध होने के लिए भांग भी हैमदिरा भी 

मैं मगर हर बार अपनी प्यास 

तुम्हारे कंठ में भूल आती हूँ।

 

तुम ठहरे कवि 

कविता में आलोचना का पक्ष देखते हो ।

प्रेमी होते तो बूझते

कि प्रेम से च्युत कवित्व आख़िर किस प्रयोजन का।

 

मैं कोई कवि ववि नहीं,

नियम और बंधन 

मुझमें असम्भव अचरज भरते हैं। 

 

मेरे पास तुम तक अपने दुःख पहुंचाने का

अन्यंत्र कोई मार्ग होता

तो कोई कविता कदापि सम्भव न होती।

 

रात के इस पहर 

देह इस देह के ऋण से मुक्त हो भी जाए 

स्मृतियों का एक अर्धनष्ट टुकड़ा 

मन को मुक्त नहीं होने देता। 

 

भीड़ में ठहाके लगाता 

मेरा नीरव एकांत मेरे भीतर बेतरह रोता है ।

 

तुम जो मांगते हो मुझसे

मुठ्ठी भर मेरा जूठा संताप

तुम्हे कैसे दे दूं! 

 

यह प्रेम का दुःख 

मेरी बरसों की पूँजी है जिसे

अबोध कामनाओं को 

रेहन पर रख कर खरीदा है मैंने।

 

5

 भीतर कहीं एक कोमल आश्वस्ति उमगती है 

कि सुख लौट आएंगे । 

 

उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है 

कि आख़िर कब ?

 

जो कहीं नहीं रमता वह मन है,

जो प्रेम के इस असाध्य रोग 

से भी नहीं छूटती वह देह ।

 

अतृप्त रह गयी इच्छाएं 

आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह

यहां वहां बिखरी पड़ी हैं,

जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं 

हृदय में शूल की तरह चुभता है । 

 

अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श

सात तालों में छिपा कर रखती हूँ। 

मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते

तुम्हे संकोच घेर लेता है।

 

हमारा संताप इतना एक सा है 

ज्यों कोई जुड़वां सहोदर।

 

जानते हो न 

बहुत मीठी और नम चीजों को 

अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,

मेरे मन को भी धीरे धीरे

खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत। 

 

प्रेम करती हूं सो भी

इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ ।

जबकि जानती हूं कि 

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते। 

 

किसी को दे सको तो अभय देना 

मुझ जैसे मूढमति के लिए

क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं। 

 

पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से 

घिरा है यह जीवन। 

 

सौ तरह की रिक्तताओं में 

अन्यंत्र एक स्वर उभरता है। 

देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं 

उड़ जाएगा हंस अकेला।

 

मैं एकाएक अपने कानों में 

तुम्हारी पुकार पहनकर 

हर ऋतु से नङ्गे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ। 

 

कैसी बैरन घड़ी है 

किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता। 

 

तुम कहाँ हो 

मुझे तुम्हारे पास आना है

 

6

इधर इस बूढ़े पहाड़ पर 

पावस ढुलता है मेरी पीठ पर धारासार

उधर विस्मृति के देवता

मधुर स्मृतियों के सब चिह्न धो देते हैं

 

कपास से भी हल्का तुम्हारा चुम्बन

मेरे माथे पर दीपक सा जलता तो है 

आलोक नहीं देता

 

तुम्हारे घुटने की तिकोनी अस्थि पर

टिके सामर्थ्य का सूर्य

पच्छिम में ऐसे डूबता है 

कि कोमल आश्वस्ति का एक समूचा शहर

पृथ्वी के नक़्शे से भटक जाता है 

 

प्रणय के मुरझाए फूलों को

निःश्वास भरकर देखती हूँ 

 

तुम्हारे पीछे जाती हूँ 

तो संकोच का एक तारा

मेरे स्वाभिमान की एड़ियों में गड़ता है 

 

स्पर्श और गन्ध के अलंकार 

स्मृतियों में ठिठकते हैं 

मेरे एकांत की मिट्टी में 

तुम्हारी छाया छूने की कामनाएँ उगती हैं 

 

अप्रासंगिक हो चुके उदाहरणों में 

विवेक और करुणा नहीं

बस शोक बचता है 

 

अकूत धैर्य बरतकर भी

बार-बार आत्मा के घावों की 

गिनती भूल जाती हूँ। 

 

देह का नमक 

नए आँसू ईजाद करता है 

क्षण भर का संवाद 

अपरिमित चुप्पियाँ बनाता हैं

 

तुम्हे भूलने की 

कोई तरक़ीब काम नहीं आती

 

तुम ज़रा देर को चश्मा क्या हटाते हो

मेरी बिसरी कामनाओं को 

तुम्हारी आंखों की भाषा

फिर फिर कंठस्थ हो जाती है

 

7

आत्मालाप का उन्मादी अभ्यास ही है

इस घाटी के माइनस तीन डिग्री पर

ज्वर में मेरा बड़बड़ाना 

 

अधकच्चे स्वप्न में देखती हूँ 

इत्र में भीगी एक नीली अंतर्देशीय चिठ्ठी

अपने नाम वाली

 

सोचती हूँ 

इस वन सरीखे गांव में ही होना था स्थानांतरण

जहाँ डाकखाना तो क्या 

कोई नीली लाल डाकपेटी भी नहीं आसपास

 

जहां डाकिए 

साइकिल की घण्टी बजाते हुए न गुज़रते हों

ऐसे अभागे स्थान पर रह कर क्या लाभ

 

आत्मा 'प्रियजैसे मृदुल 

सम्बोधनों को तरसती हो जहां 

ऐसी अप्रिय जगह हरगिज़ न रहना चाहिए

 

कैसा अटपटा है यह गांव

जहां पुरखे तो स्वप्न में 

पाप पुण्य की कहकर कान खाते हैं

आदमी आदमी से मगर

दिल की बात नहीं कह सकता

 

वैचारिकी और विमर्शों के लिए

अखबार पहुंच ही जाते हैं तीसरे दिन मुझ तक

कोई चिठ्ठी मगर नहीं आती 

 

यह लोभ आख़िरी इच्छा की तरह

मर्मान्तक संताप बनकर

मन के अभावों में पैठ गया है

 

ज्वर में देह का 

आवां धधकता रहता है

मन चिठ्ठी की आहट पोसता रहता है

 

अचेतन मन स्वप्न में 

तुम्हारी चिठ्ठियों के आखर चुगता है 

 

न चिठ्ठी आती है

न ज्वर उतरता है ....

 

8

निद्रा

दयार्द्र ईश्वर का

सबसे करुण उपहार है 

जो मैं बेध्यानी में कहीं रख कर भूल गयी हूँ । 

 

पुरानी स्मृतियाँ 

आंखों को इस तरह काटती हैं

ज्यों काटता हो कोई नया जूता सुकोमल पांव को

 

मैं रात भर जागती हूँ

पलकों के क्षितिज पर 

नींद का रुपहला तारा टिमटिमाता रहता है

 

किसी दिन 

अचानक चौंकाती है यह बात 

कि उसकी सूरत भूल रही हूं 

 

लाज से गड़ती हूँ कि

अब स्वप्न में उसे नहीं

स्वयं ही को सुख से सोते हुए देखना चाहती हूँ 

 

रोज़ रात गुलाबी पर्ची पर

लिखती हूँ अपनी एकशब्दीय कामना 'नींद'

सुबह तक उसका रंग उड़ कर सफ़ेद हो जाता है 

 

अपने खुरदुरे स्वर से 

अपनी बंजर पलकों पर 

बेग़म अख़्तर की ठुमरी का मरहम रखती हूं

"कोयलिया मत कर पुकार

करेजवा लागे कटार"

 

जब पूरा गांव 

निस्तब्धता में खो जाता है 

मैं उनींदी आत्मा लिए

मन ही मन बुदबुदाती हूँ एक निर्दोष प्रार्थना 

 

कि हे ईश्वर ! 

मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले

मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो !